नृसिंह स्तुति Nrisingh Stuti नरसिंह स्तुति

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जब स्वर्ग की देवियों को यह शुभ समाचार मिला कि तीनों लोकों के सिर की पीड़ा मूर्तिमान् स्वरूप हिरण्यकशिपु युद्ध में भगवान् के हाथों मार डाला गया, तब आनन्द के उल्लास से उनके चेहरे खिल उठे। वे बार-बार भगवान् पर पुष्पों की वर्षा करने लगीं। आकाश में विमानों से आये हुए भगवान् के दर्शनार्थी देवताओं की भीड़ लग गयी। देवताओं के ढोल और नगारे बजने लगे। गन्धर्वराज गाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं। इसी समय ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर आदि देवता, ऋषि, पितर, सिद्ध, विद्याधर, महानाग, मनु, प्रजापति, गन्धर्व, अप्सराएँ, चारण, यक्ष, किम्पुरुष, वेताल, सिद्ध, किन्नर और सुनन्द-कुमुद आदि भगवान् के सभी पार्षद उनके पास आये। उन लोगों ने सिर पर अंजलि बाँधकर सिंहासन पर विराजमान अत्यन्त तेजस्वी नृसिंह भगवान् की थोड़ी देर से अलग-अलग स्तुति की।

नृसिंह स्तुति:

ब्रह्मोवाच

नतोऽस्म्यनन्ताय दुरन्तशक्तये

विचित्रवीर्याय पवित्रकर्मणे ।

विश्वस्य सर्गस्थितिसंयमान् गुणैः

स्वलीलया सन्दधतेऽव्ययात्मने ॥ १ ॥

ब्रह्मा जी ने कहा ;- ‘प्रभो! आप अनन्त हैं। आपकी शक्ति का कोई पार नहीं पा सकता। आपका पराक्रम विचित्र और कर्म पवित्र हैं। यद्यपि गुणों के द्वारा आप लीला से ही सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति, पालन और प्रलय यथोचित ढंग से करते हैं-फिर भी आप उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, स्वयं निर्विकार रहते हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ।’

श्रीरुद्र उवाच

कोपकालो युगान्तस्ते हतोऽयमसुरोऽल्पकः ।

तत्सुतं पाह्युपसृतं भक्तं ते भक्तवत्सल ॥ २ ॥

श्रीरुद्र ने कहा ;- ‘आपके क्रोध करने का समय तो कल्प के अन्त में होता है। यदि इस तुच्छ दैत्य को मारने के लिये ही आपने क्रोध किया है तो वह भी मारा जा चुका। उसका पुत्र आपकी शरण में आया है। भक्तवत्सल प्रभो! आप अपने इस भक्त की रक्षा कीजिये।’

इन्द्र उवाच

प्रत्यानीताः परम भवता त्रायता नः स्वभागा

दैत्याक्रान्तं हृदयकमलं त्वद्गृहं प्रत्यबोधि ।

कालग्रस्तं कियदिदमहो नाथ शुश्रूषतां ते

मुक्तिस्तेषां न हि बहुमता नारसिंहापरैः किम् ॥ ३ ॥

इन्द्र ने कहा ;- ‘पुरुषोत्तम! आपने हमारी रक्षा की है। आपने हमारे जो यज्ञभाग लौटाये हैं, वे वास्तव में आप (अन्तर्यामी) के ही हैं। दैत्यों के आतंक से संकुचित हमारे हृदयकमल को आपने प्रफुल्लित कर दिया। वह भी आपका ही निवासस्थान है। यह जो स्वर्गादि का राज्य हम लोगों को पुनः प्राप्त हुआ है, यह सब काल का ग्रास है। जो आपके सेवक हैं, उनके लिये यह है कि क्या? स्वामिन्! जिन्हें आपकी सेवा की चाह है, वे मुक्ति का भी आदर नहीं करते। फिर अन्य भोगों की तो उन्हें आवश्यकता ही क्या है।’

ऋषय ऊचुः

त्वं नस्तपः परममात्थ यदात्मतेजो

येनेदमादिपुरुषात्मगतं ससर्ज ।

तद्विप्रलुप्तममुनाद्य शरण्यपाल

रक्षागृहीतवपुषा पुनरन्वमंस्थाः ॥ ४ ॥

ऋषियों ने कहा ;- ‘पुरुषोत्तम! आपने तपस्या के द्वारा ही अपने में लीन हुए जगत् की फिर से रचना की थी और कृपा करके उसी आत्मतेजःस्वरूप श्रेष्ठ तपस्या का उपदेश आपने हमारे लिये भी किया था। इस दैत्य ने उसी तपस्या का उच्छेद कर दिया था। शरणागतवत्सल! उस तपस्या की रक्षा के लिये फिर से उसी उपदेश का अनुमोदन किया है।’

पितर ऊचुः

श्राद्धानि नोऽधिबुभुजे प्रसभं तनूजैर्दत्तानि

तीर्थसमयेऽप्यपिबत्तिलाम्बु ।

तस्योदरान्नखविदीर्णवपाद्य आर्च्छत्तस्मै

नमो नृहरयेऽखिलधर्मगोप्त्रे ॥ ५ ॥

पितर ने कहा ;- ‘प्रभो! हमारे पुत्र हमारे लिये पिण्डदान करते थे, यह उन्हें बलात् छीनकर खा जाया करता था। जब वे पवित्र तीर्थों में या संक्रान्ति आदि के अवसर पर नैमित्तिक तर्पण करते या तिलांजलि देते, तब उसे भी यह पी जाता। आज आपने अपने नखों से उसका पेट फाड़कर वह सब-का-सब लौटाकर मानो हमें दे दिया। आप समस्त धर्मों के एकमात्र रक्षक हैं। नृसिंहदेव! हम अपको नमस्कार करते हैं।’

सिद्धा ऊचुः

यो नो गतिं योगसिद्धामसाधु-

रहार्षीद्योगतपोबलेन ।

नानादर्पं तं नखैर्निर्ददार

तस्मै तुभ्यं प्रणताः स्मो नृसिंह ॥ ६ ॥

सिद्धों ने कहा ;- ‘नृसिंह देव! इस दुष्ट ने अपने योग और तपस्या के बल से हमारी योगसिद्धि गति छीन ली थी। अपने नखों से आपने उस घमंडी को फाड़ डाला है। हम आपके चरणों में विनीतभाव से नमस्कार करते हैं।’

विद्याधरा ऊचुः

विद्यां पृथग्धारणयानुराद्धां

न्यषेधदज्ञो बलवीर्यदृप्तः ।

स येन सङ्ख्ये पशुवद्धतस्तं

मायानृसिंहं प्रणताः स्म नित्यम् ॥ ७ ॥

विद्याधरों ने कहा ;- ‘यह मूर्ख हिरण्यकशिपु अपने बल और वीरता के घमंड में चूर था। यहाँ तक कि हम लोगों ने विविध धारणाओं से जो विद्या प्राप्त की थी, उसे इसने व्यर्थ कर दिया था। आपने युद्ध में यज्ञपशु की तरह इसको नष्ट कर दिया। अपनी लीला से नृसिंह बने हुए आपको हम नित्य-निरन्तर प्रणाम करते हैं।’

नागा ऊचुः

येन पापेन रत्नानि स्त्रीरत्नानि हृतानि नः ।

तद्वक्षःपाटनेनासां दत्तानन्द नमोस्तु ते ॥ ८ ॥

नागों ने कहा ;- ‘इस पापी ने हमारी मणियों और हमारी श्रेष्ठ और सुन्दर स्त्रियों को छीन लिया था। आज उसकी छाती फाड़कर आपने हमारी पत्नियों को बड़ा आनन्द दिया है। प्रभो! हम आपको नमस्कार करते हैं।’

मनव ऊचुः

मनवो वयं तव निदेशकारिणो

दितिजेन देव परिभूतसेतवः ।

भवता खलः स उपसंहृतः प्रभो

करवाम ते किमनुशाधि किङ्करान् ॥ ९ ॥

मनुओं ने कहा ;- ‘देवाधिदेव! हम आपके आज्ञाकारी मनु हैं। इस दैत्य ने हम लोगों की धर्म मर्यादा भंग कर दी थी। आपने उस दुष्ट को मारकर बड़ा उपकार किया है। प्रभो! हम आपके सेवक हैं। आज्ञा कीजिये, हम आपकी क्या सेवा करें?’

प्रजापतय ऊचुः

प्रजेशा वयं ते परेशाभिसृष्टा

न येन प्रजा वै सृजामो निषिद्धाः ।

स एष त्वया भिन्नवक्षा नु शेते

जगन्मङ्गलं सत्त्वमूर्तेऽवतारः ॥ १० ॥

प्रजापतियों ने कहा ;- ‘परमेश्वर! आपने हमें प्रजापति बनाया था। परन्तु इसके रोक देने से हम प्रजा की सृष्टि नहीं कर पाते थे। आपने इसकी छाती फाड़ डाली और यह जमीन पर सर्वदा के लिये सो गया। सत्त्वमय मूर्ति धारण करने वाले प्रभो! आपक यह अवतार संसार के कल्याण के लिये है।’

गन्धर्वा ऊचुः

वयं विभो ते नटनाट्यगायका

येनात्मसाद्वीर्यबलौजसा कृताः ।

स एष नीतो भवता दशामिमां

किमुत्पथस्थः कुशलाय कल्पते ॥ ११ ॥

गन्धर्वों ने कहा ;- ‘प्रभो! हम आपके नाचने वाले, अभिनय करने वाले और संगीत सुनाने वाले सेवक हैं। इस दैत्य ने अपने बल, वीर्य और पराक्रम से हमें अपना गुलाम बना रखा था। उसे आपने इस दशा में पहुँचा दिया। सच है, कुमार्ग से चलने वाले का भी क्या कभी कल्याण हो सकता है?’

चारणा ऊचुः

हरे तवाङ्घ्रिपङ्कजं भवापवर्गमाश्रिताः ।

यदेष साधुहृच्छयस्त्वयासुरः समापितः ॥ १२ ॥

चारणों ने कहा ;- ‘प्रभो! आपने सज्जनों के हृदय को पीड़ा पहुँचाने वाले इस दुष्ट को समाप्त कर दिया। इसलिये हम आपके उन चरणकमलों की शरण में हैं, जिनके प्राप्त होते ही जन्म-मृत्युरूप संसारचक्र से छुटकारा मिल जाता है।’

यक्षा ऊचुः

वयमनुचरमुख्याः कर्मभिस्ते मनोज्ञैस्त

इह दितिसुतेन प्रापिता वाहकत्वम् ।

स तु जनपरितापं तत्कृतं जानता ते

नरहर उपनीतः पञ्चतां पञ्चविंश ॥ १३ ॥

यक्षों ने कहा ;- ‘भगवन्! अपने श्रेष्ठ कर्मों के कारण हम लोग आपके सेवकों में प्रधान गिने जाते थे। परन्तु हिरण्यकशिपु ने हमें अपनी पालकी ढोने वाला कहार बना लिया। प्रकृति के नियामक परमात्मा! इसके कारण होने वाले अपने जिनजनों के कष्ट जानकर ही आपने इसे मार डाला है।’

किम्पुरुषा ऊचुः

वयं किम्पुरुषास्त्वं तु महापुरुष ईश्वरः ।

अयं कुपुरुषो नष्टो धिक्कृतः साधुभिर्यदा ॥ १४ ॥

किम्पुरुषों ने कहा ;- ‘हम लोग अत्यन्त तुच्छ किम्पुरुष हैं और आप सर्वशक्तिमान् महापुरुष हैं। जब सत्पुरुषों ने इसका तिरस्कार किया- इसे धिक्कारा, तभी आज आपने इस कुपुरुष- असुराधम को नष्ट कर दिया।’

वैतालिका ऊचुः

सभासु सत्रेषु तवामलं यशो

गीत्वा सपर्यां महतीं लभामहे ।

यस्तां व्यनैषीद्भृशमेष दुर्जनो

दिष्ट्या हतस्ते भगवन् यथाऽऽमयः ॥ १५ ॥

वैतालिकों ने कहा ;- ‘भगवन्! बड़ी-बड़ी सभाओं और ज्ञानयज्ञों में आपके निर्मल यश का गान करके हम बड़ी प्रतिष्ठा-पूजा प्राप्त करते थे। इस दुष्ट ने हमारी वह आजीविका ही नष्ट कर दी थी। बड़े सौभाग्य की बात है कि महारोग के समान इस दुष्ट को आपन जड़मूल से उखाड़ दिया।’

किन्नरा ऊचुः

वयमीश किन्नरगणास्तवानुगा

दितिजेन विष्टिममुनानुकारिताः ।

भवता हरे स वृजिनोऽवसादितो

नरसिंह नाथ विभवाय नो भव ॥ १६ ॥

किन्नरों ने कहा ;- ‘हम किन्नरगण आपके सेवक हैं। यह दैत्य हमसे बेगार में ही काम लेता था। भगवन्! आपने कृपा करके आज इस पापी को नष्ट कर दिया। प्रभो! आप इसी प्रकार हमारा अभ्युदय करते रहें।’

विष्णुपार्षदा ऊचुः

अद्यैतद्धरिनररूपमद्भुतं ते

दृष्टं नः शरणद सर्वलोकशर्म ।

सोऽयं ते विधिकर ईश विप्रशप्तस्तस्येदं

निधनमनुग्रहाय विद्मः ॥ १७ ॥

भगवान् के पार्षदों ने कहा ;- ‘शरणागतवत्सल! सम्पूर्ण लोकों को शान्ति प्रदान करने वाला आपका यह अलौकिक नृसिंह रूप हमने आज ही देखा है। भगवन्! यह दैत्य आपका वही आज्ञाकारी सेवक था, जिसे सनकादि ने शाप दे दिया था। हम समझते हैं, आपने कृपा करके इसके उद्धार के लिये ही इसका वध किया है।’

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादानुचरिते दैत्यराजवधे नृसिंहस्तवो नामाष्टमोऽध्यायः ॥

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