रुद्राष्टाध्यायी || Rudrashtadhyayi

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वेद शिव के ही अंश है वेद: शिव: शिवो वेद:। अर्थात् वेद ही शिव है तथा शिव ही वेद हैं, वेद का प्रादुर्भाव शिव से ही हुआ है। वेदों को ही सर्वोत्तम ग्रंथ बताया गया है और रुद्राष्टाध्यायी यजुर्वेद का अंग है । अतः इसे शुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी भी कहते हैं। रुद्राष्टाध्यायी अत्यंत ही मूल्यवान है, न ही इससे बिना रुद्राभिषेक ही संभव है और न ही इसके बिना शिव पूजन ही किया जा सकता है।

रुद्राष्टाध्यायी दो शब्द रुद्र अर्थात् शिव और अष्टाध्यायी अर्थात् आठ अध्यायों वाला, इन आठ अध्यायों में शिव समाए हैं। इसमें मुख्यत: आठ अध्याय हैं पर अंतिम में शान्त्यध्याय: नामक(२४ श्लोक) नवम तथा स्वस्तिप्रार्थनामन्त्राध्याय: नामक(१३ श्लोक) दशम अध्याय भी हैं। इसके प्रथम अध्याय में कुल १० श्लोक है तथा सर्वप्रथम गणेशावाहन मंत्र है, प्रथम अध्याय में शिवसंकल्पसुक्त है। द्वितीय अध्याय में कुल २२ श्लोक हैं जिनमें पुरुसुक्त (मुख्यत: १६ श्लोक) है। इसी प्रकार तृतीय अध्याय में कुल १७ श्लोक हैं जिनमें आदित्य सुक्त तथा चतुर्थ अध्याय में कुल १७ श्लोक हैं जिनमें वज्र सुक्त सम्मिलित हैं। पंचम अध्याय में परम लाभदायक रुद्रसुक्त है, इसमें कुल ६६ श्लोक हैं। छठें अध्याय में कुल ८ श्लोक हैं जिनमें पंचम श्लोक के रूप में महान महामृत्युंजय श्लोक है। सप्तम अध्याय में ७ श्लोकों की अरण्यक श्रुति है प्रायश्चित्त हवन आदि में इसका उपयोग होता है। अष्टम अध्याय को नमक-चमक भी कहते हैं जिसमें २४ श्लोक हैं।

रुद्राष्टाध्यायी की महिमा- रुद्राष्टाध्यायी में गृहस्थ धर्म, राजधर्म, ज्ञान-वैराज्ञ, शांति, ईश्वर स्तुति आदि अनेक सर्वोत्तम विषयों का वर्णन है। मनुष्य का मन विषयलोलुप होकर अधोगति को प्राप्त न हो और व्यक्ति अपनी चित्तवृत्तियों को स्वच्छ रख सके इसके निमित्त रुद्र का अनुष्ठान करना मुख्य और उत्कृष्ट साधन है। यह रुद्रानुष्ठान प्रवृत्ति मार्ग से निवृत्ति मार्ग को प्राप्त करने में समर्थ है। इसमें ब्रह्म (शिव) के निर्गुण और सगुण दोनो रूपों का वर्णन हुआ है। जहाँ लोक में इसके जप, पाठ तथा अभिषेक आदि साधनों से भगवद्भक्ति, शांति, पुत्र पौत्रादि वृद्धि, धन धान्य की सम्पन्नता और स्वस्थ जीवन की प्राप्ति होती है; वहीं परलोक में सद्गति एवं मोक्ष भी प्राप्त होता है। वेद के ब्राह्मण ग्रंथों में, उपनिषद, स्मृति तथा कई पुराणों में रुद्राष्टाध्यायी तथा रुद्राभिषेक की महिमा का वर्णन है।

अथ श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी भावार्थ सहित

मङ्गलाचरणम्

वन्दे सिद्धिप्रदं देवं गणेशं प्रियपालकम् ।

विश्वगर्भं च विघ्नेशं अनादिं मङ्गलं विभूम् ॥

अथ ध्यानम् –

ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारु चन्द्रवतंसम् ।

रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशु मृगवरं भीतिहस्तं प्रसन्नम् ॥

पद्मासीनं समन्तात् स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृतिं वसानम् ।

विश्वाद्यं विश्ववन्द्यं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम् ॥

अथ श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी प्रथमोऽध्यायः

ॐ गणानां त्वा गणपतिं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे निधीनां त्वा

निधीपतिं हवामहे वसो मम ।
आऽहमजानिगर्भधमात्त्वमजाऽसि गर्भधम् ॥ १॥

गायत्रीत्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप्पङ्क्त्यासह ॥
बृहत्युष्णिहाककुप्सूचीभिः शम्यन्तु त्वा ॥ २॥

द्विपदायाश्चतुषपदास्त्रिपदायाश्चषट्पदाः ।
विच्छन्दा याश्च सच्छन्दाः सूचीभिः शम्यन्तु त्वा ॥ ३॥

सहस्तोमाः सहछन्दस आवृतः सहप्रमाः ऋषयः सप्तदैव्याः ॥
पूर्वेषां पन्थामनुदृश्य धीरा अन्यालेभिरे रथ्यो न रश्मीन् ॥ ४॥

यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति ॥
दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ५॥

येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः ॥
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ६॥

यत्प्रज्ञानमुतचेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु ॥
यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ७॥

येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम् ॥
येन यज्ञः स्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ८॥

यस्मिन् ऋचः सामयजूंषि यस्मिन्प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः ॥
यस्मिन् चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ९॥

सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्प्यान्नेनीयतेऽभीशुभिरार्वाजिनऽइव ॥
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ १०॥

भावार्थः रुद्राष्टाध्यायी – प्रथम अध्याय

श्रीगणेश जी के लिए नमस्कार है। समस्त गणों का पालन करने के कारण गणपतिरूप में प्रतिष्ठित आप को हम आवाहित करते हैं, प्रियजनों का कल्याण करने के कारण प्रियपतिरुप में प्रतिष्ठित आपको हम आवाहित करते हैं और पद्म आदि निधियों का स्वामी होने के कारण निधिपतिरूप में प्रतिष्ठित आपको हम आवाहित करते हैं। हे हमारे परम धनरूप ईश्वर ! आप मेरी रक्षा करें। मैं गर्भ से उत्पन्न हुआ जीव हूँ और आप गर्भादिरहित स्वाधीनता से प्रकट हुए परमेश्वर हैं। आपने ही हमें माता के गर्भ से उत्पन्न किया है।

हे परमेश्वर ! गान करने वाले का रक्षक गायत्री छन्द, तीनों तापों का रोधक त्रिष्टुप छन्द, जगत् में विस्तीर्ण जगती छन्द, संसार का कष्ट निवारक अनुष्टुप छन्द, पंक्ति छन्द सहित बृहती छन्द, प्रभातप्रियकारी ऊष्णिक् छन्द के साथ ककुप् छन्द – ये सभी छन्द सुन्दर उक्तियों के द्वारा आपको शान्त करें।

हे ईश्वर ! दो पाद वाले, चार पाद वाले, तीन पाद वाले, छ: पाद वाले, छन्दों के लक्षणों से रहित अथवा छन्दों के लक्षणों से युक्त वे सभी छन्द सुन्दर उक्तियों के द्वारा आपको शान्त करें। प्रजापति संबंधी मरीचि आदि सात बुद्धिमान ऋषियों ने स्तोम आदि साम मन्त्रों, गायत्री आदि छन्दों, उत्तम कर्मों तथा श्रुति प्रमाणों के साथ अंगिरा आदि अपने पूर्वजों के द्वारा अनुष्ठित मार्ग का अनुसरण करके सृष्टि यज्ञ को उसी प्रकार क्रम से संपन्न किया था जैसे रथी लगाम की सहायता से अश्व को अपने अभीष्ट स्थान की ओर ले जाता है।

जो मन जगते हुए मनुष्य से बहुत दूर तक चला जाता है, वही द्युतिमान मन सुषुप्ति अवस्था में सोते हुए मनुष्य के समीप आकर लीन हो जाता है तथा जो दूर तक जाने वाला और जो प्रकाशमान श्रोत आदि इन्द्रियों को ज्योति देने वाला है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्पवाला हो। कर्मानुष्ठान में तत्पर बुद्धि संपन्न मेधावी पुरुष यज्ञ में जिस मन से शुभ कर्मों को करते हैं, प्रजाओं के शरीर में और यज्ञीय पदार्थों के ज्ञान में जो मन अद्भुत पूज्य भाव से स्थित है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।

जो मन प्रकर्ष ज्ञानस्वरुप, चित्तस्वरुप और धैर्यरूप है, जो अविनाशी मन प्राणियों के भीतर ज्योति रूप से विद्यमान है और जिसकी सहायता के बिना कोई कर्म नहीं किया जा सकता, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो। जिस शाश्वत मन के द्वारा भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल की सारी वस्तुएँ सब ओर से ज्ञात होती हैं और जिस मन के द्वारा सात होता वाला यज्ञ विस्तारित किया जाता है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।

जिस मन में ऋग्वेद की ऋचाएँ और जिसमें सामवेद तथा यजुर्वेद के मन्त्र उसी प्रकार प्रतिष्ठित हैं, जैसे रथचक्र की नाभि में अरे (तीलियाँ) जुड़े रहते हैं, जिस मन में प्रजाओं का सारा ज्ञान ओतप्रोत रहता है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो। जो मन मनुष्यों को अपनी इच्छा के अनुसार उसी प्रकार घुमाता रहता है, जैसे कोई अच्छा सारथी लगाम के सहारे वेगवान घोड़ों को अपनी इच्छा के अनुसार नियन्त्रित करता है, बाल्य, यौवन, वार्धक्य आदि से रहित तथा अतिवेगवान जो मन हृदय में स्थित है, वह मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो।

इति रुद्राष्टाध्यायी प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ।।

अथ रुद्राष्टाध्यायी द्वितीयोऽध्यायः

ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिं सर्वतः स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १॥

पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्त्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ २॥

एतावानस्य महिमाऽतो ज्यायाँश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ ३॥

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥ ४॥

ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥ ५॥

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ॥ ६॥

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दार्ठ॰सि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥ ७॥

तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः ॥ ८॥

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥ ९॥

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।

मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते ॥ १०॥

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्या र्ठ॰ शूद्रो अजायत ॥ ११॥

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।

श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ॥ १२॥

नाभ्या आसीदन्तरिक्ष र्ठ॰ शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।

पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँऽकल्पयन् ॥ १३॥

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।

वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥ १४॥

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।

देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम् ॥ १५॥

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।

ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ १६॥

अ॒द्भ्यः सम्भू॑तः पृथि॒व्यै रसाच्च । वि॒श्वक॑र्मणः॒ सम॑वर्त॒ताग्रे ।

तस्य॒ त्वष्टा॑ वि॒दध॑द्रू॒पमे॑ति । तमर्त्यस्य॒ देवत्वमाजा॑न॒मग्रे ॥ १७॥

वेदा॒हमे॒तं पुरु॑षं म॒हान्तम् । आ॒दि॒त्यव॑र्णं॒ तम॑सः॒ पर॑स्तात् ।

तमे॒वं वि॒दित्वा मृत्युमत्येति । नान्यः पन्था॑ विद्य॒तेऽयनाय ॥ १८॥

प्र॒जाप॑तिश्चरति॒ गर्भे॑ अ॒न्तः । अ॒जाय॑मानो बहु॒धा विजा॑यते ।

तस्य॒ योनिम् परि॑पश्यन्ति॒ धीराः । तस्मिन् ह तस्थुः भुवनानि विश्वा ॥ १९॥

यो दे॒वेभ्य॒ आत॑पति । यो दे॒वानां पु॒रोहि॑तः ।

पूर्वो॒ यो दे॒वेभ्यो॑ जा॒तः । नमो॑ रु॒चाय॒ ब्राह्म॑ये ॥ २०॥

रुचं॑ ब्रा॒ह्मं ज॒नय॑न्तो दे॒वा अग्रे॒ तद॑ब्रुवन् ।

यस्त्वै॒वं ब्राह्म॒णो वि॒द्यात्तस्य॑ दे॒वा अस॒न् वशे ॥ २१॥

श्रीश्च॑ ते ल॒क्ष्मीश्च॒ पत्न्यौ ।

अ॒हो॒रा॒त्रे पा॒र्श्वे नक्ष॑त्राणि रू॒पमश्विनौ॒ व्यात्तम् ।

इ॒ष्णन्निषाणामुं म॑ इषाण । सर्व॑लोकं म इषाण ॥ २२॥

ॐ तच्छं॒ योरावृ॑णीमहे । गा॒तुं य॒ज्ञाय॑ । गा॒तुं यज्ञप॑तये । दैवीस्स्व॒स्तिर॑स्तु नः ।

स्व॒स्तिर्मानु॑षेभ्यः । ऊ॒र्ध्वं जि॑गातु भेष॒जम् । शन्नो॑ अस्तु द्वि॒पदे । शं चतु॑ष्पदे ।

ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑ ।

भावार्थः रुद्राष्टाध्यायी – दूसरा अध्याय

सभी लोकों में व्याप्त महानारायण सर्वात्मक होने से अनन्त सिरवाले, अनन्त नेत्र वाले और अनन्त चरण वाले हैं। वे पाँच तत्वों से बने इस गोलकरूप समस्त व्यष्टि और समष्टि ब्रह्माण्ड को सब ओर से व्याप्त कर नाभि से दस अंगुल परिमित देश का अतिक्रमण कर हृदय में अन्तर्यामी रूप में स्थित हैं। जो यह वर्तमान जगत है, जो अतीत जगत है और जो भविष्य में होने वाला जगत है, जो जगत के बीज अथवा अन्न के परिणामभूत वीर्य से नर, पशु, वृक्ष आदि के रूप में प्रकट होता है, वह सब कुछ अमृतत्व (मोक्ष) के स्वामी महानारायण पुरुष का ही विस्तार है।

इस महानारायण पुरुष की इतनी सब विभूतियाँ हैं अर्थात भूत, भविष्यत, वर्तमान में विद्यमान सब कुछ उसी की महिमा का एक अंश है। वह विराट पुरुष तो इस संसार से अतिशय अधिक है। इसीलिए यह सारा विराट जगत इसका चतुर्थांश है। इस परमात्मा का अवशिष्ट तीन पाद अपने अमृतमय (विनाशरहित) प्रकाशमान स्वरूप में स्थित है। यह महानारायण पुरुष अपने तीन पादों के साथ ब्रह्माण्ड से ऊपर उस दिव्य लोक में अपने सर्वोत्कृष्ट स्वरूप में निवास करता है और अपने एक चरण (चतुर्थांश) से इस संसार को व्याप्त करता है। अपने इसी चरण को माया में प्रविष्ट कराकर यह महानायण देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के नाना रूप धारण कर समस्त चराचर जगत में व्याप्त है।

उस महानारायण पुरुष से सृष्टि के प्रारंभ में विराट स्वरूप ब्रह्माण्ड देह तथा उस देह का अभिमानी पुरुष (हिरण्यगर्भ) प्रकट हुआ। उस विराट पुरुष ने उत्पन्न होने के साथ ही अपनी श्रेष्ठता स्थापित की। बाद में उसने भूमि का, तदनन्तर देव, मनुष्य आदि के पुरों (शरीरों) का निर्माण किया। उस सर्वात्मा महानारायण ने सर्वात्मा पुरुष का जिसमें यजन किया जाता है, ऎसे यज्ञ से पृषदाज्य (दही मिला घी) को सम्पादित किया। उस महानारायण ने उन वायु देवता वाले पशुओं तथा जो हरिण आदि वनवासी तथा अश्व आदि ग्रामवासी पशु थे उनको भी उत्पन्न किया।

उस सर्वहुत यज्ञपुरुष से ऋग्वेद और सामवेद उत्पन्न हुए, उसी से सर्वविध छन्द उत्पन्न हुए और यजुर्वेद भी उसी यज्ञपुरुष से उत्पन्न हुआ। उसी यज्ञपुरुष से अश्व उत्पन्न हुए और वे सब प्राणी उत्पन्न हुए जिनके ऊपर-नीचे दोनों तरफ दाँत हैं। उसी यज्ञपुरुष से गौएँ उत्पन्न हुईं और उसी से भेड़-बकरियाँ पैदा हुईं। सृष्टि साधन योग्य या देवताओं और सनक आदि ऋषियों ने मानस याग की संपन्नता के लिए सृष्टि के पूर्व उत्पन्न उस यज्ञ साधनभूत विराट पुरुष का प्रोक्षण किया और उसी विराट पुरुष से ही इस यज्ञ को सम्पादित किया।

जब यज्ञसाधनभूत इस विराट पुरुष की महानारायण से प्रेरित महत्, अहंकार आदि की प्रक्रिया से उत्पत्ति हुई, तब उसके कितने प्रकारों की परिकल्पना की हई? उस विराट के मुँह, भुजा, जंघा और चरणों का क्या स्वरूप कहा गया है? ब्राह्मण उस यज्ञोत्पन्न विराट पुरुष का मुख स्थानीय होने के कारण उसके मुख से उत्पन्न हुआ, क्षत्रिय उसकी भुजाओं से उत्पन्न हुआ, वैश्य उसकी जाँघों से उत्पन्न हुआ तथा शूद्र उसके चरणों से उत्पन्न हुआ. विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ, नेत्र से सूर्य उत्पन्न हुआ, कान से वायु और प्राण उत्पन्न हुए तथा मुख से अग्नि उत्पन्न हुई।

उस विराट पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष उत्पन्न हुआ और सिर से स्वर्ग प्रकट हुआ। इसी तरह से चरणों से भूमि और कानों से दिशाओं की उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार देवताओं ने उस विराट पुरुष के विभिन्न अवयवों से अन्य लोकों की कल्पना की। जब विद्वानों ने इस विराट पुरुष के देह के अवयवों को ही हवि बनाकर इस ज्ञानयज्ञ की रचना की, तब वसन्त-ऋतु घृत, ग्रीष्म-ऋतु समिधा और शरद-ऋतु हवि बनी थी. जब इस मानस याग का अनुष्ठान करते हुए देवताओं ने इस विराट पुरुष को ही पशु के रूप में भावित किया, उस समय गायत्री आदि सात छन्दों ने सात परिधियों का स्वरूप स्वीकार किया, बारह मास, पाँच ऋतु, तीन लोक और सूर्यदेव को मिलाकर इक्कीस अथवा गायत्री आदि सात, अतिजगती आदि सात और कृति आदि सात छन्दों को मिलाकर इक्कीस समिधाएँ बनीं।

सिद्ध संकल्प वाले देवताओं ने विराट पुरुष के अवयवों की हवि के रूप में कल्पना कर इस मानस-यज्ञ में यज्ञपुरुष महानारायण की आराधना की। बाद में ये ही महानारायण की उपासना के मुख्य उपादान बने। जिस स्वर्ग में पुरातन साध्य देवता रहते हैं, उस दु:ख से रहित लोक को ही महानारायण यज्ञपुरुष की उपासना करने वाले भक्तगण प्राप्त करते हैं।

उस महानारायण की उपासना के और भी प्रकार हैं – पृथिवी और जल के रस से अर्थात पाँच महाभूतों के रस से पुष्ट, सारे विश्व का निर्माण करने वाले, उस विराट स्वरूप से भी पहले जिसकी स्थिति थी, उस रस के रूप को धारण करने वाला वह महानारायण पुरुष पहले आदित्य के रूप में उदित होता है। प्रथम मनुष्य रूप उस पुरुष – मेधयाजी का यह आदित्य रूप में अवतरित ब्रह्म ही मुख्य आराध्य देवता बनता है।

आदित्यस्वरूप, अविद्या के लवलेश से भी रहित तथा ज्ञानस्वरूप परम पुरुष उस महानारायण को मैं जानता हूँ। कोई भी प्राणी उस आदित्यरूप महानारायण पुरुष को जान लेने के उपरान्त ही मृत्यु का अतिक्रमण कर अमृतत्व को प्राप्त करता है। परम आश्रय के निमित्त अर्थात अमृतत्व की प्राप्ति के लिए इससे भिन्न कोई दूसरा उपाय नहीं है। सर्वात्मा प्रजापति अन्तर्यामी रूप से गर्भ के मध्य में प्रकट होता है। जन्म न लेता हुआ भी वह देवता, तिर्यक, मनुष्य आदि योनियों में नाना रूपों में प्रकट होता है। ब्रह्मज्ञानी ब्रह्मा के उत्पत्ति स्थान उस महानारायण पुरुष को सब ओर से देखते हैं, जिसमें सभी लोक स्थित हैं।

जो आदित्यस्वरूप प्रजापति सभी देवताओं को शक्ति प्रदान करने के लिए सदा प्रकाशित रहता है, जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवताओं का बहुत पूर्वकाल से हित करता आया है, जो इन सबका पूज्य है, जो इन सब देवताओं से पहले प्रादुर्भूत हुआ है, उस ब्रह्मज्योतिस्वरूप परम पुरुष को हम प्रणाम करते हैं। इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवताओं ने शोभन ब्रह्मज्योतिरूप आदित्य देव को प्रकट करते हुए सर्वप्रथम यह कहा कि हे आदित्य ! जो ब्राह्मण आपके इस अजर-अमर स्वरूप को जानता है, समस्त देवगण उस उपासक के वश में रहते हैं।

हे महानारायण आदित्य ! श्री और लक्ष्मी आपकी पत्नियाँ हैं, ब्रह्मा के दिन-रात पार्श्वस्वरुप हैं, आकाश में स्थित नक्षत्र आपके स्वरूप हैं। द्यावापृथिवी आपके विकसित मुख हैं। प्रयत्नपूर्वक आप सदा मेरे कल्याण की इच्छा करें। मुझे आप अपना कल्याणमय लोक प्राप्त करावें और सारे योगैश्वर्य मुझे प्रदान करें।

इति रुद्राष्टाध्यायी द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ।।

 

अथ रुद्राष्टाध्यायी तृतीयोऽध्यायः

आशुः शिशानो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभणश्चर्षणीनाम् ॥

 

सङ्क्रन्दनोऽ निमिष एकवीरः शतसेना अजयत्साकमिन्द्रः ॥ १॥

 

सङ्क्रन्दनेनानिमिषेण जिष्णुना युत्कारेण दुश्च्यवनेन धृष्णुना ।

तदिन्द्रेण जयत तत्सहध्वं युधो नर इषुहस्तेन वृष्णा ॥ २॥

 

स इषुहस्तैः सनिषङ्गिभिर्वशी संस्रष्टा स युध इन्द्रोगणेन ॥

 

संसृष्टजित्सौमपा बाहुशर्द्ध्युग्रधन्वा प्रतिहिताभिरस्ता ॥ ३॥

 

बृहस्पते॒ परिदीया रथेन रक्षोहाऽमित्रान् अपबाधमानः ॥

 

प्रभञ्जन्त्सेनाः प्रमृणो युधाजयन्नस्माकमेध्यविता रथानाम् ॥ ४॥

 

बलविज्ञायस्स्थविर प्रवीरः सहस्वान्वाजी सहमान उग्रः ॥

 

अभिवीरोऽभिसत्त्वा सहोजा जैत्रमिन्द्ररथमात्तिष्ठ गोवित् ॥ ५॥

 

गोत्रभिदं गोविदं वज्रबाहुं जयन्तमज्म प्रमृणन्तमोजसा ॥

 

इमं सजाता अनुवीरयध्वमिन्द्रं सखायोऽनुसंरभध्वम् ॥ ६॥

 

अभिगोत्राणि सहसाऽभिगाहमानोऽदयोवीरः शतमन्युरिन्द्रः ।

दुश्च्यवनः पृतनाषाडयुध्योऽस्माकं सेनाः प्रावतु युत्सु ॥ ७॥

 

इन्द्र आसां नेता बृहस्पतिर्दक्षिणायज्ञ पुर एतु सोमः ॥

 

देवसेनानाममिभञ्जतीनां मरुतो यन्त्वग्रम् ॥ ८॥

 

इन्द्रस्य वृष्णो वरुणस्य॒ राज्ञ आदित्यानां मरुतां शर्ध उग्रम् ॥

 

महामनसां भुवनच्यवानां घोषो देवानां जयतामुदस्थात् ॥ ९॥

 

उद्धर्षय मघवन्नायुधान्यत्सत्त्वनां मामकानां मनांसि ।

उद्र्वृत्रहन् वाजिनां वाजिनान्युद्रथानां जयतामुद्यन्तु घोषाः ॥ १०॥

 

अस्माकमिन्द्रः समृतेषु ध्वजेष्वस्माकं या इषवस्ताः जयन्तु ॥

 

अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्त्व॒स्माँ उ देवा अवताहवेषु ॥ ११॥

 

अमीषां चित्तं प्रतिलोभयन्ती गृहाणाङ्गान्यप्वपरेहि ॥

 

अभिप्रेहि निर्दह हृत्सु शोकैरन्धेनामित्रास्तमसा सचन्ताम् ॥ १२॥

 

अवसृष्टा परापतशरव्ये ब्रह्मसंशिते ।

गच्छामित्रान् प्रपद्यस्व मामीषां कञ्चनोच्छिषः ॥ १३॥

 

प्रेत जयत नर इन्द्रो वः शर्म यच्छन्तु ॥

 

उग्रा वः सन्तु बाहवोऽनाधृष्याः व यथा असथ ॥ १४॥

 

असौ या सेना मरुतः परेषाम्मभ्यैति न ओजसा स्पर्धमाना ॥

 

तां गूहत तमसाऽपव्रतेन यथाऽमी अन्योऽन्यं न जानन् ॥ १५॥

 

यत्र बाणाः सम्पतन्ति कुमारा विशिखा इव ।

तन्न इन्द्रो बृहस्प्पतिरदितिः शर्म यच्छतु विश्वाहा शर्म यच्छतु ॥ १६॥

 

मर्माणि ते वर्मणा च्छादयामि सोमस्त्वा राजाऽमृतेनानुवस्ताम् ॥

 

उरोर्वरीयो वरुणस्ते कृणोतु जयन्तं त्वा देवा अनुमदन्तु ॥ १७॥

 

भावार्थः रुद्राष्टाध्यायी – तीसरा अध्याय

शीघ्रगामी वज्र के समान तीक्ष्ण, वर्षा के स्वभाव की उपमा वाले, भयकारी, शत्रुओं के अतिशय घातक, मनुष्यों के क्षोभ के हेतु, बार-बार गर्जन करने वाले, देवता होने से पलक ना झपकाने वाले, अत्यन्त सावधान तथा अद्वितीय वीर इन्द्र एक साथ ही शत्रुओं की सैकड़ों सेनाओं को जीत लेते हैं। हे युद्ध करने वाले मनुष्यों ! प्रगल्भ तथा भय रहित शब्द करने वाले, अनेक युद्धों को जीतने वाले, युद्धरत, एकचित्त होकर हाथ में बाण धारण करने वाले, जयशील तथा स्वयं अजेय और कामनाओं की वर्षा करने वाले इन्द्र के प्रभाव से उस शत्रु सेना को जीतो और उसे अपने वश में करके विनष्ट कर दो।

वे जितेन्द्रिय अथवा शत्रुओं को अधीन करने वाले, हाथ में बाण लिए हुए धनुर्धारियों को युद्ध के लिए ललकारने वाले इन्द्र शत्रु समूहों को एक साथ युद्ध में जीत सकते हैं। यजमानों के यज्ञ में सोमपान करने वाले, बाहुबली तथा उत्कृष्ट धनुष वाले वे इन्द्र अपने धनुष से छोड़े हुए बाणों से शत्रुओं का नाश कर देते हैं। वे इन्द्र हमारी रक्षा करें। हे बृहस्पते ! आप राक्षसों का नाश करने वाले होवें, रथ के द्वारा सब ओत विचरण करें, शत्रुओं को पीड़ित करते हुए और उनकी सेनाओं को अतिशय हानि पहुँचाते हुए युद्ध में हिंसाकारियों को जीतकर हमारे रथों की रक्षा करें।

हे इन्द्र ! आप दूसरों का बल जानने वाले, अत्यन्त पुरातन, अतिशय शूर, महाबलिष्ठ, अन्नवान, युद्ध में क्रूर, चारों तरफ से वीर योद्धाओं से युक्त, सभी ओर से परिचारकों से आवृत, बल से ही उत्पन्न, स्तुति को जानने वाले तथा शत्रुओं का तिरस्कार करने वाले हैं, आप अपने जयशील रथ पर आरोहण करें। हे समान जन्म वाले देवताओं ! असुरकुल के नाशक, वेदवाणी के ज्ञाता, हाथ में वज्र धारण करने वाले, संग्राम को जीतने वाले, बल से शत्रुओं का संहार करने वाले इस इन्द्र को पराक्रम दिखाने के लिए उत्साह दिलाइये और इसको उत्साहित करके आप लोग स्वयं भी उत्साह से भर जाइये।

शत्रुओं के प्रति दयाहीन, पराक्रम संपन्न, अनेक प्रकार से क्रोधयुक्त अथवा सैकड़ों यज्ञ करने वाले, दूसरों से विनष्ट न होने योग्य, शत्रु सेना का संहार करने वाले तथा किसी के द्वारा प्रहरित न हो सकने वाले इन्द्र संग्रामों में असुर कुलों का एक साथ नाश करते हुए हमारी सेना की रक्षा करें। बृहस्पति तथा इन्द्र सभी प्रकार की शत्रु-सेनाओं का मर्दन करने वाली विजयशील देवसेनाओं के नायक हैं। यज्ञपुरुष विष्णु, सोम और दक्षिणा इनके आगे-आगे चलें. सभी मरुद्गण भी सेना के आगे-आगे चलें।

महानुभाव, सारे लोकों का नाश करने की सामर्थ्य वाले तथा विजय पाने वाले देवताओं, बारह आदित्यों, मरुद्गणों, कामना की वर्षा करने वाले इन्द्र और राजा वरुण की सभा से जय-जयकार का शब्द उठ रहा है। हे इन्द्र ! आप अपने सह्स्त्रों को भली प्रकार सुसज्जित कीजिए, मेरे वीर सैनिकों के मन को हर्षित कीजिए। हे वृत्रनाशक इन्द्र ! अपने घोड़ों की गति को तेज कीजिए, विजयशील रथों से जयघोष का उच्चारण हो।

शत्रु की पताकाओं के मिलने पर इन्द्र हमारी रक्षा करें, हमारे बाण शत्रुओं को नष्ट कर उन पर विजय प्राप्त करें और हमारे वीर सैनिक शत्रुओं के सैनिकों से श्रेष्ठता प्राप्त करें। हे देवगण ! आप लोग संग्रामों में हमारी रक्षा कीजिए। हे शत्रुओं के प्राणों को कष्ट देने वाली व्याधि ! इन वैरियों के चित्त को मोहित करती हुई इनके सिर आदि अंगों को ग्रहण करो, तत्पश्चात दूर चली जाओ और पुन: उनके पास जाकर उनके हृदयों को शोक से दग्ध कर दो। हमारे शत्रु घने अन्धकार से आच्छन्न हो जाएँ। वेद-मन्त्रों से तीक्ष्ण किये हुए हे बाणरूप ब्रह्मास्त्र ! मेरे द्वारा प्रक्षित किये गये तुम शत्रु सेना पर गिरो, शत्रु के पास पहुँचो और उनके शरीरों में प्रवेश करो। इनमें से किसी को भी जीवित न छोड़ो।

हे हमारे वीर पुरुषों ! शत्रु की सेना पर शीघ्र आक्रमण करो और उन पर विजय पाओ। इन्द्र तुम लोगों का कल्याण करे, तुम्हारी भुजाएँ शस्त्र उठाने में समर्थ न हों, जिससे किसी भी प्रकार तुम लोग शत्रुओं से पराजय का तिरस्कार प्राप्त न करो। हे मरुद्गण ! जो यह शत्रुओं की सेना अपने बल पर हमसे स्पर्धा करती हुई हमारे सामने आ रही है, उसको अकर्मण्यता के अन्धकार में डुबो दो, जिससे कि उस शत्रु सेना के सैनिक एक-दूसरे को न पहचान पाएँ और परस्पर शस्त्र चलाकर नष्ट हो जाएँ।

जिस युद्ध में शत्रुओं के चलाए हुए बाण फैली हुई शिखा वाले बालकों की तरह इधर-उधर गिरते हैं, उस युद्ध में इन्द्र, बृहस्पति और देवमाता अदिति हमें विजय दिलाएँ. ये सब देवता सर्वदा हमारा कल्याण करें। हे यजमान ! मैं तुम्हारे मर्म स्थानों को कवच से ढकता हूँ, ब्राह्मणों के राजा सोम तुमको मृत्यु के मुख से बचाने वाले कवच से आच्छादित करें, वरुण तुम्हारे कवच को उत्कृष्ट से भी उत्कृष्ट बनाएँ और अन्य सभी देवता विजय की ओर अग्रसर हुए तुम्हारा उत्साहवर्धन करें।

इति रुद्राष्टाध्यायी तृतीयोऽध्यायः ॥ ३।।

 

अथ रुद्राष्टाध्यायी चतुर्थोऽध्यायः

 

विभ्राड् बृहत्पिबतु सोम्यं मध्वायुर्दधद्यज्ञपतावविहृतम् ॥

 

वातजूतो योऽभिरक्षतित्मनाप्रजाः पुपोष पुरुधा विराजति ॥ १॥

 

उदुत्त्यं जातवेदसं देवमुदवहन्ति हन्ति केतवो दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥ २॥

 

येन पावकचक्षसा भुरण्यन्तं जनाँ त्वं वरुण पश्यसि ॥ ३॥

 

दैव्यावद्ध्वर्यू आगतं रथेन सूर्यत्वचा ॥

 

मद्धा यज्ञं समञ्जाथे ॥ तं प्रत्क्नथा अयं वेनश्चित्रं देवानाम् ॥ ४॥

 

तं प्रत्नथा पूर्वथा विश्वथेमथा ज्येष्ठतातिं बर्हिषदं स्वर्विदम् ॥

 

प्रतीचीनं वृजनं दोहसे धुनिमाशुं जयन्तमनुयासु वर्धसे ॥ ५॥

 

अयं वेनश्चोदयत्पृश्निगर्भाज्ज्योतिर्जरायुः रजसो विमाने ।

इममपां सङ्गमे सूर्यस्य॒ शिशुं न विप्राः मतिभिः रिहन्ति ॥ ६॥

 

चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य॒ वरुणस्याग्नेः ॥

 

आप्राद्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य॑ आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥ ७॥

 

आन इडाभिः विदथे सुशस्ति विश्वानरः सविता देव एतु ॥

 

अपि यथा युवानो मत्सथा नो विश्वं जगदभिपित्वे मनीषा ॥ ८॥

 

यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभिसूर्य ॥ सर्वं तदिन्द्र ते वशे ॥ ९॥

 

तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य । विश्वमाभासि रोचनम् ॥ १०॥

 

तत्सूर्यस्य देवत्वं तन्महित्वं मध्या कर्तोः वितत सञ्जभार ॥

 

यदेदयुक्तहरितः सधस्थादाद्रात्रीवासस्तनुते सिमस्मै ॥ ११॥

 

तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्योरूपं कृणुते द्योरुपस्थे ।

अनन्तमन्यद्रुशदस्य॒ पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सम्भरन्ति ॥ १२॥

 

बण्महानसि सूर्य बडादित्य महानसि ॥

 

महस्ते सतो महिमा पनस्यतेऽद्धा देव महानसि ॥ १३॥

 

बट्सूर्य्य श्रवसा महानसि सत्रादेव महानसि ।

मन्हा देवानामसुर्यः पुरोहितो विभुज्योतिरदाभ्यम् ॥ १४॥

 

श्रायन्त इव॒ सूर्य विश्वेदिन्द्रस्य भक्षत ॥

 

वसूनिजाते जनमाने ओजसा प्रतिभागं न दीधिम ॥ १५॥

 

अद्य देवा उदिता सूर्यस्य निरंहसः पिपृता निरवद्यात्

तन्नो मित्रो वरुणो मां महन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥ १६॥

 

आकृष्णेन रजसाऽऽवर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यञ्च ॥

 

हिरण्ययेन सविता रथेन देव आयाति भुवनानि पश्यन् ॥ १७॥

 

भावार्थः रुद्राष्टाध्यायी – चौथा अध्याय

हे सूर्यदेव ! यजमान में अखण्डित आयु स्थापित करते हुए आप इस अत्यन्त स्वादु सोमरुप हवि का पान कीजिए। जो सूर्यदेव वायु से प्रेरित आत्मा द्वारा प्रजा का पालन और पोषण करते हैं, वे अनेक रूपों में आलोकित होते हैं। सूर्य रश्मियाँ सम्पूर्ण जगत को आलोक प्रदान करने के लिए जातवेदस् (अग्नितेजोमय) सूर्यदेव को ऊपर की ओर ले जाती रहती हैं। सबको शुद्ध करने वाले हे वरुणदेव ! आप जिस अनुग्रह दृष्टि से उस सुपर्ण स्वरूप को देखते हैं, उसी चक्षु से आप हम ऋत्विजों को भी देखिए।

हे दिव्य अश्विनी कुमारो ! आप दोनों सूर्य के समान कान्तिमान रथ से हमारे यहाँ आइए और पुरोडाश, दधि आदि से यज्ञ को सींचकर उसे बहुत हवि वाला बनाइए। हे इन्द्र ! आप जिन यज्ञ क्रियाओं में पुन:-पुन: सोमरस का पान कर वृद्धि को प्राप्त होते हैं उन उत्कृष्ट विस्तारवान सर्वश्रेष्ठ यज्ञों में कुश आसन के सेवी, स्वर्गवेत्ता, शत्रुओं को कम्पित करने वाले तथा जेतव्य वस्तुओं को शीघ्र जीतने वाले आप बलपूर्वक यजमान को यज्ञफल प्रदान करते हैं. जैसे पुरातन भृगु आदि ऋषियों, पूर्व पितर आदि, विश्व के सभी प्राणियों तथा वर्तमान यजमानों ने आपकी स्तुति की है, उसी प्रकार हम आपकी स्तुति करते हैं।

विद्युत के लक्षणों वाली ज्योति से परिवृत यह कान्तिमान चन्द्र ग्रीष्मान्त के समय जल निर्माण के निमित्त सूर्य अथवा द्युलोक के गर्भ में स्थित रहने वाले जल को प्रेरित करता है। बुद्धिमान विप्रगण सूर्य से जल की संगति के समय मधुर वाणियों से इस सोम की उसी प्रकार स्तुति करते हैं, जैसे लोग मधुर वचनों से अपने शिशु को प्रसन्न करते हैं। यह कैसा आश्चर्य है कि देवताओं के जीवनाधार, तेजसमूह तथा मित्र, वरुण और अग्नि के नेत्र स्वरूप सूर्य उदय को प्राप्त हुए हैं ! स्थावर-जंगममय जगत के आत्मास्वरूप इन सूर्यदेव ने पृथिवी, द्युलोक और अन्तरिक्ष को अपने तेज से पूर्णत: व्याप्त कर रखा है।

सब जीवों के हितकारी, अन्तर्यामी सूर्यदेव हमारी सुन्दर आहुतियों के कारण प्रशंसा योग्य यज्ञशाला में प्रकट हों। हे जरा रहित देवताओं ! आगमन-काल पर जिस प्रकार आप सब तृप्त होते हैं, उसी प्रकार इस सारे जगत को भी प्रज्ञा से तृप्त करें। हे अन्धकार के नाशक ऎश्वर्ययुक्त सूर्यदेव ! आज जहाँ कहीं भी आप उदित होते हैं, वह सब स्थान आपके ही वश में हो जाता है। हे सूर्यदेव ! आप संसार सागर में नौका के समान हैं, सबके दर्शनयोग्य हैं तथा सबको तेज प्रदान करने वाले हैं। प्रकाशित होने वाले सारे संसार को आप ही प्रकाशित करते हैं अर्थात अग्नि, विद्युत, नक्षत्र, चन्द्रमा, ग्रह, तारों आदि में आपकी ही ज्योति प्रकाशित हो रही है।

सूर्य का यह जो देवत्व है और यह जो ऎश्वर्य है वह विराट स्वरूप देह के मध्य में सब ओर से विस्तारित ग्रहमण्डल को अपनी आकर्षण शक्ति से नियमित रखता है। जब ये अपनी हरित वर्ण की किरणों को आकाशमण्डल में अपनी आत्मा से युक्त करते हैं, तदनन्तर ही रात्रि अपने अन्धकाररूपी वस्त्र से सबको आच्छादित कर देती है। सूर्य स्वर्गलोक के उत्संग में मित्रदेव और वरुणदेव का रूप धारण करते हैं तथा उससे मनुष्यों को भली-भाँति देखते हैं अर्थात मित्रदेव के रूप में पुण्यात्माओं को देखकर उन पर अनुग्रह करते हैं और वरुणरूप में दुष्टजनों को देखकर उनका निग्रह करते हैं। इन सूर्य का अन्य स्वरुप अनन्त अर्थात देश-काल के परिच्छेद से रहित, मायोपाधि का नाशक ब्रह्म ही है।

हे जगत के प्रेरक सत्यस्वरूप सूर्यदेव ! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं। हे आदित्य ! आप ही महान हैं, स्तोतागण आपकी महान और अविनश्वर महिमा का गान करते हैं। हे दीप्यमान सत्यस्वरूप ! आप महान हैं। हे सत्यस्वरूप सूर्य ! आप धन (अथवा यश) – से महान हैं. हे सत्यस्वरुप देव ! आप महान हैं। आप अपनी महिमा के कारण देवताओं के मध्य असुरविनाशक (अथवा समस्त प्राणियों का कल्याण करने वाले) हैं। आप सभी कार्यों में अर्घ्य दानादि के रूप में प्रथम पूज्य हैं। आपकी ज्योति सर्वव्यापी तथा अनुल्लंघनीय है।

सूर्य की उपासना करने वाले इन्द्र आदि की उपासना से प्राप्त होने वाले धन-धान्य, ऎश्वर्य आदि भोगों को स्वत: प्राप्त कर लेते हैं, अत: हमको चाहिए कि प्रकाश की किरणों के साथ जब सूर्य भगवान उदित होते हैं, तब हम उनके निमित्त यज्ञ में देवभाग अर्पित करें। हे सूर्यरश्निरूप देवताओं ! अब आज सूर्य का उदय होने पर आप लोग हमें पाप और अपयश से मुक्त करें।

मित्र, वरुण, अदिति, समुद्र, पृथ्वी और स्वर्ग – ये सब हमारे वचन को अंगीकार करें। सबको प्रेरणा प्रदान करने वाले सूर्यदेव सुवर्णमय रथ में आरुढ़ होकर कृष्णवर्ण रात्रि लक्षण वाले अन्तरिक्ष मार्ग में पुनरावर्तन-क्रम से भ्रमण करते हुए देवता-मनुष्यादि को अपने-अपने व्यापारों में व्यवस्थित करते हुए तथा सम्पूर्ण भुवनों को देखते हुए विचरण करते हैं।

।। इति रुद्राष्टाध्यायी चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ।।

 

अथ रुद्राष्टाध्यायी पञ्चमोऽध्यायः

 

ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवे उत ते इषवे नमः । बाहुभ्यामुत ते नमः ॥ १॥

 

या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी ।

तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि ॥ २॥

 

यामिषुं गिरिशन्त हस्ते बिभर्ष्यस्तवे ।

शिवां गिरित्रतां कुरु मा हिंसीः पुरुषं जगत् ॥ ३॥

 

शिवेन वचसा त्वा गिरिशच्छा वदामसि ।

यथा नः सर्वमिज्जगदयक्ष्मं सुमना असत् ॥ ४॥

 

अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक् ।

अहींश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्योःधराचीः परासुव ॥ ५॥

 

असौ यस्ताम्रोऽरुण उत बभ्रुः सुमङ्गलः ।

ये चैनं रुद्रा अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रशः एषां हेड अवेमहे ॥ ६॥

 

असौ योऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः ।

उतैनं गोपा अदृश्रन्नदृश्रन्नुदहार्यः स दृष्टो मृडयाति नः ॥ ७॥

 

नमोस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे ।

अथो येऽस्य सत्त्वानोऽहं तेभ्योऽकरं नमः ॥ ८॥

 

प्रमुञ्च धन्वनस्त्वमुभयोरार्त्न्योर्ज्याम् ।

याश्च ते हस्ते इषवः परा ता भगवो वप ॥ ९॥

 

विज्यं धनुः कपर्दिनो विशल्यो बाणवानुत ।

अनेशन्नस्य या इषव आभुरस्य निषङ्गधिः ॥ १०॥

 

या ते हेतिर्मीढुष्टम हस्तै बभूव ते धनु ।

तयाऽस्मान्विश्वतस्त्वमयक्ष्मया परिभुज ॥ ११॥

 

परि ते धन्वनो हेतिरस्मान्वृणक्तु विश्वतः ।

अथो य ईषुधिस्तवारेऽस्मन्निधेहि तम् ॥ १२॥

 

अवतत्त्य धनुस्त्वं सहस्राक्ष शतेषुधे ।

निशीर्य शल्यानां मुखाः शिवो नः सुमना भव ॥ १३॥

 

नमस्ते आयुधायानातताय धृष्णवे ।

उभाभ्यामुत ते नमो बाहुभ्यां तव धन्वने ॥ १४॥

 

मा नो महान्तमुत मा नोऽर्भकं मा न उक्षमुत मा न उक्षितम् ।

मा नो वधीः पितरं मा उत मातरं मा नः प्रियास्तन्वो रुद्र रीरिषः ॥ १५॥

 

मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा नोऽश्वेषु रीरिषः ।

मा नो वीरान् रुद्र भामिनो वधीर्हविष्म॑न्तः सदमित्त्वा हवामहे ॥ १६॥

 

नमो हिरण्यबाहवे सेनान्ये दिशां च पतये नमो नमो वृक्षेभ्यो

हरिकेशेभ्यः पशूनां पतये नमो नमः शष्पिञ्जराय त्विषीमते

पथीनां पतये नमो नमो हरिकेशायोपवीतिने पुष्टानां पतये नमो ॥ १७॥

 

नमो बभ्लुशाय व्याधिनेऽन्नानां पतये नमो नमो भवस्य हेत्यै जगतां पतये नमो

नमो रुद्रायाततायिने क्षेत्राणां पतये नमो नमः सूतायाहन्त्यै वनानां पतये नमो नमो रोहिताय ॥ १८॥

 

नमो रोहिताय स्थपतये वृक्षाणां पतये नमो नमो भुवन्तये वारिवस्कृतायौषधीनां

पतये नमो नमो मन्त्रिणे वाणिजाय कक्षाणां पतये नमो नमो उच्चैर्घोषायाक्रन्दयते

पत्तीनां पतये नमो नमः कृत्स्नायतया ॥ १९॥

 

नमः कृत्स्नायतया धावते तसत्त्वनां पतये नमो नमः सहमानाय निव्याधिने

आव्याधिनीनां पतये नमो नमो निषङ्गिणे ककुभाय स्तेनानां पतये नमो नमो निचेरवे

परिचरायारण्यानां पतये नमो नमो वञ्चते ॥ २०॥

 

नमो वञ्चते परिवञ्चते स्तायूनां पतये नमो नमो निषङ्गिण इषुधिमते तस्कराणां

पतये नमो नमः सृकायिभ्यो जिघांसद्भ्यो मुष्णतां पतये नमो नमोऽसिमद्भ्यो

नक्तञ्चरद्भ्यो विकृन्तानां पतये नमः ॥ २१॥

 

नम उष्णीषिणे गिरिचराय कुलुञ्चानां पतये नमो नम इषुमद्भ्यो

धन्वायिभ्यश्च वो नमो नमऽआतन्वानेभ्यः प्रतिदानेभ्यश्च

वो नमो नम आतन्वानेभ्यः प्रतिदधानेभ्यश्च वो नमो नम

आयच्छद्भ्योऽस्यद्भ्यश्च वो नमो नमो विसृजद्भ्यः ॥ २२॥

 

नमो विसृजद्भ्यो विध्यद्भ्यश्च वो नमो नमः स्वपद्भ्यो

जाग्रद्भ्यश्च वो नमो नमः

शयानेभ्य आसीनेभ्यश्च वो नमो नमस्तिष्ठद्भ्यो धावद्भ्यश्च वो नमो नमः सभाभ्यः ॥ २३॥

 

नमः सभाभ्यः सभापतिभ्यश्च वो नमो नमोऽश्वेभ्योऽश्वपतिभ्यश्च वो नमो नम

व्याधिनीभ्यो विविध्यन्तीभ्यश्च वो नमो नम उगणाभ्यस्तृंहतीभ्यश्च वो नमो नमो गणेभ्यः ॥ २४॥

 

नमो गणेभ्यो गणपतिभ्यश्च वो नमो नमो व्रातेभ्यो व्रातपतिभ्यश्च वो नमो

नमो गृत्सेभ्यो गृत्सपतिभ्यश्च वो नमो नमो विरूपेभ्यो विश्वरूपेभ्यश्च वो नमो

नमः सेनाभ्यः ॥ २५॥

 

नमः सेनाभ्यः सेनानिभ्यश्च वो नमो नमो रथिभ्योऽरथेभ्यश्च वो नमो नमः क्षत्तृभ्यः

सङ्ग्रहीतृभ्यश्च वो नमो नमो महद्भ्यो अर्भकेभ्यश्च वो नमः ॥ २६॥

 

नमस्तक्षभ्यो रथकारेभ्यश्च वो नमो नमः कुलालेभ्यः कर्मारेभ्यश्च वो नमो

नमो निषादेभ्यः पुञ्जिष्टेभ्यश्च वो नमो नमः श्वनिभ्यो मृगयुभ्यश्च वो नमो

नमः श्वभ्यः ॥ २७॥

 

नमः श्वभ्यः श्वपतिभ्यश्च वो नमो नमो भवाय च रुद्राय च नमः शर्वाय च

पशुपतये च नमो नीलग्रीवाय च शितिकण्ठाय च नमः कपर्दिने ॥ २८॥

 

नमः कपर्दिने च व्युप्तकेशाय च नमः सहस्राक्षाय च शतधन्वने च नमो

गिरिशयाय च शिपिविष्टाय च नमो मीढुष्टमाय चेषुमते च नमो ह्रस्वाय ॥ २९॥

 

नमो ह्रस्वाय च वामनाय च नमो बृहते च वर्षीयसे च नमो वृद्धाय च

सवृधे च नमोऽग्र्याय च प्रथमाय च नम आशवे ॥ ३०॥

 

नम आशवे चाजिराय च नमः शीघ्राय च शीभ्याय च नम

ऊर्म्याय चावस्वन्याय च नमो नादेयाय च द्वीप्याय च ॥ ३१॥

 

नमो ज्येष्ठाय च कनिष्ठाय च नमः पूर्वजाय चापरजाय च नमो मध्यमाय चापगल्भाय च

नमो जघन्याय च बुध्न्याय च नमः सोभ्याय ॥ ३२॥

 

नमः सोभ्याय च प्रतिसर्याय च नमो याम्याय च क्षेम्याय च नमः श्लोक्याय

चावसान्याय च नम उर्वर्याय च खल्याय च नमो वन्याय ॥ ३३॥

 

नमो वन्याय च कक्ष्याय च नमः श्रवाय च प्रतिश्रवाय च नम

आशुषेणाय चाशुरथाय च नमः शूराय चावभेदिने च नमो बिल्मिने ॥ ३४॥

 

नमो बिल्मिने च कवचिने च नमो वर्मिणे च वरूथिने च नमः श्रुताय॑ च

श्रुतसेनाय च नमो दुन्दुभ्याय चाहनन्याय च नमो धृष्णवे ॥ ३५॥

 

नमो धृष्णवे च प्रमृशाय च नमो निषङ्गिणे चेषुधिमते च नमस्तीक्ष्णेषवे

चायुधिने च नमः स्वायुधाय च सुधन्वने च ॥ ३६॥

 

नम स्रुत्याय च पथ्याय च नमः काट्याय च नीप्याय च नमः कुल्याय च

सरस्याय च नमो नादेयाय च वैशन्ताय च नमः कूप्याय ॥ ३७॥

 

नमो कूप्याय चावट्याय च नमो वीध्राय चातप्याय च नमो मेध्याय च

विद्युत्याय च नमो वार्याय चावर्षाय च नमो वात्याय ॥ ३८॥

 

नमो वात्याय च रेष्म्याय च नमो वास्तव्याय च वास्तुपाय च नमः सोमाय च

रुद्राय च नमस्ताम्राय चारुणाय च नमः शङ्गवे ॥ ३९॥

 

नमः शङ्गवे च पशुपतये च नम उग्राय च भीमाय च नमोऽग्रेवधाय च दूरेवुधाय च

नमो हन्त्रे च हनीयसे च नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यो नमस्ताराय ॥ ४०॥

 

नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च मयस्कराय च

नमः शिवाय च शिवतराय च ॥ ४१॥

 

नमः पार्याय चावार्याय च नमः प्रतरणाय चोत्तरणाय च नमस्तीर्थ्याय च कूल्याय च

नमुह शव्याय च फेन्याय च नमः सिकत्याय ॥ ४२॥

 

नमः सिकत्याय च प्रवाह्याय च नमः किंशिलाय च क्षयणाय च

नमः कपर्दिने च पुलस्तये च नम इरिण्याय च प्रपथ्याय च नमो व्रज्याय ॥ ४३॥

 

नमो व्रज्याय च गोष्ठ्याय च नमस्तल्प्याय च गेह्याय च नमो हृदयाय च

निवेष्प्याय च नमः काट्याय च गह्वरेष्ठाय च नमः शुष्क्याय ॥ ४४॥

 

नमः शुष्क्याय च हरित्याय च नमः पांसव्याय च रजस्याय च नमो लोप्या॑य चोलप्याय च

नम ऊर्व्याय च सूर्व्याय च नमः पर्णाय ॥ ४५॥

 

नमः पर्णाय च पर्णशदाय च नम उद्गरमाणाय चाभिघ्नते च नम आखिदते च

प्रखिदते च नम इषुकृद्भ्यो धनुष्कृद्भ्यश्च वो नमो नमो वः किरिकेभ्यो

देवानां हृदयेभ्यो नमो विचिन्वत्केभ्यो नमो विक्षिणत्केभ्यो नम आनिर्हतेभ्यः ॥ ४६॥

 

द्रापेऽअन्धसस्पते दरिद्र नीललोहित । आसां प्रजानामेषां

पशूनां मा भेर्मा रोङ्मा च नः किञ्चनाममत् ॥ ४७॥

 

इमा रुद्राय तवसे कपर्दिने क्षयद्वीराय प्रभरामहे मतीः ।

यथा शमसद्विपदे चतुष्पदे विश्वं पुष्टं ग्रामेऽअस्मिन्ननातुरम् ॥ ४८॥

 

या ते रुद्र शिवा तनूः शिवा विश्वाहा भेषजी ।

शिवा रुतस्य भेषजी तया नो मृड जीवसे ॥ ४९॥

 

परि नो रुद्रस्य हेति वृणक्तु त्वेषस्य दुर्मतिरघायोः ।

अव स्थिरा मघवद्भ्यस्तनुष्व मीढ्वस्तोकाय तनयाय मृड ॥ ५०॥

 

मीढुष्टम शिव॑तम शिवो नः सुमना भव ।

परमे वृक्ष आयुधं निधाय कृत्तिं वसान आचर पिनाकं बिभ्रदागहि ॥ ५१॥

 

विकिरिद्र विलोहित नमस्तेऽअस्तु भगवः ।

यास्ते सहस्रं हेतयोऽन्यमस्मन्निवपन्तु ताः ॥ ५२॥

 

सहस्राणि सहस्रशो बाह्वोस्तव हेतयः ।

तासामीशानो भगवः पराचीना मुखाः कृधि ॥ ५३॥

 

असङ्ख्याता सहस्राणि ये रुद्रा अधिभूम्याम् ।

तेषां सहस्रयोजने धन्वान्यवतन्मसि ॥ ५४॥

 

अस्मिन्महत्यर्णवेऽन्तरिक्षे भवा अधि ।

तेषां सहस्त्रयोजने धन्वान्यवतन्मसि ॥ ५५॥

 

नीलग्रीवाः शितिकण्ठाः दिवां रुद्राः उपश्रिताः ।

तेषां सहस्रयोजने धन्वान्यवतन्मसि ॥ ५६॥

 

नीलग्रीवाः शितिकण्ठाः शर्वा अधः क्षमाचराः ।

तेषां सहस्रयोजने धन्वान्यवतन्मसि ॥ ५७॥

 

ये वृक्षेषु शष्पिञ्जराः नीलग्रीवाः विलोहिताः ।

तेषां सहस्रयोजने धन्वान्यवतन्मसि ॥ ५८॥

 

ये भूतानामधिपतयो विशिखासः कपर्दिन ।

तेषां सहस्रयोजने धन्वान्यवतन्मसि ॥ ५९॥

 

ये पथां पथिरक्षयः ऐलबृदाः आयुर्युधः ।

तेषां सहस्रयोजने धन्वान्यवतन्मसि ॥ ६०॥

 

ये तीर्थानि प्रचरन्ति सृकाहस्ताः निषङ्गिणः ।

तेषां सहस्रयोजने धन्वान्यवतन्मसि ॥ ६१॥

 

येऽन्नेषु विविध्यन्ति पात्रेषु पिबतो जनान् ।

तेषां सहस्रयोजने धन्वान्यवतन्मसि ॥ ६२॥

 

य एतावन्तश्च भूयांसश्च दिशो रुद्राः वितस्थिरे ।

तेषां सहस्रयोजने धन्वान्यवतन्मसि ॥ ६३॥

 

नमोऽस्तु रुद्रेभ्यो ये दिवि येषां वर्षमिषवः ।

तेभ्यो दश प्राचीर्दर्श दक्षिणाः दश प्रतीचीर्दशोदीचीर्दशोर्ध्वाः ।

तेभ्यो नमोऽस्तु ते नोऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि

तमेषां जम्भे दध्मः ॥ ६४॥

 

नमोऽस्तु रुद्रेभ्यो येऽन्तरिक्षे येषां वातः इषवः ।

तेभ्यो दश प्राचीर्दश दक्षिणाः दश प्रतीचीर्दशोदीचीर्दशोर्ध्वाः ।

तेभ्यो नमोऽस्तु ते नऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि

तमेषां जम्भे दध्मः ॥ ६५॥

 

नमोऽस्तु रुद्रेभ्यो ये पृथिव्यां येषामन्नमिषवः ।

तेभ्यो दश प्राचीर्दश दक्षिणाः दश प्रतीचीर्दशोचीर्दशोर्ध्वाः ।

तेभ्यो नमोऽस्तु ते नोऽवन्तु ते नो मृडयन्तु ते यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि

तमेषां जम्भे दध्मः ॥ ६६॥

 

भावार्थः रुद्राष्टाध्यायी – पाँचवाँ अध्याय

दु:ख दूर करने वाले (अथवा ज्ञान प्रदान करने वाले) हे रुद्र ! आपके क्रोध के लिए नमस्कार है, आपके बाणों के लिए नमस्कार है और आपकी दोनों भुजाओं के लिए नमस्कार है। कैलास पर रहकर संसार का कल्याण करने वाले (अथवा वाणी में स्थित होकर लोगों को सुख देने वाले या मेघ में स्थित होकर वृष्टि के द्वारा लोगों को सुख देने वाले) हे रुद्र ! आपका जो मंगलदायक, सौम्य, केवल पुण्यप्रकाशक शरीर है, उस अनन्त सुखकारक शरीर से हमारी रक्षा कीजिए।

कैलास पर रहकर संसार का कल्याण करने वाले तथा मेघों में स्थित होकर वृष्टि के द्वारा जगत की रक्षा करने वाले हे सर्वज्ञ रुद्र ! शत्रुओं का नाश करने के लिए जिस बाण को आप अपने हाथ में धारण करते हैं वह कल्याणकारक हो और आप मेरे पुत्र-पौत्र तथा गो, अश्व आदि का नाश मत कीजिए. हे कैलास पर शयन करने वाले ! आपको प्राप्त करने के लिए हम मंगलमय वचन से आपकी स्तुति करते हैं। हमारे समस्त पुत्र-पौत्र तथा पशु आदि जेसे भी नीरोग तथा निर्मल मन वाले हों, वैसा आप करें।

अत्यधिक वन्दनशील, समस्त देवताओं में मुख्य, देवगणों के हितकारी तथा रोगों का नाश करने वाले रुद्र मुझसे सबसे अधिक बोलें, जिससे मैं सर्वश्रेष्ठ हो जाऊँ. हे रुद्र ! समस्त सर्प, व्याघ्र आदि हिंसकों का नाश करते हुए आप अधोगमन कराने वाली राक्षसियों को हमसे दूर कर दें। उदय के समय ताम्रवर्ण (अत्यन्त रक्त), अस्तकाल में अरुणवर्ण (रक्त), अन्य समय में वभ्रु (पिंगल) – वर्ण तथा शुभ मंगलों वाला जो यह सूर्यरूप है, वह रुद्र ही है. किरणरूप में ये जो हजारों रुद्र इन आदित्य के सभी ओर स्थित हैं, इनके क्रोध का हम अपनी भक्तिमय उपासना से निवारण करते हैं।

जिन्हें अज्ञानी गोप तथा जल भरने वाली दासियाँ भी प्रत्यक्ष देख सकती हैं, विष धारण करने से जिनका कण्ठ नीलवर्ण का हो गया है, तथापि विशेषत: रक्तवर्ण होकर जो सर्वदा उदय और अस्त को प्राप्त होकर गमन करते हैं, वे रविमण्डल स्थित रुद्र हमें सुखी कर दें। नीलकण्ठ, सहस्त्र नेत्र वाले, इन्द्रस्वरुप और वृष्टि करने वाले रुद्र के लिए मेरा नमस्कार है. उस रुद्र के जो भृत्य हैं, उनके लिए भी मैं नमस्कार करता हूँ। हे भगवान ! आप धनुष की दोनों कोटियों के मध्य स्थित प्रत्यंचा का त्याग कर दें और अपने हाथ में स्थित बाणों को भी दूर फेंक दें।

जटाजूट धारण करने वाले रुद्र का धनुष प्रत्यंचा रहित रहे, तूणीर में स्थित बाणों के नोंकदार अग्रभाग नष्ट हो जाएँ, इन रुद्र के जो बाण हैं, वे भी नष्ट हो जाएँ तथा इनके खड्ग रखने का कोश भी खड्ग रहित हो जाए अर्थात वे रुद्र हमारे प्रति सर्वथा शस्त्ररहित हो जाएँ। अत्यधिक वृष्टि करने वाले हे रुद्र ! आपके हाथ में जो धनुषरूप आयुध है, उस सुदृढ़ तथा अनुपद्रवकारी धनुष से हमारी सब ओर से रक्षा कीजिए। हे रुद्र ! आपका धनुषरूप आयुध सब ओर से हमारा त्याग करे अर्थात हमें न मारे और आपका जो बाणों से भरा तरकश है, उसे हमसे दूर रखिए।

सौ तूणीर और सहस्त्र नेत्र धारण करने वाले हे रुद्र ! धनुष की प्रत्यंचा दूर करके और बाणों के अग्र भागों को तोड़कर आप हमारे प्रति शान्त और शुद्ध मन वाले हो जाएँ. हे रुद्र ! शत्रुओं को मारने में प्रगल्भ और धनुष पर न चढ़ाए गये आपके बाण के लिए हमारा प्रणाम है। आपकी दोनों बाहुओं और धनुष के लिए भी हमारा प्रणाम है।

हे रुद्र ! हमारे गुरु, पितृव्य आदि वृद्धजनों को मत मारिए, हमारे बालक की हिंसा मत कीजिए, हमारे तरुण को मत मारिए, हमारे गर्भस्थ शिशु का नाश मत कीजिए, हमारे माता-पिता को मत मारिए तथा हमारे प्रिय पुत्र-पौत्र आदि की हिंसा मत कीजिए। हे रुद्र ! हमारे पुत्र-पौत्र आदि का विनाश मत कीजिए, हमारी आयु को नष्ट मत कीजिए, हमारी गौओं को मत मारिए, हमारे घोड़ों का नाश मत कीजिए, हमारे क्रोधयुक्त वीरों की हिंसा मत कीजिए। हवि से युक्त होकर हम सब सदा आपका आवाहन करते हैं।

भुजाओं में सुवर्ण धारण करने वाले सेनानायक रुद्र के लिए नमस्कार है, दिशाओं के रक्षक रुद्र के लिए नमस्कार है, पूर्णरूप हरे केशों वाले वृक्षरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, जीवों का पालन करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, कान्तिमान बालतृण के समान पीत वर्ण वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, मार्गों के पालक रुद्र के लिए नमस्कार है, नीलवर्ण केश से युक्त तथा मंगल के लिए यज्ञोपवीत धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, गुणों से परिपूर्ण मनुष्यों के स्वामी रुद्र के लिए नमस्कार है।

कपिल (वर्ण वाले अथवा वृषभ पर आरूढ़ होने वाले) तथा शत्रुओं को बेधने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, अन्नों के पालक रुद्र के लिए नमस्कार है, संसार के आयुध रूप (अथवा जगन्निवर्तक) रुद्र के लिए नमस्कार है, जगत का पालन करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, उद्यत आयुध वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, देहों का पालन करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, न मारने वाले सारथीरूप रुद्र के लिए नमस्कार है तथा वनों के रक्षक रुद्र के लिए नमस्कार है।

लोहित वर्ण वाले तथा गृह आदि के निर्माता विश्वकर्मारूप रुद्र के लिए नमस्कार है, वृक्षों के पालक रुद्र के लिए नमस्कार है, भुवन का विस्तार करने वाले तथा समृद्धिकारक रुद्र के लिए नमस्कार है, वन के लता वृक्ष आदि के पालक रुद्र के लिए नमस्कार है, युद्ध में उग्र शब्द करने वाले तथा शत्रुओं को रुलाने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, (हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल आदि) सेनाओं के पालक रुद्र के लिए नमस्कार है।

कर्णपर्यन्त प्रत्यंचा खींचकर युद्ध में शीघ्रतापूर्वक दौड़ने वाले (अथवा सम्पूर्ण लाभ की प्राप्ति कराने वाले) रुद्र के लिए नमस्कार है, शरणागत प्राणियों के पालक रुद्र के लिए नमस्कार है, शत्रुओं का तिरस्कार करने वाले तथा शत्रुओं को बेधने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, सब प्रकार से प्रहार करने वाली शूर सेनाओं के रक्षक रुद्र के लिए नमस्कार है, खड्ग चलाने वाले महान रुद्र के लिए नमस्कार है, गुप्त चोरों के रक्षक रुद्र के लिए नमस्कार है, अपहार की बुद्धि से निरन्तर गतिशील तथा हरण की इच्छा से आपण (बाजार) – वाटिका आदि में विचरण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है तथा वनों के पालक रुद्र के लिए नमस्कार है।

वंचना करने वाले तथा अपने स्वामी को विश्वास दिलाकर धन हरण करके उसे ठगने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, गुप्त धन चुराने वालों के पालक रुद्र के लिए नमस्कार है, बाण तथा तूणीर धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, प्रकटरूप में चोरी करने वालों के पालक रुद्र के लिए नमस्कार है, वज्र धारण करने वाले तथा शत्रुओं को मारने की इच्छा वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, खेतों में धान्य आदि चुराने वालों के रक्षक रुद्र के लिए नमस्कार है, प्राणियों पर घात करने के लिए खड्ग धारण कर रात्रि में विचरण करने वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है तथा दूसरों को काटकर उनका धन हरण करने वालों के पालक रुद्र के लिए नमस्कार है।

सिर पर पगड़ी धारण करके पर्वतादि दुर्गम स्थानों में विचरने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, छलपूर्वक दूसरो के क्षेत्र, गृह आदि का हरण करने वालों के पालक रुद्ररूप के लिए नमस्कार है, लोगों को भयभीत करने के लिए बाण धारण करने वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, धनुष धारण करने वाले आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, धनुष पर बाण का संधान करने वाले आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, धनुष को भली-भाँति खींचने वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, बाणों को सम्यक् छोड़ने वाले आप रुद्रों के लिए नमस्कार है।

पापियों के दमन के लिए बाण चलाने वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, शत्रुओं को बेधने वाले आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, स्वप्नावस्था का अनुभव करने वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, जाग्रत अवस्था वाले आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, सुषुप्ति अवस्था वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, बैठे हुए आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, स्थित रहने वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, स्थित रहने वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, वेगवान गति वाले आप रुद्रों के लिए नमस्कार है।

सभारूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, सभापतिरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, अश्वरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, अश्वपतिरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, सब प्रकार से बेधन करने वाले देवसेनारूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, विशेषरूप से बेधन करने वाले देवसेनारूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, उत्कृष्ट भृत्यसमूहों वाली ब्राह्मी आदि मातास्वरुप रुद्रों के लिए नमस्कार है और मारने में समर्थ दुर्गा आदि मातास्वरुप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है।

देवानुचर भूतगणरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, भूतगणों के अधिपतिरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, भिन्न-भिन्न जातिसमूहरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, विभिन्न जातिसमूहों के अधिपतिरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, मेधावी ब्रह्मजिज्ञासुरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, मेधावी ब्रह्मजिज्ञासुओं के अधिपतिरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, निकृष्ट रूपवाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, नानाविध रूपों वाले विश्वरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है।

सेनारूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, सेनापतिरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, रथीरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, रथविहीन आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, रथों के अधिष्ठातारूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, सारथिरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, जाति तथा विद्या आदि से उत्कृष्ट प्राणिरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, प्रमाण आदि से अल्परूप रुद्रों के लिए नमस्कार है।

शिल्पकाररूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, रथनिर्मातारूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, कुम्भकाररूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, लौहकाररूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, वन-पर्वतादि में विचरने वाले निषादरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, पक्षियों को मारने वाले पुल्कसादिरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, श्वानों के गले में बँधी रस्सी धारण करने वाले रुद्ररूपों के लिए नमस्कार है और मृगों की कामना करने वाले व्याधरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है।

श्वानरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, श्वानों के स्वामीरूप आप रुद्रों के लिए नमस्कार है, प्राणियों के उत्पत्तिकर्त्ता रुद्र के लिए नमस्कार है, दु:खों के विनाशक रुद्र के लिए नमस्कार है, पापों का नाश करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, पशुओं के रक्षक रुद्र के लिए नमस्कार है, हलाहनपान के फलस्वरुप नीलवर्ण के कण्ठ वाले रुद्र के लिए नमस्कार है और श्वेत कण्ठ वाले रुद्र के लिए नमस्कार है। जटाजूट धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, मुण्डित केश वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, हजारों नेत्र वाले इन्द्ररूप रुद्र के लिए नमस्कार है, सैकड़ों धनुष धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, कैलास पर्वत पर शयन करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, सभी प्राणियों के अन्तर्यामी विष्णुरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, अत्यधिक सेचन करने वाले मेघरूप रुद्र के लिए नमस्कार है और बाण धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है।

अल्प देहवाले रुद्र के लिए नमस्कार है, संकुचित अंगो वाले वामनरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, बृहत्काय रुद्र के लिए नमस्कार है, अत्यन्त वृद्धावस्था वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, अधिक आयु वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, विद्याविनयादि गुणों से सम्पन्न विद्वानों के साथी रूप रुद्र के लिए नमस्कार है, जगत के आदिभूत रुद्र के लिए नमस्कार है और सर्वत्र मुख्यस्वरूप रुद्र के लिए नमस्कार है। जगद्व्यापी रुद्र के लिए नमस्कार है, गतिशील रुद्र के लिए नमस्कार है, वेगवाली वस्तुओं में विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है, जलप्रवाह में विद्यमान आत्मश्लाघी रुद्र के लिए नमस्कार है, जलतरंगों में व्याप्त रुद्र के लिए नमस्कार है, स्थिर जलरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, नदियों में व्याप्त रुद्र के लिए नमस्कार है और द्वीपों में व्याप्त रुद्र के लिए नमस्कार है।

अति प्रशस्य ज्येष्ठरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, अत्यन्त युवा (अथवा कनिष्ठ) – रूप के लिए नमस्कार है, जगत के आदि में हिरण्यगर्भरूप से प्रादुर्भूत हुए रुद्र के लिए नमस्कार है, प्रलय के समय कालाग्नि के सदृश रूप धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, सृष्टि और प्रलय के मध्य में देव-नर-तिर्यगादिरूप से उत्पन्न होने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, अव्युत्पन्नेन्द्रिय रुद्र के लिए नमस्कार है अथवा विनीत रुद्र के लिए नमस्कार है, (गाय आदि के) जघन प्रदेश से उत्पन्न होने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है और वृक्षादिकों के मूल में निवास करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है।

गन्धर्व नगर में होने वाले (अथवा पुण्य और पापों से युक्त मनुष्यलोक में उत्पन्न होने वाले) रुद्र के लिए नमस्कार है, प्रत्यभिचार में रहने वाले (अथवा विवाह के समय हस्तसूत्र में उत्पन्न होने वाले) रुद्र के लिए नमस्कार है, पापियों को नरक की वेदना देने वाले यम के अन्तर्यामी रुद्र के लिए नमस्कार है, कुशलकर्म में रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, वेद के मन्त्र (अथवा यश) – द्वारा उत्पन्न हुए रुद्र के लिए नमस्कार है, वेदान्त के तात्पर्यविषयीभूत रुद्र के लिए नमस्कार है, सर्व सस्यसम्पन्न पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले धान्यरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, धान्यविवेचन-देश (खलिहान) – में उत्पन्न हुए रुद्र के लिए नमस्कार है।

वनों में वृक्ष-लतादिरूप रुद्र अथवा वरुणस्वरुप रुद्रों के लिए नमस्कार है, शुष्क तृण अथवा गुल्मों में रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, प्रतिध्वनिस्वरुप रुद्र के लिए नमस्कार है, शीघ्रगामी सेना वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, शीघ्रगामी रथ वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, युद्ध में शूरता प्रदर्शित करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है तथा शत्रुओं को विदीर्ण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है।

शिरस्त्राण धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, कपास-निर्मित देहरक्षक (अंगरखा) धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, लोहे का बख्तर धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, गुंबदयुक्त रथ वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, संसार में प्रसिद्ध रुद्र के लिए नमस्कार है, प्रसिद्ध सेनावाले रुद्र के लिए नमस्कार है, दुन्दुभी (भेरी) में विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है, भेरी आदि वाद्यों को बजाने में प्रयुक्त होने वाले दण्ड आदि में विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है।

प्रगल्भ स्वभाव वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, सत-असत का विवेकपूर्वक विचार करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, खड्ग धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, तूणीर (तरकश) धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, तीक्ष्ण बाणों वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, नानाविध आयुधों को धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, उत्तम त्रिशूलरूप आयुध धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है और श्रेष्ठ पिनाक धनुष धारण करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है।

क्षुद्रमार्ग में विद्यमान रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, रथ-गज-अश्व आदि के योग्य विस्तृत मार्ग में विद्यमान रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, दुर्गम मार्गों में स्थित रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, जहाँ झरनों का जल गिरता है, उस भूप्रदेश में उत्पन्न हुए अथवा पर्वतों के अधोभाग में विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है, नहर के मार्ग में स्थित अथवा शरीरों में अन्तर्यामी रूप से विराजमान रुद्र के लिए नमस्कार है, सरोवर में उत्पन्न होने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, सरितादिकों में विद्यमान जलरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, अल्प सरोवर में रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है।

कुपों में विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है, गर्त स्थानों में रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, शरद-ऋतु के बादलों अथवा चन्द्र-नक्षत्रादि-मण्डल में विद्यमान विशुद्ध स्वभाव वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, मेघों में विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है, विद्युत में होने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, वृष्टि में विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है तथा अवर्षण में स्थित रुद्र के लिए नमस्कार है।

वायु में रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, प्रलयकाल में विद्यमान रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, गृह भूमि में विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है अथवा सर्वशरीरवासी रुद्र के लिए नमस्कार है, गृहभूमि के रक्षकरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, चन्द्रमा में स्थित अथवा ब्रह्मविद्या महाशक्ति उमासहित विराजमान सदाशिव रुद्र के लिए नमस्कार है, सर्वविध अनिष्ट के विनाशक रुद्र के लिए नमस्कार है, उदित होने वाले सूर्य के रूप में ताम्रवर्ण के रुद्र के लिए नमस्कार है और उदय के पश्चात अरुण (कुछ-कुछ रक्त) वर्ण वाले रुद्र के लिए नमस्कार है।

भक्तों को सुख की प्राप्ति कराने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, जीवों के अधिपतिस्वरुप रुद्र के लिए नमस्कार है, संहार-काल में प्रचण्ड स्वरूप वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, अपने भयानकरूप से शत्रुओं को भयभीत करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, सामने खड़े होकर वध करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, दूर स्थित रहकर संहार करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, हनन करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, प्रलयकाल में सर्वहन्तारूप रुद्र के लिए नमस्कार है, हरितवर्ण के पत्ररूप केशों वाले कल्पतरुस्वरुप रुद्र के लिए नमस्कार है और ज्ञानोपदेश के द्वारा अधिकारी जनों को तारने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है।

सुख के उत्पत्ति स्थानरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, भोग तथा मोक्ष का सुख प्रदान करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, लौकिक सुख देने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, वेदान्तशास्त्र में होने वाले ब्रह्मात्मैक्य साक्षात्कारस्वरुप रुद्र के लिए नमस्कार है, कल्याणरूप निष्पाप रुद्र के लिए नमस्कार है और अपने भक्तों को भी निष्पाप बनाकर कल्याणरूप कर देने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है। संसार समुद्र के अपर तीर पर रहने वाले अथवा संसारातीत जीवन्मुक्त विष्णुरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, संसार व्यापी रुद्र के लिए नमस्कार है, दु:ख-पापादि से प्रकृष्टरूप से तारने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, उत्कृष्ट ब्रह्म-साक्षात्कार कराकर संसार में तारने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, तीर्थस्थलों में प्रतिष्ठित रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, गंगा आदि नदियों के तट पर विद्यमान रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, गंगा आदि नदियों के तट पर उत्पन्न रहने वाले कुशांकुरादि बालतृणरूप रुद्र के लिए नमस्कार है और जल के विकारस्वरुप फेन में विद्यमान रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है।

नदियों की बालुकाओं में होने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, स्थिर जल से परिपूर्ण प्रदेशरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, जटामुकुटधारी रुद्र के लिए नमस्कार है, शुभाशुभ देखने की इच्छा से सदा सामने खड़े रहने वाले अथवा सर्वान्तर्यामीस्वरुप रुद्र के लिए नमस्कार है, ऊसरभूमिरूप रुद्र के लिए नमस्कार है और अनेक जनों से संसेवित मार्ग में होने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है। गोसमूह में विद्यमान अथवा वज्र में गोपेश्वर के रूप में रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, गोशालाओं में रहने वाले गोष्ठ्यरुप रुद्र के लिए नमस्कार है, शय्या में विद्यमान रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, गृह में विद्यमान रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, हृदय में रहने वाले जीवरूपी रुद्र के लिए नमस्कार है, जल के भँवर में रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, दुर्ग-अरण्य आदि स्थानों में रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है और विषम गिरिगुहा आदि अथवा गम्भीर जल में विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है।

काष्ठ आदि शुष्क पदार्थों में भी सत्तारूप से विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है, आर्द्र काष्ठ आदि में सत्तारुप से विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है, धूलि आदि में विराजमान पांसव्यरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, रजोगुण अथवा पराग में विद्यमान रजस्यरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, सम्पूर्ण इन्द्रियों के व्यापार की शान्ति होने पर अथवा प्रलय में भी साक्षी बनकर रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है और प्रलयाग्नि में विद्यमान रुद्र के लिए नमस्कार है।

वृक्षों के पत्ररुप रुद्र के लिए नमस्कार है, वृक्ष-पर्णों के स्वत: शीर्ण होने के काल-वसन्त-ऋतुरूप रुद्र के लिए नमस्कार है, पुरुषार्थपरायण रहने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, सब ओर शत्रुओं का हनन करने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, सब ओर से अभक्तों को दीन-दु:खी बना देने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, अपने भक्तों के दु:खों से दु:खी होने के कारण दया से आर्द्र हृदय होने वाले रुद्र के लिए नमस्कार है, बाणों का निर्माण करने वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, धनुषों का निर्माण करने वाले रुद्रों के लिए नमस्कार है, वृष्टि आदि के द्वारा जगत का पालन करने वाले देवताओं के हृदयभूत अग्नि-वायु-अदित्यरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है, धर्मात्मा तथा पापियों का भेद करने वाले अग्नि आदि रुद्रों के लिए नमस्कार है, भक्तों के पाप-रोग-अमंगल को दूर करने वाले तथा पाप-पुण्य के साक्षीस्वरुप अग्नि आदि रुद्रों के लिए नमस्कार है और सृष्टि के आदि में मुख्यतया इन लोकों से निर्गत हुए अग्नि -वायु-सूर्यरूप रुद्रों के लिए नमस्कार है।

हे द्राप्रे (दुराचारियों को कुत्सित गति प्राप्त कराने वाले) ! हे अन्धसस्पते (सोमपालक) ! हे दरिद्र (निष्परिग्रह) ! हे नीललोहित ! हमारी पुत्रादि प्रजाओं तथा गौ आदि पशुओं को भयभीत मत कीजिए, उन्हें नष्ट मत कीजिए और उन्हें किसी भी प्रकार के रोग से ग्रसित मत कीजिए. जिस प्रकार से मेरे पुत्रादि तथा गौ आदि पशुओं को कल्याण की प्राप्ति हो तथा इस ग्राम में सम्पूर्ण प्राणी पुष्ट तथा उपद्रव रहित हों, इसके निमित्त हम अपनी इन बुद्धियों को महाबली, जटाजूटधारी तथा शूरवीरों के निवासभूत रुद्र के लिए समर्पित करते हैं।

हे रुद्र ! आपका जो शान्त, निरन्तर कल्याणकारक, संसार की व्याधि निवृत्त करने वाला तथा शारीरिक व्याधि दूर करने का परम औषधिरूप शरीर है, उससे हमारे जीवन को सुखी कीजिए. रुद्र के आयुध हमारा परित्याग करें और क्रुद्ध हुए दोषी पुरुषों की दुर्बुद्धि हम लोगों को वर्जित कर दे (अर्थात उनसे हम लोगों को किसी प्रकार की पीड़ा न होने पाए). अभिलषित वस्तुओं की वृष्टि करने वाले हे रुद्र ! आप अपने धनुष को प्रत्यंचा रहित करके यजमान-पुरुषों के भय को दूर कीजिए और उनके पुत्र-पौत्रों को सुखी बनाइए।

अभीष्ट फल और कल्याणों की अत्यधिक वृष्टि करने वाले हे रुद्र ! आप हम पर प्रसन्न रहें, अपने त्रिशूल आदि आयुधों को कहीं दूर स्थित वृक्षों पर रख दीजिए, गजचर्म का परिधान धारण करके तप कीजिए और केवल शोभा के लिए धनुष धारण करके आइए. विविध प्रकार के उपद्रवों का विनाश करने वाले तथा शुद्धस्वरुप वाले हे रुद्र ! आपको हमारा प्रणाम है, आपके जो असंख्य आयुध हैं वे हमसे अतिरिक्त दूसरों पर जाकर गिरें।

गुण तथा ऎश्वर्यों से संपन्न हे जगत्पति रुद्र ! आपके हाथों में हजारों प्रकार के जो असंख्य आयुध हैं, उनके अग्रभागों (मुखों) को हमसे विपरीत दिशाओं की ओर कर दीजिए (अर्थात हम पर आयुधों का प्रयोग मत कीजिए) । पृथ्वी पर जो असंख्य रुद्र निवास करते हैं, उनके असंख्य धनुषों को प्रत्यंचारहित करके हम लोग हजारों कोसों के पार जो मार्ग है, उस पर ले जाकर डाल देते हैं। मेघमण्डल से भरे हुए इस महान अन्तरिक्ष में जो रुद्र रहते हैं, उनके असंख्य धनुषों को प्रत्यंचारहित करके हम लोग हजारों कोसों के पार स्थित मार्ग पर ले जाकर डाल देते हैं।

जिनके कण्ठ का कुछ भाग नीलवर्ण का है और कुछ भाग श्वेतवर्ण का है तथा जो द्युलोक में निवास करते हैं, उन रुद्रों के असंख्य धनुषों को प्रत्यंचारहित करके हम लोग हजारों कोसों दूर स्थित मार्ग पर ले जाकर डाल देते हैं। कुछ भाग में नीलवर्ण और कुछ भाग में शुक्ल वर्ण के कण्ठवाले तथा भूमि के अधोभाग में स्थित पाताल लोक में निवास करने वाले रुद्रों के असंख्य धनुषों को प्रत्यंचारहित करके हम लोग हजारों कोस दूर स्थित मार्ग पर ले जाकर डाल देते हैं।

बाल तृण के समान हरितवर्ण के तथा कुछ भाग में नीलवर्ण एवं कुछ भाग में शुक्ल वर्ण के कण्ठ वाले, जो रुधिरहित रुद्र (तेजोमय शरीर रहने से उन शरीरों में रक्त और माँस नहीं रहता) हैं, वे अश्वत्थ आदि के वृक्षों पर रहते हैं। उन रुद्रों के धनुषों को प्रत्यंचारहित करके हम लोग हजारों कोसों के पार स्थित मार्ग पर डाल देते हैं। अन्न देकर प्राणियों का पोषण करने वाले, आजीवन युद्ध करने वाले, लौकिक-वैदिक मार्ग का रक्षण करने वाले तथा अधिपति कहलाने वाले जो रुद्र हैं, उनके धनुषों को प्रत्यंचारहित करके हम लोग हजारों कोसों के पार स्थित मार्ग पर ले जाकर डाल देते हैं।

वज्र और खड्ग आदि आयुधों को हाथ में धारण कर जो रुद्र तीर्थों पर जाते हैं, उनके धनुषों को प्रत्यंचारहित करके हम लोग हजारों कोसों के पार स्थित मार्ग पर ले जाकर दाल देते हैं। खाए जाने वाले अन्नों में स्थित जो रुद्र अन्न भोक्ता प्राणियों को पीड़ित करते हैं (अर्थात धातुवैषम्य के द्वारा उनमें रोग उत्पन्न करते हैं) और पात्रों में स्थित दुग्ध आदि में विराजमान जो रुद्र, उनका पान करने वाले लोगों को (व्याधि आदि के द्वारा) कष्ट देते हैं, उनके धनुषों को प्रत्यंचारहित करके हम लोग हजारों कोस स्थित मार्ग पर ले जाकर डाल देते हैं।

दसों दिशाओं में व्याप्त रहने वाले जो अनेक रुद्र हैं, उनके धनुषों को प्रत्यंचारहित करके हम लोग हजारों कोस दूर स्थित मार्ग पर ले जाकर डाल देते हैं। जो रुद्र द्युलोक में विद्यमान हैं तथा जिन रुद्रों के बाण वृष्टिरूप हैं, उन रुद्रों के लिए नमस्कार है। उन रुद्रों के लिए पूर्व दिशा की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ, दक्षिण की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ, पश्चिम की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ, उत्तर की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ और ऊपर की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ (अर्थात हाथ जोड़कर सभी दिशाओं में उन रुद्रों के लिए प्रणाम करता हूँ) । वे रुद्र हमारी रक्षा करें और वे हमें सुखी बनाएँ। वे रुद्र जिस मनुष्य से द्वेष करते हैं, हम लोग जिससे द्वेष अरते हैं और जो हमसे द्वेष करता है, उस पुरुष को हम लोग उन रुद्रों के भयंकर दाँतों वाले मुख में डालते हैं (अर्थात वे रुद्र हमसे द्वेष करने वाले मनुष्य का भक्षण कर जाएँ) ।

जो रुद्र अन्तरिक्ष में विद्यमान हैं तथा जिन रुद्रों के बाण पवनरूप हैं, उन रुद्रों के लिए नमस्कार है। उन रुद्रों के लिए पूर्व दिशा की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ, दक्षिण की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ, पश्चिम की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ, उत्तर की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ और ऊपर की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ (अर्थात हाथ जोड़कर सभी दिशाओं में उन रुद्रों के लिए प्रणाम करता हूँ) । वे रुद्र हमारी रक्षा करें और वे हमें सुखी बनाएँ. वे रुद्र जिस मनुष्य से द्वेष करते हैं, हम लोग जिससे द्वेष करते हैं और जो हमसे द्वेष कररता है, उस पुरुष को हम लोग उन रुद्रों के भयंकर दाँतों वाले मुख में डालते हैं (अर्थात वे रुद्र हमसे द्वेष करने वाले मनुष्य का भक्षण कर जाएँ) ।

जो रुद्र पृथ्वीलोक में स्थित हैं तथा जिनके बाण अन्नरुप हैं, उन रुद्रों के लिए नमस्कार है। उन रुद्रों के लिए पूर्व दिशा की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ, दक्षिण की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ, पश्चिम की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ, उत्तर की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ और ऊपर की ओर दसों अंगुलियाँ करता हूँ (अर्थात हाथ जोड़कर सभी दिशाओं में उन रुद्रों के लिए प्रणाम करता हूँ) । वे रुद्र हमारी रक्षा करें और वे हमें सुखी बनावें. वे रुद्र जिस मनुष्य से द्वेष करते हैं, हम लोग जिससे द्वेष करते हैं और जो हमसे द्वेष करता है, उस पुरुष को हम लोग उन रुद्रों के भयंकर दाँतों वाले मुख में डालते हैं (अर्थात वे रुद्र हमसे द्वेष करने वाले मनुष्य का भक्षण कर जाएँ) ।

इति रुद्राष्टाध्यायी पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५।।

 

अथ रुद्राष्टाध्यायी षष्ठोऽध्यायः

 

वयं-सोमव्रते तव मनस्तनूषु बिभ्रतः ॥ प्रजावन्तः सचेमहि ॥ १॥

 

एष ते रुद्रभागः सहस्वस्राऽम्बिकया तं जुषस्व स्वाहैष ते रुद्रभाग आखुस्ते पशुः ॥ २॥

 

अव रुद्रमदीमहि अव देवं त्र्यम्बकम् ॥

 

यथा नो वस्यसस्करद्यथा नः श्रेयसस्करद्यथा नो व्यवसायात् ॥ ३॥

 

भेषजमसि भेषजं गवेऽश्वाय पुरुषाय भेषजम् । सुखं मेषाय मेष्यै ॥ ४॥

 

त्र्यम्बकं यजामहे । सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ।

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् । उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुतः ॥ ५॥

 

एतत्ते रुद्रावसं तेन परो यमूजवतोऽतीहि ॥

 

अवतत धन्वा पिनाकवासस्कृत्तिवासा अहिंसन् नः शिवोऽतीहि ॥ ६॥

 

त्र्यायुषं जमदग्ने कश्यपस्य त्र्यायुषम् ॥ यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नोऽस्तु त्र्यायुषम् ॥ ७॥

 

शिवो नामाऽसि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽस्तु मा मा हिंसीः ॥

 

निवर्तयाम्यामुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय ॥ ८॥

 

भावार्थः रुद्राष्टाध्यायी – छठा पाठ

हे सोमदेव ! पुत्र – पौत्रादि से संपन्न हम यजमान यज्ञ और व्रतों में आपके स्वरुप में चित्त लगाकर सेवनीय वस्तुओं का सेवन करें। हे रुद्र ! हमारे द्वारा दिया हुआ यह पुरोडाश आपका भाग है, आप अपनी भगिनी अम्बिका के साथ इसका सेवन कीजिए. यह प्रदत्त हवि सुहुत रहे। हमारे द्वारा अवकीर्ण किया गया यह पुरोडाश आपका भाग है, आपके द्वारा इसका सेवन किया जाए। हमने इस मूषकसंज्ञक पशु को आपके लिए अर्पित किया है। चित्त में रुद्र और त्र्यम्बक का ध्यान करके (अथवा अन्य देवताओं से पृथक करकके) हम रुद्र को अन्न खिलाते हैं। वे रुद्र हमें निवसनशील और ज्ञाति में श्रेष्ठ कर दें तथा वे हमें समस्त कार्यों में शीघ्र निर्णय लेने की शक्ति प्रदान करें, इसके लिए हम उनका जप करते हैं।

हे रुद्र ! आप औषधि के तुल्य समस्त उपद्रवों के निवारक हैं, अत: हमारे गाय, अश्व और भृत्य आदि को सर्वव्याधिनिवारक औषधि दीजिए और हमारे मेष तथा मेषी को सुख प्रदान कीजिए। दिव्य गन्ध गन्ध से युक्त, मृत्युरहित, धन-धान्यवर्धक, त्रिनेत्र रुद्र की हम पूजा करते हैं। वे रुद्र हमें अपमृत्यु और संसाररूप मृत्यु से मुक्त करें। जिस प्रकार ककड़ी का फल अत्यधिक पक जाने पर अपने वृन्त (डंठल) से मुक्त हो जाता है, उसी प्रकार हम भी मृत्यु से छूट जाएँ, किन्तु अभ्युदय और नि:श्रेयसरूप अमृत से हमारा संबंध न छूटने पाए। (अग्रिम वाक्य कुमारिकाओं का है) पति की प्राप्ति कराने वाले, सुगन्ध विशिष्ट त्रिनेर शिव की हम पूजा करती है। ककड़ी का फल परिपक्व होने पर जैसे अपने डंठल से छूट जाता है, उसी प्रकार हम कुमारियाँ माता, पिता, भाई आदि बन्धुजनों से तथा उस कुल से छूट जाएँ, किंतु त्र्यम्बक के प्रसाद से हम अपने पति से न छूटें अर्थात पिता का गोत्र तथा घर छोड़कर पति के गोत्र तथा घर में सर्वदा रहें।

हे रुद्र ! आपका यह “अवस” (अवस का अर्थ है – प्रवास में किसी सरोवर के समीप विश्राम करने पर भक्षणयोग्य ओदन विशेष अर्थात खाने की कोई वस्तु) संज्ञक हवि:शेष भोज्य है, उसके सहित आप अपने धनुष की प्रत्यंचा को हटाकर मूजवान पर्वत के उस पार जाइए। (मूजवान पर्वत पर रुद्र निवास करते हैं) प्रवास करते समय आप अपने “पिनाक” नामक धनुष को सब ओर से आच्छादित कर लें, जिससे कोई भी प्राणी आपके धनुष को देखकर भयभीत न हो। हे रुद्र ! आप चर्माम्बर धारण करके हिंसा न करते हुए हमारी पूजा से संतुष्ट होकर मूजवान पर्वत को लाँघ जाइए।

जमदग्नि ऋषि की बाल्य-यौवन-वृद्धावस्था के जो उत्तम चरित्र हैं, कश्यप प्रजापति की तीनों अवस्थाओं के जो उत्तम चरित्र हैं तथा देवगणों में भी उनकी तीनों अवस्थाओं के जो प्रशंसनीय चरित्र विद्यमन हैं, तीनों अवस्थाओं से संबंधित वैसा ही चरित्र हम यजमानों का भी हो. हे क्षुर ! आपका नाम “शान्त” है. वज्र आपके पिता हैं, मैं आपके लिए नमस्कार करता हूँ। आप मेरी हिंसा मत कीजिए। हे यजमान ! बहुत दिनों तक जीवित रहने के लिए, अन्न-भक्षण करने के लिए, संतति के लिए, द्रव्य-वृद्धि के लिए, योग्य संतान उत्पन्न होने के लिए तथा उत्तम सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए मैं आपका मुण्डन करता हूँ।

इति रुद्राष्टाध्यायी षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ।।

 

अथ रुद्राष्टाध्यायी सप्तमोऽध्यायः

 

उग्नश्च भीमश्च ध्वान्तश्च धुनिश्च । सासहवांश्चाभियुग्वा च विक्षिपः स्वाहा ॥ १॥

 

अग्निं हृदयेनाशनिं हृदयाग्रेण पशुपतिं कृत्स्नहृदयेन भवं यक्ना ॥

 

शर्वं मतस्नाभ्यामीशानं मन्युना महादेवमन्तःपर्शव्येनोग्रं देवं वनिष्ठुना

वसिष्ठहनुः शिङ्गीनि कोश्याभ्याम् ॥ २॥

 

उग्रँल्लोहितेन मित्रं सौव्रत्येन रुद्रं दौव्रत्येन इन्द्रं प्रक्रीडेन मरुतो बलेन साध्यान्प्रमुदा ।

भवस्य कण्ठ्यं रुद्रस्यान्तः पार्श्व्यं महादेवस्य यकृच्छर्वस्य वनिष्ठुः पशुपतेः पुरीतत् ॥ ३॥

 

लोमभ्यः स्वाहा लोमभ्यः स्वाहा त्वचे स्वाहा त्वचे स्वाहा लोहिताय स्वाहा लोहिताय स्वाहा

मेदोभ्यः स्वाहा मेदोभ्यः स्वाहा मांसेभ्यः स्वाहा मांसेभ्यः स्वाहा स्नावभ्यः स्वाहा स्नावभ्यः स्वाहा

अस्थभ्यः स्वाहा अस्थभ्यः स्वाहा मज्जभ्यः स्वाहा मज्जभ्यः स्वाहा ॥

 

रेतसे स्वाहा पायवे स्वाहा ॥ ४॥

 

आयासाय स्वाहा प्रायासाय स्वाहा संयासाय स्वाहा वियासाय स्वाहोद्यासाय स्वाहा ॥

 

शुचे स्वाहा शोचते स्वाहा शोचमानाय स्वाहा शोकाय स्वाहा ॥ ५॥

 

तपसे स्वाहा तप्यते स्वाहा तप्यमानाय स्वाहा तप्ताय स्वाहा घाय स्वाहा ॥

 

निष्कृत्यै स्वाहा प्रायश्चित्यै स्वाहा भेषजाय स्वाहा ॥ ६॥

 

यमाय स्वाहा अन्तकाय स्वाहा मृत्यवे स्वाहा ॥

 

ब्रह्मणे स्वाहा ब्रह्महत्यायै स्वाहा विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा ॥ ७॥

 

भावार्थः रुद्राष्टाध्यायी – सातवाँ अध्याय

उग्र (उत्कट क्रोध स्वभाव वाले), भीम (भयानक), ध्वान्त (तीव्र ध्वनि करने वाले), धुनि (शत्रुओं को कम्पित करने वाले), सासह्वान (शत्रुओं को तिरस्कृत करने में समर्थ), अभियुग्वा (हमारे सम्मुख योग प्राप्त करने वाले) और विक्षिप (वृक्ष-शाखादि का क्षेपण करने वाले) नाम वाले जो सात मरुत् हैं, उन्हें मैं यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित करता हूँ। मैं अग्नि को हृदय के द्वारा, अशनिदेव को हृदयाग्र से, पशुपति को सारे हृदय से, भव को यकृत से, शर्व को मतस्ना नामक हृदय स्थल से, ईशान देवता को क्रोध से, महादेव को पसलियों के अन्तर्भाग से, उग्र देवता को बड़ी आँत से और शिंगी नामक देवताओं को हृदयकोष स्थित पिण्डों से प्रसन्न करता हूँ।

उग्र देवता को रुधिर से, मित्र देवता को शुभ कर्मों के अनुष्ठान से, रुद्र देवता को अशोभन कर्मों से, इन्द्र देवता को प्रकृष्ट क्रीडाओं से, मरुत् देवताओं को बल से, साध्य देवताओं को हर्ष से, भव देवताओं को कण्ठ भाग से, रुद्र देवता को पसलियों के अन्तर्भाग से, महादेव को यकृत से, शर्व देवता को बड़ी आँत से और पशुपति देवता को पुरीतत् (हृदयाच्छाददक भाग विशेष) से संतुष्ट करता हूँ।

समष्टि लोमों के लिए यह श्रेष्ठ आहुति देता हूँ, व्यष्टि लोमों के लिए यह श्रेष्ठ आहुति देता हूँ, समष्टि त्वचा के लिए, व्यष्टि त्वचा के लिए, समष्टि रुधिर के लिए, व्यष्टि रुधिर के लिए, समष्टि मेदा के लिए, व्यष्टि मेदा के लिए, समष्टि मांस के लिए, व्यष्टि मांस के लिए, समष्टि नसों के लिए, व्यष्टि नसों के लिए, समष्टि अस्थियों के लिए, व्यष्टि अस्थियों के लिए, समष्टि मज्जा के लिए, व्यष्टि मज्जा के लिए, वीर्य के लिए और पायु इन्द्रिय के लिए मैं यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित करता हूँ।

आयास देवता के लिए, प्रायास देवता के लिए, संयास देवता के लिए, वियास देवता के लिए और उद्यास देवता के लिए, शुचि के लिए, शोचत् के लिए, शोचमान के लिए और शोक के लिए मैं यह श्रेष्ठ आहुति प्रदान करता हूँ। तप के लिए, तपकर्ता के लिए, तप्यमान के लिए, तप्त के लिए, घर्म के लिए, निष्कृति के लिए, प्रायश्चित के लिए और औषध के लिए मैं यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित करता हूँ। यम के लिए, अन्तक के लिए, मृत्यु के लिए, ब्रह्मा के लिए, ब्रह्महत्या के लिए, विश्वेदेवों के लिए, द्युलोक के लिए तथा पृथ्वीलोक के लिए मैं यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित करता हूँ।

इति रुद्राष्टाध्यायी सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ।।

अथ रुद्राष्टाध्यायी अष्टमोऽध्यायः ॥

 

वाज॑श्च मे प्रसवश्च मे प्रय॑तिश्च मे प्रसितिश्च मे धीतिश्च मे क्रतुश्च मे स्वरश्च मे

श्लोकश्च मे श्रवश्च मे श्रुतिश्च मे ज्योतिश्च मे स्वश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १॥

 

प्राणश्च मेऽपानश्च मे व्यानश्च मेऽसुश्च मे चित्तञ्च मेऽधीतं च मे वाक्च मे मनश्च मे

चक्षुश्च मे श्रोत्रं च मे दक्षश्च मे बलं च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २॥

 

ओजश्च मे सहश्च मात्मा च मे तनूश्च मे शर्म च मे वर्म च मेऽङ्गानि च

मेऽस्थीनि च मे परूंषि च मे शरीराणि च म आयुश्च मे जरा च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ३॥

 

ज्यैष्ठ्ंय च माधिपत्यं च मे मन्युश्च मे भाम॑श्च मे अम्भश्च जेमा च मे

महिमा च मे वरिमा च मे प्रथिमा च मे वर्षिमा च मे द्राधिमा च मे

वृद्धं च मे वृद्धिश्च मे युज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ४॥

 

सत्यं च मे श्रद्धा च मे जगच्च मे धनं च मे विश्वं च मे महश्च मे क्रीडा च मे

मोद॑श्च मे जातं च मे जनिष्याणं च मे सूक्तं च मे सुकृतं च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ५॥

 

ऋतं च मेऽमृतं च मे युक्ष्मं च मे नामयच्च मे जीवातुश्च मे दीर्घायुत्वं च मे

ऽनमित्रं च मेऽभयं च मे सुखं च मे शय॑नं च मे सूषाश्च मे सुदिनं च मे

यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ६॥

 

यन्ता च मे धर्ता च मे क्षेमश्च मे धृतिश्च मे विश्वं च मे महश्च मे सँविच्च मे

ज्ञात्रं च मे प्रसूश्च मे प्रसूश्च मे सीर च मे लय॑श्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ७॥

 

शं च मे मयश्च मे प्रियं च मेऽनुकामश्च मे कामश्च मे सौमनसश्च मे

भगश्च मे द्रविणं च मे भद्रं च मे श्रेयश्च मे वसीयश्च मे यशश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ८॥

 

ऊर्क्च मे सूनृता च मे पयश्च मे रसश्च मे घृतं च मे मधु च मे सग्धिश्च मे

सपीतिश्च मे कृषिश्च मे वृष्टिश्च मे जैत्र च मे औद्भिद्यं च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ९॥

 

रयिश्च मे रायश्च मे पुष्टं च मे पुष्टिश्च मे विभु च मे प्रभु च मे पूर्णं च मे

पूर्णतरं च मे कुयवं च मेऽक्षितं च मेऽन्नं च मे क्षुच्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १०॥

 

वित्तं च मे वेद्यं च मे भूतं च मे भविष्यच्च मे सुगं च मे सुपथ्य च मे ऋद्धं च मे

ऋद्धिश्च मे क्लृप्तं च मे क्लृप्तिश्च मे मतिश्च मे सुमतिश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ११॥

 

व्रीहयश्च मे यवाश्च मे माषाश्च मे तिलाश्च मे मुद्गाश्च मे खल्वाश्च मे प्रियङ्गवश्च मे

अणवश्च मे श्यामाकाश्च मे नीवाराश्च मे गोधूमाश्च मे मसूराश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १२॥

 

अश्मा च मे मृत्तिका च मे गिरयश्च मे पर्वताश्च मे सिकताश्च मे वनस्पतयश्च मे

हिरण्यं च मेऽयश्च मे श्यामं च मे लोहं च मे सीसं च मे त्रपु च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १३॥

 

अग्निश्च मे आपश्च मे वीरुधश्च मे ओषधयश्च मे कृष्टपच्याश्च मेऽकृष्टपुच्याश्च मे

ग्राम्याश्च मे पशवः आरण्याश्च मे वित्तं च मे वित्तिश्च मे भूतं च मे भूतिश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १४॥

 

वसु च मे वसतिश्च मे कर्म च मे शक्तिश्च मेऽर्थश्च मे एमश्च मे

इत्या च मे गतिश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १५॥

 

अग्निश्च मे इन्द्रश्च मे सोम॑श्च मे इन्द्रश्च मे सविता च मे इन्द्रश्च मे सरस्वती च मे

इन्द्रश्च मे पूषा च मे इन्द्रश्च मे बृहस्पतिश्च मे इन्द्रश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १६॥

 

मित्रश्च मे इन्द्रश्च मे वरुणश्च मे इन्द्रश्च मे धाता च मे इन्द्रश्च मे त्वष्टा च मे

इन्द्रश्च मे मरुतश्च मे इन्द्रश्च मे विश्वेदेवाश्च च मे इन्द्रश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १७॥

 

पृथिवी च मे इन्द्रश्च मे अन्तरिक्षं च मे इन्द्रश्च मे द्यौश्च मे इन्द्रश्च मे समाश्च मे

इन्द्रश्च मे नक्षत्राणि च मे इन्द्रश्च मे दिशश्च मे इन्द्रश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १८॥

 

अंशुश्च मे रश्मिश्च मेऽदाभ्यश्च मेऽधिपतिश्च मेऽउपांशुश्च मेऽन्तर्यामश्च मे

ऐन्द्रवायवश्च मे मैत्रावरुणश्च मे आश्विनश्च मे प्रतिप्रस्थानश्च मे शुक्रश्च मे

मन्थी च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १९॥

 

आग्रयणश्च मे वैश्वदेवश्च मे ध्रुवश्च मे वैश्वानरश्च मे

ऐन्द्राग्नश्च मे मुहावैश्वदेवश्च मे मरुत्वतीयाश्च मे

निष्केवल्यश्च मे सावित्रश्च मे सारस्वतश्च मे पात्क्नीवतश्च मे

हारियोजनश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २०॥

 

स्रुचश्च मे चमसाश्च मे वायव्यानि च मे द्रोणकलशश्च मे ग्रावाणश्च

मेऽधिषवणे च मे पतभृच्च मे आधवनीय॑श्च मे वेदिश्च मे बर्हिश्च मेऽवभृथश्च मे

स्वगाकारश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २१॥

 

अग्निश्च मे घर्मश्च मेऽर्कश्च मे सूर्यश्च मे प्राणश्च मेऽश्वमेधश्च मे पृथिवी च

मेदितिश्च मेऽदितिश्च मे द्यौश्च मेऽङ्गुलय शक्वरयो दिशश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २२॥

 

व्रतं च मे ऋतवश्च मे तपश्च मे संवत्सरश्च मेऽहोरात्रे ऊर्वष्ठीवे

बृहद्रथन्तरे च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २३॥

 

एका च मे तिस्रश्च मे तिस्रश्च मे पञ्च च मे पञ्च च मे सप्त च मे सप्त च मे

नव च मे नव च मे एकादश च मे एकादश च मे त्रयोदश च मे त्रयोदश च मे

पञ्चदश च मे पञ्चदश च मे सप्तदश च मे सप्तदश च मे नवदश च मे नवदश च म

एकविंशतिश्च मे एकविंशतिश्च मे त्रयोविंशतिश्च मे त्रयोविंशतिश्च मे पञ्चविंशति च मे

पञ्चविंशतिश्च मे सप्तविंशतिश्च मे सप्तविंशतिश्च मे नवविंशतिश्च मे नवविंशतिश्च मे

एकत्रिंशच्च म एकत्रिंशच्च मे त्रयस्त्रिंशच्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २४॥

 

भावार्थः रुद्राष्टाध्यायी – आठवां अध्याय

अन्न, अन्नदान की अनुज्ञा, शुद्धि, अन्न-भक्षण की उत्कण्ठा, श्रेष्ठ संकल्प, सुन्दर शब्द, स्तुति-सामर्थ्य, वेदमन्त्र अथवा श्रवणशक्ति, ब्राह्मण, प्रकाश और स्वर्ग – ये सब मेरे द्वारा किए गए यज्ञ के फल के रुप में मुझे प्राप्त हों।

प्राणवायु, अपानवायु, सारे शरीर में विचरण करने वाला व्यानवायु, मनुष्यों को प्रवृत्त करने वाला वायु, मानससंकल्प, बाह्यविषयसंबंधी ज्ञान, वाणी, शुद्ध मन, पवित्र दृष्टि, सुनने की सामर्थ्य, ज्ञानेन्द्रियों का कौशल तथा कर्मेन्द्रियों में बल – ये सब मेरे द्वारा किए गए यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।

बल का कारणभूत ओज, देहबल, आत्मज्ञान, सुन्दर शरीर, सुख, कवच, हृष्ट-पुष्ट अंग, सुदृढ़ हड्डियाँ, सुदृढ़ अंगुलियाँ, नीरोग शरीर, जीवन और वृद्धावस्थापर्यन्त आयु – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।

प्रशस्तता, प्रभुता, दोषों पर कोप, अपराध पर क्रोध, अपरिमेयता, शीतल-मधुर जल, जीतने की शक्ति, प्रतिष्ठा, संतान की वृद्धि, गृह-क्षेत्र आदि का विस्तार, दीर्घ जीवन, अविच्छिन्न वंश परंपरा, धन-धान्य की वृद्धि और विद्या आदि गुणों का उत्कर्ष – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।

यथार्थ भाषण, परलोक पर विश्वास, गौ आदि पशु, सुवर्ण आदि धन, स्थावर पदार्थ, कीर्ति, क्रीड़ा, क्रीड़ादर्शन – जनित आनन्द, पुत्र से उत्पन्न संतान, होने वाली संतान, शुभदायक ऋचाओं का समूह और ऋचाओं के पाठ से शुभ फल – ये सब मेरे द्वार किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।

यज्ञ आदि कर्म और उनका स्वर्ग आदि फल, धातुक्षय आदि रोगों का अभाव तथा सामान्य व्याधियों का न रहना, आयु बढ़ाने वाले साधन, दीर्घायु, शत्रुओं का अभाव, निर्भयता, सुख, सुसज्जित शय्या, संध्या-वंदन से युक्त प्रभात और यज्ञ-दान-अध्ययनआदि से युक्त दिन – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।

अश्व आदि का नियन्तृत्व और प्रजा पालन की क्षमता, वर्तमान धन की रक्षणशक्ति, आपत्ति में चित्त की स्थिरता, सबकी अनुकूलता, पूजा-सत्कार, वेदशास्त्र आदि का ज्ञान, विज्ञान-सामर्थ्य, पुत्र आदि को प्रेरित करने की क्षमता, पुत्रोत्पत्ति आदि के लिए सामर्थ्य, हल आदि के द्वारा कृषि से अन्न-उत्पादन और कृषि में अनावृष्टि आदि विघ्नों का विनाश – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।

इस लोक का सुख, परलोक का सुख, प्रीति-उत्पादक वस्तु, सहज यत्नसाध्य पदार्थ, विषयभोगजनित सुख, मन को स्वस्थ करने वाले बन्धु-बान्धव, सौभाग्य, धन, इस लोक का और परलोक का कल्याण, धन से भरा निवासयोग्य गृह तथा यश – ये सब मेरे द्वारा किये गये इस यज्ञ के फल के रुप में मुझे प्राप्त हों। अन्न, सत्य और प्रिय वाणी, दूध, दूध का सार, घी, शहद, बान्धवों के साथ खान-पान, धान्य की सिद्धि, अन्न उत्पन्न होने के कारण अनुकूल वर्षा, विजय की शक्ति तथा आम आदि वृक्षों की उत्पत्ति – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।

सुवर्ण, मौक्तिक आदि मणियाँ, धन की प्रचुरता, शरीर की पुष्टि, व्यापकता की शक्ति, ऎश्वर्य, धन-पुत्र आदि की बहुलता, हाथी-घोड़ा आदि की अधिकता, कुत्सित धान्य, अक्षय अन्न, भात आदि सिद्धान्न तथा भोजन पचाने की शक्ति – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।

पूर्वप्राप्त धन, प्राप्त होने वाला धन, पूर्वप्राप्त क्षेत्र आदि, भविष्य में प्राप्त होने वाले क्षेत्र आदि, सुगम्य देश, परम पथ्य पदार्थ, समृद्ध यज्ञ-फल, यज्ञ आदि की समृद्धि, कार्यसाधक अपरिमित धन, कार्य साधन की शक्ति, पदार्थ मात्र का निश्चय तथा दुर्घट कार्यों का निर्णय करने की बुद्धि – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।

उत्कृष्ट कोटि के धान्य, यव, उड़द, तिल, मूँग, चना, प्रियंगु, चीनक धान्य, सावाँ, नीवार, गेहूँ और मसूर – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों. सुन्दर पाषाण और श्रेष्ठ मूर्त्तिका, गोवर्धन आदि छोटे पर्वत, हिमालय आदि विशाल पर्वत, रेतीली भूमि, वनस्पतियाँ, सुवर्ण, लोहा, ताँबा, काँसा, सीसा तथा राँगा – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।

पृथ्वी पर अग्नि की तथा अन्तरिक्ष में जल की अनुकूलता, छोटे-छोटे तृण, पकते ही सूखने वाली औषधियाँ, जोतने-बोने से उत्पन्न होने वाले तथा बिना जोते-बोए स्वयं उत्पन्न होने वाले अन्न, गाय-भैंस आदि ग्राम्य पशु तथा हाथी-सिंह आदि जंगली पशु, पूर्वलब्ध तथा भविष्य में प्राप्त होने वाला धन, पुत्र आदि तथा ऎश्वर्य – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।

गो आदि धन, रहने के लिए सुन्दर घर, अग्निहोत्र आदि कर्म तथा उनके अनुष्ठान की सामर्थ्य, इच्छित पदार्थ, प्राप्तियोग्य पदार्थ, इष्टप्राप्ति का उपाय एवं इष्टप्राप्ति – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों। अग्नि और इन्द्र, सोम तथा इन्द्र, सविता और इन्द्र, सरस्वती तथा इन्द्र, पूषा तथा इन्द्र, बृहस्पति और इन्द्र – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों। मित्रदेव एवं इन्द्र, वरुण तथा इन्द्र, धाता और इन्द्र, त्वष्टा तथा इन्द्र, मरुद्गण और इन्द्र, विश्वेदेव और इन्द्र – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रुप में मुझे प्राप्त हों।

पृथ्वी और इन्द्र, अन्तरिक्ष एवं इन्द्र, स्वर्ग तथा इन्द्र, वर्ष की अधिष्ठात्री देवता तथा इन्द्र, नक्षत्र और इन्द्र, दिशाएँ तथा इन्द्र – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।

अंशु, रश्मि, अदाभ्य, निग्राह्य, उपांशु, अन्तर्याम, ऎन्द्रवायव, मैत्रावरुण, आश्विन, प्रतिप्रस्थान, शुक्र और मन्थी – ये सभी मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।

आग्रयण, वैश्वदेव, ध्रुव, वैश्वानर, ऎन्द्राग्न, महावैश्वदेव, मरुत्त्वतीय, निष्केवल्य, सावित्र, सारस्वत, पात्नीवत एवं हारियोजन – ये यज्ञग्रह मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।

स्रुक्, चमस, वायव्य, द्रोणकलश, ग्रावा, काष्ठफलक, पूतभृत्, आधवनीय, वेदी, कुशा, अवभृथ और शम्युवाक – ये सब यज्ञपात्र मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।

अग्निष्टोम, प्रवर्ग्य, पुरोडाश, सूर्यसंबंधी चरु, प्राण, अश्वमेधयज्ञ, पृथ्वी, अदिति, दिति, द्युलोक, विराट् पुरुष के अवयव, सब प्रकार की शक्तियाँ और पूर्व दिशाएँ – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।

व्रत, वसन्त आदि ऋतुएँ, कृच्छ्र-चान्द्रायण आदि तप, प्रभव आदि संवत्सर, दिन-रात, जंघा तथा जानु – ये शरीरावयव और बृहद् तथा रथन्तर साम – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।

एक और तीन, तीन तथा पाँच, पाँच और सात, सात तथा नौ, नौ तथा ग्यारह, ग्यारह और तेरह, तेरह और पंद्रह, पंद्रह तथा सत्रह, सत्रह तथा उन्नीस, उन्नीस और इक्कीस, इक्कीस तथा तीईस, तेईस और पच्चीस, पच्चीस तथा सत्ताईस, सत्ताईस तथा उनतीस, उनतीस और इकतीस, इकतीस तथा तैंतीस – इन सब संख्याओं से कहे जाने वाले सकल श्रेष्ठ पदार्थ मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।

चार तथा आठ, आठ और बारह, बारह तथा सोलह, सोलह और बीस, बीस और चौबीस, चौबीस तथा अट्ठाईस, अठ्ठाईस और बत्तीस, बत्तीस तथा छत्तीस, छत्तीस और चालीस, चालीस तथा चवालीस, चवालीस तथा अड़तालीस – इन सब संख्याओं से कहे जाने वाले सकल श्रेष्ठ पदार्थ मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।

डेढ़ वर्ष का बछड़ा, डेढ़ वर्ष की बछिया, दो वर्ष का बछड़ा, दो वर्ष की बछिया, ढ़ाई वर्ष का बैल, ढ़ाई वर्ष की गाय, तीन वर्ष का बैल तथा तीन वर्ष की गाय, साढ़े तीन वर्ष का बैल और साढ़े तीन वर्ष की गाय – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों।

चार वर्ष का बैल, चार वर्ष की गाय, सेचन में समर्थ वृषभ, वन्ध्या गाय, तरुण वृषभ, गर्भघातिनी गाय, भार वहन करने में समर्थ बैल तथा नवप्रसूता गाय – ये सब मेरे द्वारा किए गए इस यज्ञ के फल के रूप में मुझे प्राप्त हों। प्रचुर अन्न की उत्पत्ति करने वाले अन्नरूप चैत्र मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, वैशाख मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, जल-क्रीडा में सुखदायक ज्येष्ठ मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, यागरूप आषाढ़ मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, चातुर्मास्य में यात्रा का निषेध करने वाले श्रावण मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, दिन के स्वामी सूर्यरूप भाद्रपद मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, तुषार आदि से मोहकारक दिवस वाले आश्विन (क्वार) – मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, स्नान आदि से प्राणियों का पाप नाश करने के कारण मोहनिवर्तक तथा दिनमान के थोड़ा घटने विनाशशील कार्तिक मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, सम्पूर्ण सृष्टि के विनाश के बाद भी विद्यमान रहने वाले अविनाशी विष्णुरूप मार्गशीर्ष (अगहन) मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, अन्त में स्थित रहने वाले तथा प्राणियों के पोषक पौष मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है, सम्पूर्ण लोकों के पालकरूप माघ मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है और सभी प्राणियों के लिए सर्वाधिक पालक फाल्गुन मास के लिए यह श्रेष्ठ आहुति समर्पित है।

बारहों मासों के अधिष्ठातृदेव प्रजापति के लिए यह श्रेष्ठ आहुति दी जाती है। हे प्रजापतिस्वरुप अग्निदेव! यह यज्ञस्थान आपका राज्य है, अग्निष्टोम आदि कर्मों में सबके नियन्ता आप मित्ररूप इस यजमान के प्रेरक हैं। अधिक अन्न आदि की प्राप्ति के लिए मैं आपका अभिषेक करता हूँ, वर्षा के लिए मैं आपका अभिषेक करता हूँ और प्रजाओं पर प्रभुता-प्राप्ति के लिए मैं आपका अभिषेक करता हूँ।

यज्ञ के फल से मेरी आयु में वृद्धि हो, यज्ञ के फलस्वरुप मेरे प्राण बलिष्ठ हों, यज्ञ के फलस्वरुप नेत्रों की ज्योति बढ़े, यज्ञ के फल से श्रवणशक्ति उत्कृष्टता को प्राप्त हो, यज्ञ के फल से वाणी में श्रेष्ठता रहे, यज्ञ के फलस्वरुप मन सदा स्वच्छ रहे, यज्ञ के फलस्वरुप आत्मा बलवान हो, यज्ञ के फलस्वरुप सभी वेद मेरे ऊपर प्रसन्न रहें, इस यज्ञ के फलस्वरुप मुझे परमात्मा की दिव्य ज्योति प्राप्त हो, यज्ञ के फलस्वरुप स्वर्ग की प्राप्ति हो, यज्ञ के फलस्वरुप संसार का सर्वश्रेष्ठ सुख प्राप्त हो, यज्ञ के फलस्वरुप महायज्ञ करने की सामर्थ्य प्राप्त हो, त्रिवृत्पंचदश आदि स्तोम, यजुर्मन्त्र, ऋचाएँ, साम की गीतियाँ, बृहत्साम और रथन्तर साम – ये सब यज्ञ के फल से मेरे ऊपर अनुग्रह करें, मैं यज्ञ के फल से देवत्व को प्राप्त कर स्वर्ग जाऊँ तथा अमर हो जाऊँ, यज्ञ के प्रसाद से हम हिरण्यगर्भ प्रजापति की प्रियतम प्रजा हों. समस्त देवताओं के निमित्त यह वसोर्धारा हवन सम्पन्न हुआ, ये सभी आहुतियाँ उन्हें भली-भाँति समर्पित हैं।

इति रुद्राष्टाध्यायी अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ।।

अथ रुद्राष्टाध्यायी नवमोऽध्यायः

 

ऋचं वाचं प्रपद्ये मनो यजुः प्रपद्ये सामप्राणं प्रपद्ये चक्षुः श्रोत्रं प्रपद्ये ॥

 

वागोजः सहौजो मयि प्राणापानौ ॥ १॥

 

यन्मे छिद्रं चक्षुषो हृदयस्य॒ मनसो वाऽतितृणं म्बृहस्पतिर्मे दधातु ॥

 

शं नो भवतु भुवनस्य यः पतिः ॥ २॥

 

भूर्भुवः स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ॥ धियो यो नः प्रचोदयात् ॥ ३॥

 

कया नश्चित्र आभुवदूतीः सदावृधः सखा । कया शचिष्ठया वृता ॥ ४॥

 

कस्त्वा । सत्यो दानां महिष्ठो मत्सदन्धसः ॥ दृढाचिदारुजे वसु ॥ ५॥

 

अभीषुणः सखीनामधिता जरितृणाम् ॥ शतं भवास्यूतिभिः ॥ ६॥

 

कया त्वं न ऊत्याऽभिप्रमन्दसे वृषन् । कया स्तोतृभ्यः आभर ॥ ७॥

 

इन्द्रो विश्वस्य राजति ॥ शं नोऽअस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे ॥ ८॥

 

शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्वर्यमा ॥ शं न इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो विष्णुरुरुक्रमः ॥ ९॥

 

शं नो वातः पवतां शं नस्तपतु सूर्यः ॥ शं नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्योऽभिवर्षतु ॥ १०॥

 

अहानि शं भवन्तु नः शं-रात्रीः प्रतिधीयताम् ॥

 

शं न इन्द्राग्री भवतामवोभिः शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या ॥

 

शं न इन्द्रापूषणा वाजसातौ शं इन्द्रासोमा सुविताय शं योः ॥ ११॥

 

शं नो देवीरभिष्टये आपो भवन्तु पीतये ॥

 

शं योरभिस्रवन्तु नः ॥ १२॥

 

स्योना पृथिवि नो भवानुक्षरा निवेशनी ॥ यच्छा नः शर्म सप्रथाः ॥ १३॥

 

आपो हिष्ठामयोभुवस्ताः नः ऊर्जे दधातन ॥ महे रणाय चक्षसे ॥ १४॥

 

यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह न उशतीरिव मातर ः ॥ १५॥

 

तस्मै अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ ॥ आपो जनयथा च नः ॥ १६॥

 

द्यौः शान्तिरन्तरिक्षः शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः ॥

 

वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः

सा मा शान्तिरेधि ॥ १७॥

 

दृते-दृंह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ॥

 

मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे ॥ मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ॥ १८॥

 

दृते-दृंह मा । ज्योक्ते सन्दृशि जीव्यासं ज्योक्ते सन्दृशि जीव्यासम् ॥ १९॥

 

नमस्ते हरसे शोचिषे नमस्तेऽस्त्वर्चिषे ॥ अन्याँस्तेऽस्मत्तपन्तु हेतयः पावकोऽस्मभ्यं शिवो भव ॥ २०॥

 

नमस्ते । अस्तु विद्युते नमस्ते स्तनयित्नवे ॥ नमस्ते भगवन्नस्तु- यतः स्वः समीहसे ॥ २१॥

 

यतो यतः समीहसे ततो नोऽभयं कुरु ॥

 

शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः ॥ २२॥

 

सुमित्रिया न आपः ओषधयः सन्तु दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान्द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः ॥ २३॥

 

तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् ॥ पश्येम शरदः शतं ज्जीवेम शरदः-शतं

श्रृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्व शरदः शतात् ॥ २४॥

 

भावार्थः रुद्राष्टाध्यायी – शान्त्यध्याय

मैं ऋचारूप वाणी की शरण लेता हूँ, मैं यजु:स्वरूप मन की शरण लेता हूँ, मैं प्राणरूप साम की शरण लेता हूँ और मैं चक्षु-इन्द्रिय तथा श्रोत्र-इन्द्रिय की शरण लेता हूँ. वाक् – शक्ति, शारीरिक बल और प्राण-अपानवायु – ये सब मुझ में स्थिर हों. मेरे नेत्र तथा हृदय की जो न्यूनता है और मन की जो व्याकुलता है, उसे देवगुरु बृहस्पति दूर करें अर्थात यज्ञ करते समय मेरे नेत्र, हृदय तथा मन से जो त्रुटि हो गई है, उसे वे क्षमा करें। सम्पूर्ण भुवन के जो अधिपतिरूप भगवान यज्ञपुरुष हैं, वे हमारे लिए कल्याणकारी हों।

उन प्रकाशात्मक जगत्स्रष्टा सविता देव के भूर्लोक, भुवर्लोक तथा स्वर्लोक में व्याप्त रहने वाले परब्रह्मात्मक सर्वोतम तेज का हम ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धियों को सत्कर्मों के अनुष्ठान हेतु प्रेरित करें. सदा सबको समृद्ध करने वाला आश्चर्यरूप परमेश्वर किस तर्पण या प्रीति से तथा किस वर्तमान याग-क्रिया से हमारा सहायक होता है अर्थात हम कौन-सी उत्तम क्रिया करें और कौन-सा शोभन कर्म करें, जिससे परमात्मा हमारे सहायक हों और अपनी पालन शक्ति द्वारा हमारे वृद्धिकारी सखा हों।

हे परमेश्वर ! मदजनक हवियों में श्रेष्ठ सोमरुप अन्न का कौन-सा अंश आपको सर्वाधिक तृप्त करता है? आपकी इस प्रसन्नता में दृढ़ता से रहने वाले हम भक्तजन अपने धन आदि के साथ उसे आपको समर्पित करते हैं। हे परमेश्वर ! आप मित्रों के तथा स्तुति करने वाले हम ऋत्विजों के पालक हैं और हम भक्तों की रक्षा के लिए भली-भाँति अभिमुख होकर आप अनन्त रूप धारण करते हैं. हे इन्द्र ! आप किस तृप्ति अथवा हविदान से हमें प्रसन्न करते हैं? और किस दिव्यरूप को धारण कर स्तुति करने वाले हम उपासकों की सारी अभिलाषाओं को पूरा करते हैं?

सबके स्वामी परमेश्वर चारों तरफ प्रकाशमान हैं. वे हमारे पुत्र आदि के लिए कल्याणरूप हों, वे हमारे गौ आदि पशुओं के लिए सुखदायक हों। मित्रदेवता हमारे लिए कल्याणमय हों, वरुणदेवता हमारे लिए कल्याणकारी हों, अर्यमा हमारे लिए कल्याणप्रद हों, इन्द्र देवता हमारे लिए कल्याणमय हों, बृहस्पति हमारे लिए कल्याणकारी हों तथा विस्तीर्ण पादन्यास वाले विष्णु हमारे लिए कल्याणमय हों। वायुदेव हमारे लिए सुखकारी होकर बहें, सूर्यदेव हमारे निमित्त सुखरूप होकर तपें और पर्जन्य देवता शब्द करते हुए हमारे निमित्त सुखदायक वर्षा करें।

दिन हमारे लिए सुखकारी हों, रात्रियाँ हमारे लिए सुखरूप हों, इन्द्र और अग्नि देवता हमारी रक्षा करते हुए सुखरूप हों, हवि से तृप्त इन्द्र और वरुण देवता हमारे लिए कल्याणकारी हों, अन्न की उत्पत्ति करने वाले इन्द्र और पूषा देवता हमारे लिए सुखकारी हों एवं इन्द्र और सोम देवता श्रेष्ठ गमन अथवा श्रेष्ठ उत्पत्ति के निमित्त और रोगों का नाश करने के लिए तथा भय दूर करने के लिए हमारे लिए कल्याणकारी हों। दीप्तिमान जल हमारे अभीष्ट स्नान के लिए सुखकर हो, पीने के लिए स्वादिष्ट तथा स्वास्थ्यकारी हो, यह जल हमारे रोग तथा भय को दूर करने के लिए निरन्तर प्रवाहित होता रहे।

हे पृथिवि ! निष्कण्टक सुख में स्थित रहने वाली तथा अति विस्तारयुक्त आप हमारे लिए सुखकारी बनें और हमें शरण प्रदान करें। हे जलदेवता ! आप जल देने वाले हैं और सुख की भावना करने वाले व्यक्ति के लिए स्नान-पान आदि के द्वारा सुख के उत्पादक हैं। हमारे रमणीय दर्शन और रसानुभव के निमित्त यहाँ स्थापित हो जाइए। हे जल देवता ! आपका जो शान्तरुप सुख का एकमात्र कारण रस इस लोक में स्थित है। हमको उस रस का भागी उसी तरह से बनाएँ जैसे प्रीतियुक्त माता अपने बच्चे को दूध पिलाती है।

हे जल देवता ! आपके उस रस की प्राप्ति के लिए हम शीघ्र चलना चाहते हैं, जिसके द्वारा आप सारे जगत को तृप्त करते हैं, और हमें भी उत्पन्न करते हैं। द्युलोकरूप शान्ति, अन्तरिक्षरूप शान्ति, भूलोकरूप शान्ति, जलरूप शान्ति, औषधिरूप शान्ति, वनस्पतिरूप शान्ति, सर्वदेवरुप शान्ति, ब्रह्मरूप शान्ति, सर्वजगत-रूप शान्ति और संसार में स्वभावत: जो शान्ति रहती है, वह शान्ति मुझे परमात्मा की कृपा से प्राप्त हो। हे महावीर परमेश्वर ! आप मुझको दृढ़ कीजिए, सभी प्राणी मुझे मित्र की दृष्टि से देखें, मैं भी सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखूँ और हम लोग परस्पर द्रोहभाव से सर्वथा रहित होकर सभी को मित्र की दृष्टि से देखें।

हे भगवन ! आप मुझे सब प्रकार से दृढ़ बनाएँ। आपके संदर्शन में अर्थात आपकी कृपा दृष्टि से मैं दीर्घ काल तक जीवित रहूँ। हे अग्निदेव ! सब रसों को आकर्षित करने वाली आपकी तेजस्विनी ज्वाला को नमस्कार है, आपके पदार्थ-प्रकाशक तेज को नमस्कार है। आपकी ज्वालाएँ हमें छोड़कर दूसरों के लिए तापदायक हों और आप हमारा चित्त-शोधन करते हुए हमारे लिए कल्याणकारक हों।

विद्युत रूप आपके लिए नमस्कार है, गर्जनारूप आपके लिए नमस्कार है, आप सभी प्राणियों को स्वर्ग का सुख देने की चेष्टा करते हैं, इसलिए आपके लिए नमस्कार है। हे परमेश्वर ! आप जिस रुप से हमारे कल्याण की चेष्टा करते हैं उसी रुप से हमें भयरहित कीजिए, हमारी संतानों का कल्याण कीजिए और हमारे पशुओं को भी भयमुक्त कीजिए। जल और औषधियाँ हमारे लिए कल्याणकारी हों और हमारे उस शत्रु के लिए वे अमंगलकारी हों, जो हमारे प्रति द्वेषभाव रखता है अथवा हम जिसके प्रति द्वेषभाव रखते हैं।

देवताओं द्वारा प्रतिष्ठित, जगत के नेत्रस्वरुप तथा दिव्य तेजोमय जो भगवान आदित्य पूर्व दिशा में उदित होते हैं उनकी कृपा से हम सौ वर्षों तक देखें अर्थात सौ वर्षों तक हमारी नेत्र ज्योति बनी रहे, सौ वर्षों तक सुखपूर्वक जीवन-यापन करें, सौ वर्षों तक सुनें अर्थात सौ वर्षों तक श्रवणशक्ति से संपन्न रहें, सौ वर्षों तक अस्खलित वाणी से युक्त रहें, सौ वर्षों तक दैन्यभाव से रहित रहें अर्थात किसी के समक्ष दीनता प्रकट न करें. सौ वर्षों से ऊपर भी बहुत काल तक हम देखें, जीयें, सुनें, बोलें और अदीन रहें।

इति रुद्राष्टाध्यायी शान्त्यध्यायः ॥ ९ ।।

 

अथ रुद्राष्टाध्यायी दशमोऽध्यायः

 

ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥

 

स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ १॥

 

पयः पृथिव्यां पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः ।

पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम् ॥ २॥

 

विष्णो रराटमसि विष्णोः श्नप्त्रेस्थो विष्ष्णोः स्यूरसि विष्णोर्धृवोऽसि ॥

 

वैष्णवमसि वैष्णवे त्वा ॥ ३॥

 

अग्निर्देवता वातौ दे॒वता सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता वसवो देवता

रुद्रा देवताऽऽदित्या देवता मरुतो देवता विश्वेदेवा देवता बृहस्पतिर्देवतेन्द्रो देवता वरुणो देवता ॥ ४॥

 

सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः ॥ भवे भवे नातिभवे भवस्व मां भवोद्भयाय नमः ॥ ५॥

 

वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः कलविकरणाय नमः

बलविकरणाय नमो बलाय नमो बलप्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मनाय नमः ॥ ६॥

 

अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो धोरघोरतरेभ्यः । सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेऽस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥ ७॥

 

तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि । तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥ ८॥

 

ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानाम् ।

ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मेऽस्तु सदाशिवोऽम् ॥ ९॥

 

शिवोनामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽस्तु मां मा हिंसीः ॥

 

निवर्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोपाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय ॥ १०॥

 

विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव ॥ यद्भद्रं तन्न आसुव ॥ ११॥

 

द्यौः शान्तिरन्तरिक्षः शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधय शान्ति ।

वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्मशान्तिः सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सामाशान्तिरेधि ॥ १२॥

भावार्थः रुद्राष्टाध्यायी – स्वस्तिप्रार्थनामन्त्राध्याय

महती कीर्ति वाले ऎश्वर्यशाली इन्द्र हमारा कल्याण करें, सर्वज्ञ तथा सबके पोषणकर्ता पूषादेव (सूर्य) हमारे लिए मंगल का विधान करें. चक्रधारा के समान जिनकी गति को कोई रोक नहीं सकता, वे तार्क्ष्यदेव हमारा कल्याण करें और वेदवाणी के स्वामी बृहस्पति हमारे लिए कल्याण का विधान करें। हे अग्निदेव ! आप हमारे लिए पृथ्वी पर रस धारण कीजिए, औषधियों में रस डालिए, स्वर्गलोक तथा अन्तरिक्ष में रस स्थापित कीजिए, आहुति देने से सारी दिशाएँ और विदिशाएँ मेरे लिए रस से परिपूर्ण हो जाएँ।

हे दर्भमालाधार वंश ! तुम यज्ञरूप विष्णु के ललाटस्थानीय हो. हे ललाट के प्रान्तद्वय ! तुम दोनों यज्ञरूप विष्णु के ओष्ठसन्धिरूप हो. हे बृहत-सूची ! तुम यज्ञीय मण्डप की सूची हो. हे ग्रंथि ! तुम यज्ञीय विष्णुरुप मण्डप की मजबूत गाँठ हो। हे हविर्धान ! तुम विष्णुसंबंधी हो, इस कारण विष्णु की प्रीति के लिए तुम्हारा स्पर्श करता हूँ। दोनों हविर्धानों (शकटों) को दक्षिणोत्तर स्थापित करके उनके ढक्कनों का मण्डप बनाएँ। हविर्धान-मण्डप के पूर्वद्वारवर्ती स्तम्भ के मध्य मंत कुशों की माला गूँथे।

अग्नि देवता, वायु देवता, सूर्य देवता, चन्द्र देवता, वसु देवता, रुद्र देवता, आदित्य देवता, मरुत् – देवता, विश्वेदेव देवता, बृहस्पति देवता, इन्द्र देवता और वरुण देवता का स्मरण करके मैं इस इष्टका को स्थापित करता हूँ। मैं “सद्योजात” नामक परमेश्वर की शरण लेता हूँ। पश्चिमाभिमुख भगवान सद्योजात के लिए प्रणाम हैं। हे रुद्रदेव ! अनेक बार जन्म लेने हेतु मुझे प्रेरित मत कीजिए, किंतु जन्म से दूर करने के निमित्त मुझे तत्त्वज्ञान के लिए प्रेरणा प्रदान कीजिए। संसार के उद्धारकर्ता सद्योजात के लिए नमस्कार है।

उत्तराभिमुख वामदेव के लिए नमस्कार है। उन्हीं के विग्रहस्वरुप ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, रुद्र, काल, कलविकरण, बलविकरण, बल, बलप्रमथन, सर्वभूतदमन तथा मनोन्मन – इन महादेव की पीठाधिष्ठित शक्तियों के स्वामियों को नमस्कार है। दक्षिणाभिमुख सत्त्वगुणयुक्त “अघोर” नामक रुद्रदेव के लिए प्रणाम है। इसी प्रकार राजसगुणयुक्त “घोर” तथा तामसगुणयुक्त “घोरतर” नामक रुद्र के लिए प्रणाम है। हे शर्व ! आपके रुद्र आदि सभी रूपों के लिए नमस्कार है।

हम लोग उस पूर्वाभिमुख “तत्पुरुष” महादेव को गुरु तथा शास्त्रमुख से जानते हैं, ऎसा जानकर हम उन महादेव का ध्यान करते हैं, इसलिए वे रुद्र हमको ज्ञान-ध्यान के लिए प्रेरित करें। उन ऊर्ध्वमुखी भगवान “ईशान” के लिए प्रणाम है जो वेदशास्त्रादि विद्या और चौंसठ कलाओं के नियामक, समस्त प्राणियों के स्वामी, वेद के अधिपति एवं हिरण्यगर्भ के स्वामी हैं। वे साक्षात ब्रह्मस्वरुप परमात्मा शिव हमारे लिए कल्याणकारी हों (अथवा उनकी कृपा से मैं भी सदाशिवस्वरुप हो जाऊँ) ।

हे क्षुर ! आपका नाम “शान्त” है। आपके पिता वज्र हैं। मैं आपके लिए नमस्कार करता हूँ। आप मुझे किसी प्रकार की क्षति मत पहुँचाइए। हे यजमान ! आपके बहुत दिनों तक जीवित रहने के लिए, अन्न भक्षण करने के लिए, संतति के लिए, द्रव्यवृद्धि के लिए तथा उत्तम अपत्य उत्पन्न होने के लिए और उत्तम सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए मैं आपका वपन (मुण्डन) करता हूँ। हे सूर्यदेव ! आप मेरे सभी पापों को दूर कीजिए और जो कुछ भी मेरे लिए कल्याणकारी हो, उसे मुझे प्राप्त कराइए।

द्युलोकरूप शान्ति, अन्तरिक्षरुप शान्ति, भूलोकरूप शान्ति, जलरुप शान्ति, औषधिरुप शान्ति, वनस्पतिरुप शान्ति, सर्वदेवरुप शान्ति, ब्रह्मरुप शान्ति, सर्वजगत्-रूप शान्ति और संसार में स्वभावत: जो शान्ति रहती है, वह शान्ति मुझे परमात्मा की कृपा से प्राप्त हो। सभी वेदों का तत्त्वस्वरुप रस, जो सामवेद अथवा भगवान साम (भगवान विष्णु या कृष्ण – “वेदानां सामवेदोsस्मि”) हैं, वे अपने उसी सामरस से समस्त वेदों का अभिसिंचन करते हैं।

इति रुद्राष्टाध्यायी दशमोऽध्यायः ॥

।। अनेन रुद्राभिषेककर्मणा भवानीशङ्करः प्रीयतां न मम इति रुद्राष्टाध्यायी समाप्त ॥

इस प्रकार रुद्राष्टाध्यायी सम्पूर्ण हुआ ।।

इति श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी समाप्ता ।

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