रुद्रयामल तंत्र पटल २१ , Rudrayamal Tantra Patal 21, रुद्रयामल तंत्र इक्कीसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र पटल २१ में योगमार्गं के अनुसार सर्वसिद्धिप्रद वीरभाव का साधन कहा गया है। महायोग तो वेदाधीन है, और कुण्डली शक्ति योग के अधीन है, कुण्डली के अधीन चित्त है और चित्त के अधीन समस्त चराचर जगत् है। इस वीरभाव के साधन के बाद प्रथम दल पर (१ ) भूमिचक्र का निरूपण है। यहाँ छः गृह वर्णित है । मध्य गृह में अग्निबीज रं का ध्यान होता है। दक्षिण गृह में वारुण बीज “वं” का ध्यान होता है। (वाम गृह में) देवेन्द्र पूजित पृथ्वी बीज लं का ध्यान होता है, दश्चिण पार्श्व में श्री बीज श्रीं का वामपार्श्वं में ब्रह्मसम्मत प्रणव बीज ॐ का ध्यान होता है। इस प्रकार अनेक तरह से भूमि चक्र का ध्यान कहा गया है। द्वितीय दक्षिण पत्र पर महान् प्रभा वाले वान्तबीज “यं” का ध्यान करना चाहिए। वहां पर स्वर्ग की शोभा से सम्पन्न (२ ) स्वर्ग चक्र का अनेक प्रकार से ध्यान कहा गया है । वायवी शक्ति से सम्पन्न इस चक्र के ध्यान से साधक वाक्पति हो जाता है। तृतीय दल पर (३ ) तुला चक्र का विशिष्ट ध्यान एवं उसके फल आदि का निरूपण किया गया है। इस तुला चक्र मे षकार से व्याप्त मौन भाव से जप किया जाता है। इससे साधक योगिराट् होकर कुण्डलीजागरण मे सामर्थ्य प्राप्त करता है। इसके बाद चतुर्थं दल (४) वारिचक्र का निरूपण है। उस वारिचक्र में गङ्गा आदि महानदियों और लवणादि सप्त सागर का एवं समस्त तीर्थो का वर्णन है। इस चक्र के साङ्गोपाङ्ग ध्यान से चिरजीवन एवं योगिराजत्व की प्राप्ति होती है।
रुद्रयामल तंत्र इक्कीसवाँ पटल – वीरभाव माहात्म्य
रुद्रयामल तंत्र एकविंशः पटलः – वीरभावस्य माहात्म्यम्
रूद्रयामल तंत्र शास्त्र
श्रीभैरव उवाच
वद कान्ते रहस्यं मे येन सिद्धो भवेन्नरः ।
तत्प्रकार विशेषेण देवानामपि दुर्लभम् ॥१॥
श्री भैरव ने कहा — हे कान्ते ! अब आप मुझसे उस रहस्य को कहिए, जिससे मनुष्य सिद्ध हो जाता है । विशेष रुप से उसके प्रकार को भी कहिए, क्योंकि वह देवताओं के लिए भी दुर्लभ है ॥१॥
वीरभावस्य माहात्म्यम्
वीरभावस्य माहात्म्यकस्मात् सिद्धिदायकम् ।
करुणादृष्टिरानन्दा यदि चेदस्ति सुन्दरि ॥२॥
वीरभाव का माहात्म्य अकस्मात् सिद्धिदायक है । हे सुन्दरि ! यदि आपकी करुणापूर्ण, आनन्द देने वाली दृष्टि मुझ पर है तो उसे कहिए ॥२॥
आनन्दभैरवी उवाच
परमानन्दसारज्ञो योगक्षेत्रप्रपालक।
रहस्य श्रृणु मे नाथ महाकालज्ञ भावग ॥३॥
आनन्दभैरवी ने कहा — हे योगज्ञ ! हे क्षेत्रपालक ! हे महाकालज्ञ ! हे भावज्ञ ! हे नाथ ! आप परमानन्द सार के ज्ञाता हैं, अब उस रहस्य को सुनिए ॥३॥
योगमार्गानुसारेण वीरभांव श्रयेत कः ।
आनन्दोद्रेकपुञ्जं तत् शक्तिवेदार्थनिर्यम् ॥४॥
वेदाधीनं महायोग योगाधीना च कुण्डली ।
कुण्डल्यधीनं चित्तं तु चित्ताधीनं चराचरम् ॥५॥
मनसः सिद्धिमात्रेण शक्तिसिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् ।
यदि शक्तिर्वशीभूता त्रैलोक्यञ्च तदा वशम् ॥६॥
योगमार्ग का अनुसरण करने से कौन वीरभाव का आश्रय ले सकता है? क्योंकि वह आनन्दोद्रेक का पुञ्ज है तथा शक्ति एवं वेदार्थ का निर्णय है । वेद के अधीन महायोग है और योग के आधीन कुण्डली है तथा कुण्डली के आधीन चित्त है और यह सारा चराचर जगत् चित्त के आधीन है । अतः मन की सिद्धि मात्र से ही निश्चित रुप से शक्ति सिद्ध हो जाती है, यदि शक्ति अपने वशीभूत हो गई तो समझ लेना चाहिए कि सारी त्रिलोकी अपने वश में हो गई है ॥४ – ६॥
अमरः स भवेदेव सत्यं सत्यं कुलेश्वर ।
सहस्त्रश्लोकयोगेन वीरयोगार्थनिर्णयम् ॥७॥
पटलैकादश क्षेमयोगेन योगमण्डलम् ।
षट्चक्रबोधिनी विद्या सहस्त्रदलपङ्कजम् ॥८॥
कैलासाख्यं सूक्ष्मपथं ब्रह्मज्ञानाय योगिनाम् ।
कथयामि महावीर क्रमशः क्रमशः श्रृणु ॥९॥
हे कुलेश्वर ! वह अवश्य ही अमर हो जाता है । यह सत्य है, यह सत्य है । ऐसे तो वीरभाव के अर्थ का निर्णय एक हजार श्लोक के योग से किया गया है । ग्यारह पटलों के योग और क्षेम के द्वारा योग – मण्डल कहा गया है । अब षट्चक्र बोधिनी विद्या, सहस्त्र दल पङ्कज, कैलास नामक सूक्ष्म पथ, जो योगियों के ब्रह्मज्ञान के लिए हैं । हे महावीर ! क्रम से कहती हूँ आप उसे सुनिए ॥७ – ९॥
वीराणामुत्तमानाञ्च भ्रष्टांना प्रहिताय च ।
साक्षात् सिद्धिकरं यद्यत् तत्सर्वं प्रवदामि ते ॥१०॥
योगशास्त्र क्रमेणैव यः सिद्धिफलमिच्छति ।
स सिद्धो भवति क्षिप्रं ब्रह्ममार्गे न संशयः ॥११॥
वीरों के उत्तम जनों के तथा भ्रष्ट लोगों के लिए जो अत्यन्त हितकारी हैं, किं बहुना जो साधात् सिद्धि प्रदान करने वाला है उन सबको आपसे कहती हूँ । योगशास्त्र के क्रम से चल कर जो सिद्धिफल की अभिलाषा करता है, वह बहुत शीघ्र ही ब्रह्ममार्ग में सिद्ध हो जाता है, इसमें संशय नहीं ॥१० – ११॥
ब्रह्मविद्यास्वरुपेण जपहोमार्चनादिकम ।
कुरुते फलसिद्ध्यै यः स ब्रह्मज्ञानवान् शुचिः ॥१२॥
षट्चक्रभेदने प्रीतिर्यस्य साधनचेतसः ।
संसारे वा वने वापि सिद्धो भवति ध्रुवम् ॥१३॥
जो साधक ब्रह्मविद्या की विधि के अनुसार, कामना सिद्धि के लिए जप, होम एवं अर्चनादि करता है, वही ब्रह्मज्ञानवान् तथा शुचि (पवित्रात्मा) है । साधन की इच्छा रखने वाले जिस साधक की षट्चक्र भेदन में रुचि हो गई हो, भले ही वह संसार में रहने वाला हो, या वन में रहने वाला हो वह निश्चित रुप से सिद्ध हो जाता है ॥१२ – १३॥
षट्चक्रार्थ न जानाति भजेदाम्बिकापदम् ।
तस्य पापं क्षयं याति सप्तजन्मसु सिद्धिभाक् ॥१४॥
ज्ञात्वा षट्चक्रभेदञ्च यः कर्म कुरुतेऽनिशम् ।
संवत्सरात् भवेत् सिद्धिरिति तन्त्रानिर्णयः ॥१५॥
जो षट्चक्रों को नहीं जानता किन्तु अम्बा के श्रीचरणों की सेवा करता है, उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, किन्तु सात जन्म में उसे सिद्धि प्राप्त होती है । जो षट्चक्र भेदन का ज्ञानवान् है और उसके भेदन के लिए दिन रात कर्म करता रहता है, उसे मात्र एक संवत्सर में सिद्धि मिल जाती है, ऐसा तन्त्रार्थ का निर्णय है ॥१४-१५॥
प्रस्वेदनं समाप्नोति मासत्रयनिषेवणात् ।
अष्टमासात् कल्प(म्प)नाशो वत्सरात् खेचरी गतिः ॥१६॥
प्रस्वेदमधमं प्रोक्तं कल्प(म्प)नं मध्यमं स्मृतम् ।
भूमेरुत्थापनं नाथ खेचरत्वं महासुखम् ॥१७॥
मात्र तीन महीने उस कर्म को करते रहने से साधक प्रस्वेदन (शरीर में पसीना) प्राप्त करने लगता है, आठ मास निरन्तर कर्म करते रहने से कम्पन की प्राप्ति तथा उस कर्म को एक संवत्सर करते रहने से आकाश में उठने की शक्ति प्राप्त हो जाती है । योग में प्रस्वेदन को अधम (छोटा) कहा गया है और कम्पन को मध्यम कहा गया है । हे नाथ ! भूमि से ऊपर उठ जाना उत्तम है । वही महासुख है तथा खेचरी गति कही गई है ॥१६ – १७॥
द्वात्रिंशद् ग्रन्थिदञ्च मूलाधारावधिस्थितम् ।
मेरुदण्डाश्रितं देशं कृत्वा ब्रह्ममयो भवेत् ॥१८॥
सुषुम्ना बाह्मदेशे च यद् यद् ग्रन्थिपदं प्रभो ।
क्रमशः क्रमशो भित्वा खेचरो भवति ध्रुवम् ॥१९॥
इस शरीर में मूलाधार पर्यन्त बत्तीस ग्रन्थियाँ हैं जो मेरुदण्डाश्रित देश में रहती हैं उनका भेदन कर देने से साधक साक्षात् ब्रह्ममय हो जाता है । हे प्रभो ! सुषुम्ना से बाहर प्रदेश में रहने वाले जितने ग्रन्थि स्थान हैं उनका एक- एक क्रम से भेदन करने वाला साधक निश्चित रुप से खेचर हो जाता है ॥१८ – १९॥
अल्प(न्य)कार्ये दत्वा ध्यानज्ञानविवर्जितः ।
उन्मत्तः स भवेदेव शास्त्राणां योगिराड् भवेत् ॥२०॥
हिम कुन्देन्दुधवलां बालां शक्तिं महोज्ज्वलाम् ।
कलिकालफलानन्दां मूले धात्वा भवेद् वशी ॥२१॥
जो ध्यान और ज्ञान से रहित है और अन्य कार्यों में मन लगाता है, वह अवश्य ही उन्मत्त हो जाता है । अन्यथा स्वयं योगादि (प्राणायामों में मन लगाने वाला) सभी शास्त्रों का ज्ञाता योगिराज बना जाता है । हिम एवं कुन्दपुष्प तथा इन्दु के समान धवल वर्ण वाली, अत्यन्त प्रकाश युक्त जो कलिकाल में आनन्द रुप फल वाली है, उस महाशक्ति बाला का, मूलाधार में ध्यान करने से साधक जितेन्द्रिय हो जाता है ॥२० – २१॥
मूलपद्मं(द्मे)महाज्ञानी ध्यात्वा चारुचतुर्दले ।
कपिलाकोटिदान्स्य फलं प्राप्नोति योगिराट् ॥२२॥
मूलपद्मे कोटिचन्द्रकलायुक्तं सरक्तकम् ।
गलत्सुधा रसामोदवदनाब्जं फलं भजेत् ॥२३॥
अत्यन्त मनोहर दल वाले मूलपद्म में ध्यान करने से साधक महाज्ञानी हो जाता है, ऐसा योगिराज साधक करोड़ों कपिला के दान का फल प्राप्त कर लेता है । मूलाधार रुप पद्म में करोड़ों चन्द्रमा की कलाओं से युक्त, रक्त वर्ण वाले, आमोद युक्ता मुख कमल, जिससे सुधारस प्रवाहित हो रहा है, उसका ध्यान कर साधक सब प्रकार का फल प्राप्त कर लेता है ॥२२ – २३॥
निर्मलं कोटिवीरोग्रतेजस ब्रह्मरुपिणम् ।
वामपार्श्वे कुण्डलिन्या विभाव्य शीतलो भवेत् ॥२४॥
ततः श्रीयामलं वीरं तदाकारं तदुद्भवम् ।
ललाटवह्निजं देव्या नाथं भजति योगिराट् ॥२५॥
कुण्डलिनी की बायीं ओर अत्यन्त निर्मल करोड़ों वीरों के समान उग्र तेज वाले ब्रह्मस्वरुप का ध्यान कर साधक शीतल हो जाता है । उसके बाद योगिराज उससे उत्पन्न उसी आकार वाले, श्रीयामल वीर, जो ललाटस्थ वह्नि से उत्पन्न हैं और देवी के नाथ हैं, उनकी सेवा करता है ॥२४ – २५॥
तत्र पद्मपूर्वदले सिन्धूरारुणविग्रहम् ।
वकारं कोटिचपलामालं भजति योगिराट् ॥२६॥
तत्पार्श्वे शोणिदले आज्ञाचक्रं मनोरमम् ।
यथा ध्यानं कुण्डलिन्या आज्ञाचक्रे तथात्र च ॥२७॥
तदनन्तर योगिराज, उस कमल के पूर्व दिशा वाले पत्र पर सिन्दूर के समान अरुण विग्रह वाले करोड़ों चपला के समान देदीप्यमान, वकार अक्षर की सेवा में संलग्न हो जाता है । उसी के पार्श्वभाग में स्थित रक्त वर्ण वाले दल पर अत्यन्त मनमोहक आज्ञाचक्र है, पूर्व में कुण्डलिनी का ध्यान जिस प्रकार कहा गया है उसी प्रकार का ध्यान इस आज्ञाचक्र में करना चाहिए ॥२६ – २७॥
भूमिचक्रक्रमं नाथ श्रृणु शङ्कर योगिनाम् ।
यं ध्यात्वा सिद्धिमाप्नोति सिद्धिदं षड्गृहं भवेत् ॥२८॥
षड्गृहं त्रिकालागेहमेकत्रस्थं महाप्रभम् ।
ध्यायेद् योगिनीगेहं मध्यगेहे रबीजकम् ॥२९॥
भूमिचक्रनिरुपण — हे योगियों का कल्याण करने वाले शङ्कर ! हे नाथ ! अब भूमिचक्र के क्रम को सुनिए जिसका ध्यान करने से साधक सिद्धि प्राप्त करता है तथा षड्गृह भी उसे सिद्धि प्रदान करता है । महाप्रभा से युक्त षड्गृह तथा त्रिकालागेह (?) एक स्थान पर ही स्थित हैं । उनके मध्य वाले गेह में र बीज वाले योगिनी गेह का ध्यान करना चाहिए ॥२८ – २९॥
वकारं दक्षिणे गेहे हेममालिनमञ्जनम् ।
डाकिनी परमाबीजं ब्रह्मबीजं विभावयेत् ॥३०॥
वकारवामपार्श्वे च योगिनां योगसाधनम् ।
सदाशिवमहाबीजं विभाव्य योगिराड् भवेत् ॥३१॥
वं बीजं वारुणाध्यक्षं हिमकुन्देन्दुनिर्मलम् ।
तद्विष्णोर्जन्मसंस्थान सत्त्वं द्रवमुपाश्रयेत् ॥३२॥
उसके दक्षिण भाग वाले गेह में, सुवर्ण की माला पहने, अञ्जन के आकार वाले, डाकिनी के परम बीज ’ब्रह्मबीज’ वकार का ध्यान करना चाहिए । वकार के बायीं ओर योगियों के योग का साधन सदाशिव का महाबीज है । उसका ध्यान करने से साधक योगिराज बन जाता है । वं बीज वारुण बीज है, जो हिम एवं कुन्द्पुष्प तथा इन्दु के समान निर्मल है, वहीं विष्णु के जन्म का संस्थान है और वह सत्त्व से युक्त एवं द्रव वाला है । अतः उसकी उपासना करनी चाहिए ॥३० – ३२॥
तदूर्ध्वपूर्वगेहे च लं बीजमिन्द्रपूजितम् ।
विद्युल्लताहेमवर्ण विभाव्य योगिनां पतिः ॥३३॥
इन्द्रबीजं दक्षपार्श्वे श्रीबीजं बिन्दुलाञ्छितम् ।
स्थिरविद्युल्लतारुमिन्द्राण्याः साधु भावयेत् ॥३४॥
उसके ऊपर पूर्व वाले गेह में इन्द्र द्वारा पूजित ’लं’ बीज है जो विद्युल्लता के समान एवं सुवर्ण के समान देदीप्यमान है उसका ध्यान करने से साधक योगियों का स्वामी बन जाता है । उसके दाहिने भाग में इन्द्रबीज (?) तथा बिन्दु से युक्त श्रीबीज ( श्रीं ) तथा स्थिर विद्युत् लता के समान रुपवाले इन्द्राणी के बीज की भली प्रकार से भावना करे ॥३३ – ३४॥
तद्वामपार्श्वभागे च प्रणवं ब्रह्मसेवितम् ।
विभाव्य कोटिमिहिरं योगिराड् भवति ध्रुवम् ॥३५॥
वं बीजाधोमन्दिरे श्रीविद्यायाः बीजतेजसम् ।
कोटिसूर्यप्रभाकार विभाव्य सर्वगो भवेत् ॥३६॥
उसके बायें भाग में, ब्रह्मदेव द्वारा सेवित, करोड़ों सूर्य के समान देदीप्यमान प्रणव का ध्यान कर साधक निश्चित रुप से योगिराज बन जाता है । वं बीज के नीचे वाले मन्दिर में श्रीविद्या का तैजस बीज है, जो करोड़ों सूर्य के समान तेजस्वी है, उसका ध्यान करने से साधक सर्वगामी बन जाता है ॥३५ – ३६॥
निजदेव्या वामाभागे अधः कनकमन्दिरे ।
श्रीगुरो रमणं बीजं धात्वा वाग्भवमीश्वरम् ॥३७॥
निजदेव्या दक्षपार्श्वे दीर्घप्रणवतेजसम् ।
कोटिसूर्यप्रभारुपं धात्वा योगी भवेद् यतिः ॥३८॥
निजदेवीं तत्र पद्मे मनः सद्वाक्ययोगकैः ।
यथा ध्यानं तथा मौनं ध्यानं कुर्याज्ज्गत्पतेः ॥३९॥
नित्यरुपा देवी के वामभाग के नीचे सुवर्णमय मन्दिर में श्रीगुरु के रमण वाला, जो वाग्भत एवं ईश्वर हैं, उसका ध्यान करे । उसी नित्य देवी के दाहिने भाग में करोड़ों सूर्य के समान प्रकाश वाले तैजस दीर्घ प्रणव (आँ) का ध्यान कर योगी यति बन जाता है । वहाँ पर स्थित पद्म में नित्य देवी का, मन को सद्वाक्य से युक्त कर, जिस प्रकार ध्यान एवं मौन धारण किया जाता है उसी प्रकार वहाँ जगत्पति का ध्यान करे ॥३७ – ३९॥
ब्रह्मणः पूरकोणैव महायोगक्रमेण तु ।
सूक्ष्मवायूद्मेनापि भूमिचक्रे जपञ्चरेत् ॥४०॥
चतुष्कोणं धरायास्तु नवभूमिगृहान्वितम् ।
अष्टगेहं विभेद्यादौ वसुशून्ये यजेद् यतिः ॥४१॥
वहाँ उस भूमिचक्र में पूरक प्राणायाम के द्वारा महायोग क्रम के द्वारा तथा सूक्ष्म वायु की उत्पत्ति के द्वारा ब्रह्मदेव के मन्त्र का जप करना चाहिए । वह धराचक्र चतुष्कोण है जिसमें नव पृथ्वी के घर हैं, उनमें आठ गृहों का भेदन कर वसु (८ ) से शून्य वाले नवें गृह में यति को जप पूजा करनी चाहिए ॥४० – ४१॥
धराबीजं वान्तवर्णं शक्रेण परिपूजितम् ।
विभाव्य कुण्डलीतत्त्वं सर्वसिद्धीश्वरो भवेत् ॥४२॥
भजेदिन्द्रं तत्र नाके श्वेतकुञ्जरवाहनम् ।
चतुर्बाहुं देवराजं विद्युत्पुञ्जं भवक्षयम् ॥४३॥
’व’ है अन्त में जिसके अर्थात् ’ल’ अक्षर धरा बीज है, जिसका पूजन इन्द्र देव ने स्वयं किया था, वहाँ कुण्डली तत्त्व का ध्यान कर साधक सर्वसिद्धिश्वर हो जाता है । वहाँ के आकाश मण्डल में श्वेत हाथी पर विराजमान्, विद्युत्पुञ्ज के समान देदीप्यमान् तथा संसारचक्र के विनाशक चार बाहुओं वाले देवराज इन्द्र का ध्यान करना चाहिए ॥४२ – ४३॥
डाकिन्या मन्दिरे कान्तं ब्रह्माणं हंसहंसगम् ।
नवीनार्कं चतुर्बाहुं चतुर्वक्त्रं भजेद् वशी ॥४४॥
ब्रह्मणं डाकिनीयुक्तं सिन्दूराप्लुतभास्करम् ।
परमामोदमत्तं तं विभाव्य योगिराड् भवेत् ॥४५॥
डाकिनी के मन्दिर में अत्यन्त सुन्दर हंस पर गमन करने वाले, चार भुजा तथा चार मुख वाले, नवीन उदीयमान सूर्य के समान भासमान ब्रह्मदेव का जितेन्द्रिय साधक को ध्यान करना चाहिए । डाकिनी से संयुक्त, सिन्दूर से परिपूर्ण, भास्कर के समान तेजस्वी तथा अत्यन्त आनन्द में मदमत्त ब्रह्मदेव का ध्यान कर साधक योगिराज बन जाता है ॥४४ – ४५॥
विद्युल्लतावदुज्ज्वलां श्रीदेवडाकिनीं सुराट् ।
अभीक्षा(क्ष्णा)रक्तनयनां हंसस्थां भावयेद् वशी ॥४६॥
हंसोद्र्ध्वे कमलाबीजं सर्वाङ्कारभूषितम् ।
महालक्ष्मीस्वरुपं यत्तद् भजन्ति महर्षयः ॥४७॥
विद्युल्लता के समान प्रकाशित श्रीदेव डाकिनी का, जिनके नेत्र रक्त वर्ण के हैं तथा जो हंस की सवारी पर आसीन हैं, वशी एवं सुराट साधक उनका बारम्बार ध्यान करे । हंस के ऊर्ध्वभाग में सर्वालङ्कार से विभूषित कमलाबीज (श्रीं) है जो महालक्ष्मी का स्वरुप है, ऐसे स्वरुप का ध्यान महर्षि लोग करते हैं ॥४६ – ४७॥
रुद्रयामल तंत्र एकविंशः पटलः – भूमिचक्रम्
सिद्धमंत्रस्वरूपकथनम्
तंत्र शास्त्ररूद्रयामल
भूमिचक्रम्
इक्कीसवाँ पटल – भूमिचक्र
इन्द्रपृथ्वीबीजवामे प्रणवं ब्रह्मसेवितम् ।
प्राणायामसिद्धिदं यत्तद् भजन्ति महर्षयः ॥४८॥
तदधः प्राणनिलयं प्रेतबीजं शशिप्रभम् ।
विभाव्य शिवतुल्यः स्याद् भूमिचक्रे सदाशिवः ॥४९॥
इन्द्र तथा पृथ्वी बीज (लं) के वामभाग में ब्रह्मदेव द्वारा सेवित प्रणव (ॐ) है, जो प्राणायाम करने से सिद्धि प्रदान करता है । अतः महर्षि लोग उस प्रकार के प्रणव का जप करते हैं । उसके नीचे सभी प्राणों का स्थान चन्द्रमा के समान उज्ज्चल वर्ण वाला प्रेत बीज (हंसो) है, वहीं उस भूमिचक्र में सदाशिव का स्वरुप है । उसका ध्यान करने से साधक शिव तुल्य हो जाता है ॥४८ – ४९॥
तदधो वाग्भवं ध्यायेत् कोटिसौदामिनीप्रभम् ।
गुरुबीजं भूमिचक्रे महाविद्यागुरुर्भवेत् ॥५०॥
दक्षिणे मध्यगेहे च श्रीविद्यानिर्मलं पदम् ।
विभाव्य मानसध्यानात् सिद्धो भवति साधकः ॥५१॥
तद्दक्षिणे शेषगेहे प्रणवान्तं मनूत्तमम् ।
सर्वाधारं ब्रह्मविष्णुशिवदुर्गापदं भवेत् ॥५२॥
भूमि चक्र के नीचे करोड़ों विद्युत् के समान भासमान वाग्भव बीज (ऐं) का ध्यान करना चाहिए । वही गुरुबीज है । साधक उसका ध्यान करने से महाविद्याओं का ज्ञाता हो जाता है । दक्षिण दिशा में मध्य भाग में श्रीविद्या का निर्मल स्थान है । उनका मानस ध्यान करने से साधक सिद्ध हो जाता है । उसके दक्षिण शेष गृह में प्रणवान्त उत्तम मन्त्र का स्थान है । वही ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं दुर्गा का स्थान है इसलिए सर्वाधार है॥५० – ५२॥
एतत् श्रीभूमिचक्रार्थं सर्वं चैतन्यकारकम् ।
मूलाधारपूर्वदले वकारं व्याप्य तिष्ठति ॥५३॥
भूमिचक्रमण्डले तु वकारस्थं स्मरेद्यदि ।
ब्रह्माण्डमण्डलेशः स्यादण्डं व्याप्यैकपत्रकम् ॥५४॥
यह सब भूमिचक्र के अभिधेय हैं । सभी चैतन्य करने वाले हैं और मूलाधार के पूर्वदल में रहने वाले वकार को व्याप्त कर स्थित हैं । भूमिचक्र के मण्डल में समस्त ब्रह्माण्ड को व्याप्त कर एक पत्ते वाले वकारस्थ उस मन्त्रोत्तम का स्मरण करे तो साधक ब्रह्माण्ड मण्डल का ईश्वर बन जाता है ॥५३ – ५४॥
तदेकपत्रं पदस्य शोणितं निर्मलधुतिम् ।
तन्मध्यान्ते भूमिचक्रे मध्ये वं भावयेद् वशी ॥५५॥
एतच्चक्रप्रसादेन वरुणो मदिरापतिः ।
अमृतानन्दह्रदयः सर्वैश्वर्यान्वितो भवेत् ॥५६॥
कमल का वह एक पद्मपत्र रक्तवर्ण का एवं निर्मल द्युति वाला है । उसके मध्यान्त में स्थित भूमिचक्र के मध्य में जितेन्द्रिय साधक को ’वं’ बीज का ध्यान करना चाहिए । इस चक्र की कृपा से वरुण समस्त मदिरा के पति बन गए । इस चक्र के ध्यान से साधक का हृदय अमृतानन्द से परिपूर्ण हो जाता है, किं बहुना वह समस्त ऐश्वर्यों से युक्त हो जाता है ॥५५ – ५६॥
एकविंशः पटलः – स्वर्गचक्रम्
सिद्धमंत्रस्वरूपकथनम्
तंत्र शास्त्ररूद्रयामल
रुद्रयामल तंत्र पटल २१– स्वर्गचक्रम्
इक्कीसवाँ पटल – स्वर्गचक्र
द्वितीये दक्षिणे पत्रे वान्तबीजं महाप्रभम् ।
मनो विद्याय योगीन्द्रो ध्यायेद् योगार्थीसिद्धये ॥५७॥
स्वर्गचक्र का निरुपण — दक्षिण के द्वितीय पत्र में अत्यन्त प्रकाशित वान्त (लं) बीज है योगीन्द्रों को अपने योग रुप प्रयोजन की सिद्धि के लिए उसी में मन लगाकर ध्यान करना चाहिए ।
विमर्श — वान्त का अर्थ २१ . ४२ में बहुब्रीहि समास करके ल किया गया है ॥५७॥
तत्र ध्यायेत् स्वर्गचक्रं स्वर्गशोभासमाकुलम् ।
विभाव्य स्वर्गनाथः स्याद्देवेन्द्रसदृशो भुवि ॥५८॥
वहीं स्वर्ग की शोभा से संयुक्त स्वर्ग चक्र का ध्यान करना चाहिए । उस चक्र का ध्यान करने से साधक इस पृथ्वी पर ही स्वर्ग का स्वामी बन जाता है ॥५८॥
पञ्चकोणं विभेद्यापि पञ्चकोणं विभति यत् ।
तन्मध्ये वृत्तयुगलं तत्र षट्कोणगं भजेत् ॥५९॥
एतत् स्वर्गाख्यचक्रं तु भूपुरद्वयमध्यके ।
दक्षिणोत्तरपत्रस्थे विभाव्य वान्तमीश्वरम् ॥६०॥
पञ्चकोण का भेदन करने के बाद भी एक पञ्चकोण शोभित होता दिखाई पड़ता है । उस दृश्यमान् पञ्चकोण के मध्य में दो वृत्त हैं । उन दोनों वृतों में रहने वाले षट्कोण का ध्यान करना चाहिए । यही स्वर्ग नामक चक्र है । इसके दक्षिण उत्तर वाले पत्र के मध्य में दो भूपुर हैं उसमें ’व’ बीज एवं ईश्वर स्थित हैं, उनका ध्यान करे॥५९-६०॥
षट्कोणान्तर्गतं वान्तं विद्युत्कोटिसमप्रभम् ।
तमाश्रित्य सुराः सर्वे दशकोणे वशन्ति ते ॥६१॥
पूर्वकोणे महेन्द्रश्च सर्वदेवसमास्थितः ।
इन्द्राणी सहितं ध्यात्वा योगीन्द्रो भवति ध्रुवम् ॥६२॥
तद्दक्षिणे रक्तकोणे वहिनं स्वाहन्वितं स्मरेत् ।
कोटिकाला नलालोलं परिवारगणान्वितम् ॥६३॥
करोड़ों विद्युत् के समान प्रभा वाले षट्कोणान्तर्गत उस वान्त बीज का आश्रय लेकर ही उसके दशकोणों में सभी देवताओं का निवास है । उस वकार रुप बीज के पूर्वकोण में सभी देवताओं से संयुक्त इन्द्राणी सहित इन्द्र का ध्यान करने से साधक निश्चित रुप से योगीन्द्र हो जाता है । उसके दक्षिण रक्त वर्ण वाले कोण में करोड़ों कालानल के समान चञ्चल परिवार समन्वित स्वाहा युक्त अग्निदेव का ध्यान करना चाहिए ॥६१ – ६३॥
तद्दक्षिणे कामरुपी भाति शक्तियुतः प्रभुः ।
परिवारान्वितं ध्यात्वा तं मृत्यु(त्यु)वशमानयेत् ॥६४॥
नैऋतं विद्युदाकारं कन्दर्पदमनं प्रियम् ।
शक्तियुक्त स्वरानन्दं विभाव्य योगिनीपतिः ॥६५॥
उसके भी दक्षिण शक्ति संयुक्त कालरुपधारी स्वयं प्रभु (शिव) विराजमान हैं । परिवार सहित उन (शिव एवं शक्ति) का ध्यान करने से साधक उस मृत्यु को अपने वश में कर लेता है । उसके बाद कन्दर्प का दमन करने वाले विद्युत् के समान देदीप्यमान् नैर्ऋत्य हैं । शक्ति युक्त स्वरानन्द उन नैर्ऋत्य का ध्यान करने से साधक समस्त योगिनियों का पति हो जाता है ॥६४ – ६५॥
तदधो वरुणं ध्यात्वा सुशक्तिपरिलालितम् ।
जलानामधिपं सत्त्वं नित्यसत्त्वश्रियो भवेत् ॥६६॥
तद्वामे मरुतः कोणं मरुद्गणविभाकरम् ।
वायुस्थानं लयस्थानं वायुव्याप्तं भवेत् सुधीः ॥६७॥
तत्पश्चाद् गणनाथञ्च मत्तं शक्तिसमन्वितम् ।
परिवारगणानन्दं विभाव्य स्याद् गणेश्वरः ॥६८॥
उसके नीचे सुन्दर शक्ति से लालित, जलों के अधिपति सत्त्व स्वरुप वरुण का ध्यान कर नित्य सत्त्व युक्त श्री से सम्पन्न हो जाता है । उसके बायें वायुकोण है जहाँ मरुद्गणों को विभावित करने वाला सबके लय का स्थान है वह वायु का स्थान है। वहाँ (वायु) का ध्यान करने से सुधी साधक वायु से व्याप्त हो जाता है । उसके पश्चात् मदमत्त शक्ति समन्वित एवं अपने परिवार गणों से आनन्द पूर्वक रहने वाले गणनाथ गणेश का ध्यान कर साधक गणेश्वर हो जाता है ॥६६ – ६८॥
तत्पश्चात् परमं स्थानमीशं शक्तिसमन्वितम् ।
परिवारान्वितं ध्यात्वा कामरुपी भवेद्यतिः ॥६९॥
तत्पश्चात् कोणगेहे च चन्द्रसूर्याग्नितेजसम् ।
एकरुपमूद्र्ध्वसंस्थं ब्रह्माणं भावयेद्यतिः ॥७०॥
इन्द्रवामकोणगेहे अनन्तं वहिनरुपिणम् ।
अनन्तसदृशं ध्यात्वा अनन्तसदृशो भवेत् ॥७१॥
उसके बाद एक और उत्कृष्ट स्थान है, जहाँ शक्ति एवं परिवार गणों से युक्त सदाशिव का ध्यान कर यति इच्छानुसार रुप धारण करने वाला बन जाता है । उसके बाद कोने वाले गृह में चन्द्रमा सूर्य एवं अग्नि के समान तेजस्वी एकाकार में रहने वाले ऊपर की ओर स्थित ब्रह्मदेव का ध्यान करना चाहिए । इन्द्र के बायें कोने वाले गृह में अनन्त सदृश अग्नि का रुप धारण करने वाले अनन्त का ध्यान कर साधक अनन्त के सदृश हो जाता है ॥६९ – ७१॥
एतत् स्वचक्रमध्ये तु वृत्तयुग्मं महाप्रभम् ।
सर्वदा वहिनना व्याप्तं ज्वलदग्निं विभावयेत् ॥७२॥
वृत्तमध्ये च षट्कोणं कोणे कोणे रिपुक्षयम् ।
लोभमोहादिषट्कञ्च हरेत् षट्कोणसंस्थितान् ॥७३॥
इस स्वर्ग चक्र के मध्य में आठ महाप्रभा वाले दो वृत्त हैं, वह सर्वदा अग्नि से व्याप्त रहता है । अतः वहाँ जलती हुई अग्नि का ध्यान करना चाहिए । उन दोनों वृत्त के मध्य में षट्कोण हैं । जिसके प्रत्येक कोणों में लोभ मोहादि छः शत्रुगणों का गृह है । दशकोण स्थित देवताओं का ध्यान षट्कोण संस्थित लोभ – मोहादि शत्रुओं को विनष्ट कर देता है ॥७२ – ७३॥
लोभं हरति इन्द्राणी(ग्नी)मोहं हरति दण्डधृक् ।
कामं नैऋवरुणौ क्रोधं वायुश्च योगिनाम् ॥७४॥
मदं हरेदधीशश्च ब्रह्मानन्ती हि योगिनाम् ।
मात्सर्यं संहत्येव मासत्रयनिषेवणात् ॥७५॥
षट्कोणमध्यदेशस्थं वान्तबीजं शशिप्रभम् ।
स्वर्णालङ्कारजडितं भावयेद् योगसिद्धये ॥७६॥
इन्द्राग्नी योगियों के लोभ का हरण करते हैं, यमराज मोह का हरण करते हैं, नैर्ऋत्य और वरुण काम का तथा वायु क्रोध का विनाश करते हैं । मात्र तीन महीने ध्यान करने से ईश्वर मद का तथा ब्रह्मा और अनन्त योगियों का मात्सर्य हरण करते हैं । इस षट्कोण के मध्य में चन्द्रमा के समान प्रकाश वाले, स्वर्ण्निर्मित अलङ्कारों से विभूषित वान्त बीज का ध्यान योगसिद्धि के लिए करना चाहिए ॥७४ – ७६॥
सदा व्याप्तं कुण्डलिन्या पालितं मण्डितं सुधीः ।
तैले यथा दीपपुञ्चं विभाव्य योगिराड् भवेत् ॥७७॥
स्वयंभूलिङुं तत्रैव विभाव्य चन्द्रमण्डलम् ।
आप्लुतं कारयेन्मन्त्री कुण्डलीसहितं वशी ॥७८॥
ये चक्र कुण्डलिनी से सदैव व्याप्त रहने वाले हैं और उसी से उसी प्रकार पालित तथा मण्डित भी हैं जिस प्रकार तेल में दीप-पुञ्ज भासित होता है, इसका ध्यान करने से सुधी साधक योगिराज बन जाता है । वहीं स्वयंभू लिङ्ग है । जितेन्द्रिय एवं मन्त्रज्ञ साधक कुण्डली सहित उस स्वयंभू लिङ्ग को चन्द्रमण्डल से आप्लावित कर उसका ध्यान करे ॥७७ – ७८॥
एवं क्रमेण सिद्धः स्यात् कुण्डल्याकुञ्चनेन च ।
सदाभ्यासी महायोगी संस्थाप्य वायवीं ततः ॥७९॥
वायव्याभासयुक्तेन एतच्चक्राश्रयेण च ।
मूकोऽपि वाक्पतिर्भूयात् फलभागी दिने दिने ॥८०॥
इस क्रम से तथा कुण्डली को बारम्बार संकुचित करने से साधक क्रमशः सिद्ध हो जाता है । इसके बाद सदाभ्यास में निरत महायोगी वायवी शक्ति का संस्थापन करे । वायवी शक्ति के अभ्यास से युक्त होने के कारण तथा इस चक्र के आश्रय करने के कारण गूँगा भी वाक्पति बन जाता है और दिन प्रतिदिन फल का भागी होता रहता है ॥७९ – ८०॥
रुद्रयामल तंत्र पटल २१ – तुलाचक्रम्
सिद्धमंत्रस्वरूपकथनम्
तंत्र शास्त्ररूद्रयामल
तुलाचक्रम्
इक्कीसवाँ पटल – तुलाचक्र
तृतीयदलामाहात्म्यम्
तृतीयदलामाहात्म्यं योगिज्ञानोदयं परम् ।
भाअसिद्धिर्भवेत्तस्य यो भजेदात्मचिन्तनम् ॥८१॥
दलमध्ये तुलाचक्रं चतुष्कोणो गृहाणि च ।
द्वात्रिंशद् ग्रन्थिरुपाणि सन्ति ग्रन्थिविभेदने ॥८२॥
तुलाचक्रनिरुपण — तृतीयदल का माहात्म्य योगियों के ज्ञान के उदय का कारण हैं, अतः जो आत्म चिन्तन करता है, उसे भावसिद्धि हो जाती है । इस तृतीयदल के मध्य में तुलाचक्र है जिसके चारों कोनों पर बत्तीस ग्रन्थि रुप गृह हैं । इन्हीं ग्रन्थियों का विभेदन करना चाहिए ॥८१ – ८२॥
तुलाचक्रस्य नाडीभिर्द्वात्रिंशद् ग्रन्थिभेदनम् ।
गलएशावधि ध्यानं मेरुमध्ये प्रकारयेत् ॥८३॥
द्वात्रिंशद्ग्रन्थिगेहस्य मध्ये वृत्तत्रयं शुभम् ।
तन्मध्ये च त्रिकोणे च खं मूर्द्धन्यं भजेद् वशी ॥८४॥
तुलाचक्र की नाडियों द्वारा इन ग्रन्थियों का भेदन किया जाता है अतः मेरुदण्ड के भीतर गलादेश पर्यन्त भाग में इनका ध्यान करना चाहिए । इन बत्तीस ग्रन्थियों वाले गृह के मध्य में अत्यन्त कल्याणकारी तीन वृत्त हैं । उनके मध्य में तथा त्रिकोण में वशी साधक मूर्धान्य ’खं’ बीज का ध्यान करे ॥८३ – ८४।
एतद्गेहे विभाव्यानि वर्णजालफलानि च ।
दक्षिणावर्तयोगेन विभाव्य वाक्पतिर्भवेत् ॥८५॥
अकारमाद्यगेहे च अनुस्वारं द्वितीयके ।
विसर्गं तु तृतीये च यो भजेत्स भवेद्वशी ॥८६॥
इन बत्तीस गृहों में दक्षिणावर्त वर्ण समूहों के फलकों को स्थापित करना चाहिए । ऐसा कर साधक वाक्पति हो जाता है। प्रथम गृह में अकार, द्वितीय में अनुस्वार, तृतीय में विसर्ग स्थापित करने वाला साधक वशी हो जाता है ॥८५ – ८६॥
एतदन्यमन्दिरेषु कादिहान्तं विभावयेत् ।
वादिसान्तं वर्जयित्वा सबिन्दुं स भवेद्वशी ॥८७॥
इसके अतिरिक्त शेष उन्तीस गृहों में बिन्दु सहित व, श, ष, स – इन अक्षरों को छोड़कर क वर्ग से ह पर्यन्त (क, च, ट, त, प कुल पच्चीस किन्तु व श ष स इन अक्षरों को छोड़कर य, र, ल, ह पर्यन्त चार को लेकर) कुल उन्तीस वर्णों को स्थापित करे तो साधक वशी हो जाता है ॥८७॥
आज्ञाचक्रे यथानामफलं प्राप्नोति साधकः ।
वर्णानां मूलपद्मे तु तत्फलं हि तुलागृहे ॥८८॥
भजेमध्यं सकारस्य त्रिवृत्तस्थ त्रिकोणके ।
ज्वालामाल सहस्त्राढ्यं स्वर्णालड्कृतमाश्रयेत् ॥८९॥
प्रत्येकवर्णपुटितं तुलाचके च मौनवान् ।
मौनं जपं यः करोति षकारं व्याप्य योगिराट् ॥९०॥
तुलाचक्र की फलश्रुति — आज्ञाचक्र के मूलपद्म में वर्णों को स्थापित करने से जैसा फल प्राप्त होता है वही तुलागृह में भी वर्णों के स्थापन से प्राप्त होता है । त्रिवृत्तस्थ त्रिकोण में सकार के मध्य भाग का, जो सहस्त्रों ज्वालाओं से परिपूर्ण एवं स्वर्ण से अलंकृत है, उसका आश्रय ग्रहण करना चाहिए । तुलाचक्र में मौन व्रत धारण कर प्रत्येक वर्ण से सम्पुटित षकार पर्यन्त वर्ण (व, श, ष, स) का जो साधक मौन हो कर जप करता है वह योगिराज हो जाता है ॥८८ – ९०॥
एतद्योगप्रसादेन चैतन्या कुण्डली भवेत् ।
वाक्सिद्धिश्च भवेत्तस्य तापत्रयविनाशिनी ॥९१॥
सिद्धिर्मन्त्रस्य वर्णानां जपमात्रेण शङ्कर ।
तुलाचक्रान्तरस्थानं विभाव्य मन्त्रसिद्धिभाक् ॥९२॥
एतच्चक्रं विना नाथ कुण्डली नापि सिद्धयति ।
भावज्ञानं बिना कुत्र योगी भवति भारते ॥९३॥
इस योग की कृपा होने पर ही कुण्डली चेतना प्राप्त करती है । ऐसे साधक को त्रितापनाश करने वाली वाक्सिद्धि भी प्राप्त हो जाता है । हे शङ्कर ! ऐसे तो मन्त्रों के वर्णों के जप करने से भी सिद्धि प्राप्त होती है , किन्तु तुलाचक्र के मध्य में रहने वाले स्थान के ध्यान से भी साधक मन्त्रसिद्धि का भाजन बन जाता है । हे नाथ ! इस तुलाचक्र के बिना कुण्डलिनी किसी भी हालत में सिद्ध नहीं होती । भला भावज्ञान के बिना इस भारत में कब कौन योगी हुआ है ? ॥९१ – ९३॥
रुद्रयामल तंत्र पटल २१
अन्यदलमाहात्म्यम्
अथान्यदलमाहात्म्यं श्रृणु वक्ष्यामि तत्त्वतः ।
योगसञ्चारसारं यत् कुण्डलीशक्तिसाधनम् ॥९४॥
वारिचक्रनिरुपण — अब हे शङ्कर ! अन्य दलों का माहात्म्य कहती हूँ, श्रवण कीजिए जो योग सञ्चार में सार हैं तथा कुण्डली शक्ति की सिद्धि के साधन हैं ॥९४॥
शक्तिबीजं बिन्दुयुक्तम् अष्टकोणस्थनिर्मलम् ।
विद्युत्पुञ्चं स्वर्णमालावेष्टितं भावयेद्यतिः ॥९५॥
चतुष्कोणं विभेद्यापि चतुष्कोणं मनोहरम् ।
तन्मध्ये च चतुष्कोणं सबीजं भावयेत्ततः ॥९६॥
आठ कोणों में रहने वाले निर्मल बिन्दु युक्त शक्ति बीज (ह्रीं) जो विद्युत् के पुञ्ज तथा स्वर्णमाला से वेष्टित है यति उसकी भावना करे । चतुष्कोण का भेदन करने पर भी एक मनोहर चतुष्कोण है । उसके मध्य में शक्तिबीज सहित चतुष्कोण की भावना करे ॥९५ – ९६॥
एकविंशः पटलः – वारिचक्रम्
सिद्धमंत्रस्वरूपकथनम्
तंत्र शास्त्ररूद्रयामल
वारिचक्रम्
रुद्रयामल तंत्र इक्कीसवाँ पटल – वारिचक्र
कोटिसूर्यसमां देवीं कुण्डलीदेवमातरम् ।
पादाङगुष्ठावधिं ध्यात्वा सर्वसिद्धीश्वरो भवेत् ॥९७॥
यदि वारिचक्रध्ये स्थानं कुर्वन्ति मानुषाः ।
अमराः सत्त्वयोगस्थाः षट्चक्रफल भोगिनः ॥९८॥
करोड़ों सूर्य के समान प्रकाश करने वाली पैर के अंगूठे पर्यन्त देवमाता कुण्डलिनी का ध्यान कर साधक सर्वसिद्धिश्वर बन जाता है । यदि मनुष्य वारि चक्र मध्य में कुण्डली का ध्यान करे तो वे सत्त्व योग में स्थित होकर अमर हो जाते हैं और षट्चक्र के फल के भोग करने वाले हो जाते हैं ॥९७ – ९८॥
तच्चतुष्कं समावाप्य वारिव्याप्तं सुनिर्मलम् ।
वामावर्तस्थतं ध्यायेत् सप्तख्ण्डं महाबली ॥९९॥
सप्तवृतोपरि ध्यायेद् दलषोदशपङ्कजम् ।
दले दले महातीर्थं सिद्धो भवति निश्चितम् ॥१००॥
महाबली साधक उन चारों चतुष्कों को पार कर जल से परिपूर्ण अत्यन्त निर्मल वामावर्त स्थित सप्त खण्ड का ध्यान करे। सप्त वृत्त के ऊपर सोलह पत्ते वाले कमल का ध्यान करे, जिसके प्रत्येक दल पर महातीर्थ स्थित हैं । ऐसा करने से साधक निश्चित रुप से सिद्ध हो जाता है ॥९९ – १००॥
तीर्थमालावृत्तं नाथ दलं षोडश शोभितम् ।
तदेकपत्र(द्म)मध्ये तु भाति विद्युल्लतान्वितम् ॥१०१॥
पूर्वादौ दक्षिणे पातु तीर्थमालाफलं श्रृणु ।
येषां दर्शनमात्रेण जीवन्मुक्तस्तु साधकः ॥१०२॥
आवृत की तरह शोभा पाते हैं । पूर्व से दक्षिण की ओर व्याप्त रहने वाले उन तीर्थ समूहों के फल के सुनिए । जिसके दर्शन मात्र से साधक जीवन्मुक्त हो जाता है ॥१०१ – १०२॥
गङ्गा गोदावरी देवी गया गुह्या महाफला ।
यमुना कोटिफलदा बुद्धिदा च सरस्वती ॥१०३॥
मणिद्वीपं श्वेतगङ्गा महापुण्या महाफला ।
श्वेतगङ्गा महापुण्या भर्गगङ्गा महाफला ॥१०४॥
गङ्गा, गोदावरी, देवी, गया ये गुह्य हैं जो महाफल प्रदान करने वाले हैं । यमुना तथा बुद्धिदा सरस्वती करोड़ों तीर्थ का फल देने वाली हैं । मणिद्वीप एवं श्वेत- गङ्गा महापुण्यदायक एवं महाफल वाली हैं । जब श्वेत- गङ्गा महापुण्य वाली हैं तो भर्ग (शिव)- गङ्गा महान् फल देने वाली हैं ॥१०३ – १०४॥
स्वर्गगङ्गा महाक्षेत्रं पुष्करं तीर्थपारणम् ।
कावेरी सिद्धुपुण्या च नर्मदा शुभदा सदा ॥१०५॥
अष्टकोणे अष्टसिद्धिं वारिपूर्णां फलोदयाम् ।
सप्तकोणे सप्तसिन्धुं पूर्वादौ भावयेद् यतिः ॥१०६॥
स्वर्ग- गङ्गा तथा महाक्षेत्र पुष्कर सभी तीर्थों से श्रेष्ठ हैं । कावेरी, पुण्यदायिनी सिन्धु तथा नर्मदा सर्वदा शुभ देने वाली हैं । आठ कोणों पर आठ सिद्धियाँ है जो वारि से परिपूर्ण है और फल देने के लिए उदीयमान हैं । सात कोणों पर सप्त सिन्धु हैं । यति को पूर्वादि दिशा में उनका ध्यान करना चाहिए ॥१०५ – १०६॥
लवणेक्षु सुरासर्पिर्दधिदुग्धजलन्तकाः ।
सकारं व्याप्य तिष्ठन्ति महासत्त्वं स्मरेद् यतिः ॥१०७॥
मध्ये चतुष्के शक्तिञ्च कोटिसौदामिनीतुनः ।
विभाव्य वारिचक्रे तु कोटिविद्यापतिर्भवेत् ॥१०८॥
लवण, इक्षु, सुरा, सर्पि, दक्षि, दुग्ध तथा जल से परिपूर्ण रहने वाले ये सात समुद्र महासत्त्व सकार को व्याप्त कर स्थित रहते हैं । इस प्रकार यति को इनका ध्यान करना चाहिए । वारिचक्र के मध्य में रहने वाले चतुष्कोण में करोड़ों विद्युत् के समान देदीप्यमान शक्ति का ध्यान कर साधक करोड़ों विद्याओं का अधिपति हो जाता हैं ॥१०७ – १०८॥
शक्तिबीजं वामभागे आद्या प्रकृतिसुन्दरी ।
विभाति कामनाशाय योगिनी सा सताङति ॥१०९॥
शक्तिबीजं दक्षिणे च पुङ्कला पुशिवात्मकम् ।
सदा भावनरुपाभं यो भजेदीशसिद्धये ॥११०॥
उसके बायें भाग में आद्या प्रकृति सुन्दरी नामक शक्ति बीज (ह्रीं) का निवास है जो काम के नाश करने के लिए शोभा पाती हैं, वही योगिनी सज्जनों की गति है । उसके दक्षिण में पुं शिवात्मक पुङ्कला नामक शक्ति बीज हैं । वह सदा भावना रुप आभा वाला है । अतः ईश्वर सिद्धि के लिए साधक उसका भजन करता है ॥१०९ – ११०॥
शक्तिबीजस्योद्र्ध्वभागे पूर्णचन्द्रमनोहरम् ।
भजन्ति साधवः सर्वे धर्मकामार्थसिद्धये ॥१११॥
शक्तिबीजतले गेहे श्रीसूर्य कालवहिनजम् ।
उल्काकोटिसमं ध्यात्वा वाञ्छातिरिक्तमाप्नुयात् ॥११२॥
शक्ति बीज के ऊपरी भाग में अत्यन्त मनोहर पूर्ण चन्द्र हैं । साधु लोग धर्म काम तथा अर्थ सिद्धि के लिए उन पूर्ण चन्द्र का ध्यान करते हैं । शक्ति बीज के नीचे करोड़ों उल्का के समान काल वह्नि से उत्पन्न श्री सूर्य देव हैं । उनका ध्यान करने से मनोरथों से भी अधिक फल की प्राप्ति होती है ॥१११ – ११२॥
वारिचक्रप्रसादेन चिरजीवी भवेन्नरः ।
भूमौ महाकालरुपी मूलाधारे चतुद्र्दले ॥११३॥
चतुद्र्दलशेषदले वारिचक्रं सषान्तकम् (?) ।
कोटिसौदामिनीभास विभाव्य योगिराड् भवेत् ॥११४॥
वारिचक्र की कृपा होने पर मनुष्य चिरजीवी होता है तथा भूमि में स्थित चार पत्ते वाले मूलाधार में ध्यान करने से महाकाल रुपी हो जाता है । चारदल के अतिरिक्त अन्य दलों पर स ष अन्त वाला वारिचक्र है, जो करोड़ों विद्युत् की आभा वाला है उसका ध्यान करने से साधक योगिराज बन जाता है ॥ ११३ – ११४॥
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने भावार्थनिर्णये पाशवकल्पे मूलपद्मोल्लासे भूमिचक्र-स्वर्गचक्र-तुलाचक्र-वारिचक्रसारसङ्केते सिद्धमन्त्रप्रकरणे भैरवभैरवीसंवादे एकविंशः पटलः ॥२१॥
इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के उत्तरतंत्र में महातंत्रोद्दीपन में भावार्थनिर्णय में पाशवकल्प में मूलपद्म के विस्तार में भूमिचक्र-स्वर्गचक्र-तुलाचक्र-वारिचक्रों के सारसङ्केत में सिद्धमन्त्र प्रकरण में भैरवी भैरव संवाद में इक्कीसवें पटल की डॅा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्णं हुई ॥ २१ ॥