रामज्ञा प्रश्न पंचम सर्ग || Ramagya Prashna Pancham Sarga 5
रामज्ञा प्रश्न पंचम सर्ग – रामाज्ञा प्रश्न तुलसीदास की रचना है जो शुभ-अशुभ विचार के लिए रची गयी है। यह विचार उन्होंने राम-कथा की सहायता से प्रस्तुत किया है। यह रचना दोहा शैली में रचित है। सात-सात सप्तकों के सात सर्गों के लिए पुस्तक खोलने पर जो दोहा मिलता है उसके पहले राम-कथा का कोई एक प्रसंग आता है और बाद में शुभ-अशुभ फल चर्चा आती है। तुलसीदास जी की यह रचना अवधी भाषा मे लिखित एक मुक्तक काव्य है। मूलतः यह एक ज्योतिष ग्रन्थ है जिसको तुलसीदास जी ने अपने मित्र गंगाराम ज्योतिष के आग्रह पर लिखा था।
रामज्ञा प्रश्न – पञ्चम सर्ग – सप्तक १
राम नाम कलि कामतरु राम भगति सुरधेनु ।
सगुन सुमंगल मूल जग गुरु पद पंकज रेनु ॥१॥
कलियुग में श्रीराम-नाम कल्पवृक्ष ( मनचाहा वस्तु देनेवाला ) है और रामभक्ति कामधेनु है । गुरुदेव के चरणकमलों की धूलि जगत् में सारे शुभ शकुनों तथा कल्याणों की जड़ है ॥१॥
( प्रश्न फल शुभ है । )
जलधि पार मानस अगम रावन पालित लंक ।
सोच बिकल कपि भालु सब, दुहुँ दिसि संकट संक ॥२॥
समुद्र के पार मन से भी अगम्य रावण द्वारा पालित लंका नगरी है । सारे वानर-भालू इस चिन्ता से व्याकुल हो रहे हैं कि दोनों ओर ( समुद्रपार होने में और बिना कार्य पुरा किये लौटने में ) शंका और विपत्ति है ॥२॥
( प्रश्न-फल निकृष्ट है । )
जामवंत हनुमान बलु कहा पचारि पचारि ।
राम सुमिरि साहसु करिय, मानिय हिएँ न हारि ॥३॥
जाम्बवन्तजी ने बार बार ललकारकर हनुमान्जी के बल का वर्णन किया । ( प्रश्न-फल यह है कि ) श्रीराम का स्मरण करके साहस करो । हृदय में हार मत मानो । ( हताश मत हो ) ॥३॥
राम काज लगि जनमु सुनि हरषे हनुमान ।
होइ पुत्र फलु सगुन सुभ, राम भगतु बलवान ॥४॥
‘तुम्हारा संसार में जन्म ही श्रीराम का कार्य करने के लिये हुआ है‘ यह सुनकर हनुमान्जी प्रसन्न हो गये । यह शकुन शुभ है, इसका फल यह है कि श्रीरामभक्त बलवान् पुत्र होगा ॥४॥
कहत उछाहु बढा़इ कपि साथी सकल प्रबोधि ।
लागत राम प्रसाद मोहि गोपद सरिस पयोधि ॥५॥
सभी साथियों को आश्वासन देकर उनका उत्साह बढ़ाते हुए हनुमान्जी कहते हैं-‘श्रीराम की कॄपा से समुद्र मुझे गाय के खुर से बने गड्ढे के समान लगता है‘ ॥५॥
( प्रश्न फल शुभ है, कठिनाई दूर होगी । )
राखि तोषि सबु साथ सुभ, सगुन सुमंगल पाइ ।
कुदि कुधर चढि़ आनि उर, सीय सहित दोउ भाइ ॥६॥
साथ के सब लोगों को वहीं रखकर ( रहने को कहकर ) तथा सन्तोष देकर उत्तम मंगलकारी शकुन पाकर, श्रीजानकीजी के साथ दोनों भाई ( श्रीराम-लक्ष्मण ) को हृदय में ले आकर (स्मरण करके) कूदकर (हनुमान्जी) पर्वत पर चढ़ गये॥६॥
( यात्रा के लिये शुभ शकुन है । )
हरषि सुमन बरषत बिबुध, सगुन सुमंगल होत ।
तुलसी प्रभु लंघेउ जलधि प्रभु प्रताप करि पोत ॥७॥
देवता प्रसन्न होकर पुष्पवर्षा कर रहे हैं, श्रेष्ठ मंगलकारी शकुन हो रहे हैं । तुलसीदासजी के स्वामी ( हनुमान्जी ) प्रभु श्रीराम के प्रताप को जहाज बनाकर ( श्रीराम के प्रताप से ) समुद्र कूद गये ॥७॥
( प्रश्न-फल श्रेष्ठ है । )
रामज्ञा प्रश्न – पंचम सर्ग – सप्तक २
राहु मातु माया मलिन मारी मरुत पूत ।
समय सगुन मारग मिलहिं, छल मलीन खल धूत ॥१॥
माया करनेवाली मलिन ( कपट से भरी ) राहु की माता सिंहिका को श्रीपवनकुमार ने मार दिया । यह शकुन कहता है कि यात्रा के समय मार्ग में कपटी, पापी दुष्ट और धूर्त मिलेंगे ( उसने सावधान रहना चाहिये । ) ॥१॥
पूजा पाइ मिनाक पहिं सुरसा कपि संबादु ।
मारग अगम सहाय सुभ होइहि राम प्रसादु ॥२॥
मैनाक पर्वत से सत्कार पाकर आगे जाते हुए हनुमान्जी से ( नागमाता ) सुरसा की बातचीत हुई । ( शकुन फल यह है कि ) श्रीराम की कृपा से विकट मार्ग में भी शुभ सहायता प्राप्त होगी ॥२॥
लंकाँ लोलुप लंकिनी काली काल कराल ।
काल करालहि कीन्हि बलि कालरूप कपि काल ॥३॥
काल के समान भयंकर एवं काली, लोभमूर्ति लंकिनी राक्षसी लंका में ( प्रवेश करते ही ) मिली, उसे कालरूप बनकर स्वयं भी कालरूप ( भयंकर वेश ) धारी हनुमान्जी ने भयंकर काल ( मृत्यु ) के बलि अर्पण कर दिया (मार डाला ) ॥३॥
( कार्य में आयी बाधा नष्ट होगी ।)
मसक रूप दसकंध पुर निसि कपि घर घर देखि ।
सीय बिलोकि असोक तर हरष बिसाद बिसेषि ॥४॥
मच्छर के समान ( छोटा ) रूप धारण करके हनुमान्जी ने रात्रि में रावण की पुरी लंका का एक-एक घर छान डाला । ( अन्त में ) श्रीजानकीजी को अशोकवृक्ष के नीचे देखकर उन्हें प्रसन्नता और अत्यधिक दुःख दोनों हुए ॥४॥
( प्रश्न-फल मध्यम है, हर्ष-शोक दोनों का सूचक है । )
फरकत मंगल अंग सिय बाम बिलोचन बाहु ।
त्रिजटा सुनि कह सगुन फल, प्रिय सँदेस बड़ लाहु ॥५॥
श्रीजानकीजी के मंगलसूचक अंग बायीं आँख और भुजा फड़क रही है । इसे सुनकर त्रिजटा शकुन का फल बतलाती है कि ‘प्रियतम के सन्देश की प्राप्तिरूपी बड़ा लाभ होगा ॥५॥
( प्रियजन का समाचार मिलेगा ।)
सगुन समुझि त्रिजटा कहति , सुनु अबहीं आजु ।
मिलिहि राम सेवक कहिहि कुसल लखनु रघुराजु ॥६॥
शकुन को समझकर त्रिजटा कहती है-‘जानकीजी! सुनो । आज ( अभी) श्रीराम का सेवक मिलेगा और लक्ष्मण तथा रघुनाथजी की कुशल कहेगा ॥६॥
( प्रियजन का कुशल समाचार प्राप्त होगा । )
तुलसी प्रभु गुन गन बरनि आपनि बात जनाइ ।
कुसल खेम सुग्रीव पुर रामु लखनु दोउ भाइ ॥७॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि ( हनुमान्जी ने श्रीजानकीजी से ) प्रभु श्रीराम के गुणों का वर्णन करके अपनी बात बतायी ( अपना परिचय दिया और कहा-) सुग्रीव की नगरी ( किष्किन्धा ) में श्रीराम-लक्ष्मण दोनों भाई कुशलपूर्वक है‘ ॥७॥
( प्रियजन का समाचार मिलेगा । )
रामज्ञा प्रश्न – पंचम सर्ग – सप्तक ३
सुरुख जानकी जानि कपि कहे सकल संकेत ।
दीन्हि मुद्रिका लीन्ही सिय प्रीति प्रतीति समेत ॥१॥
श्रीजानकीजी को प्रसन्न समझकर हनुमान्जी ने सब संकेत ( श्रीराम का गुप्त सन्देश ) कहा और मुद्रिका दी, उसे श्रीजानकीजी ने प्रेम तथा विश्र्वासपूर्वक लिया ॥१॥
( दुःख के समय आश्वासन प्राप्त होगा । )
पाइ नाथ कर मुद्रिका सिय हियँ हरषु बिषादु ।
प्राननाथ प्रिय सेवकहि दीन्ह सुआसिरबादु ॥२॥
स्वामी के हाथ की अँगूठी पाकर श्रीजानकीजी के चित्त में प्रसन्नता तथा शोक दोनों हुए, प्राणनाथ के प्रिय सेवक ( श्रीहनुमान्जी) को उन्होंने शुभ अशीर्वाद दिया ॥२॥
( प्रश्न-फल शुभ है । )
नाथ सपथ पन रोपि कपि कहत चरन सिरु नाइ ।
नाहिं बिलंब जगदंब अब आइ गए दोउ भाइ ॥३॥
स्वामी श्रीराम की शपथ करके प्रतिज्ञापूर्वक हनुमान्जी ( श्रीजानकीजी के ) चरणो में मस्तक झुकाकर कहते हैं-जगन्माता ! अब देर नहीं है, दोनों भाई आ ही गये ( ऐसा मानो ) ॥३॥
( प्रश्न-फल उत्तम है । )
समाचार कहि सुनत प्रभु सानुज सहित सहाय ।
आए अब रघुबंस मनि, सोचु परिहरिय माय ॥४॥
( मैं लौटकर ) समाचार कहूँगा, उसे सुनते ही प्रभु श्रीरघुनाथजी छोटे भाई तथा सहायकों ( वानरी सेना ) के साथ यह पहुँच ही गये ( ऐसा मानकर ) माता! चिन्ता त्याग दो ॥४॥
( प्रश्न-फल श्रेष्ठ है । )
गए सोच संकट सकल, भए सुदिन जियँ जानु ।
कौतुक सागर सेतु करि आए कृपा निधानु ॥५॥
सभी चिन्ता और विपत्तियाँ दूर हो गयीं, अच्छे दिन आ गये – ऐसा चित्त में समझो । खेल में ही समुद्र पर सेतु बाँधकर कृपानिधान श्रीराम आ गये ॥५॥
( प्रश्न-फल शुभ है । )
सकुल सदन जमराजपूर चलन चहत दसकंधु ।
काल न देखत काल बस बीस बिलोचन अंधु ॥६॥
रावण अपने पूरे कुल और सारी सेना के साथ यमलोक जाना चाहता है। बीस नेत्र होने पर भी ऐसा अन्धा हो गया है कि अपना काल ( मृत्यु ) देख नहीं पाता ॥६॥
( प्रश्न-फल निकृष्ट है । )
आसिष आयसु पाय कपि सीय चरनु सिर नाइ ।
तुलसी रावन बाग फल खात बराइ बराइ ॥७॥
तुलसीदासजी कहते हैं-आशीर्वाद और आज्ञा पाकर, श्रीजानकीजी के चरणों में मस्तक झुकाकर हनुमान्जी रावण के बगीचे में छाँट – छाँटकर फल खा रहे हैं ॥७॥
( प्रश्न – फल उत्तम है । )
रामज्ञा प्रश्न – पंचम सर्ग – सप्तक ४
सुर सिरोमनि साहसी सुमति समीर कुमार ।
सुमिरत सब सुख संपदा मुद मंगल दातार ॥१॥
शूरशिरोमणि, साहसी, बुद्धिमान् श्रीपवनकुमार स्मरण किये जाने पर सब प्रकार के सुख, सम्पत्ति और आनन्दमंगल के देनेवाले हैं ॥१॥
( प्रश्न- फल श्रेष्ठ है । )
सत्रुसमन पदपंकरुह सुमिरि करहु सब काज ।
कुसल खेम कल्यान सुभ सगुन सुमंगल साज ॥२॥
शत्रुघ्नजी के चरण-कमलों का स्मरण करके सब कार्य करो । कुशल-क्षेम रहेगा, कल्याण होगा । यह शुभ शकुन सुन्दर मंगल का सृष्टि करनेवाला है ॥२॥
भरत भलाई की अवधि, सील सनेह निधान ।
धरम भगति भायप समय, सगुन कहब कल्यान ॥३॥
श्रीभरतलालजी अच्छाई की सीमा, शील और स्नेह के निधान, धर्मात्मा, भ्रातृभाव से भक्ति करनेवाले हैं । इस समय का शकुन कल्याण सूचित करता है ॥३॥
सेवकपाल कृपाल चित रबि कुल कैरव चंद ।
सुमिरि करहु सब काज सुभ, पग पग परमानंद ॥४॥
सेवकों की रक्षा करनेवाले, दयालुहृदय, सूर्यवंशरूपी कुमुदिनी के लिये ( आह्लादकरी ) चन्द्रमा के समान श्रीरघुनाथजी का स्मरण करके सब काम करो । परिणाम में शुभ होगा, पद पद पर ( सदा ) परम आनन्द होगा ॥४॥
सिय पद सुमिरि सुतीय हित सगुन सुमंगल जानु ।
स्वामि सोहागिल भाग बड़ पुत्र काजु कल्यानु ॥५॥
उत्तम स्त्रियों के लिये श्रीजानकीजी के चरणों का स्मरणरूपी शकुन परम मंगलकारी समझो । स्वामी का सौभाग्य प्राप्त होगा ( सौभाग्यवती रहेंगी ) बड़ा (उत्तम) भाग्य हैं, पुत्र-प्राप्ति होगी तथा कल्याण होगा ॥५॥
लछिमन पद पंकज सुमिरि, सगुन सुमंगल पाइ ।
जय बिभूति कीरति कुसल अभिमत लाभु अघाइ ॥६॥
श्रीलक्ष्मणजी के चरण – कमलों का स्मरण करो । यह परम मंगलकारी शकुन पा लेने पर विजय, ऐश्वर्य, कीर्ति, कुशल तथा अभीष्ट प्राप्ति भरपूर होगी ॥६॥
तुलसी कानन कमल बन, सकल सुमंगल बास ।
राम भगत हित सगुन सुभ, सुमिरत तुलसीदास ॥७॥
तुलसीदसजी कहते हैं कि तुलसी का वन अथवा कमलवन समस्त उत्तम कल्याणों का निवास है, उसका स्मरण करना श्रीरामभक्त के लिये शुभ शकुन है ॥७॥
रामज्ञा प्रश्न – पंचम सर्ग – सप्तक ५
रुख निपातत खात फल, रक्षक अक्ष निपाति ।
कालरूप बिकराल कपि, सभय निसाचर जाति ॥१॥
कलास्वरूप भयंकर आकृतिवाले हनुमान्जी ( वन के ) रक्षकों तथा अक्षयकुमार को मारकर वृक्षों को गिरा रहे हैं तथा फल खा रहे हैं ( उन्हें देखकर ) निशाचर मात्र डर गये हैं ॥१॥
( प्रश्न – फल निकृष्ट है । )
बनु उजारि जारेउ नगर कूदि कूदि कपिनाथ ।
हाहाकार पुकारि सब, आरत मारत माथ ॥२॥
श्रीहनुमानजी ने अशोकवन उजाड़कर कूद-कूदकर लंका जला दी । सब ( राक्षस ) हाहाकार करके चिल्ला रहे हैं और दुःखी होकर सिर पीट रहे हैं ॥२॥
( प्रश्न-फल अशुभ है । )
पूँछ बुताइ प्रबोधि सिय आइ गहे प्रभु पाइ ।
खेम कुसल जय जानकी जय जय जय रघुराइ ॥३॥
पूँछ बुझाकर श्रीजानकीजी को आश्वासन देकर, लौटकर ( हनुमान्जी ने ) प्रभु श्रीरामजी का चरण पकड़कर कहा ‘श्रीजानकीजी जीवित हैं और कुशल से हैं, उनकी जय हो! श्रीरघुनाथजी की जय हो! जय हो!! जय हो !!! ॥३॥
(प्रश्न – फल अशुभ है । )
सुनि प्रमुदित रघुबंस मनि सानुज सेन समेत ।
चले सकल मंगल सगुन बिजय सिद्धि कहि देत ॥४॥
( यह ) सुनकर श्रीरघुनाथजी अत्यन्त प्रसन्न हुए एवं छोटे भाई लक्ष्मण तथा सेना के साथ वे ( लंका के लिये ) चल दिये । ( उस समय ) सभी मंगल शकुन होने लगे, जो विजय और सफलता की घोषणा कर रहे थे ॥४॥
( प्रश्न-फल यात्रा के लिये शुभ है । )
राम पयान निसान नभ बाजहिं गाजहिं बीर ।
सगुन सुमंगल समय जय कीरति कुसल सरीर ॥५॥
श्रीरामजी के प्रस्थान के समय आकाश में ( देवताओं के ) नगारे बज रहे हैं । वीर ( वानर ) गर्जना कर रहे हैं । यह शकुन मंगलकारी है, युद्ध में विजय, कीर्ति मिलेगी, शरीर सकुशल रहेगा ॥५॥
कृपासिंधु प्रभु सिंधु सन मागेउ पंथ न देत ।
बिनय न मानहिं जीव जड़ डाटे नवहिं अचेत ॥६॥
कृपासागर प्रभु ने समुद्र से ( लंका जाने का ) मार्ग माँगा, पर वह ( मार्ग ) देता नहीं । मूर्ख प्राणी प्रार्थना करने से नहीं मानते, बुद्धिहीन लोग तो डाँटने से ही झुकते हैं ॥६॥
( प्रश्न – फल झगड़ा सुचित करता है । )
लाभु लाभु लोवा कहत, छेमकरी कह छेम ।
चलत बिभीषन सगुन सुनि, तुलसी पुलकत प्रेम ॥७॥
‘लाभ होगा, लाभ होगा‘ यह लोमड़ी कह रही है, कुशल होगी, यह चील सूचित कर रही है । ये शकुन (श्रीराम की ओर) चलते समय विभीषणजी को हुए, यह सुनकर तुलसीदास प्रेम से रोमांचित हो रहा है ॥७॥
( प्रश्न-फल श्रेष्ठ है । )
रामज्ञा प्रश्न – पंचम सर्ग – सप्तक ६
पाहि पाहि असरन सरन, प्रनतपाल रघुराज ।
दियो तिलक लंकेस कहि राम गरिब नेवाज ॥१॥
( विभीषण ने श्रीराम के पास जाकर कहा- ) ‘ हे अशरणशरण ! शरणागतरक्षक श्रीरघुनाथजी ! रक्षा करो ! रक्षा करो ! रक्षा करो !‘ ( यह सुनकर ) दोनों पर कृपा करनेवाले श्रीराम ने (विभीषण को) लंकेश कहकर राजतिलक कर दिया॥१॥
( प्रश्न-फल शुभ है । )
लंक असुभ चरचा चलति हाट बाट घर घाट ।
रावन सहित समाज अब जाइहि बारह बाट ॥२॥
लंका के बाजारों में, मार्गों पर, घरों में तथा घाटों पर यही अमंगल – चर्चा होती रहती है कि ‘ अब समाज के साथ रावण नष्ट हो जायगा ॥२॥
( प्रश्न-फल अशुभ है । )
ऊकपात दिकादाह दिन, फेकरहिम स्वान सियार ।
उदित केतु गतहेतु महि कंपाति बारहि बार ॥३॥
( लंका में ) दिन में ही उल्कापात होता है, दिशाओं में अग्निदाह होता है, और सियार रोते हैं, स्वार्थ का नाशक धूमकेतु उगता है और बार-बार पृथ्वी काँपती ( भूकम्प होता ) है ॥३॥
( प्रश्न-फल महान् अनर्थ का सुचक है । )
राम कृपाँ कपि भालु करि कौतुक सागर सेतु ।
चले पार बरसत बिबुध सुमन सुमंगल हेतु ॥४॥
श्रीराम की कृपा से खेल-ही-खेल में समुद्र पर सेतु बनाकर वानर-भालु समुद्रपार चले, उनके मंगल के लिये देवता पुष्पवर्षा कर रहे हैं ॥४॥
( प्रश्न-फल श्रेष्ठ है । )
नीच निसाचर मीचु बस चले साजि चतुरंग ।
प्रभु प्रताप पावक प्रबल उडि़ उडि़ परत पतंग ॥५॥
नीच राक्षस मृत्यु के वश होकर चतुरंगिणी ( पैदल, घुडसवार, हाथी और रथों की ) सेना सजाकर चले । प्रभु श्रीरामजी का प्रताप प्रचण्ड अग्नि के समान हैं,जिसमें पतिंगों के समान ये उड़ उड़कर गिर रहे है ॥५॥
( प्रश्न-फल अशुभ है । )
साजि साजि बाहन चलाहिं जातुधानु बलवानु ।
असगुन असुभ न गगहिं गत आइ कालु नियरानु ॥६॥
बलवान् राक्षस वाहन ( सवारी ) सजाकार चलते हैं । अशुभसूचक अपशकुन हो रहे हैं; पर ये उन्हें गिनते नहीं (उन पर ध्यान नहीं देतें, क्योंकि) उनकी आयु समाप्त हो गयी है और उनका मृत्यु-काल समीप आ गया है ॥६॥
( प्रश्न-फल विनाशसूचक है । )
लरत भालु कपि सुभट सब निदरि निसाचर घोर ।
सिर पर समरथ राम सो साहिब तुलसी तोर ॥७॥
वानर-भालुओं के सभी श्रेष्ठ योद्धा घोर राक्षसों की उपेक्षा करके युद्ध कर रहे हैं; क्योकि श्रीराम-जैसे सर्वसमर्थ प्रभु उनके सिर पर ( रक्षक ) हैं । तुलसीदासजी कहते हैं कि वे ही तुम्हारे ( मेरे ) भी स्वामी हैं ॥७॥
( शकुन शत्रु पर विजय सूचित करता है । )
रामज्ञा प्रश्न – पंचम सर्ग – सप्तक ७
मेघनादु अतिकाय भट परे महोदर खेत ।
रावन भाइ जगाइ तब कहा प्रसंगु अचेत ॥१॥
मेघनाद, अतिकाय, महोदर आदि योद्धा युद्धभूमि में मारे गये, तब मूर्ख रावण ने अपने भाई कुंभकर्ण को जगाकर सब बातें कहीं ॥१॥
( प्रश्न-फल अशुभ है । )
उठि बिसाल बिकराल बड़ कुंभकरन जमुहान ।
लखि सुदेस कपि भालु दल जनु दुकाल समुहान ॥२॥
विशाल शरीरवाले अत्यन्त भयंकर कुंभकर्ण ने उठकर जम्हाई ली तो ऐसा दीख पड़ा मानो अकाल ( मूर्तिमान् होकर ) वानर- भालु- सेनारुप उत्तम देश के सामने आ गया है ॥२॥
( शकुन अकालसूचक है । )
राम स्याम बारिद सघन बसन सुदामिनि माल ।
बरषत सर हरषत बिबुध दला दुकालु दयाल ॥३॥
श्रीराम घने काल मेघ के समान हैं और अनेक वस्त्र विद्युत-माला के समान है । उनके बाण-वर्षा करने से देवता प्रसन्न होते हैं, ( इस प्रकार ) उन दयालु ने अकाल (रूपी) कुम्भकर्ण को नष्ट कर दिया ॥३॥
(सुवृष्टि होगी, अकाल दूर होगा ।)
राम रावनहीं परसपर होति रारि रन घोर ।
लरत पचारि पचारि भट समर सोर दुहूँ ओर ॥४॥
युद्ध में श्रीराम और रावण के बीच परस्पर भयंकर संग्राम हो रहा है । योद्धा एक-दूसरे को ललकार-ललकार कर युद्ध कर रहे है । युद्ध में दोनों दलों में कोलाहल हो रहा है ॥४॥
( प्रश्न – फल कलहसूचक है । )
बीस बाहु दस सीस दलि, खंड खंड तनु कीन्ह ।
सुभट सिरोमनि लंकपति पाछे पाउ न दीन्ह ॥५॥
( श्रीराम ने ) रावण की बीस भुजा तथा दस मस्तक काटकर शरीर के टुकडे़-टुकडे़ कर दिये; किंतु ( इतने पर भी) उस शूर-शिरोमणि ने ( युद्ध से ) पीछे पैर नहीं रखा ॥५॥
( प्रश्न-फल पराजयसूचक है । )
बिबुध बजावत दुंदुभी, हरषत बरषत फूल ।
राम बिराजत जीति रन सुत सेवक अनुकुल ॥६॥
देवता नगारे बजा रहे हैं और प्रसन्न होकर पुष्प-वर्षा कर रहे है । देवताओं तथा सेवकों के नित्य अनुकूल रहनेवाले श्रीराम युद्ध में जीतकर सुशोभित हो रहे हैं ॥६॥
( प्रश्न-फल विजयसूचक है । )
लंका थापि बिभीषनहि बिबधु सुबास ।
तुलसी जय मंगल कुसल, सुभ पंचम उनचास ॥७॥
( प्रभु ने ) लंका में विभीषण को ( राज्य देकर ) स्थपित किया और देवताओं को भली प्रकर ( निर्भय करके ) बसाया । तुलसीदासजी कहते हैं कि पंचम सर्ग का यह उनचासवाँ दोहा शुभ है, विजय, मंगल तथा कुशल का सूचक है ॥७॥
इतिश्री: रामज्ञा प्रश्न पञ्चम: सर्ग: ॥