मन्त्रमहोदधि तरङ्ग २३ || Mantra Mahodadhi Taranga 23

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मन्त्रमहोदधि तरङ्ग २३ (तेवीसवां तरङ्ग) में दमनक तथा पवित्रक से इष्टदेव के सर्मचन का विधान कहा गया है।

मन्त्रमहोदधि त्रयोविंश: तरङ्गः

मन्त्रमहोदधि – त्रयोविंश तरङ्ग

मंत्रमहोदधि तरंग २३        

मंत्रमहोदधि तेवीसवां तरंग  

मन्त्रमहोदधिः             

अथ त्रयोविंशः तरङ्गः

अरित्र

वक्ष्येऽथो सर्वदेवानां पवित्रदमनार्पणम् ।

पवित्रदमनार्चनविधिवर्णनम्

पवित्रैः श्रावणे पूजा चैत्रे दमनकैरपि ॥ १॥

प्रत्यब्दं विधिवत्कुर्यादृर्षा, फलसिद्धये ।

अब सभी देवताओं के लिए पवित्र एवं दमनक के अर्पण की विधि कहता हूँ । वर्ष भर की पूजा की फल प्राप्ति के लिए पवित्री श्रावण में तथा दमनक चैत्र में समर्पित कर विधिवत् विष्णु देव का पूजन करना चाहिए ॥१-२॥

चैत्रे शुक्लचतुर्दश्यां दमनैः पूजयेद्धरिम् ॥ २॥

नारायणं तु द्वादश्यामष्टम्यां गिरिनन्दिनीम् ।

सप्तम्यां भास्करं देवं चतुर्थां गणनायकम् ॥ ३॥

एवं तत्ततिथौ तं तं पवित्रैः श्रावणेऽर्चयेत् ।

पवित्र एवं दमनक के अर्पण की तिथि-

चैत्र शुक्ल चतुर्दशी दो दमनक से श्रीविष्णु का, चैत्र शुक्ल द्वादशी को नारायण का, अष्टमी को पार्वती का, सप्तमी को सूर्य का तथा चतुर्थी को श्री गणेश का पूजन करना चाहिए । इसी प्रकार श्रावण की उक्त तिथियों में पवित्रक से तत्तदेवताओं का पूजन करना चाहिए ॥२-४॥

पूर्वाणे दमनार्चायाः कृत्वा नित्यार्चन विभोः ॥ ४॥

गत्वा दमनकाराम गृह्णीयात्तं क्रयार्पणात् ।

उपविश्य शुचौ देशे मनुनानेन चार्पयेत् ॥ ५॥

अशोकाय नमस्तुभ्यं कामस्त्रीशोकनाशन ।

शोकार्ति हर मे नित्यानन्दं जनयस्व मे ॥ ६ ॥

इति सम्प्रार्थ्य तत्राचेंद्रतिकामौ स्वमन्त्रतः ।

दमनक पूजाविधि – दमनक पूजा से एक दिन पहले अपने इष्टदेव की पूजा के दमनक (अशोक) के उपवन में जा कर मूल्य दे कर दमनक का क्रय करना चाहिए । फिर शुद्ध स्थान पर बैठकर ‘अशोकाय नमस्तुभ्यं; से ‘जनयस्व में’ पर्यन्त (द्र० २३.६) श्लोक पढकर प्रार्थना कर उस पर रति एवं काम का उनके अपने अपने मन्त्रों से पूजन करना चाहिए ॥४-७॥

तत्र कामरतिमन्त्रकथनम्

कामदेवाय कामादि हृदन्तोऽष्टाक्षरो मनुः ॥ ७॥

कामास्य मायारत्यै हृत्पञ्चार्णस्तु रतेर्मनुः ।

अब कामदेव का मन्त्र कहते हैं – प्रारम्भ में काम (क्लीं) फिर कामदेवाय उसके अन्त में हृदय (नमः) लगाने से ८ अक्षरों का कामदेव मन्त्र बनता है । माया (ह्रीं) फिर रत्यै और अन्त में हृदय (नमः) लगाने से ५ अक्षरों का रतिमन्त्र बनता है ॥७-८ ॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुपकामदेव का मन्त्र – क्लीं कामदेवाय नमः, रति का मन्त्र – ह्रीं रत्यै नमः ॥७-८ ॥

इष्टदेवस्य पूजार्थ नेष्यामि त्वामिति ब्रुवन् ॥ ८॥

उत्पाट्य पञ्चगव्येनाभिषिच्य क्षालयेज्जलैः ।

गन्धादिभिर्हदाभ्यर्च्य च्छादयेत् पीतवाससा ॥ ९ ॥

निधाय वंशपात्रे तं गीतवादित्रनिःस्वनैः ।

गृहमानीय तद्देशे स्थापयेद् देवतां स्मरन् ॥ १० ॥

इसके पश्चात् ‘इष्टदेवस्य पूजार्थं त्वां नेष्यामि’ ऐसा कह कर उखाडकर पञ्चगव्य से अभिषेक कर जल से प्रक्षालित करना चाहिए । तदनन्तर गन्ध अदि से (गन्धं समर्पयामि नमः) पूजा कर उसे पीले कपडे से ढक कर, बाँस की टोकरी में स्थापित कर, गाते-बजाते घर ले जाकर, इष्टदेव का स्मरण करते हुये पूजा स्थान में इस प्रकार स्थापित करना चाहिए ॥८-१०॥

ततो देवस्य पुरतः कृत्वाष्टदलमम्बुजम् ।

सितकृष्णरक्तपीतवर्णैः सम्पूरयेत्तु तम् ॥ ११ ॥

भुपुरं तबहिः कृत्वा पीतवर्णेन पूरयेत् ।

सितरक्तपीतवर्ण तबहिर्वर्तुलत्रयम् ॥ १२ ॥

रक्तवर्णेन तबाहये विदध्याच्चतुरस्रकम् ।

एवं विरचिते रम्ये मण्डले सार्वकामिके ॥ १३॥

इसके बाद इष्टदेव के सामने अष्टदल कमल बनाकर श्वेत, काले, रक्त एवं पीत वर्णों से उसे रंग देना चाहिए । उसके बाद भूपुर बनाकर उसे पीले रङ्ग से रंग देना चाहिए । पुनः उसके ऊपर सफेद लाल एवं पीले रङ्ग के तीन वृत्तों का निर्माण करना चाहिए । फिर उसके बाहर चतुरस्त्र बनाकर लाल रङ्ग से भर देना चाहिए ॥११-१३॥

इस प्रकार से निर्मित् रम्य सार्वकामिका मण्डल पर अथवा सर्वतोभद्र मण्डल पर दमनक की पिटारी को रख देना चाहिए ॥११-१३॥

यदि वा सर्वतोभद्रे मुञ्चेद्दमनभाजनम् ।

सायंकालीनपूजान्ते कुर्यात्तस्याधिवासनम् ॥ १४ ॥

ताराद्याभ्यां कामरतिमन्त्राभ्यां तत्र तौ यजेत् ।

दलेष्वष्टसु रत्याद्यानष्टौ कामान्पृथग्विधैः ॥ १५ ॥

अधिवास का विधान

सायंकालीन पूजा के बाद दमनक का इस प्रकार अधिवासन करना चाहिए । प्रणव सहित काम मन्त्र (ॐ क्लीं कामदेवाय नमः) एवं रतिमन्त्र (ह्रीं रत्यै नमः) से उन दोनों का पूजन कर तदनन्तर रति सहित कामदेव के आठ नामों के मन्त्र से अष्टदलों में पृथक्‍ रुप से पूजन करना चाहिए ॥१४-१५॥

कामनामकथनम्

कामो भस्मशरीरश्च ततोऽनङ्गश्च मन्मथः ।

वसन्तसखसंज्ञश्च स्मर इक्षुधनुर्धरः ॥ १६ ॥

पुष्पबाण इमे कामास्तान यजेन्नामभिर्निजैः ।

१. काम, २. भस्मशरीर, ३. अनङ्ग, ४. मन्मथ, ५. बसन्तसखा, ६. स्मर, ७. इक्षुधनुर्धर एवं ८. पुष्पबाण – ये कामदेव के आठ नाम कहे गये हैं ॥१६-१७॥

प्रणवानङ्गबीजाद्यैश्चतुर्थी हृदयान्वितैः ॥ १७ ॥

पूजाद्रव्यकथनम्

कर्पूररोचनान्यंकुनाभिजाऽगुरुकुंकुमैः ।

धात्रीफलैश्चन्दनेन पुष्पैः कामान् क्रमाद्यजेत् ॥ १८ ॥

इन नामों के चतुर्थ्यन्त रुपों के प्रारम्भ में प्रणव सहित कामबीज और अन्त में हृदय (नमः) लगाकर नाम मन्त्रों से कर्पूर, गोरोचन, कस्तूरी, अगर, कुंकुम, आँवला, चन्दन, एवं पुष्पों से उक्त आठ कामों का पूजन करना चाहिए ॥१७-१८॥

दमन गन्धपुष्पाद्यैरभिपूज्याभिमन्त्रयेत् ।

अष्टोत्तरशतं कामगायत्र्या मन्त्रवित्तमः ॥ १९ ॥

फिर गन्ध, पुष्पादि द्वारा दमनक का पूजन कर मन्त्रवित् साधक काम गायत्री के मन्त्र से उसे १०८ बार अभिमन्त्रित करे ॥१९॥

कामगायत्रीकथनम्

कामदेवाय वर्णान्ते विद्महेपदमुच्चरेत् ।

पुष्पबाणाय च पदं धीमहीति ततो वदेत् ॥ २० ॥

तन्नोऽनङ्गः प्रचोवर्णाद् दयादिति मनोभुवः ।

गायत्र्येषा बुधैरुक्ता जप्ता जनविमोहिनी ॥ २१ ॥

अब कामदेव गायत्री कहते हैं –

‘कामदेवाय’ पद के बाद ‘विद्‍महे’ कहना चाहिए । फिर ‘पुष्पबाणाय’ पद के अनन्तर ‘धीमहि’ पद का उच्चारण करना चाहिए । तत्पश्चात् ‘तन्नोऽनङ्गः प्रचो’ तथा ‘दयात्’ वर्णों को कहना चाहिए । यह कामगायत्री हैं, जो जप करने मात्र से लोगों को मोहित करती हैं, ऐसा विद्वानों का कथन है ॥२०-२१॥

विमर्श – मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है – ‘कामदेवाय विद्‌महे पुष्पबाणाय धीमहि । तन्नोऽनङ्गः प्रचोदयात्’ ॥२०-२१॥

हृदापुष्पाञ्जलिं दत्वा मनुनानेन तं नमेत् ।

नमोऽस्तु पुष्पबाणाय जगदानन्दकारिणे ॥ २२ ॥

मन्मथाय जगन्नेत्ररतिप्रीतिप्रदायिने ।

फिर नमः मन्त्र से पुष्पाञ्जलि देकर ‘नमोऽस्तु पुष्पबाणाय…रतिप्रतिप्रदायिने’ पर्यन्त मन्त्र (द्र० २३. २२-२३) पढकर उन्हे प्रणाम करे ॥२२-२३॥

ततो निमन्त्रयेद् देवमनेन मनुना सुधीः ॥ २३॥

आमन्त्रितोऽसि देवेश प्रातःकाले मया प्रभो ।

कर्तव्यं तु यथालाभं पूर्ण स्यात्तु तवाज्ञया ॥ २४ ॥

फिर ‘आमन्त्रितोसि देवेश … तवाज्ञाय’ पर्यन्त मन्त्र (द्र० २३.२४) पढकर इष्ट देवता को निमन्त्रित करे ॥२३-२४॥

देवे पुष्पाञ्जलिं दत्वा दण्डवत्प्रणिपत्य च ।

दमने वर्मणास्त्रेण विदध्यादवगुण्ठनम् ॥ २५ ॥

रक्षणं च क्रमादेतदधिवासनमीरितम् ।

तदनन्तर पुष्पाञ्जलि चढाकर दण्डवत् प्रणाम कर, वर्म (हुं) मन्त्र से दमन का अवगुण्ठन कर, अस्त्र (फट्) मन्त्र से उनका संरक्षण करे । उपर्युक्त समस्त विधियों को दमनक का अधिवासन कहा जाता है ॥२५-२६॥

ततो जागरणं कुर्याद्देवं गायंस्तुवञ्जपन् ॥ २६ ॥

सर्वाधिवासनं चापि कुर्यान्नर्तनजागरौ ।

फिर इष्टदेव के गुणों का गान करते हुये तथा उनके मन्त्रों का जप करते हुये जागरण करे । सभी प्रकार के अधिवासन में नृत्य और जागरण करना चाहिए – ऐसा विधान है ॥२६-२७॥

विमर्श – आठ कामों के नामामन्त्रों से पूजा विधि

ॐ क्लीं कामाय नमः,       ॐ क्लीं भस्मशरीराय नमः,

ॐ क्लीं अनङ्गाय नमः,   ॐ क्लीं मन्मथाय नमः,

ॐ क्लीं वसन्तसखाय नमः,   ॐ क्लीं स्मराय नमः,

ॐ क्लीं इक्षुधनुर्धराय नमः,   ॐ क्लीं पुष्पबाणाय नमः ।

कामदेव की गायत्री स्पष्ट है ॥२६ -२७॥

प्रातः स्नानादिनिर्वर्त्य कृत्वा नित्यार्चन विभोः ॥ २७ ॥

संकल्पं दमनार्चाया विदध्याद्देवताज्ञया ।

गृहीत्वा दमनस्याथ हस्ताभ्यां मञ्जरी शुभाम् ॥ २८॥

दमन पूजा – प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त हो कर इष्टदेव की नियमित पूजा समाप्त करने के बाद उनकी आज्ञा ले कर ‘वर्षपूजा साङ्गत्याय दमनार्चा करिष्ये’ ऐसा संकल्प करना चाहिए ॥२७-२८॥

हृदाभिमन्त्रयेन्मन्त्री ततः श्लोकमिमं पठेत् ।

सर्वरत्नमगीं दिव्यां सर्वगन्धमयीं शुभाम् ॥ २९ ॥

गृहाण मञ्जरी देव नमस्तेऽस्तु कृपानिधे ।

मूलमन्त्रेण घण्टादिघोषैर्देवस्य मस्तके ॥ ३०॥

समर्प्य तां ततः कुर्यान्माला दमननिर्मिताम् ।

हृदाभिमन्य चानेन श्लोकेनाप्यभिमन्त्रयेत् ॥ ३१॥

सर्वरत्नमयीं नाथ दामनी वनमालिकाम् ।

गृहाण देवपूजार्थ सर्वगन्धमयीं विभो ॥ ३२॥

फिर दोनों हाथों में दमनक की शुभ मञ्जरी ले कर ‘नमः’ मन्त्र से अभिमन्त्रित कर – ‘सर्वरत्नमयीं दिव्यां … नमस्तेऽस्तु कृपानिधे – पर्यन्त श्लोक (द्र० २३. २९-३०) पढकर मूल मन्त्र से घण्टा आदि जयघोष के साथ उन मञ्जरियों को देवता के शिर पर चढाकर दमनक की बनी बनी माला ‘नमः’ पद के साथ – ‘सर्वरत्नमयीं नाम … विभो’ पर्यन्त (द्र० २३. ३२) मन्त्र पढकर अभिमन्त्रित करनी चाहिए ॥२९-३२॥

मूलमन्त्र जपन्देव मुकुटे तां समर्पयेत् ।

दमनेन देवपूजाविधिकथनम्

दमनेनेष्टदेवस्य परिवारान् समर्चयेत् ॥ ३३ ॥

ततो नैवेद्यताम्बूले दत्वा नत्वा च दण्डवत् ।

दमनार्चा कृतां तस्मै श्लोकेन विनिवेदयेत् ॥ ३४॥

देव देव जगन्नाथ वाञ्छितार्थप्रदायक ।

कृत्स्नान पूरय मेत्वथं कामान् कामेश्वरीप्रिय ॥ ३५॥

इसके पश्चात्‍ इष्टदेव के परिवार की भी दमनक द्वारा पूजा करनी चाहिए । फिर नैवेद्य एवं ताम्बूल समर्पित कर दण्डवत्‍ प्रणाम कर ‘देव देव जगन्नाथ… कामेश्वरीप्रिय – पर्यन्त श्लोक (द्र० २३. ३५) पढते हुये पूजित दमनक को देवाधिदेव के लिए निवेदित करनी चाहिए ॥३३-३५॥

जप्त्वा मूलमनु वहिन हुत्वा देवं विसृज्य च ।

गुरुं गत्वा दमनकैर्यजेत्तं तोषयेद्धनैः ॥ ३६ ॥

फिर मूल मन्त्र का जप कर अग्नि में होम कर देवता का विसर्जन कर गुरु के पास जा कर दमनक से उनकी भी पूजा चाहिए और धन दे कर उन्हें संतुष्ट करना चाहिए ॥३६॥

विप्रान् सम्भोज्य भुजीत स्वदेवाय निवेदितम ।

कते कृतार्थः स्याद्वषर्षाची फलभाङ् नरः ॥ ३७॥

पश्चात्‍ ब्राह्मण भोजन करा कर स्वयं इष्टदेव का प्रसाद ग्रहण करना चाहिए । ऐसा करने से मनुष्य कृतार्थ जो जाता है और उसे पूरे वर्ष की पूजा का फल प्राप्त होता है ॥३७॥

कथिता दमनार्चेषा पवित्रयजनं ब्रुवे ।

इस प्रकार दमनक पूजा कही गई ।

पवित्रविधिकथनम्

पवित्रयजनाहात्तु पूर्वस्मिन्वासरे सुधीः ॥ ३८॥

विदध्यान्नित्यपूजान्ते पवित्राणि यथाविधि ।

हेमदुर्वर्णताम्रोत्थतन्तुभिः पट्टसूत्रतः ॥ ३९ ॥

यद्वा कार्पाससूत्रैस्तु निर्मितैर्विप्रभार्यया ।

अन्यया वा सधवया सदाचारप्रसक्तया ॥ ४० ॥

कर्तितैस्तानि कुर्वीत न पुंश्चल्यादिनिर्मितैः ।

त्रिगुणं त्रिगुणीकृत्य निर्मायान्नवसूत्रिकाम् ॥ ४१ ॥

तां प्रोक्ष्य पञ्चगव्येन क्षालयेदुष्णवारिणा ।

अब पवित्रपूजा का क्रम कहता हूँ – पवित्र का निर्माण कर सोना, चाँदी, ताँबी, रेशम, अथवा ब्राह्मणों के द्वारा अथवा अन्य सदाचारिणी सधवा स्त्री के हाथ से काते हुये कपास के सूत का पवित्रक बनाना चाहिए । व्याभिचारिणी, वेश्यादि द्वारा काते गये सूत का पवित्र कभी न बनावे । तीन धागों को तीन गुनाकर इस प्रकार नवसूत्रिक निर्माण कर पञ्चगव्य से उसका प्रोक्षण कर ऊष्ण जल से उसे प्रक्षालित करना चाहिए ॥३८-४२॥

प्रणवेनाभिषिञ्चत्ता मूलेनाऽष्टोत्तरं शतम् ॥ ४२ ॥

मन्त्रयेन्मूलगायत्र्याः तावदेव ततः सुधीः ।

फिर प्रणव से उनका अभिषेक करे तथा १०८ इष्टदेव के मूलमन्त्र एवं उनकी १०८ गायत्री से उसे अभिमन्त्रित करना चाहिए ॥४२-४३॥

रचयेन्नवसूत्रीभिरष्टोत्तरशतेन च ॥ ४३॥

तदर्द्धन तदर्द्धन जानूरुनाभिमानतः ।

देवेशस्य पवित्राणि शचौ देशे प्रसन्नधीः ॥ ४४ ॥

फिर किसी शुद्ध स्थान पर प्रसन्नता पूर्वक बैठकर १०८, या उसके आधे ५४, या उसके आधे २७ नवसूत्रिकाओं से जानुपर्यन्त, ऊरु पर्यन्त अथवा नाभि पर्यन्त प्रमाण वाली पवित्रा का निर्माण करना चाहिये ॥४३-४४॥

ज्येष्ठ-मध्य-कनिष्ठानि तेषु ग्रन्थीन् दधीत च ।

षट्त्रिंशत्तत्त्वमार्तण्डमिताज्येष्ठादिषु क्रमात् ॥ ४५ ॥

अष्टोत्तरसहस्रेण नवसूत्र्या विनिर्मितम् ।

अष्टोत्तरशतग्रन्थीन् वनमालापवित्रकम् ॥ ४६ ॥

ये क्रमशः ज्येष्ठ, मध्यम एवं कनिष्ठ संज्ञक होती है । फिर इनमें क्रमशः ३६, २४, एवं १२ गाँठ लगाना चाहिए । एक हजार आठ से बनी नवसूत्रिका में १०८ गाँठो के द्वारा निर्मित पवित्रा को वनमाला कहते हैं ॥४५-४६॥

कृत्वातान् रञ्जयेद् ग्रन्थीन् रोचनाकुंकुमादिभिः ।

वैष्णवे पटले तानि सञ्छाद्य सितवाससा ॥ ४७ ॥

स्थापयित्वा विनिर्मायादन्यान्यावरणार्चने ।

सप्तविंशत्यष्टि रवि नवसूत्रीकृतानि तु ॥ ४८ ॥

अद्रिनेत्रमिताभिस्तु कुर्याद् गुरुपवित्रकम् ।

तावतीभिः कृशानोस्तत्षड्विंशत्या तदात्मनः ॥ ४९ ॥

उक्त प्रकार से पवित्रा का निर्माण कर उनकी उनकी ग्रन्थियों को गोरोचन के शर आदि से रङ्गना चाहिए । फिर वैष्णव पटल पर उन्हें श्वेत वस्त्र से ढक कर स्थापित कर पुनः २७, १६, एवं १२ नवसूत्रिकाओं से आवरण पूजा के लिए अन्यान्य पवित्रियॉ बनानी चाहिए । गुरु के लिए २७ नवसूत्रिका की, अग्नि के लिए भी उतनी ही संख्या की तथा २६ नव सूत्रिकाओं को अपने लिए भी पवित्री निर्माण करनी चाहिए ॥४७-४९॥

तत्रग्रन्थीन् यथाशोभं दत्त्वा संरञ्जयेदपि ।

तानि पात्रान्तरे न्यस्य कुर्याद् गन्धपवित्रकम् ॥ ५० ॥

द्वादश ग्रन्थि तिग्मांशु नवसूत्री विर्निर्मितम् ।

निर्मायैवं पवित्राणि कुर्यात् पूजार्थमण्डलम् ॥ ५१ ॥

इन पवित्राओं में जितने ग्रन्थि शोभा के लिए अपेक्षित हो उतनी ग्रन्थि लगानी चाहिए तथा उन्हें भी उक्त प्रकार से रङ्गना चाहिए । तदनन्तर उन्हे किसी पात्र में स्थापित कर १२ नव सूत्रिकाओं की जिसमें १२ ग्रन्थियाँ लगी हो उसकी एक अन्य गन्धपवित्रा बनानी चाहिए । इस रीति से पवित्रा निर्माण कर पूजन के लिए मण्डल बनाना चाहिए ॥५०-५१॥

पंकजं षोडशदलं पूरयेदष्टवर्णकैः ।

नीलहारिद्रशोणावमाजिष्ठश्वेतसंज्ञकैः ॥ ५२ ॥

सिन्दूरधूम्रकृष्णाख्यैस्तद् बहिर्मण्डलत्रयम् ।

सूर्यसोमाग्निसंज्ञं तत्सितपीतारुणं क्रमात् ॥ ५३॥

तद्बाह्याष्टदलं कुर्यादरुणं यदिवासितम् ।

अब पवित्र पूजा के लिए मण्डल (यन्त्र) निर्माण का विधान कहते हैं –

षोडशदल का कमल बना कर उसमें नीला, पीला, लाल, भूरा, सफेद, सिन्दूरी, धूम्रवर्ण, तथा काला रङ्ग भर देना चाहिए । उसके ऊपर क्रमशः श्वेत पीत, तथा लाल रङ्ग के सूर्य, सोम एवं अग्नि-संज्ञक तीन वृत्त निर्मित करना चाहिए । तदनन्तर उसके बाहर लाल अथवा श्चेत रङ्ग से हुये अष्टदल कमल का निर्माण करना चाहिए ॥५२-५४॥

एवं मण्डलमालिख्य पूजयेत्कुसुमादिभिः ॥ ५४॥

तस्योपरि निबध्नीयाद्वितानसमलंकृतम् ।

मण्डले स्थापयेद्देवं प्रतिमा यदि वा घटम् ॥ ५५॥

तत्रेष्टदेवं सम्पूज्य पायसं विनिवेदयेत् ।

यन्त्र पर इष्टदेव के पूजन का प्रकार कहते हैं –

उक्त प्रकार का यन्त्र निर्माण करने के पश्चात्‍ पुष्पादि द्वार उसका पूजन कर उसके ऊपर सुन्दर वितान बाँध देना चाहिए । तदनन्तर उस मण्डल पर निज इष्टदेव की प्रतिमा अथवा सचित्र पट स्थापितकर फिर उसका पूजन कर खीर का नैवेद्य समर्पित करना चाहिए ॥५४-५६॥

देवताग्रे पवित्राणां पात्रे न्यस्याधिवासयेत् ॥ ५६ ॥

उक्तसंख्यस्य सूत्रस्यालाभे तानि यथारुचि ।

ज्येष्ठादीनि पवित्राणि विदध्यात्सर्वथा सुधीः ॥ ५७ ॥

फिर देवता के आगे पवित्रयों के दोनों पात्र रखकर अधिवासित करना चाहिए । पूर्वोक्त संख्या के सूत्र न मिलने पर जितना प्राप्त हो उसी से ज्येष्ठ आदि पवित्राओं का निर्विकल्प निर्माण कर लेना चाहिए ॥५६-५७॥

अधिवासनकथनम्

तत्र द्वाविंशतिर्देवानाहूय प्रतिपूजयेत् ।

ब्रह्मविष्णुमहेशानास्त्रिसूत्र्या देवताः स्मृताः ॥ ५८ ॥

ओंकारचन्द्रमो वह्निब्रह्मानागशिखिध्वजाः ।

सूर्यः सदाशिवो विश्वे नवसत्यधिदेवताः ॥ ५९ ॥

क्रिया च पौरुषी वीरा चतुर्थी त्वपराजिता ।

विजया जयया युक्ता मुक्तिदा च सदाशिवा ॥ ६०॥

मनोन्मनी तु नवमी दशमी सर्वतोमुखी ।

एताः पवित्रग्रन्थीनां देवताः परिकीर्तिताः ॥ ६१॥

अथ पवित्री के अधिवासन का प्रकार कहते हैं –

दोनों पात्रों में स्थापित पवित्राओं पर वक्ष्यमाण २२ देवताओं का आवाहन कर उनका पूजन करना चाहिए । ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश – ये तीन सूत्रीय देवता हैं – ॐकार, चन्द्रमा, अग्नि, ब्रह्मा, नाग, कार्तिकेय, सूर्य, सदाशिव एवं विश्वेशर – नव सूत्रिका के अधिदेवता है, क्रिया, प्रौरुषी, वीरा, अपराजिता, विजया, जया, मुक्तिदा, सदाशिवा और ८ वीं मनोन्मनी दशवीं सर्वतोमुखी – ये पवित्री के ग्रन्थियों की देवता कही गई हैं ॥५८-६१॥

पवित्रकेण भगवदाराधनविधिवर्णनम्

आवाहन्यादि मुद्राभिर्नवभिः साधकोत्तमः ।

तदाबानादिकं तत्र कृत्वाचेच्चन्दनादिभिः ॥ ६२॥

एवं पवित्राण्यभ्यर्च्य दद्याद् गन्धपवित्रकम् ।

तधूपयित्वा तारेण हृदयेनाभिमन्त्रयेत् ॥ ६३ ॥

उत्तम साधक आवाहनी आदि पूर्वोक्त ९ मुद्राओं (आवाहनी स्थापनी, सन्निधापनी, सन्निरोधिनी, संमुखीकरण, सकलीकरण, अवगुण्ठनी, अमृतीकरण, परमीकरण और धेनुमुद्रा । द्र० २२. ४५-५६) से आवाहनादि कर चन्दन आदि से उनका पूजन करे । इसी प्रकार पवित्राओं का गन्धादि द्वारा भी पूजन करे और उसे प्रणव से धूप दिखाकर ‘नमः’ से अभिमन्त्रित करना चाहिए ॥६२-६३॥

प्रणम्य प्रार्थयेद्देवं श्लोकयुग्ममिदं पठन् ।

आमन्त्रितोऽसि देवेश साद्धं देव्या गणेश्वरैः ॥ ६४ ॥

मन्त्रेशैर्लोकपालैश्च सहितः परिवारकैः ।

आगच्छ भगवन्नीश विधि सम्पूर्तिकारक ॥ ६५॥

प्रातस्त्वां पूजयिष्यामि सान्निध्यं कुरु केशव ।

फिर इष्टदेव को प्रणाम कर ‘आमन्त्रितोऽसि देवेश० से ले कर … सान्निध्यं कुरु केशव – पर्यन्त (द्र० २३. ६४-६६) दो श्लोको को पढकर निज इष्टदेव की प्रार्थना करनी चाहिए ॥६४-६६॥

ततो गन्धपवित्रं तत्पादयोर्विन्यसेत्प्रभोः ॥ ६६ ॥

केशवेतिपदस्थाने कार्य ऊहोऽन्यदैवतः ।

भगवत्याः पदेष्वत्र लिङ्गोहो मन्त्रवित्तमैः ॥ ६७ ॥

इसके बाद गन्ध पवित्रा को निज इष्टदेव के चरणों में चढा देना चाहिए । प्रार्थना के इस श्लोक में यदि इष्ट देव शंकर, गणेश, शक्ति या भास्कर हों तो उनके नामों का ऊहापोह कर सन्निविष्ट कर लेना चाहिए ॥६६-६७॥

विमर्श – पूजाविधि – सर्वप्रथम सूत्र के प्रथम द्वितीय और तृतीय धागे में निम्न मन्त्रों से पूजा करनी चाहिए। यथा-

ॐ ब्रह्मणे नमः प्रथमदोरके,

ॐ विष्णवे नमः द्वितीयदोरके,       ॐ महेशाय नमः तृतीयदोरके ।

इसके बाद नवसूत्रिका के प्रत्येक धागे में इस रीति से पूजा करनी चाहिए । यथा –

ॐकाराय नमः प्रथमसूत्रे,

ॐ चन्द्रमसे नमः द्वितीयसूत्रे,       ॐ वहनये नमः, तृतीयसूत्रे,

ॐ ब्रह्मणे नमः, चतुर्थसूत्रे,       ॐ नागेभ्यो नमः पञ्चमसूत्रे,

ॐ कार्तिकेयाय नमः, षष्ठसूत्रे,       ॐ सूर्याय नमः सप्तमसूत्रे,

ॐ सदाशिवाय नमः, अष्टमसूत्रे,   ॐ विश्वेभ्यो देवभ्यो नमः, नवमसूत्रे,

इसके बाद ग्रन्थिस्थ देवताओं की निम्न मन्त्रों से पूजा करनी चाहिए । यथा –

ॐ क्रियायै नमः प्रथमग्रन्थौ,     ॐ पौरुष्ये नमः, द्वितीयग्रन्थौ,

ॐ वीरायै नमः, तृतीयग्रन्थौ,       ॐ अपराजितायै नमः, चतुर्थग्रन्थौ,

ॐ विजयायै नमः, पञ्चमग्रथौ,   ॐ जयायै नमः षष्ठग्रथौ,

ॐ मुक्तिदायै नमः, सप्तमग्रथौ,       ॐ सदाशिवायै नमः अष्टमग्रन्थौ,

ॐ मनोन्मयै नमः नवमग्रन्थौ,   ॐ सर्वतोमुख्यै नमः दशमग्रन्थौ ॥५८-६७॥

अधिवासं विधायेत्थं निशि जागरणं चरेत् ।

देवस्य स्तुतिनामानि वदन्गायश्च तद्गुणान् ॥ ६८॥

उक्त प्रकार से पवित्रा का अधिवासन कर निज इष्ट देवता के नाम एवं गुणादि द्वारा स्तुति कर जागरन करना चाहिए ॥६८ ॥

पवित्रधारणविधिकथनम्

प्रातर्नित्यार्चनं कृत्वा मूलेनाष्टोत्तरं शतम् ।

कनिष्ठाख्यं पवित्रं तद्गृहीत्वा चाभिमन्त्रयेत् ॥ ६९ ॥

घण्टावादित्रवेदानां कारयन्घोषमुत्तमम् ।

जयशब्दांश्च देवस्य कण्ठे मूलेन चार्पयेत् ॥ ७० ॥

अब पवित्रक पूजा का विधान कहते हैं –

प्रातःकालिक नित्य पूजा करने के बाद पवित्रा को हाथ में ले कर मूल मन्त्र से एक सौ आठ बार अभिमन्त्रित करना चाहिए । फिर घण्टा, वाद्य, वेद ध्वनि एवं जय-जयकार के घोषों के साथ मूल का उच्चारण करते हुये उस पूजित पवित्रा को निज इष्टदेव के कण्ठ में पहना देना चाहिए ॥६९-७०॥

एवमेवार्पयेदन्यं पवित्रे मध्यमोत्तमे ।

श्वेतं रक्त क्रमात्पीतं ध्यायेद देवं तदर्पणे ॥ ७१ ॥

मध्यम एवं कनिष्ठ प्रकार की पवित्राओं के चढाने की भी यही विधि है । किन्तु कुछ विशेषता इस प्रकार है – कनिष्ठ पवित्रा चढाते समय श्वेत वर्ण वाले, मध्यम चढाते समय रक्त वर्ण तथा ज्येष्ठ पवित्रा चढाते समय पीतवर्ण वाले निज इष्टदेवता का ध्यान करना चाहिए ॥७१॥

मालापवित्रं तु तावन्मूलेन मन्त्रितम् ।

अर्पयेदिष्टदेवस्य मुकुटे मूलमुच्चरन् ॥ ७२॥

ततः सुवर्णकुसुमैः पुष्पैः शतमितैः सह ।

मुलाभिमन्त्रितं देवमूर्ध्नि मूलेन चार्पयेत् ॥ ७३ ॥

वनमाला संज्ञक पवित्रा को मूल मन्त्र से एक सौ आठ बार अभिमन्त्रित कर मूलमन्त्र से इष्टदेव के मुकुट पर उसे समर्पित करना चाहिए । तदनन्तर मूलमन्त्र से अभिमन्त्रित अमलतास के १०० पुष्पों को मूलमन्त्र से देवता के मस्तक पर चढाना चाहिए ॥७२-७३॥

हृदान्यपटलस्थानि पवित्राण्यभिमन्त्र्य च ।

तत्तन्नाम्ना नमोन्तेन परिवारान् सुरान् यजेत् ॥ ७४॥

पटल पर विद्यमान्‍ पवित्राओं को ‘नमः’ मन्त्र से अभिमन्त्रित करे, तथा उसे आवरण देवताओं के चतुर्थ्यन्त नामों के साथ ‘नमः’ लगाकर निष्पन्न मन्त्रों से आवरण देवताओं पर चढाना चाहिए ॥७४॥

एवं पवित्रैः सम्पूज्य धूपादीनि प्रकल्पयेत् ।

पावके देवमावाह्य नित्यहोमं विधाय च ॥ ७५ ॥

मूलेनाग्निपवित्रं तदर्पयेदेवतां स्मरन् ।

इस प्रकार पवित्राओं से देव पूजन कर धूप, दीप, नैवेद्य आदि से उनका पूजन करना चाहिए । तदनन्तर अग्नि में निज इष्टदेव का आवाहन कर नित्य होम संपादन कर देवस्मरण करते हुये मूलमन्त्र से उनको अग्निपवित्रा चढानी चाहिए ॥७५-७६॥

मौ देवं समुद्वास्य वह्नि संयोज्य चात्मनि ॥ ७६ ॥

पुष्पाञ्जलिं विधायेशे कर्मान्ते विनिवेदयेत् ।

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं कृपानिधे ॥ ७७ ॥

पूजनं पूर्णतामेतु पवित्रेणार्पितेन ते ।

इति सम्प्रार्थ्य देवेशं योजयेद्धृदये निजे ॥ ७८॥

उसकी पूजा विधि इस प्रकार है –

मूर्तिस्थ देवता में अपनी आत्मा को अग्नि से संयुक्त कर इष्टदेव को पुष्पाञ्जलि देकर कर्म की समाप्ति करे । ‘मन्त्रहीनं … पवित्रेणार्पितेन ते (द्र० २३. ७७-७८) पर्यन्त श्लोक का उच्चारण कर इष्टदेव की प्रार्थना करनी चाहिए, और उन्हे अपने हृदय में स्थापित करना चाहिए ॥७६-७८॥

गुर्वन्तिकं ततो गत्वा दत्त्वा पुष्पाञ्जलिं गुरौ ।

स्वाङ्गे षडङ्ग विन्यस्य गुरुदेहेपि विन्यसेत् ॥ ७९ ॥

इसके बाद निज गुरुदेव के पास जा कर उन्हें पुष्पाञ्जलि निवेदति कर अपने अङ्गों में षडङ्गन्यास कर पश्चात गुरुदेव के शरीर में षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥७९ ॥

पवित्रार्पणकालनिर्णयः

पाद्यं दत्त्वा तथैवार्ध्य वस्त्रालंकारचन्दनम् ।

पुष्पैः सम्पूज्य मूलेन पवित्र तद्गलेऽर्पयेत् ॥ ८० ॥

स्वशक्त्या दक्षिणां दत्त्वा दण्डवत्प्रणमेद गुरुम् ।

फिर उन्हें पाद्य और अर्ध्य देकर मूल मन्त्र से वस्त्र, अलंकार, चन्दन एवं पुष्पों से उनका पूजन कर उनके कण्ठ में पवित्रा पहना देनी चाहिए । अपनी शक्ति के अनुसार गुरु को दक्षिणा देकर दण्डवत्‍ प्रणाम करना चाहिए ॥८०-८१॥

अन्येभ्यः शिष्टवृद्धेभ्यः पवित्राणि ददीत च ॥ ८१॥

सर्वथैव गुरोः पूजा कर्तव्या मन्त्रिणा सदा ।

अपूजिते गुरौ सर्वा पूजा भवति निष्फला ॥ ८२ ॥

इसी प्रकार अपने संप्रदाय के अन्य विशिष्ट एवं वयोवृद्ध लोगों के भी गले में पवित्रा पहना देनी चाहिए । साधक को सदैव अपने गुरु का पूजन करना चाहिए । ऐसा न करने पर सारी पूजा निष्फल हो जाती है ॥८१-८२॥

गुरोरभावे तत्पुत्रं तदभावे तदात्मजम् ।

दौहित्रं तदभावेन्यं पूजयेद् गुरुगोत्रजम् ॥ ८३॥

गुरु के अभाव में उनके पुत्र की, उनके भी न होने पर पौत्र की, उसके भी अभाव में उनके दौहित्र की तथा उसके भी न होने पर गुरु के कुटुम्ब एवं गोत्र के व्यक्तियों की पूजा करनी चाहिए ॥८३॥

ततो धृत्वा पवित्रं स्वं भोजयित्वा द्विजोत्तमान् ।

भुञ्जीत तदनुज्ञातो बन्धुभिस्तनयैः सह ॥ ८४ ॥

इतना कर लेने के पश्चात्‍ स्वयं पवित्रा धारण कर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन करा कर उनकी आज्ञा से अपने बन्धुओं तथा पुत्रों के साथ स्वयं भोजन करे ॥८४॥

यथाकथञ्चित्कुर्वीत पवित्राणि सुरार्चने ।

विधेरुक्तस्य चाशक्त्या पूजासम्पूर्तिहेतवे ॥ ८५॥

यस्यां कस्यां तिथौ कुर्यात् तिथावुक्ते कृतं न चेत् ।

सर्वथा श्रावणे चैव पवित्रं तु निवेदयेत् ॥ ८६॥

उक्त विधि से पवित्रार्पण करने में असमर्थ व्यक्ति वार्षिक पूजा की पूर्ति हेतु जिस किसी भी तरह पवित्राओं से इष्टदेव का अर्चन करे । यदि पूर्वोक्त निर्धारित तिथि में पवित्रा पूजा न की जा सके तो जिस किसी भी उत्तम तिथि में पवित्रार्पण कर देना चाहिए । किन्तु श्रावण मास में तो निश्चित रुप से ही पविर्त्रापण करना ही चाहिए ॥८५-८६॥

प्रत्यब्दं यः पवित्रेण पूजां कुर्वीत दैवते ।

ऐश्वर्यारोग्यसंयुक्तो नैकवर्षाणि जीवति ॥ ८७॥

सम्पूर्णहायनं पूजा देवतानां कृता तु या ।

सर्वा सम्पूर्णतामेति पवित्रदमनार्पणात् ॥ ८८ ॥

जो व्यक्ति इस प्रकार प्रति वर्ष पवित्राओं से देव-पूजन करता है, वह आरोग्य एवं ऐश्वर्य के साथ अनेक वर्षो तक जीवित रहता है । देवता की पूरे वर्ष की पूजा पवित्रा एवं दमनक के चढाने से पूर्ण हो जाती है ॥८७-८८॥

देवोत्सवविशेषमासकालकथनम्

अन्येष्वप्युपरागार्होदयसौम्यायनादिषु ।

कुर्यादलभ्ययोगेषु विशेषाद् देवतार्चनम् ॥ ८९ ॥

अब इष्टदेव के महोत्सव का काल कहते हैं – सूर्य एवं चन्द्रमा का ग्रहण पूष ऊउर माघ के महीनों में जब रविवार को अमावस्या तिथि को हो उस अर्धादय काल में, मकर संक्रान्ति में तथा अन्य अलभ्य योगों, युगादि एवं मन्वादि तिथियों से विशेष रुप से अपने इष्टदेव का महोत्सव करना चाहिए ॥८९॥

यथायथेष्ट देवेषु नृणां भक्तिः समेधते ।

प्राप्यते तदयत्नेन मनोभीष्टं तथा तथा ॥ ९०॥

जिस जिस क्रम से अपने इष्टदेव में मनुष्यों की भक्ति बढती है उसी उसी क्रम से अनायास उनके मनोरथ भी सफल होते हैं ॥९०॥

शुचौ तत्तदहे कुर्याद् देव प्रस्थापनोत्सवम् ।

ऊर्जे तथैव देवानामुत्थापनविधि सुधीः ॥ ९१॥

विद्वान्‍ को आषाढ में तत्त्द्‌देवताओं की शयन तिथियों में उन-उन देवताओं का शयनोत्सव तथा कार्तिक की उन-उन तिथियों में देवोत्थान का महोत्सव मनाना चाहिए ॥९१॥

माघकृष्णचतुर्दश्यां विशेषाच्छिवपूजनम् ।

आश्विनाथ नवाहेषु दुर्गापूज्या यथाविधि ॥ ९२॥

माघ कृष्णा चतुर्दशी (अमान्त मास के गणनानुसार) शिव रात्रि को विशेषरुप से भगवान्‍ सदाशिव का पूजन करना चाहिए । आश्विन मास के प्रारम्भिक ९ दिनों (नवरात्रों) में भगवती दुर्गा का विधिवत्‍पूजन करना चाहिए ॥९२॥

गोपालं पूजयेद्विद्वान्नभः कृष्णाष्टमीदिने ।

रामं चैत्रसिते पक्षे नवम्यामर्चयेत् सुधीः ॥ ९३ ॥

श्रावण कृष्णाटमी (जन्माष्टमी) के दिन विद्वान‍ को श्रीगोपाल का पूजन करना चाहिए । चैत्र शुक्ला नवमी को श्रीराम का पूजन करना चाहिए ॥९३॥

वैशाखाद्य चतुर्दश्यां नरसिंह प्रपूजयेत् ।

यजेच्छुक्लचतुर्थ्या तु गणेशं भाद्रमाघयोः ॥ ९४ ॥

महालक्ष्मी यजेद्विद्वान् भाद्रकृष्णाष्टमीदिने ।

माघस्य शुक्लसप्तम्यां विशेषाद्दिननायकम् ॥ ९५ ॥

या काचित्सप्तमी शुक्ला रविवारयुता यदि ।

तस्यां दिनेशं सम्पूज्य दद्यादर्घ्य पुरोदितम् ॥ ९६ ॥

वैशाख कृष्णा चतुर्दशी (नृसिंह चतुर्दशी) को श्रीनृसिंह का, भाद्र शुक्ल चतुर्थी (गणेश चतुर्थी) तथा माध शुक्ल चतुर्थी को गणपति का, भाद्र कृष्ण अष्टमी के दिन विद्वान्‍ व्यक्ति को महालक्ष्मी का पूजन करना चाहिए । इसी प्रकार माघ शुक्ल सप्तमी को विशेष रुप से सूर्य का पूजन करना चाहिए । शुक्लपक्ष की जिस किसी महीने की सप्तमी को विवार का दिन हो तो उस दिन भी भगवान्‍ भास्कर को पूर्वोक्त रीति से अर्घ्य दान देना चाहिए ॥९४-९६॥

तत्तत्कल्पोदितानन्यान् देवताप्रीतिवर्द्धनान् ।

विशेषनियमा ज्ञात्वा भजेद्देवमनन्यधीः ॥ ९७ ॥

देवताओं में उपासना सम्बन्धी प्रीति बढाने वाले अन्यान्य कल्प भी तत्तद्‍ ग्रन्थों में प्रतिमादित है । अतः साधकों को उन-उन नियमों को जान कर अनन्य भक्ति से उनकी उपासना करनी चाहिए ॥९७॥

आषाढीकार्तिकीमध्ये किञ्चिन्नियममाचरेत् ।

देवसम्प्रीतये विद्वान् जपपूजादितत्परः ॥ ९८ ॥

आषाढ की पूर्णिमा से लेकर कार्तिक मास की पूर्णिमा पर्यन्त अर्थात चातुर्मास्य में किसी विशेष नियम का पालन करना चाहिए । उस समय विद्वान्‍ साधक जप और पूजा में तत्पर रह कर अपने इष्टदेव को प्रसन्न करे ॥९८॥

एवं यो भजते विष्णुं रुद्रं दुर्गा गणाधिपम् ।

भास्करं श्रद्धया नित्यं स कदाचिन्न सीदति ॥ ९९ ॥

इस रीति से जो मनुष्य भगवान्‍ विष्णु, रुद्र, दुर्गा, गणेश अथवा सूर्यदेव की श्रद्धापूर्वक सदैव उपासना करता है वह कभी भी दुःखी नहीं रहता ॥९९॥

स धर्ममाचरन्नित्यं देवपूजापरायणः ।

जितेन्द्रियोऽखिलान् भोगान् प्राप्येहानन्ततां व्रजेत् ॥ १०० ।।

धर्माचरण करने वाला और देवपूजा में परायण रहने वाला तथा जितेन्द्रिय व्यक्ति इस लोक में समस्त भोगों को प्राप्त कर अन्त में अनन्त में लीन हो जाती है ॥१००॥

॥ इति श्रीमन्महीधरविरचिते मन्त्रमहोदधौ दमन-पवित्रार्चन निरूपणं नाम त्रयोविंशस्तरंगः ॥ २३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीमन्महीधर विरचित मत्रमहोदधि के तेइसवें तरङ्ग की महाकवि पं० रामकुबेर मालवीय के द्वितीय आत्मज डॉ० सुधाकर मालवीयकृत ‘अरित्र’ नामक हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ २३ ॥

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