महापुरुषस्तोत्र || Maha Purush Stotra

0

महापुरुष स्तोत्र– ब्रह्माजी के श्राप से उपबर्हण गन्धर्व का शरीर त्याग देने पर ब्रह्मा आदि देवताओं द्वारा उपबर्हण को जीवित करने की चेष्टा किया गया, किन्तु इतने पर भी वह शव नहीं उठा। जड़ की भाँति सोता ही रहा। आत्मा का अधिष्ठान प्राप्त न होने से उसे विशिष्ट बोध की प्राप्ति नहीं हुई। तब ब्रह्मा जी के कहने से उपबर्हण गन्धर्व की पत्नी मालावती ने शीघ्र ही नदी के जल में स्नान किया और दो धुले वस्त्र धारण करके उस सती ने परमेश्वर की स्तुति प्रारम्भ की।

महापुरुषस्तोत्रम्

मालावत्युवाच ।।

वन्दे तं परमात्मानं सर्वकारणकारणम् ।।

विना येन शवाः सर्वे प्राणिनो जगतीतले ।। १ ।।

मालावती बोली– मैं समस्त कारणों के भी कारण रूप उन परमात्मा की वन्दना करती हूँ, जिनके बिना भूतल के सभी प्राणी शव के समान हैं।

निर्लिप्तं साक्षिरूपं च सर्वेषां सर्वकर्मसु ।।

विद्यमानं न दृष्टं च सर्वैः सर्वत्र सर्वदा ।। २ ।।

वे निर्लिप्त हैं। सबके साक्षी हैं। समस्त कर्मों में सर्वत्र और सर्वदा विद्यमान हैं तो भी सबकी दृष्टि में नहीं आते हैं।

येन सृष्टा च प्रकृतिः सर्वाधारो परात्परा ।।

ब्रह्मविष्णुशिवादीनां प्रसूर्या त्रिगुणात्मिका ।। ११ ।।

जिन्होंने सबकी आधारभूता उस परात्परा प्रकृति की सृष्टि की है; जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि की भी जननी तथा त्रिगुणमयी है।

जगत्स्रष्टा स्वयं ब्रह्मा नियतो यस्य सेवया ।।

पाता विष्णुश्च जगतां संहर्त्ता शङ्करः स्वयम् ।। १२ ।।

साक्षात् जगत्स्रष्टा ब्रह्मा जिनकी सेवा में नियमित रूप से लगे रहते हैं; पालक विष्णु और साक्षात् जगत्संहारक शिव भी जिनकी सेवा में निरन्तर तत्पर रहते हैं;

ध्यायन्ते यं सुराः सर्वे मुनयो मनवस्तथा ।।

सिद्धाश्च योगिनः सन्तः सन्ततं प्रकृतेः परम्।।१३।।

सब देवता, मुनि, मनु, सिद्ध, योगी और संत-महात्मा सदा प्रकृति से परे विद्यमान जिन परमेश्वर का ध्यान करते हैं;

साकारं च निराकारं परं स्वेच्छामयं विभुम् ।।

वरं वरेण्यं वरदं वरार्हं वरकारणम् ।।१४ ।।

जो साकार और निराकार भी हैं; स्वेच्छामय रूपधारी और सर्वव्यापी हैं। वर, वरेण्य, वरदायक, वर देने के योग्य और वरदान के कारण हैं,

तपःफलं तपोबीजं तपसां च फलप्रदम् ।।

स्वयंतपःस्वरूपं च सर्वरूपं च सर्वतः ।। १५ ।।

तपस्या के फल, बीज और फलदाता हैं; स्वयं तपः स्वरूप तथा सर्वरूप हैं;

सर्वाधारं सर्वबीजं कर्म तत्कर्मणां फलम् ।।

तेषां च फलदातारं तद्बीजं क्षयकारणम् ।। १६ ।।

सबके आधार, सबके कारण, सम्पूर्ण कर्म, उन कर्मों के फल और उन फलों के दाता हैं तथा जो कर्मबीज का नाश करने वाले हैं, उन परमेश्वर को मैं प्रणाम करती हूँ।

स्वयंतेजःस्वरूपं च भक्तानुग्रहविग्रहम् ।।

सेवाध्यानं न घटते भक्तानां विग्रहं विना ।। १७ ।।

वे स्वयं तेजःस्वरूप होते हुए भी भक्तों पर अनुग्रह के लिये ही दिव्य विग्रह धारण करते हैं; क्योंकि विग्रह के बिना भक्तजन किसकी सेवा और किसका ध्यान करेंगे। विग्रह के अभाव में भक्तों से सेवा और ध्यान बन ही नहीं सकते।

तत्तेजो मण्डलाकारं सूर्यकोटिसमप्रभम् ।।

अतीव कमनीयं च रूपं तत्र मनोहरम् ।। १८ ।।

तेज का महान मण्डल की उनकी आकृति है। वे करोड़ों सूर्यों के समान दीप्तिमान हैं। उनका रूप अत्यन्त कमनीय और मनोहर है।

नवीननीरदश्यामं शरत्पङ्कजलोचनम् ।।

शरत्पार्वणचन्द्रास्यमीषद्धास्यसमन्वितम् ।। १९ ।।

नूतन मेघ की-सी श्याम कान्ति, शरद्-ऋतु के प्रफुल्ल कमलों के समान नेत्र, शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति मन्द मुस्कान की छटा से सुशोभित मुख है।

कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाम मनोहरम् ।।

चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं रत्नभूषणभूषितम् ।। ।। २० ।।

करोड़ों कन्दर्पों को भी तिरस्कृत करने वाला लावण्य उनकी सहज विशेषताएँ हैं। वे मनोहर लीलाधाम हैं। उनके सम्पूर्ण अंग चन्दन से चर्चित तथा रत्नमय आभूषणों से विभूषित हैं।

द्विभुजं मुरलीहस्तं पीतकौशेयवाससम् ।।

किशोरवयसं शान्तं राधाकान्तमनन्तकम् ।। २१ ।।

दो बड़ी-बड़ी भुजाएँ हैं, हाथ में मुरली है, श्रीअंगों पर रेशमी पीताम्बर शोभा पाता है, किशोर अवस्था है। वे शान्त स्वरूप राधाकान्त अनन्त आनन्द से परिपूर्ण हैं।

गोपाङ्गनापरिवृतं कुत्रचिन्निर्जने वने ।।

कुत्रचिद्रासमध्यस्थं राधया परिषेवितम् ।। २२ ।।

कभी निर्जन वन में गोपांगनाओं से घिरे रहते हैं। कभी रासमण्डल में विराजमान हो राधारानी से समाराधित होते हैं।

कुत्रचिद्गोपवेषं च वेष्टितं गोपबालकैः ।।

शतशृङ्गाचलोत्कृष्टे रम्ये वृन्दावने वने ।। २३ ।।

कभी गोप-बालकों से घिरे हुए गोप वेष से सुशोभित होते हैं। कभी सैकड़ों शिखर वाले गिरिराज गोवर्धन के कारण उत्कृष्ट शोभा से युक्त रमणीय वृन्दावन में

निकरं कामधेनूनां रक्षन्तं शिशुरूपिणम् ।।

गोलोके विरजातीरे पारिजातवने वने ।। २४ ।।

कामधेनुओं के समुदाय को चराते हुए बालगोपाल के रूप में देखे जाते हैं। कभी गोलोक में विरजा के तट पर पारिजात के वन में

वेणुं क्वणन्तं मधुरं गोपीसम्मोहकारणम् ।।

निरामये च वैकुंठे कुत्रचिच्च चतुर्भुजम् ।। २५ ।।

मधुर-मधुर वेणु बजाकर गोपांगनाओं को मोहित किया करते हैं। कभी निरामय वैकुण्ठधाम में चतुर्भुज

लक्ष्मीकान्तं पार्षदैश्च सेवितं च चतुर्भुजैः ।।

कुत्रचित्स्वांशरूपेण जगतां पालनाय च।।२६।।

लक्ष्मीकान्त के रूप में रहकर चार भुजाधारी पार्षदों से सेवित होते हैं। कभी तीनों लोकों के पालन के लिये अपने अंश रूप से

श्वेतद्वीपे विष्णुरूपं पद्मया परिषेवितम् ।।

कुत्रचित्स्वांशकलया ब्रह्माण्डब्रह्मरूपिणम्।।२७।।

श्वेतद्वीप में विष्णुरूप धारण करके रहते हैं और पद्मा उनकी सेवा करती हैं। कभी किसी ब्रह्माण्ड में अपनी अंशकला द्वारा ब्रह्मारूप से विराजमान होते हैं।

शिवस्वरूपं शिवदं स्वांशेन शिवरूपिणम् ।।

स्वात्मनः षोडशांशेन सर्वाधारं परात्परम्।।२८।।

कभी अपने ही अंश से कल्याणदायक मंगलरूप शिव-विग्रह धारण करके शिवधाम में निवास करते हैं। अपने सोलहवें अंश से स्वयं ही सर्वाधार, परात्पर

स्वयं महद्विराड्रूपं विश्वौघं यस्य लोमसु ।।

लीलया स्वांशकलया जगतां पालनाय च।।२९।।

एवं महान विराट-रूप धारण करते हैं, जिनके रोम-रोम में अनन्त ब्रह्माण्डों का समुदाय शोभा पाता है। कभी अपनी ही अंशकला द्वारा जगत की रक्षा के लिये

नानावतारं बिभ्रन्तं बीजं तेषां सनातनम्।।

वसन्तं कुत्रचित्सन्तं योगिनां हृदये सताम् ।।३०।।

लीलापूर्वक नाना प्रकार के अवतार धारण करते हैं। उन अवतारों के वे स्वयं ही सनातन बीज हैं। कभी योगियों एवं संत-महात्माओं के हृदय में निवास करते हैं।

प्राणरूपं प्राणिनां च परमात्मानमीश्वरम्।।

तं च स्तोतुमशक्ताऽहमबला निर्गुणं विभुम्।।३१।।

वे ही प्राणियों के प्राणस्वरूप परमात्मा एवं परमेश्वर हैं। मैं मूढ़ अबला उन निर्गुण एवं सर्वव्यापी भगवान की स्तुति करने में सर्वथा असमर्थ हूँ।

निर्लक्ष्यं च निरीहं च सारं वाङ्मनसोः परम् ।।

यं स्तोतुमक्षमोऽनन्तः सहस्रवदनेन च ।।३२।।

वे अलक्ष्य, अनीह, सारभूत तथा मन और वाणी से परे हैं। भगवान अनन्त सहस्र मुखों द्वारा भी उनकी स्तुति नहीं कर सकते।

पञ्चवक्त्रश्चतुर्वक्त्रो गजवक्त्रः षडाननः ।।

यं स्तोतुं न क्षमा माया मोहिता यस्य मायया।।३३।।

पंचमुख महादेव, चतुर्मुख ब्रह्मा, गजानन गणेश और षडानन कार्तिकेय भी जिनकी स्तुति करने में समर्थ नहीं हैं, माया भी जिनकी माया से मोहित रहती है,

यं स्तोतुं न क्षमा श्रीश्च जडीभूता सरस्वती ।।

वेदा न शक्ता यं स्तोतुं को वा विद्वांश्च वेदवित्।।३४।।

लक्ष्मी भी जिनकी स्तुति करने में सफल नहीं होती, सरस्वती भी जड़वत हो जाती है और वेद भी जिनका स्तवन करने में अपनी शक्ति खो बैठते हैं, उन परमात्मा का स्तवन दूसरा कौन विद्वान कर सकता है?

किं स्तौमि तमनीहं च शोकार्त्ता स्त्री परात्परम् ।।

इत्युक्त्वा सा च गान्धर्वी विरराम रुरोद च ।। ३९ ।।

मैं शोकातुर अबला उन निरीह परात्पर परमेश्वर की स्तुति क्या कर सकती हूँ। ऐसा कहकर गन्धर्व-कुमारी मालावती चुप हो गयी और फूट-फूटकर रोने लगी।

महापुरुषस्तोत्र के लाभ

जो वैष्णव पुरुष पूजाकाल में इस पुण्यमय महापुरुषस्तोत्र का पाठ करता है, वह श्रीहरि की भक्ति एवं उनके दास्य का सौभाग्य पा लेता है। जो आस्तिक पुरुष वर-प्राप्ति की कामना रखकर उत्तम आस्था और भक्तिभाव से इस स्तोत्र को पढ़ता है, वह धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष-सम्बन्धी फल को निश्चय ही पाता है। इस स्तोत्र के पाठ से विद्यार्थी को विद्या का, धनार्थी को धन का, भार्या की इच्छा वाले को भार्या का और पुत्र की कामना वाले को पुत्र का लाभ होता है। धर्म चाहने वाला धर्म और यश की इच्छा वाला यश पाता है। जिसका राज्य छिन गया है, वह राज्य और जिसकी संतान नष्ट हो गयी है, वह संतान पाता है। रोगी रोग से और कैदी बन्धन से मुक्त हो जाता है। भयभीत पुरुष भय से छुटकारा पा जाता है। जिसका धन नष्ट हो गया है, उसे धन की प्राप्ति होती है। जो विशाल वन में डाकुओं अथवा हिंसक जन्तुओं से घिर गया है, दावानल से दग्ध होने की स्थिति में आ गया है अथवा जल के समुद्र में डूब रहा है, वह भी इस महापुरुषस्तोत्र का पाठ करके विपत्ति से छुटकारा पा जाता है।

इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डे सौतिशौनकसंवादे गन्धर्वजीवदाने महापुरुषस्तोत्रप्रणयनं नामाष्टादशोऽध्यायः ।। १८ ।।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *