मुण्डमालातन्त्र प्रथम पटल || Munda Mala Tantra Pratham Patal

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‘मुण्डमालातन्त्र’ प्रकृत ग्रन्थ हैं । भगवान् शंकर के पाँच मुण्डों से यह तन्त्र प्रकाशित हुआ था । एक मुण्ड के द्वारा जो-जो विषय कहे गये हैं । दुसरे मुण्ड के द्वारा वह नहीं कहा गया । इस प्रकार पाँच मुण्ड़ों के द्वारा पृथक्-पृथक् विषय प्रकाशित किये गये हैं । प्रथम पटल में दश महाविद्या के विषय में कहा गया है ।

मुण्डमालातन्त्रम् प्रथमः पटलः

मुंडमाला तन्त्र पटल १

सर्वानन्दमयीं विद्यां सर्वाम्नायैनमस्कृताम् ।

सर्वसिद्धिप्रदां देवीं नमामि परमेश्वरीम् ।।1।।

सर्वानन्दमयी सर्वतन्त्र-नमस्कृता (=प्रशंसिता) सर्वसिद्धिप्रदा देवी परमेश्वरी विद्या को मैं नमस्कार करता हूँ ।

श्रीदेव्युवाच –

देवदेव! महादेव! परमानन्द! सुन्दर !।

प्रसीद गुह्य-विक्रान्त ! कथयस्व प्रियंवद ! ॥2॥

श्रीदेवी ने कहा – हे देवदेव ! हे महादेव ! हे परमानन्द ! हे सुन्दर ! हे प्रियंवद ! हे गुह्यविक्रान्त ! (हे गुप्तदक्ष!) आप हमारे प्रति प्रसन्न होवें। आप हमें गोपनीय बातों को बतावें।

सर्वतन्त्रेषु मन्त्रेषु गुप्तं यत् पञ्चवक्त्रतः ।

तत् प्रकाशय गुह्याख्यं यच्च त्वं मम वल्लभः ।।3।।

समस्त तन्त्रों में एवं समस्त मन्त्रों में जो गुप्त (=गुह्य) विषय हैं, उन गुप्त विषयों को अपने पाँच मुखों के द्वारा प्रकाशित करें, क्योंकि आप मेरे वल्लभ (स्वामी, प्रभु या पति) हैं ।

श्री शिव उवाच –

कथां ते कथयिष्यामि गुप्तं यत् चञ्चलाम्बिके!।

स्त्रीस्वभावान्महत् तत्त्वं न जानासि शुभप्रदम् ।।4।।

श्रीशिव ने कहा – जो गुह्य हैं, उनके विषय में मैं आपको बताऊँगा । हे अम्बिके ! चूँकि आप स्त्री के स्वभाववश चपला हैं, इसीलिए आप शुभ-प्रद महान् तत्त्व को नहीं जानतीं हैं ।

श्रीदेव्युवाच –

सुस्थिराडहं भविष्यामि न वक्तव्यं कदाचन ।

तव भक्त्या भविष्यामि भावना मन्त्रसिद्धिदा ।।5।।

श्रीदेवी ने उत्तर दिया -मैं सुस्थिरा बनूँगी। आपके प्रति भक्ति के कारण मैं सुस्थिरा बन सकती हूँ। कदापि गुह्य बातों को (बाहर) नहीं बताऊँगी । भावना (ही) मन्त्रसिद्धिप्रदा बन जाती है ।

श्रीशिव उवाच –

देवता-गुरु-मन्त्राणामैक्यभावनमुच्यते ।

मन्त्रो यो गुरुरेवासौ यो गुरुः स च देवता ।।6।।

श्रीशिव ने कहा – देवता, गुरु एवं मन्त्र – इनमें ऐक्य की भावना का कथन किया जा रहा है। जो मन्त्र है, वही यह गुरु है। जो गुरु हैं, वे ही देवता हैं ।

काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी ।

भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा ।।7।।

बगलामुखी सिद्धविद्या मातङ्गी कमलात्मिका ।

एता दश महाविद्याः सिद्धविद्याः प्रकीर्तिताः ॥8॥

महाविद्या, काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, महाविद्या, धूमावती, बगलामुखी, सिद्धविद्या मातङ्गी एवं कमला – ये दश महाविद्या ‘सिद्धविद्या’ के नाम से कही गयीं हैं ।

अत्यन्तदुर्लभा लोके षड़ाम्नाय-नमस्कृताः ।

एताभ्यः परमा विद्या त्रिपु लोकेषु दुर्लभा ।

सुखदा मोक्षदा विद्या क्लेशसाध्या न तादृशी ॥9॥

ये दश महाविद्या लोक में अत्यन्त दुर्लभ हैं। ये छः आम्नायों के द्वारा नमस्कृता (प्रशंसिता) हैं । इन तीनों लोकों में, इन दश महाविद्याओं से श्रेष्ठ विद्या दुर्लभ हैं। यह विद्या सुखप्रदा एवं मोक्षप्रदा हैं, जबकि वैसी क्लेश साध्या नहीं हैं ।।9।।

येन येन प्रकारेण सिद्धिर्यास्यति भूतले ।

या सर्व से कथयिष्यामि प्रेमभावेन केवलम् ।।10।।

इस पृथ्वी पर जिस-जिस प्रकार से सिद्धि प्राप्त होती है, वे सभी केवल आपके प्रति प्रेमभाव वश ही बताऊँगा ।

नैव सिद्धाद्यपेक्षास्ति नक्षत्रादि-विचारणा ।

कालादिशोधनं नास्ति नारि-मित्रादिदूषणम् ।।11।।

इस विद्या के विषय में सिद्ध एवं असिद्ध-विषयक विचार अपेक्षित नहीं हैं । नक्षत्रादि का विचार भी अपेक्षित नहीं है। कालादि की शुद्धि भी नहीं है। अरि-मित्रादिका दोष भी नहीं है ।

सिद्धविद्यातया नात्र युगसेवा-परिश्रमः ।

नास्ति किञ्चिन्महादेवि ! दुःखसाध्यं कदाचन ।।12।।

ये समस्त महाविद्या ‘सिद्धविद्या’ होने के कारण इनमें युगसेवा का परिश्रम नहीं है। हे महादेवि ! इनमें दुखासाध्य कुछ भी नहीं है ।

या काली परमा विद्या चतुर्धा कथितापुरा ।

लक्ष्मीबीजादि-भेदेन पञ्चमी सा भवेदिह ।।13।।

पहले जो परमा विद्या काली चार प्रकार हैं – ऐसा कहा गया था, वही काली लक्ष्मी-बीजादि भेद से इहलोक में पञ्चमी हो जाती हैं ।

एकाक्षरी महाविद्या वीर्यहीनाऽभवत् पुरा ।

भुवनेश्वरी त्र्यक्षरी तु महाविद्या प्रकीर्त्तिता ।।14।।

एकाक्षरी महाविद्या पहले वीर्यहीना बन गयीं थीं । त्र्यक्षरी भुवनेश्वरी ‘महाविद्या’ कही गयीं हैं ।

श्रीदेव्युवाच –

दुष्टा विद्या च देवेश ! कथिता न प्रकाशिता ।

इदानीं त्वद्दयाभावात् कथयानन्दसुन्दर ! ॥15॥

श्रीदेवी ने कहा – हे देवेश ! आपने दुष्टा (=अभिशप्ता) विद्या की बात तो कहा है, किन्तु उसे प्रकट नहीं किया है । हे आनन्द-सुन्दर ! आप दयावश होकर सम्प्रति उसे बतायें ।

श्रीईश्वर उवाच –

भुवनेशी महाविद्या देवराजेन वै पुरा ।

आराधिता च विद्येयं वज्रेण नाम-मोहिता ।।16।।

श्रीईश्वर ने कहा – पहले देवराज इन्द्र के द्वारा महाविद्या भुवनेश्वरी आराधिता हुई थीं। वज्र ने भी नाममोहिनी इस विद्या की आराधना की थी ।

एकाक्षरी वीर्यहीना वाग्भवेनोज्ज्वलाऽभवत् ।

कामराजाख्या विद्या या विद्या सा पुष्पधन्वना ।।17।।

शरेण पीड़िता पूर्वं भुवनेश्या प्रतिष्ठिता ।

कुमारी या च विद्येयं त्वया शप्ता बहिश्शूता ॥18॥

वीर्यहीना भुवनेश्वरी की एकाक्षरी विद्या, वाग्भव (ऐं बीज) के द्वारा पुटित होकर उज्ज्वल (निर्दोष) बन गयी थी। कामराज नामक जो विद्या है, वह विद्या पहले पुष्पधन्वा (=कामदेव) के द्वारा शर से पीड़िता (अभिशप्ता) बन गयीं थीं। बाद में (वह) भुवनेशी (ह्रींकार) के द्वारा प्रतिष्ठित हुईं थीं। ये जो कुमारी बाला विद्या है, ये आपके द्वारा अभिशप्ता होकर बहिश्च्यूता (=विच्छिन्ना) हो गयीं थीं ।

तथाद्येन तु लुप्ताऽसौ मध्यमेन तु कीलिता ।

अन्तिमेन तु सम्भिन्ना तेन विद्या न सिध्यति ।।19।।

यह (विद्या) प्रथम बीज के द्वारा लुप्ता हैं, मध्यम बीज के द्वारा कीलिता (बद्धा) है, अन्तिम बीज के द्वारा छिन्ना हैं। इसी कारण, यह विद्या फलप्रदा नहीं होती है ।

केवलं शिवरूपेण शक्तिरूपेण केवलम् ।

मया प्रतिष्ठिता विद्या तारा चन्द्रस्वरूपिणी ।।20।

तारा चन्द्र-स्वरूपिणी (=स्त्रीं स्वरूपिणी) हैं। वह विद्या मेरे द्वारा केवल शिव-रूप में (=ह-कार रूप में) एवं केवल शक्तिरूप में (=स-कार-रूप में) अर्थात् ‘सौ’ के योग से प्रतिष्ठिता (=निर्दोष) हुईं थीं ।

धूमावती महाविद्या मारणोच्चाटने रता ।

बगला वश्य-स्तम्भादि-नानागुण-समन्विता ॥21॥

महाविद्या धूमावती मारण एवं उच्चाटन में रता हैं। महाविद्या बगलामुखी वशीकरण, स्तम्भन प्रभृति नाना गुणों से भूषिता हैं ।

मातङ्गी च महाविद्या त्रैलोक्य-वशकारिणी ।

कमला त्रिविधा प्रोक्ता एकाक्षरधिया स्थिता ।

केवला तु महासम्पद-दायिनी सुखमोक्षदा ।।22।।

महाविद्या मातङ्गी त्रैलोक्य को वशीभूत करती हैं। कमला तीन प्रकार की कही गयीं हैं । किन्तु (वह) एकाक्षर-बुद्धि के द्वारा अवस्थिता हैं अर्थात् लोक उन्हें एकाक्षरी मानता है। केवला महाविद्या कमला महासम्पद्-दायिनी हैं एवं वहा सुख तथा मोक्ष-प्रदा हैं ।

इति मुण्डमालातन्त्रे प्रथमः पटलः ॥1॥

मुण्डमालातन्त्र प्रथम पटल समाप्त हुआ ॥1॥

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