इस मायास्तव को सुनने मात्र से सब कामनाएं पूर्ण होता और पाप-ताप का नाश हो जाता है । भक्ति भाव पूर्वक ध्यान और इस स्तवन का पाठ करने से ऐश्वर्य और सम्पूर्ण सिद्धियो की प्राप्ति होती है ।

माया स्तवन

शौनक उवाच

शशिध्वजो महाराजः स्तुत्वा मयां गतः कृतः ।

का वा मायास्तुतिः सूत वद तत्त्वविदां वर ।

या त्वत् कथा विष्णुकथा वक्तव्या सा विशुद्धये ॥१॥

शौनक जी बोले-हे सूतजी! भगवती माया की स्तुति करके महाराज शशिध्वज कहाँ गये ? हे तत्त्वज्ञानियो मे श्रेष्ठ! माया की स्तुति के विषय मे बताइये। माया और विष्णु की कथा में कोई भेद नही होने से पुनीत होने के उद्देश्य से उस स्तव को हमारे प्रति कहिये ।

सूत उवाच

शृणुध्वं मुनयः सर्वे मार्कण्डेयाय पृच्छते ।

शुकः प्राह विशुद्धात्मा मायास्तवम् अनुत्तमम् ॥२ ॥

सूत जी ने कहा-हे ऋषियो! मार्कण्डेयजी, के पूछने पर शुकदेव जी ने जो श्रेष्ठ माया-स्तोत्र कहा था, वही तुम्हारे प्रति कहता हूँ, सुनिये ।

तच् छृणुष्व प्रवक्ष्यामि यथाधीतं यथाश्रुतम् ।

सर्वकामप्रदं नॄणां पापतापविनाशनम् ॥ ३ ॥

जिस माया-स्तव को मैंने सुना और पढा है, जो सुनने से सब की कामनाएं पूर्ण करने वाला और पाप-ताप का नाशक है, उस माया स्तव को सुनो ।

शुक उवाच

भल्लाटनगरं त्यक्त्वा विष्णुभक्तः शशिध्वजः ।

आत्मसंसारमोक्षाय मायास्तवम्लं जगौ ॥ ४ ॥

शुकदेव जी बोले-विष्णु भक्त महाराज शशिध्वज ने जब अपने भल्लाटनगर को छोड कर ससार से विमुख होने के उद्देश्य से माया-स्तव किया।
माया स्तव

शशिध्वज उवाच

ॐ ह्रींकारां सत्त्वसारां विशुद्धां

ब्रह्मदीनां मातरं वेदबोध्याम् ।

तन्वीं स्वाहां भूततन्मात्रकक्षां

वन्दे वन्द्यां देवगन्धर्वसिद्धैः ॥ ५ ॥

शशिध्वज बोले-हे, ह्रींकार मयी, सत्यसार रूपिणी, विशुद्धा मायादेवी! आप ब्रह्मादि देवता भी की जननी है। वेद भी आपकी महिमा का बखान करते है । समस्त भूतगण और तन्मात्राएं आपकी कोख मे स्थित रहते है । आप देव, गंधर्व और सिद्धगणो से वन्दित, सूक्ष्म स्वरूप तथा स्वाहा रूपिणी हैं, मैं आपकी वन्दना करता हूँ।

लोकातीतां द्वैतभूतां समीडे

भूतैर् भव्यां व्याससामासिकाद्यैः।

विद्वद्गीतां कालकल्लोललोलां

लीलापाङ्गक्षिप्तसंसारदुर्गाम् ॥ ६ ॥

आप लोको से परे, द्वैतभूता, भव्या तथा व्यासादि ऋषियों के द्वारा वन्दिता हैं । भगवान् विष्णु भी आपका स्तोत्र करते हैं। आप काल की लहरो में लहराती रहती हैं। सभी जीव आपकी विलास लीला में पडते हैं । ऐसी आप संसार दुर्ग से तारने वाली को नमस्कार करता हूँ।

पूर्णां प्राप्यां द्वैतलभ्यां शरण्याम्

आद्ये शेषे मध्यतो या विभाति ।

नानारूपैर्देवतिर्यङ् मनुष्यैस्

ताम् आधारां ब्रह्मरूपां नमाम्य् ॥ ७ ॥

सृष्टि के आदि, मध्य और लय काल में आप ही स्थित रहती हो । आप सब की आश्रयदाता को पूर्ण भाव या द्वैतभाव से ही पाया जा सकता है। देवता, तिर्यक् और मनुष्यादि योनियो मे आप ही विभक्त होकर प्रकाशित है। आप संसार की आश्रयभूता एव ब्रह्म स्वरूपिणी को नमस्कार है ।

यस्या भासा त्रिजगद्भाति भूतैर्

न भात्य् एतत् तदभावे विधातुः।

कालो दैवं कर्म च उपाधयो ये

तस्या भासा तां विशिष्तां नमामि ॥ ८ ॥

आपकी महिमा से ही यह त्रिलोकी पचभूतात्मिका रूप से प्रकाशित है। काल, देव, कर्म, उपाधि आदि कोई भी विधाता द्वारा निश्चित भाव आपके प्रकाश के बिना प्रकाशित नही हो सकता । ऐसी आप प्रभावती को मेरा नमस्कार है ।

भूमौ गन्धो रसताप्सु प्रतिष्ठा

रूपं तेजस्व् एव वायौ स्पृशत्वम् ।

खे शब्दो वा यच्चिदाभाति नाना

ताम् अभ्येतां विश्वरूपां नमामि ॥ ९ ॥

आप ही पृथिवी में गन्ध, जल में रस, तेज में रूप, वायु में स्पर्श और आकाश में शब्द रूप से विविध रूपों में प्रतिष्ठित रहती हैं । आप जगत् में व्याप्त विश्वरूपिणी को नमस्कार है ।।

सावित्री त्वं ब्रह्मरूपा भवानी

भूतेशस्य श्रीपतेः श्रीस्वरूपा ।

शची शक्रस्यापि नाकेश्वरस्य

पत्नी श्रेष्ठा भासि माये जगत्सु ॥ १० ॥

आप ही ब्रह्मरूपा सावित्री है, भगवान विष्णु की लक्ष्मी, शंकर की भवानी तथा देवराज इन्द्र की शची है। हे माये ! सम्पूर्ण विश्व में आप इसी प्रकार व्याप्त हो रही हैं ।

बाल्ये बाला युवती यौवने त्वं

वार्धक्ये या स्थविरा कालकल्पा ।

नानाकारैर्यागयोगैर् उपास्या

ज्ञानातीता कामरूपा विभासि ॥ ११ ॥

आप शैशवावस्था में बाला, यौवनावस्था में युवती और वृद्धावस्था में वृद्धा रूप वाली रहती हैं । आप ही काल से कल्पित, ज्ञानातीता और कामरूपा है। आप विभिन्न रूपों में प्रकाशित होने वाली ईश्वर का यज्ञ और योग के द्वारा पूजन किया जाता है। मैं आपकी वन्दना करती हूँ ॥

वरेन्या त्वं वरदा लोकसिद्धया

साध्वी धन्या लोकमान्या सुकन्या ।

चण्डी दुर्गा कालिका कालिकाख्या

नानादेशे रूपवेषैर्विभासि ॥ १२ ॥

हे वरेण्या ! आप ही उपासकों को वरदात्री और सिद्धि के देने वाली है । आप लोकों के द्वारा मान्या, साध्वी, एवं सब प्रकार से धन्या है । आप ही श्रेष्ठ कन्या, चण्डी, दुर्गा, कालिका आदि विभिन्न रूपों से अनेक देशों में प्रकाशित रहती हैं ।

तव चरणसरोजं देवि! देवादिवन्द्यं

यदि हृदयसरोजे भावयन्तिह भक्त्या ।

श्रुतियुगकुहरे वा संश्रुतं धर्मसम्पज्

जनयति जगदाद्ये सर्वसिद्धिञ्च तेषाम् ॥ १३ ॥

हे संसार की आदि रूपा देवि! यदि कोई अपने हृदय में देवताओं आदि से वन्दित आपके चरणारविन्दो का भक्ति भाव पूर्वक ध्यान और आपका नाम-श्रवण करता है, तो उसे धर्म रूपी ऐश्वर्य और सम्पूर्ण सिद्धियो की प्राप्ति होती है ।

मायास्तवमिदं पुण्यं शुकदेवेन भाषितम् ।

मार्कण्डेयादावाप्यापि सिद्धिं लेभे शशिध्वजः ॥ १४ ॥

यह पवित्र माया-स्तव शुरुदेव जी द्वारा कहा गया था । राजा शशिध्वज ने इसे मार्कण्डेयजी से प्राप्त करके सिद्धि-लाभ किया ।

कोकामुखे तपस्तप्त्वा हरिं ध्यात्वा वनान्तरे ।

सुदर्शनेन निहतो वैकुण्ठं शरणं ययौ ॥ १५ ॥

वन मे स्थित कोकामुख नामक स्थान में तपस्या करते हुए राजा शशिध्वज सुदर्शन चक्र से निहत होकर वैकुण्ठ को प्राप्त हुए ।

इति श्रीकल्किपुराणेऽनुभागवते भविष्ये तृतीयांशे मायास्तवो नाम पञ्चदशोऽध्यायः॥१५॥

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