Maharishi Ashtavakra story: क्या है अष्टावक्र गीता का ज्ञान देने वाले महर्षि अष्टावक्र की कहानी?

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भगवद्गीता पढ़ते हुए जितना आश्चर्य होता है कि महर्षि वेदव्यास ने मनुष्य के जीवन को संवारने वाले ऐसे सार्वभौमिक और सर्वकालिक सूत्र कैसे लिखे, उससे कुछ ज्यादा हैरानी अष्टावक्र गीता को पढ़ते हुए होता है कि महर्षि अष्टावक्र को ब्रह्म और आत्मा के बारे में इतना गहरा ज्ञान कैसे हुआ। इस गीता को पढ़ने का सीधा प्रभाव यह होता है कि आप तुरंत जगत के मिथ्या और आत्मा के सत्य को समझने लगते हैं। यह समझ आपको आपके दुखों से मुक्त करते हुए मोक्ष की ओर आपकी यात्रा शुरू कर देती है। इतनी प्रभावी होने के बावजूद अष्टावक्र गीता भगवद्गीता की तुलना में कम पढ़ी जाती है। अष्टावक्र गीता बहुत सहज ही आत्मा से हमारा साक्षात्कार कराती है। लेकिन इतनी सहजता से आत्मा का अन्वेषण करने वाले महर्षि अष्टावक्र के जीवन की कहानी उतनी ही उलझी हुई है। आइए, अष्टावक्र ऋषि की जीवन गाथा से रूबरू होते हैं।

महर्षि अष्टावक्र का यह नाम क्यों पड़ा?

महाभारत के 132वें और 133वें अध्यायों में अष्टावक्र के जीवन की कहानी कही गई है। इन अध्यायों के मुताबिक, छांदोग्य उपनिषद में जिनका वर्णन मिलता है, ऐसे एक ऋषि थे, आरुणि उद्दालक। वह तत्त्वमसि (तत् त्वम् असि यानी वह तुम ही हो) महावाक्य के प्रणेता महर्षि थे। उन्होंने ही ऋषि श्वेतकेतु को ब्रह्म-विद्या का विशेष ज्ञान दिया था। श्वेतकेतु उनके ही पुत्र थे।

महर्षि उद्दालक के एक दूसरे शिष्य थे ऋषि कहोड़, जिनकी सेवा से प्रसन्न होकर उन्होंने इन्हें शीघ्र सम्पूर्ण वेद-शास्त्रों का ज्ञान ही नहीं दिया, बल्कि अपनी बेटी सुजाता का विवाह भी इनसे कर दिया। सुजाता जब गर्भवती हुई, तो उसका गर्भस्थ शिशु अग्नि के समान तेजस्वी था। एक दिन जब उस गर्भस्थ शिशु के पिता ऋषि कहोड़ स्वाध्याय कर रहे थे, तो गर्भस्थ शिशु ने उन्हें टोकते हुए कहा, “पिताजी, आप दिन-रात वेद-पाठ करते हैं फिर भी आपका उच्चारण अशुद्ध रहता है।” शिष्यों के बीच बैठे महर्षि कहोड़ यह उलाहना सुनकर अपमान से तिलमिला गए। उन्होंने गर्भस्थ बालक को शाप दे दिय, “अरे तू गर्भ में रहकर ऐसी टेढ़ी बातें बोलता है, इसलिए तू आठ अंगों से टेढ़ा हो जाएगा।”

इस शाप के फलस्वरूप बालक आठो अंगों से टेढ़ा पैदा हुआ, इसीलिए अष्टावक्र नाम से उसकी प्रसिद्धि हुई। महर्षि उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु उन्हीं की आयु के थे, इसलिए मामा-भांजे की शिक्षा साथ-साथ हुई। दोनों के गुरु महर्षि उद्दालक थे। यहां यह बात जान लेना भी जरूरी है कि अष्टावक्र जब मां के पेट में थे तो उनकी होने वाली मां ऋषि कन्या सुजाता ने अपने पति ऋषि कहोड़ से पैसों को लेकर चिंता जताई कि बालक के जन्म के समय पैसा चाहिए होगा। ऋषि कहोड़ पैसा कमाने के लिए राजा जनक के दरबार में गए। वहां राजपंडित बंदी से उन्हें शास्त्रार्थ करना पड़ा, जिसमें वह हार गए। राजपंडित बंदी ने उन्हें जल में डुबो दिया। जब महर्षि उद्दालक को यह समाचार मिला, तो उन्होंने अपनी पुत्री सुजाता को सबकुछ बताकर कहा कि बेटी अपने बेटे को कभी यह बात न बताना। अष्टावक्र जन्म के समय से ही महर्षि उद्दालक को अपना पिता समझते थे और श्वेतकेतु, जो कि असल में उनके मामा थे, उन्हें वह अपना भाई मानते थे।

राजा जनक के दरबार में कैसे पहुंचे महान ऋषि अष्टावक्र?

बारह वर्ष की आयु में जब महान ऋषि खुद को उनका पुत्र मानते हुए महर्षि उद्दालक की गोद में बैठे थे, तभी श्वेतकेतु वहां आए और अष्टावक्र का हाथ पकड़कर खींचकर दूर ले गए और गोद से हटाकर बोले, “यह तेरे पिता की गोदी नहीं है।” इस घटना से दुखी हुए बालक अष्टावक्र ने अपनी मां से पूछा, “मेरे पिता कहां हैं? बताओ। नहीं बताओगी तो मैं शाप दे दूंगा।”

ऋषि बालक अष्टावक्र के दुख को महसूस करते हुए और उसके शाप से घबराकर उनकी मां सुजाता ने सारा रहस्य उनके सामने खोल दिया। इसे सुनकर बालक अष्टावक्र और दुखी हो गए। उन्होंने मन ही मन बंदी से बदला लेने का निश्चय किया और श्वेतकेतु के पास जाकर बोले, “क्यों न राजा जनक की सभा में चला जाए, सुना है उनके दरबार में बहुत सी हैरान करने वाली बातें होती हैं, विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ होता है। हम दोनों विद्वान ब्राह्मणों का शास्त्रार्थ सुनेंगे, हमें बढ़िया भोजन मिलेगा और हमारी प्रवचन शक्ति भी बढ़ेगी।”

खुद भी उच्च ज्ञान के प्रति जिज्ञासु होने के कारण श्वेतकेतु राजा जनक के यज्ञ में चलने के लिए तैयार हो गए। मामा-भांजा जब राजा जनक के यज्ञ में भाग लेने के लिए जा रहे थे, तो यज्ञ मंडप की ओर जाते समय रास्ते में ही उनकी राजा जनक से भेंट हो गई। उस समय राज सेवक जब उन्हें मार्ग में हटने को कहने लगे, तो अष्टावक्र बोले, “जब तक ब्राह्मण का सामना न हो, तब तक अंधे, बहरे, स्त्री, बोझ ढोने वाले और राजा का मार्ग उसके जाने के लिए छोड़ देना चाहिए। परंतु यदि ब्राह्मण मिल जाए, तो सबसे पहले उसी को मार्ग देना चाहिए।” यह सुनकर राजा जनक ने मार्ग छोड़ दिया और कहा “आग कभी छोटी नहीं होती। देवराज इन्द्र भी सदा ब्राह्मणों के आगे मस्तक झुकाते हैं।”

इसके बाद यज्ञ के द्वार पर द्वारपाल ने कहा, “हम पंडितराज बंदी के आज्ञा पालक हैं। उनकी आज्ञानुसार इस यज्ञ में बालक ब्राह्मण प्रवेश नहीं कर सकते। यहां वयोवृद्ध और बुद्धिमान ब्राह्मण का ही प्रवेश हो सकता है।” इस पर अष्टावक्र बोले, हम लोग वृद्ध ही हैं क्योंकि हमने ब्रह्मचर्य का पालन किया है और हम वेदों के प्रभाव से भी संपन्न हैं। हम गुरुजनों के सेवक हैं, जितेन्द्रिय हैं और ज्ञान-शास्त्र में भी परिनिष्ठित हैं। उम्र में बालक होने के कारण ही किसी ब्राह्मण को अपमानित करना उचित नहीं बताया गया है। आग की छोटी सी चिनगारी भी यदि छू जाए, तो वह जला डालती है। उम्र में बड़ा होने, बाल पकने, धन बढ़ जाने और अधिक भाई-बंधु हो जाने से ही कोई बड़ा नहीं हो जाता है। मैं राजसभा में पंडित राज बंदी से मिलने आया हूं। आज तुम हमें शास्त्रार्थ करते देखोगे और बंदी को परास्त हुआ पाओगे।”

द्वारपाल के संकेत करने पर उन्होंने राजा जनक से कहा, “मैं अद्वैत ब्रह्म के विषय में अपने विचार रखने आया हूं। बंदी नामक वह प्रसिद्ध विद्वान कहां हैं? मैं उनसे मिलकर उनके तेज को उसी प्रकार शांत कर दूंगा, जिस प्रकार सूर्य तारों की ज्योति विलुप्त कर देता है।”

ऋषि बंदी और अष्टावक्र के शास्त्रार्थ में क्या हुआ?

राजा जनक ने कहा, “ब्राह्मण कुमार, तुम अपने विपक्षी की प्रवचन शक्ति को जाने बिना ही बंदी को हराने की बात कर रहे हो। जो प्रतिवादी के बल को नहीं जानते, वे ही ऐसी बातें कह सकते हैं। वेदों का अनुशीलन करनेवाले बहुत से ब्राह्मण बंदी का प्रभाव देख चुके हैं।” अष्टावक्र ने जवाब दिया, “महाराज बंदी को हम जैसों से शास्त्रार्थ करने का अवसर नहीं मिला है, इसीलिए वह सिंह बने हुए हैं। आज वह जब मुझसे मिलेंगे, तो रास्ते से टूटे छकड़े की भांति पड़े रह जाएंगे।”

इस पर राजा जनक ने परीक्षा लेने के उद्देश्य से कहा, “जो पुरुष तीस अवयव, बारह अंश, चौबीस पर्व और तीन सौ साठ अरांवाले पदार्थ को जानता है, उसके प्रयोजन को समझता है, वह उच्चकोटि का ज्ञानी है।” इसके उत्तर में अष्टावक्र बोले, “महाराज जिसमें बारह अमावस्या, बारह पूर्णिमा रूपी चौबीस पर्व, ऋतु रूपी छः नाभि, मास रूप बारह अंश और दिन रूप तीन सौ साठ अरे हैं, वह निरंतर घूमने वाला संवत्सर रूप कालचक्र आपकी रक्षा करे।”

इसके बाद राजा जनक ने और भी कई गूढ़ प्रश्न पूछे, जिनके अष्टावक्र ने सटीक उत्तर दिए। तब जनक बोले- “ब्राह्मण, आपकी शक्ति तो देवताओं के समान है। मैं आपको मनुष्य नहीं मानता। आप बालक भी नहीं हैं। मैं तो आपको वृद्ध ही समझता हूं। वाद-विवाद करने में आपके समान दूसरा नहीं, अतः आपको यज्ञ मंडप में जाने के लिए द्वार प्रदान करता हूं।”

इसके बाद अष्टावक्र ने बंदी के प्रश्नों के उत्तर दिए और आधे श्लोक को पूरा कर बंदी को हरा दिया। इस पर राजा जनक ने शास्त्रार्थ के नियम के अनुसार अष्टावक्र को ही यह बताने के लिए कहा कि बंदी को किस प्रकार प्राणदंड दिया जाए। अष्टावक्र ने यह निर्णय स्वयं बंदी पर छोड़ दिया। बंदी ने बताया कि वह राजा वरुण का पुत्र है। वरुण के यहां भी आपके इस यज्ञ के समान बारह वर्षों में पूर्ण होनेवाला यज्ञ हो रहा है। उस यज्ञ को पूरा करने के लिए मैंने जल में डुबाने के बहाने कुछ चुने हुए ब्राह्मणों को वरुण लोक भेज दिया था और अब ये सब पुनः लौटकर आ रहे हैं। मैं पूज्य ब्राह्मण कुमार अष्टावक्र जी का सत्कार करता हूं, जिनके कारण मेरा अपने पिता जी से मिलना संभव होगा।”

बंदी के दंडित किए जाने से पूर्व महात्मा वरुण द्वारा पूजित हुए वे सभी ब्राह्मण जो बंदी द्वारा डुबोकर मारे गए थे, सहसा राजा जनक के समीप प्रकट हो गए। बंदी स्वयं समुद्र के जल में समा गया। बंदी पर विजय पाकर अपने पिता और मामा के साथ अष्टावक्र अपने नाना महर्षि उद्दालक के आश्रम में लौट आए।

बाद में अष्टावक्र के पिता कहोड़ ऋषि ने अपनी पत्नी के पास अष्टावक्र को बुलाया और कहा, “बेटा तुम शीघ्र ही इस ‘समंगा’ नदी में स्नान के लिए प्रवेश करो।” पिता की आज्ञानुसार जल में प्रवेश करते समय जल का स्पर्श होते ही अष्टावक्र के सभी अंग सीधे हो गए। इसी से समंगा नदी पुण्यी हो गई।

राजा जनक को दिए ज्ञान से संभव हुई अष्टावक्र गीता

अष्टावक्र और उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु दोनों महर्षि समस्त भूमंडल के वेद-वेत्ताओं में श्रेष्ठ थे। महर्षि श्वेतकेतु मंत्र शास्त्र में निपुण थे। कहते हैं कि उन्होंने मानव रूप धारिणी सरस्वती देवी का प्रत्यक्ष दर्शन किया था। उन्होंने अपने समीप आई सरस्वती से प्रार्थना की थी, “मैं वाणी स्वरूपा आपके तत्व को यथार्थ रूप में जानना चाहता हूँ।” उसी के फलस्वरूप वह निष्णात विद्वान बने।

अष्टावक्र वाद-विवाद में बड़े कुशल थे। वह आत्मज्ञान में भी बड़े निपुण और योग-विद्या में भी प्रवीण थे। मार्ग में जब राजा जनक मिले थे, तो उनके वक्र रूप और कुरूपता से राजा के चित्त में घृणा भाव भी उदित हुआ था। अष्टावक्र ने अपनी आत्म-विद्या के बल पर राजा के मन की घृणा को पहचान लिया और ज्ञान का उत्तम अधिकारी जानकर कहा, “हे राजन मंदिर के टेढ़ा होने से आकाश टेढ़ा नहीं होता और मंदिर के गोल या लंबा होने पर आकाश गोल अथवा लंबा नहीं होता। कारण स्पष्ट है कि आकाश का मंदिर के साथ कोई संबंध नहीं है। आकाश निरवयव है और मंदिर सावयव है। इसी प्रकार आत्मा का भी शरीर के साथ कोई संबंध नहीं है, क्योंकि आत्मा निरवयव है और शरीर सावयव। आत्मा नित्य है और शरीर अनित्य है। शरीर का टेढ़ा होना आत्मा को प्रभावित नहीं करता। हे राजन! ज्ञानवान को आत्मदृष्टि रहती है और अज्ञानी की संकुचित दृष्टि। अतः आप संकुचित दृष्टि त्याग कर आत्मदृष्टि से देखेंगे, तो चित्त से घृणा दूर हो जाएगी। संकुचित दृष्टि से अज्ञानी देखते हैं, ज्ञानवान नहीं।”

ऋषि के इन अमृत वचनों को सुनकर राजा जनक के मन में आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की उत्कट इच्छा हुई। उन्होंने ऋषि को कुछ दिन अपने निवास पर रहकर उपदेश देने की प्रार्थना की, जिससे वह अपने चित्त के संदेह दूर कर सकें। ऋषि ने राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ली। इसके बाद राजा जनक और ऋषि अष्टावक्र में जो प्रश्नोत्तर हुए, वही अष्टावक्र गीता है, जिससे राजा के अज्ञान का निराकरण हुआ और चित्त आत्म-स्वरूप में स्थित हुआ।

अष्टावक्र का जनक के द्वारपाल से वार्तालाप

महाभारत वनपर्व के तीर्थयात्रापर्व के अंतर्गत अध्याय 133 में अष्टावक्र का जनक के द्वारपाल से वार्तालाप का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से अष्टावक्र का जनक के द्वारपाल से वार्तालाप के वर्णन की कथा कही है।

अष्‍टावक्र-जनक संवाद –

अष्‍टावक्र बोले- राजन! जब तक ब्राह्मण से अपना न हो, तब तक अंधे का मार्ग, बहरे का मार्ग, स्त्री का मार्ग, बौझ ढोने वाले का मार्ग तथा राजा का मार्ग उस उसके जाने के लिये छोड़ देना चाहिये; परंतु यदि ब्राह्मण सामने मिल जाय तो सबसे पहले उसी को मार्ग देना चाहिये।

राजा ने कहा- ब्राह्मण कुमार! लो मैनें तुम्हारे लिये आज यह मार्ग दे दिया है। तुम जिससे जाना चाहो उसी मार्ग से इच्छानुसार चले जाओ। आग कभी छोटी नहीं होती। देवराज इन्द्र भी सदा ब्राह्मणों के आगे मस्तक झुकाते हैं।

अष्‍टावक्र बोले- राजन! हम दोनों आपका यज्ञ देखने के लिये आये हैं। नरेन्द्र! इसके लिये हम दोनों के हृदय में प्रबल उत्कण्डा हैं। हम दोनों यहाँ अतिथि के रुप में उपस्थित हैं और यज्ञ में प्रवेश करने के लिये हम तुम्हारे द्वारपाल की आज्ञा चाहते हैं। इन्द्र धुम्नकुमार जनक! हम दोनों यहाँ यज्ञ देखने के लिये आये है और आप जनकराज से मिलना तथा बात करना चाहते हैं, परंतु यह द्वारपाल हमें रोकता हैं; अत: हम क्रोध रुप व्याधि से दग्ध हो रहे हैं।

द्वारपाल से वार्तालाप –

अष्‍टावक्र बोले- द्वारपाल! यदि यहाँ वृद्ध ब्राह्मण के लिये प्रवेश का द्वार खुला है, तब तो हमारा प्रवेश होना भी उचित ही है; क्योंकि हमलोग वृद्ध ही है, हमने ब्रहचर्य व्रत का पालन किया है तथा हम वेद के प्रभाव से भी सम्पन्न हैं। साथ ही, हम गुरु जनों के सेवक, जितेन्द्रिय तथा ज्ञानशास्त्र में परिनिष्‍ठि‍त भी हैं। अवस्था में बालक होने के कारण ही किसी ब्राह्मण को अपमानित करना उचित नहीं बताया गया है; क्योंकि आग की छोटी सी चिनगारी भी यदि छू जाय तो वह जला डालती हैं।

द्वारपाल ने कहा- ब्राह्मणकुमार! तुम वेदप्रतिपादित, एकाक्षरब्रह्म का बोध कराने वाली, अनेक रुपवाली, सुन्दर वाणी का उच्चारण करो और अपने आपको बालक समझों, स्वयं ही अपनी प्रशंसा क्यो करते हो। इस जगत में ज्ञानी दुर्लभ हैं।

अष्‍टावक्र बोले- द्वारपाल! केवल शरीर बढ़ जाने से किसी की बढ़ती नहीं समझी जाती है। जैसे सेमल के फल की गांठ बढने पर भी सारहीन होने के कारण वह व्यर्थ ही है। छोटा और दुबला पतला वृक्ष भी यदि फलों के भार से लदा है तो उसे ही वृद्ध (बड़ा) जानना चाहिये। जिससे फल नहीं लगते, उस वृक्ष का बढ़ना भी नहीं के बराबर है।

द्वारपाल ने कहा- बालक बड़े बूढ़ों से ही ज्ञान प्राप्त करते है और समयानुसार वे भी वृद्ध होते हैं। थोड़े समय में ज्ञान की प्राप्ति असम्भव है, अत: तुम बालक होकर भी क्यों वृद्ध की सी बातें करते हो। अष्‍टावक्र बोले- अमूक व्यक्ति के सिर के बाल पक गये है, इतने ही मात्र से वह बूढ़ा नहीं होता है, अवस्था में बालक होने पर भी जो ज्ञान में बढ़ा बूढ़ा है, उसी को देवगण वृद्ध मानते है।

अधि‍क वर्षों की अवस्‍था होने से, बाल पकने से, धन बढ़ जाने से और अधि‍क भाई बन्‍धु हो जाने से भी कोई बड़ा हो नहीं सकता; ऋषि‍यों ने ऐसा नि‍यम बनाया है कि‍ हम ब्राह्मणों मं जो अंगो सहि‍त सम्‍पूर्ण वेदो कों स्‍वाध्‍याय करने वाला तथा वक्‍ता है, वही बड़ा है। द्वारपाल! मै राज्‍यसभा में बन्‍दी से मि‍लने के लि‍ये आया हं। तुम कमलपुष्‍प की माला धारण कि‍ये हुए महाराज जनक को मेरे आगमन की सूचना दे दो। द्वारपाल! आज तुम हमें वि‍द्वानो के साथ शास्‍त्रार्थ करते देखोंगे, साथ ही वि‍वाद बढ़ जाने पर बंदी को परास्‍त हुआ पाओगे। आज सम्‍पूर्ण समासद चुपचाप बैठे रहें तथा राजा और उनके प्रधान पुराहि‍तों के साथ पूर्णत: ब्राह्मण मेरी लघुता अथवा श्रैष्‍ठता को प्रत्‍यक्ष देखें।

द्वारपाल ने कहा- जहाँ सुशि‍क्षि‍त वि‍द्वानों का प्रवेश होता है; उस यज्ञमण्‍डल में तुम जैसे दस वर्ष के बालक का प्रवेश होना कैसे सम्‍भव है। तथपि‍ मै कि‍सी उपाय से तुम्‍हें उसके भीतर प्रवेश कराने का प्रयत्‍न करूंगा, तुम भी भीतर जाने के लि‍ये यथोचि‍त प्रयत्‍न करो। ये नरेश तुम्‍हारी बात सुन सके, इतनी ही दूरी पर यज्ञमण्‍डल में स्‍थि‍त है, तुम अपने शुद्ध वचनों के द्वारा इनकी स्‍तुति‍ करो। इससे ये प्रसन्‍न होकर तुम्‍हें प्रवेश करने की आज्ञा दे देगें तथा तुम्‍हारी और भी कोई कामना हो तो वे पूरी करेगें।

महाकाव्य में अष्टावक्र के जीवन की कथा वर्णित है, जिसका आधार वाल्मीकि रामायण का युद्धकाण्ड, महाभारत का वन पर्व, अष्टावक्र गीता एवं भवभूति द्वारा रचित उत्तररामचरितम् नाटक है। छान्दोग्य उपनिषद में वर्णित ऋषि उद्दालक के कहोल नामक एक शिष्य हैं। उद्दालक कहोल को अपनी पुत्री सुजाता विवाह में अर्पित करते हैं और नवविवाहित दम्पती एक जंगल के आश्रम में जीवन-यापन प्रारम्भ करते हैं। कुछ वर्षों के उपरान्त सुजाता गर्भवती हो जाती है। गर्भस्थ बालक एक बार रात्रि में अपने पिता ऋषि कहोल से कहता है कि उच्चारण करते समय प्रत्येक वैदिक मन्त्र में आठ अशुद्धियाँ कर रहे हैं। क्रुद्ध कहोल बालक को आठ अंगों (दोनों पैर, घुटने, हाथ और छाती एवं सिर) से विकलांग होने का घोर शाप दे देते हैं।

इसी मध्य जंगल में अकाल पड़ जाता है और सुजाता अपने पति कहोल को कुछ धनार्जन करने के लिए मिथिला में राजा जनक के समीप भेजती हैं। जनक का बन्दी नामक एक दरबारी कहोल को शास्त्रार्थ में पराजित कर देता है और वरुणपाश के द्वारा ऋषि को जल में डुबो देता है। उद्दालक सुजाता को उसके पति की दुर्दशा से अवगत कराते हुए इस घटना को बालक से गुप्त रखने को कहते हैं।

उद्दालक सुजाता द्वारा प्रसूत शिशु का नाम अष्टावक्र रखते हैं। उसी समय, उद्दालक के भी एक पुत्र का जन्म होता है, जिसका नाम श्वेतकेतु रखा जाता है। अष्टावक्र और श्वेतकेतु भाइयों की तरह बड़े होते हैं और उद्दालक से धर्मग्रन्थों का अध्ययन करते हैं। अष्टावक्र उद्दालक को अपना पिता एवं श्वेतकेतु को अपना भाई समझता है। किन्तु दस वर्ष की आयु में अपने पिता के बन्दी के बन्धन में होने का ज्ञान होने पर, वे अपने पिता को मुक्त कराने के लिए मिथिला जाने का निश्चय करते हैं। अष्टावक्र अपने मामा श्वेतकेतु के सहित मिथिला की यात्रा करते हैं और क्रमशः द्वारपाल, राजा जनक और बन्दी को शास्त्रार्थ में हराकर अपने पिता कहोल को वरुणपाश से मुक्त कराते हैं।

घर लौटते समय मार्ग में महर्षि कहोल अष्टावक्र को समंगा नदी में स्नान कराते हैं और अपने तपोबल से उन्हें उनके शरीर की आठों विकलांगताओं से मुक्त करा देते हैं। अन्त में, वशिष्ठ मुनि की प्रेरणा पर अष्टावक्र सीता एवं राम जी के राजदरबार में पधारते हैं और अयोध्या की राजसभा में सम्मानित किए जाने पर आनन्द का अनुभव करते हैं।

आठों सर्गों की कथा संक्षेप में नीचे प्रस्तुत है-

  • सम्भव: ज्ञान की देवी माँ सरस्वती का आह्वान करने के पश्चात् कवि महाकाव्य के प्रतिपाद्य के रूप में अष्टावक्र का परिचय देते हैं, जो आगे चलकर विकलांग जनों के पुरोधा एवं ध्वजावाहक बने। ऋषि उद्दालक अपनी पत्नी एवं दस सहस्र शिष्यों के साथ एक गुरुकुल में निवास करते हैं। ऋषि दम्पती के यहाँ सुजाता नाम की एक कन्या हैं, जो शिष्यों के साथ वेदों का अध्ययन करती हुई बड़ी होती हैं। उद्दालक के कहोल नामक एक प्रसिद्ध शिष्य हैं। विद्या समाप्ति के उपरान्त, उद्दालक कहोल को अपने उपयुक्त किसी ब्राह्मण कन्या से विवाह कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का आदेश देते हैं। कहोल सुजाता को अपनी जीवनसंगिनी बनाने को इच्छुक हैं किन्तु सकुचाते हैं कि गुरुपुत्री से विवाह करना समीचीन होगा कि नहीं। उद्दालक कहोल की मनोभावना को समझ जाते हैं और प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुत्री सुजाता कहोल को विवाह में प्रदान कर देते हैं। उद्दालक भविष्यवाणी करते हुए कहते हैं कि सुजाता एक ऐसे पुत्र को जन्म देगी, जो आगे चलकर विकलांगों के लिए प्रेरणास्रोत की भूमिका निभाएगा। विवाह के पश्चात्, नवदम्पती अपने आश्रम के लिए एक निर्जन जंगल का चयन करते हैं, जहाँ कहोल शिष्यों को विद्याध्ययन कराना प्रारम्भ कर देते हैं। सुजाता सूर्य भगवान की उपासना करती है और एक ऐसे पुत्र की अभिलाषा करती है, जिसका जीवन विकलांगजनों की समस्त समस्याओं हेतु समाधान प्रस्तुत करे। सूर्यदेव उसकी अभिलाषा स्वीकार करते हैं। सर्ग का समापन सुजाता द्वारा गर्भ धारण करने और दम्पती द्वारा आनन्दित होने की घटनाओं के साथ होता है।
  • संक्रान्ति: सर्ग के प्रथम २७ पद्यों (एक चौथाई भाग) में महाकवि क्रान्ति की सम्यक् अवधारणा “संक्रान्ति” का शंखनाद करते हुए उसे व्याख्यायित करते हैं। उनके अनुसार सम्यक् क्रान्ति रक्त बहाने से नहीं, अपितु विचारों के परिवर्तन से संभव है। किन्तु लोगों के लिए इस प्रकार की क्रान्ति कठिन हैं क्योंकि उनका अहं उन्हें इसके लिए अनुमति प्रदान नहीं करता। इसके पश्चात् कथाक्रम अग्रसर होता है। सुजाता के पुंसवन एवं सीमन्तोन्नयन संस्कार सम्पन्न हो जाने के पश्चात, एक दिन कहोल आगामी दिन शिष्यों को पढ़ाने के लिए अपने ज्ञान की प्रवीणता हेतु देर रात्रि तक वेदों का उच्चारण करते हैं। श्रान्ति और चार दोषों – भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा एवं करणापाटव – के कारण कहोल वेद उच्चारण करते समय आठ प्रकार की – जटा, रेखा, माला, शिखा, रथ, ध्वजा, दण्ड एवं घन पाठ संबन्धी – अशुद्धियाँ करना प्रारम्भ करते हैं। सुजाता का गर्भस्थ शिशु कुछ समय तो इसके सम्बन्ध में विचार करता रहता है और फिर यह जानकर कि ऋषि प्रत्येक मन्त्र के उच्चारण में आठ प्रकार की अशुद्धियाँ कर रहे हैं, क्षुब्ध होकर अपने पिता से मन्त्रों का शुद्ध अभ्यास करने और अध्यापन न करने को कहता है। कहोल यह सुनकर चकित रह जाते हैं और यह कहते हुए कि वह परम्परा के अनुसार ही उच्चारण कर रहे हैं और विस्मृति जीव के लिए स्वाभाविक है, गर्भस्थ शिशु से शान्त रहने के लिए कहते हैं। किन्तु शिशु प्रत्युत्तर देते हुए पिता से रुढ़ियों का पुरातन शव फेंकने को कहता है और उनसे पुनः एक बार और उद्दालक से वेदों का अध्ययन करने की विनती करता है। कुपित कहोल शिशु को आठ वक्र (टेढ़े) अंगों के साथ उत्पन्न होने का शाप दे देते हैं। किन्तु तुरन्त इसके पश्चात् कहोल को पश्चाताप का अनुभव होता है। परन्तु शिशु अष्टावक्र शाप को सहर्ष स्वीकार करते हुए अपने पिता से इस सम्बन्ध में पश्चाताप न करने का अनुरोध करता है।
  • समस्या: यह सर्ग अपनी माता के उदर में स्थित शिशु अष्टावक्र के स्वगतकथन के माध्यम से उनकी समस्या का वर्णन करता है। सर्ग करुण रस, वीर रस एवं आशावाद से परिपूर्ण है। प्रथम ३० पद्यों में सार्वभौमिक एवं अत्यधिक सशक्त समस्या के लिए विभिन्न रूपक चित्रित किए गए हैं। भगवान पर अगाध विश्वास एवं संकल्पयुक्त कार्य किसी समस्या से मुक्ति प्राप्त करने के सर्वोत्तम उपाय हैं और अष्टावक्र दृढ़निश्चयी हैं कि वे अपने संकट से मुक्ति पाकर ही रहेंगे। कवि के विशिष्टाद्वैत दर्शन के अनुसार आत्मा के आदि एवं अन्त और जन्म एवं मृत्यु से रहित और क्षणिक समस्याओं से परे सत्य स्वरुप का वर्णन ६१ से ८२ पद्यों में प्रस्तुत किया गया है। तत्पश्चात् अष्टावक्र कहोल से उनके पश्चाताप के सम्बन्ध में बताते हुए कहते हैं कि वे एक विकलांग का जीवन व्यतीत करने के लिए तत्पर एवं प्रतिबद्ध हैं। वे अपने पिता से भविष्य में किसी को भी शाप न देने का अनुरोध करते हैं। सर्ग का समापन अष्टावक्र की उन आशापूर्ण भविष्यवाणियों से होता है, जिनमें वे कहते हैं कि उनके पिता का शाप विश्व के विकलांगों के लिए एक मंगलमय वरदान है क्योंकि अष्टावक्र शीघ्र ही उनके आदर्श सिद्ध होंगे।
  • संकट: कवि संकट की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं, जो मित्रता, कुशलता, बुद्धि एवं गुणों के लिए एक परीक्षाकेन्द्र के समान है। अष्टावक्र का गर्भस्थ शरीर एक कछुए के अंडे की भाँति हो जाता है। ऋषि कहोल शिशु को दिए अपने शाप पर पश्चाताप अनुभव करने लगते हैं। ऋषि का पाप जंगल में अकाल के रूप में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है और कहोल के समस्त शिष्य आश्रम छोड़कर चले जाते हैं। जंगल में पशु और पक्षी भूख-प्यास से मरने लगते हैं। सुजाता कहोल को राजा जनक के यज्ञ में जाने और शास्त्रार्थ में ज्ञानियों की सभा को पराजित कर कुछ धन लाने के लिए कहती है। इच्छा न होते हुए भी, कहोल मिथिला जाते हैं। किन्तु, वरुण का पुत्र बन्दी उन्हें शास्त्रार्थ में हरा देता है और उन्हें वरुणपाश में बाँधकर समुद्र के जल में डुबो देता है। उधर जंगल में सुजाता एक पुत्र को जन्म देती है। उद्दालक सुजाता की सहायता के लिए आते हैं और उसे कहोल के साथ घटित प्रसंग के बारे में बताते हैं। वे उससे इस प्रसंग को शिशु से गुप्त रखने को कहते हैं क्योंकि अपने पिता की पराजय का ज्ञान शिशु के व्यक्तित्व के विकास में बाधक बन सकता है। उद्दालक शिशु का जातकर्म संस्कार सम्पन्न करते हैं। शिशु को प्रत्येक व्यक्ति “अष्टवक्र” (आठ वक्र या टेढ़े अंगों से युक्त) कहकर बुलाता है, किन्तु उद्दालक उसका नामकरण “अष्टावक्र” करते हैं, जिसके अर्थ यहाँ प्रस्तुत हैं। अष्टावक्र द्वारा अपने नाना के आश्रम में बड़े होने के साथ सर्ग का समापन होता है।
  • संकल्प: सर्ग का प्रारम्भ संकल्प की अवधारणा से होता है। कवि कहते हैं कि सात्त्विक संकल्प ही सत्य एवं पवित्र संकल्प होता है। अष्टावक्र विकलांग उत्पन्न हुए हैं और उसी समय उद्दालक के यहाँ श्वेतकेतु नामक पुत्र का जन्म होता है। दोनों मामा और भांजे एक साथ उद्दालक के आश्रम में बड़े होते हैं। किन्तु उद्दालक अपने सकलांग पुत्र श्वेतकेतु की अपेक्षा विकलांग दौहित्र अष्टावक्र से अधिक प्रेम करते हैं। अष्टावक्र उद्दालक से ज्ञान प्राप्ति में श्वेतकेतु समेत अन्य समस्त शिष्यों से भी आगे बढ़कर सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होते हैं। अष्टावक्र के दसवें जन्मदिवस के अवसर पर, उद्दालक एक समारोह का आयोजन करते हैं। उद्दालक अष्टावक्र को अपनी गोद में बिठाकर उनका आलिंगन करने लगते हैं। यह देखकर श्वेतकेतु ईर्ष्याग्रस्त हो जाते हैं और अष्टावक्र से उनके पिता की गोद से नीचे उतर जाने को कहते हैं। श्वेतकेतु अष्टावक्र के समक्ष रहस्योद्घाटन करते हुए कहते हैं कि उद्दालक वस्तुतः उनके नाना हैं और वह उनके वास्तविक पिता के सम्बन्ध में नहीं जानते। तत्पश्चात श्वेतकेतु अष्टावक्र की विकलांगता का उपहास उड़ाते हुए उनका अपमान करता है। सुजाता से अपने वास्तविक पिता कहोल के सम्बन्ध में सुनकर अष्टावक्र श्वेतकेतु को उन्हें जागृत करने के लिए धन्यवाद देते हैं। अष्टावक्र अपने पिता के बिना उद्दालक के आश्रम में न लौटने का दृढ़ निश्चय करते हैं। अष्टावक्र का संकल्प विश्व के समक्ष प्रदर्शित करेगा कि विकलांग किसी भी वस्तु को, जिसका वे स्वप्न देखते हैं, प्राप्त करने में समर्थ हैं।
  • साधना: कवि स्पष्ट करते हैं कि साधना संकल्प की शक्ति एवं सफलता का मन्त्र है। अष्टावक्र सतत चिन्तित रहते हैं कि वे किस प्रकार अपने पिता को बन्दी के बन्धन से मुक्त कराएं। वे प्रतीति करते हैं कि कहोल के गलत होने के पश्चात भी कहोल की अशुद्धियों को प्रकट कर उनका प्रतिरोध करने का उनका अधिकार नहीं था। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उनके प्रतिरोध की परिणति कहोल को क्रुद्ध करने में हुई, जिसके कारण उन्हें यह दुर्भाग्यपूर्ण शाप मिला, क्योंकि क्रोध मनुष्य का सबसे भयंकर शत्रु है। अष्टावक्र वेद, उपवेद, न्याय, मीमांसा, धर्म, आगम एवं अन्य ग्रन्थों में प्रवीणता प्राप्त करने का निश्चय करते हैं। वे उद्दालक से इन ग्रन्थों का अध्ययन कराने की प्रार्थना करते हैं। अत्यन्त ही अल्प समय में अष्टावक्र अपने एकश्रुत विलक्षण गुण की सहायता से उद्दालक द्वारा शिक्षित प्रत्येक ग्रन्थ में पाण्डित्य प्राप्त कर लेते हैं। समावर्तन संस्कार के अवसर पर उद्दालक अष्टावक्र को आत्मा के सम्बन्ध में अन्तिम उपदेश प्रदान करते हैं और तदुपरान्त उन्हें अपने पिता की मुक्ति के उद्देश्य से राजा जनक की सभा में जाने का आदेश देते हैं। उद्दालक पश्चाताप से ग्रस्त श्वेतकेतु को, जिन्होंने पूर्व में अष्टावक्र का अपमान किया था, अष्टावक्र के सहित भेजने का निश्चय करते हैं। अष्टावक्र यह निश्चय करते हुए कि पिता की मुक्ति ही उनकी सच्ची गुरुदक्षिणा होगी, उद्दालक को प्रणाम करते हैं। उद्दालक उन्हें विजयी होने का आशीर्वाद प्रदान करते हैं। माता सुजाता भी उन्हें अपना आशीष देती है। अष्टावक्र अपने मामा श्वेतकेतु के सहित मिथिला की उद्देश्यपूर्ण यात्रा के लिए निकल पड़ते हैं।
  • सम्भावना: सर्ग के प्रथम दस पद्यों में सम्भावना अथवा योग्यता का वर्णन अत्यन्त सजीवता से प्रस्तुत किया गया है। जब अष्टावक्र मिथिला पहुँचते हैं तो उस समय वे आत्मविश्वास से परिपूर्ण हैं। राजा जनक की मिथिला नगरी वेदों एवं आस्तिक दर्शन की छहों शाखाओं में निष्णात विद्वानों से भरी हुई है। बारहवर्षीय अष्टावक्र एवं श्वेतकेतु की अपने दरबार की ओर जा रहे राजा जनक से अनायास भेंट हो जाती है। जनक अपने सुरक्षाकर्मियों से विकलांग बालक को अपने पथ से हटाने के लिए कहते हैं। किन्तु, अष्टावक्र ऐसा करने के स्थान पर जनक को स्वयं उनके लिए पथ देने के लिए कहते हैं क्योंकि वे (अष्टावक्र) धर्मग्रंथों में पारंगत ब्राह्मण हैं। अष्टावक्र के तेज से प्रसन्न होकर, जनक उनसे कहते हैं कि वे मिथिला में किसी भी स्थान पर भ्रमण करने के लिए स्वतन्त्र हैं। किन्तु जनक का द्वारपाल अष्टावक्र को राजदरबार में प्रवेश नहीं करने देता है और उनसे कहता है कि मात्र ज्ञानी एवं बुद्धिमान वृद्धजन ही जनक के दरबार में प्रवेश करने के अधिकारी हैं। किन्तु अष्टावक्र द्वारपाल को अपनी वृद्ध की परिभाषा– कि मात्र ज्ञान में परिपक्व व्यक्ति ही वृद्धजन कहलाने योग्य हैं– के द्वारा अवाक् कर देते हैं। तब द्वारपाल उन्हें याज्ञवल्क्य, गार्गी एवं मैत्रेयी जैसे विद्वानों से अलंकृत सभा में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान कर देता है। अष्टावक्र बन्दी को शास्त्रार्थ करने के लिए खुली चुनौती देते हैं। किन्तु जनक अष्टावक्र से पहले उन्हें विवाद में सन्तुष्ट करने को कहते हैं और उनके समक्ष छह गूढ़ प्रश्न प्रस्तुत करते हैं, जिनका अष्टावक्र संतोषजनक रूप से समाधान करते हैं। तत्पश्चात् जनक उन्हें बन्दी से शास्त्रार्थ करने को कहते हैं। बन्दी मन ही मन समझ जाता है कि वह अष्टावक्र से हार जाएगा, परन्तु उनसे विवाद करने का निश्चय करता है। बन्दी अष्टावक्र की परीक्षा लेने हेतु उनकी विकलांगता का उपहास उड़ाने लगता है, जिस पर सभा हँसने लगती है। अष्टावक्र बन्दी और सभा दोनों को कड़ी फटकार लगाते हैं और सभा से जाने के लिए उद्यत हो उठते हैं।
  • समाधान: कवि कहते हैं कि समाधान प्रत्येक काव्यात्मक रचना का चरम लक्ष्य है और रामायण को कालातीत रूपक के रूप में प्रयुक्त करते हुए वे इस अवधारणा को व्याख्यायित करते हैं। जनक अष्टावक्र से बन्दी द्वारा किए गए अपमान के लिए क्षमा माँगते हैं और अष्टावक्र शान्त हो जाते हैं। वे जनक से निष्पक्ष निर्णायक की भूमिका निभाने का अनुरोध करते हुए बन्दी को पुनः वाग्युद्ध के लिए ललकारते हैं। अष्टावक्र कहते हैं कि बन्दी विवाद प्रारम्भ करें और वे उनके प्रश्नों का प्रत्युत्तर देंगे। विवाद आशुकाव्य के रूप में प्रारम्भ होता है। बन्दी एवं अष्टावक्र एक-एक करके एक से बारह की संख्या पर पद्य रचना आरंभ करते हैं। बन्दी तेरह संख्या के लिए पद्य का मात्र प्रथमार्द्ध रच पाता है, किन्तु शेष आधा भाग रचने में असफल रहता है। तब अष्टावक्र पूरे पद्य की तुरन्त रचना कर देते हैं और इस प्रकार बन्दी को पराजित कर देते हैं। सभा उनकी जय-जयकार करने लगती है और जनक उन्हें अपने गुरु के रूप में स्वीकार करते हैं। बन्दी अपने रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहता है कि वह वरुण का पुत्र है और उसने अपने पिता के बारह वर्ष से चल रहे वरुण यज्ञ में सहायता के लिए कहोल को अनेक अन्य ब्राह्मणों के सहित जल में डुबोकर वरुण लोक भेज दिया था। वह अपनी पराजय स्वीकार करता है और अष्टावक्र के समक्ष समर्पण कर देता है। वयोवृद्ध ऋषि याज्ञवल्क्य भी बालक अष्टावक्र को प्रणाम करते हैं और उन्हें अपना गुरु स्वीकार करते हैं। बन्दी वापस समुद्र में चला जाता है, जहाँ से कहोल ऋषि लौट आते हैं। महर्षि कहोल अपने पुत्र से कहते हैं कि वे उन्हें मुक्त कराने के लिए सदैव उनके ऋणी रहेंगे। अष्टावक्र पिता से प्रतीक्षारत माता के समीप लौट चलने के लिए अनुरोध करते हैं। घर की ओर लौटते समय रास्ते में, कहोल अष्टावक्र को गंगा की पुत्री समंगा नदी में स्नान करने को कहते हैं। नदी में स्नान करते ही कहोल के तप के बल से अष्टावक्र की विकलांगता समाप्त हो जाती है। सुजाता अपने पति एवं सकलांग पुत्र को देखकर हर्ष से फूली नहीं समाती।

अष्टावक्र आजीवन ब्रह्मचारी रहते हैं – इसके विपरीत कथन है – महाभारत / 13 अनुशासन पर्व / दानधर्म पर्व / 21वां अध्याय- अष्टावक्र और उत्तर दिशा का सँवाद के अन्तर्गत | वहाँ महती देवी अष्टावक्र को कहती है :-

  • विप्रवर ! अब आप कुशलपूर्वक अपने घर को जायंगे और मार्ग में आपको कोई श्रम अथवा कष्ट नहीं होगा | उस मनोनीत कन्या को आप प्राप्त कर लेंगे और आपके द्वारा वह पुत्रवती भी होगी ही|
  • अष्टावक्र को ब्राह्मण वदान्य ने कहा – ‘आप उत्तर नक्षत्र में विधिपूर्वक मेरी पुत्री का पाणिग्रहण कीजिये; क्योंकि आप अत्यन्त सुयोग्य पात्र हैं,
  • एक महान ऋषि बनते हैं। महाकाव्य के अन्त में, रामायण के युद्ध के पश्चात, महर्षि अष्टावक्र अयोध्या में परब्रह्म भगवान् श्रीसीताराम जी के राजदरबार में पधारते हैं। अष्टावक्र रानी और राजा की सुन्दर जोड़ी को निहारकर आनन्दित हो उठते हैं। सीता अपने पिता के गुरु को प्रणाम करती हैं और अष्टावक्र उन्हें आशीर्वचन प्रदान करते हैं।

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