केनोपनिषत् || Kenopanishat Part 3-4
सामवेदीय ‘तलवकार ब्राह्मण’ के नौवें अध्याय में इस उपनिषद का उल्लेख है। यह एक महत्त्वपूर्ण उपनिषद है। इसमें ‘केन’ (किसके द्वारा) का विवेचन होने से इसे ‘केनोपनिषद’ अथवा केनोपनिषत् अथवा केनोपनिषद् अथवा केन उपनिषद कहा गया है। इसके चार खण्ड हैं। प्रथम और द्वितीय खण्ड में गुरु-शिष्य की संवाद-परम्परा द्वारा उस (केन) प्रेरक सत्ता की विशेषताओं, उसकी गूढ़ अनुभूतियों आदि पर प्रकाश डाला गया है।
तीसरे और चौथे खण्ड में देवताओं में अभिमान तथा उसके मान-मर्दन के लिए ‘यज्ञ-रूप’ में ब्राह्मी-चेतना के प्रकट होने का उपाख्यान है। अन्त में उमा देवी द्वारा प्रकट होकर देवों के लिए ‘ब्रह्मतत्त्व’ का उल्लेख किया गया है तथा ब्रह्म की उपासना का ढंग समझाया गया है। मनुष्य को ‘श्रेय’ मार्ग की ओर प्रेरित करना, इस उपनिषद का लक्ष्य हैं।
केनोपनिषद् तृतीय और चतुर्थ खण्ड
केनोपनिषद् तृतीय खण्ड
॥ केनोपनिषद् ॥
तृतीय खण्ड
ब्रह्म ह देवेभ्यो विजिग्ये तस्य ह ब्रह्मणो
विजये देवा अमहीयन्त ॥ १॥
ब्रह्म ने ही देवताओं के लिए विजय प्राप्त की । ब्रह्म की उस विजय से देवताओं को अहंकार हो गया । वे समझने लगे कि यह हमारी ही विजय है । हमारी ही महिमा है ॥१॥
त ऐक्षन्तास्माकमेवायं विजयोऽस्माकमेवायं महिमेति ।
तद्धैषां विजज्ञौ तेभ्यो ह प्रादुर्बभूव तन्न व्यजानत
किमिदं यक्षमिति ॥ २॥
यह जानकर वह (ब्रह्म) उनके सामने प्रादुर्भूत हुआ । और वे (देवता) उसको न जान सके कि ‘यह यक्ष कौन है’ ॥२॥
तेऽग्निमब्रुवञ्जातवेद एतद्विजानीहि
किमिदं यक्षमिति तथेति ॥ ३॥
तब उन्होंने (देवों ने) अग्नि से कहा कि, ‘हे जातवेद ! इसे जानो कि यह यक्ष कौन है’ । अग्नि ने कहा – ‘बहुत अच्छा’ ॥३॥
तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीत्यग्निर्वा
अहमस्मीत्यब्रवीज्जातवेदा वा अहमस्मीति ॥ ४॥
अग्नि यक्ष के समीप गया । उसने अग्नि से पूछा – ‘तू कौन है’ ? अग्नि ने कहा – ‘मैं अग्नि हूँ, मैं ही जातवेदा हूँ’ ॥४॥
तस्मिंस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदग्ं सर्वं
दहेयं यदिदं पृथिव्यामिति ॥ ५॥
‘ऐसे तुझ अग्नि में क्या सामर्थ्य है ?’ अग्नि ने कहा – ‘इस पृथ्वी में जो कुछ भी है उसे जलाकर भस्म कर सकता हूँ’ ॥५॥
तस्मै तृणं निदधावेतद्दहेति ।
तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाक दग्धुं स तत एव
निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥ ६॥
तब यक्ष ने एक तिनका रखकर कहा कि ‘इसे जला’ । अपनी सारी शक्ति लगाकर भी उस तिनके को जलाने में समर्थ न होकर वह लौट गया । वह उस यक्ष को जानने में समर्थ न हो सका ॥६॥
अथ वायुमब्रुवन्वायवेतद्विजानीहि
किमेतद्यक्षमिति तथेति ॥ ७॥
तब उन्होंने ( देवताओं ने) वायु से कहा – ‘हे वायु ! इसे जानो कि यह यक्ष कौन है’ । वायु ने कहा – ‘बहुत अच्छा’ ॥७॥
तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीति वायुर्वा
अहमस्मीत्यब्रवीन्मातरिश्वा वा अहमस्मीति ॥ ८॥
वायु यक्ष के समीप गया । उसने वायु से पूछा – ‘तू कौन है’ । वायु ने कहा – ‘मैं वायु हूँ, मैं ही मातरिश्वा हूँ’ ॥८॥
तस्मिँस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदँ
सर्वमाददीय यदिदं पृथिव्यामिति ॥ ९॥
‘ऐसे तुझ वायु में क्या सामर्थ्य है’ ? वायु ने कहा – ‘इस पृथ्वी में जो कुछ भी है उसे ग्रहण कर सकता हूँ’ ॥९॥
तस्मै तृणं निदधावेतदादत्स्वेति
तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाकादातुं स तत एव
निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥ १०॥
तब यक्ष ने एक तिनका रखकर कहा कि ‘इसे ग्रहण कर’ । अपनी सारी शक्ति लगाकर भी उस तिनके को ग्रहण करने में समर्थ न होकर वह लौट गया । वह उस यक्ष को जानने में समर्थ न हो सका ॥१०॥
अथेन्द्रमब्रुवन्मघवन्नेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति
तदभ्यद्रवत्तस्मात्तिरोदधे ॥ ११॥
तब उन्होंने (देवताओं ने) इन्द्र से कहा – ‘हे मघवन् ! इसे जानो कि यह यक्ष कौन है’ । इन्द्र ने कहा – ‘बहुत अच्छा’ । वह यक्ष के समीप गया । उसके सामने यक्ष अन्तर्धान हो गया ॥११॥
स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमाँ
हैमवतीं ताँहोवाच किमेतद्यक्षमिति ॥ १२॥
वह इन्द्र उसी आकाश में अतिशय शोभायुक्त स्त्री, हेमवती उमा के पास आ पहुँचा, और उनसे पूछा कि ‘यह यक्ष कौन था’ ॥१२॥
॥ इति केनोपनिषदि तृतीयः खण्डः ॥
केनोपनिषद अथवा केनोपनिषत् अथवा केनोपनिषद् अथवा केन उपनिषद
केनोपनिषद् चतुर्थ खण्ड
॥ केनोपनिषद् ॥
चतुर्थ खण्ड
सा ब्रह्मेति होवाच ब्रह्मणो वा एतद्विजये महीयध्वमिति
ततो हैव विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥ १॥
उसने स्पष्ट कहा – ‘ब्रह्म है’ । ‘उस ब्रह्म की ही विजय में तुम इस प्रकार महिमान्वित हुए हो’ । तब से ही इन्द्र ने यह जाना कि ‘यह ब्रह्म है’ ॥१॥
तस्माद्वा एते देवा अतितरामिवान्यान्देवान्यदग्निर्वायुरिन्द्रस्ते
ह्येनन्नेदिष्ठं पस्पर्शुस्ते ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥ २॥
इस प्रकार ये देव – जो कि अग्नि, वायु और इन्द्र हैं, अन्य देवों से श्रेष्ठ हुए । उन्होंने ही इस ब्रह्म का समीपस्थ स्पर्श किया । उन्होंने ही सबसे पहले जाना कि ‘यह ब्रह्म है’ ॥२॥
तस्माद्वा इन्द्रोऽतितरामिवान्यान्देवान्स
ह्येनन्नेदिष्ठं पस्पर्श स ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥ ३॥
इसी प्रकार इन्द्र अन्य सभी देवों से अति श्रेष्ठ हुआ । उसने ही इस ब्रह्म का सबसे समीपस्थ स्पर्श किया । उसने ही सबसे पहले जाना कि ‘यह ब्रह्म है’ ॥३॥
तस्यैष आदेशो यदेतद्विद्युतो व्यद्युतदा३
इतीन् न्यमीमिषदा३ इत्यधिदैवतम् ॥ ४॥
उस ब्रह्म का यही आदेश है । जो कि विद्युत के चमकने जैसा है । नेत्रों के झपकने सा है । यही उसका अधिदैवत रूप है ॥४॥
अथाध्यात्मं यद्देतद्गच्छतीव च मनोऽनेन
चैतदुपस्मरत्यभीक्ष्णँ सङ्कल्पः ॥ ५॥
अब आध्यात्मिक रूप । वह मन ही है । जो उसकी ओर जाता है । निरन्तर स्मरण करता है । संकल्प करता है ॥५॥
तद्ध तद्वनं नाम तद्वनमित्युपासितव्यं स य एतदेवं वेदाभि
हैनग्ं सर्वाणि भूतानि संवाञ्छन्ति ॥ ६॥
वह यह बृह्म ही वन (वन्दनीय) है । वन नाम से ही उसकी उपासना करनी चाहिए । जो भी उसे इस प्रकार जान लेता है, समस्त भूतों का वह प्रिय हो जाता है ॥६॥
उपनिषदं भो ब्रूहीत्युक्ता त उपनिषद्ब्राह्मीं वाव त
उपनिषदमब्रूमेति ॥ ७॥
हे गुरु ! उपनिषद का उपदेश कीजिये । इस प्रकार कहने पर तुझसे उपनिषद कह दी । यह निश्चय ही ब्रह्मविषयक उपनिषद है ॥७॥
तसै तपो दमः कर्मेति प्रतिष्ठा वेदाः सर्वाङ्गानि
सत्यमायतनम् ॥ ८॥
तप, दम एवं कर्म ही उसकी प्रतिष्ठा हैं । वेद उसके सम्पूर्ण अंग हैं और सत्य उसका आयतन है ॥८॥
यो वा एतामेवं वेदापहत्य पाप्मानमनन्ते स्वर्गे
लोके ज्येये प्रतितिष्ठति प्रतितिष्ठति ॥ ९॥
जो इस प्रकार इस उपनिषद को जान लेता है, वह पापों को नष्ट करके अनन्त और महान स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है, प्रतिष्ठित होता है ॥९॥
॥ इति केनोपनिषदि चतुर्थः खण्डः ॥
॥ केनोपनिषत् शान्तिपाठ ॥
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः
श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि ।
सर्वं ब्रह्मौपनिषदं
माऽहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म
निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु ।
तदात्मनि निरते य
उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इसका भावार्थ वज्रसूचिका उपनिषद् में देखें।
॥ इति केनोपनिषत् ॥