रघुवंशम् सर्ग १४ || Raghuvansham Sarga 14

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इससे पूर्व महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् सर्ग १३ में भरत -मिलाप तक की कथा पढ़ा । अब इससे आगे की कथा रघुवंशम् सर्ग १४ में सीता गर्भधारण एवं राम द्वारा सीता परित्याग, लक्ष्मण का सीता को वाल्मीकि आश्रम में पहुँचाने के वृत्तांत को प्रस्तुत करता है। यहाँ पहले इस सर्ग का मूलपाठ भावार्थ सहित और पश्चात् हिन्दी में संक्षिप्त कथासार नीचे दिया गया है।

रघुवंशमहाकाव्यम् चतुर्दशः सर्गः

रघुवंशं सर्ग १४ कालिदासकृतम्

रघुवंशम् चौदहवां सर्ग

रघुवंश

चतुर्दशः सर्गः।

॥ रघुवंशं सर्ग १४ कालिदासकृतम् ॥

भर्तुः प्रणाशादथ शोचनीयं दशान्तरं तत्र समं प्रपन्ने ।

अपश्यतां दाशरथी जनन्यौ छेदादिवोपघ्नतरोर्व्रतत्यौ॥ १४ -१॥

भा०-इसके उपरान्त दोनों दशरथकुमार आसरे लेनेवाले वृक्ष के कट जाने से (कुम्हलाई हुई दो) लता की समान स्वामी के मर जाने से शोचनीय दशा को प्राप्त हुई दोनों माताओं को तहां एक साथ ही देखते हुए ॥१॥

उभावुभाभ्यां प्रणतौ हतारी यथाक्रमं विक्रमशोभिनौ तौ ।

विस्पष्टमस्रान्धतया न दृष्टौ ज्ञातौ सुतस्पर्शसुखोपलम्भात्॥ १४ -२॥

भा०-यथाक्रम से प्रमाण करनेवाले शत्रुसंहारी, पराक्रम से शोभायमान दोनों (कुमारों) को दोनों (माताओं) ने आंसुओं से दृष्टि रुक जाने के कारण स्पष्ट न देखा (परन्तु) सुतस्पर्शसुख के अनुभव से जान लिया ॥२॥

आनन्दजः शोकजमश्रुबाष्पस्तयोरशीतं शिशिरो बिभेद ।

गङ्गासरय्वोर्जलमुष्णतप्तं हिमाद्रिनिस्यन्द इवावतीर्णः॥ १४ -३॥

भा०-उन दोनों के आनन्द से उत्पन्न हुए शीतल आंसू शोक से उत्पन्न हुए गरम आंसूओं को गरमी के तपाये हुए गंगा सरयू के जल को प्राप्त हुए हिमालय के जल के समान तोड देते हुए ॥ ३ ॥

ते पुत्रयोर्नैऋतशस्त्रमार्गानार्द्रानिवाङ्गे सदयं स्पृशन्तौ ।

अपीप्सितं क्षत्रकुलाङ्गनानां न वीरसूशब्दमकामयेताम्॥ १४ -४॥

भा०-वे मातायें पुत्रों के अङ्ग में राक्षसों के अस्त्रों के चिह्न, गीलों की नाई दया से स्पर्श करती हुई क्षत्रियों की स्त्रियों की आकांक्षा की हुई भी वीरपुत्र उत्पन्न करने की पदवी को न चाहती हुई ॥ ४ ॥

क्लेशावहा भर्तुरलक्षणाहं सीतेति नाम स्वमुदीरयन्ती ।

स्वर्गप्रतिष्ठस्य गुरोर्महिष्यावभक्तिभेदेन वधूर्ववन्दे॥ १४ -५॥

भा०-भर्ता को क्लेश देने वाली (इसी लिये ) मैं अलक्षणा सीता हूं, इस प्रकार अपना नाम उच्चारण करती हुई वधू स्वर्गवासी श्वशुर की दोनों रानियों को समान भक्ति से वंदना करती हुई ॥५॥

उत्तिष्ठ वत्से ननु सानुजोऽसौ वृत्तेन भर्ता शुचिना तवैव ।

कृच्छ्रं महत्तीर्ण इव प्रियार्हां तामूचतुस्ते प्रियमप्यमिथ्या॥ १४ -६॥

भा०-पुत्री! उठ यह भाई सहित (तेरा) भर्ता तेरे ही व्रत के कारण महसंकट से उत्तीर्ण हुआ है इस प्रकार प्रिय कहने योग्य उससे प्यारा वचन भी सत्य वे दोनों कहती हुई ॥६॥

अथाभिषेकं रघुवंशकेतोः प्रारब्धमानन्दजलैर्जनन्योः ।

निर्वर्तयामासुरमात्यवृद्धास्तीर्थाहृतैः काञ्चनकुम्भतोयैः॥ १४ -७॥

भा०-इसके अनन्तर माताओं के आनंद के जल से प्रारम्भ हुए रामचंद्र के अभिषेक को वृद्ध मंत्री तीर्थों से लाये हुए सुवर्ण के घडों के जल से पूरा करते हुए ॥७॥

सरित्समुद्रान्सरसीश्च गत्वा रक्षःकपीन्द्रैरुपपादितानि ।

तस्यापतन्मूर्ध्नि जलानि जिष्णोर्विन्ध्यस्य मेघप्रभवा इवापः॥ १४ -८॥

भा०-राक्षस और वानरेन्द्रों के सागर और नदियों में जाकर लाये हुए जल उन जयशील के शिर पर विन्ध्याचल के ( शिखर पर) मेघ से उत्पन्न हुए जल के समान गिरे॥८॥

तपस्विवेषक्रिययापि तावद्यः प्रेक्षणीयः सुतरां बभूव ।

राजेन्द्रनेपथ्यविधानशोभा तस्योदितासीत्पुनरुक्तदोषा॥ १४ -९॥

भा०-तव तक तपस्वियों के वेश सी रचना में भी जो अति सुन्दर दर्शनीय थे, उनके राजेन्द्ररूप की रचाना से उठी हुई शोभा पुनरुक्तदोषा ( दूनी) हुई ॥९॥

स मौलरक्षोहरिभिः ससैन्यस्तूर्यस्वनानन्दितपौरवर्गः ।

विवेश सौधोद्गतलाजवर्षामुत्तोरणामन्वयराजधानीम्॥ १४ -१०॥

भा०-वह (राम) सेना सहित तुरहियों के शब्दों से प्रजा को आनन्द देते हुए मंत्री राक्षस और वानरों सहित, मन्दिरों से खीलों की वर्षायुक्त ऊंची ध्वजावाली पुरुषाओं की राजधानी में प्रवेश करते हुए ॥ १० ॥

सौमित्रिणा सावरजेन मन्दमाधूतबालव्यजनो रथस्थः ।

धृतातपत्रो भरतेन साक्षादुपायसंघात इव प्रवृद्धः॥ १४ -११॥

भा०-भाई शत्रुघ्न समेत लक्ष्मण द्वारा मन्द-मन्द चमर चलाए जाते हुए, रथ पर बैठे, भरत से छत्र धराये, (वह राम) वृद्धि को प्राप्त हुए साक्षात् सामादि उपायों के समूह के समान पुरुषाओं की राजधानी में प्रवेश कर गये ॥ ११ ॥

प्रासादकालागुरुधूमराजिस्तस्याः पुरो वायुवशेन भिन्ना ।

वनान्निवृत्तेन रघूत्तमेन मुक्ता स्वयं वेणिरिवाबभासे॥ १४ -१२॥

भा०-वायु के चलने से भिन्न हुई महलों के कालागरु के धुएँ की रेखा वन से लौटे हुए रामचंद्र के स्वयं खोली हुई उस पुरी की वेणी की समान शोभित हुई ॥ १२ ॥

श्वश्रूजनानुष्ठितचारुवेषां कर्णीरथस्थां रघुवीरपत्नीम् ।

प्रासादवातायनदृश्यबन्धैः साकेतनार्योऽञ्जलिभिः प्रणेमुः॥ १४ -१३॥

भा०-सासुओं से सुन्दर सिंगारी हुई की रथ (स्त्रियों के योग्य छोटे रथ) में बैठी हुई रामचंद्र की पत्नी (जानकी) को अयोध्या की खिये महलों के झरोखों में दीखती हुई अंजली द्वारा प्रणाम करती हुई ॥ १३ ॥

स्फुरत्प्रभामण्डनमानसूयं सा बिभ्रती शाश्वतमङ्गरागम् ।

रराज शुद्धेति पुनः स्वपुर्यै संदर्शिता वह्निगतेव भर्त्रा॥ १४ -१४॥

भा०-स्फुरायमान प्रभामण्डलवाला, अनुसूया का दिया हुआ, सदा रहने वाला अंगराग धारण करती हुई वह जानकी रामचंद्र से अपने पुरवासियों को शुद्ध है इस प्रकार दिखाई हुई अग्नि में विराजमान की समान शोभित हुई ॥१४॥

वेश्मानि रामः परिबर्हवन्ति विश्राण्य सौहार्दनिधिः सुहृद्भ्यः ।

बाष्पायमानो बलिमन्निकेतमालेख्यशेषस्य पितुर्विवेश॥ १४ -१५॥

भा०-मित्रता के समुद्र रामचंद्र ने मित्रों के निमित्त सामग्री सहित स्थान देकर चित्रमात्र शेष रहे पिता के पूजा मन्दिर में आंसू त्यागते हुए प्रवेश किया ॥ १५ ॥

कृताञ्जलिस्तत्र यदम्ब सत्यान्नाभ्रश्यत स्वर्गफलाद्गुरुर्नः ।

तच्चिन्त्यमानं सुकृतं तवेति जहार लज्जां भरतस्य मातुः ॥ १४ -१६॥

भा०-वहां हाथ जोडे हुए राम ने हे मातः हमारे पिता स्वर्ग के फल देने वाले सत्य से भ्रष्ट न हुए, यह विचारने योग्य तेरा ही पुण्य है, इस प्रकार भरत की माता केकई की लज्जा दूर की ॥ १६ ॥

तथैव सुग्रीवबिभीषणादीनुपाचरत्कृत्रिमसंविधाभिः ।

संकल्पमात्रोदितसिद्धयस्ते क्रान्ता यथा चेतसि विस्मयेन॥ १४ -१७॥

भा०-और सुग्रीव विभीषणादिकों का आदर, कल्पना की हुई सामग्रियों से ऐसा किया कि इच्छित को हुई वस्तु के तत्काल प्राप्त होने से वे चित्त में आश्चर्य से दव गये॥१७॥

सभाजनायोपगतान्स दिव्यान्मुनीन्पुरस्कृत्य हतस्य शत्रोः ।

शुश्राव तेभ्यः प्रभवादि वृत्तं स्वविक्रमे गौरवमादधानम्॥ १४ -१८॥

भा०-वह रामचंद्र सत्कार के निमित्त आये हुए ऋषियों को आगे बैठाकर मारें हुये शत्रु का जन्मादि अपने पराक्रम में गौरव देने वाला वृत्तान्त उनसे सुनते हुए॥१८॥

प्रतिप्रयातेषु तपोधनेषु सुखादविज्ञातगतार्धमासान् ।

सीतास्वहस्तोपहृताग्र्यपूजान्रक्षःकपीन्द्रान्विससर्ज रामः ॥ १४ -१९॥

भा०-तपस्वियों के चले जाने पर सुख से आधा महीना वीतना न जाननेवाले सीता के और थपने हाथ से उत्तम सन्मान (भेंट) पाये हुए राक्षस और वानरों के स्वामियों को राम ने विदा किया ॥ १९॥

तच्चात्मचिन्तासुलभं विमानं हृतं सुरारेः सह जीवितेन ।

कैलासनाथोद्वहनाय भूयः पुष्पं दिवः पुष्पकमन्वमंस्त॥ १४ -२०॥

भा०-और अपनी अभिलाषा से तुरत प्राप्त होनेवाले रावण के प्राण सहित हरे हुए आकाश के पुष्प ( शोभा ) के समान पुष्पक विमान को फिर कुवेर के चढने को (राम ने ) भेजा ॥ २० ॥

पितुर्नियोगाद्वनवासमेवं निस्तीर्य रामः प्रतिपन्नराज्यः ।

धर्मार्थकामेषु समां प्रपेदे यथा तथैवावरजेषु वृत्तिम्॥ १४ -२१॥

भा०-रामचंद्र इस प्रकार पिता की आज्ञा से वनवास को विताकर राज्य को प्राप्त हो धर्म अर्थ काम के समान छोटे भाइयों में भी समान व्यवहार से वर्तते हुए ॥२१॥

सर्वासु मातुष्वपि वत्सलत्वात्स निर्विशेषप्रतिपत्तिरासीत् ।

षडाननापीतपयोधरासु नेता चमूनामिव कृत्तिकासु ॥ १४ -२२॥

भा०-प्यार के कारण वह सव माताओं में अत्यन्त और समान प्रीति करते हुए, जिस प्रकार सेनापति (कार्तिकेय) छ: मुखों से दूध पीते हुए माताओं में तुल्य सत्कार वाले थे॥२२॥

तेनार्थवाঁल्लोभपराङ्मुखेन तेन घ्नता विघ्नभयं क्रियावान् ।

तेनास लोकः पितृमान्विनेत्रा तेनैव शोकापनुदेव पुत्री ॥ १४ -२३॥

भा०-संसार लोभ रहित उनसे धनवान् और विघ्न भय दूर करने के कारण क्रियावान् शिक्षा करने से पितावान् और शोक दूर करने से पुत्रवान् हुआ ॥ २३ ॥

स पौरकार्याणि समीक्ष्य काले रेमे विदेहाधिपतेर्दुहित्रा ।

उपस्थितश्चारु वपुस्तदीयं कृत्वोपभोगोत्सुकयेव लक्ष्म्या॥ १४ -२४॥

भा०-वह समय पर पुरवासियों के कार्य को देखकर विदेहराजकुमारी के साथ भोग की उत्कंठा से सीता सम्बन्धि सुन्दर शरीरधारी लक्ष्मी के समान रमण करते हुए ॥ २४ ॥

तयोर्यथाप्रार्थितमिन्द्रियार्थानासेदुषोः सद्मसु चित्रवत्सु ।

प्राप्तानि दुःखान्यपि दण्डकेषु संचिन्त्यमानानि सुखान्यभूवन्॥ १४ -२५॥

भा०-चित्रवाले मन्दिरों में अभिलाषपूर्वक इन्द्रियों का सुख भोगते हुए उन दोनों को दंडकवन में प्राप्त हुए दुःखों का स्मरण भी सुख रूप हुआ (अर्थात वहां वनगमन के चित्र थे जिस समय देखे तो वन की सुध आई )॥ २५॥

अथाधिकस्निग्धविलोचनेन मुखेन सीता शरपाण्डुरेण ।

आनन्दयित्री परिणेतुरासीदनक्षरव्यञ्जितदोहदेन॥ १४ -२६॥

भा०-तब सीता अधिक शोभित नेत्रोंवाले (तथा) शर समान पीले (और) कहे विना ही गर्भ जनाने वाले मुख से पति को आनन्द देनेवाली हुई ॥ २६ ॥

तामङ्कमारोप्य कृशाङ्गयष्टिं वर्णान्तराक्रान्तपयोधराग्राम् ।

विलज्जमानां रहसि प्रतीतः पप्रच्छ रामां रमणोऽभिलाषम्॥ १४ -२७॥

भा०-(गर्भ को ) जाने हुए रमण करने हारे रामचंद्र प्यारी, पतले अंगवाली, बदले हुए कुचारों के रंगवाली, लज्जावती उस रामा (मनोहारिणी) को एकान्त में हृदय से लगाकर मनोरथ पूछते हुए ॥ २७॥

सा दष्टनीवारबलीनि हिंस्रैः संबद्धवैखानसकन्यकानि ।

इयेष भूयः कुशवन्ति गन्तुं भागीरथीतीरतपोवनानि॥ १४ -२८॥

भा०-वह क्रूर पशुओं से धान की बलि खाये, वनवासियों की कन्याओं से सखीपन जोडने के स्थान कुशवाले गङ्गातट के तपोवनों में फिर जाने की इच्छा करती हुई ॥२८॥

तस्यै प्रतिश्रुत्य रघुप्रवीरस्तदीप्सितं पार्श्वचरानुयातः ।

आलोकयिष्यन्मुदितामयोध्यां प्रासादमभ्रंलिहमारुरोह॥ १४ -२९॥

भा०-रघुवीर जानकी के निमित्त इनके मनोरथ की प्रतिज्ञा कर सेवकों सहित, प्रसन्न हुई अयोध्यापुरी के देखने को आकाश के छूने वाले महल पर चढे ॥२९॥

ऋद्धापणं राजपथं स पश्यन्विगाह्यमानां सरयूं च नौभिः ।

विलासिभिश्चाध्युषितानि पौरैः पुरोपकण्ठोपवनानि रेमे॥ १४ -३०॥

भा०-वह धन से पूर्ण राजमार्ग और नाव चलती हुई सरयू और नगर के विलासिया से सेवित नगर के निकट के बगीचों को देखकर मन प्रसन्न करते हुए ॥३०॥

स किंवदन्तीं वदतां पुरोगः स्ववृत्तमुद्दिश्य विशुद्धवृत्तः ।

सर्पाधिराजोरुभुजोऽपसर्पं पप्रच्छ भद्रं विजितारिभद्रः॥ १४ -३१॥

भा०-बोलने वालों में अग्रणी, शुद्ध आचारयुक्त, शेष की समान जंघा और भुजा. वाले, शत्रुजित् श्रेष्ठ उस (राम) ने भद्रनामक दूत से अपने चरित्र सम्बन्धी लोक चरचा पूछी ॥ ३१॥

निर्बन्धपृष्टः स जगाद सर्वं स्तुवन्ति पौराश्चरितं त्वदीयम् ।

अन्यत्र रक्षोभवनोषितायाः परिग्रहान्मानवदेव देव्याः॥ १४ -३२॥

भा०-बहुत पूछने से वह बोला हे नरराज ! राक्षस के घर में रही हुई जानकी के ग्रहण करने के विना और तुम्हारे सब चरित्र की वड़ाई पुरवासी करते हैं ॥ ३२ ॥

कलत्रनिन्दागुरुणा किलैवमभ्याहतं कीर्तिविपर्ययेण ।

अयोघनेनाय इवाभितप्तं वैदेहिबन्धोर्हृदयं विदद्रे॥ १४ -३३॥

भा०-प्रगट है कि इस प्रकार स्त्री की निंदा के इस बडे कलंक से जानकी के प्रिय का हृदय, लोहे के घन से चोट पाये हुए तप्त लोहे के समान विदीर्ण हो गया ॥ ३३ ॥

किमात्मनिर्वादकथामुपेक्षे जायामदोषामुत संत्यजामि ।

इत्येकपक्षाश्रयविक्लवत्वादासीत्स दोलाचलचित्तवृत्तिः॥ १४ -३४॥

मा०-क्या अपयश की कथा को न सुनूं अथवा निर्दोष भार्या को त्याग करूं इस प्रकार एक पक्ष के आश्रय करने में व्याकुल हुए वह (राम) झूले की समान चंचल चित्तवृत्तिवाले हुए ॥३४॥

निश्चित्य चानन्यनिवृत्ति वाच्यं त्यागेन पत्न्याः परिमार्ष्टुमैच्छत् ।

अपि स्वदेहात्किमुतेन्द्रियार्थाद्यशोधनानां हि यशो गरीयः॥ १४ -३५॥

भा०-(परन्तु ) कलंक को दूसरे उपाय से मिटनेवाला न देखकर पत्नी के त्याग से ही उसके मेंटने की इच्छा की; कारण कि-यशोधनियों को अपने देह से भी यश प्यारा होता है इन्द्रियों के विषय से तो क्या ॥ ३५॥

स संनिपत्यावरजान्हतौजास्तद्विक्रियादर्शनलुप्तहर्षान् ।

कौलीनमात्माश्रयमाचचक्षे तेभ्यः पुनश्चेदमुवाच वाक्यम्॥ १४ -३६॥

भा०-तेजहीन राम ने बिगडा रूप देखकर प्रसन्नतारहित हुए छोटे भाईयों को इकट्ठाकर अपने में लगे हुए अपवाद को उनसे कह कर फिर यह कहा ।। ३६ ॥

राजर्षिवंशस्य रविप्रसूतेरुपस्थितः पश्यत कीदृशोऽयम् ।

मत्तः सदाचारशुचेः कलङ्कः पयोदवातादिव दर्पणस्य॥ १४ -३७॥

भा०-सूर्य से उत्पन्न हुए राजर्षयों के वंश को सदाचार से पवित्र हुए मुझसे दर्पण को मेघ की पवन के समान कैसा यह कलंक उपस्थित हुआ सो देखो ॥ ३७॥

पौरेषु सोऽहं बहुलीभवन्तमपां तरंगेष्विव तैलबिन्दुम् ।

सोढुं न तत्पूर्वमवर्णमीशे आलानिकं स्थाणुरिव द्विपेन्द्रः॥ १४ -३८॥

भा०-सो मैं जल की तरंगों में तेल की बूंद के समान फैले हुए इस प्रथम कलंक को हाथी बन्धन के खम्भ के समान सहने को समर्थ नहीं हूं ॥ ३८॥

तस्यापनोदाय फलप्रवृत्तावुपस्थितायामपि निर्व्यपेक्षः ।

त्यक्षामि वैदेहसुतां पुरस्तात्समुद्रनेमिं पितुराज्ञयेव॥ १४ -३९॥

भा०-इसके दूर करने को फल प्राप्ति के निकट (गर्भवती) प्राप्त हुई भी इच्छारहित होकर (मैं) जनकसुता को आगे पिता की आज्ञा से पृथ्वी की समान त्यागूंगा ॥ ३९॥

अवैमि चैनामनघेति किंतु लोकापवादो बलवान्मतो मे ।

छाया हि भूमेः शशिनो मलत्वेनारोपिता शुद्धिमतः प्रजाभिः॥ १४ -४०॥

भा०-इनको मैं शुद्ध जानता हूं परन्तु लोकापवाद (अपयश) मेरे मत में प्रबल है, (क्योंकि) प्रजा ने पृथ्वी की छाया ही को शुद्ध चन्द्रमा का कलंक बताया है ॥ ४०॥

रक्षोवधान्तो न च मे प्रयासो व्यर्थः स वैरप्रतिमोचनाय ।

अमर्षणः शोणितकाङ्क्षया किं पदा स्पृशन्तं दशति द्विजिह्वः॥ १४ -४१॥

भा०-और राक्षस रावण के मारने तक मेरा परिश्रम व्यर्थ न होगा किन्तु वह वैर के लेने के लिये था क्योंकि क्रोधी सर्प पैरों से छूते हुए (पुरुष) को क्या रुधिर (पीने) की इच्छा से काटता है ?-॥ ४१॥

तदेव सर्गः करुणार्द्रचित्तैर्न मे भवद्भिः प्रतिषेधनीयः ।

यद्यर्थिता निर्हृतवाच्यशल्यान्प्राणान्मया धारयितुं चिरं वः॥ १४ -४२॥

भाव-सो यह मेरी इच्छा करुणा से गीले चित्तोंवाले तुम्हें विपरीत न करनी चाहिये, जो मेरे अपवादरूपी वाण से वेधे हुए प्राणों को कुछ दिन धारण कराने की तुम्हारी इच्छा हो तो॥ ४२ ॥

इत्युक्तवन्तं जनकात्मजायां नितान्तरूक्षाभिनिवेशमीशम् ।

न कश्चन भ्रातृषु तेषु शक्तो निषेद्धुमासीदनुमोदितुं वा॥ १४ -४३॥

भा०-इस प्रकार कहते हुए जानकी में अत्यन्त निष्ठुरता ठाने हुए स्वामी को उन भाइयों के मध्य में कोई भी निषेध करने को अथवा अनुमोदन करने को समर्थन हुआ ॥ ४३ ॥

स लक्ष्मणं लक्ष्मणपूर्वजन्मा विलोक्य लोकत्रयगीतकीर्तिः ।

सौम्येति चाभाष्य यथार्थभाषी स्थितं निदेशे पृथगादिदेश॥ १४ -४४॥

भा०-त्रिलोकी में विख्यात यशवाले, सत्यवक्ता, लक्ष्मण के बडे भ्राता वह (राम) आज्ञा करने हारे लक्ष्मण को देखकर हे सौम्य ऐसा कहकर पृथक् (अलग) आज्ञा देते हुए ॥ ४४॥

प्रजावती दोहदशंसिनी ते तपोवनेषु स्पृहयालुरेव ।

स त्वं रथी तद्व्यपदेशनेयां प्रापय्य वाल्मीकिपदं त्यजैनाम्॥ १४ -४५॥

भा०-मनोरथ रखनेवाली तुम्हारी (भाभी) गर्भवती तपोवन के देखने की निश्चय इच्छा रखती है, सो तुम रथ में लेकर उसी बहाने से इसको वाल्मीकि के आश्रम के निकट ले जाकर त्याग दो ॥४५॥

स शुश्रुवान्मातरि भार्गवेन पितुर्नियोगात्प्रहृतं द्विषद्वत् ।

प्रत्यग्रहीदग्रजशासनं तदाज्ञा गुरूणां ह्यविचारणीया॥ १४ -४६॥

भा०-पिता की आज्ञा से परशुराम ने माता में वैरी के समान प्रहार किया था यह सुने हुए उन (लक्ष्मण) ने बड़े भाई की आज्ञा ग्रहण की, कारण कि बडों की आज्ञा सोच विचार के योग्य नहीं होती है ॥ ४६॥

अथानुकूलश्रवणप्रतीतामत्रस्नुभिर्युक्तधुरं तुरंगैः ।

रथं सुमन्त्रप्रतिपन्नरश्मिमारोप्य वैदेहसुतां प्रतस्थे॥ १४ -४७॥

भा०-यह अभिलाषित बात सुनने में प्रसन्न हुई जानकी को न डरनेवाले घोडे जूते सुमनन्त के रास पकडे रथ में बैठालकर चले ॥४७॥

सा नीयमाना रुचिरान्प्रदेशान्प्रियंकरो मे प्रिय इत्यनन्दत् ।

नाबुद्ध कल्पद्रुमतां विहाय जातं तमात्मन्यसिपत्रवृक्षम्॥ १४ -४८॥

भा०-वह मनोहर देशों में ले गई हुई मेरे प्यारे प्रिय करनेवाले हैं ऐसा जानकर प्रसन्न हुई (परन्तु ) उनको अपने में कल्पवृक्षपन त्यागकर असिपत्र (तलवार के से पत्रवाला वृक्ष) पन लिया हुआ न जान्ती हुई ॥ ४८॥ .

जुगूह तस्याः पथि लक्ष्मणो यत्सव्येतरेण स्फुरता तदक्ष्णा ।

आख्यातमस्यै गुरु भावि दुःखमत्यन्तलुप्तप्रियदर्शनेन॥ १४ -४९॥

भा०-मार्ग में लक्ष्मण ने उससे जो छिपाया था सो भारी होनहार वह दुःख, अत्यन्त खोये हुए प्यारे के दर्शनवाले, फडकते हुए उसके दाहिने नेत्र ने इसको बता दिया॥४९॥

सा दुर्निमित्तोपगताद्विषादात्सद्यःपरिम्लानमुखारविन्दा ।

राज्ञः शिवं सावरजस्य भूयादित्याशशंसे करणैरबाह्यैः॥ १४ -५०॥

भा०-वह बुरे शकुन के दर्शन से दुःखी होने के कारण शीघ्र मलीन मुख होकर भाइयों सहित राजा (राम) की कुशल हो इस प्रकार अन्तःकरण से कहती हुई॥५०॥

गुरोर्नियोगाद्वनितां वनान्ते साध्वीं सुमित्रातनयो विहास्यन् ।

अवार्यतेवोत्थितवीचिहस्तैर्जह्नोर्दुहित्रा स्थितया पुरस्तात् ॥ १४ -५१॥

भा०-गुरु (राम) की आज्ञा से सुशीला (पतिव्रता) स्त्री को वनान्त में छोडते हुए सुमित्राकुमार के आगे स्थित हुई जनुकन्या (गंगा) तरंगरूपी भुजा उठाकर मानों निषेध करती हुई ॥५१॥

रथात्स यन्त्रा निगृहीतवाहात्तां भ्रातृजायां पुलिनेऽवतार्य ।

गङ्गां निषादाहृतनौविशेषस्ततार संधामिव सत्यसंधः॥ १४ -५२॥

भा०-सत्यप्रतिज्ञावाले वह (लक्ष्मण) सारथी के रोके हुए घोडों के रथ ले भाई की स्त्री को किनारे पर उतारकर केवट द्वारा लाई हुई नाव से गंगा को अपनी प्रतिज्ञा की समान उतर गये ॥५२॥

अथ व्यवस्थापितवाक्कथंचित्सौमित्रिरन्तर्गतबाष्पकण्ठः ।

औत्पातिकं मेघ इवाश्मवर्षं महीपतेः शासनमुज्जगार॥ १४ -५३॥

भा०-फिर किसी प्रकार वाणी को संभालकर आंसुओं को कंठ में रोके हुए लक्ष्मण ने रामचन्द्र की आज्ञा (इस प्रकार कही) मानों उत्पाती मेघ ने पत्थर की वर्षा उगली॥ ५३॥

ततोऽभिषङ्गानिलविप्रविद्धा प्रभ्रश्यमानाभरणप्रसूना ।

स्वमूर्तिलाभप्रकृतिं धरित्रीं लतेव सीता सहसा जगाम॥ १४ -५४॥

भा०-तब तिरस्कार रूपी लू से दग्ध हुई टूटते हुये गहनेरूपी फूलवाली सीता लता की समान अपनी मूर्ति के लाभ को कारण (माता) पृथ्वी पर गिरी ॥ ५४ ॥

इक्ष्वाकुवंशप्रभवः कथं त्वां त्यजेदकस्मात्पतिरार्यवृत्तः ।

इति क्षितिः संशयितेव तस्यै ददौ प्रवेशं जननी न तावत्॥ १४ -५५॥

भा०-इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न हुआ श्रेष्ठ आचरणवाला पति अकस्मात् तुझको क्यों त्याग करता इस प्रकार संशय को प्राप्त हुई माता धरती ने उसे उसी समय प्रवेश न दिया ॥ ५५ ॥

सा लुप्तसंज्ञा न विवेद दुःखं प्रत्यागतासुः समतप्यतान्तः ।

तस्याः सुमित्रात्मजयत्नलब्धो मोहादभूत्कष्टतरः प्रबोधः॥ १४ -५६॥

भा०-मूर्छित हो जाने से वह दुःख न जान्ती हुई फिर संज्ञा को प्राप्त होकर मन में अत्यन्त दुःखी हुई उसे सुमित्रा पुत्र (लक्ष्मण) के उपाय से प्राप्त हुई चेतना मूर्छा से भी अधिक कष्ट दायक होती हुई ॥ ५६ ॥

न चावदद्भर्तुरवर्णमार्या निराकरिष्णोर्वृजिनादृतेऽपि ।

आत्मानमेवं स्थिरदुःखभाजं पुनः पुनर्दुष्कृतिनं निनिन्द॥ १४ -५७॥

भा०-उस सुशीला ने अपराध के विना भी त्यागने की इच्छा करनेवाले पति को दुर्वचन न कहे, परन्तु सदा दुःख पानेवाले दुष्कृती अपने आप ही की वारंवार निन्दा की ॥५७॥

आश्वास्य रामावरजः सतीं तामाख्यातवाल्मीकिनिकेतमार्गः ।

निघ्नस्य मे भर्तृनिदेशरौक्ष्यं देवि क्षमस्वेति बभूव नम्रः॥ १४ -५८॥

भा०-राम के छोटे (लक्ष्मण ) उस सती को समझाकर वाल्मीकि के स्थान का मार्ग दिखाकर हे देवी! मुझ पराधीन का स्वामी की आज्ञा से किया हुआ कठोरपन क्षमा करो ऐसा कहकर नम्र हुए ॥ ५८॥

सीता तमुत्थाप्य जगाद वाक्यं प्रीतास्मि ते सौम्य चिराय जीव ।

बिडौजसा विष्णुरिवाग्रजेन भ्रात्रा यदित्थं परवानसि त्वम्॥ १४ -५९॥

भा०-सीता उनको उठाकर वचन बोली हे सौम्य ! मैं तुमसे प्रसन्न हूं बहुत काल तक जीवो कारण कि जैसे विष्णु इन्द्र के ऐसे तुम बडे भाई के आधीन हो ॥ ५९॥

श्वश्रूजनं सर्वमनुक्रमेण विज्ञापय प्रापितमत्प्रणामः ।

प्रजानिषेकं मयि वर्तमानं सूनोरनुध्यायत चेतसेति॥ १४ -६०॥

भा०-सब सासुओं को क्रम से मेरा प्रणाम पहुंचा कर कहना कि तुम्हारे पुत्र का गर्भ मुझमें स्थित है, इसका कुशल हृदय से ध्यान करो ॥ ६०॥

वाच्यस्त्वया मद्वचनात्स राजा वह्नौ विशुद्धामपि यत्समक्षम् ।

मां लोकवादश्रवणादहासीः श्रुतस्य किं तत्सदृशं कुलस्य॥ १४ -६१॥

भा०-उन राजा से तुम मेरी ओर से कहना नेत्र के सन्मुख अग्नि में शुद्ध हुई भी मुझको लोकापवाद श्रवण कर त्यागा, यह क्या (तुम्हारे) शास्त्राध्ययन वा विख्यात कुल के योग्य है ॥ ६१॥

कल्याणबुद्धेरथवा तवायं न कामचारो मयि शङ्कनीयः ।

ममैव जन्मान्तरपातकानां विपाकविस्फूर्जिथुरप्रसह्यः॥ १४ -६२॥

भा०-अथवा तुम अच्छी बुद्धिवाले का मेरा यह (त्याग) इच्छा से होना शंका के योग्य नहीं है, किन्तु मेरे ही जन्मान्तरों के पापों का प्रवल उदय है ॥ ६२॥

उपस्थितां पूर्वमपात्य लक्ष्मीं वनं मया सार्धमसि प्रपन्नः ।

तदास्पदं प्राप्य तयातिरोषात्सोढास्मि न त्वद्भवने वसन्ती॥ १४ -६३॥

भा०-आगे प्राप्त हुई लक्ष्मी को त्यागकर तुम मेरे साथ वन को चले गये सो उसी ने बहुत क्रोध से तुम्हारे घर में प्रतिष्ठापूर्वक रहती हुई मुझको न सहा ॥ ६३ ॥

निशाचरोपप्लुतभर्तृकाणां तपस्विनीनां भवतः प्रसादात् ।

भूत्वा शरण्या शरणार्थमन्यं कथं प्रपत्स्ये त्वयि दीप्यमाने॥ १४ -६४॥

भा०-राक्षसों के सताये हुए भर्तावाली तपस्विनियों की तुम्हारी कृपा से शरण देनेवाली होकर अब तुम्हारे रहते हुए मैं और की शरण में कैसे प्राप्त हूंगी ॥ ६४॥

किंवा तवात्यन्तवियोगमोघे कुर्यामुपेक्षां हतजीवितेऽस्मिन् ।

स्याद्रक्षणीयं यदि मे न तेजस्तदीयमन्तर्गतमन्तरायः॥ १४ -६५॥

भा०-अथवा तुम्हारे कठिन वियोग से निष्फल और तुच्छ जीवन में नि:संदेह इच्छा छोड देती, जो रक्षा के योग्य कोख में रक्खा हुआ तुम्हारा गर्भ मुझको विघ्न न करता ॥६५॥

साहं तपः सूर्यनिविष्टदृष्टिरूर्ध्वं प्रसूतेश्चरितुं यतिष्ये ।

भूयो यथा मे जननान्तरेऽपि त्वमेव भर्ता न च विप्रयोगः॥ १४ -६६॥

भा०-सो मैं सन्तान होने के उपरान्त सूर्य में दृष्टि लगाकर तप करने का यत्न करूंगी जिस्से फिर भी जन्मान्तर में तुझी मेरे भर्ता हो और वियोग न पडै ॥ ६६ ॥

नृपस्य वर्णाश्रमपालनं यत्स एव धर्मो मनुना प्रतीतः ।

निर्वासिताप्येवमतस्त्वयाहं तपस्विसामान्यमवेक्षणीया॥ १४ -६७॥

भा०-जो वर्णाश्रम की रक्षा करना है यही राजों का धर्म मनुजी ने नियत किया है, इस कारण तुम्हारी त्याग की हुई भी मैं सामान्य तपस्वियों की नाई देखने योग्य हूं ॥ ६७॥

तथेति तस्याः प्रतिगृह्य वाचं रामानुजे दृष्टिपथं व्यतीते ।

सा मुक्तकण्ठं व्यसनातिभाराच्चक्रन्द विग्ना कुररीव भूयः॥ १४ -६८॥

भा०-‘बहुत अच्छा’ इस प्रकार तिस (जानकी) की वाणी को ग्रहण कर लक्ष्मण के दृष्टिपथ से बाहर होने पर वह दुःख के महाभार से कंठ खोलकर डरी हुई कुररी की समान फिर विलाप करने लगी॥ ६८॥ (कुररी कुंज पक्षी का नाम है)

नृत्यं मयूराः कुसुमानि वृक्षा दर्भानुपात्तान्विजहुर्हरिण्यः ।

तस्याः प्रपन्ने समदुःखभावमत्यन्तमासीद्रुदितं वनेऽपि॥ १४ -६९॥

भा०-भौरों ने नृत्य, वृक्षों ने फूल और हरिणियों ने मुख में ली हुई घास छोड दी, इस प्रकार उसके समान दुःख को प्राप्त होकर वन में सभी को अधिक रोना पडा॥६९॥

तामभ्यगच्छद्रुदितानुकारी कविः कुशेध्माहरणाय यातः ।

निषादविद्धाण्डजदर्शनोत्थः श्लोकत्वमापद्यत यस्य शोकः॥ १४ -७०॥

भा०-कुश और समिधा के लेन को गये हुए कवि (वाल्मीकिजी) रोने की ओर चलते हुए उसके निकट प्राप्त हुए व्याध के वेधे हुए पक्षी के देखने से उठा हुआ जिनका शोक श्लोकता को प्राप्त हुआ था॥७०॥ (व्याध से वाल्मीकि जी बोले थे वह श्लोकरूप छन्द था)

तमश्रु नेत्रावरणं प्रमृज्य सीता विलापाद्विरता ववन्दे ।

तस्यै मुनिर्दोहदलिङ्गदर्शी दाश्वान्सुपुत्राशिषमित्युवाच॥ १४ -७१॥

भा०-सीता विलाप को त्याग कर नेत्रों के टाकनेवाले आंसुओं को पोंछ उन्हे प्रणाम करती हुई, गर्भ के लक्षण जान्नेवाले मुनि ने उसके निमित्त सुपुत्री हो यह आसीस देकर कहा ॥ ७१॥

जाने विसृष्टां प्रणिधानतस्त्वां मिथ्यापवादक्षुभितेन भर्त्रा ।

तन्मा व्यथिष्ठा विषयान्तरस्त्वं प्राप्तासि वैदेहि पितुर्निकेतम् ॥ १४ -७२॥

भा०-तू मिथ्या अपवाद से डरे हुए भर्ता से त्यागी हुई है, यह मैंने ध्यान से जान लिया है, जानकी तू पिता ही के दूर स्थित हुए घर में प्राप्त हुई है इससे व्याकुल मत हो॥७२॥

उत्खातलोकत्रयकण्टकेऽपि सत्यप्रतिज्ञेऽप्यविकत्थनेऽपि ।

त्वां प्रत्यकस्मात्कलुषप्रवृत्तावस्त्येव मन्युर्भरताग्रजे मे॥ १४ -७३॥

भा०-त्रिलोकी के कंटक मिटानेवाले, सत्य प्रतिज्ञावाले, अपनी बडाई न करने वाले होने पर भी तेरे प्रति अकस्मात् अनर्थ करने में प्रवृत्त हुए रामचंद्र पर मेरा क्रोध ही है ।। ७३ ॥

तवोरुकीर्तिः श्वशुरः सखा मे सतां भवोच्छेदकरः पिता ते ।

धुरि स्थिता त्वं पतिदेवतानां किं तन्न येनासि ममानुकम्प्या॥ १४ -७४॥

भा०-बडे कीर्तिमान तुम्हारे श्वशुर मेरे सखा है, पिता तुम्हारे संतों का जन्म मरण मेटने वाले हैं, तुम पतिव्रताओं में अग्रणी हो फिर जिस्से तुम मेरी कृपा के योग्य न हो सो क्या है ।। ७४ ॥

तपस्विसंसर्गविनीतसत्त्वे तपोवने वीतभया वसास्मिन् ।

इतो भविष्यत्यनघप्रसूतेरपत्यसंस्कारमयोविधिस्ते॥ १४ -७५॥

भा०-तपस्वियों की संगति से सुशीलता सीखें हुए जीवोंवाले इस वन में भयरहित हो वास कर, यहां तुझ सुख- पूर्वक उत्पन्न करनेवाली की सन्तान के संस्कार (जातकर्म आदि) होंगे ॥७५॥

अशून्यतीरां मुनिसंनिवेशैस्तमोपहन्त्रीं तमसां वगाह्य ।

तत्सैकतोत्सङ्गबलिक्रियाभिः संपत्स्यते ते मनसः प्रसादः॥ १४ -७६॥

भा०-मुनियों की कुटियों से घिरी हुई तीरवाली, पाप दूर करनेवाली तमसा में स्नान कर उसके किनारे इष्ट देवता के पूजन करने से तेरे मन में प्रसन्नता होगी ॥७६ ॥

पुष्पं फलं चार्तवमाहरन्त्यो बीजं च बालेयमकृष्टरोहि ।

विनोदयिष्यन्ति नवाभिषङ्गामुदारवाचो मुनिकन्यकास्त्वाम्॥ १४ -७७॥

भा०- ऋतुसम्बन्धी फूल और फल तथा बोये विना उपजे हुए पूजा के योग्य अन्न लाती हुई, उदार वचनवाली मुनि की कन्यायें तुझ नवीन दुःखवाली को प्रसन्न करेंगी॥ ७७॥

पयोघटैराश्रमबालवृक्षान्संवर्धयन्ती स्वबलानुरूपैः ।

असंशयं प्राक्तनयोपपत्तेः स्तनंधयप्रीतिमवाप्स्यसि त्वम्॥ १४ -७८॥

भा०-अपने बल के अनुसार जल के घडों से आश्रम के विरुओं ( छोटेवृक्षों) को चढाती हुई तू सन्तान उत्पत्ति से पहले ही अवश्य दूध पीनेवाले (बालक) की प्रीति को प्राप्त होगी ॥७८॥

अनुग्रहप्रत्यभिनन्दिनीं तां वाल्मीकिरादाय दयार्द्रचेताः ।

सायं मृगाध्यासितवेदिपार्श्वं स्वमाश्रमं शान्तमृगं निनाय॥ १४ -७९॥

भा०-करुणायुक्त चित्तवाले वाल्मीकि ने कृपा की सराहना करती हुई तिसको लेकर सन्ध्या समय मृगों के वैठने से घिरी हुई वेदीवाले और शान्त पशुवाले अपने आश्रम में प्राप्त किया ॥ ७९ ॥ ।

तामर्पयामास च शोकदीनां तदागमप्रीतिषु तापसीषु ।

निर्विष्टसारां पितृभिर्हिमांशोरन्त्यां कलां दर्श इवौषधीषु॥ १४ -८०॥

भा०-ऋषि ने शोक से दुःखी हुई उसको उसके आने से प्रसन्न हुई तपस्विनियों में मानों पितरों से सार बची हुई चन्द्रमा की पिछली कला को अमावस द्वारा औषधियों में सौंपा ॥ ८॥

ता इङ्गुदीस्नेहकृतप्रदीपमास्तीर्णमेध्याजिनतल्पमन्तः ।

तस्यै सपर्यानुपदं दिनान्ते निवासहेतोरुटजं वितेरुः ॥ १४ -८१॥

भा०-वे सब उसको पूजा के उपरान्त सन्ध्या समय रहने के निमित्त हिंगोट के तेल से उजाला की हुई (दीपकवाली हुई) मगचर्म के विछोने बिछी पर्णशाला देती हुई।८१॥

तत्राभिषेकप्रयता वसन्ती प्रयुक्तपूजा विधिनातिथिभ्यः ।

वन्येन सा वल्कलिनी शरीरं पत्युः प्रजासंततये बभार॥ १४ -८२॥

भा०-तहां स्नान के नियम से रहती हुई, शास्त्र अनुसार अतिथियों का पूजन करती छाल के वस्त्र पहरे हुए वह (जानकी) पति का वंश रखने के निमित्त कन्दमूल से शरीर पालने लगी ॥ ८२॥

अपि प्रभुः सानुशयोऽधुना स्यात्किमुत्सुकः शक्रजितोऽपि हन्ता ।

शशंस सीतापरिदेवनान्तमनुष्ठितं शासनमग्रजाय॥ १४ -८३॥

भा०- स्वामी अब भी पछताते हैं कि नहीं, इस प्रकार उत्कंठा किये इन्द्रजीत के मारनेवाले (लक्ष्मण )ने भी सीता के विलाप पर्यंत आज्ञा पूरी करने का वृत्तान्त वडे भ्राता से कहा ॥८३॥

बभूव रामः सहसा सबाष्पस्तुषारवर्षीव सहस्यचन्द्रः ।

कौलीनभीतेन गृहान्निरस्ता न तेन वैदेहसुता मनस्तः॥ १४ -८४॥

भा०-तत्काल आंसू भरे रामचन्द्र ओस बर्षानेवाले पूस के चन्द्रमा के समान हुए लोकापवाद से उन्होंने जानकी को घर से बाहर किया था मन से नहीं ॥८४॥

निगृह्य शोकं स्वयमेव धीमान्वर्णाश्रमावेक्षणजागरूकः ।

स भ्रातृसाधारणभोगमृद्धं राज्यं रजोरिक्तमनाः शशास॥ १४ -८५॥

भा०-बुद्धिमान, वर्णाश्रम की रक्षा में जागृत, रजोगुणरहित मनवाले वह (राम) स्वयं ही शोक को रोककर भाइयों सहित शरीर स्थिति मात्र भोग भोगते हुये ऋद्धिमान् राज्य को पालन करते हुए ॥ ८५ ॥

तामेकभार्यां परिवादभीरोः साध्वीमपि त्यक्तवतो नृपस्य ।

वक्षस्यसंघट्टसुखं वसन्ती रेजे सपत्नीरहितेव लक्ष्मीः॥ १४ -८६॥

भा०-कलंक से डरकर इकली एक पतिव्रता भार्या को भी त्यागनेवाले राजा के हृदय में अतिसुख से निवास करती हुई लक्ष्मी विना सौत की समान शोभित हुई॥८६॥

सीतां हित्वा दशमुखरिपुर्नोपमेये यदन्यां तस्या एव प्रतिकृतिसखो यत्क्रतूनाजहार ।

वृत्तान्तेन श्रवणविषयप्रापिणा तेन भर्तुः सा दुर्वारं कथमपि परित्यागदुःखं विषेहे॥ १४ -८७॥

भा०-रावण के शत्रु ने जानकी को त्यागकर दूसरा विवाह न किया और उसी की मूर्ति को संगी बनाकर यज्ञ किये, इस्से कानों में पहुंचे हुए पति के इस वृत्तान्त से वह (जानकी ) महाकठिन परित्याग के दुःख को कीसी प्रकार सहती हुई ॥ ८७॥

॥ इति श्रीरघुवंशे महाकाव्ये कविश्रीकालिदासकृतौ सीतापरित्यागो नाम चतुर्दशः सर्गः ॥

इस प्रकार श्रीमहाकविकालिदास द्वारा रचित रघुवंश महाकाव्य का सर्ग १४ सम्पूर्ण हुआ॥

रघुवंशमहाकाव्यम् चतुर्दशः सर्गः

रघुवंशं सर्ग १४ कालिदासकृतम्

रघुवंशम् चौदहवां सर्ग

रघुवंश चौदहवां सर्ग संक्षिप्त कथासार

वैदेही- वनवास

अयोध्या के उपवन में पहुंचकर राम और लक्ष्मण ने एकमात्र आश्रय वृक्ष के कट जाने से निराधार लताओं के समान वैधव्य – शोक से मुरझाई हुई माताओं के दर्शन किए । शत्रुओं का विनाश करके आए हुए दोनों पुत्रों ने जब अपनी माताओं को प्रणाम किया, तो अश्रुओं के कारण दृष्टि के रुक जाने से वे दृष्टि से देख ही न सकीं । हां, पुत्र -स्पर्श की स्वाभाविक अनुभूति से उन्होंने पहचान लिया । जैसे गर्मी से तपे हुए गंगा और सरयू के जल को पहाड़ से आया हुआ बर्फानी जल शीतल कर देता है, वैसे ही उनके पति -वियोग के गर्म आंसुओं को पुत्र – प्राप्ति के शीतल आंसुओं ने शांत कर दिया । जब माताओं ने पुत्रों के शरीरों को छूकर देखा तो स्थान – स्थान पर राक्षसों के शस्त्रों द्वारा किए हुए घाव प्रतीत हुए । उस समय उन्होंने अनुभव किया कि क्षत्राणी के लिए वीर माता बनना केवल सुखकर ही नहीं है, दु: खकर भी है । मैं अपने पति के दु:खों का मूल हेतु होने के कारण कुलक्षणा सीता प्रणाम करती हूं, यह कहती हुई सीता स्वर्गवासी श्वसुर की रानियों के चरणों में अभेद- भाव से झुक गई । बेटी ! उठ, दोनों भाई तेरे शुद्ध चरित्र के कारण ही इस महान् संकट से पार हो सके हैं – ऐसा सुमधुर सत्य वाक्य कहकर माताओं ने सीता को आश्वासन दिया । उसके पश्चात् माताओं के आनन्दाश्रुओं से राम का जो अभिषेक आरम्भ हुआ था, वृद्ध अमात्यों ने उसे तीर्थों से लाए हुए जल के स्वर्णघटों द्वारा पूरा कर दिया । जब राक्षसों तथा वानरों द्वारा लाए हुए समुद्र, नदी और तालाबों के जल से राम को स्नान कराया गया, तब वह मेघों से बरसते हुए जल स्थापित विन्धाचल के समान शोभायान हो रहे थे। वन को जाते हुए जो राम तपस्वियों का वेश पहनकर भी अत्यन्त सुंदर दिखाई दिए थे, राज्याभिषेक के योग्य वेशभूषा धारण करके उनकी शोभा द्विगुणित हो उठी । जब राज्याभिषेक के पश्चात् राजा राम ने अपने अमात्य, राक्षस और वानर मित्रों तथा सेनाओं के साथ कुल की पुरातन राजधानी अयोध्या में प्रवेश किया, तब हर्षसूचक तूर्य आदि वाद्यों से आकाश गूंज रहा था, जो कि प्रजाजनों के हृदयों में आनन्द की लहरें उत्पन्न कर रहा था । मकानों की छतों से लाजा -वर्षा हो रही थी और नगरी तोरणों से सजी हुई थी । रथ में विराजमान राम के सिर पर लक्ष्मण चंवर डुला रहे थे और भरत ने छत्र धारण किया हुआ था । रघुवीर की सहधर्मिणी सीता को श्वश्रुजनों ने वस्त्रों और अलंकारों से खूब सजा दिया था । वे राम-रथ के साथ छोटे-से सुन्दर रथ में बैठकर जा रही थीं । साकेत की महिलाएं घरों के वातायनों में से उस तपोमयी देवी को हाथ जोड़कर नमस्कार कर रही थीं । मुनि- पत्नी अनसूया द्वारा दिए हुए नष्ट न होने वाले अंगराग से जगमगाती हुई तेजस्विनी जानकी को नगर निवासियों ने उसी दीप्तिमय रूप में देखा, जिसमें परीक्षा के समय अग्नि से घिरे होने पर राम ने देखा था । सब प्रकार की आराम देने वाली सामग्री से सजे हुए भवनों में सुग्रीव, विभीषण आदि मित्रों के ठहरने की व्यवस्था करके जब राम ने अपने पिता के उस भवन में प्रवेश किया, जिसमें पिता केवल चित्ररूप में विराजमान थे, तब उनकी आंखों में आंसू आ गए। कैकेयी लज्जा और संकोच के कारण राजभवन से बाहर नहीं गई थीं । भवन में प्रवेश करके राम ने उनके चरणों में झुककर प्रणाम किया, उनकी लज्जा को दूर करने के लिए कहा- माता, यदि हमारे पिता सत्य से भ्रष्ट न होकर स्वर्ग के अधिकारी बने रहे, तो यह तुम्हारे ही सुकृत का फल था । राज्याभिषेक की विधि समाप्त होने पर महाराज राम ने सब अभ्यागतों का यथोचित आदर-सम्मान किया । सुग्रीव-विभीषणादि मित्रों को भांति-भांति के बहुमूल्य उपहारों से सन्तुष्ट किया और ऋषि-मुनियों का कथा-श्रवण और पूजन द्वारा अभिनन्दन करके उन्हें विदा किया । मुनियों के जाने पर स्वयं सीतादेवी ने उन राक्षसों और वानरों को, जिनके अयोध्या के दिन सुखपूर्वक रहने के कारण क्षण की तरह व्यतीत हो गए थे, विविध पारितोषिकों से सम्मानित करके अपने- अपने घरों को लौटने की अनुमति दे दी । कैलाश के स्वामी कुबेर ने अपना पुष्पक विमान रावण नाशरूपी जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भेजा था, वह पूरा हो गया, यह सोचकर महाराज ने विमान को अपने स्वामी के पास जाने की आज्ञा दे दी । वनवास से निवृत्त होकर और विधिपूर्वक सिंहासन पर आरूढ़ होकर राम अर्थ, धर्म और काम तीनों का समान रूप में पालन करने लगे । सब भाइयों और माताओं में भी वे एक- सा प्रीतिभाव रखते थे। महाराज राम लोभ से शून्य थे, इस कारण प्रजा समृद्ध थी । वे शत्रुओं का विनाश करते थे, फलत : देश में यज्ञादि क्रियाएं निर्विघ्न होती थीं । वे नियमों का पालन कराते थे, अत : प्रजा उन्हें पिता मानती थी और वे उनकी सेवा करते थे, इससे देश के निवासी अपने को पुत्रवान् मानते थे। राम दिन-रात प्रजा के पालन में लगे रहते थे, साथ ही वे गृहस्थ धर्म के पालन में भी प्रमादी नहीं थे। साक्षात् शरीरधारिणी लक्ष्मी के समान शान्तिमयी पत्नी जानकी उनकी धर्म, अर्थ और काम -प्राप्ति की संगिनी बनी हुई थी । राम ने अपने भवन में वनवास की घटनाओं के चित्र बनवाए थे। उन्हें देखकर दोनों ने व्यतीत दु:खों का स्मरण करके सन्तोष- सा अनुभव किया । कुछ समय पश्चात् सीता के नेत्रों की बढ़ी हुई मधुरता और मुख पर छाई हुई सफेदी को देखकर राम ने समझ लिया कि वह गर्भिणी है । अक्षरों के बिना कहे हुए इस समाचार से राम का हृदय अत्यन्त आनन्दित हुआ। जानकी का सिर गोद में लेकर, एकान्त में राम ने दोहद लक्षणों से युक्त जानकी से कहा कि तुम अपने मन की अभिलाषा बताओ, मैं उसे पूरा करूंगा। सात्विक भावों की पुतली सीता ने उत्तर दिया कि मेरा मन गंगा-तट पर बने हुए उन कुशाओं वाले तपोवनों में जाने को करता है जहां हिंसक जन्तु भी वनस्पति खाकर सन्तोष करते हैं और जहां तपस्वियों की कन्याओं से प्रेम-सम्बन्ध स्थापित होता है । राम प्रिया की इस इच्छा को पूरा करने का वायदा करके अपने विश्वस्त पुरुषों के साथ प्रसन्नता से भरपूर नगर भ्रमण को निकल पड़े। अयोध्या को देखकर सन्तोष हुआ कि राजमार्ग की दूकानों पर क्रय -विक्रय की धूम है। सरयू यात्रियों और वस्तुओं को उस पार तथा समुद्र तक ले जानेवाले नौकाओं से भरी हुई है और नगर के उपवनों में विहार करनेवाले नागरिकों की भीड़ है । प्रजा की सुख -समृद्धि से सन्तुष्ट होकर महाराज ने अपने गुप्त दूत से पूछा कि क्या प्रवासियों में मेरे विषय में कोई प्रतिकूल किंवदन्तियां भी फैली हुई हैं ? पहले तो गुप्त दूत इन्कार करता रहा, परन्तु बहुत आग्रह करने पर उसने उत्तर दिया कि हे देव, केवल इतनी बात को छोड़कर कि आपने राक्षस के घर में रही हुई देवी जानकी को अपने घर में स्थान दे दिया है, अन्य सब बातों में प्रजाजन आपके चरित्र की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं । विशुद्ध चरित्रवाली पत्नी की निन्दा के कारण होने वाली अपकीर्ति का कठोर समाचार सुनकर महाराज राम का हृदय ऐसे विदीर्ण हो गया जैसे लोहे के घन की चोट खाकर तपा हुआ लोहा विदीर्ण हो जाता है । उनके सामने धर्म-संकट उपस्थित हो गया । वे सोचने लगे कि क्या मैं अपने अपयश की चर्चा की उपेक्षा कर दूं, अथवा अपनी दोषरहित सती पत्नी का परित्याग कर दूं! चिरकाल तक उनका मन सन्देह के झूले में झूलता रहा। अन्त में उन्होंने निश्चय किया कि अपयश को धोने का अन्य कोई उपाय नहीं है, इस कारण पत्नी का परित्याग करूंगा, यशोधन व्यक्ति यश को इन्द्रियों की सुख-सामग्री से तो क्या, शरीर से भी अधिक मूल्यवान् मानते हैं । राम ने अपने सब भाइयों को बुलाकर शहर में फैली हुई निन्दा की बातें सुनाईं तो वे लोग अपने बड़े भाई को चिन्तित देखकर बहुत दु:खी हो गए। राम ने उनसे कहा तुम लोग देखो कि सूर्य से उत्पन्न हुए इस राजर्षियों के कुल पर सर्वथा सदाचारी होते हुए भी मेरे कारण इस प्रकार कलंक लग रहा है, जैसे बरसाती हवा के झोंके से दर्पण पर धब्बा पड़ जाता है; जैसे बांधने वाला खूटा गज के लिए असह्य होता है, वैसे ही पानी में तेल की भांति फैलते हुए इस अपयश को मैं नहीं सह सकता। इस अपयश को मिटाने के लिए मैं जानकी का परित्याग करूंगा। मैं जानता हूं कि वह सन्तानवती होनेवाली है, परन्तु पहले भी पिता की आज्ञा रूपी धर्म का पालन करके मैंने रत्नगर्भा वसुंधरा का परित्याग कर दिया था । मैं जानता हूं कि वैदेही सर्वथा निष्कलंक है परन्तु मैं लोकनिन्दा को बहुत बलवान मानता हूं। विशुद्ध चन्द्रमा पर पृथ्वी की जो छाया पड़ती है, लोक ने उसे सत्य मानकर चन्द्रमा पर कंलक होने का आरोप लगा दिया है। हो सकता है, तुम लोग सोचो कि फिर रावण के वध में समाप्त होनेवाले मेरे प्रयत्न निष्फल हो जाएंगे । उनका उद्देश्य आततायी को दण्ड देकर अपकार का बदला लेना था, वह पूरा हो गया । ठोकर मारनेवाले पांव को सांप क्या रक्त पीने की इच्छा से डंसता है ? यदि तुम चाहते हो कि मैं चिरकाल तक निष्कलंक जीवन व्यतीत करूं तो करुणा के प्रभाव में आकर मेरे संकल्प का विरोध न करना । जब जानकी के प्रति रुखाई से भरे ये शब्द भाइयों ने सुने तो उसमें से किसी की न निषेध करने की हिम्मत हुई और न अनुमोदन करने की । तब अलग ले जाकर महाराज ने अपने आज्ञाकारी भाई लक्ष्मण को हे सौम्य इस प्रकार सम्बोधन करके आज्ञा दी कि तुम्हारी भाभी गर्भवती होने के पश्चात् तपोवन जाने की इच्छा प्रकट कर चुकी है, सो इसी निमित्त तुम उसे वाल्मीकि मुनि के आश्रम में ले जाकर छोड़ आओ। लक्ष्मण ने सुन रखा था कि परशुराम ने पिता की आज्ञा से शत्रु की तरह माता का सिर उतार दिया । गुरुओं की आज्ञा पालन करने में आगापीछा करना अनुचित है, इस भावना से उसने बड़े भाई के आदेश को स्वीकार कर लिया । लक्ष्मण ने सीता को सूचना दी कि महाराज ने उनकी इच्छा -पूर्ति के लिए गंगातीर पर बने हुए आश्रमों पर जाने की आज्ञा दे दी है। इस अनुकूल समाचार से प्रसन्न होकर वह सौमित्र द्वारा लाए हुए, निर्भय और सुसंस्कृत घोड़ों से युक्त रथ में बैठकर लक्ष्मण के साथ आश्रमों की ओर रवाना हो गई । जब रथ उन मनोहर प्रदेशों में से होकर जा रहा था तो जानकी उसे देखकर मन ही मन सोचती थी कि मेरा पति कितना अच्छा है कि उसने मेरी प्रिय अभिलाषा इतनी शीघ्र पूरी कर दी । उस बेचारी को क्या पता था कि जो दूसरों के लिए कल्पवृक्ष था, वह उस समय उसके लिए तलवार की तरह काटनेवाले पत्तोंवाला असिवृक्ष बना हुआ है। रास्ते में लक्ष्मण ने सीता से सच्ची परन्तु अप्रिय बात नहीं कही, तो भी दाहिनी आंख फड़कने से जानकी ने किसी भावी अनर्थ का अनुमान लगा लिया और मन ही मन महाराज और उनके छोटे भाइयों के कल्याण की प्रार्थना करने लगी । रथ गंगा के तट पर पहुंचकर रुक गया । लक्ष्मण ने गंगा की ओर दृष्टि डाली तो उसे प्रतीत हुआ, मानो गंगा अपने तरंग- रूपी हाथों को उठाकर उसे ऐसा अन्यायपूर्ण कार्य करने से रोक रही है। सुमन्त्र ने रथ से उतरकर घोड़ों को संभाल लिया तो लक्ष्मण ने अपनी भाभी को भी गंगा तट पर उतार लिया और निषाद द्वारा लाई हुई नौका पर बैठकर नदी को ऐसे पार कर लिया जैसे सत्यप्रतिज्ञ व्यक्ति अटूट निश्चय की सहायता से अपनी प्रतिज्ञा के पार लग जाता है । गंगा के पार पहुंचकर, लक्ष्मण ने बहुत यत्नपूर्वक अपनी लड़खड़ाती वाणी को और उमड़ते हुए आंसुओं को दबाकर, महाराज की प्रलय-काल के मेघों से बरसनेवाली शिलाओं की वर्षा के सदृश कठोर आज्ञा सीता को सुनाई । उस आज्ञा को सुनकर और पराजय और अपमान की आंधी से चोट खाई लता की तरह आभूषण रूपी पुष्पों को बिखेरती हुई सीता बेहोश होकर अपनी जननी पृथ्वी की गोद में लेट गई । इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न हुआ, आर्य- चरितवाला पति इसे कैसे त्याग सकता है, मानो यह सोचकर पृथ्वी माता ने उस समय जानकी को अपने अन्दर शरण न दी । जब तक सीता चेतनाहीन रही, दु:ख की अनुभूति से दूर रही, परन्तु ज्यों ही उसे चेतना आई, हृदय में वेदना की आग- सी जल उठी । लक्ष्मण के यत्न से प्राप्त हुई चेतना उसके लिए मोह की अपेक्षा अधिक कष्टदायक सिद्ध हुई । उस अगाध दु:ख के समय भी सर्वथा पाप से शून्य सीता ने पति के दोष की बात नहीं कही, वह निरन्तर दु:खी रहने के लिए, खोटे कर्मों को कारण मानकर, अपने आपको ही कोसने लगी। लक्ष्मण ने भाभी को सान्त्वना देकर वाल्मीकि मुनि के आश्रम का मार्ग बतला दिया और हे देवी ! मैं बड़े भाई का आज्ञाकारी होने से विवश हूं । मेरा अपराध क्षमा करना ! कहकर सीता के चरणों में गिर पड़ा । सीता ने उसे उठाकर कहा सौम्य, मैं तुझसे प्रसन्न हूं। तू चिरजीवी हो । जैसे भूपेन्द्र विष्णु अपने बड़े भाई इन्द्र की आज्ञा से बंधा हुआ है, वैसे ही तू भी अपने बड़े भाई का पराधीन है । तू घर वापस जाकर सब माताओं को क्रम से मेरा प्रणाम कहना और मेरी ओर से निवेदन करना कि मेरे शरीर में आपके पुत्र की जो संतान गर्भ-रूप में विद्यमान है, उसे आशीर्वाद दीजिए और मेरी ओर से उस राजा से कहना कि तुम तो अग्नि-परीक्षा द्वारा मेरे चरित्र की विशुद्धता को जान चुके थे, फिर भी केवल झूठे लोकापवाद को सुनकर तुमने मेरा त्याग कर दिया, क्या यह काम यशस्वी रघुकुल के योग्य हुआ है ? परन्तु तुम बुद्धिमान हो। तुमने मेरे साथ जो कुछ किया, उसमे दोष की आशंका क्यों करूं? मैं समझती हूं कि यह असह्य वज्राघात मेरे ही पूर्वजन्मों के पापों का फल है । जब साम्राज्य की लक्ष्मी तुम्हारे चरणों में लोट रही थी, तब उसे छोड़कर तुम मेरे साथ वन को चल दिये थे । उस असहिष्णु लक्ष्मी ने अधिकार पाते ही अपना बदला ले लिया । उसने मुझे तुम्हारे भवन से निकालकर बाहर कर दिया । तुमने मुझे शरणार्थिनी बनाकर दूसरों के साथ भेज दिया है । वनवास के समय राक्षसों के उत्पात से पीड़ा पाए हुए वनवासियों की स्त्रियों को मैं तुम्हारे बल पर शरण दिया करती थी । तुम्हारे जाज्वल्यमान रहते आज मैं शरणार्थिनी बनकर उन्हीं वनवासियों के पास कैसे जाऊंगी! मैं तो तुम्हारे द्वारा परित्यक्त होने पर इस अपमानित जीवन को ही समाप्त कर देती, परन्तु क्या करूं, मेरे शरीर में तुम्हारा जो तेज गर्भ के रूप में विद्यमान है, वह मुझे आत्मघात से रोकता है। सो मैं सन्तान होने तक सूर्य में ध्यान लगाकर तपस्या करने का यत्न करूंगी, जिससे दूसरे जीवन में भी तुम्हीं मेरे पति बनो और तब इस जीवन की तरह हमारा वियोग भी न हो । मनु ने आदेश दिया है कि वर्णों और आश्रमों की रक्षा करना राजा का धर्म है; इस कारण यद्यपि तुमने मुझे घर से निकाल दिया है, तो भी साधारण तपस्विनी समझकर मुझ पर अपनी सुरक्षा का हाथ तो रखना ही । लक्ष्मण ने सीता देवी का सन्देश सिर झुकाकर सुना और आश्वासन दिया कि वह उसे महाराज तक पहुंचा देगा । तब लक्ष्मण वहां से चला गया । उसके जाने पर सीता फूट फूटकर रोने लगी। उसके रोने का शब्द सुनकर मोरों ने नाचना, वृक्षों ने फूलना और हरिणियों ने मुंह का कुशाग्रास छोड़ दिया । उस सती के दु:ख से दु:खी होकर मानो सारा तपोवन रो पड़ा । उसी समय कुशा और ईंधन के संचय के लिए घूमते हुए मुनि वाल्मीकि, क्रौंच-वध से दु:खी हो, जिनकी आत्मा से सर्वप्रथम श्लोक प्रकट हुआ था, सीता के रोने का शब्द सुनकर वहां आ पहुंचे। मुनि को देखकर सीता ने आंखों पर छाए हुए आंसुओं को पोंछ डाला और विलाप छोड़कर चरणों में झुककर प्रणाम किया । मुनि ने उसके चेहरे को देखकर पहचान लिया कि वह दोहद के चिह्नों से युक्त है और सुपुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया । फिर कहा मैं समाधि द्वारा जान चुका हूं कि तुझे, झूठे अपवाद से घबराकर, तेरे पति ने त्याग दिया है । बेटी, इसका दु:ख मत करना । तु यहां अपने पिता के दूसरे घर में ही आ गई है । तीनों लोकों के कष्टदायी कांटों को निकालने वाले, प्रतिज्ञा को पूर्ण करनेवाले और विनयशील राम ने निर्दोष होते हुए भी तेरे साथ दोषी जैसा व्यवहार किया इस कारण राम से मैं रुष्ट हूं । तेरा यशस्वी श्वसुर मेरा मित्र था । तेरा पिता विद्वानों को भी मोक्षसंबंधी उपदेश देनेवाला है, तू स्वयं पति को देवता माननेवाली सती स्त्रियों में मूर्धन्य है, ऐसी कौन-सी चीज़ है जो तुझे मेरी सहानुभूति का पात्र नहीं बनाती? सो पुत्री, इस तपोवन में, जहां तपस्वियों के साथ रहने के कारण हिंसक जन्तु भी अहिंसक बन जाते हैं, तू निर्भय होकर निवास कर । सन्तान होने पर उनके जातकर्मादि संस्कार यहीं पर हो जाएंगे । मुनियों के तटवर्ती आश्रमों से सुशोभित, पापों का हरण करने वाली सरयू में स्नान और उसकी रेती में इष्ट देवताओं का पूजन करने से तेरे मन की उदासी जाती रहेगी । मुनियों की वाक्पटु कन्याएं ऋतु के पुष्पों, फलों और स्वयं ही उत्पन्न होनेवाली बलि के योग्य चीज़ों को जंगलों से ला-लाकर तेरे नवीन दु:ख से घायल मन को बहलाया करेंगी। आश्रम के नन्हें-नन्हें पौधों को शक्ति-अनुसार घड़ों के जल से सींचकर, सन्तान- उत्पत्ति से पहले ही तू बच्चों को दूध पिलाने का सुख प्राप्त कर सकेगी । इस प्रकार आश्वासन देकर, ऋषि वाल्मीकि जनक- नन्दिनी को अपने आश्रम में ले गए और उसे उसके दु:ख से दु: खी सहृदय तपस्वियों के हाथ में सौंप दिया । तपस्वियों ने रात्रि के समय सीता के निवास के लिए जो कुटीर सन्नद्ध किया, उसमें इंगुदी के तेल से दीपक जलाने की व्यवस्था थी और शुद्ध मृग-चर्म का बिस्तर बिछा हुआ था। वहां वल्कल धारिणी सीता प्रतिदिन स्नान से विशुद्ध होती और अतिथियों की सेवा का पुण्य-लाभ करती हुई, पति की सन्तान के निमित्त जीवन-यात्रा तय करने लगी । सम्भव है, अब महाराज के मन में दया का भाव उत्पन्न हो जाए ऐसा सोचकर लक्ष्मण ने सीता का दिया हुआ करुणा- जनक सन्देश अपने बड़े भाई को सुना दिया । उसे सुनकर राम की आंखों में सहसा आंसू आ गए, जैसे पौष माह का चन्द्रमा ओस से धुंधला हो जाता है। कारण यह कि राम ने सीता को बदनामी के डर से पृथक् किया था, मन से पृथक् नहीं किया था । शीघ्र ही राम ने शोक के आवेश को धैर्य से दबा लिया और सब भाइयों के साथ मिलकर आसक्ति से शून्य होकर शासन के कार्य में लग गये । राजलक्ष्मी मानो सौत के हट जाने से निश्चिन्त होकर, राम की बगल में सुख से विश्राम करने लगी। जब सीता को यह समाचार मिला कि उसका परित्याग करके राम ने दूसरा विवाह नहीं किया और यह भी सुना कि अश्वमेध यज्ञ में सहधर्मिणी के स्थान पर उसकी स्वर्णमयी मूर्ति को स्थापित किया गया है, तब पति-वियोग का बहुत भारी दु:ख भी उसे कुछ सा प्रतीत होने लगा ।

रघुवंश महाकाव्य चौदहवां सर्ग का संक्षिप्त कथासार सम्पूर्ण हुआ॥ १४ ॥

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