राजा इक्ष्वाकु की कहानी Raja ekshvaku ki kahani

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राजा इक्ष्वाकु कौन थे Raja ekshvaku kon the

राजा इक्ष्वाकु एक महान सम्राट तथा सूर्यवंश के पहले राजा थे। जिनकी राजधानी अयोध्या थी। राजा इक्ष्वाकु के पिता का नाम वैवस्त मनु था

जो विवस्तान (सूर्य) के पुत्र थे। राजा इक्ष्वाकु एक प्रजावत्सल, धर्मपरायण, दयालु और पराक्रमी राजा थे। इसलिए इनके नाम पर इस वंश का नाम इक्ष्वाकु वंश पड़ गया।

राजा इक्ष्वाकु के 100 पुत्र थे जिनमें से एक विकुक्षि थे। जिन्होंने इक्ष्वाकु वंश को आगे बड़ाया और दुसरे निमि थे जिन्होंने मिथिला में राजकुल की स्थापना की। इसी कुल में महाराज जनक का जन्म हुआ।

इक्ष्वाकु का अर्थ Meaning of ekshvaku

इक्ष्वाकु सूर्यवंश के प्रथम राजा का नाम था इनके नाम भी उनके वंश को इक्ष्वाकु वंश कहते है। इक्ष्वाकु शब्द संस्कृत भाषा का संज्ञा पुल्लिंग शब्द है,

जिसकी उत्पत्ति इक्षु से हुई है, जिसका अर्थ होता है ‘ईख’ राजा इक्ष्वाकु के वंशज को इक्ष्वाकुवंशी तथा पुत्रों को इक्ष्वाकुनंदन के नाम से जाना जाता है।

राजा इक्ष्वाकु तथा जापक ब्राम्हण की कहानी Raja ekshvaku or jatak bramhan ki kahani

एक बार की बात है, राजा इक्ष्वाकु के राज्य में एक ब्राह्मण रहा करता था। जिसका नाम जापक ब्राह्मण था क्योंकि वह हमेशा गायत्री मंत्र का ही जाप

किया करता था। ब्राह्मण ने नियम और संयम के साथ गायत्री मंत्र का धैर्य पूर्वक हजारों वर्षों तक जाप किया। जापक ब्राह्मण के इस कठिन जाप के कारण

गायत्री देवी उस पर प्रसन्न हो गई और उन्होंने जापक ब्राह्मण को दर्शन देकर कहा हे! ब्राह्मण मैं आपकी तपस्या से प्रसन्न हूँ.

बताइए मैं आपके लिए क्या कर सकती हूँ? तब उस जापक ब्राह्मण ने कहा कि हे! देवी मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं तो बस इतना ही चाहता हूंँ,

कि में कभी भी जप और तप करना ना भूलूँ। तब गायत्री देवी ने कहा हे! ब्राह्मण आपकी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी। इसके साथ ही मैं आपको वरदान देती हूँ

आपको अपने पुण्य प्रताप के कारण श्रेष्ठ लोकों की भी प्राप्ति होगी। इतना कहकर गायत्री देवी अंतर्ध्यान हो गई। और जापाक ब्राह्मण फिर से अपना नित्य कर्म करने लगा।

कई वर्ष बीतने के बाद उनके पास स्वयं एक बार धर्मराज प्रकट हुए। और ब्राह्मण से बोले हे! ब्राह्मण देवता मैं धर्मराज धर्म का देवता हूँ।

आपको आपके पुण्य प्रताप के कारण उन श्रेष्ठ लोकों की प्राप्त हुई है, जिनकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। आप यह अपना नश्वर शरीर त्याग कर जहाँ जाना चाहते हैं, वहाँ जा सकते हैं।

किंतु ब्राह्मण बोला हे! धर्मराज यह तो संभव नहीं है, कि मैं अपना यह शरीर त्याग दूँ। क्योंकि इस शरीर के साथ मेरे कई दुख-सुख और

तपस्या का पुण्य प्रताप जुड़ा हुआ है। इसलिए मैं इस शरीर को छोड़कर कहीं नहीं जा सकता। अगर मैं इस शरीर को लेकर कहीं जा सकता हूँ

तो मुझे अवश्य बताइए मैं आपके साथ चलने के लिए तैयार हूँ। तभी वहाँ पर मृत्यु की देवी साक्षात प्रकट हो गई है, उनके साथ यमराज और काल भी थे।

यमराज ने कहा हे! ब्राह्मणश्रेष्ठ मैं आपका आदर करता हूँ और आपसे विनती करता हूँ, कि आप अपने इस शरीर का त्याग कर किसी भी श्रेष्ठ लोक में जा सकते हैं।

किंतु ब्राह्मण देवता ने कहा मैं अपना शरीर छोड़कर कहीं भी नहीं जाना चाहता। इसके बाद काल ने कहा हे! ब्राह्मण देवता मैं साक्षात काल हूँ, और आपका इस धरती पर समय खत्म हो गया है।

इसलिए आपको अपना शरीर त्यागना ही होगा। तब मृत्यु बोली ब्राह्मण देवता में मृत्यु हुँ, जो शरीर के साथ साक्षात आपके सामने खड़ी हुँ।

और जैसा काल ने कहा कि आपका समय पृथ्वी पर समाप्त हो गया है, इसलिए आपको मृत्यु का वरण करना ही होगा कियोकि इस शरीर का त्याग करना अनिवार्य है।

कोई भी प्राणी इस पृथ्वी लोक पर अजर अमर नहीं है। इतना सुनना था कि ब्राह्मण देवता ने कहा आप सभी अंदर आइए और उन सबका ब्राह्मण देवता

स्वागत करने लगे। तभी अचानक महाराज इक्ष्वाकु उस ब्राह्मण देवता की कुटिया में पहुंचे। महाराज इक्ष्वाकु को देखकर ब्राह्मण ने उन्हें प्रणाम किया और कहा

हे! राजन कहिए मैं आपकी किस प्रकार से सहायता कर सकता हूँ बताइए क्या चाहिए आपको? यह सुनकर महाराज इक्ष्वाकु ने कहा कि

हे! ब्राह्मण देवता आपका कार्य तो मांगने का है, देने का नहीं इसलिए आपको अगर किसी भी वस्तु या सेवा की आवश्यकता है तो मुझे कहिए।

तब ब्राह्मण देवता बोले हे! राजन संसार में दो प्रकार के ब्राह्मण होते हैं, एक प्रबुद्ध जो लेते है और दुसरे निर्बुद्ध जो देते है, और में निर्बुद्ध ब्राह्मण हुँ,

मुझे भोग विलास मोह माया से कोई लाभ नहीं में तो जप तप करने वाला सन्यासी हुँ। तब राजा बोले हे! ब्राह्मण देव में एक क्षत्रिय हुँ और छत्रिय कभी कुछ मांगते नहीं है। अगर मांगते है तो सिर्फ युद्ध

और आप युद्ध दे नहीं सकते। किन्तु अगर आप कुछ देना ही चाहते है, तो हे! ब्राह्मण देव आप अपने जप और तप का पूरा फल मुझे दे दीजिये।

राजा इक्ष्वाकु का यह कथन सुनकर ब्राह्मण देव चकित रह गए। और बोले अभी आप तो कह रहे थे कि क्षत्रिय कुछ माँगते नहीं है और आपने तो मेरे समस्त पुण्य का फल माँग लिया।

राजा इक्ष्वाकु बोले हे! ब्राह्मण देवता ब्राह्मणों के पास बाणी की शक्ति होती है और छत्रिय के पास भुजाओं की शक्ति होती है।

इसलिए मैंने आपका पुण्य प्रताप मांग लिया है, इससे हम दोनों के बीच वाक युद्ध प्रारंभ हो गया। और बाक युद्ध युद्ध का ही एक रूप होता है।

ब्राह्मण देवता ने कहा ठीक है, मैं आपको अपने आधे पुण्य प्रताप को अभी देता हूँ और आधे पुण्य का प्रताप फल आप जब किसी चीज की इच्छा करेंगे तो आपको प्राप्त हो जाएगा।

अब महाराज इक्ष्वाकु फिर से चिंतित हो उठे। जैसे ही वह किसी चीज की इच्छा करेंगे तो उन्हें उस फल की प्राप्ति होगी।

अब महाराज इक्ष्वाकु एक धर्म संकट में फंस गए कि क्षत्रिय का यह धर्म होता है, कि वे किसी से कुछ नहीं ले सकते उन्होंने ब्राह्मण देवता से कहा कि इस पुण्य प्रताप का क्या फल प्राप्त होगा?

आप यह बता सकते हैं, क्योंकि जो फल मुझे प्राप्त होने वाला है पता नहीं है, मेरे योग्य होगा या नहीं होगा। अगर मेरे योग्य नहीं होगा तो मैं उसका क्या करूंगा?

तब ब्राह्मण देवता बोले मैंने जो अपने पुण्य कर्म किए थे वह यह सोचकर नहीं किए थे कि मुझे क्या पुण्य फल प्राप्त होंगे। इसलिए मुझे तो यह पता नहीं है,

कि मुझे क्या पुण्य फल प्राप्त होने वाला था। महाराज इक्ष्वाकु बोले, कि जिस फल का ही पता नहीं है वह फल क्या होगा ऐसे फल का में क्या करूंगा?

तब ब्राह्मण देवता बोले हे! राजन मुझे यह तो पता नहीं है, कि मेरे पुण्य का फल क्या होगा? किंतु मेरे उन पुण्य प्रताप के कारण आप जो भी कामना करेंगे

उसे प्राप्त कर सकते हैं। अगर आप मेरे पुण्य के फलों को नहीं लेना चाहते तो आप मिथ्या साबित हो जाएंगे। और मैं स्वयं अपने बचन से मिथ्या साबित कहलाऊंगा

कियोकि सत्य ही सृष्टि का आधार है और आपको यह स्वीकार करना चाहिए। तब महाराज इक्ष्वाकु बोले की में एक छत्रिय हुँ, में लोगों की रक्षा करता हुँ,

युद्ध करता हुँ, दान देता हुँ, अगर किसी से कुछ लूँगा तो वो अधर्म हो जायेगा। तब धर्मराज बोले आप दोनों अपना विवाद समाप्त करें।

में ब्राह्मण को सत्य और राजन को धर्म का वरदान देता हुँ, और आप दोनों को स्वर्ग में स्थान देता हुँ। तभी दो व्यक्ति झगड़ते हुए वहाँ पहुँचे और राजा को देखकर न्याय के लिए बोले।

तब दोनों व्यक्तियों ने सारी बात बताई की मेरा नाम काम और मेरे साथी का नाम क्रोध है। काम ने मुझको एक गाय दान की थी

तब मैंने उस गाय का पुण्य काम से माँग लिया था। अब में काम को दो गाय दान करके उनका पुण्य लौटा रहा हुँ। कियोकि इतने दिनों में ब्याज भी बढ़ गया था।

इसलिए दो गाय दान कर रहा हुँ। किन्तु काम अब लेने को मना कर रहा है। काम कहता है, कि मैंने उस गाय का पुण्य दान किया था

और दान की हुई चीज काम कैसे ले सकता है। राजन हमारा न्याय कीजिये। अब राजा  इक्ष्वाकु और धर्म संकट में फंस गए।

कियोकि वे स्वयं इस समस्या से निजात पाना चाहते थे। तब धर्मराज बोले राजन आप ब्राह्मण से उनके पुण्य प्राप्त कीजिये और इक्षा कीजिये की आप और ब्राह्मण दोनों उसका भोग करें।

इससे दोनों ही धर्म संकट से मुक्त हो जायेंगे। यह बात दोनों ने स्वीकार की तथा आकाश से सभी देवी देवताओं ने उन पर पुष्प बरसाए।

इक्ष्वाकु के वंशज Ekshvaku ke vanshaj

विवस्वान के पुत्र हुए वैवस्त मनु जिनके पुत्र का नाम इक्षावकु था। इनसे ही इस वंश का नाम इक्षावकु वंश पड़ गया। इक्षावकु के पुत्र हुए कुक्षि तथा कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था।

विकुक्षि के पुत्र हुए वाण तथा वाण के पुत्र को अनरन्य के नाम से जाना गया। अनरन्य के पुत्र हुए पृथु तथा पृथु के पुत्र हुए त्रिशुक। त्रिशुक के पुत्र का नाम धुंधुमार था।

तथा धुंधुमार के पुत्र के रूप में युवनाश्व ने जन्म लिया। युवनाश्व के पुत्र का नाम था मान्धाता।मान्धाता के पुत्र का नाम सुसन्धि था और सुसन्धि के पुत्र हुए ध्रुवसन्धि।

ध्रुवसन्धि के पुत्र का नाम था भरत और भरत के पुत्र थे आसित। आसित के पुत्र का नाम सगर था। जिनके साठ हजार पुत्र कपिल मुनि के क्रोध से भस्म हो गए थे।

सगर के एक पुत्र थे असमज्ज और असमज्ज के पुत्र का नाम अंशुमान था। अंशुमान के पुत्र का नाम दिलीप और दिलीप के पुत्र का नाम भगीरथ था।

जिन्होंने अपने पितरो का तर्पण गंगा माँ को धरती पर लाकर किया था। भगीरथ के पुत्र कुकस्थ हुए और कुकस्थ के पुत्र रधु।

जिनके नाम पर इस वंश का नाम राधूकुल हो गया। रघु के पुत्र हुए प्रवृद्ध और प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे। शंखण के पुत्र सुदर्शन हुये और सुदर्शन के पुत्र अग्निवर्ण।

अग्निवर्ण के पुत्र का नाम शीघ्रग था तथा शीघ्रग के पुत्र मरु हुए। मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे। और प्रशुश्रुक के पुत्र का नाम अम्बरीश। अम्बरीश के पुत्र का नाम नहुष था।

नहुष के पुत्र ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग। नाभाग के पुत्र का नाम अज था जिनका युद्ध रावण से हुआ था। अज के पुत्र दशरथ थे।

राजा दशरथ के चार पुत्र हुए श्री रामचन्द्र, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न जिनमें श्री रामचंद्र के दो पुत्र लव और कुश हुए।

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