श्री राम चरित मानस- किष्किंधाकांड, मासपारायण, तेईसवाँ विश्राम || Ram Charit Manas Kishkindhakand Teisavan Vishram

0

श्री राम चरित मानस- किष्किंधाकांड, मासपारायण, तेईसवाँ विश्राम

श्री रामचरित मानस

चतुर्थ सोपान (किष्किंधाकांड)

कुन्देन्दीवरसुंदरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौ

शोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृंदप्रियौ।

मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौ हितौ

सीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि नः॥ 1॥

कुंदपुष्प और नीलकमल के समान सुंदर गौर एवं श्यामवर्ण, अत्यंत बलवान, विज्ञान के धाम, शोभा संपन्न, श्रेष्ठ धनुर्धर, वेदों के द्वारा वंदित, गौ एवं ब्राह्मणों के समूह के प्रिय (अथवा प्रेमी), माया से मनुष्य रूप धारण किए हुए, श्रेष्ठ धर्म के लिए कवचस्वरूप, सबके हितकारी, सीता की खोज में लगे हुए, पथिक रूप रघुकुल के श्रेष्ठ राम और लक्ष्मण दोनों भाई निश्चय ही हमें भक्तिप्रद हों॥ 1॥

ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं चाव्ययं

श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुंदरवरे संशोभितं सर्वदा।

संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं

धन्यास्ते कृतिनः पिबंति सततं श्रीरामनामामृतम्‌॥ 2॥

वे सुकृती (पुण्यात्मा पुरुष) धन्य हैं जो वेदरूपी समुद्र (के मथने) से उत्पन्न हुए कलियुग के मल को सर्वथा नष्ट कर देनेवाले, अविनाशी, भगवान शंभु के सुंदर एवं श्रेष्ठ मुखरूपी चंद्रमा में सदा शोभायमान, जन्म-मरणरूपी रोग के औषध, सबको सुख देनेवाले और श्री जानकी के जीवन स्वरूप श्री राम नामरूपी अमृत का निरंतर पान करते रहते हैं॥ 2॥

सो० – मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खान अघ हानि कर।

जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न॥

जहाँ शिव-पार्वती बसते हैं, उस काशी को मुक्ति की जन्मभूमि, ज्ञान की खान और पापों का नाश करनेवाली जानकर उसका सेवन क्यों न किया जाए?

जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय।

तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस॥

जिस भीषण हलाहल विष से सब देवतागण जल रहे थे उसको जिन्होंने स्वयं पान कर लिया, रे मंद मन! तू उन शंकर को क्यों नहीं भजता? उनके समान कृपालु (और) कौन है?

आगें चले बहुरि रघुराया। रिष्यमूक पर्बत निअराया॥

तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा। आवत देखि अतुल बल सींवा॥

रघुनाथ फिर आगे चले। ऋष्यमूक पर्वत निकट आ गया। वहाँ (ऋष्यमूक पर्वत पर) मंत्रियों सहित सुग्रीव रहते थे। अतुलनीय बल की सीमा राम और लक्ष्मण को आते देखकर –

अति सभीत कह सुनु हनुमाना। पुरुष जुगल बल रूप निधाना॥

धरि बटु रूप देखु तैं जाई। कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई॥

सुग्रीव अत्यंत भयभीत होकर बोले – हे हनुमान! सुनो, ये दोनों पुरुष बल और रूप के निधान हैं। तुम ब्रह्मचारी का रूप धारण करके जाकर देखो। अपने हृदय में उनकी यथार्थ बात जानकर मुझे इशारे से समझाकर कह देना।

पठए बालि होहिं मन मैला। भागौं तुरत तजौं यह सैला॥

बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ। माथ नाइ पूछत अस भयऊ॥

यदि वे मन के मलिन बालि के भेजे हुए हों तो मैं तुरंत ही इस पर्वत को छोड़कर भाग जाऊँ। (यह सुनकर) हनुमान ब्राह्मण का रूप धरकर वहाँ गए और मस्तक नवाकर इस प्रकार पूछने लगे –

को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा। छत्री रूप फिरहु बन बीरा॥

कठिन भूमि कोमल पद गामी। कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी॥

हे वीर! साँवले और गोरे शरीरवाले आप कौन हैं, जो क्षत्रिय के रूप में वन में फिर रहे हैं? हे स्वामी! कठोर भूमि पर कोमल चरणों से चलनेवाले आप किस कारण वन में विचर रहे हैं?

मृदुल मनोहर सुंदर गाता। सहत दुसह बन आतप बाता ॥

की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ। नर नारायन की तुम्ह दोऊ॥

मन को हरण करनेवाले आपके सुंदर, कोमल अंग हैं, और आप वन के दुःसह धूप और वायु को सह रहे हैं। क्या आप ब्रह्मा, विष्णु, महेश – इन तीन देवताओं में से कोई हैं, या आप दोनों नर और नारायण हैं।

दो० – जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार।

की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार॥ 1॥

अथवा आप जगत के मूल कारण और संपूर्ण लोकों के स्वामी स्वयं भगवान हैं, जिन्होंने लोगों को भवसागर से पार उतारने तथा पृथ्वी का भार नष्ट करने के लिए मनुष्य रूप में अवतार लिया है?॥ 1॥

कोसलेस दसरथ के जाए। हम पितु बचन मानि बन आए॥

नाम राम लछिमन दोउ भाई। संग नारि सुकुमारि सुहाई॥

(राम ने कहा -) हम कोसलराज दशरथ के पुत्र हैं और पिता का वचन मानकर वन आए हैं। हमारे राम-लक्ष्मण नाम हैं, हम दोनों भाई हैं। हमारे साथ सुंदर सुकुमारी स्त्री थी।

इहाँ हरी निसिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही॥

आपन चरित कहा हम गाई। कहहु बिप्र निज कथा बुझाई॥

यहाँ (वन में) राक्षस ने (मेरी पत्नी) जानकी को हर लिया। हे ब्राह्मण! हम उसे ही खोजते फिरते हैं। हमने तो अपना चरित्र कह सुनाया। अब हे ब्राह्मण! अपनी कथा समझाकर कहिए।

प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा जाइ नहिं बरना॥

पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना॥

प्रभु को पहचानकर हनुमान उनके चरण पकड़कर पृथ्वी पर गिर पड़े। (शिव कहते हैं -) हे पार्वती! वह सुख वर्णन नहीं किया जा सकता। शरीर पुलकित है, मुख से वचन नहीं निकलता। वे प्रभु के सुंदर वेष की रचना देख रहे हैं!

पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही। हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही॥

मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥

फिर धीरज धर कर स्तुति की। अपने नाथ को पहचान लेने से हृदय में हर्ष हो रहा है। (फिर हनुमान ने कहा -) हे स्वामी! मैंने जो पूछा वह मेरा पूछना तो न्याय था, परंतु आप मनुष्य की तरह कैसे पूछ रहे हैं?

तव माया बस फिरउँ भुलाना। ताते मैं नहिं प्रभु पहिचाना॥

मैं तो आपकी माया के वश भूला फिरता हूँ; इसी से मैंने अपने स्वामी (आप) को नहीं पहचाना।

दो० – एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।

पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान॥ 2॥

एक तो मैं यों ही मंद हूँ, दूसरे मोह के वश में हूँ, तीसरे हृदय का कुटिल और अज्ञान हूँ, फिर हे दीनबंधु भगवान! प्रभु (आप) ने भी मुझे भुला दिया!॥ 2॥

जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें॥

नाथ जीव तव मायाँ मोहा। सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा॥

हे नाथ! यद्यपि मुझ में बहुत-से अवगुण हैं, तथापि सेवक स्वामी की विस्मृति में न पड़े (आप उसे न भूल जाएँ)। हे नाथ! जीव आपकी माया से मोहित है। वह आप ही की कृपा से निस्तार पा सकता है।

ता पर मैं रघुबीर दोहाई। जानउँ नहिं कछु भजन उपाई॥

सेवक सुत पति मातु भरोसें। रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें॥

उस पर हे रघुवीर! मैं आपकी दुहाई (शपथ) करके कहता हूँ कि मैं भजन-साधन कुछ नहीं जानता। सेवक स्वामी के और पुत्र माता के भरोसे निश्चिंत रहता है। प्रभु को सेवक का पालन-पोषण करते ही बनता है (करना ही पड़ता है)।

अस कहि परेउ चरन अकुलाई। निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई॥

तब रघुपति उठाई उर लावा। निज लोचन जल सींचि जुड़ावा॥

ऐसा कहकर हनुमान अकुलाकर प्रभु के चरणों पर गिर पड़े, उन्होंने अपना असली शरीर प्रकट कर दिया। उनके हृदय में प्रेम छा गया। तब रघुनाथ ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया और अपने नेत्रों के जल से सींचकर शीतल किया।

सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना। तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना॥

समदरसी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ॥

(फिर कहा -) हे कपि! सुनो, मन में ग्लानि मत मानना (मन छोटा न करना)। तुम मुझे लक्ष्मण से भी दूने प्रिय हो। सब कोई मुझे समदर्शी कहते हैं (मेरे लिए न कोई प्रिय है न अप्रिय) पर मुझको सेवक प्रिय है, क्योंकि वह अनन्यगति होता है (मुझे छोड़कर उसको कोई दूसरा सहारा नहीं होता)।

दो० – सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।

मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥ 3॥

और हे हनुमान! अनन्य वही है जिसकी ऐसी बुद्धि कभी नहीं टलती कि मैं सेवक हूँ और यह चराचर (जड़-चेतन) जगत मेरे स्वामी भगवान का रूप है॥ 3॥

देखि पवनसुत पति अनुकूला। हृदयँ हरष बीती सब सूला॥

नाथ सैल पर कपिपति रहई। सो सुग्रीव दास तव अहई॥

स्वामी को अनुकूल (प्रसन्न) देखकर पवन कुमार हनुमान के हृदय में हर्ष छा गया और उनके सब दुःख जाते रहे। (उन्होंने कहा -) हे नाथ! इस पर्वत पर वानरराज सुग्रीव रहते हैं, वह आपका दास है।

तेहि सन नाथ मयत्री कीजे। दीन जानि तेहि अभय करीजे॥

सो सीता कर खोज कराइहि। जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि॥

हे नाथ! उससे मित्रता कीजिए और उसे दीन जानकर निर्भय कर दीजिए। वह सीता की खोज करवाएगा और जहाँ-तहाँ करोड़ों वानरों को भेजेगा।

एहि बिधि सकल कथा समुझाई। लिए दुऔ जन पीठि चढ़ाई॥

जब सुग्रीवँ राम कहुँ देखा। अतिसय जन्म धन्य करि लेखा॥

इस प्रकार सब बातें समझाकर हनुमान ने (राम-लक्ष्मण) दोनों जनों को पीठ पर चढ़ा लिया। जब सुग्रीव ने राम को देखा तो अपने जन्म को अत्यंत धन्य समझा।

सादर मिलेउ नाइ पद माथा। भेंटेउ अनुज सहित रघुनाथा॥

कपि कर मन बिचार एहि रीती। करिहहिं बिधि मो सन ए प्रीती॥

सुग्रीव चरणों में मस्तक नवाकर आदर सहित मिले। रघुनाथ भी छोटे भाई सहित उनसे गले लगकर मिले। सुग्रीव मन में इस प्रकार सोच रहे हैं कि हे विधाता! क्या ये मुझसे प्रीति करेंगे?

दो० – तब हनुमंत उभय दिसि की सब कथा सुनाइ।

पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढ़ाइ॥ 4॥

तब हनुमान ने दोनों ओर की सब कथा सुनाकर अग्नि को साक्षी देकर परस्पर दृढ़ करके प्रीति जोड़ दी (अर्थात अग्नि की साक्षी देकर प्रतिज्ञापूर्वक उनकी मैत्री करवा दी)॥ 4॥

कीन्हि प्रीति कछु बीच न राखा। लछिमन राम चरित सब भाषा॥

कह सुग्रीव नयन भरि बारी। मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी॥

दोनों ने (हृदय से) प्रीति की, कुछ भी अंतर नहीं रखा। तब लक्ष्मण ने राम का सारा इतिहास कहा। सुग्रीव ने नेत्रों में जल भरकर कहा – हे नाथ! मिथिलेशकुमारी जानकी मिल जाएँगी।

मंत्रिन्ह सहित इहाँ एक बारा। बैठ रहेउँ मैं करत बिचारा॥

गगन पंथ देखी मैं जाता। परबस परी बहुत बिलपाता॥

मैं एक बार यहाँ मंत्रियों के साथ बैठा हुआ कुछ विचार कर रहा था। तब मैंने पराए के वश में पड़ी बहुत विलाप करती हुई सीता को आकाश मार्ग से जाते देखा था।

राम राम हा राम पुकारी। हमहि देखि दीन्हेउ पट डारी॥

मागा राम तुरत तेहिं दीन्हा। पट उर लाइ सोच अति कीन्हा॥

हमें देखकर उन्होंने ‘राम! राम! हा राम!’ पुकारकर वस्त्र गिरा दिया था। राम ने उसे माँगा, तब सुग्रीव ने तुरंत ही दे दिया। वस्त्र को हृदय से लगाकर राम ने बहुत ही सोच किया।

कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। तजहु सोच मन आनहु धीरा॥

सब प्रकार करिहउँ सेवकाई। जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई॥

सुग्रीव ने कहा – हे रघुवीर! सुनिए, सोच छोड़ दीजिए और मन में धीरज लाइए। मैं सब प्रकार से आपकी सेवा करूँगा, जिस उपाय से जानकी आकर आपको मिलें।

दो० – सखा बचन सुनि हरषे कृपासिंधु बलसींव।

कारन कवन बसहु बन मोहि कहहु सुग्रीव॥ 5॥

कृपा के समुद्र और बल की सीमा राम सखा सुग्रीव के वचन सुनकर हर्षित हुए। (और बोले -) हे सुग्रीव! मुझे बताओ, तुम वन में किस कारण रहते हो?॥ 5॥

नाथ बालि अरु मैं द्वौ भाइ। प्रीति रही कछु बरनि न जाई॥

मयसुत मायावी तेहि नाऊँ। आवा सो प्रभु हमरें गाऊँ॥

(सुग्रीव ने कहा -) हे नाथ! बालि और मैं दो भाई हैं। हम दोनों में ऐसी प्रीति थी कि वर्णन नहीं की जा सकती। हे प्रभो! मय दानव का एक पुत्र था, उसका नाम मायावी था। एक बार वह हमारे गाँव में आया।

अर्ध राति पुर द्वार पुकारा। बाली रिपु बल सहै न पारा॥

धावा बालि देखि सो भागा। मैं पुनि गयउँ बंधु सँग लागा॥

उसने आधी रात को नगर के फाटक पर आकर पुकारा (ललकारा)। बालि शत्रु के बल (ललकार) को सह नहीं सका। वह दौड़ा, उसे देखकर मायावी भागा। मैं भी भाई के संग लगा चला गया।

गिरिबर गुहाँ पैठ सो जाई। तब बालीं मोहि कहा बुझाई॥

परिखेसु मोहि एक पखवारा। नहिं आवौं तब जानेसु मारा॥

वह मायावी एक पर्वत की गुफा में जा घुसा। तब बालि ने मुझे समझाकर कहा – तुम एक पखवाड़े (पंदरह दिन) तक मेरी बाट देखना। यदि मैं उतने दिनों में न आऊँ तो जान लेना कि मैं मारा गया।

मास दिवस तहँ रहेउँ खरारी। निसरी रुधिर धार तहँ भारी॥

बालि हतेसि मोहि मारिहि आई। सिला देइ तहँ चलेउँ पराई॥

हे खरारि! मैं वहाँ महीने भर तक रहा। वहाँ (उस गुफा में से) रक्त की बड़ी भारी धारा निकली। तब (मैंने समझा कि) उसने बालि को मार डाला, अब आकर मुझे मारेगा। इसलिए मैं वहाँ (गुफा के द्वार पर) एक शिला लगाकर भाग आया।

मंत्रिन्ह पुर देखा बिनु साईं। दीन्हेउ मोहि राज बरिआईं॥

बाली ताहि मारि गृह आवा। देखि मोहि जियँ भेद बढ़ावा॥

मंत्रियों ने नगर को बिना स्वामी (राजा) का देखा, तो मुझको जबर्दस्ती राज्य दे दिया। बालि उसे मारकर घर आ गया। मुझे (राजसिंहासन पर) देखकर उसने जी में भेद बढ़ाया (बहुत ही विरोध माना)। (उसने समझा कि यह राज्य के लोभ से ही गुफा के द्वार पर शिला दे आया था, जिससे मैं बाहर न निकल सकूँ और यहाँ आकर राजा बन बैठा)।

रिपु सम मोहि मारेसि अति भारी। हरि लीन्हसि सर्बसु अरु नारी॥

ताकें भय रघुबीर कृपाला। सकल भुवन मैं फिरेउँ बिहाला॥

उसने मुझे शत्रु के समान बहुत अधिक मारा और मेरा सर्वस्व तथा मेरी स्त्री को भी छीन लिया। हे कृपालु रघुवीर! मैं उसके भय से समस्त लोकों में बेहाल होकर फिरता रहा।

इहाँ साप बस आवत नाहीं। तदपि सभीत रहउँ मन माहीं॥

सुन सेवक दुःख दीनदयाला फरकि उठीं द्वै भुजा बिसाला॥

वह शाप के कारण यहाँ नहीं आता, तो भी मैं मन में भयभीत रहता हूँ। सेवक का दुःख सुनकर दीनों पर दया करनेवाले रघुनाथ की दोनों विशाल भुजाएँ फड़क उठीं।

दो० – सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहिं बान।

ब्रह्म रुद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान॥ 6॥

(उन्होंने कहा -) हे सुग्रीव! सुनो, मैं एक ही बाण से बालि को मार डालूँगा। ब्रह्मा और रुद्र की शरण में जाने पर भी उसके प्राण न बचेंगे॥ 6॥

जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥

निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना॥

जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जाने।

जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई॥

कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥

जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे।

देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥

बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥

देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं।

आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥

जाकर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥

जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है – हे भाई! (इस तरह) जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है।

सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी॥

सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥

मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र – ये चारों शूल के समान पीड़ा देनेवाले हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)।

 

 

कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। बालि महाबल अति रनधीरा॥

दुंदुभि अस्थि ताल देखराए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए॥

सुग्रीव ने कहा – हे रघुवीर! सुनिए, बालि महान बलवान और अत्यंत रणधीर है। फिर सुग्रीव ने राम को दुंदुभि राक्षस की हड्डियाँ व ताल के वृक्ष दिखलाए। रघुनाथ ने उन्हें बिना ही परिश्रम के (आसानी से) ढहा दिया।

देखि अमित बल बाढ़ी प्रीती। बालि बधब इन्ह भइ परतीती॥

बार-बार नावइ पद सीसा। प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा॥

राम का अपरिमित बल देखकर सुग्रीव की प्रीति बढ़ गई और उन्हें विश्वास हो गया कि ये बालि का वध अवश्य करेंगे। वे बार-बार चरणों में सिर नवाने लगे। प्रभु को पहचानकर सुग्रीव मन में हर्षित हो रहे थे।

उपजा ग्यान बचन तब बोला। नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला॥

सुख संपति परिवार बड़ाई। सब परिहरि करिहउँ सेवकाई॥

जब ज्ञान उत्पन्न हुआ तब वे ये वचन बोले कि हे नाथ! आपकी कृपा से अब मेरा मन स्थिर हो गया। सुख, संपत्ति, परिवार और बड़ाई (बड़प्पन) सबको त्यागकर मैं आपकी सेवा ही करूँगा।

ए सब राम भगति के बाधक। कहहिं संत तव पद अवराधक॥

सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं। मायाकृत परमारथ नाहीं॥

क्योंकि आपके चरणों की आराधना करनेवाले संत कहते हैं कि ये सब (सुख-संपत्ति आदि) राम भक्ति के विरोधी हैं। जगत में जितने भी शत्रु-मित्र और सुख-दुःख (आदि द्वंद्व) हैं, सब के सब मायारचित हैं, परमार्थतः (वास्तव में) नहीं हैं।

बालि परम हित जासु प्रसादा। मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा॥

सपनें जेहि सन होइ लराई। जागें समुझत मन सकुचाई॥

हे राम! बालि तो मेरा परम हितकारी है, जिसकी कृपा से शोक का नाश करनेवाले आप मुझे मिले और जिसके साथ अब स्वप्न में भी लड़ाई हो तो जागने पर उसे समझकर मन में संकोच होगा (कि स्वप्न में भी मैं उससे क्यों लड़ा)।

अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति। सब तजि भजनु करौं दिन राती॥

सुनि बिराग संजुत कपि बानी। बोले बिहँसि रामु धनुपानी॥

हे प्रभो! अब तो इस प्रकार कृपा कीजिए कि सब छोड़कर दिन-रात मैं आपका भजन ही करूँ। सुग्रीव की वैराग्ययुक्त वाणी सुनकर (उसके क्षणिक वैराग्य को देखकर) हाथ में धनुष धारण करनेवाले राम मुसकराकर बोले –

जो कछु कहेहु सत्य सब सोई। सखा बचन मम मृषा न होई॥

नट मरकट इव सबहि नचावत। रामु खगेस बेद अस गावत॥

तुमने जो कुछ कहा है, वह सभी सत्य है; परंतु हे सखा! मेरा वचन मिथ्या नहीं होता (अर्थात बालि मारा जाएगा और तुम्हें राज्य मिलेगा)। (काकभुशुंडि कहते हैं कि -) हे पक्षियों के राजा गरुड़! नट (मदारी) के बंदर की तरह राम सबको नचाते हैं, वेद ऐसा कहते हैं।

लै सुग्रीव संग रघुनाथा। चले चाप सायक गहि हाथा॥

तब रघुपति सुग्रीव पठावा। गर्जेसि जाइ निकट बल पावा॥

तदनंतर सुग्रीव को साथ लेकर और हाथों में धनुष-बाण धारण करके रघुनाथ चले। तब रघुनाथ ने सुग्रीव को बालि के पास भेजा। वह राम का बल पाकर बालि के निकट जाकर गरजा।

सुनत बालि क्रोधातुर धावा। गहि कर चरन नारि समुझावा॥

सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा। ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा॥

बालि सुनते ही क्रोध में भरकर वेग से दौड़ा। उसकी स्त्री तारा ने चरण पकड़कर उसे समझाया कि हे नाथ! सुनिए, सुग्रीव जिनसे मिले हैं वे दोनों भाई तेज और बल की सीमा हैं।

कोसलेस सुत लछिमन रामा। कालहु जीति सकहिं संग्रामा॥

वे कोसलाधीश दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण संग्राम में काल को भी जीत सकते हैं।

दो० – कह बाली सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ।

जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ॥ 7॥

बालि ने कहा – हे भीरु! (डरपोक) प्रिये! सुनो, रघुनाथ समदर्शी हैं। जो कदाचित वे मुझे मारेंगे ही तो मैं सनाथ हो जाऊँगा (परमपद पा जाऊँगा)॥ 7॥

अस कहि चला महा अभिमानी। तृन समान सुग्रीवहि जानी॥

भिरे उभौ बाली अति तर्जा। मुठिका मारि महाधुनि गर्जा॥

ऐसा कहकर वह महान अभिमानी बालि सुग्रीव को तिनके के समान जानकर चला। दोनों भिड़ गए। बालि ने सुग्रीव को बहुत धमकाया और घूँसा मारकर बड़े जोर से गरजा।

तब सुग्रीव बिकल होइ भागा। मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा॥

मैं जो कहा रघुबीर कृपाला। बंधु न होइ मोर यह काला॥

तब सुग्रीव व्याकुल होकर भागा। घूँसे की चोट उसे वज्र के समान लगी। (सुग्रीव ने आकर कहा -) हे कृपालु रघुवीर! मैंने आपसे पहले ही कहा था कि बालि मेरा भाई नहीं है, काल है।

एक रूप तुम्ह भ्राता दोऊ। तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ॥

कर परसा सुग्रीव सरीरा। तनु भा कुलिस गई सब पीरा॥

(राम ने कहा -) तुम दोनों भाइयों का एक-सा ही रूप है। इसी भ्रम से मैंने उसको नहीं मारा। फिर राम ने सुग्रीव के शरीर को हाथ से स्पर्श किया, जिससे उसका शरीर वज्र के समान हो गया और सारी पीड़ा जाती रही।

मेली कंठ सुमन कै माला। पठवा पुनि बल देइ बिसाला॥

पुनि नाना बिधि भई लराई। बिटप ओट देखहिं रघुराई॥

तब राम ने सुग्रीव के गले में फूलों की माला डाल दी और फिर उसे बड़ा भारी बल देकर भेजा। दोनों में पुनः अनेक प्रकार से युद्ध हुआ। रघुनाथ वृक्ष की आड़ से देख रहे थे।

दो० – बहु छल बल सुग्रीव कर हियँ हारा भय मानि।

मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि॥ 8॥

सुग्रीव ने बहुत-से छल-बल किए, किंतु (अंत में) भय मानकर हृदय से हार गया। तब राम ने तानकर बालि के हृदय में बाण मारा॥ 8॥

परा बिकल महि सर के लागें। पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगे॥

स्याम गात सिर जटा बनाएँ। अरुन नयन सर चाप चढ़ाएँ॥

बाण के लगते ही बालि व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। किंतु प्रभु राम को आगे देखकर वह फिर उठ बैठा। भगवान का श्याम शरीर है, सिर पर जटा बनाए हैं, लाल नेत्र हैं, बाण लिए हैं और धनुष चढ़ाए हैं।

पुनि पुनि चितइ चरन चित दीन्हा। सुफल जन्म माना प्रभु चीन्हा॥

हृदयँ प्रीति मुख बचन कठोरा। बोला चितइ राम की ओरा॥

बालि ने बार-बार भगवान की ओर देखकर चित्त को उनके चरणों में लगा दिया। प्रभु को पहचानकर उसने अपना जन्म सफल माना। उसके हृदय में प्रीति थी, पर मुख में कठोर वचन थे। वह राम की ओर देखकर बोला –

धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं। मारेहु मोहि ब्याध की नाईं॥

मैं बैरी सुग्रीव पिआरा। अवगुन कवन नाथ मोहि मारा॥

हे गोसाईं! आपने धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया है और मुझे व्याध की तरह (छिपकर) मारा? मैं बैरी और सुग्रीव प्यारा? हे नाथ! किस दोष से आपने मुझे मारा?

अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥

इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई॥

(राम ने कहा -) हे मूर्ख! सुन, छोटे भाई की स्त्री, बहिन, पुत्र की स्त्री और कन्या – ये चारों समान हैं। इनको जो कोई बुरी दृष्टि से देखता है, उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता।

मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना। नारि सिखावन करसि न काना॥

मम भुज बल आश्रित तेहि जानी। मारा चहसि अधम अभिमानी॥

हे मूढ़! तुझे अत्यंत अभिमान है। तूने अपनी स्त्री की सीख पर भी कान (ध्यान) नहीं दिया। सुग्रीव को मेरी भुजाओं के बल का आश्रित जानकर भी अरे अधम अभिमानी! तूने उसको मारना चाहा!

दो० – सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि।

प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि॥ 9॥

(बालि ने कहा -) हे राम! सुनिए, स्वामी (आप) से मेरी चतुराई नहीं चल सकती। हे प्रभो! अंतकाल में आपकी गति (शरण) पाकर मैं अब भी पापी ही रहा?॥ 9॥

सुनत राम अति कोमल बानी। बालि सीस परसेउ निज पानी॥

अचल करौं तनु राखहु प्राना। बालि कहा सुनु कृपानिधाना॥

बालि की अत्यंत कोमल वाणी सुनकर राम ने उसके सिर को अपने हाथ से स्पर्श किया (और कहा -) मैं तुम्हारे शरीर को अचल कर दूँ, तुम प्राणों को रखो। बालि ने कहा – हे कृपानिधान! सुनिए –

जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं॥

जासु नाम बल संकर कासी। देत सबहि सम गति अबिनासी॥

मुनिगण जन्म-जन्म में (प्रत्येक जन्म में) (अनेकों प्रकार का) साधन करते रहते हैं। फिर भी अंतकाल में उन्हें ‘राम’ नहीं कह आता (उनके मुख से राम नाम नहीं निकलता)। जिनके नाम के बल से शंकर काशी में सबको समान रूप से अविनाशिनी गति (मुक्ति) देते हैं।

मम लोचन गोचर सोई आवा। बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा॥

वह राम स्वयं मेरे नेत्रों के सामने आ गए हैं। हे प्रभो! ऐसा संयोग क्या फिर कभी बन पड़ेगा?

छं० – सो नयन गोचर जासु गुन नित नेति कहि श्रुति गावहीं।

जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुँक पावहीं॥

मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही।

अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबूरही॥

श्रुतियाँ ‘नेति-नेति’ कहकर निरंतर जिनका गुणगान करती रहती हैं, तथा प्राण और मन को जीतकर एवं इंद्रियों को (विषयों के रस से सर्वथा) नीरस बनाकर मुनिगण ध्यान में जिनकी कभी क्वचित ही झलक पाते हैं, वे ही प्रभु (आप) साक्षात मेरे सामने प्रकट हैं। आपने मुझे अत्यंत अभिमानवश जानकर यह कहा कि तुम शरीर रख लो। परंतु ऐसा मूर्ख कौन होगा जो हठपूर्वक कल्पवृक्ष को काटकर उससे बबूर के बाड़ लगावेगा (अर्थात पूर्णकाम बना देनेवाले आपको छोड़कर आपसे इस नश्वर शरीर की रक्षा चाहेगा)?

अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।

जेहि जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ॥

यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिऐ।

गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिऐ॥

हे नाथ! अब मुझ पर दयादृष्टि कीजिए और मैं जो वर माँगता हूँ उसे दीजिए। मैं कर्मवश जिस योनि में जन्म लूँ, वहीं राम (आप) के चरणों में प्रेम करूँ! हे कल्याणप्रद प्रभो! यह मेरा पुत्र अंगद विनय और बल में मेरे ही समान है, इसे स्वीकार कीजिए। और हे देवता और मनुष्यों के नाथ! बाँह पकड़कर इसे अपना दास बनाइए।

दो० – राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग।

सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग॥ 10॥

राम के चरणों में दृढ़ प्रीति करके बालि ने शरीर को वैसे ही (आसानी से) त्याग दिया जैसे हाथी अपने गले से फूलों की माला का गिरना न जाने॥ 10॥

राम बालि निज धाम पठावा। नगर लोग सब व्याकुल धावा॥

नाना बिधि बिलाप कर तारा। छूटे केस न देह सँभारा॥

राम ने बालि को अपने परम धाम भेज दिया। नगर के सब लोग व्याकुल होकर दौड़े। बालि की स्त्री तारा अनेकों प्रकार से विलाप करने लगी। उसके बाल बिखरे हुए हैं और देह की सँभाल नहीं है।

तारा बिकल देखि रघुराया। दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया॥

छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा॥

तारा को व्याकुल देखकर रघुनाथ ने उसे ज्ञान दिया और उसकी माया (अज्ञान) हर ली। (उन्होंने कहा -) पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु – इन पाँच तत्त्वों से यह अत्यंत अधम शरीर रचा गया है।

प्रगट सो तनु तव आगे सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा॥

उपजा ग्यान चरन तब लागी। लीन्हेसि परम भगति बर मागी॥

वह शरीर तो प्रत्यक्ष तुम्हारे सामने सोया हुआ है, और जीव नित्य है। फिर तुम किसके लिए रो रही हो? जब ज्ञान उत्पन्न हो गया, तब वह भगवान के चरणों लगी और उसने परम भक्ति का वर माँग लिया।

उमा दारु जोषित की नाईं। सबहि नचावत रामु गोसाईं॥

तब सुग्रीवहि आयसु दीन्हा। मृतक कर्म बिधिवत सब कीन्हा॥

(शिव कहते हैं -) हे उमा! स्वामी राम सबको कठपुतली की तरह नचाते हैं। तदनंतर राम ने सुग्रीव को आज्ञा दी और सुग्रीव ने विधिपूर्वक बालि का सब मृतक कर्म किया।

राम कहा अनुजहि समुझाई। राज देहु सुग्रीवहि जाई॥

रघुपति चरन नाइ करि माथा। चले सकल प्रेरित रघुनाथा॥

तब राम ने छोटे भाई लक्ष्मण को समझाकर कहा कि तुम जाकर सुग्रीव को राज्य दे दो। रघुनाथ की प्रेरणा (आज्ञा) से सब लोग रघुनाथ के चरणों में मस्तक नवाकर चले।

दो० – लछिमन तुरत बोलाए पुरजन बिप्र समाज।

राजु दीन्ह सुग्रीव कहँ अंगद कहँ जुबराज॥ 11॥

लक्ष्मण ने तुरंत ही सब नगरवासियों को और ब्राह्मणों के समाज को बुला लिया और (उनके सामने) सुग्रीव को राज्य और अंगद को युवराज-पद दिया॥ 11॥

उमा राम सम हत जग माहीं। गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं॥

सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति॥

हे पार्वती! जगत में राम के समान हित करनेवाला गुरु, पिता, माता, बंधु और स्वामी कोई नहीं है। देवता, मनुष्य और मुनि सबकी यह रीति है कि स्वार्थ के लिए ही सब प्रीति करते हैं।

बालि त्रास ब्याकुल दिन राती। तन बहु ब्रन चिंताँ जर छाती॥

सोइ सुग्रीव कीन्ह कपिराऊ। अति कृपाल रघुबीर सुभाऊ॥

जो सुग्रीव दिन-रात बालि के भय से व्याकुल रहता था, जिसके शरीर में बहुत-से घाव हो गए थे और जिसकी छाती चिंता के मारे जला करती थी, उसी सुग्रीव को उन्होंने वानरों का राजा बना दिया। राम का स्वभाव अत्यंत ही कृपालु है।

जानतहूँ अस प्रभु परिहरहीं। काहे न बिपति जाल नर परहीं॥

पुनि सुग्रीवहि लीन्ह बोलाई। बहु प्रकार नृपनीति सिखाई॥

जो लोग जानते हुए भी ऐसे प्रभु को त्याग देते हैं, वे क्यों न विपत्ति के जाल में फँसें? फिर राम ने सुग्रीव को बुला लिया और बहुत प्रकार से उन्हें राजनीति की शिक्षा दी।

कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा। पुर न जाउँ दस चारि बरीसा॥

गत ग्रीषम बरषा रितु आई। रहिहउँ निकट सैल पर छाई॥

फिर प्रभु ने कहा – हे वानरपति सुग्रीव! सुनो, मैं चौदह वर्ष तक गाँव (बस्ती) में नहीं जाऊँगा। ग्रीष्मऋतु बीतकर वर्षाऋतु आ गई। अतः मैं यहाँ पास ही पर्वत पर टिक रहूँगा।

अंगद सहित करहु तुम्ह राजू। संतत हृदयँ धरेहु मम काजू॥

जब सुग्रीव भवन फिरि आए। रामु प्रबरषन गिरि पर छाए॥

तुम अंगद सहित राज्य करो। मेरे काम का हृदय में सदा ध्यान रखना। तदनंतर जब सुग्रीव घर लौट आए, तब राम प्रवर्षण पर्वत पर जा टिके।

दो० – प्रथमहिं देवन्ह गिरि गुहा राखेउ रुचिर बनाइ।

राम कृपानिधि कछु दिन बास करहिंगे आइ॥ 12॥

देवताओं ने पहले से ही उस पर्वत की एक गुफा को सुंदर बना (सजा) रखा था। उन्होंने सोच रखा था कि कृपा की खान राम कुछ दिन यहाँ आकर निवास करेंगे॥ 12॥

सुंदर बन कुसुमित अति सोभा। गुंजत मधुप निकर मधु लोभा॥

कंद मूल फल पत्र सुहाए। भए बहुत जब ते प्रभु आए॥

सुंदर वन फूला हुआ अत्यंत सुशोभित है। मधु के लोभ से भौंरों के समूह गुंजार कर रहे हैं। जब से प्रभु आए, तब से वन में सुंदर कंद, मूल, फल और पत्तों की बहुतायत हो गई।

देखि मनोहर सैल अनूपा। रहे तहँ अनुज सहित सुरभूपा॥

मधुकर खग मृग तनु धरि देवा। करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा॥

मनोहर और अनुपम पर्वत को देखकर देवताओं के सम्राट राम छोटे भाई सहित वहाँ रह गए। देवता, सिद्ध और मुनि भौंरों, पक्षियों और पशुओं के शरीर धारण करके प्रभु की सेवा करने लगे।

मंगलरूप भयउ बन तब ते। कीन्ह निवास रमापति जब ते॥

फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई। सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई॥

जब से रमापति राम ने वहाँ निवास किया तब से वन मंगलस्वरूप हो गया। सुंदर स्फटिक मणि की एक अत्यंत उज्ज्वल शिला है, उस पर दोनों भाई सुखपूर्वक विराजमान हैं।

कहत अनुज सन कथा अनेका। भगति बिरत नृपनीति बिबेका॥

बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए॥

राम छोटे भाई लक्ष्मण से भक्ति, वैराग्य, राजनीति और ज्ञान की अनेकों कथाएँ कहते हैं। वर्षाकाल में आकाश में छाए हुए बादल गरजते हुए बहुत ही सुहावने लगते हैं।

दो० – लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पेखि।

गृही बिरति रत हरष जस बिष्नुभगत कहुँ देखि॥ 13॥

(राम कहने लगे -) हे लक्ष्मण! देखो, मोरों के झुंड बादलों को देखकर नाच रहे हैं, जैसे वैराग्य में अनुरक्त गृहस्थ किसी विष्णुभक्त को देखकर हर्षित होते हैं॥ 13॥

घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥

दामिनि दमक रह न घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥

आकाश में बादल घुमड़-घुमड़कर घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया (सीता) के बिना मेरा मन डर रहा है। बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं, जैसे दुष्ट की प्रीति स्थिर नहीं रहती।

बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।

बूँद अघात सहहिं गिरि कैसें। खल के बचन संत सह जैसें॥

बादल पृथ्वी के समीप आकर (नीचे उतरकर) बरस रहे हैं, जैसे विद्या पाकर विद्वान्‌ नम्र हो जाते हैं। बूँदों की चोट पर्वत कैसे सहते हैं, जैसे दुष्टों के वचन संत सहते हैं।

छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई॥

भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी॥

छोटी नदियाँ भरकर (किनारों को) तुड़ाती हुई चलीं, जैसे थोड़े धन से भी दुष्ट इतरा जाते हैं (मर्यादा का त्याग कर देते हैं)। पृथ्वी पर पड़ते ही पानी गँदला हो गया है, जैसे शुद्ध जीव के माया लिपट गई हो।

समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा॥

सरिता जल जलनिधि महुँ जाई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥

जल एकत्र हो-होकर तालाबों में भर रहा है, जैसे सद्गुण (एक-एककर) सज्जन के पास चले आते हैं। नदी का जल समुद्र में जाकर वैसे ही स्थिर हो जाता है, जैसे जीव हरि को पाकर अचल (आवागमन से मुक्त) हो जाता है।

दो० – हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ।

जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ॥ 14॥

पृथ्वी घास से परिपूर्ण होकर हरी हो गई है, जिससे रास्ते समझ नहीं पड़ते। जैसे पाखंड-मत के प्रचार से सद्ग्रंथ गुप्त (लुप्त) हो जाते हैं॥ 14॥

दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥

नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका॥

चारों दिशाओं में मेढकों की ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती है, मानो विद्यार्थियों के समुदाय वेद पढ़ रहे हों। अनेकों वृक्षों में नए पत्ते आ गए हैं, जिससे वे ऐसे हरे-भरे एवं सुशोभित हो गए हैं जैसे साधक का मन विवेक (ज्ञान) प्राप्त होने पर हो जाता है।

अर्क जवास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ॥

खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी॥

मदार और जवासा बिना पत्ते के हो गए (उनके पत्ते झड़ गए)। जैसे श्रेष्ठ राज्य में दुष्टों का उद्यम जाता रहा (उनकी एक भी नहीं चलती)। धूल कहीं खोजने पर भी नहीं मिलती, जैसे क्रोध धर्म को दूर कर देता है (अर्थात क्रोध का आवेश होने पर धर्म का ज्ञान नहीं रह जाता)।

ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी॥

निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा॥

अन्न से युक्त (लहलहाती हुई खेती से हरी-भरी) पृथ्वी कैसी शोभित हो रही है, जैसी उपकारी पुरुष की संपत्ति। रात के घने अंधकार में जुगनू शोभा पा रहे हैं, मानो दंभियों का समाज आ जुटा हो।

महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं। जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं॥

कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना॥

भारी वर्षा से खेतों की क्यारियाँ फूट चली हैं, जैसे स्वतंत्र होने से स्त्रियाँ बिगड़ जाती हैं। चतुर किसान खेतों को निरा रहे हैं (उनमें से घास आदि को निकालकर फेंक रहे हैं)। जैसे विद्वान लोग मोह, मद और मान का त्याग कर देते हैं।

देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं॥

ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा॥

चक्रवाक पक्षी दिखाई नहीं दे रहे हैं; जैसे कलियुग को पाकर धर्म भाग जाते हैं। ऊसर में वर्षा होती है, पर वहाँ घास तक नहीं उगती, जैसे हरिभक्त के हृदय में काम नहीं उत्पन्न होता।

बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा॥

जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना॥

पृथ्वी अनेक तरह के जीवों से भरी हुई उसी तरह शोभायमान है, जैसे सुराज्य पाकर प्रजा की वृद्धि होती है। जहाँ-तहाँ अनेक पथिक थककर ठहरे हुए हैं, जैसे ज्ञान उत्पन्न होने पर इंद्रियाँ (शिथिल होकर विषयों की ओर जाना छोड़ देती हैं)।

दो० – कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं।

जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं॥ 15(क)॥

कभी-कभी वायु बड़े जोर से चलने लगती है, जिससे बादल जहाँ-तहाँ गायब हो जाते हैं। जैसे कुपुत्र के उत्पन्न होने से कुल के उत्तम धर्म (श्रेष्ठ आचरण) नष्ट हो जाते हैं॥ 15(क)॥

कबहु दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग।

बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग॥ 15(ख)॥

कभी (बादलों के कारण) दिन में घोर अंधकार छा जाता है और कभी सूर्य प्रकट हो जाते हैं। जैसे कुसंग पाकर ज्ञान नष्ट हो जाता है और सुसंग पाकर उत्पन्न हो जाता है॥ 15(ख)॥

बरषा बिगत सरद रितु आई। लछमन देखहु परम सुहाई॥

फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥

हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई। मानो वर्षा ऋतु ने (कासरूपी सफेद बालों के रूप में) अपना बुढ़ापा प्रकट किया है।

उदित अगस्ति पंथ जल सोषा। जिमि लोभहिं सोषइ संतोषा॥

सरिता सर निर्मल जल सोहा। संत हृदय जस गत मद मोहा॥

अगस्त्य के तारे ने उदय होकर मार्ग के जल को सोख लिया, जैसे संतोष लोभ को सोख लेता है। नदियों और तालाबों का निर्मल जल ऐसी शोभा पा रहा है जैसे मद और मोह से रहित संतों का हृदय!

रस रस सूख सरित सर पानी। ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी॥

जानि सरद रितु खंजन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए॥

नदी और तालाबों का जल धीरे-धीरे सूख रहा है। जैसे ज्ञानी (विवेकी) पुरुष ममता का त्याग करते हैं। शरद ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए। जैसे समय पाकर सुंदर सुकृत आ जाते हैं (पुण्य प्रकट हो जाते हैं)।

पंक न रेनु सोह असि धरनी। नीति निपुन नृप कै जसि करनी॥

जल संकोच बिकल भइँ मीना। अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना॥

न कीचड़ है न धूल; इससे धरती (निर्मल होकर) ऐसी शोभा दे रही है जैसे नीतिनिपुण राजा की करनी! जल के कम हो जाने से मछलियाँ व्याकुल हो रही हैं, जैसे मूर्ख (विवेकशून्य) कुटुंबी (गृहस्थ) धन के बिना व्याकुल होता है।

बिनु घन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा॥

कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक भाव भगति जिमि मोरी॥

बिना बादलों का निर्मल आकाश ऐसा शोभित हो रहा है जैसे भगवद्भक्त सब आशाओं को छोड़कर सुशोभित होते हैं। कहीं-कहीं (विरले ही स्थानों में) शरद ऋतु की थोड़ी-थोड़ी वर्षा हो रही है। जैसे कोई विरले ही मेरी भक्ति पाते हैं।

दो० – चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि।

जिमि हरिभगति पाइ श्रम तजहिं आश्रमी चारि॥ 16॥

(शरद ऋतु पाकर) राजा, तपस्वी, व्यापारी और भिखारी (क्रमशः विजय, तप, व्यापार और भिक्षा के लिए) हर्षित होकर नगर छोड़कर चले। जैसे हरि की भक्ति पाकर चारों आश्रमवाले (नाना प्रकार के साधनरूपी) श्रमों को त्याग देते हैं॥ 16॥

सुखी मीन जे नीर अगाधा। जिमि हरि सरन न एकऊ बाधा॥

फूलें कमल सोह सर कैसा। निर्गुन ब्रह्म सगुन भएँ जैसा॥

जो मछलियाँ अथाह जल में हैं, वे सुखी हैं, जैसे हरि के शरण में चले जाने पर एक भी बाधा नहीं रहती। कमलों के फूलने से तालाब कैसी शोभा दे रहा है, जैसे निर्गुण ब्रह्म सगुण होने पर शोभित होता है।

गुंजत मधुकर मुखर अनूपा। सुंदर खग रव नाना रूपा॥

चक्रबाक मन दुख निसि पेखी। जिमि दुर्जन पर संपति देखी॥

भौंरे अनुपम शब्द करते हुए गूँज रहे हैं, तथा पक्षियों के नाना प्रकार के सुंदर शब्द हो रहे हैं। रात्रि देखकर चकवे के मन में वैसे ही दुःख हो रहा है, जैसे दूसरे की संपत्ति देखकर दुष्ट को होता है।

चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहइ न संकरद्रोही॥

सरदातप निसि ससि अपहरई। संत दरस जिमि पातक टरई॥

पपीहा रट लगाए है, उसको बड़ी प्यास है, जैसे शंकर का द्रोही सुख नहीं पाता (सुख के लिए झीखता रहता है), शरद् ऋतु के ताप को रात के समय चंद्रमा हर लेता है, जैसे संतों के दर्शन से पाप दूर हो जाते हैं।

देखि इंदु चकोर समुदाई। चितवहिं जिमि हरिजन हरि पाई॥

मसक दंस बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा॥

चकोरों के समुदाय चंद्रमा को देखकर इस प्रकार टकटकी लगाए हैं जैसे भगवद्भक्त भगवान को पाकर उनके (निर्निमेष नेत्रों से) दर्शन करते हैं। मच्छर और डाँस जाड़े के डर से इस प्रकार नष्ट हो गए जैसे ब्राह्मण के साथ वैर करने से कुल का नाश हो जाता है।

दो० – भूमि जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ।

सदगुर मिलें जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ॥ 17॥

(वर्षा ऋतु के कारण) पृथ्वी पर जो जीव भर गए थे, वे शरद् ऋतु को पाकर वैसे ही नष्ट हो गए जैसे सद्गुरु के मिल जाने पर संदेह और भ्रम के समूह नष्ट हो जाते हैं॥ 17॥

बरषा गत निर्मल रितु आई। सुधि न तात सीता कै पाई॥

एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं। कालुह जीति निमिष महुँ आनौं॥

वर्षा बीत गई, निर्मल शरद्ऋतु आ गई। परंतु हे तात! सीता की कोई खबर नहीं मिली। एक बार कैसे भी पता पाऊँ तो काल को भी जीतकर पल भर में जानकी को ले आऊँ।

कतहुँ रहउ जौं जीवति होई। तात जतन करि आनउँ सोई॥

सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी। पावा राज कोस पुर नारी॥

कहीं भी रहे, यदि जीती होगी तो हे तात! यत्न करके मैं उसे अवश्य लाऊँगा। राज्य, खजाना, नगर और स्त्री पा गया, इसलिए सुग्रीव ने भी मेरी सुध भुला दी।

जेहिं सायक मारा मैं बाली। तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली॥

जासु कृपाँ छूटहिं मद मोहा। ता कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा॥

जिस बाण से मैंने बालि को मारा था, उसी बाण से कल उस मूढ़ को मारूँ! (शिव कहते हैं -) हे उमा! जिनकी कृपा से मद और मोह छूट जाते हैं, उनको कहीं स्वप्न में भी क्रोध हो सकता है? (यह तो लीला मात्र है)।

जानहिं यह चरित्र मुनि ग्यानी। जिन्ह रघुबीर चरन रति मानी॥

लछिमन क्रोधवंत प्रभु जाना। धनुष चढ़ाई गहे कर बाना॥

ज्ञानी मुनि जिन्होंने रघुनाथ के चरणों में प्रीति मान ली है (जोड़ ली है), वे ही इस चरित्र (लीला रहस्य) को जानते हैं। लक्ष्मण ने जब प्रभु को क्रोधयुक्त जाना, तब उन्होंने धनुष चढ़ाकर बाण हाथ में ले लिए।

दो० – तब अनुजहि समुझावा रघुपति करुना सींव।

भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव॥ 18॥

तब दया की सीमा रघुनाथ ने छोटे भाई लक्ष्मण को समझाया कि हे तात! सखा सुग्रीव को केवल भय दिखलाकर ले आओ (उसे मारने की बात नहीं है)॥ 18॥

इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा। राम काजु सुग्रीवँ बिसारा॥

निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा॥

यहाँ (किष्किंधा नगरी में) पवनकुमार हनुमान ने विचार किया कि सुग्रीव ने राम के कार्य को भुला दिया। उन्होंने सुग्रीव के पास जाकर चरणों में सिर नवाया। (साम, दान, दंड, भेद) चारों प्रकार की नीति कहकर उन्हें समझाया।

सुनि सुग्रीवँ परम भय माना। बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना॥

अब मारुतसुत दूत समूहा। पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा॥

हनुमान के वचन सुनकर सुग्रीव ने बहुत ही भय माना। (और कहा -) विषयों ने मेरे ज्ञान को हर लिया। अब हे पवनसुत! जहाँ-तहाँ वानरों के यूथ रहते हैं, वहाँ दूतों के समूहों को भेजो।

कहहु पाख महुँ आव न जोई। मोरें कर ता कर बध होई॥

तब हनुमंत बोलाए दूता। सब कर करि सनमान बहूता॥

और कहला दो कि एक पखवाड़े में (पंदरह दिनों में) जो न आ जाएगा, उसका मेरे हाथों वध होगा। तब हनुमान ने दूतों को बुलाया और सबका बहुत सम्मान करके –

भय अरु प्रीति नीति देखराई। चले सकल चरनन्हि सिर नाई॥

एहि अवसर लछिमन पुर आए। क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए॥

सबको भय, प्रीति और नीति दिखलाई। सब बंदर चरणों में सिर नवाकर चले। इसी समय लक्ष्मण नगर में आए। उनका क्रोध देखकर बंदर जहाँ-तहाँ भागे।

दो० – धनुष चढ़ाइ कहा तब जारि करउँ पुर छार।

ब्याकुल नगर देखि तब आयउ बालिकुमार॥ 19॥

तदनंतर लक्ष्मण ने धनुष चढ़ाकर कहा कि नगर को जलाकर अभी राख कर दूँगा। तब नगरभर को व्याकुल देखकर बालिपुत्र अंगद उनके पास आए॥ 19॥

चरन नाइ सिरु बिनती कीन्ही। लछिमन अभय बाँह तेहि दीन्ही॥

क्रोधवंत लछिमन सुनि काना। कह कपीस अति भयँ अकुलाना॥

अंगद ने उनके चरणों में सिर नवाकर विनती की (क्षमा-याचना की)। तब लक्ष्मण ने उनको अभय बाँह दी (भुजा उठाकर कहा कि डरो मत)। सुग्रीव ने अपने कानों से लक्ष्मण को क्रोधयुक्त सुनकर भय से अत्यंत व्याकुल होकर कहा –

सुनु हनुमंत संग लै तारा। करि बिनती समुझाउ कुमारा॥

तारा सहित जाइ हनुमाना। चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना॥

हे हनुमान! सुनो, तुम तारा को साथ ले जाकर विनती करके राजकुमार को समझाओ (समझा-बुझाकर शांत करो)। हनुमान ने तारा सहित जाकर लक्ष्मण के चरणों की वंदना की और प्रभु के सुंदर यश का बखान किया।

करि बिनती मंदिर लै आए। चरन पखारि पलँग बैठाए॥

तब कपीस चरनन्हि सिरु नावा। गहि भुज लछिमन कंठ लगावा॥

वे विनती करके उन्हें महल में ले आए तथा चरणों को धोकर उन्हें पलँग पर बैठाया। तब वानरराज सुग्रीव ने उनके चरणों में सिर नवाया और लक्ष्मण ने हाथ पकड़कर उनको गले से लगा लिया।

नाथ विषय सम मद कछु नाहीं। मुनि मन मोह करइ छन माहीं।

सुनत बिनीत बचन सुख पावा। लछिमन तेहि बहुबिधि समुझावा॥

(सुग्रीव ने कहा -) हे नाथ! विषय के समान और कोई मद नहीं है। यह मुनियों के मन में भी क्षणमात्र में मोह उत्पन्न कर देता है (फिर मैं तो विषयी जीव ही ठहरा)। सुग्रीव के विनययुक्त वचन सुनकर लक्ष्मण ने सुख पाया और उनको बहुत प्रकार से समझाया।

पवन तनय सब कथा सुनाई। जेहि बिधि गए दूत समुदाई॥

तब पवनसुत हनुमान ने जिस प्रकार सब दिशाओं में दूतों के समूह गए थे वह सब हाल सुनाया।

दो० – हरषि चले सुग्रीव तब अंगदादि कपि साथ।

रामानुज आगें करि आए जहँ रघुनाथ॥ 20॥

तब अंगद आदि वानरों को साथ लेकर और राम के छोटे भाई लक्ष्मण को आगे करके (अर्थात उनके पीछे-पीछे) सुग्रीव हर्षित होकर चले और जहाँ रघुनाथ थे वहाँ आए॥ 20॥

नाइ चरन सिरु कह कर जोरी॥ नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी॥

अतिसय प्रबल देव तव माया॥ छूटइ राम करहु जौं दाया॥

रघुनाथ के चरणों में सिर नवाकर हाथ जोड़कर सुग्रीव ने कहा – हे नाथ! मुझे कुछ भी दोष नहीं है। हे देव! आपकी माया अत्यंत ही प्रबल है। आप जब दया करते हैं, हे राम! तभी यह छूटती है।

बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी॥ मैं पावँर पसु कपि अति कामी॥

नारि नयन सर जाहि न लागा। घोर क्रोध तम निसि जो जागा॥

हे स्वामी! देवता, मनुष्य और मुनि सभी विषयों के वश में हैं। फिर मैं तो पामर पशु और पशुओं में भी अत्यंत कामी बंदर हूँ। स्त्री का नयन-बाण जिसको नहीं लगा, जो भयंकर क्रोधरूपी अँधेरी रात में भी जागता रहता है (क्रोधांध नहीं होता)।

लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया। सो नर तुम्ह समान रघुराया॥

यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई॥

और लोभ की फाँसी से जिसने अपना गला नहीं बँधाया, हे रघुनाथ! वह मनुष्य आप ही के समान है। ये गुण साधन से नहीं प्राप्त होते। आपकी कृपा से ही कोई-कोई इन्हें पाते हैं।

तब रघुपति बोले मुसुकाई। तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई॥

अब सोइ जतनु करह मन लाई। जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई॥

तब रघुनाथ मुसकराकर बोले – हे भाई! तुम मुझे भरत के समान प्यारे हो। अब मन लगाकर वही उपाय करो जिस उपाय से सीता की खबर मिले।

दो० – एहि बिधि होत बतकही आए बानर जूथ।

नाना बरन सकल दिसि देखिअ कीस बरूथ॥ 21॥

इस प्रकार बातचीत हो रही थी कि वानरों के यूथ (झुंड) आ गए। अनेक रंगों के वानरों के दल सब दिशाओं में दिखाई देने लगे॥ 21॥

बानर कटक उमा मैं देखा। सो मूरुख जो करन चह लेखा॥

आइ राम पद नावहिं माथा। निरखि बदनु सब होहिं सनाथा॥

(शिव कहते हैं -) हे उमा! वानरों की वह सेना मैंने देखी थी। उसकी जो गिनती करना चाहे वह महान मूर्ख है। सब वानर आ-आकर राम के चरणों में मस्तक नवाते हैं और (सौंदर्य-माधुर्यनिधि) मुख के दर्शन करके कृतार्थ होते हैं।

अस कपि एक न सेना माहीं। राम कुसल जेहि पूछी नाहीं॥

यह कछु नहिं प्रभु कइ अधिकाई। बिस्वरूप ब्यापक रघुराई॥

सेना में एक भी वानर ऐसा नहीं था जिससे राम ने कुशल न पूछी हो, प्रभु के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है; क्योंकि रघुनाथ विश्वरूप तथा सर्वव्यापक हैं (सारे रूपों और सब स्थानों में हैं)।

ठाढ़े जहँ तहँ आयसु पाई। कह सुग्रीव सबहि समुझाई॥

राम काजु अरु मोर निहोरा। बानर जूथ जाहु चहुँ ओरा॥

आज्ञा पाकर सब जहाँ-तहाँ खड़े हो गए। तब सुग्रीव ने सबको समझाकर कहा कि हे वानरों के समूहों! यह राम का कार्य है और मेरा निहोरा (अनुरोध) है; तुम चारों ओर जाओ।

जनकसुता कहुँ खोजहु जाई। मास दिवस महँ आएहु भाई॥

अवधि मेटि जो बिनु सुधि पाएँ। आवइ बनिहि सो मोहि मराएँ॥

और जाकर जानकी को खोजो। हे भाई! महीने भर में वापस आ जाना। जो (महीने भर की) अवधि बिताकर बिना पता लगाए ही लौट आएगा उसे मेरे द्वारा मरवाते ही बनेगा (अर्थात मुझे उसका वध करवाना ही पड़ेगा)।

दो० – बचन सुनत सब बानर जहँ तहँ चले तुरंत।

तब सुग्रीवँ बोलाए अंगद नल हनुमंत॥ 22॥

सुग्रीव के वचन सुनते ही सब वानर तुरंत जहाँ-तहाँ (भिन्न-भिन्न दिशाओं में) चल दिए। तब सुग्रीव ने अंगद, नल, हनुमान आदि प्रधान-प्रधान योद्धाओं को बुलाया (और कहा -)॥ 22॥

सुनहु नील अंगद हनुमाना। जामवंत मतिधीर सुजाना॥

सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू। सीता सुधि पूँछेहु सब काहू॥

हे धीरबुद्धि और चतुर नील, अंगद, जाम्बवान और हनुमान! तुम सब श्रेष्ठ योद्धा मिलकर दक्षिण दिशा को जाओ और सब किसी से सीता का पता पूछना।

मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु। रामचंद्र कर काजु सँवारेहु॥

भानु पीठि सेइअ उर आगी। स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी॥

मन, वचन तथा कर्म से उसी का (सीता का पता लगाने का) उपाय सोचना। श्री रामचंद्र का कार्य संपन्न (सफल) करना। सूर्य को पीठ से और अग्नि को हृदय से (सामने से) सेवन करना चाहिए। परंतु स्वामी की सेवा तो छल छोड़कर सर्वभाव से (मन, वचन, कर्म से) करनी चाहिए।

तजि माया सेइअ परलोका। मिटहिं सकल भवसंभव सोका॥

देह धरे कर यह फलु भाई। भजिअ राम सब काम बिहाई॥

माया (विषयों की ममता-आसक्ति) को छोड़कर परलोक का सेवन (भगवान के दिव्य धाम की प्राप्ति के लिए भगवत्सेवारूप साधन) करना चाहिए, जिससे भव (जन्म-मरण) से उत्पन्न सारे शोक मिट जाएँ। हे भाई! देह धारण करने का यही फल है कि सब कामों (कामनाओं) को छोड़कर राम का भजन ही किया जाए।

सोइ गुनग्य सोई बड़भागी। जो रघुबीर चरन अनुरागी॥

आयसु मागि चरन सिरु नाई। चले हरषि सुमिरत रघुराई॥

सद्गुणों को पहचाननेवाला (गुणवान) तथा बड़भागी वही है जो रघुनाथ के चरणों का प्रेमी है। आज्ञा माँगकर और चरणों में फिर सिर नवाकर रघुनाथ का स्मरण करते हुए सब हर्षित होकर चले।

पाछें पवन तनय सिरु नावा। जानि काज प्रभु निकट बोलावा॥

परसा सीस सरोरुह पानी। करमुद्रिका दीन्हि जन जानी॥

सबके पीछे पवनसुत हनुमान ने सिर नवाया। कार्य का विचार करके प्रभु ने उन्हें अपने पास बुलाया। उन्होंने अपने कर-कमल से उनके सिर का स्पर्श किया तथा अपना सेवक जानकर उन्हें अपने हाथ की अँगूठी उतारकर दी।

बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु। कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु॥

हनुमत जन्म सुफल करि माना। चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना॥

(और कहा -) बहुत प्रकार से सीता को समझाना और मेरा बल तथा विरह (प्रेम) कहकर तुम शीघ्र लौट आना। हनुमान ने अपना जन्म सफल समझा और कृपानिधान प्रभु को हृदय में धारण करके वे चले।

जद्यपि प्रभु जानत सब बाता। राजनीति राखत सुरत्राता॥

यद्यपि देवताओं की रक्षा करनेवाले प्रभु सब बात जानते हैं, तो भी वे राजनीति की रक्षा कर रहे हैं (नीति की मर्यादा रखने के लिए सीता का पता लगाने को जहाँ-तहाँ वानरों को भेज रहे हैं)।

दो० – चले सकल बन खोजत सरिता सर गिरि खोह।

राम काज लयलीन मन बिसरा तन कर छोह॥ 23॥

सब वानर वन, नदी, तालाब, पर्वत और पर्वतों की कंदराओं में खोजते हुए चले जा रहे हैं। मन राम के कार्य में लवलीन है। शरीर तक का प्रेम (ममत्व) भूल गया है॥ 23॥

कतहुँ होइ निसिचर सैं भेटा। प्रान लेहिं एक एक चपेटा॥

बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं। कोउ मुनि मिलइ ताहि सब घेरहिं॥

कहीं किसी राक्षस से भेंट हो जाती है, तो एक-एक चपत में ही उसके प्राण ले लेते हैं। पर्वतों और वनों को बहुत प्रकार से खोज रहे हैं। कोई मुनि मिल जाता है तो पता पूछने के लिए उसे सब घेर लेते हैं।

लागि तृषा अतिसय अकुलाने। मिलइ न जल घन गहन भुलाने॥

मन हनुमान कीन्ह अनुमाना। मरन चहत सब बिनु जल पाना॥

इतने में ही सबको अत्यंत प्यास लगी, जिससे सब अत्यंत ही व्याकुल हो गए। किंतु जल कहीं नहीं मिला। घने जंगल में सब भुला गए। हनुमान ने मन में अनुमान किया कि जल पिए बिना सब लोग मरना ही चाहते हैं।

चढ़ि गिरि सिखर चहूँ दिसि देखा। भूमि बिबर एक कौतुक पेखा॥

चक्रबाक बक हंस उड़ाहीं। बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं॥

उन्होंने पहाड़ की चोटी पर चढ़कर चारों ओर देखा तो पृथ्वी के अंदर एक गुफा में उन्हें एक कौतुक (आश्चर्य) दिखाई दिया। उसके ऊपर चकवे, बगुले और हंस उड़ रहे हैं और बहुत-से पक्षी उसमें प्रवेश कर रहे हैं।

गिरि ते उतरि पवनसुत आवा। सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा॥

आगें कै हनुमंतहि लीन्हा। पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा॥

पवन कुमार हनुमान पर्वत से उतर आए और सबको ले जाकर उन्होंने वह गुफा दिखलाई। सबने हनुमान को आगे कर लिया और वे गुफा में घुस गए, देर नहीं की।

दो० – दीख जाइ उपबन बर सर बिगसित बहु कंज।

मंदिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज॥ 24॥

अंदर जाकर उन्होंने एक उत्तम उपवन (बगीचा) और तालाब देखा, जिसमें बहुत-से कमल खिले हुए हैं। वहीं एक सुंदर मंदिर है, जिसमें एक तपोमूर्ति स्त्री बैठी है॥ 24॥

दूरि ते ताहि सबन्हि सिरु नावा। पूछें निज बृत्तांत सुनावा॥

तेहिं तब कहा करहु जल पाना। खाहु सुरस सुंदर फल नाना॥

दूर से ही सबने उसे सिर नवाया और पूछने पर अपना सब वृत्तांत कह सुनाया। तब उसने कहा – जलपान करो और भाँति-भाँति के रसीले सुंदर फल खाओ।

मज्जनु कीन्ह मधुर फल खाए। तासु निकट पुनि सब चलि आए॥

तेहिं सब आपनि कथा सुनाई। मैं अब जाब जहाँ रघुराई॥

(आज्ञा पाकर) सबने स्नान किया, मीठे फल खाए और फिर सब उसके पास चले आए। तब उसने अपनी सब कथा कह सुनाई (और कहा -) मैं अब वहाँ जाऊँगी जहाँ रघुनाथ हैं।

मूदहु नयन बिबर तजि जाहू। पैहहु सीतहि जनि पछिताहू॥

नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा। ठाढ़े सकल सिंधु कें तीरा॥

तुम लोग आँखें मूँद लो और गुफा को छोड़कर बाहर जाओ। तुम सीता को पा जाओगे, पछताओ नहीं (निराश न होओ)। आँखें मूँदकर फिर जब आँखें खोलीं तो सब वीर क्या देखते हैं कि सब समुद्र के तीर पर खड़े हैं।

सो पुनि गई जहाँ रघुनाथा। जाइ कमल पद नाएसि माथा॥

नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्ही। अनपायनी भगति प्रभु दीन्ही॥

और वह स्वयं वहाँ गई जहाँ रघुनाथ थे। उसने जाकर प्रभु के चरण कमलों में मस्तक नवाया और बहुत प्रकार से विनती की। प्रभु ने उसे अपनी अनपायिनी (अचल) भक्ति दी।

दो० – बदरीबन कहुँ सो गई प्रभु अग्या धरि सीस।

उर धरि राम चरन जुग जे बंदत अज ईस॥ 25॥

प्रभु की आज्ञा सिर पर धारण कर और राम के युगल चरणों को, जिनकी ब्रह्मा और महेश भी वंदना करते हैं, हृदय में धारण कर वह (स्वयंप्रभा) बदरिकाश्रम को चली गई॥ 25॥

इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं। बीती अवधि काज कछु नाहीं॥

सब मिलि कहहिं परस्पर बाता। बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता॥

यहाँ वानरगण मन में विचार कर रहे हैं कि अवधि तो बीत गई, पर काम कुछ न हुआ। सब मिलकर आपस में बात करने लगे कि हे भाई! अब तो सीता की खबर लिए बिना लौटकर भी क्या करेंगे!

कह अंगद लोचन भरि बारी। दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी॥

इहाँ न सुधि सीता कै पाई। उहाँ गएँ मारिहि कपिराई॥

अंगद ने नेत्रों में जल भरकर कहा कि दोनों ही प्रकार से हमारी मृत्यु हुई। यहाँ तो सीता की सुध नहीं मिली और वहाँ जाने पर वानरराज सुग्रीव मार डालेंगे।

पिता बधे पर मारत मोही। राखा राम निहोर न ओही॥

पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं। मरन भयउ कछु संसय नाहीं॥

वे तो पिता के वध होने पर ही मुझे मार डालते। राम ने ही मेरी रक्षा की, इसमें सुग्रीव का कोई एहसान नहीं है। अंगद बार-बार सबसे कह रहे हैं कि अब मरण हुआ, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।

अंगद बचन सुन कपि बीरा। बोलि न सकहिं नयन बह नीरा॥

छन एक सोच मगन होइ रहे। पुनि अस बचन कहत सब भए॥4॥

वानर वीर अंगद के वचन सुनते हैं, किंतु कुछ बोल नहीं सकते। उनके नेत्रों से जल बह रहा है। एक क्षण के लिए सब सोच में मग्न हो रहे। फिर सब ऐसा वचन कहने लगे-

हम सीता कै सुधि लीन्हें बिना। नहिं जैहैं जुबराज प्रबीना॥

अस कहि लवन सिंधु तट जाई। बैठे कपि सब दर्भ डसाई॥

हे सुयोग्य युवराज! हम लोग सीता की खोज लिए बिना नहीं लौटेंगे। ऐसा कहकर लवणसागर के तट पर जाकर सब वानर कुश बिछाकर बैठ गए।

जामवंत अंगद दुख देखी। कहीं कथा उपदेस बिसेषी॥

तात राम कहुँ नर जनि मानहु। निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु॥

जाम्बवान ने अंगद का दुःख देखकर विशेष उपदेश की कथाएँ कहीं। (वे बोले -) हे तात! राम को मनुष्य न मानो, उन्हें निर्गुण ब्रह्म, अजेय और अजन्मा समझो।

हम सब सेवक अति बड़भागी। संतत सगुन ब्रह्म अनुरागी॥

हम सब सेवक अत्यंत बड़भागी हैं, जो निरंतर सगुण ब्रह्म (राम) में प्रीति रखते हैं।

दो० – निज इच्छाँ प्रभु अवतरइ सुर मह गो द्विज लागि।

सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि॥ 26॥

देवता, पृथ्वी, गो और ब्राह्मणों के लिए प्रभु अपनी इच्छा से (किसी कर्मबंधन से नहीं) अवतार लेते हैं। वहाँ सगुणोपासक (भक्तगण सालोक्य, सामीप्य, सारुप्य, सार्ष्टि और सायुज्य) सब प्रकार के मोक्षों को त्यागकर उनकी सेवा में साथ रहते हैं॥ 26॥

एहि बिधि कथा कहहिं बहु भाँती। गिरि कंदराँ सुनी संपाती॥

बाहेर होइ देखि बहु कीसा। मोहि अहार दीन्ह जगदीसा॥

इस प्रकार जाम्बवान बहुत प्रकार से कथाएँ कह रहे हैं। इनकी बातें पर्वत की कंदरा में सम्पाती ने सुनीं। बाहर निकलकर उसने बहुत-से वानर देखे। (तब वह बोला -) जगदीश्वर ने मुझको घर बैठे बहुत-सा आहार भेज दिया!

आजु सबहि कहँ भच्छन करऊँ। दिन बहु चले अहार बिनु मरऊँ॥

कबहुँ न मिल भरि उदर अहारा। आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा॥

आज इन सबको खा जाऊँगा। बहुत दिन बीत गए, भोजन के बिना मर रहा था। पेटभर भोजन कभी नहीं मिलता। आज विधाता ने एक ही बार में बहुत-सा भोजन दे दिया।

डरपे गीध बचन सुनि काना। अब भा मरन सत्य हम जाना॥

कपि सब उठे गीध कहँ देखी। जामवंत मन सोच बिसेषी॥

गीध के वचन कानों से सुनते ही सब डर गए कि अब सचमुच ही मरना हो गया। यह हमने जान लिया। फिर उस गीध (सम्पाती) को देखकर सब वानर उठ खड़े हुए। जाम्बवान के मन में विशेष सोच हुआ।

कह अंगद बिचारि मन माहीं। धन्य जटायू सम कोउ नाहीं॥

राम काज कारन तनु त्यागी। हरि पुर गयउ परम बड़भागी॥

अंगद ने मन में विचार कर कहा- अहा! जटायु के समान धन्य कोई नहीं है। राम के कार्य के लिए शरीर छोड़कर वह परम बड़भागी भगवान के परमधाम को चला गया।

सुनि खग हरष सोक जुत बानी। आवा निकट कपिन्ह भय मानी॥

तिन्हहि अभय करि पूछेसि जाई। कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई॥

हर्ष और शोक से युक्त वाणी (समाचार) सुनकर वह पक्षी (सम्पाती) वानरों के पास आया। वानर डर गए। उनको अभय करके (अभय वचन देकर) उसने पास जाकर जटायु का वृत्तांत पूछा, तब उन्होंने सारी कथा उसे कह सुनाई।

सुनि संपाति बंधु कै करनी। रघुपति महिमा बहुबिधि बरनी॥

भाई जटायु की करनी सुनकर सम्पाती ने बहुत प्रकार से रघुनाथ की महिमा वर्णन की।

दो० – मोहि लै जाहु सिंधुतट देउँ तिलांजलि ताहि।

बचन सहाइ करबि मैं पैहहु खोजहु जाहि॥ 27॥

(उसने कहा -) मुझे समुद्र के किनारे ले चलो, मैं जटायु को तिलांजलि दे दूँ। इस सेवा के बदले मैं तुम्हारी वचन से सहायता करूँगा (अर्थात सीता कहाँ हैं सो बतला दूँगा), जिसे तुम खोज रहे हो उसे पा जाओगे॥ 27॥

अनुज क्रिया करि सागर तीरा। कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा॥

हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई। गगन गए रबि निकट उड़ाई॥

समुद्र के तीर पर छोटे भाई जटायु की क्रिया (श्राद्ध आदि) करके सम्पाती अपनी कथा कहने लगा- हे वीर वानरों! सुनो, हम दोनों भाई उठती जवानी में एक बार आकाश में उड़कर सूर्य के निकट चले गए।

तेज न सहि सक सो फिरि आवा। मैं अभिमानी रबि निअरावा॥

जरे पंख अति तेज अपारा। परेउँ भूमि करि घोर चिकारा॥

वह (जटायु) तेज नहीं सह सका, इससे लौट आया। (किंतु) मैं अभिमानी था इसलिए सूर्य के पास चला गया। अत्यंत अपार तेज से मेरे पंख जल गए। मैं बड़े जोर से चीख मारकर जमीन पर गिर पड़ा।

मुनि एक नाम चंद्रमा ओही। लागी दया देखि करि मोही॥

बहु प्रकार तेहिं ग्यान सुनावा। देहजनित अभिमान छुड़ावा॥

वहाँ चंद्रमा नाम के एक मुनि थे। मुझे देखकर उन्हें बड़ी दया लगी। उन्होंने बहुत प्रकार से मुझे ज्ञान सुनाया और मेरे देहजनित (देह संबंधी) अभिमान को छुड़ा दिया।

त्रेताँ ब्रह्म मनुज तनु धरिही। तासु नारि निसिचर पति हरिही॥

तासु खोज पठइहि प्रभु दूता। तिन्हहि मिलें तैं होब पुनीता॥

(उन्होंने कहा -) त्रेतायुग में साक्षात परब्रह्म मनुष्य शरीर धारण करेंगे। उनकी स्त्री को राक्षसों का राजा हर ले जाएगा। उसकी खोज में प्रभु दूत भेजेंगे। उनसे मिलने पर तू पवित्र हो जाएगा।

जमिहहिं पंख करसि जनि चिंता। तिन्हहि देखाइ देहेसु तैं सीता॥

मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू। सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू॥

और तेरे पंख उग आएँगे, चिंता न कर। उन्हें तू सीता को दिखा देना। मुनि की वह वाणी आज सत्य हुई। अब मेरे वचन सुनकर तुम प्रभु का कार्य करो।

गिरि त्रिकूट ऊपर बस लंका। तहँ रह रावन सहज असंका॥

तहँ असोक उपबन जहँ रहई। सीता बैठि सोच रत अहई॥

त्रिकूट पर्वत पर लंका बसी हुई है। वहाँ स्वभाव से ही निडर रावण रहता है। वहाँ अशोक नाम का उपवन (बगीचा) है, जहाँ सीता रहती हैं। (इस समय भी) वे सोच में मग्न बैठी हैं।

दो० – मैं देखउँ तुम्ह नाहीं गीधहि दृष्टि अपार।

बूढ़ भयउँ न त करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार॥ 28॥

मैं उन्हें देख रहा हूँ, तुम नहीं देख सकते, क्योंकि गीध की दृष्टि अपार होती है (बहुत दूर तक जाती है)। क्या करूँ? मैं बूढ़ा हो गया, नहीं तो तुम्हारी कुछ तो सहायता अवश्य करता॥ 28॥

जो नाघइ सत जोजन सागर। करइ सो राम काज मति आगर॥

मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा। राम कृपाँ कस भयउ सरीरा॥

जो सौ योजन (चार सौ कोस) समुद्र लाँघ सकेगा और बुद्धिनिधान होगा, वही राम का कार्य कर सकेगा। मुझे देखकर मन में धीरज धरो। देखो, राम की कृपा से मेरा शरीर कैसा हो गया (बिना पंख का बेहाल था, पंख उगने से सुंदर हो गया)!

पापिउ जा कर नाम सुमिरहीं। अति अपार भवसागर तरहीं॥

तासु दूत तुम्ह तजि कदराई। राम हृदयँ धरि करहु उपाई॥

पापी भी जिनका नाम स्मरण करके अत्यंत अपार भवसागर से तर जाते हैं। तुम उनके दूत हो, अतः कायरता छोड़कर राम को हृदय में धारण करके उपाय करो।

अस कहि गरुड़ गीध जब गयऊ। तिन्ह कें मन अति बिसमय भयऊ॥

निज निज बल सब काहूँ भाषा। पार जाइ कर संसय राखा॥

(काकभुशुंडि कहते हैं -) हे गरुड़! इस प्रकार कहकर जब गीध चला गया, तब उन (वानरों) के मन में अत्यंत विस्मय हुआ। सब किसी ने अपना-अपना बल कहा। पर समुद्र के पार जाने में सभी ने संदेह प्रकट किया।

जरठ भयउँ अब कहइ रिछेसा। नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा॥

जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी। तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी॥

ऋक्षराज जाम्बवान कहने लगे – मैं बूढ़ा हो गया। शरीर में पहले वाले बल का लेश भी नहीं रहा। जब खरारि (खर के शत्रु राम) वामन बने थे, तब मैं जवान था और मुझमें बड़ा बल था।

दो० – बलि बाँधत प्रभु बाढ़ेउ सो तनु बरनि न जाइ।

उभय घरी महँ दीन्हीं सात प्रदच्छिन धाइ॥ 29॥

बलि के बाँधते समय प्रभु इतने बढ़े कि उस शरीर का वर्णन नहीं हो सकता, किंतु मैंने दो ही घड़ी में दौड़कर (उस शरीर की) सात प्रदक्षिणाएँ कर लीं॥ 29॥

अंगद कहइ जाउँ मैं पारा। जियँ संसय कछु फिरती बारा॥

जामवंत कह तुम्ह सब लायक। पठइअ किमि सबही कर नायक॥

अंगद ने कहा – मैं पार तो चला जाऊँगा, परंतु लौटते समय के लिए हृदय में कुछ संदेह है। जाम्बवान ने कहा – तुम सब प्रकार से योग्य हो, परंतु तुम सबके नेता हो, तुम्हे कैसे भेजा जाए?

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना॥

पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥

ऋक्षराज जाम्बवान ने हनुमान से कहा – हे हनुमान! हे बलवान! सुनो, तुमने यह क्या चुप साध रखी है? तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो। तुम बुद्धि-विवेक और विज्ञान की खान हो।

कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥

राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥

जगत में कौन-सा ऐसा कठिन काम है जो हे तात! तुमसे न हो सके। राम के कार्य के लिए ही तो तुम्हारा अवतार हुआ है। यह सुनते ही हनुमान पर्वत के आकार के (अत्यंत विशालकाय) हो गए।

कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥

सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा॥

उनका सोने का-सा रंग है, शरीर पर तेज सुशोभित है, मानो पर्वतों का दूसरा राजा सुमेरु हो। हनुमान ने बार-बार सिंहनाद करके कहा – मैं इस खारे समुद्र को खेल में ही लाँघ सकता हूँ।

सहित सहाय रावनहि मारी। आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी॥

जामवंत मैं पूँछउँ तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही॥

और सहायकों सहित रावण को मारकर त्रिकूट पर्वत को उखाड़कर यहाँ ला सकता हूँ। हे जाम्बवान! मैं तुमसे पूछता हूँ, तुम मुझे उचित सीख देना (कि मुझे क्या करना चाहिए)।

एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई॥

तब निज भुज बल राजिवनैना। कौतुक लागि संग कपि सेना॥

(जाम्बवान ने कहा -) हे तात! तुम जाकर इतना ही करो कि सीता को देखकर लौट आओ और उनकी खबर कह दो। फिर कमलनयन राम अपने बाहुबल से (ही राक्षसों का संहार कर सीता को ले आएँगे, केवल) खेल के लिए ही वे वानरों की सेना साथ लेंगे।

छं० – कपि सेन संग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं।

त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं॥

जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पावई।

रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई॥

वानरों की सेना साथ लेकर राक्षसों का संहार करके राम सीता को ले आएँगे। तब देवता और नारदादि मुनि भगवान के तीनों लोकों को पवित्र करने वाले सुंदर यश का बखान करेंगे, जिसे सुनने, गाने, कहने और समझने से मनुष्य परमपद पाते हैं और जिसे रघुवीर के चरण कमल का मधुकर (भ्रमर) तुलसीदास गाता है।

दो० – भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।

तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि॥ 30 (क)॥

रघुवीर का यश भव (जन्म-मरण) रूपी रोग की (अचूक) दवा है। जो पुरुष और स्त्री इसे सुनेंगे, त्रिशिरा के शत्रु राम उनके सब मनोरथों को सिद्ध करेंगे॥ 30(क)॥

सो० – नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक।

सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक॥ 30(ख)॥

जिनका नीले कमल के समान श्याम शरीर है, जिनकी शोभा करोड़ों कामदेवों से भी अधिक है और जिनका नाम पापरूपी पक्षियों को मारने के लिए बधिक (व्याध) के समान है, उन राम के गुणों के समूह (लीला) को अवश्य सुनना चाहिए॥ 30(ख)॥

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने चतुर्थ: सोपान: समाप्त:।

कलियुग के संपूर्ण पापों को विध्वंस करने वाले श्री रामचरितमानस का यह चौथा सोपान समाप्त हुआ।

(किष्किंधाकांड समाप्त)

श्री राम चरित मानस- किष्किंधाकांड, मासपारायण, तेईसवाँ विश्राम समाप्त॥

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *