आत्मा का हनन सबसे बड़ा आध्यात्मिक अपराध है, भूलकर भी न करें ऐसा

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मनुष्य जीवन अनमोल है। मनुष्य अपनी विशेषताओं के कारण सृष्टि में श्रेष्ठ है। यह सृष्टि का मुकुट मणि कहलाता है। अपने विशेष गुणों के कारण ही मनुष्य बड़ी जिम्मेदारियां भी संभालता है। इसलिए आत्मिक शक्तियों का लगातार विकास और उसका सदुपयोग करना ही मनुष्य की आध्यात्मिक यात्रा का मुख्य लक्ष्य है। परंतु कुसंस्कारों के वशीभूत होकर मनुष्य कई बार आत्मा का हनन भी करता है। आत्म हनन शब्द का अर्थ है अपनी आत्मा की ध्वनि को न सुनना, उसके विपरीत कार्य करना। वैसे तो आत्मा अजर-अमर है, किसी भी भौतिक तत्व का इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, पर स्थूल हत्या के अतिरिक्त एक सूक्ष्म हत्या भी होती है, वह है किसी भी वस्तु का दुरुपयोग।

मनुष्य जब लोभ और स्वार्थ के वशीभूत हो जाता है तब वह अपने क्षणिक सुख के लिए अपनी अंतरात्मा की आवाज नहीं सुनता। वह पापमय आचरण में इतना लिप्त हो जाता है कि उसे शुभ और अशुभ का ध्यान ही नहीं रहता। आत्मा की आवाज के विरुद्ध जब मनुष्य कोई भी पाप कर्म करता है, तो वह आत्मा का हनन कहलाता है। इसी को हमारे आध्यात्मिक जानकारों ने आत्मा की हत्या के समान कहा है। मनुष्य जब नीच प्रवृत्ति से ग्रस्त हो जाता है, तब वह ईश्वर की दी हुई शक्तियों का दुरुपयोग करता है। महामुनि शुकदेव ने भी अज्ञान के कारण आत्मा को भूलना प्राणी की मृत्यु कहा है। मनुष्य में जब पाशविक संस्कार प्रभावशाली हो जाते हैं तब वह अपनी आत्मा की प्रेरणा को भी नहीं सुन पाता। ऐसी अवस्था मनुष्य के भौतिक और आध्यात्मिक जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर देती है।

ईशोपनिषद में भी कहा गया है कि जो व्यक्ति अपनी आत्मा का हनन करता है, वह अंधकार से युक्त नीच लोक को प्राप्त करता है। प्रकृति के भोग विषयों के दलदल में धंस कर मनुष्य विवेकहीन हो जाता है। ऐसी स्थिति में वह अपनी अंतरात्मा के दिशा-निर्देशों के विपरीत कार्य करता है। उस अवस्था में मनुष्य संसार का भय, लज्जा, अपमान सब कुछ भूल जाता है। आत्म हनन पतन का मार्ग है। अपनी अंतरात्मा की आवाज को न सुनने वाला व्यक्ति जीवन में सदा ही अशांत और पथभ्रष्ट ही रहता है। हमारे ऋषियों ने आत्म हनन की प्रवृत्ति को महापाप माना है। ईश्वर की दी हुई आत्मिक शक्तियों की धरोहर का आत्म हनन के माध्यम से जो मनुष्य क्षणिक भौतिक सुख के लिए दुरुपयोग करता है, वह इस धरा का सबसे दुर्भाग्यशाली मनुष्य है।

हमारे शरीर में स्थित आत्मा की शक्ति के माध्यम से ही हम परमात्मा की अनुभूति करने में समर्थ होते हैं। शरीर नाशवान है, फिर भी इस नाशवान शरीर में आत्मा रूपी नित्य दिव्य तत्व का निवास है। आत्मिक उत्थान करना प्रत्येक मनुष्य की पहली जिम्मेदारी है। इसी में मानव देह की सार्थकता है। आत्मिक शक्तियों का तुच्छ भोग विषयों के क्षणिक सुख के लिए अगर दुरुपयोग होता है, तो वह मानो स्वयं के लिए मुक्ति के द्वार को बंद करता है। आत्मा को परिष्कृत आध्यात्मिक ज्ञान के माध्यम से सर्वोच्च सत्ता ईश्वर की ओर उन्मुख करना चाहिए। आत्मिक शक्तियों का पतन करना ही आसुरी प्रवृत्ति है। यही प्रवृत्ति मनुष्य को विनाश की ओर ले जाती है। इनका प्रभाव इतना तीव्र होता है कि मनुष्य अपनी आत्मा की आवाज भी नहीं सुन पाता। आत्मा का हनन सबसे बड़ा आध्यात्मिक अपराध है। हमें प्रतिपल अपने जीवन में आत्मा को ईश्वर की ओर उन्मुख करने का प्रयत्न करना चाहिए।

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