मुण्डकोपनिषद् तृतीयमुण्डक द्वितीय खण्ड || Mundakopanishad Tritiya Mundak Dvitiya Khand

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मुण्डकोपनिषद् तृतीयमुण्डक द्वितीय खण्ड में ११ मंत्र है। इसके बाद पुनः शांति पाठ दिया गया है। द्वितीय खण्ड में निम्न बिन्दु का उल्लेख है-

द्वितीय खण्ड

• ब्रह्मज्ञानी होने की इच्छा रखने वाले साधक को सर्वप्रथम अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों का नियन्त्रण करना पड़ता है। इन्द्रिय-निग्रह के उपरान्त उसे अपने सर्वाधिक चलायमान ‘मन’ को वश में करना पड़ता है। तभी उसे आत्मा का साक्षात्कार होता है। आत्मज्ञान होने के उपरान्त ही साधक ब्रह्मज्ञान के पथ पर अग्रसर होता है।

• जब आत्मज्ञानी साधक उस निर्मल और ज्योतिर्मय ब्रह्म के परमधाम को पहचान लेता है, तो उसे उसमें सम्पूर्ण विश्व समाहित होता हुआ दिखाई पड़ने लगता है। निष्काम भाव से परमात्मा की साधना करने वाले विवेकी पुरुष ही इस नश्वर शरीर के बन्धन से मुक्त हो पाते हैं।

• ‘आत्मा’ को न तो प्रवचनों के श्रवण से पाया जा सकता है, न किसी विशेष बुद्धि से। इसका अर्थ यही है कि लौकिक ज्ञान प्राप्त करके, आत्मज्ञान प्राप्त नहीं होता। आत्मज्ञान चेतनायुक्त है। वह साधक की पात्रता देखकर स्वयं ही अपने स्वरूप को प्रकट कर देता है। कामना-रहित, विशुद्ध और सहज अन्त:करण वाले साधक ही परम शान्त रहते हुए परमात्मा को प्राप्त करने की क्षमता रखते हैं। विवेकी पुरुष उस सर्वव्यापी, सर्वरूप परमेश्वर को सर्वत्र प्राप्त कर उसी में समाहित हो जाते हैं।

• जिस प्रकार प्रवहमान नदियां अपने नाम-रूप को छोड़कर समुद्र में विलीन हो जाती हैं, वैसे ही ज्ञानी पुरुष नाम-रूप से विमुक्त होकर उस दिव्य परमात्मा में लीन हो जाते हैं। उसे जानने वाला स्वयं ही ब्रह्म-रूप हो जाता है। वह समस्त लौकिक-अलौकिक ग्रन्थियों से मुक्त हो जाता है। उसे अमरत्व प्राप्त हो जाता है।

॥अथ मुण्डकोपनिषद् तृतीयमुण्डके द्वितीयः खण्डः ॥

स वेदैतत् परमं ब्रह्म धाम

यत्र विश्वं निहितं भाति शुभ्रम् ।

उपासते पुरुषं ये ह्यकामास्ते

शुक्रमेतदतिवर्तन्ति धीराः ॥ १॥

वह निष्काम भाव वाला पुरुष इस परम विशुद्ध प्रकाशमान ब्रह्मधाम को जान लेता है। जिसमें सम्पूर्ण जगत् स्थित हुआ प्रतीत होता है। जो भी कोई निष्काम साधक परम पुरुष की उपासना करते हैं, वह बुद्धिमान रजोवीर्यमय इस जगत को अतिक्रमण कर जाते हैं। ॥१॥

कामान् यः कामयते मन्यमानः

स कामभिर्जायते तत्र तत्र ।

पर्याप्तकामस्य कृतात्मनस्तु

इहैव सर्वे प्रविलीयन्ति कामाः ॥ २॥

जो भोगों को आदर देनेवाला मानव उनकी कामना करता है। वह उन कामनाओं के कारण उन-उन स्थानों में उत्पन्न होता है जहाँ वह उपलब्ध हो सकें। परन्तु जो पूर्णकाम हो चुका है, उस विशुद्ध अन्तःकरण वाले पुरुष की सम्पूर्ण कामनाएँ यहीं सर्वथा विलीन हो जाती हैं। ॥२॥

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो

न मेधया न बहुना श्रुतेन ।

यमेवैष वृणुते तेन लभ्य-

स्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥ ३॥

यह परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचन से, न बुद्वि से और न बहुत सुनने से ही प्राप्त हो सकता है। यह जिसको स्वीकार कर लेता है। उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि यह आत्मा परमात्मा उसके लिये अपने यथार्थ स्वरूप को प्रकट कर देता है। ॥३॥

नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो

न च प्रमादात् तपसो वाप्यलिङ्गात् ।

एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वां-

स्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम ॥ ४॥

यह परमात्मा बलहीन मनुष्य द्वारा नहीं प्राप्त किया जा सकता तथा प्रमाद से अथवा लक्षणरहित तप से भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। किन्तु जो बुद्धिमान साधक इन उपायों द्वारा प्रयत्न करता है, उसका यह आत्मा ब्रह्म धाम में प्रविष्ट हो जाता है। ॥४॥

सम्प्राप्यैनमृषयो ज्ञानतृप्ताः

कृतात्मानो वीतरागाः प्रशान्ताः

ते सर्वगं सर्वतः प्राप्य धीरा

युक्तात्मानः सर्वमेवाविशन्ति ॥ ५॥

सर्वथा आसक्ति रहित और विशुद्ध अन्त: करण वाले ऋषिलोग इस परमात्मा को पूर्णतया प्राप्त होकर ज्ञान तृप्त एवं परम शांत हो जाते है। अपने-आप को परमात्मा मे संयुक्त कर देने वाले वह ज्ञानीजन सर्वव्यापी परमात्मा को सब ओर से प्राप्त करके सर्वरूप परमात्मा में ही प्रविष्ट हो जाते हैं। ॥५॥

वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः

संन्यासयोगाद् यतयः शुद्धसत्त्वाः ।

ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले

परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे ॥ ६॥

जिन्होंने वेदान्त-उपनिषद् शास्त्र के विज्ञान द्वारा उसके अर्थभूत परमात्मा को पूर्ण निश्चयपूर्वक जान लिया है तथा कर्मफल और आसक्ति के त्यागरूप योग से जिनका अंत:करण शुद्ध हो गया है। वह समस्त प्रयत्नशील साधक गण मरणकाल में शरीर त्यागकर ब्रह्म लोक मे जाते हैं और वहाँ परम अमृतस्वरुप होकर सर्वथा मुक्त हो जाते हैं। ॥६॥

गताः कलाः पञ्चदश प्रतिष्ठा

देवाश्च सर्वे प्रतिदेवतासु ।

कर्माणि विज्ञानमयश्च आत्मा

परेऽव्यये सर्वे एकीभवन्ति ॥ ७॥

पंद्रह कलाएँ और सम्पूर्ण देवता अर्थात् इन्द्रियाँ अपने अपने अभिमानी देवताओं में जाकर स्थित हो जाते हैं। फिर समस्त कर्म और विज्ञानमय जीवात्मा, यह सभी परम अविनाशी परब्रह्म में एक हो जाते हैं। ॥ ७॥

यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽ

स्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय ।

तथा विद्वान् नामरूपाद्विमुक्तः

परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥ ८॥

जिस प्रकार बहती हुई नदियाँ नाम-रूप को छोड़कर समुद्र में विलीन हो जाती है, वैसे ही ज्ञानी महात्मा, नाम रूप से विमुक्त होकर उत्तम-से-उत्तम दिव्य परमपुरुष परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। ॥८॥

स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद

ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित्कुले भवति ।

तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहाग्रन्थिभ्यो

विमुक्तोऽमृतो भवति ॥ ९॥

निश्चय ही जो कोई भी उस परम ब्रह्म परमात्मा को जान लेता है। वह महात्मा ब्रह्म ही हो जाता है, उसके कुल में ब्रह्म को न जाननेवाला नहीं होता। वह शोक से पार हो जाता है, पाप समुदाय से तर जाता है और हृदय की गाँठो से सर्वथा छूटकर अमर हो जाता है। ॥९॥

तदेतदृचाऽभ्युक्तम् ।

क्रियावन्तः श्रोत्रिया ब्रह्मनिष्ठाः

स्वयं जुह्वत एकर्षिं श्रद्धयन्तः ।

तेषामेवैतां ब्रह्मविद्यां वदेत

शिरोव्रतं विधिवद् यैस्तु चीर्णम् ॥ १०॥

उस ब्रह्मविद्या के विषय में यह बात ऋचा द्वारा कही गयी है, जो निष्काम भाव से कर्म करने वाले वेद के अर्थ के ज्ञाता तथा ब्रह्म के उपासक हैं और श्रद्धा रखते हुए स्वयं ‘एकर्षि’ नामवाले प्रज्वलित अग्नि में नियमानुसार हवन करते हैं। तथा जिन्होंने विधिपूर्वक सर्वश्रेष्ठ व्रत का पालन किया है, उन्हीं को यह ब्रह्मविद्या बतानी चाहिये। ॥१०॥

तदेतत् सत्यमृषिरङ्गिराः

पुरोवाच नैतदचीर्णव्रतोऽधीते ।

नमः परमऋषिभ्यो नमः परमऋषिभ्यः ॥ ११॥

उसी सत्यको अर्थात् यथार्थ विद्या को पहले अंगिरा ऋषि ने उवाच कहा था। जिसने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन नहीं किया है, वह इसे नहीं पढ़ सकता अर्थात् इसका गूढ अभिप्राय नहीं समझ सकता। परम ऋषियों को नमस्कार है, परम ऋषियो को नमस्कार है॥ ११ ॥

॥ इति मुण्डकोपनिषद् तृतीयमुण्डके द्वितीयः खण्डः ॥

॥ द्वितीय खण्ड समाप्त ॥२॥

|| तृतीय मुण्डक समाप्त ॥३॥

॥शान्तिपाठ॥

॥ श्रीः॥

ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः ।

भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।

स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवार्ठ॰सस्तनूभिः ।

व्यशेम देवहितं यदायुः ॥

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।

॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

इसका भावार्थ सीतोपनिषत् में देखें।

॥ इत्यथर्ववेदीय मुण्डकोपनिषत्समाप्ता ॥

॥अथर्ववेदीय मुण्डकोपनिषद समाप्त ॥

॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

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