परमपुरुष ही हमें बनाता है, संभालता है और वही बिगाड़ता भी है

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ब्रह्मांड में जो कुछ घट रहा है, उसे परमपुरुष मन ही मन ही सोच रहे हैं। आकाश, पवन, पर्वत, समुद्र सभी के बारे में मन ही मन चिंतन करते जा रहे हैं। जब तक ये सब उनके चिंतन में हैं, तब तक ये सभी क्या अंकुर हैं? हां, अंकुर हैं, क्योंकि उनके हृदय से निकल आया है। अब पृथ्वी पर ऐसी कोई वस्तु है क्या, जो उनके हृदय का बना अंकुर न हो? हो ही नहीं सकता। तुम विद्वान हो, तुम ज्ञान की बड़ी बातें करते हो। ये ज्ञान की बातें क्या हैं? उनके मन के अंकुर हैं। जब तुम बढ़-चढ़ कर भाषण देते हो और जब बढ़-चढ़ कर झगड़ा करते हो, तो वे क्या सभी उनके बाहर हैं या उनके भीतर? ऐसा कुछ है ही नहीं, जो उनके बाहर है।

तो कहा जाता है जो भी कुछ अंकुरित होता है, जिसकी रचना होती है, वह परमपुरुष से अंकुरित है। परमपुरुष चिंतन कर रहे हैं, इसीलिए मानव अस्तित्व है। और इस मन की कल्पना से मैंने जिन्हें बनाया है, वे सभी मेरे मन के भीतर ही हैं, मन के बाहर जाने का कोई उपाय नहीं है। चाहे जितना हाथ-पैर मार ले और कहे- हे परमपुरुष! मैं तुम्हें नहीं मानता, मैं तुम्हें मान नहीं रहा। यह भी कहेगा तो इस मन के भीतर से ही। इसलिए वही मनुष्य बुद्धिमान है जो मन ही मन परमपुरुष से कहता है- हे परमपुरुष तुमने तो सब कुछ ही जान लिया है। सब कुछ देख लिया है और अब मुझे खींच कर तुम अपनी गोद में मुझे बिठा लो। क्योंकि मैं बहुत नीचे उतर गया हूं। क्या तुम्हारे चाहने पर मेरा उद्धार नहीं हो सकता?

विद्यापति कहते हैं कि अपनी चेष्टा से मनुष्य अब क्या कर सकता है? परमपुरुष से जो शक्ति उसे मिली है, उससे ही वह छटपट करता है, काम करने की चेष्टा करता है, परमपुरुष के दिए कामों को पूरा करने की कोशिश करता है और बेचैन होकर इस बात को ही कहता है या बोलता है- हे परमपुरुष! इस सृष्टि के आदि में भी तुम्हीं थे, और यदि किसी काल में सृष्टि का अंत न हो, तो उसमें भी तुम्हीं हो। तुम आदि के नाथ हो। जो प्रारंभ में है, आदि में है, वही अंत में भी है, और मध्य का मालिक भी वही है।

मैं तो आदि-अनादि के बीच में ही हूं, और अगर तुम मेरे मालिक हुए, अगर तुम मेरे नाथ हुए, तब मुझे मुक्ति दिलाने के लिए, मेरा परित्राण करने का दायित्व क्या तुम्हारा नहीं है? निश्चय ही यह तुम्हारा दायित्व है। इसलिए मेरी भलाई के लिए तुम जो उचित समझो, वही करो। और मेरी भलाई के लिए जो उचित-अनुचित है, उसे तुम मुझसे कहीं अधिक अच्छा समझते हो। मेरे लिए जो कुछ करणीय है, उसे तुम करो। तुम करोगे और मैं तुम्हें बस केवल उस बात को ही सुनाए जाऊंगा कि मैं तुम्हारा हूं, इसलिए मेरे प्रति तुम्हारा कर्तव्य भी है। यदि तुम कहो कि तुम्हारा मेरे प्रति दायित्व है या नहीं, उसे भी तुम याद दिलाने वाले कौन हो? तब मैं कहूंगा कि मुझे तुमने वचन क्यों दिया है? इसी से मैं कह सकता हूं। यदि वचन न देते, तब मैं नहीं कहता।

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