धन के लिए नहीं मुक्ति के लिए प्रार्थना करनी चाहिए

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जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्।। गीता 7/29।।

अर्थ : जो मेरी शरण होकर जरा-मृत्यु से मुक्त होने का यत्न करते हैं वे उस ब्रह्म को, संपूर्ण अध्यात्म को और संपूर्ण कर्म को जान लेते हैं।

व्याख्या : भगवान् को कोई भी अपनी मुक्ति के लिए नहीं पूजता, बल्कि सांसारिक स्वार्थ को पाने के लिए ही उसकी आराधना करते हैं, लेकिन यहां भगवान् कह रहे हैं कि अपना सब कुछ मुझे समर्पित करके, अपने बुढ़ापे और मौत से मुक्त हो जाने के लिए लगातार यत्न करते रहो।

इस यत्न में ज्ञान से आत्मभाव में टिकने का अभ्यास किया जाता है और जैसे ही साधक आत्मभाव में आता है, वैसे ही ब्रह्माण्ड में सब जगह फैले ब्रह्म को जानने लगता है, उसके अंदर आत्मा का ज्ञान प्रकट हो जाता है।

वह मन, वचन व शरीर से होने वाले सभी कर्मों को भी जान लेता है। संपूर्ण कर्मों को जानने से कोई भी कर्म उसको बांध नहीं पाता। अतः हमें भी परमात्मा से अपनी मुक्ति के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। आखिर इच्छाओं में कब तक उलझे रहेंगे।

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