Meena Narayanan Autobiography | मीना नारायणन का जीवन परिचय : देश की पहली महिला साउंड इंजीनियर

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बॉलीवुड दुनिया के सबसे बड़े फिल्म उद्योगों में शामिल है। वहीं, हॉलीवुड कमाई के मामले में पहले नंबर पर आता है, मगर बॉलीवुड हो चाहे हॉलीवुड, बाकी उद्योगों की तरह फिल्म उद्योग में भी आज तक मर्दों का प्रभुत्व कायम है। यह एक ऐसा उद्योग है जहां महिला और पुरुष एक्टर्स के लिए समान फीस की बहस आज भी जारी है। कैमरे के पीछे भी महिला और पुरुषों की समान भागीदारी और हक़ की लड़ाई जारी है, मगर शायद यह जानकर आपको आश्चर्य हो कि भारत की आज़ादी से भी कुछ साल पहले मीना नाम की एक लड़की ने एक तमिल फिल्म में बतौर असिस्टेंट साउंड इंजीनियर काम करते हुए भारत की पहली महिला साउंड इंजीनियर होने का खिताब हासिल कर लिया था।

जी हां, हम बात कर रहे हैं शिवगंगा जिले से ताल्लुक रखने वाली मीना नारायणन की। मीना को उनके पति नारायणन ने साउंड इंजीनियरिंग से परिचित कराया था। दरअसल उनके पति ने अपना करियर बतौर फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर शुरू किया था जिसके कुछ समय बाद साल 1934 में उन्होंने अपने साउंड स्टूडियो, श्री श्रीनिवास सिनेटोन की स्थापना की। नारायणन ने उस वक़्त के मशहूर साउंड इंजीनियर पोद्दार को अपने स्टूडियो के लिए काम करने के लिए बुलाया था और अपनी पत्नी मीना नारायणन को उन्हें असिस्ट करने को कहा। इस समय मीना बहुत छोटी उम्र की थी। मीना ने उनके साथ तमिल की फिल्म, श्रीनिवास कल्याणम में काम किया और बेहद लगन से काम सीखा भी। जब पोद्दार ने अपने काम को अलविदा कहा तब तक मीना साउंड इंजीनियरिंग में पारंगत हो चुकी थीं। बड़ी बात तो यह कि इस समय उन्होंने मात्र अपना हाईस्कूल पास किया था। इसके बाद नारायणन ने मीना को साल 1936 में आई अपनी अगली फिल्म विस्वमित्र में काम दिया।

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मीना ने संगीत में भी ट्रेनिंग ली थी और वह गाती अच्छा थीं। उन्होंने तमिल मनोरंजन मैगज़ीन, ‘अनन्दा विकातन’ से साल 1936 में बात करते हुए कहा था कि उन्हें शास्त्रीय संगीत बहुत पसंद है और इस कारण उन्हें संगीत की बिना किसी समझ के साउंड इंजीनियरिंग का काम करने वाले लोग बिलकुल पसंद नहीं थे। इसलिए उन्होंने यह काम सीखा। द हिंदू में छपे एक लेख के मुताबिक मशहूर फिल्म इतिहासकार, एस.थिओडोर भास्करण ने अपनी किताब- ‘द मेसेज बियरर्स’ में भी मीना का यह कथन दर्ज किया है। किताब के अनुसार मीना ने कहा था, “जब वे लोग, जिन्हें संगीत की भाषा या उसके ट्रेंड के बारे में कोई जानकारी नहीं है, साउंड रिकॉर्ड करते हैं तो बहुत दिक्कतें आती हैं। चूंकि मैं इन दिक्कतों को ठीक करना चाहती थी, इसलिए मैंने साउंड इंजीनियरिंग पर ध्यान दिया और दो साल में इसमें अनुभव हासिल किया।” मीना ने लगभग नौ फिल्मों में बतौर साउंड इंजीनियर काम किया। ये फिल्में थीं- कृष्णा तुलाबरम (1937), विक्रम श्री सहसम (1937), तुलसी ब्रिंदा (1938), पोर्वीरन मनिअवी (1938), मादा समपिरनी (1938), श्री रामानुजन (1938) और विप्रा नारायन (1938)।

इस दुनिया ने वे दिन भी देखे हैं जब महिलाओं को अभिनय करने की इज़ाज़त भी नहीं थी। इंग्लैंड में तो साल 1661 तक महिलाओं का मंच पर अपनी कला का प्रदर्शन करना गैरकानूनी माना जाता था। तब तक अभिनय के क्षेत्र में सिर्फ पुरुषों का वर्चस्व था, महिलाओं के किरदार अगर होते भी थे तो उसी रूढ़िवादी सोच से गढ़े हुए जिन्हें एक महिला द्वारा नहीं बल्कि पुरुष द्वारा ही भेष बदलकर निभाया जाता था। उस दौर में अभिनय करना एक अच्छा काम नहीं माना जाता था मगर चूंकि पुरुषों के अभिनय करने पर किसी की ताकत/दबदबे पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगता था, इसलिए उनका अभिनय करना समाज को खलता नहीं था। वैसे भी एक पुरुष के कुछ भी करने से इस पितृसत्तात्मक समाज को कभी कोई दिक्कत नहीं हुई है।

ऐसे समय में मीना नारायणन का फिल्मों की दुनिया में न सिर्फ कदम रखना बल्कि उसके एक ऐसे क्षेत्र में महारथ हासिल करना काबिल-ए-तारीफ़ है।

20वीं सदी में भी हालांकि कुछ बहुत ज्यादा सुधार नहीं हुआ था। इस दौर के भारतीय समाज में भी पुरुषों द्वारा शासित अभिनय के क्षेत्र में महिलाओं के योगदान को स्वीकृति नहीं मिली थी। इस दौर में भी महिलाओं से पढ़ाई के बजाय घर के काम सीखना, पुरुषों के सामने चुप रहना, उनके होने पर एक लंबा सा घूंघट काढ़े रखना आदि ही अपेक्षित था। ऐसे समय में मीना नारायणन का फिल्मों की दुनिया में न सिर्फ कदम रखना बल्कि उसके एक ऐसे क्षेत्र में महारथ हासिल करना जिसमें आज भी महिलाओं के योगदान के बारे में एक आम आदमी को कोई जानकारी नहीं है, यकीनन काबिल-ए-तारीफ़ है। साल 1939 में नारायणन के स्टूडियो, श्री श्रीनिवास सिनेटोन में अचानक आग लग जाने के कारण उनका स्टूडियो खत्म हो गया था। इस घटना ने मीना के पति, नारायणन को बहुत अंदर तक आघात पहुंचाया जिस कारण उनकी 39 साल की उम्र में ही मौत हो गई थी। अपने पति की असमय मौत के बाद मीना ने अपने बची हुई पूरी ज़िन्दगी फिल्मों से दूर रहकर ही काटी। नारायणन की मौत ने उनकी सेहत पर भी बुरा असल किया और साल 1954 में मीना ने अपनी आखिरी सांसें लीं।

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