परमस्तव || Param Stav
कश्यप ने भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने के लिए वेद में कहे हुए इस स्तव(सूक्त या स्तोत्र)से भगवान् वामन की स्तुति किया जिसे परमस्तव कहते हैं ।
परमस्तव: अथवा वामन स्तुति
कश्यप उवाच
नमोऽस्तु ते देवदेव एकशृङ्ग वृषाच्चे सिन्धुवृष वृषाकपे
सुरवृष अनादिसम्भव रुद्र कपिल विष्वक्सेन सर्वभूतपते
ध्रुव धर्माधर्म वैकुण्ठ वृषावर्त्त अनादिमध्यनिधन धनंजय
शुचिश्रवः पृश्नितेज: निजजय अमृतेशय सनातन त्रिधाम
तुषित महातत्त्व लोकनाथ पद्मनाभ विरिझे बहुरूप अक्षय
अक्षर हव्यभुज खण्डपरशो शक्र मुञ्जकेश हंस महादक्षिण
हृषीकेश सूक्ष्म महानियमधर विरज लोकप्रतिष्ठ अरूप अग्रज
धर्मज धर्मनाभ गभस्तिनाभ शतक्रतुनाभ चन्द्ररथ सूर्यतेजः
समुद्रवास: अजः सहस्त्रशिरः सहस्रपाद अधोमुख महापुरुष पुरुषोत्तम
सहस्रबाहो सहस्त्रमूर्ते सहस्त्रास्य सहस्रसम्भव सहस्त्रसत्त्वं त्वामाहुः ।
पुष्पहास चरम त्वमेव वौषट् वषट्कारं त्वामाहुरग्रयं मखेषु
प्राशितारं सहस्रधारं च भूश्च भुवश्च स्वश्च त्वमेव वेदवेद्य
ब्रह्मशय ब्राह्मणप्रिय त्वमेव द्यौरसि मातरिश्वाऽसि धर्मोऽसि
होता पोता मन्ता नेता होमहेतुस्त्वमेव अग्रय विश्वधाम्ना त्वमेव
दिग्भिः सुभाण्ड इज्योऽसि सुमेधोऽसि समिधस्त्वमेव मतिर्गतिर्दाता त्वमसि ।
मोक्षोऽसि योगोऽसि। सृजसि ।
धाता परमयज्ञोऽसि सोमोऽसि दीक्षितोऽसि दक्षिणाऽसि विश्वमसि ।
स्थविर हिरण्यनाभ नारायण त्रिनयन आदित्यवर्ण आदित्यतेजः
महापुरुष पुरुषोत्तम आदिदेव सुविक्रम प्रभाकर शम्भो स्वयम्भो
भूतादिः महाभूतोऽसि विश्वभूत विश्वं त्वमेव विश्वगोप्ताऽसि
पवित्रमसि विश्वभव ऊर्ध्वकर्म अमृत दिवस्पते वाचस्पते घ्ताचे
अनन्तकर्म वंश प्राग्वंश विश्वपातस्त्वमेव ।
वरार्थिनां वरदोऽसि त्वम् ।
चतुर्भिश्च चतुर्भिश्च द्वाभ्यां पञ्चभिरेव च ।
हूयते च पुनाभ्यां तुम्भं होत्रात्मने नमः॥
इति श्रीवामनपुराणे सरोमाहात्म्ये परमस्तव: नाम षड्विंशतितमोऽध्यायः॥२६॥
परमस्तव अथवा वामन स्तुति भावार्थ सहित
कश्यप ने कहा- हे देवदेव, एकशृङ्ग, वृषार्चि, सिन्धुवृष, वृषाकपि, सुरवृष, अनादिसम्भव, रुद्र, कपिल, विष्वक्सेन, सर्वभूतपति (सम्पूर्ण प्राणियों के स्वामी), ध्रुव, धर्माधर्म, वैकुण्ठ, वृषावर्त्त, अनादिमध्यनिधन, धनञ्जय, शुचिश्रव, पृश्नितेज, निजजय, अमृतेशय, सनातन, त्रिधाम, तुषित, महातत्त्व, लोकनाथ, पद्मनाभ, विरिचि, बहुरूप, अक्षय, अक्षर, हव्यभुज, खण्डपरशु, शक्र, मुकेश, हंस, महादक्षिण, हृषीकेश, सूक्ष्म, महानियमधर, विरज, लोकप्रतिष्ठ, अरूप, अग्रज, धर्मज, धर्मनाभ, गभस्तिनाभ, शतक्रतुनाभ, चन्द्ररथ, सूर्यतेज, समुद्रवास, अज, सहलशिर, सहलपाद, अधोमुख, महापुरुष, पुरुषोत्तम, सहस्रबाहु, सहस्रमूर्ति, सहस्त्रास्य, सहस्रसम्भव! मेरा आपके चरणों में नमस्कार है। (आपके भक्तजन) आपको सहस्रसत्त्व कहते हैं। (खिले हुए पुष्प के समान मधुर मुसकानवाले) पुष्पहास, चरम (सर्वोत्तम)! लोग आपको ही वौषट् एवं वषट्कार कहते हैं। आप ही अग्र्य, (सर्वश्रेष्ठ) यज्ञों में प्राशिता (भोक्ता) हैं; सहस्रधार, भूः, भुवः एवं स्वः हैं। आप ही वेदवेद्य (वेदों के द्वारा जाननेयोग्य), ब्रह्मशय, ब्राह्मणप्रिय (अग्नि के प्रेमी), द्यौ: (आकाश के समान सर्वव्यापी), मातरिश्वा (वायु के समान गतिमान्), धर्म, होता, पोता (विष्णु), मन्ता, नेता एवं होम के हेतु हैं। आप ही विश्वतेज के द्वारा अग्र्य (सर्वश्रेष्ठ) हैं और दिशाओं के द्वारा सुभाण्ड (विस्तृत पात्ररूप) हैं अर्थात् दिशाएँ आप में समाविष्ट हैं। आप (यजन करनेयोग्य) इज्य, सुमेध, समिधा, मति, गति एवं दाता हैं। आप ही मोक्ष, योग, स्रष्टा (सृष्टि करनेवाले), धाता (धारण और पोषण करनेवाले), परमयज्ञ, सोम, दीक्षित, दक्षिणा एवं विश्व हैं। आप ही स्थविर, हिरण्यनाभ, नारायण, त्रिनयन, आदित्यवर्ण, आदित्यतेज, महापुरुष, पुरुषोत्तम, आदिदेव, सुविक्रम, प्रभाकर, शम्भु, स्वयम्भू, भूतादि, महाभूत, विश्वभूत एवं विश्व हैं। आप ही संसार की रक्षा करनेवाले, पवित्र, विश्वभव –विश्व को सृष्टि करनेवाले, ऊर्ध्वकर्म (उत्तमकर्मा), अमृत (कभी भी मृत्यु को न प्राप्त होनेवाले), दिवस्पति, वाचस्पति, घृतार्चि, अनन्तकर्म, वंश, प्राग्वंश, विश्वपा (विश्व का पालन करनेवाले) तथा वरद-वर चाहनेवालों के लिये वरदानी हैं। चार (आश्रावय), चार (अस्तु श्रौषड्), दो (यज) तथा पाँच (ये यजामहे) और पुनः दो (वषट्) अक्षरों-इस प्रकार ४+४+२+५+२=१७ अक्षरों से जिसके लिये अग्निहोत्र किया जाता है, उन आप होत्रात्मा को नमस्कार है॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें परमस्तव नामक छब्बीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥२६॥