रुद्रयामल तंत्र पटल १९ , Rudrayamal Tantra Patal 19, रुद्रयामल तंत्र उन्नीसवाँ पटल

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रुद्रयामल तंत्र पटल १९ में प्रश्न चक्र के मध्य षडाधार के भेदन का वर्णन है। फिर निर्विकल्पादि साधनभूत कालचक्र के फल का निर्देश है। फिर आज्ञाचक्र के ऊपर स्थित प्रश्नचक्र के विषय मे फल बताए गए है । काल ही मृत्यु को देने वाला है और उस काल की सुक्ष्मगति का ज्ञान इसी चक्र से होता है। ग्रह, नक्षत्र एवं राशियों से सम्पृक्त प्रश्न की व्यवस्था की गई है। वर्ग में किए गए प्रश्न में इच्छा सिद्धि तथा खेचरी मेलन होता है। तवर्ग में किए गए प्रश्न से दीर्घजीवन और इन्द्र के समान ओजस्विता होती है और प वर्ग में प्रश्न से परमस्थान की प्राप्ति होती है ।

रुद्रयामल तंत्र पटल १९           

रुद्रयामल तंत्र उन्नीसवाँ पटल – सिद्धिविधान

रुद्रयामल तंत्र ऊनविंशः पटलः – प्रश्नादिकथने सिद्धिविधानम्

प्रश्नचक्रस्वरूपकथनम्

रूद्रयामल तंत्र शास्त्र

प्रश्नादिकथने सिद्धिविधानम्

आनन्दभैरवी उवाच

इदं तु श्रुणु वक्ष्यामि सर्वतन्त्रागोपनम् ।

तत्सर्वं प्रश्नचक्रे च षडाधारस्य भेदनंम् ॥१॥

आनन्दभैरवी ने कहा — हे भैरव ! अब सर्वतन्त्रों के द्वारा गुप्त रहस्यों को कहती हूँ । वह सब प्रश्नचक्र में षडाधार का भेदन है ॥१॥

कालचक्रफलं तत्र निर्विकल्पादिसाधनम् ।

प्रश्नचक्रं कामरुपं चैतन्यं सर्वदात्मनोः ॥२॥

षड्‌मन्दिरे षट्‌कलापं कैवल्यसाधनादिकम् ।

नानाभोगं योगसिद्धिं हित्वा यो मन्त्रमाजपेत् ॥३॥

स भवेद्‍ देवताद्रोही कोटिकल्पेन सिध्यति ।

ह्रदि यस्य महाभक्तिः प्रतिभाति महोदया ॥४॥

क्षणादेव हि सिद्धिः स्यात् किं जपैर्मन्त्रसाधनैः ।

अतो भक्ति सदा कुर्याद्‌ देवताभावसिद्धयै ॥५॥

उस प्रश्न चक्र में निर्विकल्पादि साधन कालचक्र का फल है । प्रश्नचक्र कामरुप है और सर्वदा अपेक्षा आत्मा तथा आत्मीय शरीर को चेतना प्रदान करता है । षड्‍मन्दिर में षट्‍कलाप हैं कैवल्य साधनादि भी हैं । अनेक प्रकार के भोगों एवं योग सिद्धि का त्याग कर जो मन्त्र का जप करता है । वह देवताओं का द्रोही है, करोड़ों कल्पों में उसे सिद्धि प्राप्त होती है । किन्तु जिसके हृदय में महान् उदय वाली महाभक्ति भासित हो रही है उसे क्षणमात्र में सिद्धि मिल जाती है, जप एवं मन्त्र साधनों से क्या लाभ? अतः देवता में अपनी भावना सिद्धि के लिए सदैव देव भक्ति करनी चाहिए ॥२ – ५॥

भैरव उवाच

एतच्चक्रप्रसादेन को वा किं सिद्धिमाप्नुयात् ।

एतस्य भावनादिवे किं फलं भावनं शुभम् ॥६॥

भैरव ने कहा — हे भैरवि ! इस चक्र की कृपा से किसने कब सिद्धि प्राप्त की है, इस चक्र की भावना करने से कौन सा शुभ भावना वाला फल प्राप्त होता है ॥६॥

को वा प्रश्नादिकथने क्षमो भवति सुन्दरि ।

तत्प्रकारं विधानेन वद मे फलसिद्धये ॥७॥

हे सुन्दरि ! प्रश्नादि के कथन में कौन सक्षम है अतः फलसिद्धि के लिए आप उसके प्रकार को विधान पूर्वक कहिए ॥७॥

आनन्दभैरवी उवाच

यः करोति पूर्णहोमं पुत्रार्थं योगसिद्धये ।

कुण्डलीक्रमयोगेन पुनः पुनः क्रमेण च ॥८॥

एतच्चक्रार्थभावज्ञः स एव नात्र संशयः ।

यः करोति सदा नाथ वायुनिर्गमलक्षणम् ॥९॥

ऊर्ध्व संस्थाप्य विधिवद्‍ भावनां कुरुते नरः ।

स एव सिद्धिमाप्नोति सिद्धमार्गे(र्गे) न संशयः ॥१०॥

आनन्दभैरवी ने कहा — जो योगसिद्धि के लिए अथवा पुत्र के लिए कुण्डली के क्रम के योग से बारम्बार क्रमशः पूर्ण होम करता है वही इस चक्र के अर्थ के भाव को जानने वाला है, इसमें संशय नहीं । हे नाथ ! जो शरीर से वायु के निर्मम रुप लक्षण को करता रहता है और उसे ऊपर उठाकर विधिवत् इस चक्र की भावना करता है, वही सिद्धिमार्ग में सिद्धि प्राप्त करता है इसमें संशय नहीं ॥८ – १०॥

फलमेतद्‌भावनार्थं कामक्रोधादिवर्जितः ।

भावनाफलसिद्धयर्थं वायुसंयोगसंक्रमात् ॥११॥

लेपयित्वा शोधयित्वा मन्त्रयित्वा पुनः पुनः ।

धर्मधर्मविरोधेन सूक्ष्मवायुक्रमेण च ॥१२॥

प्राप्नोति महतीं सिद्धिमेतच्चक्रस्य तत्फलम् ।

फलञ्च द्विविधं प्रोक्तं स्थूलसूक्ष्मपरस्थितम् ॥१३॥

यह फल भावना के लिए कहा गया है, अतः काम क्रोधादि दोषों से विवर्जित हो इसकी भावना करनी चाहिए । भावना फल की सिद्धि के लिए धर्म पूर्वक अधर्म का विरोध करते हुए सूक्ष्म वायु के क्रम से लीपे शुद्ध करे बारम्बार मन्त्र का जप करे । तब साधक महती सिद्धि प्राप्त करता है, वही इस चक्र का फल है । प्रश्न चक्र के स्थूल और सूक्ष्म दो फल कहे गए हैं ॥११ – १३॥

स्थूलं त्यक्त्वा महासूक्ष्मे मनो याति यदा यदा ।

तदा हि महती सिद्धिरमरस्तत्क्षणाद्‍ भवेत् ॥१४॥

एकबारं भावयेद्यः सिद्धचक्रस्य वर्णकान् ।

तस्यैव भावसिद्धिः स्याद्‍ भावेन किं न सिद्धयति ॥१५॥

महद्‌भावं विना नाथ कः सिद्धिफलकग्रही ।

योगभ्रष्टः स्थूलफले परजन्मनि सिद्धिभाक्‍ ॥१६॥

जब जब मन स्थूल फल को त्याग कर सूक्ष्म में प्रवेश करे, तभी उसे महती सिद्धि प्राप्त होती है और साधक तत्क्षण अमर हो जाता है । जो एक बार भी सिद्धि चक्र के वर्णों का ध्यान करता है, उसी को भावसिद्धि प्राप्त होती है, क्योकि भाव सिद्धि से क्या नहीं प्राप्त होता? हे नाथ ! बिना महान् भाव के कौन सिद्धि के फल का आग्रही बन सकता है? स्थूल फल में भावना करने वाला योग भ्रष्ट हो जाता है उसे अन्य जन्म में सिद्धि मिलती है ॥१४ – १६॥

ऐहिके सिद्धिमाप्नोति सूक्ष्मफलक्रमेण च ।

यो जानाति सूक्ष्मफलं स योगी भवति ध्रुवम ॥१७॥

स एव प्रश्नकथने योग्यो साधकः ।

यः सूक्ष्मफलभोक्ता स्यात् क्रियागोपनतत्परः ॥१८॥

सूक्ष्म फल में भावना क्रम से साधक इसी जन्म में सिद्धि प्राप्त कर लेता है जो योगी सूक्ष्म फल को जानता है वह निश्चय ही योगी बन जाता है । जो सूक्ष्म फल का भोग करने वाला तथा अपनी क्रिया के गोपन में उद्यत रहता है  ऐसा साधक ही अपने प्रश्न कथन में योग्य होता है ॥१७ – १८॥

निरन्तरं प्रश्नचक्रं आज्ञाचक्रोपरि स्थितम् ।

विभाव्य कालसिद्धिः स्यात् सर्वज्ञो वेदपारगः ॥१९॥

कालज्ञानी च सर्वज्ञ इति तत्त्वार्थ निर्णयः ।

प्रश्नचक्रस्थितं वर्णं सूक्ष्मकालफलावहम् ॥२०॥

आज्ञा चक्र पर स्थित रहने वाले प्रश्न चक्र का निरन्तर ध्यान करने से काल सिद्धि होती है, वही सर्वज्ञ एवं वेदों का पारगामी हो जाता है । कालज्ञानी ही सर्वज्ञ है ऐसा तत्त्वार्थ का निर्णय है । प्रश्नचक्र में रहने वाले वे वे वर्ण सूक्ष्म काल के फलों को देने वाले हैं॥१९-२०

मनोरुपं दण्डभेदं मासभेदं सवर्गकम् ।

मनसो भ्रम एवं  हि काल एको न संशयः ॥२१॥

काल में दण्डादि (दण्ड, पल, विपल) तथा वर्ग सहित मास भेद (द्वादस मास भेद, कृष्ण पक्ष भेद, शुक्ल पक्ष भेद तथा सप्ताहादि भेद) मन के स्वरुप हैं, ये सभी मन के भ्रम हैं, वस्तुतः काल एक ही है इसमें संशय नहीं ॥२१॥

मृत्यु(त्युं)वशं करोत्येव कालज्ञानी स योगिराट्‌ ।

कालेन लीयते सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥२२॥

कालधीनमिंद विश्वं तस्मात् काल (लं) वशं नयेत् ।

तत्कालं सूक्ष्मनिलयं दुर्वाच्य प्रश्नकं श्रृणु ॥२३॥

काल ज्ञानी योगिराज है वह मृत्यु को भी अपने वश में कर लेता है एक काल ही ऐसा है जो समस्त चराचर जगत् को अपने में लीन कर लेता है । यह सारा जगत् कालाधीन है इसलिए काल को अपने वश में करना चाहिए। वह सूक्ष्म का निलय है । हे भैरव ! अब सर्वथा दुर्वाच्य कथन न करने योग्य, अर्थात् गुप्त प्रश्नों के विषय में सुनिए ॥२२ – २३॥

मेषं तुलाराशिमनुत्तमं सदा

वैशाखमासे फलसिद्धिकारणम् ।

कवर्गमावाप्य स्वरान् स एव

विभावयेत् स क्षितिनाथ आभवेत् ॥२४॥

मेष और तुला राशि सदैव श्रेष्ठ हैं, ये दोनों वैशाख मास में फलसिद्धि के कारण हैं जो इस राशि में क वर्ग तथा समस्त स्वरों को लिखकर भावना करता है, वह पृथ्वीपति बन जाता है ॥२४॥

आज्ञाचक्रोपरि ध्यात्वा सर्वचक्रं महाप्रभो ।

एकक्षणेन सिद्धिः स्यात् परभावेन हेतुना ॥२५॥

सिद्धेशचक्रचैतन्यं यो जानति महीतले ।

वाक्‌सिद्धिर्जायते मासाद्‌दिवारात्रिक्रमेण च ॥२६॥

हे महा प्रभो ! आज्ञाचक्र के ऊपर जो सर्वचक्र का ध्यान करता है उस पर (परमात्मा) में भावना के कारण एक क्षणमात्र में सिद्धि हो जाती है । हे भैरव ! जो इस पृथ्वी तल में सिद्धेशचक्र को महीने के नित्य दिन और रात के क्रम से चेतन करना जानता है, उसे वाक्सिद्धि प्राप्त हो जाती है ॥२५ – २६॥

वर्णमालासमाक्रान्तं राशिनक्षत्रसंयुतम् ।

ग्रहचक्रं भावयित्वा सर्वं जानाति साधकः ॥२७॥

च वर्गं वृषमीनस्थं कैशोरसिद्धिकारणम् ।

द्विमाससाधनादेव सर्वज्ञो भवति ध्रुवम् ॥२८॥

वर्णमालाओं से परिपूर्ण तथा राशियों एवं नक्षत्रों से युक्त ग्रहचक्र की भावना करने वाला साधक सब कुछ जानने में समर्थ हो जाता है। वृष तथा मीन राशि में रहने वाला च वर्ग किशोरावस्था में सिद्धि का कारण है, साधक दो मास पर्यन्त इसकी साधना से निश्चित रुप से सर्वज्ञ हो जाता है ॥२७ – २८॥

योगिनी खेचरी भूत्वा प्रयाति निकटे सताम् ।

ग्रहचक्रप्रसादेन जीवन्मुक्तस्तु साधकः ॥२९॥

यदि कर्म करोत्येव एकान्तचित्तनिर्मलः ।

तस्याऽसाध्यं त्रिभुवने न किञ्चिदपि वर्तते ॥३०॥

योगिनी, आकाश मण्डल से उन सज्जनों के पास जाती है । बहुत क्या कहें साधक ग्रहचक्र की कृपा से जीवन्मुक्त हो जाता है । यदि साधक निश्चित रुप से अपने चित्त को निर्मल कर कर्म करता है, तो उसे इस त्रिलोकी में कुछ भी असाध्य नहीं होता॥२९ – ३०॥

प्रश्नचक्र प्रसादेन सर्वे वै योगिनो भुवि ।

यदि योगी भवेद्‍ भूमौ तदा मोक्षवाप्नुयात् ॥३१॥

विना योगसाधनेन कः सिद्धो भूमिमण्डले ।

साधनेन विना सिद्धिः कस्य भक्तस्य जायते ॥३२॥

भक्तानां निकटे सर्वे प्रतिष्ठन्ति महर्षयः ।

अतो भक्ति सदा कुर्यात् सर्वधर्मान् विहाय च ॥३३॥

प्रश्न चक्र की कृपा होने पर इस भूमि में सभी योगी हो सकते हैं और यदि योगी बन जाये तो निश्चित ही उन्हें मुक्ति भी मिल सकती है। जब तक योग साधन न हो तब तक पृथ्वीमण्डल में कौन सिद्ध हो सकता है ? भला बिना योग साधन के किस भक्त को सिद्धि मिल सकती है ? महर्षि गण भक्तों के निकट ही निवास करते हैं । इसलिए समस्त धर्मों का त्याग कर सदैव भक्ति करनी चाहिए ॥३१ – ३३॥

तत्कालं भक्तिमाप्नोति प्रश्नचक्रप्रसादतः ।

तत्प्रकारं महाधर्मं को वक्तुं क्षम एव हि ॥३४॥

कञ्चित्तद्‌भावसारञ्च प्रश्नचक्रे वदाम्यहम् ।

चवर्गभावनादेव भक्तिं प्राप्नोति साधकः ॥३५॥

प्रश्नचक्र की कृपा होते ही तत्क्षण साधक भाक्ति प्राप्त कर लेता है उस प्रकार वाले महाधर्म को कहने में कौन समर्थ हो सकता है । इस प्रश्न चक्र में मैं उसके कुछ भावसार को कहती हूँ । साधक व वर्ग की भावना, मान से भक्ति प्राप्त कर लेता है ॥३४ – ३५॥

समाधाय परं देवमाज्ञाचक्रोपरि प्रभो ।

विभाव्य नित्यभावं हि प्राप्नोति तत्कुलाद(कलाम)पि ॥३६॥

आनन्दाश्रूणि पुलको देहावेशमनोलयम् ।

सर्वकर्म स्वयं-त्यागी यः करोति स योगिराट्‌ ॥३७॥

हे प्रभो ! आज्ञाचक्र पर परमात्मा को स्थापित कर उनकी नित्यता का ध्यान कर साधक उसकी कला को भी प्राप्त कर लेता है । उसके नेत्रों से आनन्दाश्रु प्रवाहित होते रहते हैं, शरीर में परमात्मा का आवेश होने लगता है, मन का लय हो जाता है, स्वयं सर्वकर्म का त्याग कर देता है, ऐसा जो करता है वह योगिराज बन जाता है ॥३६ – ३७॥

टवर्गे वासनासिद्धिः संसारहितो भवेत् ।

बलवान् सर्वविज्ञानी त्रिमासे खेचरो भवेत् ॥३८॥

खेचरीमेलनं तस्य परं प्राप्नोति चक्रतः ।

टवर्गं व्याप्य तिष्ठन्ति मिथुनं कुम्भयोनयः ॥३९॥

ट वर्ग में ध्यान करने से वासनासिद्धि होती है साधक संसार वासना से रहित हो जाता है, बलवान् एवं सर्वविज्ञानी बन जाता है, मात्र तीन महीने में वह खेचर (आकाशचारी) हो जाता है । उसे चक्र द्वारा खेचरी से मिलते ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है ट वर्ग को व्याप्त कर मिथुन तथा कुम्भराशियॉ स्थित रहती है ॥३८ – ३९॥

स्वनक्षत्रस्वयोगञ्च विभाव्य योगिराड्‍ भवेत् ।

चतुर्मासे पूर्णयोगी तवर्गसाधनादपि ॥४०॥

वेतालादिमहासिद्धिमिन्द्र सिद्धिं समाप्नुयात् ।

तवर्गं व्याप्य तिष्ठन्ति मकरवृश्चिककर्कटाः ॥४१॥

इस प्रकार उन राशियों पर अपने नक्षत्र से अपने को युक्त कर ध्यान करने से साधक योगिराज बन जाता है, तवर्ण की भी साधना करने से साधक चार मास मे पूर्ण योगी बन जाता है । ऐसा साधक वेतालादि महासिद्धियाँ तथा इन्द्र की भी सिद्धि प्राप्त कर लेता है । त वर्ग को व्याप्त कर मकर वृश्चिक एवं कर्क राशि स्थित रहते हैं ॥४० – ४१॥

चिरजीवी भवेदीश इन्द्रतुल्यप्रियो भवेत् ।

तिष्ठेत् प्रलयपर्यन्तं महाप्रलयरुपवान् ॥४२॥

हे ईश ! त वर्ग की भावना करने वाला चिरजीवी रहता है इन्द्र के समान सबको प्रिय हो जाता है । वह महाप्रलय का रुप धारण कर प्रलय पर्यन्त स्थित रहता है ॥४२॥

कृत्वा काल(लं)वशं महावायौ महालयम् ।

महाचक्रे सूर्यमध्ये वह्निमण्डलमध्यगे ॥४३॥

महाचक्र में स्थित सूर्य के मध्य में वह्नि मण्डल के मध्य में तथा महावायु में महालय करके मन्त्रज्ञ साधक काल को अपने वश में करे ॥४३॥

वाग्देवता तस्य साक्षादभवतीति न संशयः ।

पवर्गं व्याप्य तिष्ठन्ति धनुः सिंहास्तु चित्कलाः ॥४४॥

उसे वाग्देवता साक्षाद्रुप में दर्शन देते हैं इसमें संशय नहीं । प वर्ग को व्याप्त कर चित्कला से परिपूर्ण धनु तथा सिंह राशि स्थित रहते हैं ॥४४॥

विभाव्य परमस्थानं स (न) नश्यति महानिलम् ।

त्रैलोक्यमष्टवर्गं च षट्‌चक्रं चक्षुषा क्षणात् ॥४५॥

साधक त्रिलोकी, अष्टवर्ग, षट्‍चक्र तथा चक्षुरिन्द्रिय से महानिल का ध्यान कर स्वयं का नाश नहीं करता है॥४५॥

यदि वान्तं ब्रह्मरुपं सर्वतीर्थपदाश्रयम् ।

महासत्त्वगुणाक्रान्तं मत्वा निर्मलचक्षुषा ॥४६॥

कन्यावृश्चिकराशिभ्यां ब्रह्ममार्ग विलोकयेत् ।

षण्मासेन सिद्धिः स्याद्‍ महाकौलो भवेद्‌ ध्रुवम् ॥४७॥ 

फिर सम्पूर्ण तीर्थ पदों का आश्रय, महासत्त्वगुण से आक्रान्त ब्रह्मस्वरुप वान्तबीज का अपने निर्मल चक्षु द्वारा दर्शन कर कन्या वृश्चिक राशि से ब्रह्ममार्ग का अवलोकन करता है । ऐसा करने से उसे छः महीने में सिद्धि हो जाती है और वह निश्चित रुप से कुल मार्ग का उपासक बन जाता है ॥४६ – ४७॥

मौनी एकान्तभक्तः स्यात् श्रीपादाम्भोजदर्शनम् ।

प्राप्नोति साधकश्रेष्ठः सायुज्यपदवीं लभेत् ॥४८॥ 

वह मौनी तथा एकान्त भक्त हो जाता है उसे महाश्री के चरणकमलों का दर्शन प्राप्त हो जाता है । फिर तो ऐसा साधक श्रेष्ठ सायुज्यपदवी प्राप्त कर लेता है ॥४८॥

ततो मध्ये प्रगच्छन्ति योगिनस्तत्त्वचिन्तकाः ।

शादिक्षान्ते चतुष्कोणे सर्वयोगाश्रये पदे ॥४९॥

विभाव्य याति शीघ्र सः श्री देवीलोकमण्डले ।

महाकालो भवेद्‍ धीमान् प्रश्नचक्रस्य भावकः ॥५०॥

जिस सायुज्यपदवी को तत्त्व चिन्तक योगी जन प्राप्त करते हैं । श से लेकर ( क्ष है अन्त में जिसके अर्थात् ह श ष स ह ) पर्यन्त वर्ण वाले चतुष्कोण का, जो सभी योगाश्रयों का स्थान है, उसका ध्यान करने से साधक शीघ्र ही देवी लोकमण्डल में पहुँच जाता है, फिर वह प्रश्न चक्र का भावना करने वाला महाकाल हो जाता है ॥४९ – ५०॥

॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्‌दीपने भावप्रश्नार्थनिर्णये पाशवकल्पेप्रश्नचक्रसारसङ्केते सिद्धमन्त्रप्रकरणे चतुर्वेद्ल्लासे भैरवभैरवीसंवादे ऊनविंशः पटलः ॥१९॥

इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के उत्तरतंत्र में महातंत्रोद्दीपन के भावप्रश्नार्थनिर्णय में पाशवकल्प में प्रश्नचक्रसारसङ्केत में सिद्धमन्त्र प्रकरण के चतुर्वेदोल्लास में भैरवी भैरव संवाद में उन्नीसवें पटल की डॅा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्णं हुई ॥ १९ ॥

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