धीमी कितनी गति है? विकास – रामधारी सिंह दिनकर
धीमी कितनी गति है? विकास
कितना अदृश्य हो चलता है?
इस महावृक्ष में एक पत्र
सदियों के बाद निकलता है।
थे जहाँ सहस्रो वर्ष पूर्व,
लगता है वहीं खड़े हैं हम।
है व्यर्थ गर्व, उन गुफावासियों सेÊ
कुछ बहुत बड़े हैं हम।
अनगढ़ पत्थर से लड़ो, लड़ो
किटकिटा नखों से, दाँतों से,
या लड़ो रीछ के रोमगुच्छ पूरित
वज्रीकृत हांथों से;
या चढ़ विमान पर नर्म मुट्ठियों से
गोलों की वृष्टि करो,
आ जाय लक्ष्य जो कोई,
निष्ठुर हो उसके प्राण हरो।
ये तो साधन के भेद, किंतु,
भावों में तत्त्व नया क्या है?
क्या खुली प्रेम की आँख अधिक?
भीतर कुछ बढ़ी दया क्या है?
झर गई पूँछ, रोमान्त झरे,
पशुता का झरना बाकी है;
बाहर–बाहर तन सँवर चुका,
मन अभी सँवरना बाकी है।
देवत्व अल्प, पशुता अथोर,
तमतोम प्रचुर, परिमित आभा,
द्वापर के मन पर भी प्रसरित
थी यही, आज वाली द्वाभा।
बस, इसी तरह, तब भी ऊपर
उठने को नर अकुलाता था,
पर पग–पग पर वासना–जाल में
उलझ–उलझ रह जाता था।
औ’ जिस प्रकार हम आज बेल–
बूटों के बीच खचित कर के,
देते हैं रण को रम्य रूप
विप्लवी उमंगों में भर के;
कहते, अनीतियों के विरुद्ध
जो युद्ध जगत में होता है,
वह नहीं ज़हर का कोष, अमृत का
बड़ा सलोना सोता है।
बस, इसी तरह, कहता होगा
द्वाभा–शासित द्वापर का नर,
निष्ठुरताएँ हों भले, किन्तु,
है महामोक्ष का द्वार समर।
सत्य ही, समुन्नति के पथ पर
चल रहा चतुर मानव प्रबुद्ध,
कहता है क्रांति उसे, जिसको
पहले कहता था धर्मयुद्ध।
सो धर्मयुद्ध छिड़ गया
स्वर्ग तक जाने के सोपान लगे,
सद्गतिकामी नर–वीर खड्ग से
लिपट गँवाने प्राण लगे।
छा गया तिमिर का सघन जाल,
मुँद गये मनुज के ज्ञान नेत्र,
द्वाभा की गिरा पुकार उठी,
“जय धमक्षेत्र! जय कुरुक्षेत्र!”