लक्ष्मणगीता || Laxmana Gita

0

गीता अर्थात् ज्ञान। वह ज्ञान जिसमें जीव,आत्मा व परमात्मा के सम्बन्ध में उपदेश किया गया हो, गीता कहलाता है। अलग-अलग समय व कालखंड में साक्षात् ईश्वर या सिद्ध,महात्मा,संत या महापुरुषों ने इस गीता के ज्ञान को मानव मात्र के कल्याण के निमित्त प्रकाशित किया। जिसे की अलग-अलग गीता के नाम से जाना जाता है। साक्षात् भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को इसी ज्ञान का उपदेश किया जिसे की श्रीमद्भगवतगीता के नाम से सर्वविदित है,एक अन्य जिसे की भी कृष्ण ने अर्जुन को बतलाया गर्भगीता के नाम से जाना जाता है। इसी ज्ञान को श्रीलक्ष्मणजी ने विषादग्रस्त निषादराज को बतलाया जिसे की लक्ष्मणगीता के नाम से जाना जाता है। जो कि श्रीरामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड में दोहा क्रमांक ८९ से ९३ वर्णित है।

अथ श्रीलक्ष्मणगीता रामचरितमानस से

दोहा

सिय सुमंत्र भ्राता सहित कंद मूल फल खाइ ।

सयन कीन्ह रघुबंसमनि पाय पलोटत भाइ । ८९ ।

सीता, सुमंत्र और भाई लक्ष्मण सहित कंद-मूल-फल खाकर रघुकुल मणि राम लेट गए। भाई लक्ष्मण उनके पैर दबाने लगे।

चौपाई

उठे लखनु प्रभु सोवत जानी । कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी ।

कछुक दूरि सजि बान सरासन । जागन लगे बैठि बीरासन । १ ।

फिर प्रभु राम को सोते जानकर लक्ष्मण उठे और कोमल वाणी से मंत्री सुमंत्र को सोने के लिए कहकर वहाँ से कुछ दूर पर धनुष-बाण से सजकर, वीरासन से बैठकर जागने (पहरा देने) लगे।

गुहँ बोलाइ पाहरू प्रतीती । ठावँ ठावँ राखे अति प्रीती ।

आपु लखन पहिं बैठेउ जाई । कटि भाथी सर चाप चढ़ाई । २ ।

गुह ने विश्वासपात्र पहरेदारों को बुलाकर अत्यंत प्रेम से जगह-जगह नियुक्त कर दिया। और आप कमर में तरकस बाँधकर तथा धनुष पर बाण चढ़ाकर लक्ष्मण के पास जा बैठा।

सोवत प्रभुहि निहारि निषादू । भयउ प्रेम बस हृदयँ बिषादू ।

तनु पुलकित जलु लोचन बहई । बचन सप्रेम लखन सन कहई । ३ ।

प्रभु को जमीन पर सोते देखकर प्रेमवश निषादराज के हृदय में विषाद हो आया। उसका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहने लगा। वह प्रेम सहित लक्ष्मण से वचन कहने लगा –

भूपति भवन सुभायँ सुहावा । सुरपति सदनु न पटतर पावा ।

मनिमय रचित चारु चौबारे । जनु रतिपति निज हाथ संवारे । ४ ।

महाराज दशरथ का महल तो स्वभाव से ही सुंदर है, इंद्रभवन भी जिसकी समानता नहीं पा सकता। उसमें सुंदर मणियों के रचे चौबारे (छत के ऊपर बँगले) हैं, जिन्हें मानो रति के पति कामदेव ने अपने ही हाथों सजाकर बनाया है।

दोहा

सुचि सुबिचित्र सुभोगमय सुमन सुगंध सुबास ।

पलँग ग मंजु मनिदीप जहँ सब बिधि सकल सुपास । ९० ।

जो पवित्र, बड़े ही विलक्षण, सुंदर भोग पदार्थों से पूर्ण और फूलों की सुगंध से सुवासित हैं; जहाँ सुंदर पलँग और मणियों के दीपक हैं तथा सब प्रकार का पूरा आराम है; ।

चौपाई

बिबिध बसन उपधान तुराईं । छीर फेन मृदु बिसद सुहाईं ।

तहँ सिय रामु सयन निसि करहीं । निज छबि रति मनोज मदु हरहीं । १ ।

जहाँ (ओढ़ने-बिछाने के) अनेकों वस्त्र, तकिए और गद्दे हैं, जो दूध के फेन के समान कोमल, निर्मल (उज्ज्वल) और सुंदर हैं; वहाँ (उन चौबारों में) सीता और राम रात को सोया करते थे और अपनी शोभा से रति और कामदेव के गर्व को हरण करते थे।

ते सिय रामु साथरीं सोए । श्रमित बसन बिनु जाहिं न जोए ।

मातु पिता परिजन पुरबासी । सखा सुसील दास अरु दासी । २ ।

वही सीता और राम आज घास-फूस की साथरी पर थके हुए बिना वस्त्र के ही सोए हैं। ऐसी दशा में वे देखे नहीं जाते। माता, पिता, कुटुंबी, पुरवासी (प्रजा), मित्र, अच्छे शील-स्वभाव के दास और दासियाँ –

जोगवहिं जिन्हहि प्रान की नाईं । महि सोवत तेइ राम गोसाईं ।

पिता जनक जग बिदित प्रभाऊ । ससुर सुरेस सखा रघुराऊ । ३ ।

सब जिनकी अपने प्राणों की तरह सार-सँभार करते थे, वही प्रभु राम आज पृथ्वी पर सो रहे हैं। जिनके पिता जनक हैं, जिनका प्रभाव जगत में प्रसिद्ध है, जिनके ससुर इंद्र के मित्र रघुराज दशरथ हैं,

रामचंदु पति सो बैदेही । सोवत महि बिधि बाम न केही ।

सिय रघुबीर कि कानन जोगू । करम प्रधान सत्य कह लोगू । ४ ।

और पति राम हैं, वही जानकी आज जमीन पर सो रही हैं। विधाता किसको प्रतिकूल नहीं होता! सीता और राम क्या वन के योग्य हैं? लोग सच कहते हैं कि कर्म (भाग्य) ही प्रधान है।

दोहा

कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपनु कीन्ह ।

जेहिं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह । ९१ ।

कैकयराज की लड़की नीच बुद्धि कैकेयी ने बड़ी ही कुटिलता की, जिसने रघुनंदन राम और जानकी को सुख के समय दुःख दिया।

चौपाई

भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी । कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी ।

भयउ बिषादु निषादहि भारी । राम सीय महि सयन निहारी । १ ।

वह सूर्यकुलरूपी वृक्ष के लिए कुल्हाड़ी हो गई। उस कुबुद्धि ने संपूर्ण विश्व को दुःखी कर दिया। राम-सीता को जमीन पर सोते हुए देखकर निषाद को बड़ा दुःख हुआ।

बोले लखन मधुर मृदु बानी । ग्यान बिराग भगति रस सानी ।

काहु न कोउ सुख दुख कर दाता । निज कृत करम भोग सबु भ्राता । २ ।

तब लक्ष्मण ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के रस से सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले – हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देनेवाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं।

जोग बियोग भोग भल मंदा । हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा ।

जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू । सम्पति बिपति करमु अरु कालू । ३ ।

संयोग (मिलना), वियोग (बिछुड़ना), भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र और उदासीन – ये सभी भ्रम के फंदे हैं। जन्म-मृत्यु, संपत्ति-विपत्ति, कर्म और काल – जहाँ तक जगत के जंजाल हैं,

धरनि धामु धनु पुर परिवारू । सरगु नरकु जहं लगि ब्यवहारू ।

देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माही । मोह मूल परमारथु नाही । ४ ।

धरती, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहाँ तक व्यवहार हैं, जो देखने, सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है। परमार्थतः ये नहीं हैं।

दोहा

सपनें होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ ।

जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ । ९२ ।

जैसे स्वप्न में राजा भिखारी हो जाए या कंगाल स्वर्ग का स्वामी इंद्र हो जाए, तो जागने पर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है; वैसे ही इस दृश्य-प्रपंच को हृदय से देखना चाहिए।

चौपाई

अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू । काहुहि बादि न देइअ दोसू ।

मोह निसाँ सबु सोवनिहारा । देखिअ सपन अनेक प्रकारा । १ ।

ऐसा विचारकर क्रोध नहीं करना चाहिए और न किसी को व्यर्थ दोष ही देना चाहिए। सब लोग मोहरूपी रात्रि में सोनेवाले हैं और सोते हुए उन्हें अनेकों प्रकार के स्वप्न दिखाई देते हैं।

एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी । परमारथी प्रपंच बियोगी ।

जानिअ तबहिं जीव जग जागा । जब सब बिषय बिलास बिरागा । २ ।

इस जगतरूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब संपूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए।

होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा । तब रघुनाथ चरन अनुरागा ।

सखा परम परमारथु एहू । मन क्रम बचन राम पद नेहू । ३ ।

विवेक होने पर मोहरूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञान का नाश होने पर) रघुनाथ के चरणों में प्रेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कर्म से राम के चरणों में प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ (पुरुषार्थ) है।

राम ब्रह्म परमारथ रूपा । अबिगत अलख अनादि अनूपा ।

सकल बिकार रहित गतभेदा । कहि नित नेति निरूपहिं बेदा । ४ ।

राम परमार्थस्वरूप (परमवस्तु) परब्रह्म हैं। वे अविगत (जानने में न आनेवाले), अलख (स्थूल दृष्टि से देखने में न आनेवाले), अनादि (आदिरहित), अनुपम (उपमारहित) सब विकारों से रहति और भेद शून्य हैं, वेद जिनका नित्य ‘नेति-नेति’ कहकर निरूपण करते हैं।

दोहा

भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल ।

करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जग जाल । ९३ ।

वही कृपालु राम भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गौ और देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके लीलाएँ करते हैं, जिनके सुनने से जगत के जंजाल मिट जाते हैं।

चौपाई

सखा समुझि अस परिहरि मोहू । सिय रघुबीर चरन रत होहू ।

कहत राम गुन भा भिनुसारा । जागे जग मंगल सुखदारा । १ ।

हे सखा! ऐसा समझ, मोह को त्यागकर सीताराम के चरणों में प्रेम करो। इस प्रकार राम के गुण कहते-कहते सबेरा हो गया! तब जगत का मंगल करनेवाले और उसे सुख देनेवाले राम जागे।

इति श्रीलक्ष्मणगीता समाप्त ॥

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *