Ramayan Raja Vibhishana Autobiography | राजा विभीषण का जीवन परिचय : रावण का रामभक्त भाई, रामायण
वाल्मीकि रामायण के अनुसार, महर्षि पुलस्त्य ब्रह्माजी के मानस पुत्र थे। उनका विवाह राजा तृणबिंदु की पुत्री से हुआ था। महर्षि पुलस्त्य के पुत्र का नाम विश्रवा था। वह भी अपने पिता के समान सत्यवादी व जितेंद्रीय था। विश्रवा के इन गुणों को देखते हुए महामुनि भरद्वाज ने अपनी कन्या इड़विड़ा का विवाह उनके साथ कर दिया। महर्षि विश्रवा के पुत्र का नाम वैश्रवण रखा गया। वैश्रवण का ही एक नाम कुबेर है। कुबेर को धन का देवता के रूप में मान्यता प्राप्त है| महर्षि विश्रवा की एक अन्य पत्नी का नाम कैकसी था। वह राक्षसकुल की थी। कैकसी के गर्भ से ही रावण, कुंभकर्ण व विभीषण का जन्म हुआ था। इन तीनो भाईयों ने ब्रह्मा जी की तपस्या कर वरदान प्राप्त किया था जिसमे रावण ने दस बार अपने शिरों को अग्निकुंड में दहन कर अपनी सच्ची भक्ति का प्रमाण दे ब्रह्मा जी एक ऐसा वरदान देने पर मजबूर कर दिया तो अमरता से कम नहीं था और ना मारने योग्य था, कुम्भकर्ण ने कहा जाता है कि छ: महीने सोने एक दिन जागने का वरदान माँगा था कहीं कहीं जिक्र किया गया था कि वह भी रावण की ही तरह एक वैज्ञानिक था और अपने प्रयोगशाला से छ महीने में एक ही दिन बाहर आता था और उसने ही रावण को कई तरह तरह के अस्त्र शस्त्र बना कर दिए थे जिससे रावण सदा अजेय बना रहा, जबकि विभीषण हर स्थिति में भगवान की भक्ति का वरदान मांगा था| शास्त्र परंपरा के अनुसार विभीषण मालिनी का पुत्र हुआ। रावण के दो पत्निया थी जिनमे पहली मंदोदरी जिनसे उसे इंद्रजीत और अक्षयकुमार दो पुत्र थे और दूसरी पत्नी थी दम्यमलिनी जिनसे रावण को अतिक्या और त्रिशिरा नाम के दो पुत्र भी थे लेकिन विभीषण और कुम्भकरण ने भी तो शादिया की थी, कुम्भकरण के पुत्र का नाम भीम था| जबकि विभीषण की पत्नी का नाम था सरमा जो की एक गन्धर्व कन्या थी और उसकी पुत्री का नाम त्रिजटा था, जिसका नाम रामायण में काफी बार आया है पर ऐसा नही बताया गया की वो विभीषण की बेटी थी| विभीषण जी की एक पत्नी थी जिनका नाम था सरमा। सरमा एक गन्धर्व कन्या थी। विभीषण और सरमा की एक पुत्री थी जिसका नाम त्रिजटा था। विभीषण की ही भाति दोनों मां-बेटी श्रीराम की अनन्य भक्त थी। जिस प्रकार युद्ध के समय विभीषण ने लंकापति रावण के अनेक भेद बता कर श्रीराम की सहायता की थी उसी प्रकार विभीषण की पत्नी सरमा और पुत्री त्रिजटा ने भी माता सीता की सहायता की थी | रावण माता सीता के प्रति आशक्त था और उनसे विवाह करके उन्हें अपनी रानी बनाना चाहता था। इस प्रयोजन को पूर्ण करने के लिए वह अनेक प्रकार की यातनाये माता सीता को दिया करता। परंतु माता सीता की पति के प्रति निष्ठा और समर्पण ने रावण के इस प्रयोजन को विफल बना दिया। अंत में रावण को एक योजना सूझी की क्यों न अपनी माया से एक कटा हुआ श्रीराम का शीश सीता के सामने रख दिया जाय और उसे यह बताया जाय की राम युद्ध में मारा गया तब निश्चय ही वह राम के प्रति अपने मोह को त्याग कर मुझे स्वीकार कर लेगी। रावण की सारी योजना का पता विभीषण पत्नी सरमा को चल गया और इसके पहले की रावण अपनी माया से यह भ्रम फैलाता सरमा ने जा कर सारा वृत्तांत सीता माता को सूना दी ताकि जब रावण श्रीराम के कटे हुए शीश को लेकर आये तब सीता माता विचलित न हो। तो इस प्रकार विभीषण पत्नी सरमा ने माता सीता की सहायता की। विभीषण की पुत्री का नाम था त्रिजटा। जब रावण माता सीता का हरण करके लाया तब उन्हें अपनी अशोक वाटिका में एक वृक्ष के नीचे रक्खा था। उस अशोक वाटिका में जितनी राक्षसी थी उनमे प्रधान त्रिजिटा थी। जब तक माता सीता अशोक वाटिका में रही त्रिजटा ने उन्हें अपनी पुत्री की भांति रखा और माता सीता भी उन्हें माता कह कर संबोधित करती थी। त्रिजटा हमेशा माता सीता का मनोबल बढाती थी। एक बार माता सीता अपने प्राण त्यागने को उद्धत हो गई तब त्रिजटा ने अपने स्वप्न के बारे में बताया की 2-4 दिनों में ही एक राम दूत वानर यहांं आयेगा और सारी अशोक वाटिका को उजाड़ कर पूरी लंका पूरी को आग से जला देगा साथ ही तेरी सूचना राम को जा कर देगा। त्रिजटा के इन वचनों को सुन कर माता सीता को फिर से आस बंधी उन्होंने अपना धैर्य पुनः प्राप्त किया। इस प्रकार विभीषण जी अपने पत्नी और बेटी सहित श्रीराम जी की प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में समय समय पर सहायता की थी। कहा जाता है उसने और मंदोदरी ने ही रावण को अचेत कर उसकी नाभि में अमृत को छुपाया था जिससे वह सदा अमर बना रहा इसी अमृत को राम ने बाण से सुखा कर उसको मृत्यु के घाट उतरा था| विभीषण सदा धर्म को ही महत्व देता था इस विषय पर रावण से विचार विमर्श करता था ओर समझाने की कोशिश भी करता था लेकिन रावण अपनी शक्ति के मद में उसकी बातों नकार देता था | विभीषण रावण की कामवासना से बिलकुल भी खुश नहीं था इसलिए वह सदा रावण का विरोध करता रहा| सीता के अपहरण ने तो जैसे उसे झकजोर कर ही रख दिया था| हनुमान जी का साथ देना और हनुमान जी की लगी पूंछ से उसका घर न जलने के कारण वह रावण के शक का शिकार होता है जिसे रावण उसे अपनी सभा में सभा सधो के सामने लात मारता है और उसे कुल द्रोही बताता है इस तरह की बातों से वह अत्यन्त खिन्न होकर रावण को पिता के तुल्य मानते हुए भी उस के अनुचित कर्मो के कारण वह दुखित होता हुआ रावण को छोड़कर अपने चार राक्षसों के साथ रावण को छोड कर रावण की शरण में चला गया। वे जानते थे कि श्री राम ने कितनी मुश्किलों का सामना किया है, लंका तक पहुंचने के लिए। वे यह भी जानते थे कि यदि रावण का वध नहीं हुआ तो, वह दुनिया उलट-पलट कर देगा और अनिष्ट कार्य करेगा। इसलिए उन्होंने राम जी का साथ दिया और उनकी मदद की। विभीषण की अच्छाई का पता तब चलता है, जब हनुमान जी पहली बार लंका में आते हैं और जब वह पूछने के लिए किसी को ढूंढते हैं, तो एक घर दिखाई देता है। वह पूरी लंका में एकमात्र घर होता है, जहां तुलसी माता की पूजा की जाती है और उसका पौधा होता है। इसे देखकर श्री हनुमान समझ जाते हैं कि, यह जरूर किसी भले व्यक्ति का घर होगा। इसका मतलब यही नहीं कि विभीषण राम भक्त थे, विभीषण रामभक्त नहीं थे बल्कि वे अपने भाई और भाभी को ही भगवान मानते थे। इसलिए उन्होंने अपने भवन के बाहर रावण और मन्दोदरी के नाम के प्रथम अक्षर मिला कर राम लिखा नाकि राम भक्त होने के कारण| अपने इसी अतुलित अपने भाई और भाभी के प्रति भक्ति और प्रेम के कारण वो सदा सोते जागते राम राम कहते रहते थे। इतने प्यार और सम्मान देने पर भी जब रावण ने उनका अपमान कर उनको घर से निकला तो उनके दिल को आघात लगा कि जिस भी को सबसे ऊपर माना उसी ऐसा किया। जब आप पूरी दुनिया मे किसी से बेपनाह प्रेम करते हो और उसकि कमियों को नजरअंदाज कर इज्जत देते हो। सुबह शाम उसकी भलाई के बारे में सोचते हो और वो आपको ठुकरा दे तो कैसा लगेगा। फिर विभीषण ने अपने भाई से बदला लेने के लिए राम की भक्ति को परिस्थितियों के अनुकूल बनाने के लिये श्री राम की भक्ति का नाम दिया। और उन्हें रावण के कुल के नाश का मार्ग दर्शन दिया यहां तक कि उसने अपने सभी रिश्तों को भुला कर अपने भाई भाई के साथ साथ भतीजों को भो राम सेना के हाथो मौत के घाट उतरवा दिया था। यही क्रोध उसके बदनामी का कारण भी बना लोग राम लक्ष्मण का उदाहरण देते थे यहां तक विभीषण ने भी रावण को उनके रिश्तों का उदाहरण दे समझाते है लेकिन उसी रिश्ते को उन्होंने खुद खुद ही तारो तार कर दिया उसने हर स्थिति में अपने शत्रु का ही साथ दिया जहाँ उसे सब कुछ छोड़ छाड़ कर अपने भाई का साथ देना चाहिए था जैसा लक्ष्मण ने किया| अपने बिना कोई युद्ध लड़े, बिना मेहनत, अपने भाई से छल कर वह राम को श्री राम बोल बोलकर उनसे और वानरों से युद्ध करवा कर लंका के राजा बना और इस कार्य में विभीषण को पूरी रामायण मैं एक खरोंच तक नहीं आई। लोगो ने उसे राम भक्त कि उपाधि दी जबकि उसने छल के अलावा कुछ नहीं किया यहाँ तक कहा जाता है कि रावण के मरने के बाद उसने मां समान जिसकी वह भक्ति करता था उसी से शादी कर लेता है कहीं कहीं तो यह भी कहा जाता है कि उसका श्री राम से मिलने का मुख्य लक्ष्य श्री लंका का राजा बनाना और मंदोदरी से शादी करना ही था क्यों रावण से रहते वह अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सकता था और बाली का राम के हाथो मारे जाने से श्री राम से अच्छा वीर उसे कोई मिल नहीं सकता था केवल इन दो कारणों के कारण ही उसने श्री राम की सहायता की| इसका मतलब है कि उसके भाई और भाभी के प्रति भक्ति और प्रेम भी झुटा था वह एक मौका प्रस्थ इंसान था जिसे जहां-जहां मौका मिला उठा लिया इसमें श्री राम का भक्त कहना शायद शोभनीय प्रतीत नहीं होता वो भी एक ऐसे इंसान के लिए जो कभी अपने कुल का नहीं हो सका वह दुसरे का क्या होगा| श्री राम को उससे दोस्ती करना उनकी मज़बूरी थी क्योंकि उन्हें सीता प्राप्त करनी थी जबकि विभीषण उसे के मौका देख कर उनकी सहायता करने आया था ना कि श्री राम की भक्ति के कारण|
कहा जाता है कि रावण का वध करने के बाद भगवान राम ने अपने भक्त और रावण के भाई विभीषण को भगवान विष्णु के ही एक रूप रंगनाथ की मूर्ति प्रदान की थी। विभीषण वह मूर्ति लेकर लंका जाने वाला था। वह राक्षस कुल का था, इसलिए सभी देवता नहीं चाहते थे कि मूर्ति विभीषण के साथ लंका जाए। सभी देवताओं ने भगवान गणेश से सहायता करने की प्रार्थना की। उस मूर्ति को लेकर यह मान्यता थी कि उन्हें जिस जगह पर रख दिया जाएगा, वह हमेशा के लिए उसी जगह पर स्थापित हो जाएगी। चलते-चलते जब विभीषण त्रिचि पहुंच गया तो वहां पर कावेरी नदी को देखकर उसमें स्नान करने का विचार उसके मन में आया। वह मूर्ति संभालने के लिए किसी को खोजने लगा। तभी उस जगह पर भगवान गणेश एक बालक के रूप में आए। विभीषण ने बालक को भगवान रंगनाथ की मूर्ति पकड़ा दी और उसे जमीन पर न रखने की प्रार्थना की। विभीषण के जाने पर गणेश ने उस मूर्ति को जमीन पर रख दिया। जब विभीषण वापस आया तो उसने मूर्ति जमीन पर रखी पाई। उसने मूर्ति को उठाने की बहुत कोशिश की लेकिन उठा न पाया। ऐसा होने पर उसे बहुत क्रोध आया और उस बालक की खोज करने लगा। भगवान गणेश भागते हुए पर्वत के शिखर पर पहुंच गए, आगे रास्ता न होने पर भगवान गणेश उसी स्थान पर बैठ गए। जब विभीषण वे उस बालक को देखा तो क्रोध में उसके सिर पर वार कर दिया। ऐसा होने पर भगवान गणेश ने उसे अपने असली रूप के दर्शन दिए। भगवान गणेश के वास्तविक रूप को देखकर विभीषण ने उनसे क्षमा मांगी और वहां से चले गए। तब से भगवान गणेश उसी पर्वत की चोटी परऊंची पिल्लयार के रूप में स्थित है।
श्री लंका में प्रचलित एक कथा और स्वामी करपात्री जी के अनुसार जिस समय रावण को के पता चलता है की कौशल्या के पुत्र के द्वारा उसकी मृत्यु होगी तो रावण ने कौशल्या को विवाह मंडप से उठाकर सिंहल द्वीप जो लंका के समीप में है ले लिया और सिंहल द्वीप पर कौशल्या को रख कर के लंका वापिस गया और दूसरी ओर दशरथ जी उसके मंत्री सुमंत जी को भी एक पिटारी में बंद करके समुद्र में बहा दिया। यह सब करके ताड़का रावण को देख लेती है क्योंकि वह दशरथ के रूप पर पहले से बहुत आकर्षित थी इसलिए उसने मौका प्रस्थ हो राजा दशरथ से उसकी सुरक्षा के करते हुए उस पेटी को बहा करके उन्हें सिंहल द्वीप पर लेकर गई और राजा दशरथ से विवाह करने का अपना प्रस्ताव रखा लेकिन राजा ने इस प्रस्ताव को टुकरा दिया तब राजा दशरथ जी के मना करने के बाद उसने उससे 14 वर्ष की राज गद्दी को ताड़का ने मांगा जिसके लिए दशरथ जी ने सहज ही स्वीकार कर लिया और ताड़का उन्हें जिन्दा छोड़ वहां से चली जाती है और इसी सिंहल द्वीप पर ही भाग्यनुसार कौशल्या और दशरथ का मिलन होता है। जिसके परिणाम स्वरूप कौशल्या को गर्भ रहता है और जन्म उपरान्त उसी गर्भ से विभीषण जी का आगमन होता है, लेकिन पूर्ण विवाह न होने की वजह से वहां पर विभीषण का त्याग करके सामाजिक परिवेश को देखते हुए सुमंत जी दशरथ कौशल्या का पाणिग्रहण संस्कार ब्राह्मण होने के नाते वहीं पूर्ण करवाते हैं और वापस अयोध्या आते हैं। विश्रवा ऋषि की पत्नी मालिनी ऋषि कन्या होते हुए भी एक गगनचरी थी। वह आकाश मार्ग से उड़ रही थी, तभी उसने बच्चे को देखा और घर ले आयी। महर्षि विश्रवा ने ध्यान लगाकर देखा तो विश्रवा ने अपनी पत्नी मालिनी को बताया है कि वह बालक राक्षस वंश का कुल दीपक होगा इस लिए इस बालक का जीवित रहना जरूरी है। आगे चलकर वह परमात्मा राम का भक्त होगा। भविष्य में 14 रामायण बने हुए हैं। कंब रामायण से लेकर तुलसीकृत रामायण और अध्यात्म रामायण में प्राचीन कथाएं दी गई हैं।
एक कथा के अनुसार कहा जाता है कि पूर्व जन्म में वह एक आदर्श राजा था, लेकिन फिर ऐसा कुछ हुआ कि ब्राह्मणों के श्राप से इस जन्म में राक्षस के रूप में जन्म लेना पड़ा कहानी इस प्रकार है जिसका रामायण में भी उल्लेख माना जाता है कि कैकई देश में सत्यकेतु नामक राजा था। वह धर्म नीति पर चलने वाला तेजस्वी, प्रतापी और बलशाली राजा था। उसके दो पुत्र थे। पहला – भानु प्रताप और दूसरा- अरिमर्दन। दोनों भाई बहुत प्रतीभाशाली और मेल-मिलाप से रहने वाले थे। (भानु प्रताप ही अगले जन्म में रावण बना है।) पिता के निधन के बाद भानु प्रताप ने राजकाज संभाला और अपने राज्य के विस्तार के लिए युद्ध शुरू कर दिए। उसने कई राजाओं को हराया और उनके राज्य पर कब्जा कर लिया। पूरी धरती पर भानु प्रताप के चर्चे होने लगे। उसके राज में प्रजा बहुत खुश थी। एक दिन भानु प्रताप विंध्याचल के घने जंगलों में शिकार पर निकला। उसे वहां सुअर दिखाई दिया। वह सुअर का पीछा करते-करते जंगल के बहुत अंदर तक चला गया और भटक गया। उस समय राजा अकेला था और भूख-प्यास से व्याकुल होने लगा। काफी भटकने के बाद वह एक कुटिया के पास पहुंचा जहां उसे एक मुनि दिखाई दिए। वास्तव में वह मुनि और कोई नहीं, भानु प्रताप का हराया एक राजा था। वह राजा भानु प्रताप को पहचान गया, लेकिन भानु प्रताप उसे नहीं पहचान पाया। भानु प्रताप ने मुनि से बात की और उस रात के लिए शरण मांगी। बातों-बातों में भानु प्रताप उस मुनि से बहुत प्रभावित हुआ। उसने मुनि से विश्व विजयी होने का उपाय पूछा। मुनि के पास यही मौका था भानु प्रताप को अपने जाल में फंसाने और युद्ध में मिली हार का बदला लेने का। मुनि ने राजा से कहा कि वह हजार ब्राह्मणों को भोजन कराएगा तो वह विश्व विजयी बन जाएगा। साथ ही मुनि ने कहा कि मैं रसोई बनाऊंगा और तुम परोसोगे तो दुनिया में कोई तुम्हें नहीं हरा पाएगा। इतनी बात होने के बाद दोनों सो गए। अगले दिन भानु प्रताप चला गया। तय कार्यक्रम के मुताबिक, मुनि को भानु प्रताप के यहां भोजन बनाने जाना था, लेकिन उसने खुद जाने के बजाए अपना रूपधारण करके काल केतु राक्षस को भेज दिया। काल केतु भी भानु प्रताप से बदला लेना चाहता था, क्योंकि उसके 100 पुत्रों और 10 भाइयों को भी भानु प्रताप ने मार डाला था। काल केतु ने भानु प्रताप के वहां जाकर भोजन बनाया, लेकिन उसमें मांस मिला दिया। जब ब्राह्मणों को भोजन परोसा जा रहा था तो आकाशवाणी हुई। ब्राह्मणों से कहा गया कि यह भोजन खाने पर उनका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। ब्राह्मणों ने भानु प्रताप को श्राप दे दिया कि अगले जन्म में तू परिवार समेत राक्षस बनेगा। इस पर भानु प्रताप ने रसोई में जाकर माजरा समझा और लौटकर ब्राह्मणों को बताया कि इसमें उसकी कोई गलती नहीं है। लेकिन ब्राह्मण तो श्राप दे चुके थे। इसके बाद धीरे-धीरे भानु प्रताप का पूरा राजपाठ चला गया और वह युद्ध में मारा गया। अगले जन्म में दस सिर वाला राक्षस रावण बना। उसका छोटा भाई अरिमर्दन कुंभकरण बना। उसका सेनापति धर्मरुचि सौतेला भाई विभीषण बना।
एक अन्य कथा के अनुसार कहा जाता है कि रक्ष- संस्कृति का महानायक रावण को पता था कि राजा राजा दशरथ और कौशल्या के गर्भ से उत्पन्न पुत्र के हाथो से उसका नाश होगा इसलिए रावण दशरथ से प्रत्यक्ष रूप से न लड़कर छल से आक्रमण करना चाहता था| कहा जाता है कि वह दशरथ और कौशलया को मारकर निष्कंटक राज्य करना चाहता था, इस योजना के तहत रावण ने कौशलया का अपहरण भी किया था, परन्तु वह इस कार्य में सफल नहीं हुआ और कौशलया पुनः अयोध्या वापस आ गयी, दशरथ की घेराबंदी की पीछे यही कारण था| एक प्रख्यात जनश्रुति की अनुसार रावण ने लंका कि ‘ सुबक्षा ‘ नाम कि मायाविनी राक्षसी को फुसलाकर कहा कि एक रूपवती युवती बनकर राजा दशरथ क़े पास जाए और अपनी सुंदरता क़े मोहपाश में दशरथ को फंसाकर निःवीर्य बना दे| सुबक्षा वहां गयी, राजा दशरथ शिकार खेलने जंगल में आये थे, तब दोनों कि भेंट हुई| सुबक्षा कि मोहनी रूप क़े मोहजाल में दशरथ जी फंस गए और दोनों में शारीरिक सबंध हुआ और नियत योजना क़े महत उस मायाविनी सुबक्षा ने दशरथ कि समस्त ऊर्जा को शोषित कर उन्हें निःवीर्य बना दिया पर भाग्य से सुबक्षा स्वयं गर्भवती हो गयी और विभीषण और त्रिजटा का जन्म हुआ| इस तरह अगर माना जाये तो विभीषण श्रीराम क़े बड़े भाई और त्रिजटा बड़ी बहन हुई| दशरथ कि बड़ी बेटी होने क़े कारण ही सीता ने भी त्रिजटा को माँ कहा है| प्रमाण क़े लिए ‘ सुन्दरकाण्ड का यह प्रसंग” त्रिजटा संग बोली कर जोरी| मातु विपति संगिनी हैं मोरी|” विभीषण श्रीराम क़े बड़े भाई थे , इसका संकेत भक्त शिरोमणि तुलसीदास भी रामचरित मानस क़े ” सुन्दरकाण्ड ” में विभीषण क़े कथन से देते हैं| विभीषण राम कि शरण में आते ही अपना परिचय इस प्रकार देते हैं|”नाथ दसानन कर मैं भ्राता |निसचर वंस जनम सुरत्राता|”‘हे प्रभु श्रीराम ! मैं रावण का भाई और निशिचर वंश में पैदा हुआ हूँ |आचार्य श्री सुदर्शन जी महाराज तुलसीदास क़े इस कथन क़े आधार पर बताते हैं कि ‘निशिचर’ क़े दो अर्थ होते हैं| निशि में चलने वाला अर्थात ‘राक्षस’ और निशि क़े चर( खानेवाला ) जाने वाला अर्थात ‘ सूर्य | सूर्य रात्रि को खा जाता है| इसलिए तुलसीदास क़े संकेत – सूत्र क़े अनुसार भी विभीषण सूर्यवंश में जन्म लेने वाला राम का बड़ा भाई था| इसलिए राम अपना राजतिलक छोरकर अपने बड़े भाई विभीषण को लंका का राजतिलक करवाकर छोटे भाई का कर्त्तव्य पूरा करना चाहते थे| इस प्रसंग को ” मानस मयंक ” टीकाकार क़े कथन से भी पुष्टि होती है| श्रीतुलसीदास भी ‘सुन्दरकाण्ड’ में लिखते हैं — ” एवमस्तु कही प्रभु रनधीरा | मागा तुरत सिंधु कर नीरा || जदपि सखा तव इच्छा नाही | मोर दरसु अमोध जग माहीं || अस कहीं राम तिलक तेहि सारा | सुमन बृटि नभ भई अपारा || ” यहाँ भी विभीषण क़े बड़े भाई होने का संकेत मिलता है | श्रीराम ने सागर का जल मंगवाकर अपने बड़े भाई विभीषण का राज्याभिषेक किया| परम्परा क़े अनुसार बड़े भाई क़े रहते छोटे भाई का राजतिलक नही होता है | इसलिए श्रीराम का राजतिलक अधूरा रहा|
वाल्मीकि रामायण के अनुसार, महर्षि पुलस्त्य ब्रह्माजी के मानस पुत्र थे। उनका विवाह राजा तृणबिंदु की पुत्री से हुआ था। महर्षि पुलस्त्य के पुत्र का नाम विश्रवा था। वह भी अपने पिता के समान सत्यवादी व जितेंद्रीय था। विश्रवा के इन गुणों को देखते हुए महामुनि भरद्वाज ने अपनी कन्या इड़विड़ा का विवाह उनके साथ कर दिया। महर्षि विश्रवा के पुत्र का नाम वैश्रवण रखा गया। वैश्रवण का ही एक नाम कुबेर है। महर्षि विश्रवा की एक अन्य पत्नी का नाम कैकसी था। वह राक्षसकुल की थी। कैकसी के गर्भ से ही रावण, कुंभकर्ण व विभीषण का जन्म हुआ था। रावण का भाई विभीषण पहले अपने बड़े भाई से बहुत स्नेह करता था। जब उसे एक भविष्यवक्ता से पता चला कि दशरथ के पुत्र और जनक की पुत्री रावण के अंत का कारण बनेंगे। तो वह विचलित हो गया। इस पौराणिक कथा का विस्तार से उल्लेख विमल सूरि कृत पउमचरियं (जैन रामकथा) के पर्व- 24 में मिलता है। उसने एक दैत्य जिसका नाम शुक-सारण था। दशरथ और जनक के वध का कार्य सौंपा। उस समय नारद जी ने यह बात अपनी दिव्य दृष्टि के द्वारा देख ली और फिर उन्होंने रावण के भाई विभीषण के इस षडयंत्र के बारे में दशरथ और जनक को बताया। अयोध्या के राजा दशरथ का एक सामंत था। वह चतुर था। उसने राजा दशरथ को सलाह दी कि राजा दशरथ की सजीव प्रतिमा बनाकर महल में रखवा दी जाए। राजा को गुप्तवेश में अयोध्या बाहर कुछ दिनों के लिए भ्रमण पर चले जाएं। राजा ने अपने सामंत के अनुसार यही किया। उधर, राजा जनक के चतुर सामन्त ने भी यही उपाय उन्हें बताया। और उन्हें नगर से बाहर भ्रमण करने की सलाह दी। उन्होंने भी उसकी सलाह को मान लिया। इस बीच, शक-सारण ने दशरथ और जनक के महलों में जाकर उन दोनों की प्रतिमाओं के सिर काट दिए और लंका लौट गया। उधर राजा दशरथ और जनक दोनों कई देशों के भ्रमण करते हुए एक स्वयंवर में पहुंचे। यह स्वयंवर कैकेयी का था। जिनके पिता मंगल नाम के नगर के राजा शुभमति और कैकेयी की मां पृथ्वी थीं। वहां कैकेयी ने दशरथ को चुन लिया। इस पर वहां मौजूद अन्य राजाओं से दशरथ का युद्ध हुआ, जिसमें कैकेयी ने दशरथ के सारथी की भूमिका निभाई। वह युद्ध में दशरथ के साथ मौजूद थीं। इस तरह राजा दशरथ ने सभी राजाओं को परास्त कर कैकेयी को पत्नी रूप में स्वीकार किया और अयोध्या लौट आए। और राजा जनक ने मिथिला की ओर प्रस्थान किया।
रामायण के ही उत्तरकाण्ड के अनुसार राक्षसवंश में हेति, विद्युत्केश और सुकेश बड़े बलशाली थे। ये तीनों राक्षस वहाँ लङ्का में रहते थे। इनमें सुकेश के तीन पुत्र हुए – माल्यवान्, सुमाली तथा माली। इन के साथ और बहुत से राक्षस लंङ्का में रहते थे जो देवताओं को सन्ताप दिया करते थे। भगवान् शङ्कर के परामर्श से देवों ने विष्णु से अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना की। भगवान् विष्णु ने लङ्का में स्थित राक्षसों का बहुत कुछ संहार कर दिया और बचे हुए राक्षस रसातल में प्रवेश कर गए। माल्यवान् और सुमाली आदि ने भी पलायन कर के रसातल में ही अपना स्थान बनाया। एक बार सुमाली अपनी पुत्री केकसी के साथ भारत के गोकर्ण आश्रम में आया। वहाँ विचरण करते हुए सुमाली ने पुष्पक विमान से जाते कुबेर को देखा। कुबेर को यह पुष्पक विमान ब्रह्मा से वरदान में मिला था। इस के द्वारा वे पुलस्त्य के पुत्र तथा अपने पिता विश्रवा का दर्शन करने हेतु आए थे। सुमाली के मन में चिन्ता हुई कि किस प्रकार कुबेर की तुल्यता की जाय? उस राक्षस ने अपनी पुत्री केकसी से कहा कि तुम्हारी अवस्था बीत रही है। हे पुत्रि, हम चाहते हैं कि तुम विश्रवा का वरण करो जिससे तुम कुबेर के तुल्य तेजस्वी पुत्र प्राप्त करोगी। पिता के आदेश से केकसी विश्रवा के पास गई। सायंकाल का समय था, विश्रवा अग्हिोत्र कर रहे थे। विश्रवा के चरणों में नीचे मुख किये हुए केकसी खड़ी हो गई। विश्रवा ने देखा और कारण पूछा। केकसी ने हाथ जोड़ कर निवेदन किया कि आप तपस्वी हैं, स्वयं सब जान सकते हैं। विश्रवा ने सन्ततिलाभ का प्रयोजन जान लिया और कहा कि तुम सन्ध्याकाल में आई हो और पुत्र चाहती हो। यह राक्षसीकाल है। तुम्हारे पुत्र बड़े दुर्दान्त होंगे। इस पर केकसरी ने निवेदन किया कि हे प्रभो, आप से हम ऐसे सन्तान की अपेक्षा नहीं कर सकतीं। इस पर विश्रवा ने कहा कि तुम्हारा अन्तिम पुत्र सदाचारी होगा। इस प्रकार रावण, कुम्भकर्ण, शूर्पणखा और विभीषण का जन्म हुआ। अन्तिम अन्तिम सन्तान होने के कारा विभीषण को सदाचारसम्पन्न होना ही था। केकसी के तीनो पुत्रों ने तप करके ब्रह्मा से वर प्राप्त किया। विभीषण का ही वरदान प्रसंङ्ग प्राप्त है। ब्रह्मा से विभीषण ने कहा- अर्थात् यदि प्रसन्न हो कर मुझे वर देना चाहते हैं तो सुनिये भगवन् बड़ी से बड़ी आपत्ति में पड़ने पर भी मेरी बुद्धिधर्म में ही लगी रहे, उस से विचलित न हो और बिना सीखे ही मुझे ब्रह्मास्त्र का ज्ञान हो जाय। जिस-जिस आश्रम के विषय में मेरा जो-जो निर्णय हो, वह धर्म के अनुकूल ही हो और उस उस धर्म का मैं पालन करूँ, यही मेरे लिए सब से उत्तम और अभीष्ट वरदान है। अर्थात् वत्स तुम धर्म में स्थित रहने वाले हो अत: जो कुछ चाहते हो, वह सब पूर्ण होगा। शत्रुनाशन राक्षसयोनि में उत्पन्न हो कर भी तुम्हारी बुद्धि अधर्म में नहीं लगी है इस लिए मैं तुम्हें अमरत्व देता हूँ। रावण ने पिता विश्रवा से प्रार्थना कर कुबेर को लङ्का छोड़ने के लिए कहा। कुबेर ने कैलास को यक्षों की राजधानी बनाया और लंङ्का में रावण का राज्याभिषेक हुआ तथा वहाँ पुन: राक्षस रहने लगे। रावण ने कुबेर को जीत कर पुष्पक विमान का भी अपहरण कर लिया। इस सन्दर्भ में हमें विभीषण के ही चरित का अङ्कन करना अपेक्षित है। द्रष्टव्य यह है कि विभीषण बहुत बाद में राम के शरणागत हुए परन्तु गोस्वामीजी ने बहुत पहले ही उन्हें राजनीतिक छलना का नेता बना दिया है। हनुमान् ने सीताजी की खोज करते-करते विभीषण के घर को देखा और दोनों में प्रगाढ़ मैत्री हो गई। सन्दर्भ द्रष्टव्य है – विभीषण रावण की सभा में मुख्य सदस्य था, अत: वैमात्रबन्धु मानना तो अनर्गल है ही, साथ ही विभीषण को अन्य सभासदों के विरोध में वे रावण को सम्मति देते हैं। युद्धकाण्ड के नवम सर्ग में विस्तार से राम को अजय्य बताते हुए विभीषण ने कहा है- यद्यपि रावण ने विभीषण की सम्मति नहीं मानी, क्योंकि बारहवें सर्ग में स्पष्ट हो जाता है कि सीता के प्रति रावण की आसक्ति अविचल है। इस लिए कुम्भकर्ण ने भी रावण को डाँटा था और अन्तत: राम से युद्ध करने को अपना कर्तव्य माना। विभीषण ने रावण की ओर से बोलने वाले सभासदों को भी समझाया था। रावण के सेनानायक प्रहस्त ने डाँटते हुए कहा था – हाँ कहीं भी राम के प्रति कोई पक्षपात करके किसी प्रकार की छलना नहीं है। सीता के प्रति आसक्ति को छोड़ दिया जाय तो अन्य विषयों में विभीषण की बात रावण मानता ही था। पन्द्रहवें सर्ग में इन्द्रजित् को जब विभीषण ने फटकारा, तब रावण तटस्थ रहा। सोलहवें सर्ग में रावण ने विभीषण को गुप्त शत्रु जैसा बताया। विभीषण ने रावण का जो त्याग किया वह भी द्रष्टव्य है – रावण ने प्रकारान्तर से विभीषण को कृतघ्न बताया। इन सब बातों पर अत्यन्त खिन्न होकर रावण को पिता के तुल्य मानते हुए भी उस के अनुचित कर्मो के प्रति अपना अमर्ष व्यक्त किया और चार राक्षसों के साथ लङ्का को छोड कर चला गया। जाते आजे अन्तरिक्ष में उस ने राक्षसराज से कहा – वहाँ रावण ने विभीषण को छली बताया है और विभीषण ने विवश होकर चार राक्षसों के साथ रावण को त्याग दिया है। गोस्वामीजी ने थोड़ा प्रकारान्तर करते हुए रावण द्वारा विभीषण पर लात से प्रहार करवाया है जो रावण और विभीषण के भ्रातृत्व पर अनर्थक प्रहार है फिर भी विभीषण का कथन द्रष्टव्य है – गोस्वामीजी ने विभीषण को अत्यन्त अल्प माना है। गाँव के ठाकुर जैसे सोलहवीं शताब्दी में हुआ करते थे, वैसा ही रावण को उन्होंने समझा। परिणामस्वरूप रावण के वचन वैसे ही निम्न कोटि के प्रतीत हो रहे हैं। रावण ने न केवल विभीषण को भागने को विवश किया अपितु लत्ताप्रहार भी किया। इस के विपरीत रामायण के युद्धकाण्ड का सोलहवाँ सर्ग द्रष्टव्य है। जिस में विभीषण को अनार्य कहा गया है। न्यायवादी विभीषण को स्वभावत: क्रोध आया और हाथ में गदा लिए हुए चार राक्षसों के साथ लङ्का का परित्याग करते हुए रावण को पितृसम कहा और यह भी बताया कि तुम्हारा परुष वाक्य मैं क्षमा नहीं कर सकता। अन्तत: विभीषण ने जो नीतिवाक्य कहा, वह आज तक लोकोक्तियों में प्रचलित है – गोस्वामीजी ने वैमात्रबन्धु होने का जो भ्रम पाल रखा था, उस ने रावण को बहुत तुच्छ बनाया और विभीषण के चरित में कुछ जोड़ा नहीं।
रामायण के अनुसार विभीषण रावण के सबसे छोटे भाई थे, इनके पिता भी मुनिवर ब्राह्मण विश्रवा थे। जब पुलस्त्य नन्दन विश्रवा से रावण की माता कैकसी विवाह के विचार से आश्रम में गई, तब मुनिवर ने उसका विचार जान कर कहा था ‘भद्रे। तुम्हारे मन का भाव मालूम हुआ। मतवाले गजराज की भांति मन्दगति से चलने वाली सुन्दरी, तुम मुझ से पुत्र प्राप्त करना चाहती हो परन्तु इस दारूण बेला में मेरे पास आई हो, इसलिए यह भी सुन लो कि तुम कैसे पुत्रों को जन्म दोगी, सुश्रोणी। तुम्हारे पुत्र क्रूर स्वभाव वाले और शरीर से भी भयंकर होंगे तथा उनका क्रूर कर्मा राक्षसों के साथ ही प्रेम होगा। तुम क्रूरता पूर्ण कर्म करने वाले राक्षसों को ही पैदा करोगी। जब माता कैकसी ने प्रार्थना की कि वे दुराचारी पुत्रों को पाने की आकांक्षा नहीं रखती, तब मुनिवर विश्रवा ने कहा शुभानने। तुम्हारा जो सबसे छोटा एवं अन्तिम पुत्र होगा, वह मेरे वंश के अनुरूप धर्मात्मा होगा, इसमें संशय नहीं। यह सबसे छोटा व अक्षिस पुत्र महात्मा विभीषण ही थे। इनके धर्म कर्म में रहने से कोई इंकार नहीं कर सकता। जब महात्मा विभीषण का जन्म हुआ, तब बाल्मीकी जी रामायण में वर्णन करते हैं उस महान सत्वशाली पुत्र का जन्म होने पर आकाश से फूलों की वर्षा हुई और आकाश में देवों की दुन्दुभियां बज उठी उस समय अन्तरिक्ष में साधु साधु की छवि सुनाई देने लगी। महान तपस्वी विभीषण सदा धर्मात्मा रहे। शुद्ध आचार विचार का पालन करते हुए वे पांच हजार वर्षों तक एक पैर से खड़े रहे। इसके बाद अपनी दोनों बांहें और मस्तक ऊपर उठाकर पांच हजार वर्षों तक सूर्य देव की आराधना करते रहे, तब तपस्या पूर्ण हुई। प्रजापति ब्रह्मा ने वर मांगने का आग्रह किया, तब भी महात्मा विभीषण ने धर्म के अनुकूल जो कुछ भी है, वही मांगा। आलोचना के लिए न्यायमूर्ति काटजू सुप्रीमकोर्ट में तलबतब ब्रह्मा जी ने प्रसन्न होकर कहा वत्स। तुम धर्म में स्थित रहने वाले हो अत: जो कुछ भी चाहते हो, वह सब पूर्ण होगा। शत्रु नाशक राक्षस योनि में उत्पन्न होकर भी तुम्हारी बुद्धि अधर्म में नहीं लगती, इसलिए मैं तुम्हें अमरत्व प्रदान करता हूं। इस प्रकार विभीषण धर्मात्मा, तपस्वी, शुद्ध आचार व्यवहार के रहे।ऐसा नहीं है कि सीता हरण पर ही तपस्वी विभीषण रावण ने सदपरामर्श दे, रावण का विरोध किया था। इसके पूर्व भी विभीषण रावण को पर स्त्री हरण का दोष बताते हुए कहते हैं राजन ये आचरण यश, धन और कुल का नाश करने वाले हैं। इनके द्वारा जो प्राणियों को पीड़ा दी जाती है, उससे बड़ा पाप होता है, इस बात को जानते हुए भी आप सदाचार का उल्लंघन करके स्वेच्छाचार में प्रवृत हुए हैं। धर्मात्मा विभीषण अपने भाई राक्षस राज रावण को सद परामर्श सदा देते थे। पवन सुत हनुमान का वध न करने का परामर्श देते हुए दूत के वध का निषेध बताना, फिर श्री राम की अज्ञेयता बता कर माता सीता को लौटा देने का अनुरोध, रावण के महल में जाकर उसे अपशकुनों का भय दिखा कर सीता को लौटा देने के लिए प्रार्थना, पुन: राम को अजेय बताकर उनके पास सीता को लौटा देने की सम्मति प्रदान करना, ये ऐसे तथ्य हैं जो स्पष्ट करते हैं कि विभीषण राक्षस राज रावण की भलाई के लिए प्रयत्नशील थे। घर का भेदी:- एक कहावत प्रसिद्ध है घर का भेदी लंका ढाए। यह कहावत स्पष्ट रूप से विभीषण पर कटाक्ष करती है। लाख विभीषण धर्मात्मा तपस्वी था किन्तु सामान्य जन का यह मानना है कि भाई विभीषण ने अपने घर के भेद बता कर राक्षस राज रावण की पराजय का द्वार खोल दिया अन्यथा रावण की हार संभव नहीं थी। राक्षस संस्कृति से क्रूर कर्मा थे। वे अपनी संस्कृति के अनुरूप आचरण कर रहे थे किन्तु सत्ता सुख के लिए अपने परिवार के रहस्य शत्रु को प्रदान कर परास्त कराने में सहायक विभीषण को आज तक जन समुदाय माफ नहीं कर पाया। इसलिए रावण द्वारा कहे गए इन शब्दों का मनन आवश्यक है। शत्रु और कुपित विषधर सर्प के साथ रहना पड़े तो संभल कर रहें, परन्तु जो मित्र कहला कर भी शत्रु की सेवा कर रहा हो, उसके साथ कदापि न रहे। रावण फिर कहता है राक्षस सम्पूर्ण लोकों में सजातीय बधुओं का जो स्वभाव होता है उसे मैं अच्छी तरह जानता हूं। जाति वाले सर्वदा अपने अन्य सजातीयों में ही हर्ष मानते हैं। रावण ने जो कहा वह सत्य है। मनोवैज्ञानिक उसे स्वीकारते हैं और जन सामान्य उसे व्यवहारिक जीवन में अनुभव करता है। केवल घर:- लेकिन इस सत्य को हमने केवल परिवार के अन्तर्गत स्वीकार किया है। रावण भाई को धोखा देकर शत्रु से हाथ मिलाना पाप माना गया, तब राजतंत्र था। राजा का परिवार ही राज्य के विवादों के अन्तर्गत आता था। उन्हीं में विद्रोह व षडय़ंत्र के बीज बोए जाते थे, इसलिए विभीषण घर के अन्दर सहनीय नहीं माना गया। वस्तुत: हर वह व्यक्ति जो लालच के वश शत्रु का प्रश्रय पाता है, वह विभीषण है। विभीषण के मन में राज्य की अभिलाषा कहीं न कहीं दबी छिपी थी इसलिए उनका महात्मा व तपस्वी रूप आम नागरिक स्वीकार नहीं करता।
एक अन्य कथा के अनुसार विभीषण भी अपने भाई रावण और कुम्भकर्ण की तरह ही राक्षस कुलोत्पन्न था| उसका जन्म महर्षि विश्रवा व असुर कन्या कैकसी के संयोग से हुआ था | तीनों भाइयों ने ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किए. रावण ने त्रैलोक्य विजयी होने का तो कुम्भकर्ण ने निंद्रासन मांगी| वहीं विभीषण ने जगतपिता से भगवत भक्ति का वरदान मांगा | तप करके रावण ने अपने भाई कुबेर से लंकापुरी छीन लिया और वहां से अपनी सत्ता चलाने लगा | कुम्भकर्ण अपने अजीब वरदान के कारण नींद में ही रहा करता था और विभीषण ने लंका में ही अपना बसेरा बनाया| रावण की सभा में उसे महज एक सलाहकार की भूमिका मिली थी| वहां भी अपने धार्मिक आचरण के कारण उसकी लंकाधिपति से पटती नहीं थी| रावण पंडित होते हुए भी महाउत्पाती और घमंडी था. ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त करने के बाद वह और भी उदण्ड हो चला था | सोने की लंका से वह पूरी दुनिया पर राज करना चाहता था. वरदान के अनुसार समस्त चराचर जगत पर वह अपना अधिकार समझता था और जब मौक़ा मिले किसी भी जगह धावा बोल दिया करता था| उसकी राक्षसी सेना न केवल राजाओं को अपितु निर्दोष ऋषि-मुनियों को भी आघात पहुंचाने से बाज नहीं आते थे | यह ऐसी स्थिति थी जो कि लंका में रहते हुए भी विभीषण को लंकाधिपति से बेहद मतान्तर रहता था. चूंकि उसके पास कोई अन्य उपाय था भी नहीं | अतः उसने भगवान में मन को रमा लिया. विभीषण को धर्मावतार भी कहा गया है और रावण के आचरण से वह मन ही मन दुखी रहा करता था. सीताहरण की घटना से वह रावण पर कुपित होकर उसे चेताया, लेकिन अहंकारी रावण ने एक न सुनी और भरी सभा में विभीषण का भीषण अपमान किया| इतना ही नहीं, सियासुध को आए हनुमानजी के वध हेतु उद्यत रावण को विभीषण ने लाख समझाने की कोशिश की. उसने रावण से कहा कि दूत को हानि पहुंचाना धर्म संगत नहीं है. रावण ने अट्टहास करते हुए हनुमानजी की पूंछ में आग लगाने का आदेश दे दिया और फिर लंकादहन का काण्ड हुआ | हालांकि, इस विभीषिका में विभीषण का घर जलने से बच गया राम रावण युद्ध से पहले ही विभीषण ने सभा के दौरान ही बताया था कि सीताहरण लंकानगरी के विनाश का परिचायक है. उसने साफ़ शब्दों में रावण से युद्ध टालने हेतु सीता को लौटाने की गुहार लगाई. लेकिन अहंकार से चूर दशानन ने विभीषण की अत्यंत कटु आलोचना करते हुए उसे राक्षसकुल का कलंक बताया. बार-बार के अपमान से तंग आकर विभीषण ने अनल, पनस, संपाति, एवं प्रमाति नामक अपने चार राक्षस-मित्रों के साथ राम की शरण में आ गया | हालांकि राम की सेना में स्थान मिलना उतना आसान नहीं रहा | उसको निकट देख सुग्रीव की आंखों में प्रतिशोध की ज्वाला भड़क उठी. उसे हनुमान के अपमान का बदला लेने की सूझी. लेकिन भक्त वत्सल प्रभु श्रीराम ने उसे ऐसा करने से मना किया. उन्होंने विभीषण को न केवल शरण दी बल्कि युद्ध में उसकी भूमिका भी सुनिश्चित कर दी| शत्रु के अनुज के प्रति श्रीराम के असीम स्नेह को देखकर विभीषण उनके चरणों में गिर पड़ा और खुद को श्रीराम के उद्देश्य में समर्पित कर दिया. यही से रावण के विनाश की पुख्ता नींव पड़ी| रावण के विरुद्ध युद्ध में राम ने विभीषण को अपना प्रमुख परामर्शदाता बनाया. इसके बाद विभीषण ने लंकापुरी के एक-एक भेद राम को बताए| उसने सागर पार करने की युक्ति बताई साथ ही रावण के गुप्तचरों की पहचान भी कराई. लिहाजा श्रीराम की सेना के लिए युद्ध बेहद आसान हो गया. इतना ही नहीं, विभीषण खुद भी युद्ध में अपने ही भाई के खिलाफ उतरा और प्रमुख राक्षसों का वध किया| चूंकि, रावण और उसके सैनिक मायावी शक्ति में निपुण थे, तो युद्ध इतना आसान नहीं होने वाला था. लेकिन विभीषण की सलाह और सहायता से मायावी शक्तियों से लड़ने में श्रीराम की सेना सक्षम हो सकी. हालांकि, युद्ध से पहले बालीपुत्र अंगद को संधि प्रस्ताव के साथ भेजने का सलाह भी विभीषण ने ही दिया था | युद्ध भूमि में लाख जतन करने के बाद भी जब रावण हार नहीं मान रहा था, तो श्रीराम चिंतित हुए. बार-बार सर काटने के बाद भी रावण फिर से गर्जना करते उठ खड़ा होता था| रावण के प्राण उसकी नाभि में थे, इस बात की जानकारी श्रीराम को तब हुई जब विभीषण ने उन्हें बताया| रावण की मृत्यु के बाद सीता को संग लेकर श्रीराम ने विभीषण को लंकाधिपति घोषित किया | उन्होंने विभीषण को अखण्ड सत्ता का आशीष दिया| साथ ही अयोध्या से लंका के संबंध भी मधुर हो गए| जिस प्रकार अग्निपरीक्षा के बाद भी सीता को पुनः वनगमन करना पड़ा, उसी प्रकार विभीषण धर्म की रक्षा में आजीवन रहे किन्तु आज भी उसे ‘घर का भेदिया’ कहा जाता है| ये ध्यान देने वाली बात है कि राक्षस कन्या के गर्भ से जन्म लेने के बावजूद भी विभीषण एक ऋषिपुत्र और ब्राह्मण था| लिहाजा उसे धर्म के प्रति लगाव था | धर्म की रक्षा को लेकर भाई सहित का त्याग करने वाले विभीषण की त्याग भावना को लोग याद नहीं करते, बल्कि उस पर भाईद्रोह और देशद्रोह का आरोप लगाते हैं | ये बेहद ही आश्चर्यजनक है कि आज भी लोग अपने बच्चों के नाम विभीषण नहीं रखते| जबकि, वह एक धर्मात्मा और प्रजाप्रिय शासक रहा. उसके रहते लंका ही नहीं आर्यावर्त के अन्य भागों में राक्षसी उत्पात समाप्त हुए और शिक्षा-शोध के लिए ऋषिमुनि भय-रहित हुए | तपस्वी और महात्मा थे विभीषण फिर भी क्यों नहीं है विभीषण नाम का प्रचलन…? नाम का उपयोग सामान्य रूप से पहचान के लिए है। उसका व्यवहारिक जीवन में कोई विशेष महत्त्व नहीं हैं, किन्तु फिर भी नामकरण के समय यह ध्यान रखा जाता है कि नाम शुभ अर्थों वाला हो। नाम का सन्दर्भ ऐसा हो कि उसका उल्लेख शान से किया जा सके, इसलिए भारत में जो सामान्य नाम पाए जाते हैं उनमें धार्मिक पृष्ठभूमि अधिक पाई जाती है। राम कृष्ण, शिव व इनसे संबंधित व इनके प्रिय नाम सर्व साधारण नागरिकों में अत्यंत प्रिय हैं इसलिए राम के साथ-साथ लक्ष्मण, भरत, शत्रुध्न, हनुमान, सुग्रीव, अंगद जैसे नाम बहुत अधिक हैं किन्तु राम के ही प्रिय रावण के भाई विभीषण का नाम आज तक प्रचलन में नहीं है। हमारी जानकारी में विभीषण नाम का कोई व्यक्ति आज तक नहीं आया, इसलिए यह प्रश्न चिन्तन का विषय है कि महात्मा विभीषण का नाम सर्वसाधारण नागरिकों में प्रचलन में क्यों नहीं आया ?
एक कथा के अनुसार पुलस्त्य के क्रोध से उनके आधे शरीर से विश्रवा नामक मुनि प्रकट हुए थे, वे कुबेर को कुपित दृष्टि से देखने लगे युधिष्ठिर! राक्षसों के स्वामी कुबेर को जब यह बात मालूम हो गयी कि मेरे पिता मुझ पर रूष्ट रहते हैं, तब वे उन्हें प्रसन्न रखने का यन्त्र करने लगे। राजराज कुबेर स्वयं लंका में रहते थे। वे मनुष्यों द्वारा ढ़ोई जाने वाली पालकी आदि की सवारी पर चलते थे। उन्होंने अपने पिता विश्रवा की सेवा के लिये तीन राक्षस कन्याओं को परिचारिकाओं के रूप में नियुक्त कर दिया था। भरत श्रेष्ठ! वे तीनों ही नाचने और गाने की कला में निपुण थीं तथा सदा ही उन महात्मा महर्षि को संतुष्ट रखने के लिये सचेष्ट रहती थीं। महाराज! उनके नाम थे-पुष्पोंतकटा राका तथा मालिनी । वे तीनों सुन्दरियां अपना भला चाहती थीं। इसलिये एक दूसरी से स्पर्धा रखकर मुनि की सेवा करती थीं वे ऐर्श्यशाली महात्मा उनकी सेवाओं से प्रसन्न हो गये और उनमें से प्रत्येक को उनकी इच्छा के अनुसार लोकपालों के समान पराक्रमी पुत्र होने का वरदान दिया। पुष्पोत्कटा के दो पुत्र हुए रावण और कुम्भकर्ण। ये दोनों ही राक्षसों के अधिपति थे। भूमण्डल में इनके समान बलवान दूसरा कोई नहीं था। मालिनी ने एक पुत्र विभीषण को जन्म दिया। राका के गर्भ से एक पुत्र और एक पुत्री हुई। पुत्र का नाम खर था और पुत्री का शुपर्णखा । इन सब बालकों में विभीषण ही सबसे रूपवान्, सौभाग्यशाली, धर्मरक्षक तथा कर्तव्य परायण थे। रावण के दस मस्तक का जिक्र आता है जबकि ऐसा नहीं बल्कि उसे दस लोगो जितना दिमाग था इसलिए उसका नाम दशानन पड़ा था । वही सब में ज्येष्ठ तथा राक्षसों का स्वामी था। उत्साह, बल, धैर्य और पराक्रम में भी वह महान था। कुम्भकर्ण शारीरिक बल में सबसे बढ़ा-चढ़ा था। युद्ध में भी वह सबसे बढ़कर था। मायावी और रणकुशल तो था ही, वह निशाचर बड़ा भंयकर भी था। खर धनुर्विद्या में विशेष पराक्रमी था वह ब्राह्मणों से द्वेष रखने वाला तथा मासाहारी था शूर्पणखा की आकृति बड़ी भयानक थी। वह सिद्ध ऋषि-मुनियों की तपस्या में विघ्र डाला करती थी। वे सभी बालक वेदवेत्ता, शूरवीर तथा ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करने वाले थे और अपने पिता के साथ गंधमादन पर्वत पर सुख पूर्वक रहते थे। एक दिन नरवाहन कुबेर अपने महान ऐश्वर्य से युक्त होकर पिता के साथ बैठे थे उसी अवस्था में रावण आदि ने उन्हें देखा। उनका वैभव देखकर इन बालकों के हृदय में डाह पैदा हो गयी। अत: उन्होंने मन-ही-मन तपस्या करने का निश्चय किया और घोर तपस्या के द्वारा उन्होंने ब्रह्मा जी को संतुष्ट कर लिया। रावण सहस्त्रों वर्षो तक एक पैर पर खड़ा रहा। वह चित्त को एकाग्र रखकर पच्चाग्निसेवन करता और वायु पीकर रहता था। कुम्भकर्णने भी आहार का संयम किया। वह भूमि पर सोता और कठोर नियमों का पालन करता था। विभीषण था। विभीषण केवल एक सूखा पत्ता खाकर रहते थे। उनका भी उपवास में ही प्रेम था। बुद्धिमान एवं उदार बुद्धि विभीषण सदा जप किया करते थे। उन्होंने भी उतने समय तक तीव्र तपस्या की। खर और शूर्पणखा ये दोनो प्रसन्न मन से तपस्या में लगे हुए अपने भाइयों की परिचर्या तथा रक्षा करते थे। एक हजार वर्ष पूर्ण होने पर दुर्धर्ष दशानन अपना मस्तक काटकर अग्नि में उसकी आहुति दे दी। उसके इस अद्भुत कर्म से लोकेश्वर ब्रह्मा जी बहुत सुंतुष्ट हुए। तदनन्तर ब्रह्मा जी ने स्वयं आकर उन सबको तपस्या करने से रोका और प्रत्येक को पृथक-पृथक वरदान का लोभ देते हुए कहा। ब्रह्मा जी बोले- पुत्रो! मैं तुम सबपर प्रसन्न हूँ, वर मांगों और तपस्या से निवृत्त हो जाओ। केवल अमरत्व को छोड़कर जिसकी जो-जो इच्छा हो, उसके अनुसार वह वर मांगे। उसका वह मनोरथ पूर्ण होगा। तुमने महत्वपूर्ण पद प्राप्त करने की इच्छा से अपने जिन-जिन मस्तकों की अग्नि में आहुति दी है, वे सब के सब पूर्ववत तुम्हारे शरीर में इच्छानुसार जुड़ जायेंगे। तुम्हारे शरीर में किसी प्रकार की कुरुपता नहीं होगी, तुम इच्छानुसार रूप धारण कर सकोगे तथा युद्ध में शत्रुओं पर विजयी होओगे, इसमें संशय नहीं है। रावण बोला भगवन गंदर्व देवता असुर यक्ष सर्प किन्नर राक्षस तथा भूतों से कभी मेरी पराजय न हो। ब्रह्मा जी ने कहा- तुमने जिन लोगों का नाम लिया है, इनमें से किसी से भी तुम्हें भय नही होगा। केवल मनुष्यों को छोड़कर तुम सबसे निर्भय रहो। तुम्हारा भला हो। तुम्हारे लिये मनुष्य से होने वाले भय का विधान मैंने ही किया है। ब्रह्मा जी के ऐसा कहने पर दसमुख रावण बहुत प्रसन्न हुआ। वह दुर्बुद्धि नरभक्षी राक्षस मनुष्यों की अवहेलना करता था। तत्पश्चात ब्रह्मा जी ने कुम्भकर्ण से वर मांगने को कहा। परंन्तु उसकी बुद्धि तमोगुण से ग्रस्त थी; अत: उसने अधिक काल तक नींद लेने का वर मांगा। उसे ‘ऐसा ही होगा’ यों कहकर ब्रह्मा जी विभीषण के पास गये और इस प्रकार बोले- ‘बेटा! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ, अत: तुम भी वर मांगो। ’ब्रह्मा जी ने यह बात बार-बार दुहरायी। विभीषण बोले- भगवन्! बहुत बड़ा संकट आने पर भी मेरे मन में कभी पाप का विचार न उठे तथा बिना सीखे ही मेरे हृदय में ब्रहमास्त्र के प्रयोग और उपसंहार की विधि स्फुरित हो जाय। ब्रह्मा जी ने कहा- शत्रुनाशन! राक्षस योनि में जन्म लेकर भी तुम्हारी बुद्धि अधर्म में नहीं लगती है, इसलिय मै तुम्हे अमरत्व का वरदान देता हूँ|
कहा जाता है कि पूर्वजन्म में कुबेर चोर थे चोर भी ऐसे कि देव मंदिरों में चोरी करने से भी बाज न आते थे। एक बार चोरी करने के लिए एक शिव मंदिर में घुसे। तब मंदिरों में बहुत माल-खजाना रहता था। उसे ढूंढने-पाने के लिए कुबेर ने दीपक जलाया लेकिन हवा के झोंके से दीपक बुझ गया। कुबेर ने फिर दीपक जलाया, फिर वह बुझ गया। जब यह क्रम कई बार चला, तो भोले-भाले और औघड़दानी शंकर ने इसे अपनी दीपाराधना समझ लिया और प्रसन्न होकर अगले जन्म में कुबेर को धनपति होने का आशीष दे डाला | कुबेर के संबंध में प्रचलित है कि उनके तीन पैर और आठ दांत हैं। अपनी कुरूपता के लिए वे अति प्रसिद्ध हैं। उनकी जो मूर्तियां पाई जाती हैं, वे भी अधिकतर स्थूल और बेडौल हैं ‘शतपथ ब्राह्मण’ में तो इन्हें राक्षस ही कहा गया है। इन सभी बातों से स्पष्ट है कि धनपति होने पर भी कुबेर का व्यक्तित्व और चरित्र आकर्षक नहीं था। कुबेर रावण के ही कुल-गौत्र के कहे गए हैं। कुबेर को राक्षस के अतिरिक्त यक्ष भी कहा गया है। यक्ष धन का रक्षक ही होता है, उसे भोगता नहीं। कुबेर का जो दिक्पाल रूप है, वह भी उनके रक्षक और प्रहरी रूप को ही स्पष्ट करता है। पुराने मंदिरों के वाह्य भागों में कुबेर की मूर्तियां पाए जाने का रहस्य भी यही है कि वे मंदिरों के धन के रक्षक के रूप में कल्पित और स्वीकृत हैं। कौटिल्य ने भी खजानों में रक्षक के रूप में कुबेर की मूर्तियां रखने के बारे में लिखा है। शुरू के अनार्य देवता कुबेर, बाद में आर्य देव भी मान लिए गए। बाद में पुजारी और ब्राह्मण भी कुबेर के प्रभाव में आ गए और आर्य देवों की भांति उनकी पूजा का विधान प्रचलित हो गया। तब विवाहादि मांगलिक अनुष्ठानों में कुबेर के आह्वान का विधान हुआ लेकिन यह सब होने पर भी वे द्वितीय कोटि के देवता ही माने जाते रहे। धन को सुचिता के साथ जोड़कर देखने की जो आर्यपरंपरा रही, संभवतः उसमें कुबेर का अनगढ़ व्यक्तित्व नहीं खपा होगा। बाद में शास्त्रकारों पर कुबेर का यह प्रभाव बिल्कुल नहीं रहा इसलिए वे देवताओं के धनपति होकर भी दूसरे स्थान पर ही रहे, लक्ष्मी के समकक्ष न ठहर सके। और लक्ष्मी पूजन की परंपरा ही कायम रही। लक्ष्मी के धन के साथ मंगल का भाव भी जुड़ा हुआ है। कुबेर के धन के साथ लोकमंगल का भाव प्रत्यक्ष नहीं है। लक्ष्मी का धन स्थायी नहीं, गतिशील है। इसलिए उसका चंचला नाम लोकविश्रुत है जबकि कुबेर का धन खजाने के रूप में जड़ या स्थिरमति है।
यह एक पौराणिक कथा है। कुबेर तीनों लोकों में सबसे धनी थे। एक दिन उन्होंने सोचा कि हमारे पास इतनी संपत्ति है, लेकिन कम ही लोगों को इसकी जानकारी है। इसलिए उन्होंने अपनी संपत्ति का प्रदर्शन करने के लिए एक भव्य भोज का आयोजन करने की बात सोची। उस में तीनों लोकों के सभी देवताओं को आमंत्रित किया गया। भगवान शिव उनके इष्ट देवता थे, इसलिए उनका आशीर्वाद लेने वह कैलाश पहुंचे और कहा, प्रभो! आज मैं तीनों लोकों में सबसे धनवान हूं, यह सब आप की कृपा का फल है। अपने निवास पर एक भोज का आयोजन करने जा रहा हूं, कृपया आप परिवार सहित भोज में पधारने की कृपा करे। भगवान शिव कुबेर के मन का अहंकार ताड़ गए, बोले, वत्स! मैं बूढ़ा हो चला हूँ, कहीं बाहर नहीं जाता। कुबेर गिड़गिड़ाने लगे, भगवन! आपके बगैर तो मेरा सारा आयोजन बेकार चला जाएगा। तब शिव जी ने कहा, एक उपाय है। मैं अपने छोटे बेटे गणपति को तुम्हारे भोज में जाने को कह दूंगा। कुबेर संतुष्ट होकर लौट आए। नियत समय पर कुबेर ने भव्य भोज का आयोजन किया। तीनों लोकों के देवता पहुंच चुके थे। अंत में गणपति आए और आते ही कहा, मुझको बहुत तेज भूख लगी है। भोजन कहां है। कुबेर उन्हें ले गए भोजन से सजे कमरे में। सोने की थाली में भोजन परोसा गया। क्षण भर में ही परोसा गया सारा भोजन खत्म हो गया। दोबारा खाना परोसा गया, उसे भी खा गए। बार-बार खाना परोसा जाता और क्षण भर में गणेश जी उसे चट कर जाते। थोड़ी ही देर में हजारों लोगों के लिए बना भोजन खत्म हो गया, लेकिन गणपति का पेट नहीं भरा। वे रसोईघर में पहुंचे और वहां रखा सारा कच्चा सामान भी खा गए, तब भी भूख नहीं मिटी। जब सब कुछ खत्म हो गया तो गणपति ने कुबेर से कहा, जब तुम्हारे पास मुझे खिलाने के लिए कुछ था ही नहीं तो तुमने मुझे न्योता क्यों दिया था? कुबेर का अहंकार चूर-चूर हो गया।
श्रीवराहपुराण में दी गई एक कथा के अनुसार, भगवान कुबेर पहले सिर्फ वायु के ही रूप में थे। उन्होंने अपना शरीर भगवान ब्रह्मा के कहने पर धारण किया। एक समय की बात है भगवान ब्रह्मा सृष्टि की रचना करना चाहते थे। तभी अचानक उनके मुंह से वायु निकली। वायु बड़ी तेजी से यहां से वहां बहने लगी। वायु के तेज से सभी जगह धूल ही धूल फैलने लगी। इस स्थिति को रोकने के लिए भगवान ब्रह्मा ने उस वायु को शांत होकर, शरीर धारण करने को कहा। भगवान ब्रह्मा के कहने पर वायु ने कुबेर का रूप धारण किया और सशरीर भगवान ब्रह्मा के सामने आए। कुबेर पर प्रसन्न होकर भगवान ब्रह्मा ने उसे धन का देवता बनाया और धनपति के नाम से प्रसिद्ध होने का वरदान भी दिया।
रामायण में विभीषण राक्षस कुल में जन्म लेने के बाद भी राम भक्त थे। राक्षस रावण के छोटे भाई विभीषण बचपन से ही भक्त थे, जब तीनों भाइयों रावण, कुंभकरण और विभीषण ने ब्रह्मा जी की तपस्या की तो विभीषण ने उनसे भक्ति का आशीर्वाद मांगा। रावण के महल में रहने के बाद भी उन्होंने अपनी भक्ति नहीं छोड़ी। राक्षसों के बीच में रहकर भी उन्होंने अपने धर्म को नहीं छोड़ा। रावण ने सीता जी का हरण किया तो विभीषण को अच्छा नहीं लगा तब वह रावण के पास गए और उससे सीता जी को वापस देने की बात कही, लेकिन राक्षस रावण ने विभीषण को ही लात मारकर बाहर निकाल दिया फिर उन्होंने भगवान राम की शरण ली। सुंदरकांड में इसका बड़ा ही मनोरंजक वर्णन है, विभीषण राम जी से कहते हैं, मैं रावण का भाई हूं, मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है, मैं पांप के बीच पला बढ़ा हूं इसलिए मेरी राक्षसी प्रवृति है, अब आपकी शरण में हूँ, इससे राम भक्ति का पता चलता है। विभीषण को राम भक्त कहा जा सकता है, लेकिन वह अपने भाई की बुराइयों को अच्छी तरह समझते थे और उनका विरोध भी करते थे। इसलिए रावण ने उन्हें उच्च स्थान नहीं दिया था, जिसके वह हकदार थे। जब रावण ने उन्हें लात मारी थी, तब वे सीधा रघुवीर के पास पहुंचे और अपनी रक्षा की गुहार लगाने लगे।
नारद जी कहते हैं- जब रघुनाथ जी अयोध्या के राजसिंहासन पर आसीन हो गये, तब अगस्त्य आदि महर्षि उनका दर्शन करने के लिये गये। वहाँ उनका भली-भांति स्वागत-सत्कार हुआ। तदनन्तर उन ऋषियों ने कहा- “भगवन! आप धन्य हैं, जो लंका में विजयी हुए और इन्द्रजित जैसे राक्षस को मार गिराया। अब हम उनकी उत्पत्ति कथा बतलाते हैं, सुनिये-“ब्रह्मा के पुत्र मुनिवर पुलस्त्य हुए और पुलस्त्य से महर्षि विश्रवा का जन्म हुआ। उनकी दो पत्नियाँ थीं- पुण्योत्कटा और कैकसी। उनमें पुण्योत्कटा ज्येष्ठ थी। उसके गर्भ से धनाध्यक्ष कुबेर का जन्म हुआ। कैकसी के गर्भ से पहले रावण का जन्म हुआ, जिसके दस मुख और बीस भुजाएं थीं। रावण ने तपस्या की और ब्रह्मा जी ने उसे वरदान दिया, जिससे उसने समस्त देवताओं को जीत लिया। कैकसी के दूसरे पुत्र का नाम कुम्भकर्ण और तीसरे का विभीषण था। कुम्भकर्ण सदा नींद में ही पड़ा रहता था; किंतु विभीषण बड़े धर्मात्मा हुए। इन तीनों की बहन शूर्पणखा हुई। रावण से मेघनाद का जन्म हुआ। उसने इन्द्र को जीत लिया था, इसलिये ‘इन्द्रजित’ के नाम से उसकी प्रसिद्ध हुई। वह रावण से भी अधिक बलवान था। परंतु देवताओं आदि के कल्याण की इच्छा रखने वाले आपने लक्ष्मण के द्वारा उसका वध करा दिया।” ऐसा कहकर वे अगस्त्य आदि ब्रह्मर्षि श्रीरघुनाथ जी के द्वारा अभिनन्दित हो अपने-अपने आश्रम को चले गये। देवताओं की प्रार्थना से प्रभावित श्रीरामचन्द्र जी के आदेश से शत्रुघ्न ने लवणासुर को मार कर एक पुरी बसायी, जो ‘मथुरा’ नाम से प्रसिद्ध हुई। तत्पश्चात भरत ने श्रीराम की आज्ञा पाकर सिन्धु-तीर-निवासी शैलूष नामक बलोन्मत्त गन्धर्व का तथा उसके तीन करोड़ वंशजों का अपने तीखे बाणों से संहार किया। फिर उस देश के (गान्धार और मद्र) दो विभाग करके, उनमें अपने पुत्र तक्ष और पुष्कर को स्थापित कर दिया। इसके बाद भरत और शत्रुघ्न अयोध्या में चले आये और वहाँ श्रीरघुनाथ जी की आराधना करते हुए रहने लगे। श्रीरामचन्द्र जी ने दुष्ट पुरुषों का युद्ध में संहार किया और शिष्ट पुरुषों का दान आदि के द्वारा भली-भाँति पालन किया। उन्होंने लोकापवाद के भय से अपनी धर्मपत्नी सीता को वन में छोड़ दिया था। वहाँ वाल्मीकि मुनि के आश्रम में उनके गर्भ से दो श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके नाम कुश और लव थे। उनके उत्तम चरित्रों को सुनकर श्रीरामचन्द्र जी को भली-भाँति निश्चय हो गया कि ये मेरे ही पुत्र हैं। तत्पश्चात उन दोनों को कोसल के दो राज्यों पर अभिषिक्त करके, “मैं ब्रह्म हूँ” इसकी भावनापूर्वक प्रार्थना से भाइयों और पुरवासियों सहित अपने परमधाम में प्रवेश किया। अयोध्या में ग्यारह हज़ार वर्षों तक राज्य करके वे अनेक यज्ञों का अनुष्ठान कर चुके थे। उनके बाद सीता के पुत्र कोसल जनपद के राजा हुए। अग्निदेव कहते हैं- “वसिष्ठ जी! देवर्षि नारद से यह कथा सुनकर महर्षि वाल्मीकि ने विस्तार पूर्वक ‘रामायण’ नामक महाकाव्य की रचना की। जो इस प्रसंग को सुनता है, वह स्वर्ग लोक को जाता है।