किरातार्जुनीयम् द्वितीय सर्गः || Kiratarjuniyam Dvitiya Sarg

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किरातार्जुनीयम् द्वितीय सर्ग – किरातार्जुनीयम्‌ के पहले सर्ग में द्रौपदी और दूसरे में भीम द्वारा युधिष्ठिर को दुर्योधन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा के लिए उकसाने और युधिष्ठिर द्वारा उसे अनीतिपूर्ण बताकर अस्वीकार कर देने के क्रम में भारवि ने राजनीति के दो छोरों के बीच के द्वंद्व पर बहुत सार्थक विमर्श प्रस्तुत किया है।

गुप्तचर के रूप में हस्तिनापुर भेजे गए एक वनेचर (वनवासी) से सूचना मिलती है कि दुर्योधन अपने सम्मिलित राज्य के सर्वांगीण विकास और सुदृढ़ीकरण में दत्तचित्त है, क्योंकि कपट-द्यूत से हस्तगत किए गए आधे राज्य के लिए उसे पांडवों से आशंका है। पांडवों को भी लगता है कि वनवास की अवधि समाप्त होने पर उनका आधा राज्य बिना युद्ध के वापस नहीं मिलेगा। द्रौपदी और भीम युधिष्ठिर को वनवास की अवधि समाप्त होने की प्रतीक्षा न कर दुर्योधन पर तुरंत आक्रमण के लिए उकसाते हैं, लेकिन आदर्शवादी, क्षमाशील युधिष्ठिर व्यवहार की मर्यादा लाँघने को तैयार नहीं।

किरातार्जुनीयम् महाकाव्यम् भारविकृतम्

किरातार्जुनीयम् द्वितीय सर्ग

किरातार्जुनीये द्वितीयः सर्गः
किरातार्जुनीयम् सर्ग २

विहितां प्रियया मनःप्रियां अथ निश्चित्य गिरं गरीयसीम् ।

उपपत्तिमदूर्जिताश्रयं नृपं ऊचे वचनं वृकोदरः ।। २.१ ।।

अर्थ: द्रौपदी के कथन के अनन्तर भीमसेन प्रियतमा द्रौपदी द्वारा कही गयी मन को प्रिय लगने वाली वाणी को अर्थ-गौरव से संयुक्त मानकर राजा युधिष्ठिर से युक्तियुक्त एवं गंभीर अर्थों से युक्त वचन (इस प्रकार) बोले ।

टिप्पणी: द्रौपदी की उत्तेजक बातों से भीम मन ही मन प्रसन्न हुए थे, और उनमें उन्हें अर्थ की गंभीरता भी मालूम पड़ी थी । अतः उसी का अनुमोदन करने के लिए वह तर्कसंगत एवं अर्थ-गौरव से युक्त वाणी में आगे स्वयं युधिष्ठिर को समझाने का प्रयत्न करते हैं ।

पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।

यदवोचत वीक्ष्य मानिनी परितः स्नेहमयेन चक्षुषा ।

अपि वागधिपस्य दुर्वचं वचनं तद्विदधीत विस्मयं ।। २.२ ।।

अर्थ: क्षत्रिय कुलोचित स्वाभिमान से भरी द्रौपदी ने स्नेह से पूर्ण नेत्रों से (ज्ञान नेत्रों से) चारों ओर देखकर जो बातें (अभी) कहीं हैं, बृहस्पति के लिए भी कठिनाई से कहने योग्य उन बातों से सब को विस्मय होगा । अथवा कठिनाई से भी न कहने योग्य उन बातों से बृहस्पति को भी आश्चर्य होगा ।

टिप्पणी: भीमसेन के कथन का तात्पर्य यह है कि द्रौपदी ने जो कुछ कहा है वह यद्यपि स्त्रीजन सुलभ शालीनता के विरुद्ध होने के कारण विस्मयजनक है । तथापि उसमें बृहस्पति को भी आश्चर्यचकित करने वाली बुद्धि की बातें हैं, उन्हें आपको अङ्गीकार करना ही उचित है ।

वाक्यार्थहेतुक काव्यलिंग अलङ्कार ।

विषमोऽपि विगाह्यते नयः कृततीर्थः पयसां इवाशयः ।

स तु तत्र विशेषदुर्लभः सदुपन्यस्यति कृत्यवर्त्म यः ।। २.३ ।।

अर्थ: नीतिशास्त्र बड़ा ही दुरूह और गहन विषय है, फिर भी जलाशय की भान्ति अभ्यास आदि (सन्तरण आदि) करने से उसमें प्रवेश किया जा सकता है । किन्तु इस प्रसङ्ग से ऐसा व्यक्ति मिलना अत्यन्त दुर्लभ है, जो सन्धि विग्रह आदि कार्यों को (स्नानादि कार्यों को) देश काल की परिस्थिति के अनुसार (गड्ढा, पत्थर, ग्रह आदि की जानकारी) प्रस्तुत करता है ।

टिप्पणी: तात्पर्य यह है की नीतिशास्त्र बड़ा गम्भीर है । यह उस जलाशय के समान है जिसमें बन्धे हुए घाट के बिना प्रवेश करना बड़ा दुष्कर है । पता नहीं कहाँ उसमें गहरा गड्ढा है, कहाँ शिलाखण्ड है, कहाँ ग्राह बैठा है ? राजनीति में भी इसी तरह की गुत्थियां रहती हैं, उसमें धीरे धीरे प्रवेश के अभ्यास द्वारा ही गति की जा सकती है । जैसे कोई विरला ही सरोवर की भीतरी बातों को जानता है और स्नानार्थी को सब सूचनाएं देकर स्नान के लिए प्रस्तुत करता है, उसी प्रकार सन्धि-विग्रह आदि कार्यों को जाननेवाला कोई विरला ही होता है, जो समय समय पर उनके उपयोग की आवश्यकता समझाकर राजनीति सिखानेवालों दक्ष बनाता है । सभी लोग ऐसा नहीं कर सकते । द्रौपदी में वह सब गुण हैं, जो विस्मयजनक है किन्तु वह जो कुछ इस समय कह रही है, उसका हमें पालन करना चाहिए ।

परिणामसुखे गरीयसि व्यथकेऽस्मिन्वचसि क्षतौजसां ।

अतिवीर्यवतीव भेषजे बहुरल्पीयसि दृश्यते गुणः ।। २.४ ।।

अर्थ: परिणाम में लाभदायक और श्रेष्ठ किन्तु क्षीण शक्ति वालों (दुर्बल पाचनशक्ति वालों) के लिए भयङ्कर दुःखदायी, स्वल्प मात्रा में भी अत्यन्त पराक्रम देनेवाली औषधि की भान्ति द्रौपदी की (इस) वाणी में अत्यन्त गुण दिखाई पड़ रहे हैं ।

टिप्पणी: जिस प्रकार उत्तम औषधि की अल्प मात्रा में भी आरोग्य, बल, पोषण आदि अनेक गुण होते हैं, परिणाम लाभदायक होता है, किन्तु वही क्षीण पाचन शक्ति वालों के लिए भयङ्कर कष्टदायिनी होती है, उसी प्रकार द्रौपदी की यह वाणी भी यद्यपि संक्षिप्त है, किन्तु श्रेष्ठ है । इसका परिणाम उत्तम है और इसके अनुसार आचरण करने से निश्चय ही आपके ऐश्वर्य एवं पराक्रम की वृद्धि होगी । मुझे तो इसमें मानरक्षा, राज्यलक्ष्मी की पुनः प्राप्ति आदि अनेक गुण दिखाई पड़ रहे हैं ।

उपमा अलङ्कार।

इयं इष्टगुणाय रोचतां रुचिरार्था भवतेऽपि भारती ।

ननु वक्तृविशेषनिःस्पृहा गुणगृह्या वचने विपश्चितः ।। २.५ ।।

अर्थ: सुन्दर अर्थों से युक्त द्रौपदी की यह वाणी गुणग्राही आप के लिए भी रुचिकर होनी चाहिए । क्योंकि गुणों को ग्रहण करनेवाले विद्वान् लोग (किसी) वाणी में वक्ता की स्पृहा नहीं रखते ।

टिप्पणी: अर्थात गुणग्राही लोग किसी भी बात की अच्छे को तुरन्त स्वीकार कर लेते हैं, वे यह नहीं देखते कि उसका वक्ता कोई पुरुष है या स्त्री है ।

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।

चतसृष्वपि ते विवेकिनी नृप विद्यासु निरूढिं आगता ।

कथं एत्य मतिर्विपर्ययं करिणी पङ्कं इवावसीदति ।। २.६ ।।

अर्थ: हे राजन ! आन्वीक्षिकी आदि चारोंह विद्याओं में प्रसिद्धि को प्राप्त करनेवाली आपकी विवेकशील बुद्धि, दलदल में फांसी हुई हथिनी की भान्ति विपरीत अवश्था को प्राप्त करके क्यों विनष्ट हो रही है ?

टिप्पणी: अर्थात जैसे हथिनी दलदल में फंसकर विनष्ट हो जाती है उसी प्रकार चारों विद्याओं में निपुण आपकी बुद्धि आज की विपरीत परिस्थिति में फंसकर क्यों नष्ट हो रही है ?

उपमा अलङ्कार।

विधुरं किं अतः परं परैरवगीतां गमिते दशां इमां ।

अवसीदति यत्सुरैरपि त्वयि सम्भावितवृत्ति पौरुषं ।। २.७ ।।

अर्थ: शत्रुओं द्वारा आपके इस दयनीय अवस्था में पहुंचाए जाने पर, देवताओं द्वारा भी प्रशंसित आपका जो पुरुषार्थ नष्ट हो रहा है उससे बढ़कर कष्ट देने वाली दूसरी बात (भला) क्या होगी ?

टिप्पणी: अर्थात आपके जिस ऐश्वर्य एवं पराक्रम की प्रशंसा देवता लोग भी करते थे, वह नष्ट हो गया है, अतः इससे बढ़कर कष्ट की क्या बात होगी । शत्रुओं ने आपको ऐसी दुर्दशाजनक स्थिति में पहुँचा दिया है, इसका आपको बोध नहीं हो रहा है ।

काव्यलिङ्ग अथवा अर्थापत्ति अलङ्कार ।

द्विषतां उदयः सुमेधसा गुरुरस्वन्ततरः सुमर्षणः ।

न महानपि भूतिं इच्छता फलसम्पत्प्रवणः परिक्षयः ।। २.८ ।।

वियोगिनी छन्द

अर्थ: ऐश्वर्य की कामना करनेवाले व्यक्ति, क्षय-पर्यवसायी शत्रु की उन्नति को सह लेते हैं किन्तु अभ्युदयकारी शत्रु की वर्तमान कालिक अवनति की भी उपेक्षा नहीं करते ।

पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार

अचिरेण परस्य भूयसीं विपरीतां विगणय्य चात्मनः ।

क्षययुक्तिं उपेक्षते कृती कुरुते तत्प्रतिकारं अन्यथा ।। २.९ ।।

वियोगिनी छन्द

अर्थ: ऐश्वर्याभिलाषी चतुर व्यक्ति शत्रु के क्षीयमान अभ्युदय की तो उपेक्षा करते हैं किन्तु अभ्युदोन्मुख विपदग्रस्त शत्रु की वे कथमपि उपेक्षा नहीं करते ।

टिप्पणी: महाकवि भारवि का राजनैतिक तलस्पर्शी ज्ञान यहाँ सुस्पष्ट प्रतीत होता है । शत्रु की उपेक्षा कब करनी चाहिए और कब उसका प्रतिकार करना चाहिए इसका विवेचन, मनन करने योग्य है ।

पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार

राजनीति शास्त्र के विरुद्ध उपेक्षात्मक आचरण करने का फल अनिष्ट होता है यह बतलाते हुए महाकवि भारवि भीमसेन के द्वारा कहते हैं –

अनुपालयतां उदेष्यतीं प्रभुशक्तिं द्विषतां अनीहया ।

अपयान्त्यचिरान्महीभुजां जननिर्वादभयादिव श्रियः ।। २.१० ।।

वियोगिनी छन्द

अर्थ: जो पृथ्वीपति उत्साह के अभाव में शत्रुओं की बर्धिष्णु प्रभुशक्ति की उपेक्षा करते हैं, उनकी राज्यलक्ष्मी मानो जनापवाद (लोकनिन्दा) के भय से छोड़कर अन्यत्र अविलम्ब चली जाती है जैसे षण्ड की पत्नी षण्डपति को छोड़ कर चल देती है।

हेतुत्प्रेक्षालङ्कार

क्षययुक्तं अपि स्वभावजं दधतं धाम शिवं समृद्धये ।

प्रणमन्त्यनपायं उत्थितं प्रतिपच्चन्द्रं इव प्रजा नृपं ।। २.११ ।।

वियोगिनी छन्द

अर्थ: हे राजन ! जिस प्रकार परिक्षीण प्रतिपच्चन्द्र को बर्धिष्णु होने से लोग प्रणाम करते हैं उसी प्रकार परिस्थिति विशेष से जो राजा क्षीणबल हो गया हो किन्तु प्रजाकल्याणार्थ उत्साह-तेज से सम्पन्न हो उस राजा को भी लोग नतमस्तक होकर प्रणाम करते हैं, उसकी आज्ञा को शिरोधार्य करते हैं । उत्साह तेज-सम्पन्न राजा को जन-बल स्वतः ही प्राप्त रहता है अतः शत्रु का प्रतिकार करने में अपने को हीन बल न समझो !

टिप्पणी: बर्धिष्णु चन्द्र जिस प्रकार वंदनीय होता है उसी प्रकार उत्साह सम्पन्न राजा क्षीणवाल होने पर भी प्रजाजनों के द्वारा आदरणीय होता है । पूर्णचन्द्र क्षय-पर्यवसायी होने से सन्तोषजनक नहीं होता जितना बर्धिष्णु प्रतिपच्चन्द्र होता है । इस सुप्रसिद्ध उपमान के द्वारा राजा युधिष्ठिर को शत्रु का प्रतिकार करने हेतु उत्साह धारण करने के लिए भीमसेन प्रेरित करता है । प्रतिपच्चन्द्र क्षीणवत होने पर भी केवल बर्धिष्णु होने के कारण जैसे वंदनीय होता है उसी प्रकार राजा युधिष्ठिर सम्प्रति आप, क्षीणबल होने पर भी यदि लोक-कल्याणार्थ उत्साह धारण करोगे तो आप भी प्रजा के आदरणीय बन जाओगे । राजा दुर्योधन इस समय भले ही बल सम्पन्न हो किन्तु वह पूर्णचन्द्र कि तरह उत्साह सम्पन्न न होने से बर्धिष्णु नहीं है अतः प्रजा का समर्थन उसे प्राप्त नहीं है । उत्साह सम्पन्न राजा ही प्रजा को सर्वाधिक प्रिय होता है । यह गम्भीर भाव महाकवि भारवि ने बड़ी खूबी से यहाँ हृदयगम कराया है ।

प्रभवः खलु कोशदण्डयोः कृतपञ्चाङ्गविनिर्णयो नयः ।

स विधेयपदेषु दक्षतां नियतिं लोक इवानुरुध्यते ।। २.१२ ।।

वियोगिनी

अर्थ: सहायक, कार्य साधन के उपाय, देश और काल का विभाग तथा विपत्ति प्रतिकार, इन कार्य सिद्धि के पाँचों अंगों का सम्यक निर्णय करने वाली नीति, राजकोष और चतुरङ्गिणीसेना की उत्पादक होती है । यह नीति कर्त्तव्य-कर्म में नैपुण्य प्रदान करती है । जैसे कृषक वर्ग दैवानुसारी होता है उसी प्रकार प्रभु शक्ति भी उत्साह शक्ति का अनुसरण करती है । तात्पर्य यह है कि कार्य की सिद्धि में मुख्यतः उत्साह शक्ति ही कारण होती है ।

उपमा अलङ्कार

टिप्पणी:

-कामन्दकीय नीतिशास्त्र में कार्यसिद्धि के पांच अंग बताये गए हैं ।

-सभी कार्य प्रायः द्रव्य-साध्य होते हैं अथवा दण्डसाध्य होते हैं ।

-द्रव्य(कोश) और दण्डकी उत्पादक मन्त्रणा-नीति होती है । किन्तु नीति की सफलता उत्साह-मूलक है । उत्साह के साथ क्षिप्रकारिता (अदीर्घसूत्रता) का होना अत्यावश्यक है । अन्यथा ‘कालः पिबति तद्रसम्’

-कृषक गण नियति (दैव)वादी हो सकते हैं क्षात्रधर्मावलम्बी राजा तो नीति वादी होता है । नीति के माध्यम से कार्य सिद्धि के पञ्चाङ्गों का निश्चय कर, कार्यसिद्धि प्राप्त करने में नैपुण्य प्राप्त किया जाता है । नीति ही राजकोश और दण्ड (चतुरङ्गिनी सेना) की जननी है ।

– नीति का साफल्य उत्साह शक्ति पर ही सर्वथा निर्भर होता है ।

– नियतिवादी परतन्त्र होता है और नीति वादी स्वतन्त्र । राजनीति के गूढ़तम रहस्यों को उद्घाटित करने में महाकवि भारवि सिद्ध-हस्त हैं ।

अभिमानवतो मनस्विनः प्रियं उच्चैः पदं आरुरुक्षतः ।

विनिपातनिवर्तनक्षमं मतं आलम्बनं आत्मपौरुषं ।। २.१३ ।।

वियोगिनी

अर्थ: स्वाभिमान धारण करने वाले मनुष्य को अपने अभीष्ट उन्नत स्थान पर प्रतिष्ठित होते समय उसे अपने स्वयं के पुरुषार्थ (पराक्रम) का ही सहारा लेना पड़ता है । अभीस्ट स्थान की प्राप्ति में आने वाली विघ्न-बाधाओं का निवारण करने में समर्थ, अपने स्वयं के पराक्रम का ही सहारा उसे लेना पड़ता है । क्योंकि मनस्वी पुरुषों का एकमात्र आलम्बन उनका स्वयं का ही एकमात्र पुरुषार्थ होता है । मनस्वी पुरुष सदा स्वावलम्बी होते हैं ।

विपदोऽभिभवन्त्यविक्रमं रहयत्यापदुपेतं आयतिः ।

नियता लघुता निरायतेरगरीयान्न पदं नृपश्रियः ।। २.१४ ।।

वियोगिनी

अर्थ: विपत्तियां पराक्रम शून्य पुरुष पर ही आक्रमण करती हैं । विपदग्रस्त मनुष्य का भविष्य अन्धकारमय होता है । विपत्ति से घिरने पर उन्नति में बाधा उत्पन्न होती है । नष्ट गौरव पुरुष राज्यलक्ष्मी पाने का पात्र नहीं होता है । ये सभी दोष एकमात्र पौरुष का आश्रय करने से दूर हो जाते हैं ।

तदलं प्रतिपक्षं उन्नतेरवलम्ब्य व्यवसायवन्ध्यतां ।

निवसन्ति पराक्रमाश्रया न विषादेन समं समृद्धयः ।। २.१५ ।।

वियोगिनी

अर्थ: इसलिए उन्नति में बाधक होने वाली उद्योग शून्यता का (अनुत्साह का) आश्रय करना अनुचित है, क्योंकि सर्वप्रकार की समृद्धियाँ पराक्रमी एवं सतत उद्योगशील व्यक्ति को ही संवरण करती हैं । उत्साहरहित(आलसी) मनुष्य का समृद्धियाँ परित्याग करती हैं ।

टिप्पणी: अभ्युदयाकांक्षी पुरुष को सतत उद्योग प्रवण रहना चाहिए, इस बात को कवी ने बहुत ही रोचक ढंग से कहा है ।

अर्थान्तरन्यास तथा काव्यलिङ्ग अलङ्कार

अथ चेदवधिः प्रतीक्ष्यते कथं आविष्कृतजिह्मवृत्तिना ।

धृतराष्ट्रसुतेन सुत्यज्याश्चिरं आस्वाद्य नरेन्द्रसम्पदः ।। २.१६ ।।

अर्थ: अब यदि आप अवधि की प्रतीक्षा कर रहे हैं तो (यह सोचने की भूल है कि) जिसने अब तक अपने अनेक छाल-कपटपूर्ण कार्यों का पर्चे दिया है, वह धृतराष्ट्र का पुत्र दुर्योधन, चिरकाल तक राज्यश्री का सुख अनुभव करके उसे आसानी से कैसे छोड़ देगा ?

टिप्पणी: अर्थात जिस कुटिल दुर्योधन ने अधिकार होते हुए भी हमारे भाग को हड़प लिया है वह इतने दिनों तक उसका उपभोग करके हमारी वनवास कि अवधि बीतने के अनन्तर उसे सुख से लौटा देगा – ऐसा समझना भूल है । आप को इसी समय जो कुछ करना है, करना चाहिए ।

अर्थापत्ति अलङ्कार।

द्विषता विहितं त्वयाथवा यदि लब्धा पुनरात्मनः पदं ।

जननाथ तवानुजन्मनां कृतं आविष्कृतपौरुषैर्भुजैः ।। २.१७ ।।

वियोगिनी

अर्थ: अथवा हे राजन ! शत्रु दुर्योधन द्वारा लौटाए गए अपने राज्य सिंहासन को यदि आप पुनः प्राप्त कर लेंगे तब आपके छोटे भाइयों (अर्जुन आदि) की उन भुजाओं से फिर लाभ क्या होगा, जिनका पराक्रम अनेक बार प्रकट हो चूका है ।

टिप्पणी: शत्रु की कृपा द्वारा यदि आपको सिंहासन मिल भी जाता है तब हमारी भुजाओं का पराक्रम व्यर्थ ही रह जाएगा ।

अर्थापत्ति अथवा परिकर अलङ्कार

मदसिक्तमुखैर्मृगाधिपः करिभिर्वर्तयति स्वयं हतैः ।

लघयन्खलु तेजसा जगन्न महानिच्छति भूतिं अन्यतः ।। २.१८ ।।

वियोगिनी

अर्थ: सिंह अपने द्वारा मारे गए मुख भाग से मद चूने वाले हाथियों से ही अपनी जीविका निर्वाहित करता है । अपने तेज से संसार को पराजित करने वाला महान पुरुष किसी अन्य की सहायता से ऐश्वर्य की अभिलाषा नहीं किया करता ।

टिप्पणी: तेजस्वी पुरुष किसी दुसरे द्वारा की गई जीविका नहीं ग्रहण करते । ‘मदसिक्तमुखैः’ यह विशेषण मदोन्मत्त गजेन्द्र का विनाशक होने का सूचक है और ‘मृगाधिप’ पद का ग्रहण करने से राजाओं में सिंह सदृश तू (युधिष्ठिर) मदोन्मत्त गजरावत भीष्म-द्रोणादिक का विनाशकर राज्य को पुनः पा सकता है । इसका सूचक है ।

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

अभिमानधनस्य गत्वरैरसुभिः स्थास्नु यशश्चिचीषतः ।

अचिरांशुविलासचञ्चला ननु लक्ष्मीः फलं आनुषङ्गिकं ।। २.१९ ।।

वियोगिनी

अर्थ: अपनी जाति कुल और मर्यादा की रक्षा को ही अपना सर्वस्वा समझने वाले (पुरुष) अपने अस्थिर (नाशवान) प्राणो के द्वारा स्थिर यश की कामना करते हैं । इस प्रसङ्ग में (उन्हें) बिजली की चमक के सामान चञ्चला (क्षणिक) राज्यश्री (यदि प्राप्त हो जाती है तो वह) अनायास ही प्राप्त होने वाला फल है ।

टिप्पणी: महाकवि भारवि ने वास्तु विनिमय करते हुए किस बात का महत्व है इसे बहुत ही प्रभावी ढंग से निरूपित किया है । महाकवि कालिदास ने भी रघुवंश में इस विषय पर विवेचन किया है ‘एकान्त विध्वंसिषु मद्विधानां पिण्डेध्वनास्था खलु भौतिकेषु’ दोनों महाकवियों का वर्णन नैपुण्य प्रशंसनीय है । तात्पर्य यह कि मनस्वी पुरुष केवल यश के लिए अपने प्राण गँवाते हैं, धन के लिए नहीं । क्योंकि यश स्थिर है और लक्ष्मी बिजली की चमक के समान चञ्चला है । उन्हें लक्ष्मी की प्राप्ति भी होती है, किन्तु उनका उद्देश्य यह नहीं होता । उसकी प्राप्ति तो अनायास ही हो जाती है ।

परिवृत्ति अलङ्कार

ज्वलितं न हिरण्यरेतसं चयं आस्कन्दति भस्मनां जनः ।

अभिभूतिभयादसूनतः सुखं उज्झन्ति न धाम मानिनः ।। २.२० ।।

वियोगिनी

अर्थ: मनुष्य राख की ढेर को तो अपने पैरो आदि से कुचल देते हैं किन्तु जलती हुई आग को नहीं कुचलते । इसी कारण से मनस्वी लोग अपने प्राणो को तो सुख के साथ छोड़ देते हैं किन्तु अपनी तेजस्विता अथवा मान-मर्यादा को नहीं छोड़ते ।

टिप्पणी: मानहानिपूर्ण जीवन से अपनी तेजस्विता के साथ मर जाना ही अच्छा है ।

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।

*संस्कृत भाषा अखिल विश्व की भाषाओं में सर्वाधिक समृद्ध भाषा है । संस्कृत भाषा में अग्निवाचक ३४ शब्द हैं। ‘हिरण्यरेता’ यह भी अग्नि के अनेक नामों में से एक है ।

किमपेक्ष्य फलं पयोधरान्ध्वनतः प्रार्थयते मृगाधिपः ।

प्रकृतिः खलु सा महीयसः सहते नान्यसमुन्नतिं यया ।। २.२१ ।।

वियोगिनी

अर्थ: (भला) सिंह किस फल की आशा से गरजते हुए बादलों पर आक्रमण करता है । मनस्वी लोगों का यह स्वभाव ही है कि जिसके कारण से वे दूसरों(शत्रु) की अभ्युन्नति को सहन नहीं करते । शत्रु को आतङ्कित करने में किसी प्रयोजन की आवश्यकता ही नहीं होती है अतः हे राजन! आप चुप न बैठो, अपने पराक्रम से शत्रु का शीघ्र विध्वंस करो ।

टिप्पणी: अपने उत्कर्ष के इच्छुक मनस्वी लोग दूसरों कि वृद्धि या अभ्युन्नति को सहन भी नहीं कर सकते । मनस्वियों का यही पुरुषार्थ है कि वे दूसरों को पीड़ा पहुंचकर अपनी कीर्ति बढ़ायें ।

यहाँ ‘पयोधर’ पद का प्रयोग मेघ का ही द्योतक मानना चाहिए । सजल मेघ का गर्जन गंभीर होता है और वही सिंह के कोप को उद्दीप्त करने में समर्थ होता है ।

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

कुरु तन्मतिं एव विक्रमे नृप निर्धूय तमः प्रमादजं ।

ध्रुवं एतदवेहि विद्विषां त्वदनुत्साहहता विपत्तयः ।। २.२२ ।।

वियोगिनी

अर्थ: हे राजन युधिष्ठिर! इसलिए आप अपनी असावधानी से उत्पन्न मोह को दूर कर पुरुषार्थ में ही अपनी बुद्धि लगाइये । (दूसरा कोई उपाय नहीं है। ) शत्रुओं की विपत्तियां केवल आपके अनुत्साह के कारण से रुकी हुई हैं – यह निश्चय जानिये ।

टिप्पणी: अर्थात यदि आप तनिक भी पुरुषार्थ और उत्साह धारण कर लेंगे तो शत्रु विपत्तियों में निमग्न हो जाएंगे।

काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।

द्विरदानिव दिग्विभावितांश्चतुरस्तोयनिधीनिवायतः ।

प्रसहेत रणे तवानुजान्द्विषतां कः शतमन्युतेजसः ।। २.२३ ।।

वियोगिनी

अर्थ: हे राजन ! आपके हम चारों भाई दिग्गजों की तरह हैं । चारों समुद्र जैसे सर्वत्र चारों दिशाओं में प्रसिद्ध हैं । शत्रुओं के द्वारा सर्वथा अजेय हैं । रणभूमि में आते हुए इन्द्र के समान पराक्रमशाली आप के कनिष्ठ (चारों) भाइयों को शत्रुओं में से कौन सहन कर सकता है ?

टिप्पणी: अर्थात ऐसे परम पराक्रमशील एवं तेजस्वी भाइयों के रहते हुए आप किस बात की चिन्ता कर रहे हैं । आप को निःशंक होकर दुर्योधन से भिड़ जाना चाहिए ।

उपमा तथा अर्थापत्ति अलङ्कार

भीमसेन शुभाकांक्षा के बहाने परिणाम का कथन करते हुए कहता है कि –

ज्वलतस्तव जातवेदसः सततं वैरिकृतस्य चेतसि ।

विदधातु शमं शिवेतरा रिपुनारीनयनाम्बुसन्ततिः ।। २.२४ ।।

वियोगिनी

अर्थ: हे राजन युधिष्ठिर! आपके ह्रदय में शत्रु द्वारा निरन्तर प्रज्वलित क्रोधाग्नि की शान्ति शत्रुओं की विधवा स्त्रियों की आँखों से निरन्तर झरने वाली आंसुओं की झड़ी करें ।

(भीमसेन की कामना इस वचनावली से सुस्पष्ट है । वनवास के असहनीय कष्टों ने भीमसेन के मुख से मुखरिता प्राप्त की है । भीमसेन भी धीरोदात्त एवं गम्भीर स्वभाव का है किन्तु शत्रु कृत अपमान और असंख्य कष्टों से विवश होकर उसे ऐसा निर्णय लेकर कहने के लिए विवश होना पड़ा है । बड़े भाई की आज्ञा शिरोधार्य कर वनवास स्वीकार करने वाला भीमसेन जब ऐसा कह रहा है तब उसका कारण भी वैसा ही अवश्य होना चाहिए । )

टिप्पणी: यहाँ जल सिञ्चन के साथ शत्रुवध का सादृश्य गम्य है ।

उपमा अलङ्कार

भीम को अत्यधिक क्रुद्ध जानकर धर्मराज युधिष्ठिर उसको सांत्वना देते हैं ।

इति दर्शितविक्रियं सुतं मरुतः कोपपरीतमानसं ।

उपसान्त्वयितुं महीपतिर्द्विरदं दुष्टं इवोपचक्रमे ।। २.२५ ।।

वियोगिनी

अर्थ: जब राजा युधिष्ठिर ने भीमसेन में बढ़ा हुआ क्रोध उसके कठोर भाषण से जाना तो भीमसेन उन्हें बिगड़े हुए क्रोधोन्मत्त हाथी की तरह जान पड़ा और युधिष्ठिर ने समझ लिया कि यदि युक्ति से तथा सामोपचार से इसे सांत्वना न देने पर यह काबू से बाहर होकर हाथ से निकल जावेगा क्योंकि क्रोधोन्मत्त व्यक्ति में विचार-शक्ति नष्ट हो जाती है । अतः समजस राजा युधिष्ठिर ने भीमसेन के कठोर भाषण का उत्तर कठोर शब्दों से देना उचित न समझकर सौम्य शब्दों से ही समझाना आरम्भ किया । क्योंकि ठण्डा लोहा ही गरम लोहे को काट पाता है ।

टिप्पणी: यहाँ भीमसेन का नाम ग्रहण टाल कर उसे मरुतसुत (वायुपुत्र) कहने का तात्पर्य यह है कि वायु जिस प्रकार वात्या(आंधी) आदि रूपों में क्षण-क्षण में अपने रूप बदलती है । ‘पितुश्चरित्र पुत्र एवानुकुरुते’ इस नियम के अनुसार वृकोदर होने से (वायु संसर्गजन्य गुण-दोषों से तत्काल प्रभावित होता है उसी प्रकार द्रौपदी सान्निध्य से) वह भी कुपित हो गया है । यह अभिव्यञ्जित करने हेतु ‘मरुतसुतम्’ कहा गया है ।

राजा को अपने अप्रसन्न बन्धु-बान्धवों को मृदु वचनों के द्वारा बिगड़े हुए हाथी कि तरह अपने वश में करने का प्रयत्न को करना ही चाहिए – यह नीति कि बात है ।

पूर्णोपमा अलङ्कार

राजा युधिष्ठिर भीमसेन को प्रथम स्तुति के द्वारा प्रसन्न करने का प्रयास करते हुए कहते हैं –

अपवर्जितविप्लवे शुचय्हृदयग्राहिणि मङ्गलास्पदे ।

विमला तव विस्तरे गिरां मतिरादर्श इवाभिदृश्यते ।। २.२६ ।।

वियोगिनी

अर्थ: भीमसेन से युधिष्ठिर कहते हैं कि – जिस प्रकार निर्मल लौह आदि से विनिर्मित सुन्दर और माङ्गलिक दर्पण में प्रतिबिम्ब सुस्पष्ट दिखाई देता है, तद्वत पवित्र और निर्मल तुम्हारी वाणी में तुम्हारी निर्मल बुद्धि सुस्पष्ट दिखाई पड़ती है ।

टिप्पणी: वचन कि विशुद्धता में ही बुद्धि का वैशद्य भी दिखाई पड़ता है ।

उपमा अलङ्कार

स्फुटता न पदैरपाकृता न च न स्वीकृतं अर्थगौरवं ।

रचिता पृथगर्थता गिरां न च सामर्थ्यं अपोहितं क्वचिथ् ।। २.२७ ।।

वियोगिनी

अर्थ: हे भीमसेन तुम्हारे ! भाषण के सभी वाक्य अत्यन्त सुस्पष्ट हैं । उनमें अर्थगाम्भीर्य भी प्रचुर मात्रा में है । कहीं पर भी पुनरुक्ति दोष श्रवणगोचर नहीं हुआ ।

टिप्पणी: वाक्य में एकाधिक निषेधार्थक ‘न’ होने पर उसका अर्थ निषेध न होकर स्वीकार होता है । । यहाँ ‘पदै गिराम् अर्थ गौरव स्वीकृत न इति न’ इस वाक्य में ‘न’ दो बार प्रयुक्त हुआ है, अतः उसका अर्थ पदों के द्वारा वाणी का गौरव स्वीकार नहीं किया गया, ऐसा नहीं अपितु, स्वीकार किया गया है । केवल एक ‘न’ का प्रयोग होने पर उसका निषेध-परक ही अर्थ होता है । जैसाकि मनुस्मृति में मांसभक्षण, मद्यपान आदि का निषेध करते हुए ‘न मासभक्षणे दोष न च मद्ये, इस मनु वचन का अर्थ मास भक्षण और मद्यपान करने में दोष बताकर निषेध करने में ही है क्योंकि इसमें भी एकाधिक ‘न’ कार का प्रयोग हुआ है ।

मनुवचन का अर्थ मांसभक्षण में और मद्य पीने में दोष नहीं है ऐसा करना भूल है । अन्यथा अर्थ की संगती नहीं होगी ।

दीपक अलङ्कार

उपपत्तिरुदाहृता बलादनुमानेन न चागमः क्षतः ।

इदं ईदृगनीदृगाशयः प्रसभं वक्तुं उपक्रमेत कः ।। २.२८ ।।

वियोगिनी

अर्थ: (राजा युधिष्ठिर भीमसेन से कहते हैं) हे भीमसेन ! तुमने अपनी शक्ति के अनुरूप ही सशक्त तर्क अपने भाषण में प्रस्तुत किये हैं । उपस्थित किये गए तर्कों के द्वारा शास्त्रमत का खण्डन भी नहीं हुआ । अतः वे तर्क शास्त्र के अविरोधी हैं । अतः तुम्हारा कथन शास्त्र सम्मत ही है । तुम्हारे भाषण को क्षत्रियोचित न कहने का सामर्थ्य कौन रखता है ? कोई भी इसे क्षात्रधर्म विरुद्ध नहीं कह सकता है ।

टिप्पणी: यह श्लोक निन्दा-परक नहीं समझना चाहिए । युधिष्ठिर जैसे सरल ह्रदय एवं मातृवत्सल व्यक्ति का अभिप्राय अन्यथा नहीं हो सकता ।

अर्थापत्ति अलङ्कार

अवितृप्ततया तथापि मे हृदयं निर्णयं एव धावति ।

अवसाययितुं क्षमाः सुखं न विधेयेषु विशेषसम्पदः ।। २.२९ ।।

वियोगिनी

अर्थ: (यद्यपि तुमने सभी बातों का अच्छी तरह निर्णय कर दिया है) तथापि संशयग्रस्त होने के कारण मेरा ह्रदय अभी तक निर्णय का विचार ही कर रहा है । सन्धि-विग्रह आदि कर्तव्यों के निर्णय में, उनके भीतर आनेवाली विशेष सम्पत्तिया अनायास ही अपना स्वरुप प्रकट करने में समर्थ नहीं होती ।

टिप्पणी: मुख्य कार्य करने का निश्चय करने के पहले उस कार्य के भीतर आनेवाली छोटी-मोटी बातों का भी गहराई से विचार कर लेना चाहिए, क्योंकि वे सब सरलतापूर्वक समझ में नहीं आती ।

काव्यलिङ्ग अलङ्कार

विचारोत्तर कार्य करने के लाभ तथा अविवेक से किये जाने वाले कार्यों से होने वाली हानि को धर्मराज युधिष्ठिर भीमसेन को बतलाते हुए कहते हैं कि –

सहसा विदधीत न क्रियां अविवेकः परं आपदां पदं ।

वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयं एव सम्पदः ।। २.३० ।।

वियोगिनी

अर्थ: बिना सोचे-समझे कोई कार्य नहीं करना चाहिए । अविवेक (कार्याकार्य विचार शून्यता) अनेक आपत्तियों का कारण होता है । निश्चित रूप से सर्वविध सम्पत्तियाँ गुणवान विवेकी पुरुष का स्वयं वरन करती हैं । अर्थात यदि कोई बलात राज्यादि सम्पत्ति अपने वश में कर लेता है तो सम्पत्ति स्वयं उसका परित्याग कर देती है । सोच-समझकर कार्य करनेवाले पुरुष को ही सम्पत्ति अपना स्वामी बनाना पसन्द करती है । अन्य (अविमृष्यकारी) को नहीं चाहती है ।

टिप्पणी: तर्कशास्त्र में अन्वय-व्यतिरेक के द्वारा पुष्ट तर्क की प्रतिष्ठा है । महाकवि भारवि युधिष्ठिर के मुख से अब भीमसेन के द्वारा प्रस्तुत तर्कों का खण्डन करते हुए तर्कशास्त्रोक्त अन्वय व्यतिरेक की कसौटी पर अपने तर्कों को खरा सिद्ध करते हैं ।

अन्वय और व्यतिरेक की सुबोध परिभाषा इस प्रकार है – ‘तत् सत्वे तत् सत्ता – अन्वयः।’ ‘तद् असत्वे तद् असत्ता -व्यतिरेकः ।’

यहाँ विवेक के अभाव में परमापत् प्राप्ति है । वही सम्पत्ति की असत्ता (अभाव) है । यही व्यतिरेक का स्वरुप है ।

इस पद्य में पूर्वार्ध में वर्णित अर्थ को ही उत्तरार्ध में अन्वय के माध्यम से कहा गया है जैसे –

विमृष्यकारित्वम् = विवेकः तत् सत्वे सम्पदः सत्ता इत्यन्वयः । विमृष्यकारित्वम् का अर्थ विवेक है अर्थात विवेक (आगा पीछा खूब सोच समझकर कार्य करने की प्रवृत्ति) के सत्ता (आस्तित्व) होने पर सम्पाती की सत्ता होती है ।

तर्कशास्त्र में अन्वायव्याप्ति का उदाहरण –

“यत्र यत्र धूमः तत्र तत्र अग्निः अस्ति ।”

व्यतिरेक व्याप्ति की उदारहण –

“यत्र यत्र धूमः नास्ति तत्र तत्र अग्निः अपि नास्ति ।”

इसके अनुसार कह सकते हैं कि – “यत्र यत्र विमृष्यकारिता अस्ति तत्र तत्र सम्पत्तिः अस्ति ।” इत्यन्वयः ।

“यत्र यत्र च सम्पत्तिः नास्ति तत्र तत्र विवेकः (विमृष्यकारिता) आपि नास्ति ।” इति व्यतिरेकः ।

*इस पद्य के कारण भारवि को सवालाख सुवर्ण मुद्रा कि प्राप्ति हुई थी, ऐसी जनश्रुति है ।

क्या साहसिक को फल सिद्धि प्राप्त होती हुई दिखाई नहीं देती ? तो विवेक की क्या आवश्यकता है ? इस आशंका का समाधान करते हुए धर्मराज युधिष्ठिर भीमसेन से कहते हैं – अभिवर्षति योऽनुपालयन्विधिबीजानि विवेकवारिणा ।

स सदा फलशालिनीं क्रियां शरदं लोक इवाधितिष्ठति ।। २.३१ ।।

वियोगिनी

अर्थ: हे भीमसेन ! जो नीतिमान पुरुष स्व-कर्त्तव्य रूप कार्य विषयों को बीजतुल्य संरक्षणीय समझकर उचित देश-काल का विचार करने के पश्चात उचित समय में और उचित स्थान में बोकर विवेक रूप जल से उनको सींचता रहता है वह पुरुष ही शरद्काल सम्प्राप्त होने पर फल से सुशोभित सस्य सम्पत्ति को प्राप्त करता है । अन्य जन नहीं ।

साहसिक को होने वाली कार्यसिद्धि “काकतालीयन्याय” से यदा-कदा ही होती है किन्तु विवेकी पुरुष को होने वाली कार्य सिद्धि सुनिश्चित ही होती है ।

टिप्पणी: काकतालीय न्याय – किसी ताल वृक्ष पर बैठा हुआ कौआ उड़ा, उसके उड़ते ही वह तालवृक्ष किसी कारणान्तर से गिरने पर लोग कहते हैं कि कौवे ने ताल को गिरा दिया । यही काकतालीय न्याय है । वस्तुतः ताल के गिरने में कारण कौवा न होकर अन्य कोई कारण होता है । उसी प्रकार अविवेकी पुरुष कि कार्य सिद्धि भी काकतालीय न्याय जैसी ही होती है । उसे विश्वसनीय नहीं माननी चाहिए किन्तु विवेकी पुरुष की कार्य सिद्धि सुनिश्चित ही होती है ।

श्लेषमूलक अतिश्योक्ति, उपमा अलङ्कार

शुचि भूषयति श्रुतं वपुः प्रशमस्तस्य भवत्यलंक्रिया ।

प्रशमाभरणं पराक्रमः स नयापादितसिद्धिभूषणः ।। २.३२ ।।

वियोगिनी

अर्थ: हे भीमसेन ! गुरु परम्परा से सम्प्राप्त शास्त्र शुद्ध (शास्त्रानुमोदित) उपदेश के द्वारा शरीर की शोभा होती है । उस शास्त्रोपदेश की शोभा शांतिप्रियता है । शांतिप्रियता की शोभा यथा समय स्व-विक्रम प्रदर्शन है तथा नीति द्वारा उपार्जित विवेक से प्राप्त कार्य सिद्धि ही उस विक्रम(पराक्रम) की शोभा होती है ।

एकावली अलङ्कार

मतिभेदतमस्तिरोहिते गहने कृत्यविधौ विवेकिनां ।

सुकृतः परिशुद्ध आगमः कुरुते दीप इवार्थदर्शनं ।। २.३३ ।।

वियोगिनी

अर्थ: युधिष्ठिर कहते हैं – हे भीमसेन ! जैसे हवा से सुरक्षित दीपक की रौशनी (प्रकाश) अन्धकार में पड़ी हुई वस्तु को प्रकाशित करने में समर्थ होती है, उसी प्रकार सोच-समझकर कार्य करने वाले विवेकी पुरुष की वृद्धि भ्रम रूप अन्धकार(अज्ञान) से आच्छन्न(ढके हुए) गहन कार्यों के मार्गों का अच्छा(भली प्रकार से) बाध कराती है ।

टिप्पणी: जिस प्रकार अन्धेरे पथ को वायु आदि के विघ्नों से रहित दीपक आलोकित करता है उसी प्रकार से विवेकी पुरुष का शास्त्रज्ञान भी कर्तव्याकर्तव्य के मोह में पड़े व्यक्ति का पथ प्रदर्शन करता है ।

पूर्णोपमा अलङ्कार

स्पृहणीयगुणैर्महात्मभिश्चरिते वर्त्मनि यच्छतां मनः ।

विधिहेतुरहेतुरागसां विनिपातोऽपि समः समुन्नतेः ।। २.३४ ।।

वियोगिनी

अर्थ: प्रशंसनीय गुण सम्पन्न महापुरुषों के द्वारा आचरित मार्ग में मन लगाने वालों की कदाचित दैववश अवनति भी हो जावे तो वह अवनति पाप अथवा अपराधों के कारण नहीं होती । सत्पथानुयायी जनों की अवनति भी समुन्नति के तुल्य होती है ।

शिवं औपयिकं गरीयसीं फलनिष्पत्तिं अदूषितायतिं ।

विगणय्य नयन्ति पौरुषं विजितक्रोधरया जिगीषवः ।। २.३५ ।।

वियोगिनी

अर्थ: विजय की इच्छा करने वाले पुरुष अशुभ क्रोध के संवेग का दमन कर स्वप्रयोजन की सिद्धि और उसकी भावी स्थिरता का विचार आकरके वे अपने पुरुषार्थ(पराक्रम) को लोककल्याण के कार्य में प्रयुक्त करते हैं । ऐसा राजा युधिष्ठिर ने भीमसेन से कहा ।

अपनेयं उदेतुं इच्छता तिमिरं रोषमयं धिया पुरः ।

अविभिद्य निशाकृतं तमः प्रभया नांशुमताप्युदीयते ।। २.३६ ।।

वियोगिनी

अर्थ: राजा युधिष्ठिर भीमसेन से कहते हैं कि अभ्युदयेच्छु पुरुष को चाहिए कि वह सबसे पहले अपनी बुद्धि निर्मल करे, अज्ञान रूप तिमिर को अपनी बुद्धि से अलग करे । सूर्या भगवान् भी निशान्धकारका विनाश करके ही उदय को प्राप्त होते हैं । रात्रि जन्य तम का विनाश किये बिना सूर्य का भी उदय नहीं होता है ।

टिप्पणी: जब परम तेजस्वी भास्कर भी ऐसा करते हैं तब साधारण मनुष्य को तो ऐसा करना ही चाहिए ।

विशेष के द्वारा सामान्य का समर्थन होने से “अर्थान्तरन्यास” नामक अलङ्कार है ।

दुर्बल के लिए ऐसा हो सकता है लेकिन बलवान को तो क्रोध से ही कार्य सिद्धि होती है, इस आशंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि –

बलवानपि कोपजन्मनस्तमसो नाभिभवं रुणद्धि यः ।

क्षयपक्ष इवैन्दवीः कलाः सकला हन्ति स शक्तिसम्पदः ।। २.३७ ।।

वियोगिनी

अर्थ: राजा युधिष्ठिर भीमसेन से कहते हैं कि – बलसम्पन्न पुरुष भी क्रोध से उत्पन्न मोह रूप तम को रोकने में जब असमर्थ होता है तब कृष्णपक्षीय चन्द्रमा की तरह वह क्रमशः उत्तरोत्तर समस्त कला सम्पत्ति(तीनो शक्तियों से समन्वित सम्पत्ति) को खो बैठता है । क्रोधान्ध व्यक्ति क्रोधजनित मोह के आक्रमण को रोकने में असमर्थ होता है अतः सर्वप्रथम क्रोध का ही त्याग करना चाहिए । प्रभु-मन्त्र और उत्साह रूप शक्ति से रहित राजा स्वयं अपना अस्तित्व खो देता है ।

टिप्पणी: विशिस्ट समय पर ही सब कार्य होते हैं इसी हेतु से काल सबको कारण है । इसलिए कृष्णपक्ष(काल विशेष) कलाक्षय का कारण है । अन्धकार की वृद्धि कृष्णपक्ष में होती है इस कारण से ही कृष्णपक्ष का उल्लेख किया गया है । अन्धकार जो कृष्णपक्ष में वृद्धिमान होता है उसमें कारण है उसकी वृद्धि को न रोकना । अन्धकार को न रोकने से चन्द्रमा जैसे की भी शक्तिसम्पदा का विनाश हो जाता है, जैसे कृष्णपक्षीय चन्द्र तम की अभिवृद्धि को न रोकने के कारण कलाक्षय को प्राप्त होता है उसी प्रकार जो मनुष्य प्रभूत बल सम्पन्न होने पर भी क्रोधजन्य तम (अज्ञान) की वृद्धि को नहीं रोकता है वह भी अटूट शक्ति सम्पदा को गँवा बैठता है ।

*राज्यं नाम शक्तित्रयायत्तम् । – दशकुमारे

राज्य शक्ति के तीन तत्त्व – प्रभाव शक्ति, मन्त्र शक्ति तथा उत्साह शक्ति ।

त्रिसाधनाशक्तिरिवार्थ सञ्चयम् । – रघु. ३।१३

समवृत्तिरुपैति मार्दवं समये यश्च तनोति तिग्मतां ।

अधितिष्ठति लोकं ओजसा स विवस्वानिव मेदिनीपतिः ।। २.३८ ।।

वियोगिनी

अर्थ: जो समचित्तवृत्ति को धारण करने वाला राजा है, आवश्यकतानुसार समय-समय पर कोमल और कठोर वृत्ति को प्रकट करता रहता है वह राजा सूर्य के सामान अपने तेज से सम्पूर्ण जगत को अभिभूत करता है । सूर्य कभी कोमल और कभी प्रचण्ड अपने तेज से सम्पूर्ण जगत को प्रभावित करने से आदरणीय होता है अतः हे भीमसेन ! केवल क्रोध को ही न अपनाओ । क्रोध भी उपादेय है किन्तु सर्वदा सर्वत्र नहीं ।

टिप्पणी: समय-समय पर मृदुता तथा तीक्ष्णता धारण करने वाला मनुष्य सूर्य की भांति अपने तेज से सब को वशवर्ती बनता है ।

उपमा अलङ्कार

क्व चिराय परिग्रहः श्रियां क्व च दुष्टेन्द्रियवाजिवश्यता ।

शरदभ्रचलाश्चलेन्द्रियैरसुरक्षा हि बहुच्छलाः श्रियः ।। २.३९ ।।

वियोगिनी

अर्थ: धर्मराज युधिष्ठिर भीमसेन को कहते हैं कि कहाँ प्रदीर्घकाल तक लक्ष्मी को अपने आधिपत्य में रखना और कहाँ बेलगाम घोड़ों की भांति विषयासक्त निरंकुश बेकाबू इन्द्रियों को स्वाधीन रखना ?

लक्ष्मी (सम्पत्ति) शारदीय मेघों जैसी अत्यन्त चञ्चल तथा अनेक बहानो से छोड़ कर जाने वाली होती है ।

अतः अवशेन्द्रिय पुरुषों के द्वारा लम्बे समय तक लक्ष्मी को स्वाधीन रखना सम्भव नहीं है । दोनों का एकाधिकरण्य असम्भव है । दोनों एकत्र (एक स्थान में) एक साथ नहीं रह सकते हैं ।

टिप्पणी: किसी प्रकार से एक बार प्राप्त की गयी लक्ष्मी चञ्चल इन्द्रिय वालों के वश में चिरकाल तक नहीं ठहर सकती ।

इस पद्य में दो बार प्रयुक्त ‘क्व’ शब्द लक्ष्मी का चिरकालिक परिग्रह और दुष्टैन्द्रियवाजिवश्यता के महदन्तर का सूचन करता है ।

वाक्यार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार

किं असामयिकं वितन्वता मनसः क्षोभं उपात्तरंहसः ।

क्रियते पतिरुच्चकैरपां भवता धीरतयाधरीकृतः ।। २.४० ।।

वियोगिनी

अर्थ: हे भीमसेन ! स्वभावतः ही अतिचञ्चल मन को असमय में ही क्षुभित होने का अवसर देते हुए आप अपने धीरज से पहले ही जिस समुद्र को तिरस्कृत कर चुके हो उसे ही पुनः क्यों श्रेष्ठ बनाते हो । गम्भीरता में समुद्र की महानता पहले से ही सर्वविदित है किन्तु आपने तो अपनी गम्भीरता में उसे पूर्व में ही तिरस्कृत बना दिया था अर्थात उस समुद्र से अधिक धीरज आप में है यह अनेक बार सिद्ध कर चुकने के पश्चात अब पुनः द्रुत गति प्राप्त मन को असामयिक क्षोभ का अवसर देकर गम्भीरता में समुद्र को ही आपसे अधिक गम्भीर होने का अवसर क्यों प्रदान करते हो । समुद्र अपनी मर्यादा का उल्लंघन कभी करता नहीं है किन्तु आज आप असामयिक घबड़ाहट को प्रश्रय देकर समुद्र को ही सर्वाधिक महान होना क्यों सिद्ध करना चाहते हो ।

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि तुम तो समुद्र से भी बढ़कर धीर-गम्भीर थे, फिर क्यों आज वेगयुक्त मन की चञ्चलता को बढ़ा रहे हो । धैर्य में तुमसे पराजित समुद्र भी क्षोभ में अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता और तुम अपनी मर्यादा छोड़ कर उसे अपने से ऊंचा बना रहे हो । अपने से पराजित को कोई भी ऊंचा नहीं बनाना चाहता ।

पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार

श्रुतं अप्यधिगम्य ये रिपून्विनयन्ते स्म न शरीरजन्मनः ।

जनयन्त्यचिराय सम्पदां अयशस्ते खलु चापलाश्रयं ।। २.४१ ।।

वियोगिनी

अर्थ: हे भीमसेन ! नीति आदि शास्त्रों का ज्ञान उपार्जित कर लेने पर यदि जो लोग शरीरज काम-क्रोधादि षडरिपुओं को अपने अधीन नहीं करते हैं तो सचमुच वे शीघ्र ही अपनी मूर्खता के कारण सम्पत्ति विनाशजन्य अपयश के पात्र बन जाते हैं ।

काम-क्रोधादि शत्रुओं से परास्त पुरुषों को वे नीति आदि शास्त्र पढ़े हुए होने पर भी लक्ष्मी उनका परित्याग कर देती है । लक्ष्मी द्वारा परित्यक्त होने पर वे निन्दा के पात्र बन जाते हैं ।

नीति आदि शास्त्रों का ज्ञान उपार्जित करने का फल शरीरज षडरिपुओं को जीतकर स्वाधीन कर लेना है, यदि कोई पुरुष नीति आदि शास्त्रों में पारङ्गत होकर भी यदि अपने शरीरज षडरिपुओं को स्वाधीन नहीं करता है तो उसका शास्त्रीय ज्ञान व्यर्थ है । वह शास्त्रीय ज्ञान होने पर भी मूर्ख ही है । यही मूर्खता व्यवहार में चपलता(प्रमाद) उत्पन्न करती है । व्यवहार में प्रमाद उत्पन्न होने पर लक्ष्मी उस पुरुष को त्याग देती है । लक्ष्मी व्यावहारिक दक्षता में अनुरक्त होती है, कोरे शास्त्र ज्ञान में नहीं । लक्ष्मी द्वारा परित्यक्त होने पर वह पुरुष शास्त्रीय ज्ञान होने पर भी निन्दनीय बन जाता है ।

वाक्यार्थ हेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार

क्रोध से कार्यहानि की आशंका व्यक्त करते हुए – उससे बचते रहने के लिए राजा युधिष्ठिर भीमसेन से कहते हैं –

अतिपातितकालसाधना स्वशरीरेन्द्रियवर्गतापनी ।

जनवन्न भवन्तं अक्षमा नयसिद्धेरपनेतुं अर्हति ।। २.४२ ।।

वियोगिनी

अर्थ: हे भीमसेन ! काल(समय) और सहायता की अतिक्रमण-कारिणी और अपनी ही इन्द्रियों को कष्ट प्रदायिनी असहिष्णुता (असहनशीलता) सामान्य मनुष्य की तरह आपको नीतिसाध्य फल की प्राप्ति (सिद्धि) से वञ्चित करने में समर्थ नहीं होगी ।

*अक्षमा = असहिष्णुता (क्रोध की चरमसीमा)

उपकारकं आयतेर्भृशं प्रसवः कर्मफलस्य भूरिणः ।

अनपायि निबर्हणं द्विषां न तितिक्षासमं अस्ति साधनं ।। २.४३ ।।

वियोगिनी

अर्थ: आने वाले समय में अत्यन्त उपकारक(हितकारी) तथा कर्म के फलों को बहुत बड़ी मात्रा में देने वाला और अपनी किसी भी प्रकार की हानि न करते हुए शत्रुओं का विनाशक,तितिक्षा(क्षमा) के बराबर अन्य कोई भी साधन नहीं है । क्षमा भी शत्रु का विनाश करने का अमोघ साधन है । शत्रु के विनाश के अन्यान्य साधन हैं किन्तु उनके प्रयोग से प्रयोक्ता की भी न्यूनाधिक हानि अवश्य होती ही है । किन्तु क्षमा एक ऐसा साधन है जिसके प्रयोग से प्रयोक्ता को किसी भी प्रकार की हानि नहीं होती । क्षमा के कारण कर्मफलों की पर्याप्त मात्रा में प्राप्ति होती है । क्षमावान का यश बढ़ता है और जिसे क्षमा की जाती उसकी हानि अनिवार्य रूप से होती है । शक्ति-सम्पन्न वीरों के लिए क्षमकारिता निश्चित रूप से भूषण है । क्षमा से ही शत्रु की एकांतिक और आत्यन्तिक हानि सम्भव है । अन्य किसी भी उपाय से नहीं, युद्ध से तो कदापि नहीं ।

टिप्पणी: क्षमा के अनेक गुण हैं किन्तु क्षमा सबलों के लिए भूषण है, निर्बलों के लिए कदापि नहीं । निर्बल व्यक्ति के द्वारा यदि क्षमा करने की बात भी की जाय तो उपहासास्पद होता है । परिग्रहवान ही जैसे त्याग कर सकता है उसी प्रकार सबल व्यक्ति ही क्षमा करने का पात्र होता है । अभावग्रस्त जैसे त्याग करने का अधिकारी नहीं होता उसी प्रकार निर्बल व्यक्ति भी क्षमा करने का अधिकारी नहीं है ।

पाण्डव शक्ति सम्पन्न हैं अतः उनके द्वारा क्षमा करना भोषणास्पद है । सबके लिए नहीं और सर्वदा नहीं ।

कोप बलवान के लिए भी हानिकारक है निर्बलों का कोप ही उनका सम्पूर्ण विनाश कर देता है । सबलों का कोप भी (स्वयं के लिए भी) हानिकारक ही है । कोप अन्तः शत्रु है ।

यहाँ उपमान से उपमेय का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया जाने के कारण व्यतिरेक अलङ्कार है ।

क्या तितिक्षापूर्वक समय बिताने से दुर्योधन सभी अन्य राजाओं को अपने वश में कर लेगा ।’ इस आशंका का समाधान करते हुए युधिष्ठिर कहते हैं कि –

प्रणतिप्रवणान्विहाय नः सहजस्नेहनिबद्धचेतसः ।

प्रणमन्ति सदा सुयोधनं प्रथमे मानभृतां न वृष्णयः ।। २.४४ ।।

वियोगिनी

अर्थ: हे भीमसेन ! मनस्वी जनों में अग्रगण्य वृष्णिकुल भूषण यादव लोग उनके प्रति विनम्र भाव से उन्हें सदा प्रणाम करने में तत्पर हम पाण्डवों को छोड़कर वे कौरवों का पक्ष कभी नहीं लेंगे क्योंकि उनका चित्त हम पाण्डवों में सदा ही स्वाभाविक प्रेम से आबद्ध है ।

यादव लोग अपने वास्तविक बल से घमण्डी हैं और कौरव लोग मिथ्या अहङ्कारी हैं । यादवों के प्रति सहज स्नेहवश हम पाण्डव विनम्र भाव रखते हैं, और वे भी हमारे विनय के वशीभूत होकर हम से प्रेम करते हैं वे हमारे पक्ष को छोड़कर अहङ्कारी कौरवों का पक्ष कभी भी नहीं स्वीकार करेंगे । क्योंकि वे यादव भी हमीं से अकृत्रिम स्नेह रखते हैं ।

दुर्योधन मिथ्या अहङ्कारी होने से वह यादवों के समक्ष नत-मस्तक नहीं हो सकता और वे यादव लोग स्वभावतः ही मनस्वी होने के कारण कौरवो का औद्धित्य सह नहीं सकते । अतः निरन्तर यादव कौरवों के वश में रहना असम्भव है । सम्प्रति भले ही किसी कारण कौरवों के पक्षधर हों किन्तु अन्ततोगत्वा यादव हम पाण्डवों का ही पक्ष लेंगे क्योंकि उनका भी स्वाभाविक प्रेम हमारे विनय भाव के कारण हम पाण्डवों में ही है ।

सुहृदः सहजास्तथेतरे मतं एषां न विलङ्घयन्ति ये ।

विनयादिव यापयन्ति ते धृतराष्ट्रात्मजं आत्मसिद्धये ।। २.४५ ।।

अभियोग इमान्महीभुजो भवता तस्य ततः कृतावधेः ।

प्रविघाटयिता समुत्पतन्हरिदश्वः कमलाकरानिव ।। २.४६ ।।

वियोगिनी

अर्थ:दुर्योधन ने जो हमारे वनवास की अवधि बाँध दी है, उसके भीतर यदि आप उसके (दुर्योधन के) ऊपर अभियान करते हैं तो हमारा यह कार्य इन यदुवंशी तथा इनके मित्र राजाओं को, हरे रंगों के अश्वोंवाले सूर्य द्वारा कमलों की पंखुड़ियों की भांति, उदय होते ही छिन्न-भिन्न कर देगा।

टिप्पणी: अन्यायी का साथ कोई नहीं देगा और इस प्रकार आपका असमय का अभियान अपने ही पक्ष को छिन्न-भिन्न करने का कारण बन जाएगा ।

उपमा अलङ्कार

उपजापसहान्विलङ्घयन्स विधाता नृपतीन्मदोद्धतः ।

सहते न जनोऽप्यधःक्रियां किं उ लोकाधिकधाम राजकं ।। २.४७ ।।

वियोगिनी

अर्थ:अभिमान के मद में मतवाला वह दुर्योधन अन्य राजाओं का अपमान कर उन्हें भेदयोग्य बना देगा और जब साधारण मनुष्य भी अपना अपमान नहीं सहन कर सकते तो साधारण लोगों की अपेक्षा अधिक तेजस्वी राजा लोग फिर क्यों सहन करेंगे ?

टिप्पणी: अपमानित लोग टूट जाते ही हैं और ऐसी स्थिति में समय आने पर सम्पूर्ण राजमण्डल हमारे पक्ष में हो जाएगा

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

असमापितकृत्यसम्पदां हतवेगं विनयेन तावता ।

प्रभवन्त्यभिमानशालिनां मदं उत्तम्भयितुं विभूतयः ।। २.४८ ।।

अर्थ: कार्य को अधूरा छोड़ने वाले अभिमानी व्यक्तियों की सम्पत्तियाँ ऊपर से धारण किये गए स्वल्प विनय के द्वारा प्रतिहत वेग अभिमान को बढ़ने में समर्थ हो जाती हैं ।

टिप्पणी: अर्थात वह अपने स्वार्थों के कारण बगुला भगत बना रहता है, किन्तु किसी कार्य की समाप्ति के भीतर तो उसका अभिमान प्रकट होकर ही रहता है क्योंकि थोड़ी देर के लिए चिकनी-चुपड़ी, विनयभरी बातों से उसके न्यून वेग वाले अभिमान को बढ़ावा ही मिलता है । लोग समझ जाते हैं कि यह बनावटी विनयी है, सहज नहीं ।

काव्यलिङ्ग अलङ्कार

*अभिमान द्वारा होने वाले अनर्थ की चर्चा(अगले दो श्लोक)

मदमानसमुद्धतं नृपं न वियुङ्क्ते नियमेन मूढता ।

अतिमूढ उदस्यते नयान्नयहीनादपरज्यते जनः ।। २.४९ ।।

अर्थ: दर्प और अहँकार से उद्धत राजा को मूर्खता अवश्य ही नहीं छोड़ती । अत्यन्त मूर्ख राजा न्यायपथ से पृथक हो जाता है और अन्यायी राजा से जनता अलग हो जाती है ।

टिप्पणी: अर्थात कार्य का अवसर आने पर अभिमान के कारण देश के सभी राजा तथा जनता भी दुर्योधन से पृथक हो जायेगी ।

कारणमाला अलङ्कार

अपरागसमीरणेरितः क्रमशीर्णाकुलमूलसन्ततिः ।

सुकरस्तरुवत्सहिष्णुना रिपुरुन्मूलयितुं महानपि ।। २.५० ।।

अर्थ: द्वेष की वायु से प्रेरित, धीरे-धीरे चञ्चल बुद्धि मन्त्रियों आदि अनुगामियों से विनष्ट शत्रु यदि महान भी है, तब भी (भयङ्कर तूफ़ान से प्रकम्पित तथा क्रमशः डालियों और जड़ समेत विनष्ट ) वृक्ष की भांति क्षमाशील पुरुष द्वारा विनष्ट करने में सुगम हो जाता है ।

टिप्पणी: तात्पर्य यह है कि क्षमाशील पुरुष धीरे-धीरे बिना प्रयास के ही अपने शत्रुओं का समूल नाश कर डालता है ।

कारणमाला और उपमा अलङ्कार

*यदि कहिये की थोड़े से अन्तर्भेद के कारण वह सुसाध्य कैसे हो गया तो यह सुनिए –

अणुरप्युपहन्ति विग्रहः प्रभुं अन्तःप्रकृतिप्रकोपजः ।

अखिलं हि हिनस्ति भूधरं तरुशाखान्तनिघर्षजोऽनलः ।। २.५१ ।।

वियोगिनी

अर्थ: अणुमात्र भी अन्तरङ्ग सचिवादि का उदासीनता से उत्पन्न वैर राजा का विनाश कर देता है । क्योंकि वृक्षों की शाखाओं के परस्पर संघर्ष से उत्पन्न अग्नि समूचे पर्वत को जला देती है ।

टिप्पणी: जैसे मामूली वृक्षों की डालियों की रगड़ से उत्पन्न दावाग्नि विशाल पर्वत को जला देती है, उसी प्रकार राजाओं के साधारण सेवकों में उत्पन्न पारस्परिक कटुता या विरोध राजा को नष्ट कर देता है ।

दृष्टान्त अलङ्कार

यद्यपि दुर्योधन का उत्कर्ष हो रहा है, तथापि इस समय तो उसकी उपेक्षा ही करना उचित है क्योंकि- मतिमान्विनयप्रमाथिनः समुपेक्षेत समुन्नतिं द्विषः ।

सुजयः खलु तादृगन्तरे विपदन्ता ह्यविनीतसम्पदः ।। २.५२ ।।

वियोगिनी

अर्थ: बुद्धिमान व्यक्ति अविनयी, उद्दण्ड, मदोन्मत्त अतएव प्रमादशील शत्रु की उपेक्षा करता रहे उसकी उन्नति की चिन्ता न करे क्योंकि ऐसे अविनयी शत्रु स्वभावतः ही प्रभावशील होते हैं, वे अपने किये हुए प्रमाद के द्वारा ही विपत्तियों को आमन्त्रित करते हैं । विपद प्राप्त शत्रु को जीतना सरल होता है क्योंकि अविनयी व्यक्ति को प्राप्त हुई सम्पत्ति, वह रक्षण करने में अपने ही स्वभावदोष के कारण असमर्थ होता है । अविनयी पुरुष की सम्पत्तियों का अन्त उसी के द्वारा बुलाई गयी विपत्तियों से हुआ करता है । अविनयी पुरुष के पास सम्पत्ति टिकती नहीं है । अतः वर्धमान अविनयी शत्रु की बुद्धिमान पुरुष उपेक्षा करते हैं । जो सहज साव्य है उसके लिए प्रयत्न करने में शक्ति का व्यय क्यों किया जाय ?

टिप्पणी: अविनयी शत्रु को उपेक्षा से ही जीता जा सकता है ।

अर्थान्तरन्यास अलङ्कार

अविनीत शत्रु को उपेक्षा से कैसे जीता जा सकता है – यह सुनिए

लघुवृत्तितया भिदां गतं बहिरन्तश्च नृपस्य मण्डलं ।

अभिभूय हरत्यनन्तरः शिथिलं कूलं इवापगारयः ।। २.५३ ।।

वियोगिनी

अर्थ: हे भीमसेन ! मदोन्मत्त अभिमानी राजा अपने तुच्छ व्यवहार के कारण पडोसी राजाओं को तथा अपने राज्य के मन्त्री वर्ग और प्रजावर्ग को कुपित करता रहता है फलतः अपने और पराये, घर के और बाहर के सभी लोगों का प्रेम वह खो बैठता है और आपस में फूट (भेद) पैदा होती है । मित्र राजाओं में तथा अपने मन्त्रीवर्ग और प्रजावर्ग में क्रमशः भेद बुद्धि पनपने पर जिस तरह नदी के वेग से जर्जरित हुए दोनों किनारों को स्वयं नदी ही गिराकर नष्ट कर डालती है उसी प्रकार आन्तरिक भेद से जर्जरित मित्रराजमण्डल एवं अमात्यादिप्रकृति-मण्डल वाला दुर्वृत्ति राजा अपने ही तुच्छ व्यवहार के कारण विनाश को प्राप्त होता है ।

टिप्पणी: परस्पर भेद के कारण अविनयी राजा का विनाश सुगम रहता है ।

उपमा अलङ्कार

अनुशासतं इत्यनाकुलं नयवर्त्माकुलं अर्जुनाग्रजं ।

स्वयं अर्थ इवाभिवाञ्छितस्तं अभीयाय पराशरात्मजः ।। २.५४ ।।

वियोगिनी

अर्थ: इस प्रकार से (शत्रु द्वारा हुए अपमान का स्मरण करने के कारण) क्षुब्ध भीमसेन को सुन्दर न्याय-पथ का उपदेश करते हुए युधिष्ठिर के पास मानो अभिलषित मनोरथ की भांति वेदव्यास जी स्वयमेव आ पहुंचे ।

उत्प्रेक्षा अलङ्कार

*धर्मराज युधिष्ठिर के पास आये हुए व्यासमुनि कैसे हैं इसका वर्णन महाकवि भारवि युग्मश्लोकों द्वारा करते हैं – मधुरैरवशानि लम्भयन्नपि तिर्यञ्चि शमं निरीक्षितैः ।

परितः पटु बिभ्रदेनसां दहनं धाम विलोकनक्षमं ।। २.५५ ।।

सहसोपगतः सविस्मयं तपसां सूतिरसूतिरेनसां ।

ददृशे जगतीभुजा मुनिः स वपुष्मानिव पुण्यसंचयः ।। २.५६ ।।

वियोगिनी

अर्थ: अपने शान्तिपूर्ण दृष्टिनिक्षेप से प्रतिकूल स्वभाव वाले पशु-पक्षियों को भी शान्ति दिलाते हुए, चारों ओर से उज्जवल तथा देखने योग्य तेज को धारण करने वाले, अकस्मात् आये हुए तपस्या के मूल कारण तथा आपत्तियों के निवारणकर्ता उन भगवान् वेदव्यास को मानो शरीरधारी पुण्यपुञ्ज की भांति राजा युधिष्ठिर ने बड़े विस्मय के साथ देखा ।

द्वितीय श्लोक में उत्प्रेक्षा अलङ्कार

*युग्मश्लोक – जहाँ दो श्लोकों का एकत्र अन्वय कर अर्थ पूर्ण होता है ।

अथोच्चकैरासनतः परार्ध्यादुद्यन्स धूतारुणवल्कलाग्रः ।

रराज कीर्णाकपिशांशुजालः शृङ्गात्सुमेरोरिव तिग्मरश्मिः ।। २.५७ ।।

उपजाति वृत्ति

अर्थ: इसके बाद (वेदव्यास जी के स्वागतार्थ) अपने श्रेष्ठ ऊंचे सिंहासन से उठते हुए राजा युधिष्ठिर के लाल रङ्ग की किरण-पुञ्जों को विस्तृत करने वाले सुमेरु पर्वत से ऊपर उठते हुए सूर्य की भांति सुशोभित हुए ।

टिप्पणी: जिस प्रकार से सुमेरु के शिखर से ऊंचे उठते हुए सूर्य सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार अपने ऊंचे सिंहासन से भगवान् वेदव्यास के स्वागतार्थ उठते हुए राजा युधिष्ठिर सुशोभित हुए ।

उपमा अलङ्कार

अवहितहृदयो विधाय स अर्हां ऋषिवदृषिप्रवरे गुरूपदिष्टां ।

तदनुमतं अलंचकार पश्चात्प्रशम इव श्रुतं आसनं नरेन्द्रः ।। २.५८ ।।

पुष्पिताग्रा

अर्थ: धर्मराज युधिष्ठिर ने स्वस्थचित्त होकर गुरुजन परम्परा से ज्ञात विधि से अनुसार ऋषिश्रेष्ठ की ऋषिजनोचित पूजा कर चुकने के पश्चात उनके द्वारा अनुमत आसन को अलङ्कृत किया जैसे शम(क्षमा) शास्त्राध्ययन (शास्त्रीय ज्ञान) को विभूषित करता है ।

टिप्पणी: जिस प्रकार से क्षमा शास्त्रज्ञान को सुशोभित करती है उसी प्रकार से युधिष्ठिर ने वेदव्यास जी की आज्ञा से अपने सिंहासन को सुशोभित किया ।

व्यक्तोदितस्मितमयूखविभासितोष्ठस्तिष्ठन्मुनेरभिमुखं स विकीर्णधाम्नः ।

तन्वन्तं इद्धं अभितो गुरुं अंशुजालं लक्ष्मीं उवाह सकलस्य शशाङ्कमूर्तेः ।। २.५९ ।।

वसन्ततिलका

अर्थ: मुस्कुराने के कारण छिटकी हुई दांत की किरणों से राजा युधिष्ठिर के दोनों ओंठ उद्भासित हो रहे थे । उस समय चतुर्दिक व्याप्त तेजवाले वेदव्यास जी के सम्मुख बैठे हुए यह प्रदीप्त तेज की किरण-पुञ्जों को फैलाते हुए बृहस्पति के सम्मुख बैठे पूर्ण चन्द्रमा की कान्ति को धारण कर रहे थे ।

टिप्पणी: देवगुरु बृहस्पति के सम्मुख बैठे हुए चन्द्रमा के समान राजा युधिष्ठिर सुशोभित हो रहे थे ।

उपमा और निदर्शना अलङ्कार

महाकाव्य के काव्य शास्त्रीय लक्षणों के अनुसार सर्ग में प्रायः एक ही वृत्त हो किन्तु अन्त में छन्द भेद होना चाहिए । इस नियम का निर्वाह करते हुए कवि ने काव्य सर्जन नैपुण्य प्रदर्शन करते हुए इस द्वितीय सर्ग में आरम्भ से ५६वें श्लोक तक वियोगिनी छन्द का अप्रतिहत प्रयोग किया है । ५७ से उपजाति, पुष्पिताग्रा, वसन्ततिलका छन्द का क्रमशः प्रयोग कर भिन्न छन्द में सर्गान्त करने के नियम का निर्वाह किया है । महाकवि भारवि ने सम्पूर्ण काव्य में प्रति सर्ग के अन्तिम श्लोक में लक्ष्मी शब्द का प्रयोग किया है । श्री शब्द का प्रयोग इस काव्य के आरम्भ में किया है ।

।। इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये द्वितीयः सर्गः ।।

किरातार्जुनीयम् द्वितीयः सर्गः (सर्ग २) समाप्त ।।

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