रघुवंशं सर्ग ७ कालिदासकृतम् || Raghuvansham Sarga 7
इससे पूर्व महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् सर्ग 6 में आपने… सुनन्दा ने इन्दुमती के कहने पर जयमाला राजकुमार अज के गले में पहना दिया,यहाँ तक की कथा पढ़ा । अब इससे आगे की कथा रघुवंशम् सर्ग 7 में पढ़ेंगे-रघुवंशं सर्ग ७ कालिदासकृतम्
रघुवंशमहाकाव्यम् सप्तम सर्ग
रघुवंशं सर्ग ७ कालिदासकृतम्
रघुवंशम् सातवां सर्ग
अथोपयन्त्रा सदृशेण युक्तां स्कन्देन साक्षादिव देवसेनाम् ।
स्वसारमादाय विदर्भनाथः पुरप्रवेशाभिमुखो बभूव ॥ ७-१॥
इसके बाद विदर्भ नरेश भोज, योग्य वर (अज) से युक्त (अत एव ) साक्षात् स्कन्द से युक्त देवसेना (स्कन्द-पक्षी) के समान, बहन (इन्दुमती) को लेकर नगर में प्रवेश करने के लिये चले ॥१॥
सेनानिवेशान्पृथिवीक्षितोऽपि जग्मुर्विभातग्रहमन्दभासः ।
भोज्यां प्रति व्यर्थमनोरथत्वाद्रूपेषु वेशेषु च साभ्यसूया ॥ ७-२॥
इन्दुमति के प्रति असफल मनोरथ होने से प्रातःकाल की ताराओं के समान फीके पड़े हुए तथा अपने रूप और वेष से ईर्ष्या करते हुए राजालोग भी शिविरों को गये ।। २ ॥
सांनिध्ययोगात्किल तत्र शच्याः स्वयंवरक्षोभकृतामभावः ।
काकुत्स्थमुद्दिश्य समत्सरोऽपि शशाम तेन क्षितिपाललोकः ॥ ७-३॥
वहाँ (स्वयंवर स्थल में) इन्द्राणी के सामीप्य रहने से स्वयंवर में विघ्न करनेवालों का अभाव रहा अर्थात् स्वयंवर में कोई गड़बड़ी नहीं कर सका, इस कारण अज को लक्ष्य कर ईर्ष्यालु भी राजालोग शान्त रहे ॥३॥
तावत्प्रकीर्णाभिनवोपचारमिन्द्रायुधद्योतिततोरणाङ्कम् ।
वरः सवध्वा सह राजमार्गं प्राप ध्वजच्छायनिवारितोष्णम् ॥ ७-४॥
वे ‘अज’ वधू इन्दुमती के साथ, सर्वत्र नये २ साधनोंवाले, इन्द्रधनुष के समान शोभमान तोरणों से युक्त और पताकाओं से धूपरहित मुख्य सड़क पर पहुंचे ॥ ४ ॥
ततस्तदालोकनतत्पराणां सौधेषु चामीकरजालवत्सु ।
बभूवुरित्थं पुरसुन्दरीणां त्यक्तान्यकार्याणि विचेष्टितानि ॥ ७-५॥
इसके बाद सुनहले झरोखोंवाले महलों में उन्हें (इन्दुमती तथा अज को) देखने के लिये तैयार नागरिक सुन्दरियों का अन्यान्य कार्यों को छोड़कर इस प्रकार की (श्लो०६-१०) चेष्टाएं हुई ॥५॥
आलोकमार्गं सहसा व्रजन्त्या कयाचिदुद्वेष्टनवान्तमाल्यः ।
बद्धुं न संभावित एव तावत्करेण रुद्धोऽपि च केशपाशः ॥ ७-६॥
खिड़की के रास्ते पर शीघ्रता से जाती हुई किसी स्त्री ने ढीला होने से गिरी हुई पुष्प माला वाले (अत एव) हाथ पकड़े हुए केश-समूह अर्थात् चोटी को नहीं ही बांधा ॥६॥
प्रसाधिकालम्बितमग्रपादमाक्षिप्य काचिद्द्रवरागमेव ।
उत्सृष्टलीलागतिरागवाक्षादलक्तकाङ्कां पदवीं ततान ॥ ७-७॥
किसी स्त्री ने महावर लगाती हुई दासी आदि से आलम्बित पैर के अग्रभाग को गीला ही खैंचकर लीला-पूर्वक गमन को छोड़कर अर्थात् जल्दी २ जाती हुई, खिड़की तक ( गीला होने से) महावर से युक्त पैरों के चिन्ह को बना दिया ॥ ७ ॥
विलोचनं दक्षिणमञ्जनेन संभाव्य तद्वञ्चितवामनेत्रा।
तथैव वातायनसंनिकर्षं ययौ शलाकामपरा वहन्ती ॥ ७-८॥
दूसरी स्त्री दहनी आंख में अंजन लगाकर वायीं आंख में विना अंजन लगाये ही सलाई लिए हुए झरोखे के पास पहुंच गई ॥ ८॥
जालान्तरप्रेषितदृष्टिरन्या प्रस्थानभिन्नां न बबन्ध नीवीम् ।
नाभिप्रविष्टाभरणप्रभेन हस्तेन तस्थाववलम्ब्य वासः ॥ ७-९॥
झरोखे के मध्य से देखती हुई दूसरी स्त्री ने (शीघ्र) चलने से खुली हुई नीवी (फुफुती, फुफुनी) को नहीं बाधा, (किन्तु ) वह नाभि में प्रविष्ट होती हुई कङ्कण की कान्तिवाले हाथ से कपड़े को पकड़कर (इन्दुमती तथा अज को देखती हुई) खड़ी रही॥९॥
अर्धाञ्चिता सत्वरमुत्थितायाः पदे पदे दुर्निमिते गलन्ती ।
कस्याश्चिदासीद्रशना तदानीमङ्गुष्ठमूलार्पितसूत्रशेषा ॥ ७-१०॥
शीघ्रता से उठी हुई किसी स्त्री को आधी गुथी हुई तथा शीघ्र चलने से पग २ पर गिरती हुई करधनी का ( झरोखे के पास पहुंचने पर ) अंगूठे में बांधा हुआ केवल धागा ही बच गया। (शीघ्रता से चलने के कारण उसे सम्हालने का ध्यान नहीं रहने से रास्ते में ही सब मणि गिर पड़े)॥१०॥
तासां मुखैरासवगन्धगर्भैर्व्याप्तान्तराः सान्द्रकुतूहलानाम् ।
विलोलनेत्रभ्रमरैर्गवाक्षाः सहस्रपत्राभरणा इवासन् ॥ ७-११॥
(वधू-वर को देखने के लिये) अत्यन्त कौतूहलवाली उन स्त्रीयो के मदिरापान से गन्धयुक्त तथा चञ्चल नेत्र रूप भ्रमरवाले मुखों से व्याप्त अवकाशवाले अर्थात् ठसाठस भरे हुए झरोखे कमलों से अलंकृत के समान हो गये ! (कमल में गन्ध तथा भौरे रहते हैं यहां उनके मुख में मदिरा का गन्ध तथा नेत्ररूपी भ्रमर थे। ) ॥ ११ ॥
ता राघवं दृष्टिभिरापिबन्त्यो नार्यो न जग्मुर्विषयान्तराणि ।
तथा हि शेषेन्द्रियवृत्तिरासां सर्वात्मना चक्षुरिव प्रविष्टा ॥ ७-१२॥
उस रघुपुत्र अज को अच्छी तरह देखती हुई स्त्रीयों ने दूसरे विषयों को नहीं जाना (अन्यत्र कहाँ क्या हो रहा है। इस विषय को कुछ भी नहीं जाना ), क्योंकि इन स्त्रीयों की दूसरी इन्द्रियों का व्यापार मानों नेत्रों में प्रविष्ट हो गया था ॥ १२ ॥
स्थाने वृता भूपतिभिः परोक्षैः स्वयंवरं साधुममंस्त भोज्या ।
पद्मेव नारायणमन्यथासौ लभेत कान्तं कथमात्मतुल्यम् ॥ ७-१३॥
‘परोक्ष में स्थित (अन्यान्य ) राजाओं से वरण की गयी (‘इन्दुमती मेरी ही पत्नी है’ ऐसा समझी गयी) इन्दुमती ने स्वयंवर को ही अच्छा समझा’ यह ठीक हुआ, नहीं तो यह इन्दुमती विष्णु भगवान्को लक्ष्मी के समान अपने अनुरूप पति को कैसे पाती? ॥ १३ ॥
परस्परेण स्पृहणीयशोभं न चेदिदं द्वन्द्वमयोजयिष्यत् ।
अस्मिन्द्वये रूपविधानयत्नः पत्युः प्रजानां वितथोऽभविष्यत् ॥ ७-१४॥
स्पृहा करनेयोग्य शोभावाली यह जोड़ी (इन्दुमती तथा अज) यदि परस्पर में नहीं मिलते, तब ब्रह्मा का इन दोनों में सौन्दर्य बनाने का परिश्रम निष्फल हो जाता ।। १४ ॥
रतिस्मरौ नूनमिमावभूतां राज्ञां सहस्रेषु तथा हि बाला ।
गतेयमात्मप्रतिरूपमेव मनो हि जन्मान्तरसंगतिज्ञम् ॥ ७-१५॥
निश्चय ही ये दोनों (पूर्वजन्म में ) रति तथा कामदेव थे (और इस जन्म में) इन्दुमती तथा अजरूप में उत्पन्न हुए है, क्योंकि कुमारी इस इन्दुमती ने हजारों राजाओं के बीच में इनको प्राप्त कर लिया । मन दूसरे जन्म की सङ्गति का ज्ञाता ( जानकार ) होता है ॥ १५॥
इत्युद्गताः पौरवधूमुखेभ्यः शृण्वन्कथाः श्रोत्रसुखाः कुमारः ।
उद्भासितं मङ्गलसंविधाभिः संबन्धिनः सद्म समाससाद ॥ ७-१६॥
इस प्रकार (श्लो० १३-१५) नगर को स्त्रीयों के मुख से निकली हुई एवं कर्णप्रिय बातों को सुनते हुए कुमार ‘अज’ ने मङ्गलमय सामग्रियों से शोभित, सम्बन्धी अर्थात् नातेदार (भोज) के घर को प्राप्त किया ॥ १६ ॥
ततोऽवतीर्याशु करेणुकायाः स कामरूपेश्वरदत्तहस्तः ।
वैदर्भनिर्दिष्टमथो विवेश नारीमनांसीव चतुष्कमन्तः ॥ ७-१७॥
तदनन्तर वे अज कामरूप (कामाक्षा) देश के राजा पर हाथ रखकर अर्थात् हाथ का सहारा देकर हथिनी से शीघ्र उतर गये। बाद विदर्भ-नरेश भोज के बतलाये हुए चौक (अन्तःपुर के मध्यवती आँगन ) में स्त्रियों के मन के समान प्रवेश किये ॥१७॥
महार्हसिंहासनसंस्थितोऽसौ सरत्नमर्घ्यं मधुपर्कमिश्रम् ।
भोजोपनीतं च दुकूलयुग्मं जग्राह सार्धं वनिताकटाक्षैः ॥ ७-१८॥
बहुमूल्य सिंहासन पर बैठे हुए उस कुमार अज ने भोज से लाये हुए रत्नों के सहित, मधुपर्कयुक्त अर्ध्य तथा दो वस्त्रों (धोती-दुपट्टा) को स्त्रीयों के कटाक्षों के साथ ग्रहण किया ॥१८॥
दुकूलवासाः स वधूसमीपं निन्ये विनीतैरवरोधरक्षैः ।
वेलासकाशं स्फुटफेनराशिर्नवैरुदन्वानिव चन्द्रपादैः ॥ ७-१९॥
रेशमी वस्त्र पहने हुए उस अज को अन्तःपुर के रक्षक वधू (इन्दुमती ) के पास इस प्रकार ले गये, जिस प्रकार चन्द्रकिरण स्पष्ट फेन-समूहवाले समुद्र को तीर के पास ले जाती है ॥१९॥
तत्रार्चितो भोजपतेः पुरोधा हुत्वाग्निमाज्यादिभिरग्निकल्पः ।
तमेव चाधाय विवाहसाक्ष्ये वधूवरौ संगमयांचकार ॥ ७-२०॥
वहां पर सत्कृत तथा अग्नि के समान (तेजस्वी) भोज राजा के पुरोहित ने घी आदि से अग्नि में हवनकर उसी (अग्नि) को विवाह में साक्षी बनाकर वधू-वर (इन्दुमती-अज) को संयुक्त (विवाह-सम्बद्ध ) कर दिया ॥ २०॥
हस्तेन हस्तं परिगृह्य वध्वाः स राजसूनुः सुतरां चकासे ।
अनन्तराशोकलताप्रवालं प्राप्येव चूतः प्रतिपल्लवेन ॥ ७-२१॥
वे राजकुमार अज (अपने ) हाथ से वधू इन्दुमती का हाथ पकड़कर समीपस्थ अशोक लता के नवपल्लव को अपने पल्लव से प्राप्त कर आम्रवृक्ष के समान अत्यन्त शोभित हुए ॥ २१॥
आसीद्वरः कण्टकितप्रकोष्ठः स्विन्नाङ्गुलिः संववृते कुमारी ।
तस्मिन्द्वये तत्क्षणमात्मवृत्तिः समं विभक्तेव मनोभवेन ॥ ७-२२॥
वर अज का प्रकोष्ठ (हाथ की कोहुनी तथा कलाइ का मध्यभाग) रोमांचित हो गया तथा कुमारी इन्दुमती की अङ्गुलियां पसीज गयीं (स्वेदयुक्त हो गयी)। हाथों के उस स्पर्श ने उन दोनों ( वधू-वर ) के कामवृत्ति को मानों बराबर २ बांट दिया ।। २२ ।।
तयोरपाङ्गप्रतिसारितानि क्रियासमापत्तिनिवर्तितानि ।
ह्रीयन्त्रणामानशिरे मनोज्ञामन्योन्यलोलानि विलोचनानि ॥ ७-२३॥
नेत्रप्रान्त तक खुली हुई, दर्शनरूप कार्य के स्वेच्छा से हो जाने पर हटाई हुई उन दोनों की आँखें मनोहर लज्जा परवशता को प्राप्त हुई। (विना चाहना के भी उन्होंने आंखों को फाड़कर एक दूसरे को अच्छी तरह एकाएक देख लिया, किन्तु पुनः शीघ्र ही लज्जा से आंखों को जो सङ्कुचित कर लिया वह बहुत सुन्दर मालूम पड़ा ।) ॥ २३ ॥
प्रदक्षिणप्रक्रमणात्कृशानोरुदर्चिषस्तन्मिथुनं चकासे ।
मेरोरुपान्तेष्विव वर्तमानमन्योन्यसंसक्तमहस्त्रियामम् ॥ ७-२४॥
जलती हुई अग्नि का प्रदक्षिणा करने से परस्पर में मिली हुई (वधू-वर की ) वह जोड़ी सुमेरु पर्वत के समीप में अर्थात् चारो ओर चक्कर लगाती हुई परस्पर मिलित दिन-रात के समान शोभित हुई ॥ २४ ॥
नितम्बगुर्वी गुरुणा प्रयुक्ता वधूर्विधातृप्रतिमेन तेन ।
चकार सा मत्तचकोरनेत्रा लज्जावती लाजविसर्गमग्नौ ॥ ७-२५॥
बड़े २ नितम्बोवाली, चकोर के समान नेत्रवाली तथा सलज्ज वह इन्दुमती ब्रह्मा के तुल्य गुरु अर्थात् पुरोहित के कहने पर अग्नि में लावा (धान की खीलों को) छोड़ा ( अग्नि में लाजाहुति की) ॥२५॥
हविःशमीपल्लवलाजगन्धी पुण्यः कृशानोरुदियाय धूमः ।
कपोलसंसर्पिशिखः स तस्या मुहूर्तकर्णोत्पलतां प्रपेदे ॥ ७-२६॥
हविष्य, शमी-पल्लव तथा खीलों ( धान के लावे) के गन्धवाला पवित्र (जो) धुंआ अग्नि से निकला, कपोल तक पहुंचे हुए अग्रभाग वाला वह धुंआ थोड़े समय के लिये उस इन्दुमती का कर्णभूषण बन गया ॥ २६ ॥
तदञ्जनक्लेदसमाकुलाक्षं प्रम्लानबीजाङ्कुरकर्णपूरम् ।
वधूमुखं पाटलगन्धलेखमाचारधूमग्रहणाद्बभूव ॥ ७-२७॥
आचार प्राप्त धूम-ग्रहण करने से वधू इन्दुमती का मुख अञ्जन के भीग जाने से व्याकुल नेत्रोंवाला तथा लाल कपोलमण्डल से युक्त हो गया ॥ २७ ॥
तौ स्नातकैर्बन्धुमता च राज्ञा पुरंध्रिभिश्च क्रमशः प्रयुक्तम् ।
कन्याकुमारौ कनकासनस्थावार्द्राक्षतारोपणमन्वभूताम् ॥ ७-२८॥
सुवर्ण के आसन पर बैठे हुए वधू इन्दुमती तथा कुमार अज ने क्रम से स्नातकों, परिवार सहित राजा भोज और सौभाग्यवती स्त्रीयों के द्वारा किये गये आद्र अक्षतो के आरोपण को प्राप्त किया ॥ २८॥
इति स्वसुर्भोजकुलप्रदीपः संपाद्य पाणिग्रहणं स राजा ।
महीपतीनां पृथगर्हणार्थं समादिदेशाधिकृतानधिश्रीः ॥ ७-२९॥
सम्पत्तिशाली तथा भोजकुलदीपक राजा ने इस प्रकार (श्लोक. १८-२८) बहन इन्दुमती के विवाह को पूर्णकर राजाओं की अलग २ पूजा (आदर-सत्कार ) करने के लिये अधिकारियों को आदेश दिया ।। २९॥
लिङ्गैर्मुदः संवृतविक्रियास्ते ह्रदाः प्रसन्ना इव गूढनक्राः ।
वैदर्भमामन्त्र्य ययुस्तदीयां प्रत्यर्प्य पूजामुपदाछलेन ॥ ७-३०॥
(बाहरी) हर्ष के चिन्हों से छिपाये हुए विकार (भीतरी द्वेष) वाले अत एव (जल में डूबकर ) छिपे हुए मगर से युक्त निर्मल तडाग के समान वे राजालोग विदर्भ नरेश भोज के यहाँ से पूजा (में आयी हुई मणि आदि सामग्रियों) को भेंट के बहाने उन्हें लौटाकर और उनसे पूछकर (वहां से) चले गये ।। ३०।।
स राजलोकः कृतपूर्वसंविदारम्भसिद्धौ समयोपलभ्यम् ।
आदास्यमानः प्रमदामिषं तदावृत्य पन्थानमजस्य तस्थौ ॥ ७-३१॥
आरम्भ किये गये कार्य की सिद्धि में पहले से ही सङ्केत किये हुए (अमुक स्थान पर हम लोग मिलकर रास्ते में दो अज से लड़कर इन्दुमती को छीन लेंगे ऐसा गुप्त सलाहकर ) समय पर (पाठान्तर से-समर में ) मिलनेवाले इन्दुमती रूप मांस अर्थात् भोग्य पदार्थ को भविष्य में लेनेवाले वे राजा लोग अज के मार्ग को रोककर ठहर गये ॥ ३१॥
भर्तापि तावत्क्रथकैशिकानामनुष्ठितानन्तरजाविवाहः ।
सत्त्वानुरूपाहरणीकृतश्रीः प्रास्थापयद्राघवमन्वगाच्च ॥ ७-३२॥
छोटी बहन इन्दुमती विवाह को किये हुए क्रथकैशिक (विदर्भ) के राजा भोज भी शक्ति के अनुसार दहेज देकर अज को विदा किये तथा स्वयं भी उनके पीछे चले ॥ ३२ ॥
तिस्रस्त्रिलोकप्रथितेन सार्धमजेन मार्गे वसतीरुषित्वा ।
तस्मादपावर्तत कुण्डिनेशः पर्वात्यये सोम इवोष्णरश्मेः ॥ ७-३३॥
कुण्डिन-(विदर्भ) नरेश भोज त्रिकोक में विख्यात अज के साथ रास्ते में तीन पड़ावों पर निवास कर पर्व ( अमावस्या ) के बीतने पर सूर्य से चन्द्रमा के समान उस (अज) से वापस लौटे। (अमावस्या को चन्द्रमा तथा सूर्य एक साथ रहते है तथा बाद में चन्द्रमा सूर्य से अलग होते हैं। यह ज्योतिषशास्त्र का सिद्धान्त है)॥३३ ।।
प्रमन्यवः प्रागपि कोसलेन्द्रे प्रत्येकमात्तस्वतया बभूवुः ।
अतो नृपश्चक्षमिरे समेताः स्त्रीरत्नलाभं न तदाजत्मस्य ॥ ७-३४॥
राजा लोग पहले (रघु के दिग्विजय-समय में) भी हरएक की सम्पत्ति को ग्रहण कर लेने से कोसलाधीश रघु पर रुष्ट थे, इस कारण सम्मिलित हुए वे उन (रघु) के पुत्र अज की स्त्री रत्नप्राप्ति को नहीं सहन किये ॥ ३४ ।।
तमुद्वहन्तं पथि भोजकन्यां रुरोध राजन्यगण स दृप्तः ।
बलिप्रदिष्टां श्रियमाददानं त्रैविक्रमं पादमिवेन्द्रशत्रुः ॥ ७-३५॥
उद्धत उस क्षत्रिय-राज-समूह ने इन्दुमती को ले जाते हुए उस अज को, बलि राजा से दी हुई लक्ष्मी को लेते हुए वामन के चरण को इन्द्रशत्रु प्रह्लाद के समान रास्ते में रोक लिया ॥ ३५ ॥
पौराणिक कथा-दैत्यराज बलि के यज्ञ में जाकर वामनरूपधारी विष्णु भगवान् ने साढे तीन पग पृथ्वी को दान में उनसे प्राप्त किया, तदनन्तर विराटरूप धारणकर पृथ्वी को स्वाधीन करने के लिए विष्णु भगवान् नापने लगे तब विरोचन के विरोध करने पर भी पूर्व बात को स्मरण करते हुए प्रह्लाद ने विष्णु भगवान्के चरणकमलो को रोक लिया था।
तस्याः स रक्षार्थमनल्पयोधमादिश्य पित्र्यं सचिवं कुमारः ।
प्रत्यग्रहीत्पार्थिववाहिनीं तां भागीरथीं शोण इवोत्तरङ्गः ॥ ७-३६॥
उस कुमार अज ने उस इन्दुमती को रक्षा के लिये बहुत योद्धाओं से युक्त, पिता के क्रम से रहनेवाले अर्थात् विश्वासपात्र मन्त्री को नियुक्त कर, भागीरथी को उन्नत तरंगोवाले ‘शोणभद्र’ नामक मदाह्रद के समान राजाओं के उस सेना को रोका ।। ३६ ॥
पत्तिः पदातिं रथिनं रथेशस्तुरंगसादी तुरगाधिरूढम् ।
यन्ता गजस्याभ्यपतद्गजस्थं तुल्यप्रतिद्वन्द्वि बभूव युद्धम् ॥ ७-३७॥
पैदल पैदल के साथ, रथ सवार रथ सवार के साथ, घुड़सवार घुड़सवार के साथ और हाथी पर सवार योद्धा हाथी पर सवार हुए योद्धा के साथ में भिड़ गये, वह युद्ध समान प्रतिभटोवाला हुआ ॥ ३७॥
नदत्सु तूर्येष्वविभाव्यवाचो नोदीरयन्ति स्म कुलोपदेशान् ।
बाणाक्षरैरेव परस्परस्य नामोर्जितं चापभृतः शशंसुः ॥ ७-३८॥
तुरहियों (वाद्य-विशेषों) के बजते रहने पर (परस्पर में कथित ) वचन को नहीं समझने वाले धनुर्धारी योद्धा लोग अपने वंश की प्रसिद्धि को नहीं कहते थे, किन्तु वाणी पर लिखे गये अक्षरो से ही ( अपने २) प्रसिद्ध नाम को ( या नाम तथा पराक्रम को) बतलाते थे ॥ ३८ ॥
उत्थापितः संयति रेणुरश्वैः सान्द्रीकृतः स्यन्दनवंशचक्रैः ।
विस्तारितः कुञ्जरकर्णतालैर्नेत्रक्रमेणोपरुरोध सूर्यम् ॥ ७-३९॥
युद्ध में घोड़ों (के खुरों) से उत्पन्न की गयी, रथ-समूह को पहियों से सघन की गयी तथा हाथियों के कानों के फटकारने से फैलाई गयी धूलि नेत्र के क्रम से वन के समान सूर्य को रोक (छिपा ) लिया अर्थात् उक्त धूलि से पहले किसी को कुछ वस्तु दिखलाई नहीं पड़ती थी, पीछे उससे सूर्य भी छिप गया ॥ ३९॥
मत्स्यध्वजा वायुवशाद्विदीर्णैर्मुखैः प्रवृद्धध्वजिनीरजांसि ।
बभुः पिबन्तः परमार्थमत्स्याः पर्याविलानीव नवोदकानि ॥ ७-४०॥
वायु के कारण बाये (फैलाये ) हुए मुखों से सेना की बढ़ी हुई धूलि को पीती हुई, मछलियो के आकारवाली पताकायें बरसाती मलिन पानी पीती हुई वास्तविक मछलियों के समान शोभित हुई ॥४०॥
रथो रथाङ्गध्वनिना विजज्ञे विलोलघण्टाक्वणितेन नागः ।
स्वभर्तुनामग्रहणाद्बभूव सान्द्रे रजस्यात्मपरावबोधः ॥ ७-४१॥
धूलि के सघन होने पर पहियों के शब्द से रथ तथा हिलती हुई घंटाओं की ध्वनियों से हाथी मालूम पड़ते थे और अपने स्वामी का नाम लेने से अपने-पराये का ज्ञान होता था ॥ ४१ ॥
आवृण्वतो लोचनमार्गमाजौ रजोन्धकारस्य विजृम्भितस्य ।
शस्त्रक्षताश्वद्वीपवीरजन्मा बालारुणोऽभूद्रुधिरप्रवाहः ॥ ७-४२॥
दृष्टिपथ को रोकते हुए तथा बढ़े हुए धूलि रूप अन्धकार का, शस्त्रों से घायल घोड़ों, हाथियों तथा शूरवीरों (के शरीर) से उत्पन्न रक्त का प्रवाह बाल सूर्य हुआ । (जैसे रात्रि में अन्धकार से कुछ नहीं दिखाई पड़ता, दृष्टिमार्ग को रोकनेवाले उस अन्धकार के बाद लाल रंगवाले प्रात:कालीन सूर्य का उदय होता है और कुछ समय के बाद ही वह अन्धकार भी नष्ट हो जाता है, वैसे ही युद्ध में आहत अश्व, हाथी तथा वीरों से उत्पन्न रक्तप्रवाह दृष्टिरोधक धूलि का लाल सूर्य मालूम पड़ता था। इससे इस धूलि का शीघ्र ही विनाश भी सूचित किया गया है, जैसा कि अग्रिम श्लोक में वर्णित है। ) ॥ ४२ ॥
स च्छिन्नमूलः क्षतजेन रेणुस्तस्योपरिष्टात्पवनापधूतः ।
अङ्गारशेषस्य हुताशनस्य पूर्वोत्थितो धूम इवाबभासे ॥ ७-४३॥
(नीचे भूतल में ) रक्त से नष्ट की गयी तथा उसके ऊपर में हवा से कम्पित (इधर-उधर उड़ायी जाती हुई) वह धूलि अङ्गार मात्र बची हुई अग्नि के, पहले ऊपर उठे हुए धुंएँ के समान शोभमान होती थी ॥ ४३ ॥
प्रहारमूर्च्छापगमे रथस्था यन्तॄनुपालभ्य निवर्तिताश्वान् ।
यैः सादिता लक्षितपूर्वकेतूंस्तानेव सामर्षतया निजघ्नुः ॥ ७-४४॥
रथ पर चढ़े हुए वीर प्रहार की मूर्छा के दूर होने पर (मूच्छितावस्था में) घोड़ों को ( युद्धभूमि से) वापस लानेवाले सारथियों को उपालम्भ देकर (तुम युद्ध भूमि से हमारे रथ को वापस लाये यह अच्छा नहीं किया, फिर वहीं रथ को ले चलो इत्यादि उलाहना देकर) जिनसे पहले घायल हुए थे, पहले लक्ष्य की गयी पताकाओं वाले उन योद्धाओं पर ही क्रोधित भाव से प्रहार किया ॥ ४४ ॥
अप्यर्धमार्गे परबाणलूना धनुर्भृतां हस्तवतां पृषत्काः ।
संप्रापुरेवात्मजवानुवृत्त्या पूर्वार्धभागैः फलिभिः शरव्यम् ॥ ७-४५॥
फुर्तीले हाथवाले धनुर्धारियों के, दूसरों के बाणों से आधे मार्ग में ( लक्ष्य तक पहुँचने पहले ही) कटे हुए भी बाण अपने वेग के अनुरूप फल (बाण का अग्रभाग ) से युक्त पूर्वाद्ध भागों से निशानाओं को प्राप्त ही कर लिये (आधे मार्ग में दो टुकड़ा होकर भी निपुण धनुर्धारियों के बाणों ने अपने लक्ष्य का वेध कर ही दिया ) ॥ ४५ ॥
आधोरणानां गजसंनिपाते शिरांसि चक्रैर्निशितैः क्षुराग्रैः ।
हतान्यपि श्येननखाग्रकोटिव्यासक्तकेशानि चिरेण पेतुः ॥ ७-४६॥
हाथियों की लड़ाई में तेज एवं क्षुर के समान फलवाले चक्रों से कटे हुए भी, बाज पक्षियों के चंगुलों के नखाग्र में फंसे हुए हाथीवानों के मस्तक देर से (भूमि पर) गिरे । (मस्तक कटने के पहले ही उन पर बाज मंडराते थे, इतने में ही वे कट गये और उनको लेकर वे उड़े, किन्तु भारी होने से चंगुल के नखों में बालों में फंसने से विलम्ब से नीचे गिर पड़े। यहां मस्तकों के छिन्न होने के पहले बाजों के उनके मस्तकों पर मंडराने से कवि ने उनके अशुभ शकुन को सूचित किया है) ४६
पूर्वं प्रहर्ता न जघान भूयः प्रतिप्रहाराक्षममश्वसादी ।
तुरंगमस्कन्धनिषण्णदेहं प्रत्याश्वसन्तं रिपुमाचकाङ्क्ष ॥ ७-४७॥
पहले प्रहार करनेवाला घुड़सवार घोड़े के कन्धे पर पड़े हुए शरीरवाळे अर्थात् मूर्ञ्छित तथा प्रतिप्रहार ( जवाबी हमला) करने में असमर्थ उस शत्रु पर फिर प्रहार नहीं किया, किन्तु उसको होश में आने की प्रतीक्षा करने लगा। (इस वर्णन से यह युद्ध धर्माधर्म को विचार कर हो रहा था, यह संकेत किया गया है)॥४७॥
तनुत्यजां वर्मभृतां विकोशैबृहत्सु दन्तेष्वसिभिः पतद्भिः ।
उद्यन्तमग्निं शमयांबभूवुर्गजा विविग्नाः करशीकरेण ॥ ७-४८॥
(निःस्पृह होकर ) शरीर-त्याग करने को तैयार वर्म पहने हुए योद्धाओं की म्यान से निकली हुई तथा बड़े २ दातो पर पड़ती हुई तलवारों से निकलती अग्नि को व्याकुल हाथियों ने सूढ के शीकरों (फुत्कार करने से निकले हुए जल-कणों) से बुझाया ॥ ४८ ॥
शिलीमुखोत्कृत्तशिरःफलाढ्या च्युतैः शिरस्त्रैश्चषकोत्तरेव ।
रणक्षितिः शोणितमद्यकुल्या रराज मृत्योरिव पानभूमिः ॥ ७-४९॥
बाणों से कटे हुए मस्तक रूप फलों से परिपूर्ण, गिरे हुए शिरस्त्राण अर्थात् टोपरूप प्यालि. योवाली तथा रक्तरूपी मद्य के प्रवाहों वाली वह युद्धभूमि मृत्यु की (मद्य) पान-भूमि के समान शोभित हुई॥ ४९ ॥
उपान्तयोर्निष्कुषितं विहंगैराक्षिप्य तेभ्यः पिशितप्रियापि ।
केयूरकोटिक्षततालुदेशा शिवा भुजच्छेदमपाचकार ॥ ७-५०॥
पक्षियों से दोनों ओर नोचे गये बाहु के टुकड़े को उन ( पक्षियों) से छीनकर मांसप्रिय (मांस को चाहनेवाली) स्थारिनने (बाहू में लगी हुई) विजायठ के किनारे से तालु के कटने पर (उस बाहु का ) त्यागकर दिया ॥ ५० ॥
कश्चिद्विषत्खड्गहृतोत्तमाङ्गः सद्यो विमानप्रभुतामुपेत्य ।
वामाङ्गसंसक्तसुराङ्गनः स्वं नृत्यत्कबन्धं समरे ददर्श ॥ ७-५१॥
शत्रु को तलवार से छिन्नमस्तक कोई योद्धा विमान का मालिक अर्थात देव बनकर बांये भाग मे स्थित देवाङ्गना से युक्त होता हुआ युद्ध में नाचते (छटपटाते) हुए अपने धड़ को देखा।।५१॥
अन्योन्यसूतोन्मथनादभूतां तावेव सूतौ रथिनौ च कौचित् ।
व्यश्वौ गदाव्यायतसंप्रहारौ भग्नायुधौ बाहुविमर्दनिष्ठौ ॥ ७-५२॥
कोई दो योद्धा आपस के सारथियों के मरने से वे ही सारथि तथा रथी हो गये अर्थात् स्वयं रथ को हांकते हुए युद्ध करने लगे, (फिर ) घोड़ों के मर जाने पर गदायुद्ध करने लगे, (और फिर ) शस्त्र अर्थात् गदा के टूट जाने पर मल्ल युद्ध करने लगे। ५२ ।।
परस्परेण क्षतयोः प्रहर्त्रोरुत्क्रान्तवाय्वोः समकालमेव ।
अमर्त्यभावेऽपि कयोश्चिदासीदेकाप्सरःप्रार्थितयोर्विवादः ॥ ७-५३॥
आपस में ( एक दूसरे के प्रहार से ) मारे गये, एक साथ ही निकली हुई प्राणवायु वाले किसी एक ही अप्सरा को चाहने वाले दो योद्धाओं के देवत्व प्राप्त करने पर भी विवाद ही बना रहा ॥ ५३॥
व्यूहावुभौ तावितरेतरस्माद्भङ्गं जयं चापतुरव्यवस्थम् ।
पश्चात्पुरोमारुतयोः प्रवृद्धौ पर्यायवृत्येव महार्णवोर्मी ॥ ७-५४॥
वे दोनों ब्यूह (अजपक्षीय तथा राजपक्षीय सेना समूह) आगे तथा पीछे (या पूर्व और पश्चिम) वायु के पर्यायक्रम से बढ़े हुए महासमुद्र के दो तरंगों के समान आपस में एक दूसरे से अव्यवस्थित जय तथा पराजय को प्राप्त करते थे। (कभी अजपक्ष के सेना-समूह की जीत होती थी तथा कभी अन्यराजवृन्द पक्ष के सेना-समूह की जीत होती थी) ५४॥
परेण भग्नेऽपि बले महौजा ययावजः प्रत्यरिसैन्यमेव ।
धूमो निवर्त्येत समीरणेन यतस्तु कक्षस्तत एव वह्निः ॥ ७-५५॥
अपनी सेना के शत्रुओं से मारे जाने पर भी महाबली अज शत्रुओं की सेनाओं की ओर ही बढ़ते थे, हवा से धूम ( भले ही) निवृत्त हो जावे; किन्तु जहाँ घास रखती है, वही अग्नि बढ़ती है ॥५५॥
रथी निषङ्गी कवची धनुष्मान्दृप्तः स राजन्यकमेकवीरः ।
निवारयामास महावराहः कल्पक्षयोद्वृत्तमिवार्णवाम्भः ॥ ७-५६॥
रथसवार, तूणीर ( तरकस ) युक्त, कवच पहने हुए और धनुर्धारी, अकेला (असहाय ) उद्धत वीर उस अज ने क्षत्रिय राजाओं के समूह को, प्रलयकाल में मर्यादा को उलंघन करनेवाले समुद्र-जल को महावराह ( रूपधारी विष्णु भगवान् ) के समान रोक दिया ॥ ५६ ॥
स दक्षिणं तूणमुखेन वामं व्यापारयन्हस्तमलक्ष्यताजौ ।
आकर्णकृष्टा सकृदस्य योद्धुर्मौर्वीव बाणान्सुषुवे रिपुघ्नान् ॥ ७-५७॥
वह अज युद्ध में दाहिने हाथ को तरकस पर रखते हुए बड़े सुन्दर मालूम पड़ते थे। एक बार कान तक खाँची गयी योद्धा इस अज की प्रत्यंचा (धनुष की डोरी) मानो शत्रुनाशक बाणों को पैदा कर रही थी॥ ५७॥
स रोषदष्टाधिकलोहितोष्ठैर्व्यक्तोर्ध्वरेखा भृकुटीर्वहद्भिः ।
तस्तार गां भल्लनिकृत्तकण्ठैर्हूंकारगर्भैर्द्विषतां शिरोभिः ॥ ७-५८॥
उस अज ने क्रोध से काटे गये अत एव लाल ओठोंवाले, चढ़ी हुई टेढ़ी भृकुटीयों से युक्त, भाले से कटी हुई गर्दनवाले, (अत एव ) भीतर में ही हुङ्कार करनेवाले, शत्रुओ के मस्तकों से पृथ्वी को ढंक दिया ॥ ५८॥
सर्वैर्बलाङ्गैर्द्विरदप्रधानैः सर्वायुधैः कङ्कटभेदिभिश्च ।
सर्वप्रयत्नेन च भूमिपालास्तस्मिन्प्रजह्रुर्युधि सर्व एव ॥ ७-५९॥
हाथी हैं मुख्य जिसमें ऐसे सम्पूर्ण सेनाङ्गओं से ( गजदल, रथदल, अश्वदल तथा पैदल रूप चतुरङ्गिणी सेनाओं से ), कवच को विदीर्ण करनेवाले सम्पूर्ण शस्त्रों से और सब उपायों से सब राजा लोग युद्ध में अज पर ही प्रहार करने लगे ॥ ५९॥
सोऽस्त्रव्रजैश्छन्नरथः परेषां ध्वजाग्रमात्रेण बभूव लक्ष्यः ।
नीहारमग्नो दिनपूर्वभागः किंचित्प्रकाशेन विवस्वतेव ॥ ७-६०॥
शास्त्रों के शस्त्रसमूह से ढंके गए रथवाले वह अज केवळ ध्वजा के अगले भाग से उस प्रकार दिखलाई पड़ते थे, जिस प्रकार हिम से आच्छादित, दिन का प्रथम भाग कुछ २ प्रकाशमान सूर्य से लक्षीत होता है॥६०॥
प्रियंवदात्प्राप्तमसौ कुमारः प्रायुङ्क्त राजस्वधिराजसूनुः ।
गान्धर्वमस्त्रं कुसुमास्त्रकान्तः प्रस्वापनं स्वप्ननिवृत्तलौल्यः ॥ ७-६१॥
रघुवंशमहाकाव्यम् । महाराजकुमार, मदन के समान सुन्दर तथा जागरूक कुमार अज ने प्रियंवद ( नामक गन्धर्व) से प्राप्त ( ५/५९), गन्धर्व देवता वाले एवं नींद लानेवाले अस्त्र को राजाओं पर चलाया ॥६१॥
ततो धनुष्कर्षणमूढहस्तमेकांसपर्यस्तशिरस्त्रजालम् ।
तस्थौ ध्वजस्तम्भनिषण्णदेहं निद्राविधेयं नरदेवसैन्यम् ॥ ७-६२॥
तदनन्तर धनुष के खींचने में चेष्टारहित हाथवाला, एक कन्धे पर पड़े हुए शिरस्त्राण-समूह (टोपों) वाला, और ध्वजाओं के सहारे स्थित शरीरोवाला वह राज-सैन्य निद्रा के आधीन हो गया अर्थात् सो गया।। ६२॥
ततः प्रियोपात्तरसेऽधरोष्ठे निवेश्य दध्मौ जलजं कुमारः ।
तेन स्वहस्तार्जितमेकवीरः पिबन्यशो मूर्तमिवाबभासे ॥ ७-६३॥
इसके बाद कुमार अज ने प्रिया इन्दुमती से पीये गये रसवाले निचले ओष्ट पर शंख को रखकर बजाया, उससे मुख्य वीर (या बिना सहायक के वीर) वह अज अपने बाहुबल से उपार्जित मूर्तिधारी यश को पान करते हुए के समान शोममान हुए ॥६३ ॥
शङ्खस्वनाभिज्ञतया निवृत्तास्तं सन्नशत्रुं ददृशुः स्वयोधाः ।
निमीलितानामिव पङ्कजानां मध्ये स्फुरन्तं प्रतिमाशशाङ्कम् ॥ ७-६४॥
(अज की) शंख ध्वनि को पहचानने से वापस लौटे हुए अपने (अज पक्षवाले ) योद्धओं ने शत्रुओं को पराजित किये हुए अज को, मुकुलित (बन्दमुखवाले, अत एवं शोभाहीन) कमलों के बीच में प्रकाशित होते हुए प्रतिबिम्बित चन्द्रमा के समान देखा ॥ ६४ ॥
सशोणितैस्तेन शिलीमुखाग्रैर्निक्षेपिताः केतुषु पार्थिवानाम् ।
यशो हृतं संप्रति राघवेण न जीवितं वः कृपयेति वर्णाः ॥ ७-६५॥
‘इस समय रघुपूत्र अज ने तुमलोगों के यश को ले लिया तथा कृपाकर प्रागों को नहीं लिया’ इन अक्षरों को अज ने राजाओं की पताकाओं पर बाणों के रक्तलिप्त अग्रभागों (नोकों) से लिखवा दिया ॥६५॥
स चापकोटीनिहितैकबाहुः शिरस्त्रनिष्कर्षणभिन्नमौलिः ।
ललाटबद्धश्रमवारिबिन्दुर्भीतां प्रियामेत्य वचो बभाषे ॥ ७-६६॥
धनु के किनारे पर एक हाथ को रखे हुए, शीर्षण्य ( युद्धकाल में शिर की रक्षा के लिये पहने जानेवाला टोप) के नहीं रहने से शिथिल (बिखरे ) केशवाले और ललाट पर पसीने की बूंदों से युक्त वह अज भयभीत प्रिया (इन्दुमती ) के पास आकर बोले-॥६६॥
इतः परानर्भकहार्यशस्त्रान्वैदर्भि पश्यानुमता मयासि ।
एवंविधेनाहवचेष्टितेन त्वं प्रार्थ्यसे हस्तगता ममैभिः ॥ ७-६७॥
“हे विदर्भराजकुमारि ! बच्चे से छीनने योग्य अस्त्रों वाले शत्रुओं को देखो, मैं इन्हें देखने के लिये तुमको अनुमति देता हूं। इस प्रकार की ही युद्ध की ये चेष्टासे, मेरे हाथ में आयी हुई तुमको ये लोग ( हरण करना) चाहते हैं” ॥ ६७ ॥
तस्याः प्रतिद्वन्द्विभवाद्विषादात्सद्यो विमुक्तं मुखमाबभासे ।
निःश्वासबाष्पापगमात्प्रपन्नः प्रसादमात्मीयमिवात्मदर्शः ॥ ७-६८॥
वैरियों से उत्पन्न विषाद से तत्काल छूटा हुआ उस इन्दुमती का मुख, श्वासवायु के दूर होने से अपनी (स्वाभाविक) निर्मलता को प्राप्त दर्पण के समान अत्यन्त शोभने लगा ॥६८ ॥
हृष्टापि सा ह्रीविजिता न साक्षाद्वाग्भिः सखीनां प्रियमभ्यनन्दत् ।
स्थली नवाम्भःपृषताभिवृष्टा मयूरकेकाभिरिवाभ्रवृन्दम् ॥ ७-६९॥
(पति के पराक्रम से) प्रसन्न भी लज्जा से पराभूत उस इन्दुमती ने जिस प्रकार नये जल के बूंदों से सींची गयी स्थली ( विना जुती हुई भूमि) मेघ-समूह का अभिनन्दन स्वयं नहीं करती है, किन्तु मयूरो की केका ( मयूरों की बोली का नाम) से करती है, उसी प्रकार साक्षात (स्वयं हो) अपने वचनों से पति का अभिनन्दन नहीं किया, किन्तु सखियों के वचनों से अभिनन्दन किया ॥ ६९ ॥
इति शिरसि स वामं पादमाधाय राज्ञा – मुदवहदनवद्यां तामवद्यादपेतः ।
रथतुरगरजोभिस्तस्य रूक्षालकाग्रा समरविजयलक्ष्मीः सैव मूर्ता बभूव ॥ ७-७०॥
अनिन्दित वह अज इस प्रकार (शत्रुभूत) राजाओं के मस्तक पर बांये पर को रखकर अनिन्दनीय उस इन्दुमती को लेकर चले । रथों तथा घोड़ों की धूलि से रूखे केशाग्रवाली वह इन्दुमती ही मूर्तिमती विजयलक्ष्मी हुई ॥ ७० ॥
प्रथमपरिगतार्थस्तं रघुः संनिवृत्तं विजयिनमभिनन्द्य श्लाघ्यजायासमेतम् ।
तदुपहितकुटुम्बः शान्तिमार्गोत्सुकोऽभू – न्न हि सति कुलधुर्ये सूर्यवंश्या गृहाय ॥ ७-७१॥
॥ इति श्रीरघुवंशे महाकाव्ये कविश्रीकालिदास – कृतावजस्वयंवराभिगमनो नाम सप्तमः सर्गः ॥
(अज के पहुंचने के ) पहले ही समाचार को मालूम किये हुए रघु लौटे हुए, विजयी तथा प्रशंसनीय स्त्री से युक्त उस अज का अभिनन्दन कर उन पर कुटुम्ब (अपनी स्त्री) का भार समर्पितकर शान्ति-मार्ग अर्थात् मुक्ति के लिये उत्सुक हुए; क्योंकि-सूर्यवंशी राजा अपनी सन्तान के राज्यभार सम्हालने के योग्य होने पर गृहस्थाश्रम में नही रहते ॥ ७१ ॥
यह ‘रघुवंश’ महाकाव्य का ‘अजपाणिग्रहण नामक सर्ग 7 समाप्त हुआ ॥७॥
रघुवंशमहाकाव्यम् सप्तम: सर्गः
रघुवंशं सर्ग ७ कालिदासकृतम्
रघुवंशम् सातवां सर्ग संक्षिप्त कथासार
रघुवंशं सर्ग ७ कालिदासकृतम्। भोजराज अब वर कन्या को अपने घर में ले जाने के लिये तैयार हुए । सभा में आये हुए राजा लोग हताश हो हो कर अपने अपने ढेरों में लौट गये। राजमार्ग के दोनों ओर ध्वजाएं फहरा रही हैं। हर-एक स्थान में इन्द्रधनुष की भांति तोरण शोभित हैं । जिन पर नाना भांति के फूलों की मालाएं लटक रही हैं । वर कन्या हाथी हथनी पर सवार होकर ऐसे सुहावने राजपथ की शोभा देखते भोजराज के भवन द्वार पर पहुंचे । अपनी अपनी सवारी से उतरकर उन्होंने अन्तःपुर में प्रवेश किया। वहां भोजराज ने अज को सुन्दर सिंहासन पर बैठाकर अर्घ्य (पुष्प चन्दनादि पूजन सामग्री ) मधुपर्क ( दही, घी और शहद मिली हुई चीज ) और वस्त्र प्रदान किये। इसके पीछे सुहासिन वृन्द वर को बड़ी नम्रतापूर्वक प्रेम सहित कन्या के पास ले गई । वहां फिर पुरोहित ने वेद विधि से हवन किया और अग्नि’ को साक्षी देकर अज को इन्दुमती का पाणि-ग्रहण कराया । इसके पीछे वर कन्या ने कुटुम्ब के समस्त गुरुजनों को प्रणाम किया और उनका शुभ आशीर्वाद प्राप्त कर आनन्दित चित्त हुए । इन्दुमति का शुभ विवाह हो जाने बाद भोजराज ने अपने नौकरों को आज्ञा दी कि स्वयम्वर में जो जो राजा लोग आये हैं उन सबके डेरों में जा जाकर उन्हें हमारी भेंट उपहार दे आओ। नौकरों ने आज्ञानुसार सब राजा को उचित उपहार प्रदान किये । स्वयम्बर में आये हुए राजा लोग उपहार पाकर खुश हुए और बदले में भोजराज को अपनी अपनी ओर से उपहार अर्पण कर अपने अपने घर को गये। महाराज रघु ने सब राजाओं को जीतकर दिग्विजय कर लिया है । रघु के पुत्र अज सब राजाओं को रूप यौवन बुद्धि बल से जीतकर इन्दुमती के प्रेमपात्र पति हो गये हैं । इसको देख सब राजा क्रोध और ईर्ष्या से जल उठे और सब इकट्ठे होकर रास्ते में अज पर हमला करने का अवसर ताक रहे हैं। इधर अज इन्दुमती को संग में लेकर सेना सहित विदर्भ पुरी से अयोध्या के लिए रवाना हुए । साथ में भोजराज भी होलिये । तीन दिन अज के साथ रहकर भोजराज अपने नगर को लौट गये । अब अज अकेले हो गये । उनको असहाय जानकर उन दुष्ट राजाओं ने उन पर हमला किया। अज इससे जरा भी नहीं घबराये और इन्दुमती की रक्षा का भार अपने मंत्री और कुछ सैनिकों पर छोड़ उस असंख्य राजसेना के हमले को रोकने लगे । दोनों पक्ष की सेना मुहं भेंट हो गई । पैदल पैदलों से, सवार सवार से रथी रथी से, और हाथीवाले हाथी वालों से युद्ध करने लगे। हाथी घोड़ों की चीत्कार-ध्वनि से कर्ण बधिर प्राय हो गये घोड़ों की खुरों की मार से धूल चारों ओर छा गई। हाथियों के सूपों के सदृश कानों के हिलने से भूमि से उड़ उड़कर आकाश में छाने लगी उस समय का दृश्य बड़ा ही अद्भुत हो उठा । रणभूमि में अन्धकार छा गया । मार मार का शब्द चारों ओर होने लगा । घोड़े हाथी कट कटकर भूमि पर गिरने लगे । रक्त की नदी बहने लगी। अज की विकट मार देखकर शत्रु भागने लगते फिर लौटकर आवे । बाण नष्ट होने पर वाहन से उतर गदा युद्ध करते और गदा नष्ट होने पर मल्लयुद्ध करने लगते । इस प्रकार घमसान युद्ध होने लगा । कहीं पर योद्धाओं के कटे हुए शिर के ढेर लगे हैं । कहीं शिर के मुकुट समूह रक्त से सने पड़े हैं । कहीं ‘कबन्ध’ नाच रहे हैं । कोई कोई वीर सम्मुख रण में प्राण त्याग कर उसी समय सुन्दर वाहन में बैठ अप्सराओं को गोद में लिये अपने नाचते हुए कबन्ध को देखते देखते स्वर्गारोहण कर रहे हैं । कहीं कहीं दो वीर एक दूसरे की मार से ठीक उस समय कट कर नई देह धारण करते हैं । और दोनों एक ही अप्सरा के स्वामी बनते हैं। जिधर शत्रुओं की विकट मार देखते अज दौड़कर उधर’ही जाते और उन्हें वहां से हटा देते अज का रथ शत्रुओं के प्राणों से ढका सा जा रहा था । केवल रथ की ध्वजा ही वायु वेग से फहरा रही थी। वो भी अज की मार से शत्रु काँपने लगे। निदान शत्रुगण क्रोधित होकर “कूटयुद्ध’ द्वारा अज को घेरकर उन पर बाण बरसाने लगे। उस समय अज भी घबराने लगे। फिर गन्धर्व राजपुत्र प्रियम्बद ने उन्हें जो अस्त्र प्रदान किया था उसी अस्त्र को अज ने धनुष में सन्धान किया । उस अस्त्र के प्रभाव से सारी शत्रु सेना अस्त्र शस्त्र छोड़कर निद्रा देवी की गोद में जा पड़ी। अज इस ! विजय लाभकर शङ्ख ध्वनि करने लगे। उनके सैनिकगण शङ्खनाद सुनकर जान गये कि अज को जय-लाभ हुआ और ‘सब रणभूमि पर पहुँचे । मुकुलित कमलवन में प्रतिविम्बित चन्द्रमण्डल की जैसी शोभा होती है वैसे ही निद्रिव शत्रु सेना के मध्य में युवराज अज शोभा पा रहे हैं। अज ने रक्त और वाणों के द्वारा शत्रुओं के रथों की ध्वजाओं में यह लिखवा दिया कि अज राजा ने केवल तुम्हारा यशोहरण ही किया अनुग्रह कर ले तुम्हारी प्राणहत्या नहीं की। फिर अज ने इन्दुमती से कहा कि प्रिये ! देखो, इन पराजित शत्रुओं को देखो। मैंने इन सबको ऐसा निवार्य कर दिया है कि क्षुद्र बालक भी अब उनके हाथ से अस्त्र छीन सकता है । तुम्हारी अनुपम सुन्दरता से मुग्ध हो, सब तुम्हें मुझसे छीनने के लिये महारण में प्राणदान देने को तैयार हुए थे। पति की वाणी सुनकर इन्दुमती बहुत खुश हुई और पति की वल बुद्धि की प्रशंसा करने लगी। इस प्रकार महावीर अज अपने शत्रुओं को हरा अपना बायाँ पैर उनके मस्तक पर रख अपनी राजधानी को रवाना हुए। अज के आने की खबर दूतों के द्वारा रघु राजा को मिल गई थी। उन्होंने अपने बेटे वहू को आगत स्वागत से घर ले जाकर उनका विवाह उत्सव समान किया और विषय वासना छोड़कर स्वयं शान्तिपथ के पथिक बनने को उत्सुक हुए।
रघुवंशमहाकाव्यम् सप्तम सर्ग भावार्थ सहित समाप्त हुआ।