मुण्डमालातन्त्र पटल ९ – Mundamala Tantra Patal 9

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मुण्डमालातन्त्र (रसिक मोहन विरचित तृतीय पटल) पटल ९ में दुर्गामार्ग के विषय में कहा गया है।

|| मुण्डमालातन्त्रम् (रसिक मोहन विरचितम्) तृतीयः पटलः ||

मुण्डमालातन्त्रम् नवम: पटलः

मुण्डमालातन्त्रम् (रसिक मोहन विरचितम्) तृतीयः पटलः

कैलासशिखरासीनमिन्दु-खण्ड-विभूषितम् ।

पार्वती परया भक्त्या प्राह देवं त्रिलोचनम् ।।1।।

श्रोतुमिच्छाम्यहं नाथ तन्त्रानन्द-परिप्लुता ।

देवी पार्वती तन्त्रानन्द से पूर्ण होकर कैलास-शिखर पर समासीन, चन्द्रखण्डविभूषित, देवदेव त्रिलोचन से अत्यन्त भक्ति के साथ कहने लगीं – हे नाथ ! मैं आपसे (दुर्गामार्ग को) सुनना चाहती हूँ ।।1।।

श्री पार्वत्युवाच –

देव-देव! महादेव! संसारार्णव-तारक !

नमस्ते देवदेवेश! नीलकण्ठ! त्रिलोचन ! ॥2॥

श्री पार्वती ने कहा – हे देवदेव ! हे महादेव ! हे संसार-समुद्र-तारक! हे देवेश ! हे नीलकण्ड ! हे त्रिलोचन ! आपको नमस्कार ।।2।।

नमस्ते पार्वती-नाथ! दशविद्या-पते नमः ।

गङ्गाधर ! जगत्-स्वामिन् ! प्रभो शङ्कर ! भो हर ! ।।3।।

हे पार्वतीनाथ ! हे दशविद्यापते ! हे गङ्गाधर ! हे जगत्स्वामिन् ! हे प्रभो ! हे शङ्कर ! हे हर! आपको नमस्कार।।3।।

निःशेष-जगदाधार! निराधार! निरीहक!

निर्बीज-निर्गुणाभास! सगुणान्तकर! प्रभो ! ।।4।।

हे निखिल जगत् के आधार ! हे निराधार ! हे निष्क्रिय ! हे निर्बीज ( = निष्कारण) ! हे निर्गुणाभास ! हे सगुणान्तकर ! हे प्रभो! आपको नमस्कार ।।4।।

नमस्ते विजयाधार ! विजयेश! जयात्मक!।

विजयानन्द सन्तोष ! विजया-प्राणवल्लभ ! ॥ 5॥

हे विजयाधार ! हे विजयेश ! हे जयात्मक ! हे विजयानन्द-सन्तुष्ट ! हे विजयाप्राणवल्लभ ! आपको नमस्कार ।।5।।

जगदीश! जगद्-वन्द्य! जयेश! जगदीश्वरं !।

विश्वनाथ ! प्रसीद त्वं प्रसन्नो भव शङ्कर !॥6॥

हे जगदीश ! हे जगद्वन्द्य ! हे जयेश ! हे जगदीश्वर ! हे विश्वनाथ ! आप अनुग्रह करें । हे शङ्कर ! आप प्रसन्न होवें ।।6।।

श्री शिव उवाच –

सप्तकोटि-महाविद्या उपविद्या तथैव च ।

श्री विष्णु-कोटिमन्त्रेषु कोटिमन्त्रे शिवस्य च ।।7।।

शूद्राणामधिकारोऽस्ति स्वाहा-प्रणव-वर्जिते ।

सर्वेषां दुर्लभे मार्गो दुर्गामार्गो महेश्वरि ! ॥8॥

श्री शिव ने कहा – सात कोटि महाविद्याएँ (महामन्त्र) हैं। उसी प्रकार उपविद्याएँ भी सात कोटि हैं। स्वाहा एवं प्रणववर्जित श्रीविष्णु के कोटि मन्त्रों में एवं शिव के कोटि मन्त्रों में शूद्र का अधिकार है। हे महेश्वरि ! सभी के लिए दुर्गामार्ग दुर्लभ मार्ग है ।।7-8।।

भक्तानां खलु शक्तानां सुलभात् सुलभः प्रिये !।

नातः परतरो देवो नातः परतरं सुखम् ॥9॥

हे प्रिये ! शाक्त भक्त के निकट यह दुर्गामार्ग सुलभ से भी सुलभ है। इनकी अपेक्षा श्रेष्ठ देवता नहीं हैं, इनकी अपेक्षा श्रेष्ठ सुख नहीं है ।।9।।

नातः परतरा विद्या नातः परतरं पद्म ।

शृणु देवि ! वरारोहे ! सारात् सारतरं प्रिये ! ॥10॥

इनकी अपेक्षा श्रेष्ठ विद्या नहीं है, इनकी अपेक्षा श्रेष्ठ स्थान नहीं है। हे देवि ! हे वरारोहे ! हे प्रिये ! सार से सारतर का श्रवण करें ।।10 ।।

केवलं दक्षिणं मार्गमाश्रित्य यदि साधकः ।

भावयेत् परमां विद्यामुमेशो नात्र संशयः॥11॥

यदि साधक केवल दक्षिणमार्ग का आश्रय कर, परम विद्या की भावना करता है, तब वह उमेश बन जाता है। इसमें संशय नहीं है ।।11।।

शृणु चण्डि ! वरारोहे ! करालास्ये ! दिगम्बरि !।

स्तौमि त्वां सततं भक्त्या नमस्ते जगदम्बिके! ॥12॥

हे चण्डि ! हे वरारोहे ! हे करालास्ये ! हे दिगम्बरे ! आप श्रवण करें । मैं सर्वदा भक्ति के साथ आपकी स्तुति करता हूँ। हे जगदम्बिके! आपको नमस्कार ।।12 ।।

श्री शिव उवाच –

घोरदंष्ट्रे ! करालास्ये! सुरा-मांस-बलि-प्रिये !।

चण्ड-मुण्ड-क्षयकरे! मुण्डमाला-विभूषिते ! ।।13।।

नमस्तेऽस्तु माहमाये ! दुर्गे! महिष-मर्दिनि !।

नमस्ते जगदीशान-दयिते ! सर्वमङ्गले ! ।।14॥

श्री शिव ने कहा – हे घोरदंष्ट्रे ! हे करालास्ये ! हे सुरा-मांस-बलिप्रिये ! हे चण्डमुण्डक्षयकारी ! हे मुण्डमालाविभूषिते ! हे महामाये ! हे दुर्गे ! हे महिषमर्दिनि ! आपको नमस्कार ! हे जगदिशानि ! हे दयिते ! हे सर्वमङ्गले! आपको नमस्कार ।।13-14।।

वक्ष्ये परमतत्त्वं वै सारात् सारं परात् परम् ।

शृणु देवि ! जगद्धात्रि! सावधानाऽवधारय ।।15।।

मैं सारात् सार परात् पर परम तत्त्व को बता रहा हूँ। हे देवि ! हे जगद्धात्रि ! आप श्रवण करें, सावधान होकर अवधारण करें ।।15।।

योनिमुद्रा-प्रकरणं पूवैरगदितं मया ।

त्रिकोणं गुणसंयुक्तं योनिं परम-कारणम् ।

संगच्छेत् तु शिवा-बुद्धया शिवरूपी न संशयः ।।16।।

मैंने पहले योनिमुद्रा के प्रकरण को नहीं बताया था । गुणसंयुक्त परम कारण त्रिकोण योनि की भावना शिव-बुद्धि से करें। इससे शिव-रूप बन जावेंगे-इसमें कोई सन्देह नहीं है ।।16।।

तुषेण बद्धो व्रीहिः स्यात् तुषाभावे तु तण्डुलः ।

कर्मबद्धो भवेद् जीवः कर्म-मुक्तः सदाशिवः ।।17।।

तुष के द्वारा आवृत रहने पर व्रीहि (धान) कहा जाता है। तुष न रहने पर, तण्डुल बनता है। कर्म के द्वारा बद्ध रहने पर जीव कहा जाता है । कर्ममुक्त बन जाने पर सदाशिव बन जाते हैं ।।17।।

जीवानां परमो रोगः कर्मभोगः स दारुणः ।

तस्मात् तारां जगद्धात्री पूजयेद् भक्ति-भावतः ।।18।।

जीवों का कर्मभोग ही परम रोग है । वह अति भयंकर है। अतः भक्तिभाव से जगद्धात्री तारा की पूजा करें।।18।।

भस्म-जटा-व्याघ्रचर्म-धारी परम-पावनः।

निरन्तरं जपेद् यस्तु साधकेन्द्रो धरातले ।

स धन्यः सोऽपि वीरश्च दिव्यश्च परमः शुभः ।।19।।

जो साधक-श्रेष्ठ धरातल पर परम पवित्र बनकर, भस्म, जटा एवं व्याघ्रचर्म का परिधान कर, निरन्तर मन्त्र का जप करता रहता है, वह धन्य है, वह कवि है, वह वीर है, वह दिव्य है, वह श्रेष्ठ पशु है ।।19।।

भावशुद्धिर्ज्ञानशुद्धिः शवशुद्धिस्तु सङ्गता ।

चिताशुद्धिः पीठशुद्धिान शुद्धिस्तु सच्छिवा ।।20।।

भावशुद्धि, शवशुद्धि, परशुद्धि – एकान्तररूप में सङ्गत है । चिताशुद्धि, पीठशुद्धि, ध्यान-शुद्धि सद्पिणी शिवास्वरूप हैं ।।20

ज्ञात्वा परम-तत्त्वं वै ज्ञानं मोक्षैकसाधनम् ।

भजेत् तु परया बुद्धा जीवः शिवत्वमाप्नुयात् ॥21॥

परम तत्त्व को जानकर उत्तम बुद्धि के द्वारा उसकी भजना करें। क्योंकि ज्ञान की मोक्ष का एकमात्र साधन है। जो एवंविध प्रकार से भजना करता है, वह शिवत्व को प्राप्त होता है ।।21।।

विहारं जगदम्बायाः सहस्रारे मनोरमम् ।

सदाशिवेन संयोगं यः करोति स पण्डितः ।।22॥

सहस्रार में जगदम्बा के मनोरम विहार को जो जानता है एवं जो सदाशिव के साथ जगदम्बा के संयोग को साधित करता है, वह पण्डित है ।।22।।

ज्ञानिनाञ्च मतं वक्ष्येऽज्ञानिनाञ्च मतं मुदा ।

ज्ञानाज्ञान-समायुक्तः सर्वदा विहरेद् भुवि ।।23।।

ज्ञानियों के मत को बताऊँगा । आनन्द के साथ अज्ञानियों के मत को बताऊँगा । ज्ञान एवं अज्ञान से युक्त होकर लोग सर्वदा भूमण्डल पर विचरण करता है ।।23।।

इडा वामे स्थिता नाड़ी विधुस्तत्रापि तिष्ठति ।

दक्षेऽपि पिङ्गला नाड़ी सूर्यस्त्रापि तिष्ठति ॥24॥

वाम में इड़ा नाड़ी अवस्थिता हैं। वहाँ भी चन्द्रमा रहते हैं। दक्षिण में पिङ्गला नाड़ी अवस्थिता हैं। वहाँ सूर्य रहते हैं ।।24।।

मध्ये सुषुम्ना तन्मध्ये ब्रह्म-नाड़ी मनोहरा ।

मध्यगं खं विदध्याद् यो जनो मृत्युञ्जयो भवेत् ।।25।।

मध्य में सुषुम्ना नाड़ी अवस्थिता है। उसके मध्य में मनोहरा ब्रह्मनाड़ी है। जो व्यक्ति उसके भी मध्यगत आकाश की भावना कर सकता है, वह शिव बन सकता है ।।25।।

चित्रिणी-मध्यगं वायुं पूरणं रेचनं यदा ।

करोति वामनासाग्रैः सत्यं सत्यं सुरेश्वरि ! ॥26॥

हे सुरेश्वरि ! जब साधक वाम नासा के अग्रभाग के द्वारा चित्रिणी नाड़ी के मध्यगत वायु का पूरण एवं रेचन करता है, तब वह सत्य सत्य मृत्युञ्जय बन जाता है ।।26।।

दक्षे तु दक्षिणा वामा विरामा चलिता सिता ।

नाड़ी वामे कपाला च विजिह्वा शुलकारिणी ॥27॥

जबकि दक्षिण भाग में दक्षिण, वामा, विरामा एवं सिता नाड़ी चली गयी है (= अवस्थिता है) । वाम भाग में कपाला, शूलकारिणी, विजिह्वा, कलङ्का एवं निष्कलङ्का नाड़ी हैं ।।27।।

कलङ्का निष्कलङ्का च सव्य-दक्षिणतः क्रमात् ।

भित्त्वा च क्रमशश्चक्रं योगीन्द्रैरप्यलभ्यगम् ॥28॥

वामभाग में एवं दक्षिण भाग में वे यथाक्रम से क्रमशः योगीन्द्र के लिए भा अलभ्य चक्र को भेद करते हुए चली गयी है।।28।।

नभो मध्यगतं चक्रं सहस्राब्जं मनोरमम् ।

कालीपुरं तत्र रम्यं सर्ववर्णात्मकं प्रिये ! ॥29॥

हे प्रिये ! आकाश के मध्यभाग में मनोहर सहस्रदल पद्म-चक्र अवस्थित है। वहाँ पर मनोहर सर्ववर्णरूप कालीपुर है – ऐसा जाने ।।29।।

विधाय चैनां मनसा बुद्ध्या कायेन चण्डिकाम् ।

तत्रैव ध्यान-मनसा बुद्ध्या कायेन चण्डिकाम् ।।30॥

वहाँ पर देह, मन एवं बुद्धि के द्वारा इन चण्डिका की भावना कर, देह, मन एवं बुद्धि के द्वारा चण्डिका का ध्यान करें ।।।

तत्रैव ध्यान-मनसा प्रकरोति जपार्चनम् ।

यदि ध्यानं वरारोहे! करोति सततं मुदा ।

तदैव जायते सिद्धिर्मुक्तिर व्यभिचारिणी ।।31।।

वहाँ पर, जो ध्यानयुक्त मन से जप एवं अर्चना करता है, हे वरारोहे ! यदि वह आनन्द के साथ सर्वदा ध्यान करता है, तब तत्क्षण उसे अव्यभिचारिणी सिद्धि एवं मुक्ति का लाभ होता है ।।31।।

न च ध्यानं न वा पूजा न स्तुतिः परमार्थिका ।

पूजयेत् तां जगद्धात्री कुसुमैर्मानसोद्भवैः ।

कामरूपे द्विजागारे श्वपचस्य गृहेऽथवा ।।32।।

ध्यान, पूजा एवं स्तुति, परमार्थ का साधक नहीं है। कामरूप में, ब्राह्मणगृह में अथवा व्याध-गृह में मनोजात पुष्प के द्वारा उन जगद्धात्री की पूजा करें ।।32।।

हरिद्वारे प्रयागे च विमुक्तिः पावनी-मुखे ।

यत्र कुत्र मृतो ज्ञानी तत्रैव मोक्षमाप्नुयात् ।।33।।

हरिद्वार में, प्रयाग में एवं पावनी गङ्गा के मुख में साक्षात् मुक्ति है। इनमें किसी भी स्थान पर ज्ञानी व्यक्ति यदि पञ्चत्व को प्राप्त करते हैं, तो वही पर वह मोक्षलाभ करते हैं ।।33 ।।

दुर्गा स्मरणजं पुण्यं दुर्गा स्मरणजं फलम् ।

दुर्गायाः स्मरणेनैव किं न सिध्यति भूतले ॥34॥

दुर्गा के स्मरण-जात पुण्य एवं दुर्गा के स्मरण-जात फल सिद्धिप्रद है। इस पृथिवी पर, दुर्गा के स्मरण-मात्र के द्वारा क्या सिद्धि नहीं होती है अर्थात् सभी कुछ सिद्धि होता है ।।34।।

शैवो वा वैष्णवो वापि शाक्तो वा गिरिनन्दिनि!।

भजेद् दुर्गा स्मरेद् दुर्गा जपेद् दुर्गां हरप्रियाम् ।

तत्क्षणाद् देव-देवेशि ! मुच्यतते भवबन्धनात् ॥35।।

हे गिरिनन्दिनि ! शैव, वैष्णव अथवा शाक्त – जो भी हरप्रिया दुर्गा की भजना करता है, दुर्गा का स्मरण करता है अथवा दुर्गा का जप करता है, हे देवेशि ! वह तत्क्षण भवबन्धन से मुक्त हो जाता है ।।35।।

क्षीरोद्धृतं यद्वदाज्यं तत्र क्षिप्तं न पूर्ववत् ।

पृथक्तया गुणेभ्यः स्यात् तद्वदात्मा इहोच्यते ।।36॥

जिस प्रकार दुग्ध से उत्पन्न घृत, पुनः दुग्ध में निक्षिप्त होने पर पूर्ववत् दुग्ध में एकाकार होकर नहीं रहता है, उसी प्रकार इस जगत् में आत्मा, गुणों से पृथक् हो जाने पर पृथक् ही रहती है – ऐसा कहा जाता है ।।36।।

क्षीरेण-सहितं तोयं क्षीरमेव यथा भवेत् ।

अविशेषो भवेत् तद्वज् जीवात्म-परमात्मनोः ।।37।।

जिस प्रकार दुग्ध के साथ जल मिश्रित होने पर वह दुग्ध ही हो जाता है, उसी प्रकार जीवात्मा एवं परमात्मा अविशेष (= अभिन्नवत्) हो जाते हैं ।।37।।

यथा चन्द्रार्कयोबिम्बौ जल-पूर्ण-घटेषु च ।

घटे भग्ने जलेष्वेव प्रलीनौ चन्द्र-सूर्यकौ ॥38।।

जिस प्रकार जलपूर्ण घटों में चन्द्र एवं सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ने पर भी बिम्ब-रूप चन्द्र एवं सूर्य आकाश में ही रहता है और प्रतिबिम्ब-रूप चन्द्र एवं सूर्य जल में रहता है। अतः दोनो (बिम्बों एवं प्रतिबिम्बों) में भेद रहता है। उस घट के टूट जाने पर, जिस प्रकार प्रतिबिम्ब-रूप चन्द्र एवं सूर्य जल में लीन हो जाता है और उनमें (= बिम्ब तथा प्रतिबिम्ब में) पुनः विशेष (= भेद) नहीं रह जाता है, उसी प्रकार जीवात्मा एवं परमात्मा में अविशेष (= एकत्वबोध) हो जाता है, उनमें भेद नहीं रहता है ।।38 ।।

न जायते न म्रियते आत्मा त परमः शिवः ।

आत्मज्ञानं समासाद्य संसारार्णव-लङ्गने ।

तरत्येवं सदा चण्डि! जीवः शिवत्वमालभेत् ।।39॥

परम शिवस्वरूप आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है । संसार-रूप समुद्र का लङ्घन करते हुए, आत्मज्ञान का लाभ कर, सदा के लिए संसार-समुद्र को पार कर लेता है । हे चण्डि ! इस प्रकार जीव शिवत्व का लाभ करता है ।।39।।

पार्वती-चरणद्वन्द्व-भजनात् किं नरो भवेत् ।

स्वर्गो भोगश्च मोक्षश्च शाक्तानां न भवेत् किमु ॥40॥

पार्वती के चरणद्वन्द्व की भजना से मानव क्या नहीं बन सकता है अर्थात् सब कुछ बन सकता है। तो क्या शाक्तों को स्वर्ग, भोग एवं मोक्ष प्राप्त नहीं हो पायेगा? अर्थात् ये सभी सम्भव होंगे ही।।40।।

शाक्तानां चैव निन्दां वै ये कुर्वन्ति नराधमाः ।

तेषां लोहित-पानं वै कुर्वन्ति भैरवा गणाः ॥41।।

जो नराधम व्यक्तिगण शाक्तों की निन्दा करते हैं, भैरव एवं गणदेवतागण उनका रक्तपान करते हैं ।।41।।

भैरवाश्चैव भरैव्यः सदा हिंसन्ति पामरान् ।

तेषां क्षतजपानं वै कुर्वन्ति बहुरक्तपाः ।।42।।

भैरवगण एवं भैरवीगण उन पामरों की सर्वदा हिंसा करते हैं । बहुरक्तपायीगण उनके क्षतज (रक्त) का पान करते हैं ।।

शाक्तान् हिंसन्ति गर्जन्ति निन्दन्ति बहुजल्पकाः।

छिनत्ति तेषां देवेशि ! शिरांसि शिववलल्भा ।।43।।

बहुभाषीगण शाक्तों की हिंसा करते हैं, गर्जन करते हैं एवं निन्दा करते हैं। हे देवेशि ! शिववल्लभा उनके मस्तक का छेदन करते हैं ।।43।।

शाक्तानामुत्तमो नास्ति स्वर्गे मर्ये रसातले ।

शाक्तस्तु शङ्करो ज्ञेयस्त्रिनेत्रश्चन्द्रशेखरः ।

स्वयं गङ्गाधरो भूत्वा विहरेत् क्षितिमण्डले ॥44।।

स्वर्ग, मर्त्य एवं रसातल में शाक्तों की अपेक्षा उत्तम कोई नहीं है । शाक्त को त्रिनेत्र चन्द्रशेखर शङ्कर जानें । जो इसे जानता है, वह स्वयं गङ्गाधर बनकर क्षितिमण्डल पर विचरण करता है ।।44।।

नास्ति तन्त्रसमं शास्त्रं न भक्तः केशवात् परः ।

न योगी शङ्कराज ज्ञानी न देवो दुर्गायाः परः ।।45।।

तन्त्र के समान शास्त्र नहीं है। केशव से श्रेष्ठ भक्त नहीं है। शङ्कर से श्रेष्ठ ज्ञानी योगी नहीं है। दुर्गा से श्रेष्ठ देवता नहीं है ।।

दक्षिणाऽशेषदीक्षाणां गुरोराद्यमधः क्षिपेत् ।

गतिर्मुत्युः पलाद्धर्वोर्ध्वं खेदयुक्ता च मुक्तिदा ।।46।।

समस्त दीक्षाओं में दक्षिणा देवें । गुरु को पहले दक्षिणा देवें एवं वह उनके अधोभाग में अर्थात् पदतल में देवें । इससे गति अर्थात् दीक्षा का फल होता है। खेदयुक्त, पलार्द्ध के भी अर्ध (परिमाण) दक्षिणा देने से मृत्यु होती है। इससे अधिक (परिमाण में) दक्षिणा मुक्तिप्रद है ।।46।।

दुर्गाया मन्त्रनिकरं नाना तन्त्रे त्वया श्रुतम् ।

नाम-मन्त्रं न कुत्रापि कथितं न श्रुतं त्वया ॥47॥

नाना तन्त्रों में आपने दुर्गा के मन्त्रों को सुना है। नाना मन्त्रों को मैंने कहीं पर भी नहीं बताया है, आपने भी नहीं सुना है ।।47।।

दुर्गा दुर्गेति दुर्गेति दुर्गानाम परं मनुम् ।

यो भजेत् सततं चण्डि ! जीवन्मुक्तः स मानवः ॥48॥

दुर्गा, दुर्गा, दुर्गा – यह दुर्गानाम श्रेष्ठ मन्त्र है । हे चण्डि ! जो मानव सर्वदा इस मन्त्र की भजना करता है, वह मानव जीवन्मुक्त है ।।48।।

महोत्पाते महारोगे महाविपदि सङ्कटे ।

महादुःखे महाशेके महाभये समुत्थिते ॥49॥

यः सदा संस्मरेद् दुर्गा यो जपेत् परमं मनुम् ।

स जीवलोके देवेशि! नीलकण्ठत्वमाप्नुयात् ।।50॥

महा उत्पात में, महारोग में, महाविपत्ति में, सङ्कट में, महादुःख में, महाशोक में, महाभय के उपस्थित होने पर जो सर्वदा दुर्गा का स्मरण करता है, जो दुर्गा के श्रेष्ठ मन्त्र का जप करता है, हे देवेशि! जीवलोक में वह नीलकण्ठत्व का लाभ करता है ।।49-50।।

जीवः शिवः शिवा वामाऽभिरामा शिवनन्दिनि !।

एवं भावं समाश्रित्य क्रिया-भक्ति समन्वितः ।।51।।

भवत्येवं क्व वा दुःखं क्व भयं नरकं क्व वा ।

क्व कलिश्च क्व कालश्च सर्वं सत्यमयं वपुः ।।52।।

जीव शिवस्वरूप है। हे शिवनन्दिनि ! सुन्दरी स्त्री शिवास्वरूप है। इस प्रकार भाव का आश्रय कर, क्रिया-भक्ति से समन्वित होकर जो भजना करता है, उसे दुःख कैसा ? भय कैसा ? नरक कैसा ? कलि कैसा ? काल ही कैसा ? अर्थात् उसे ये सभी नहीं होते। उसका समस्त देह सत्यमय बन जाता है ।।51-52 ।।

काल्याश्चैव हि तारायास्त्रिपुरायाश्च सुन्दरि !।

भरैव्या भुवनायाश्च चरितं मुक्ति दायकम् ।।53॥

हे सुन्दरि ! काली, तारा, त्रिपुरा भैरवी एवं भुवनेश्वरी का चरित्र मुक्तिदायक है ।।53।।

मुक्ति-शय्यां ज्ञानमयीं सदा सन्तोषकारिणीम् ।

तेनैव भावमासाद्य गच्छेद् दुःखविनाशिनीम् ॥54।।

ज्ञानमय मुक्तिशय्या सर्वदा सन्तोष प्रदान करता है। इसीलिए उस भाव का अवलम्बन कर दुःखविनाशिनी दुर्गा के निकट गमन करें ।।54।।

जपनं पार्वती-देव्या पूजनं पावती-पदे ।

शरणं पार्वती-देव्याश्चरणं भवनाशनम् ।।55।

पार्वती देवी का जप, पार्वती के पद का पूजन, पार्वती देवी का शरण, पार्वती देवी का चरण, भव (= जन्म)-नाशक है ।।55।।

कालस्य यन्त्रणात् काली कराला कलिमर्दनात् ।

तस्मात् पदाध्रि-भजनाद् देवी-पुत्रो भवेद्-ध्रुवम् ।।56।।

काल को नियन्त्रित करती है, अतः वह ‘काली’ हैं । कलि का मर्दन करती हैं; अतः वह ‘कराला’ हैं। अतः उनके पाद-पद्म की भजना से (साधक) निश्चय ही देवी का पुत्र बन सकता है ।।56।।

पुरा निगदितं चण्डि ! नानाचारं पृथग्विधम् ।

इदानीं यागवृत्तान्तं मनसः शृणु शङ्करि ! ॥ 57॥

हे चण्डि ! पृथक्-पृथक् प्रकार के नाना आचारों को पहले आपसे मैंने सुना है। हे शङ्करि ! सम्प्रति मानस-याग के वृत्तान्त को बता रहा हूँ, श्रवण करें ।।57।।

हृदपद्मे भावयेद् दुर्गा देवि ! दुर्गति-नाशिनीम् ।

कराला घोर-दंष्ट्राञ्च मुण्डमालाविभूषिताम् ।।58।।

शवारूढां श्मशानास्थां तारिणीञ्च दिगम्बरीम् ।

अट्टहासां ललजिह्वां मेघश्यामां वरप्रदाम् ।।59॥

हे देवि ! हृत्पद्म में उन कराला, घोरदंष्ट्रा, मुण्डमाला-विभूषिता, शवारूढ़ा, श्मशान-वासिनी, तारिणी, दिगम्बरी, अट्टहासा, ललजिह्वा, मेघश्यामा एवं वरप्रदा दुर्गतिनाशिनी दुर्गा की भावना करें ।।58-59।।

भवानीं यः स्मरेन्नित्यमन्ते स पार्वतीपतिः ।

सहस्रारे स्थितं लिङ्गं तप्तचामीकर प्रभम् ।।60।।

सहस्रारस्थित, उत्तप्त स्वर्ण के समान प्रभाविशिष्ट लिङ्ग (सदाशिव) का एवं भवानी का जो सर्वदा स्मरण करता है, वह देहान्त में पार्वतीपति बन जाता है ।।60।।

कदा शुभं कदा कृष्णं पीतं नीलं कदा कदा ।

कदा वर्णमयं लिङ्गं स्वरादि-परिभूषितम् ॥61॥

कभी शुभ्र, कभी कृष्ण, कभी पीत, कभी नील, कभी स्वरादिभूषित वर्णमय इन लिङ्ग को सर्वदा भक्ति के साथ प्रणाम करें ।।61।।

कदा सिंह-स्थितं लिङ्गं कदा चैव वृषस्थितम् ।

पद्ममध्ये स्थितं लिङ्गं ज्योतिर्मयमचिन्त्यकम् ॥62॥

कभी सिंहस्थित, कभी वृषस्थित, कभी सहस्रार पद्म के मध्य में स्थित, अचिन्त्य ज्योतिर्मय लिङ्ग को सर्वदा भक्ति के साथ प्रणाम करें ।।62।।

जीवादि-भूषितं लिङ्गं कर्णिकोपरि संस्थितम् ।

सदाशिवं ततो भक्त्या प्रणमेद् भक्ति-संयुतः ।।63।।

कर्णिका के उपरिभाग में स्थित जीवादि से भूषित सदाशिव लिङ्ग को भक्तियुक्त होकर सर्वदा प्रणाम करें।।63।।

तदा सिद्धिमवाप्नोति नान्यथा कल्पकोटिभिः ।

किं बहत्या महेशानि ! गुरुभक्त्या च सिद्धयति ।।64॥

इससे सर्वदा सिद्धिलाभ कर सकते हैं। अन्यथा कोटि कल्पों में भी सिद्धिलाभ नहीं होता है । हे महेशानि ! अधिक कहने का प्रयोजन नहीं है, गुरुभक्ति के द्वारा सिद्धिलाभ होता है ।।64।।

इति मुण्डमालातन्त्र पार्वतीश्वसंवादे तृतीयः पटलः ॥3॥

मुण्डमालातन्त्र के पार्वती एवं ईश्वर के संवाद में तृतीय पटल का अनुवाद समाप्त ।।3।।

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