रुद्रयामल तंत्र पटल २२ , Rudrayamal Tantra Patal 22, रुद्रयामल तंत्र चौबीसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र पटल २२ में षट्चक्र का फलोदय कहा गया है। (१ ) प्रथम मूलाधार चक्र चार दलों का महापद्म है जो व से स पर्यन्त (व श ष स) चार स्वर्णिम वर्णं के अक्षरों से युक्त है । इसमें शक्ति- तत्त्व और ब्रह्म- तत्त्व का ध्यान कहा गया है। मूलविद्या की सिद्धि इसका फल है। ( २ ) मूलाधार महापद्य से ऊपर षड्दल वाले महा प्रभावान् स्वाधिष्ठान् महाचक्र की स्थिति है। इसके छ: दलो पर ब से ल पर्यन्त (ब भ म य र ल) वर्णो का और कर्णिका में राकिणी एवं विष्णु का ध्यान करना चाहिए। (३ ) इसके ऊपर नाभि प्रदेश में करोड़ों मणियों के समान प्रभा वाले मणिपूर चक्र के दश दल कमल पर ड से फ पर्यन्त (ड ढ ण त थ द ध न प फ) वर्णो और लाकिनी एवं रुद्र का ध्यान करना चाहिए । ( ४ ) उसके ऊपर बन्धूक पुष्प के समान द्वादश दल वाले अरुण वर्ण के महामोक्षप्रद अनाहत चक्र पर क से ठ पर्यन्त (क,ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ ) वर्णो का और लाकिनी एवं रुद्र का ध्यान करना चाहिए। ( ५ ) उसके ऊपर कण्ठ प्रदेश में सोलह दल वाले विशुद्ध चक्र में सोलह स्वरों का और शाकिनी एवं सदाशिव का ध्यान करना चाहिए। ( ६ ) पुन: उसके ऊपर भ्रूकुटी में बिन्दु पद हंस स्थान वाले हिमकुन्देन्दु के समान प्रभा वाले दो दल कमल पर आज्ञाचक्र में ल क्ष वर्णो का और सदाशिव शाकिनी का ध्यान करना चाहिए । पुनः सोलह पत्र वाले कण्ठ स्थित अनाहत चक्र में सोलह स्वरों का ध्यान कर कुण्डलिनी को ऊपर ले जाना चाहिए । फिर आज्ञा चक्र में उसे लाकर उसके ध्यान से साधक जीवन्मुक्त हो जाता है।
फिर अनेक श्लोकों में लय योग के साधक को किस प्रकार का होना चाहिए-इसकी चर्चा की गई है। और मन को ही सभी पापों का कारण बताया गया है-
मनः करोति कर्माणि मनो लिप्यति पातके ।
मनः संयमनी भूत्वा पापपुण्यैर्नं लिप्यते ॥ ( रुद्र० २२.३६ )
इसके बाद साधक को सिद्धि प्राप्त करने के उपाय तथा श्रेष्ठ साधक के समयाचार का निरूपण है। फिर कुण्डलिनी के अभ्युत्थान के लिए कुलाचार का वर्णन है । और प्राणायाम को ही सिद्धि- प्राप्ति का उपाय कहा है।
आगे प्रणव का ध्यान और प्रणव से हंस तथा हंस ही सोऽहं कहा गया है । अन्ततः सोऽहं का ज्ञान ही महाज्ञान है जिससे षट्चक्र का भेदन कहा गया है ।*
रुद्रयामल तंत्र पटल २२
रुद्रयामल तंत्र बाइसवाँ पटल – षट्चक्रसारसंकेत
रुद्रयामल तंत्र द्वाविंशः पटलः – षट्चक्रसारसंकेते
रूद्रयामल तंत्र शास्त्र
षट्चक्रसारसंकेते योगशिक्षाविधिनिर्णयः
श्रीआनन्दभैरवी उवाच
श्रृणु शम्भो प्रवक्ष्यामि षट्चक्रस्य फलोदयम् ।
यज्ज्ञात्वा योगिनः सर्वे चिरं तिष्ठन्ति भूतले ॥१॥
श्री आनन्दभैरवी ने कहा — हे शम्भो ! अब षट्चक्र में होने वाले फलों को कहती हूँ जिसे जान कर सभी योगी पृथ्वी पर बहुत काल तक जीते रहते हैं ॥१॥
मूलाधारं महापद्मं चतुर्दलसुशोभितम् ।
वादिसान्तं स्वर्णवर्णं शक्तिब्रह्मपदं व्रजेत् ॥२॥
क्षित्यतेजोमरुद्व्योममण्डलं षट्सु पङ्कजे ।
क्रमेण भावयेन्मन्त्री मूलविद्याप्रसिद्धये ॥३॥
मूलाधार नाम का महापद्म चार दलों से सुशोभित है, उस पर व, श, ष, स – ये चार वर्ण हैं जो स्वर्ण के समान चमकीले हैं । उसका ध्यान करने वाला साधक शक्तिब्रह्म का पद प्राप्त करता है क्षिति जल, तेज, वायु, व्योम तथा शून्य ये छः चक्रों में निवास करते हैं । अतः मन्त्रज्ञ साधक मूल विद्या की प्राप्ति के लिए इन चक्रों का ध्यान करे ॥२ – ३॥
मूलपद्मोर्द्ध्वदेशे च स्वाधिष्ठानं महाप्रभम् ।
षड्दलं राकिणी कर्णिकायां स्मरेद्यतिः ॥४॥
मूलाधार वाले महापद्म के ऊपर अत्यन्त तेजस्वी स्वाधिष्ठान नामक महाचक्र हैं जिसमें छः पत्ते हैं, साधक यति उसकी कर्णिका में राकिणी शक्ति के साथ विष्णु का स्मरण करे ॥४॥
षड्दलं बादिलान्तं च वर्णं ध्यात्वा सुराधिपः ।
कन्दर्पवायुजा व्याप्तलिङमूले भजेद्यतिः ॥५॥
उस स्वाधिष्ठान के षड्दल पर ब, भ, म, य, र, ल, इन छः वर्णों का ध्यान करने से मनुष्य इन्द्र पदवी प्राप्त कर सकता है, यह लिङ्ग के मूल में संस्थित हैं तथा कामवायु से व्याप्त हैं, यति को उस स्वाधिष्ठान का आश्रय लेना चाहिए ॥५॥
तदूर्ध्वे नाभिमूले च मणिकोटिसमप्रभम् ।
दशदलं योगधर्मं डदिफान्तर्थगं भजेत् ॥६॥
उस स्वाधिष्ठान के ऊपर नाभिमूल में करोड़ों मणि के समान प्रकाश वाला मणिपूर चक्र है जिसमें डकार से लेकर प फ पर्यन्त दश वर्ण हैं योगधर्म की प्राप्ति के लिए साधक को उनका ध्यान करना चाहिए ॥६॥
लाकिनीसहितं रुद्रं ध्यायेद्योगादिसिद्धये ।
महामोक्षपदं दृष्टवा जीवन्मुक्तो भवेद् ध्रुवम् ॥७॥
उस मणिपूर चक्र में योग सिद्धि के लिए साधक लाकिनी सहित रुद्र का ध्यान करे । फिर वह महामोक्ष पद का दर्शन कर निश्चित रुप से जीवन्मुक्त हो जाता है ॥७॥
बन्धूकपुष्पसङ्काशं द्लद्वादशशोभोतम् ।
कादिठान्तर्णसहितमीश्वरं काकिनीं भजेत् ॥८॥
तदूर्ध्वे षोडशोल्लासपदे साक्षात् सदाशिवम् ।
महादेवीं साकिनीगं कण्ठे ध्यात्वा शिवो भवेत् ॥९॥
बन्धूक पुष्प के समान अरुण वर्ण वाले क से लेकर ठ पर्यन्त द्वादश वर्ण से सुशोभित द्वादश पत्र वाले चक्र पर काकिनी सहित ईश्वर का ध्यान करना चाहिए ।
उसके ऊपर सोलहदल वाले पद्म पर साकिनी सहित सदाशिव का ध्यान कर साधक सदाशिव बन जाता है ॥८ – ९॥
विमर्श – द्वादशशब्दस्य संख्यापरत्वमभ्युपेत्य दलशब्देन षष्ठीतत्पुरुषः । अथवाद्वादशसंख्यकानि दलानि इति मध्यमपदलेपिसमासे पूर्वनिपातव्यत्यासेन दलद्वादशेति सिध्यति , तैः शोभितमिति ।
रुद्रयामल तंत्र पटल २२ – विशुद्धचक्रमहापद्मविवेचन
रुद्रयामल तंत्र बाइसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र द्वाविंशः पटलः
तंत्र शास्त्ररूद्रयामल
विशुद्धाख्यम् महापुण्य धर्मार्थकाममोक्षदम् ।
धूम्रधूमाकरं विद्युत्पुञ्जं भजति योगिराट् ॥१०॥
आज्ञानामोत्पलं शुभ्रं हिमकुन्देन्दुमन्दिरम् ।
हंसस्थान बिन्दुपदं द्विदलं भ्रूकुटे भजेत् ॥११॥
यह महापुण्यदायक विशुद्ध नामक महापद्म है जो धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष को देने वाला है । यह धुएं के आकार से परिपूर्ण विद्युत्पुञ्ज के समान है । योगिराज इसका भजन करते हैं । इसके बाद हिम, कुन्द, इन्दु के मन्दिर के समान आज्ञा नामक महापद्म है जो भ्रुकुटी में है । यह चक्र दो पत्तों वाला है । बिन्दु पद से युक्त हंस मन्त्र का स्थान है, उसका भजन करना चाहिए ॥१० – ११॥
लक्षवर्णाद्वयाढ्यं यद् बिन्दुयुक्तं मनोलयम् ।
तयोः स्त्रीपंप्रकृयुत्याख्यं कोटिचन्द्रोज्ज्वलं भजेत् ॥१२॥
इस पर ल और क्ष दो वर्ण हैं जो बिन्दु से युक्त हैं । यहीं पर मन का लय होता है । उन दोनों में एक स्त्री दूसरा पुरुष प्रकृति वाला है । यह करोड़ों चन्द्रमा के समान उज्ज्वल है, साधक को इसका भजन करना चाहिए ॥१२॥
कण्ठे षोडशपत्रे च षोडशस्वरवेष्टितम् ।
अकारादिविसर्गान्तं विभाव्य कुण्डलीं नयेत् ॥१३॥
ऊपर कहा गया ( द्र० २२ . ९ ) कण्ठ में रहने वाला षोडश पत्रात्मक पद्मचक्र षोडश स्वर से परिवेष्टित है । अकार से लेकर विसर्ग पर्यन्त वर्ण सोलह स्वर कहे गए हैं । इन स्वरों का ध्यान कर फिर कुण्डली को ऊपर ले जाना चाहिए॥१३॥
आज्ञाचक्रे समानीय कोटिचन्द्रसमोदयाम् ।
कण्ठाधारां कुण्डलिनीं जीवन्मुक्तो भवेदिह ॥१४॥
करोड़ों चन्द्रमा के समान प्रकाश वाली कुण्डली को कण्ठाश्रित-चक्र से ऊपर उठा कर आज्ञा-चक्र (द्विदल कमल) में लाकर उसका ध्यान करने से साधक यहाँ पर ही जीवन्मुक्त हो जाता है ॥१४॥
यदि श्वासं न त्यजति बाह्यचन्द्रमसि प्रभो ।
भ्रूमध्ये चन्द्रनिकरे त्यक्त्या योगी भवेदिह ॥१५॥
हे प्रभो ! यदि साधक अपनी श्वास बाह्म चन्द्रमा में न छोड़े किन्तु भ्रु के मध्य में रहने वाले चन्द्र समूह में छोड़े तो वह यती योगी बन जाता है ॥१५॥
सूक्ष्मवायूद्गमेनैव त्यजेद् वायुं मुहुर्मुहुः ।
सहस्त्रादागतं मूले मूलात्तत्रैवमानयेत् ॥१६॥
साधक को सूक्ष्म वायु को ऊपर चढ़ाकर उसे धीरे धीरे छोड़ना चाहिए । सहस्त्रार चक्र (सहस्त्रदल कमल) से आए हुए वायु को मूलाधार में, फिर मूलाधार से सहस्त्रार के मध्य में ले आना चाहिए ॥१६॥
चन्द्रः सूर्ये लयं याति सूर्यश्चन्द्रमसि प्रभो ।
यो बाह्ये नानयेत् शब्दं तस्य बिन्दुचयो भवेत् ॥१७॥
चन्द्रमा सूर्य में लय को प्राप्त होता है । सूर्य चन्द्रमा में लय प्राप्त करता है । जो बाहर में शब्द का आनयन नहीं करता, उसमें बिन्दु (वीर्य) एकत्रित होता है ॥१७॥
यावद् बाह्ये चन्द्रमसि मनो याति रविप्लुते ।
अन्तर्गते चन्द्रसूर्ये न तस्य दुरितं तनौ ॥१८॥
जब चन्द्र एवं सूर्य का लय हो जाता है, तब चन्द्र सूर्य दोनों ही भीतर हो जाते हैं, इस प्रकार रवि प्लुत बाह्म चन्द्र में जब मन चला जाता है तो शरीर में पाप नहीं रहता ॥१८॥
केवलं सूक्ष्मवायुस्थं वायवीशक्तिलालितम् ।
मानसं यः करोतीति तस्य योगदिवर्द्धनम् ॥१९॥
वायवी शक्ति से सुरक्षित सूक्ष्म वायु में जो अपना मन स्थापित करता है उसके योग की अभिवृद्धि होती है ॥१९॥
प्राप्ते यज्ञोपवीते यः श्रीधरो ब्राह्मणोत्तमः ।
योगाभ्यासं सदा कुर्यात स भवेद्योगिवल्लभः ॥२०॥
यज्ञोपवीत हो जाने पर उत्तम ब्राह्मण श्रीसम्पन्न हो जाता है, उसे सर्वदा योगाभ्यास करते रहना चाहिए । ऐसा करने से वह योगीवल्लभ होता है ॥२०॥
यावत्कालं स्थितं बिन्दुं बाल्यभावे यथा यथा ।
तथा तथा योगमार्ग बिन्दुपातान्मरिष्यति ॥२१॥
बाल्यकाल में जिस जिस प्रकार से बिन्दु (वीर्य) स्थित रहता है, उस उस प्रकार से योगमार्ग भी वृद्धिगत होता है, जब बिन्दु पात की स्थिति आती है तो साधक मरने की स्थिति में आ जाता है ॥२१॥
तथापि यदि मासं वा पक्षं वा दशभिर्दिनम् ।
यदि तिष्ठति बिन्दूग्रः साक्षादभ्यासतो जयी ॥२२॥
फिर भी यदि एक मास एक पक्ष अथवा दश दिन तक बिन्दु स्थित रखे तो वह साक्षात् अभ्यास से योग में विजयी हो जाता है ॥२२॥
कामानल महापीडाविशिष्टः पुरुषो यदा ।
तत्कामादिसंहरणे विना योगेन कः क्षमः ॥२३॥
जब पुरुष कामानल की महापीड़ा से ग्रस्त हो जाता है, तो वह योग नहीं कर सकता कामादि को रोके बिना योग में कौन समर्थ हो सकता है ॥२३॥
समसंसर्गगूढेन कामो भवति निश्चितम् ।
तत्कामात् क्रोध उत्पन्नो महाशत्रूर्विनाशकृत् ॥२४॥
क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धनाशो बुद्धिनशाद् विनाशनम् ॥२५॥
अपने समान (पुरुष या स्त्री) के साथ संबन्ध स्थापित करने पर निश्चित रुप से काम उत्पन्न होता है, उस काम से क्रोध उत्पन्न होता है जो विनाशकर्ता एवं महाशत्रु है । क्रोध से गाढ़ा मोह उत्पन्न होता है, उससे स्मृति नष्ट हो जाती है । इस प्रकार स्मृति के विनाश होने पर बुद्धि का विनाश होने लगता है । जब बुद्धि विनष्ट होती है तब पुरुष का विनाश हो जाता है ॥२४ – २५॥
अतः सम्बुद्धिमाधार्य मूलादिब्रह्ममण्डले ।
ध्यात्वा श्रीनाथपादाब्जं सिद्धो भवति साधकः ॥२६॥
ईश्वरस्य कृपाचिन्हमादौ शान्तिर्भवेद् ह्रदि ।
शान्तिभिर्जायते ज्ञानं ज्ञानन्मोक्शवाप्नुयात् ॥२७॥
इसलिए साधक को अपनी बुद्धि को सुरक्षित रख कर उससे मूलाधार स्थित ब्रह्म मण्डल में महाविष्णु के चरण कमलों का ध्यान कर सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए । जब सर्वप्रथम हृदय में शान्ति होने लगे तो उसे ईश्वर की कृपा का चिन्ह समझना चाहिए। क्योंकि शान्ति से ज्ञान होता है और ज्ञान से मोक्ष प्राप्ति होती है ॥२६ – २७॥
शान्तिर्विद्या प्रतिष्ठा च निवृत्तिरिति ताः स्मृताः ।
चतुर्व्यूहस्ततो देवः प्रोच्यते परमेश्वरः ॥२८॥
इदं ज्ञानमिदं ज्ञेयमिति चिन्तासमाकुलाः ।
पठन्त्यहर्निशं शास्त्रं परतत्त्वपराड्मुखाः ॥२९॥
प्रथम शान्ति, फिर विद्या, फिर प्रतिष्ठा, तदनन्तर निवृत्ति ये चार व्यूह हैं । इसके निवास के कारण परमेश्वर चतुर्व्यूह कहे जाते हैं । यह ज्ञान है, यह ज्ञेय है, इस प्रकार के विचार से समाकुल लोग दिन रात शास्त्र पढ़ते हैं, तब भी वे तत्त्व से पराङमुख रहते हैं ॥२८ – २९॥
शिरो वहति पुष्पाणि गन्धं जानाति नासिका ।
पठन्ति मम तन्त्राणि दुर्लभा भावबोधकाः ॥३०॥
शिर पुष्प का भार जानता है, किन्तु उसके गन्ध का ज्ञान नासिका को ही होता है । इसी प्रकार लोग हमारे तन्त्र को पढ़ते हैं, किन्तु उसके भाव का ज्ञान जानने वाले साधक यति दुर्लभ हैं ॥३०॥
यज्ञोपवीतकाले तु पशुभावाश्रयो भवेत् ।
यावद्योगं स सम्प्राप्तं तावद् वीराचरं न च ॥३१॥
यज्ञोपवीत काल में साधक पशुभाव का आश्रय ग्रहण करे । जब तक योग ज्ञान की संप्राप्ति न हो, तब तक वीराचार ग्रहण करना मना है ॥३१॥
आचारो विनयो विद्या प्रतिष्ठा योगसाधनम् ।
तस्यैव जायते सिद्धिरेष्टपादाम्बुजे मतिः ॥३२॥
देवे गुरौ महाभक्तिर्यस्य नित्यं विवर्धते ।
संवत्सरात्तस्य सिद्धिर्भवत्येव न संशयः ॥३३॥
ऐसा आचरण करने वाले साधक को ही आचार, विनय, विद्या, प्रतिष्ठा, योगसाधन और अपने इष्ट देवता के चरण कमलों में बुद्धि उत्पन्न होती है । जिस साधक को अपने गुरु में और देवता में निरन्तर भक्ति की अभिवृद्धि होती रहती है। उसे एक संवत्सर मात्र में सिद्धि प्राप्त हो जाती है, इसमें संशय नहीं ॥३२ – ३३॥
वेदागमपुराणानां सारमालोक्य यत्नतः ।
मनः संस्थापयेदिष्टपादाम्भोरुहमण्डले ॥३४॥
वेद आगम (मन्त्र शास्त्र) तथा पुराण का तत्त्व यत्नपूर्वक जान कर तदनन्तर अपने इष्ट देवता के चरण कमल मण्डल में मन संस्थापित करे ॥३४॥
चेतसि क्षेत्रकमले षट्चक्रे योगनिर्मले ।
मनो निधाय मौनी यः स भवेद् योगवल्लभः ॥३५॥
क्षेत्र रुपी कमल में रहने वाले, योग से सर्वथा विशुद्ध और चेतना संयुक्त षट्चक्र में मन स्थापित कर जो साधक मौन धारण करता है, वह योग का वल्लभ होता है ॥३५॥
मनः करोति कर्माणि मनो लिप्यति पातके ।
मनःसंयमनी भूत्वा पापपुण्ययैर्न लिप्यते ॥३६॥
मन ही कर्म करता है । मन ही पाप पङ्क से लिप्त रहता है । अतः जो मन को अपने वश में रखता है, वह पाप पुण्य से लिप्त नहीं होता ॥३६॥
रुद्रयामल तंत्र पटल २२
रुद्रयामल तंत्र बाइसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र द्वाविंशः पटलः
तंत्र शास्त्ररूद्रयामल
श्री भैरव उवाच
वद कान्ते रहस्यं मे येन सिद्धो भवेन्नरः ।
तत्प्रकारं विशेषेण योगिनामप्यगोचरम् ॥३७॥
यत्रैव गोपयेद्यद्यदानन्देन निरीक्षयेत् ।
पूजयेद् भावयेच्चैव वर्जयेन्न जुगुप्सयेत् ॥३८॥
क्रमेण वद तत्त्वञ्च यदि स्नेहोऽस्ति मां प्रति ।
न ज्ञात्वापि भूतत्त्वं योगी मोहाश्रितो भवेत् ॥३९॥
श्री भैरव ने कहा — हे कान्ते ! अब उस रहस्य को बताइए, जिससे पुरुष को सिद्धि प्राप्त होती है । विशेष कर उसके प्रकार को जो योगियों के लिए भी अगोचर है । जिसमें जो जो गोपनीय हो, जो जो आनन्दपूर्वक निरीक्षण के योग्य हो, जो जो पूजनीय हो, जो जो ध्यान के योग्य हो, जो जो वर्जनीय हो तथा जो जो जुगुप्सा के योग्य न हो, हे प्रिये ! यदि मुझमें आपका स्नेह हो तो क्रमशः उन तत्त्वों को प्रकाशित कीजिए । क्योंकि इन्हें बिना जाने योगी भूत के समान रहता है और मोह के वशीभूत हो जाता है ॥३७ – ३९॥
आनन्दभैरवी उवाच
त्रैलोक्ये योगयोग्योऽसि षट्चक्रभेदने रतः ।
त्वमेव परमानन्द महाधिष्ठाननिर्मल ॥४०॥
सङ्कातयेन्महावीर एतान्दोषान् महाभयान् ।
कामक्रोधलोभमोहमदमात्सर्यसञ्ज्ञकान् ॥४१॥
आनन्दभैरवी ने कहा — हे परमानन्द ! हे महाधिष्ठान निर्मल ! मात्र आप ही योग की योग्यता रखते हैं तथा षट्चक्र भेदन की क्रिया में समर्थ हैं । हे महावीर, महाभय देने वाले काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मात्सर्य संज्ञक इन दोषों का साधक को संहार करना चाहिए ॥४० – ४१॥
सङ्कातयेन्महावीरो विकारं चेन्दियोदभवम् ।
निद्रा-लज्जा-दौर्मन्स्यं दशकालानलान् प्रभो ॥४२॥
सङोपयेन्महावीरो महामन्त्रं दुलक्रियाम् ।
मुद्राक्षसूत्रतन्त्रार्थं गोपिनां वीरसङुमम् ॥४३॥
हे प्रभो ! महावीर को इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले सभी विकारों को लज्जा दौर्मनस्य तथा दश कालग्नियों का विनाश करना चाहिए । महावीर को महामन्त्र, कुण्डलिनी के उत्थान कि क्रिया, मुद्रा, अक्ष (माला) सूत्र, तन्त्रार्थ गोपनीय वीर का सङ्गम गुप्त रखना चाहिए ॥४२ – ४३॥
अत्याचारं भैरवाणां योगिनीनां च साधनम् ।
नाडीग्रथनमानञ्च गोपयेन्मातृजारवत् ॥४४॥
भैरवों के आचार का अतिक्रमण, योगिनियों के साधन के प्रकार और नाड़ियों का मान माता के जार (उपपति) की तरह गुप्त रखना चाहिए ॥४४॥
न निन्देत् प्राणनिधने देवतां गुरुमीश्वरम् ।
सुरां विद्यां महाक्षेत्रं पीठ योगाधिकारिणम् ॥४५॥
योगिनी जडमुन्त्त्तं जन्मकर्मकुलक्रियाम् ।
प्रयोगे धर्मकर्तारं न निद्नेत् प्राणसंस्थितौ ॥४६॥
पत्नीं भ्रातृवधूञ्चैव बौद्धाचारञ्च योगिनीम् ।
कर्म शुभाशुभञ्चैव महावीरो न निन्दयेत् ॥४७॥
साधक जीवन मरण की, देवता की, गुरु की तथा ईश्वर की निन्दा न करे । इसी प्रकार सुरा की, महाविद्या की, महाक्षेत्र, सिद्धपीठ, योग के अधिकारी, योगिनी, जड़, उन्मत्त, जन्म कर्म, कुण्डलिनी, क्रिया तथा प्रकृष्ट योग में धर्म करने वाले की प्राण रहते कदापि निन्दा न करनी चाहिए । पत्नी, भाई की भार्या, बौद्धाचार, योगिनी, शुभाशुभ कर्म की महावीर निन्दा न करे ॥४५ – ४७॥
निरिक्षयेन्न कदापि कन्यायोनिं दिने रतिम् ।
पशुक्रिडां दिग्वसनां कामिनी प्रकटस्तनीम् ॥४८॥
विग्रहं द्यूतपाशार्थं क्लींब विष्ठादिकं शुचौ ।
अभिचारभारञ्च क्रियाप्रमत्तस्य नेक्षयेत् ॥४९॥
कन्या की योनि, दिन में रति, पशुओं का मैथुन, नङ्गी स्त्री तथा खुले स्तन वाली कामिनी, जूआ के लिए लड़ने वाले जुआड़ी नपुंसक, शुचि रहने पर विष्टा आदि घृणित वस्तु अभिचार (मारणादि क्रिया) तथा असमत्त की क्रिया वीर पुरुष न देखे ॥४८ – ४९॥
पूजयेत्परया भक्त्या देवताम गुरुमीश्वरम् ।
शक्तिं साधुमात्मरुपं स्थूलसूक्ष्मं प्रयत्नतः ॥५०॥
अतिथिं मातरं सिद्धं पितरं योगिनं तथा ।
पूजयेत् परया भक्त्या सिद्धमन्त्रं सुसिद्धये ॥५१॥
देवता गुरु, ईश्वर शक्ति, साधु, स्थूल तथा सूक्ष्म अपने आत्मस्वरुप की अत्यन्त भक्ति के साथ प्रयत्न पूर्वक पूजा करे । अतिथि, माता सिद्ध, पिता योगी इनकी भी परा भक्ति से पूजा करे । इसी प्रकार सिद्धि के लिए प्रयुक्त सिद्ध मन्त्र को भी आदर की दृष्टि से देखे ॥५० – ५१॥
भावयेदेकचित्तेन साधूक्तं योगसाधनम् ।
गुरोर्वाक्योपदेशं च स्वधर्मं तीर्थदेवताम् ॥५२॥
कुलाचारं वीरमन्त्रमात्मानं परमेष्ठिनम् ।
भावयेद्विधिविद्यां च तन्त्रसिद्धार्थनिर्णयम् ॥५३॥
साधुओं का उपदेश, योग का साधन, गुरुवाक्य, उपदेश, अपना धर्म, तीर्थ, देवता कुलाचार, वीरमन्त्र, आत्मा, परमेष्ठी, विधिपूर्वक प्राप्त की गई विद्या, तन्त्र तथा सिद्धार्थ निर्णय इनका अनन्य मन से ध्यान करना चाहिए ॥५२ – ५३॥
वर्जयेत् साधकश्रेष्ठोऽगम्यागमनादिकम् ।
धूर्तसङ वञ्चकञ्च प्रलापमनृताशुभम् ॥५४॥
वर्जयेत् पापगोष्ठीयमालास्यं बहुजल्पनम् ।
अवेदकर्मसञ्चारं गोसवं ब्राह्मणस्य च ॥५५॥
जुगुप्सयेन्न कदापि विण्मूत्रं क्लेदशोणितम् ।
हीनाङी पिशितं नाथ कपालाहरणादिकाम् ॥५६॥
सुरां गोपालनञ्चैव निजपापं रिपोर्भयम् ।
जुगुप्सयेन्न सुधर्म्मं यदि सिद्धिमिहेच्छति ॥५७॥
श्रेष्ठ साधक अगम्या स्त्री से संभोग जैसे पतित कार्य, धूर्त्त का साथ, ठगहारी, प्रलाप, झूठ, अशुभ इनको वर्जित करे । पापियों की गोष्ठी, आलस्य, बकवाद, वेद विरुद्ध कर्म का प्रचार, गोहत्या, ब्रह्महत्या जैसे पापों का वर्जन करे । हे नाथ ! विष्ठा मूत्र, कफ, खून, हीन अङ्गवाली स्त्री, मांस तथा कपाल हरणादि की निन्दा कदापि न करे । सुरा, गोपालन, अपना पाप और शत्रु से होने वाले भय की निन्दा न करे । इसी प्रकार सिद्धि चाहने वाला साधक श्रेष्ठ धर्म की भी निन्दा न करे ॥५४ – ५७॥
समयाचारमेवेदं योगिनां वीरभाविनाम् ।
गुर्वाज्ञया यः करोति जीवन्मुक्तो भवेद् भुवि ॥५८॥
वृथा धर्म वृथा चर्यं वृथा दीक्षा तपः ।
वृथा सुकृतमाख्येति गुर्वाज्ञालङ्कनं नृणाम् ॥५९॥
वह वीरभाव प्राप्त करने वालों के लिए इस प्रकार का समयाचार है । जो गुरु की आज्ञा से इनका पालन करता है वह पृथ्वी पर ही जीवन्मुक्त हो जाता है । मनुष्य को, गुरु की आज्ञा उल्लंघन जैसा पाप, उसके धर्म को, आचरण की दीक्षा को, तप को, पुण्य को तथा यश को व्यर्थ बना देता है ॥५८ – ५९॥
ब्राह्मणक्षत्रिदीनामादौ योगादिसाधनम् ।
पश्चात् कुलक्रिया नाथ योगविद्याप्रसिद्धये ॥६०॥
विना भावेन वीरेण पूर्णयोग कुतो भवेत् ।
आदौ कुर्तात् पशोर्भावं पश्चात कुलविचारणम् ॥६१॥
हे नाथ ! योग विद्या में प्रकृष्ट सिद्धि चाहने के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि को प्रथम योगादिसाधन करना चाहिए। उसके पश्चात् कुल क्रिया कुण्डलिनी का उत्थान करना चाहिए । वीरभाव के बिना कोई मनुष्य किस प्रकार पूर्णयोगी बन सकता है । उसमें भी प्रथम पशुभाव का आचरण करे । पश्चात् कुण्डलिनी का आचरण करे ॥६० – ६१॥
मम तन्त्रे महादेव केवलं सारनिर्णयम् ।
अकस्माद् भक्तिसिद्ध्यर्थ कुलाचारं च योगिनाम् ॥६२॥
ब्राह्मणानां कुलाचारं केवलं ज्ञानसिद्धये ।
ज्ञानेन जायते योगी योगादमरविग्रहः ॥६३॥
भूत्वा योगी कुलीनश्च योगाभ्यासमहर्निशम् ।
षट्चक्रं भूतनिलयं भावयेद् भावसिद्धये ॥६४॥
हे महादेव ! हमारे (शक्ति) तन्त्र में केवल सार निर्णय यह है कि अकस्माद् भक्ति की सिद्धि के लिए योगियों का कुलाचार करे । ब्राह्मणों को कुलाचार (कुण्डलिनी का अभ्युत्थान) केवल ज्ञान की सिद्धि के लिए करना चाहिए । क्योंकि ज्ञान से योगी, तदनन्तर योग से अमर शरीर प्राप्त होता है । कुलीन (कुण्डलिनी का उपासक) योगी दिन रात योगाभ्यास करे और पञ्चभूत के स्थानभूत षट्चक्रों का भावसिद्धि के लिए ध्यान करे ॥६२ – ६४॥
मूलपद्मस्योद्र्ध्वदेशे लिङुमूले महाशुचिः ।
स्वाधिष्ठाने महापद्मं पद्दले वायुना यजेत् ॥६५॥
एतत् षड्दलवर्णानां भावनां यः करोति हि ।
तस्य साक्षाद् भवेद्विष्णुः राकिणीसहितः प्रभो ॥६६॥
मूलाधार में स्थित महापद्म के ऊपर लिङ्गमूल के स्वाधिष्ठान नामक महापद्म के पाद के (नीचे) दल में पवित्र साधक वायु द्वारा यजन करे । स्वाधिष्ठान स्थित छः पत्तों पर स्थित रहने वाले वर्णों की जो भावना करता है, प्रभो ! उसे राकिणी सहित महाविष्णु का साक्षात्कार हो जाता है ॥६५ – ६६॥
स्वाधिष्ठानषड्दलस्य कर्णिकामध्यमण्डले ।
दलाष्टकं भावयित्वा नागयुक्तं स ईश्वरः ॥६७॥
अष्टौ नागा अष्टदले प्रतिभान्ति यथारुणाः ।
जलस्योपरि पद्मे च ध्यायेत्तन्नावल्लभाम् ॥६८॥
स्वाधिष्ठान के छः पत्तों वाले कर्णिका के मध्य मण्डल में स्थित नाग युक्त आठ पत्तों का ध्यान कर साधक साक्षात् सदाशिव हो जाता है । जिस प्रकार अष्टदल पर अरुण वर्ण के आठ नाग शोभित होते हैं, उसी प्रकार जल के ऊपर रहेन वाले उस महापद्म पर नागपत्नियों का भी ध्यान करना चाहिए ॥६७ – ६८॥
अनन्तं वासुकिं पद्मं महापद्मं च तक्षकम ।
कुलीरं कर्कटं शङ्क दक्षिणादौ दले भजेत् ॥६९॥
अष्टदलोपरि ध्यायेत् कर्णिकावृत्तयुग्मकम् ।
तदूर्ध्व षड्दलं वादिलान्तयुक्तं सबिन्दुकम् ॥७०॥
अनन्त, वासुकि, पद्म, महापद्म, तक्षक, कुलीर, कर्कट तथा शंख इन आठ नागों का दक्षिण दल मे प्रारम्भ कर ध्यान करना चाहिए । उस अष्टदल के ऊपर कर्णिका से युक्त दो वृत्तों का ध्यान करे । उसके ऊपर षड्दल का ध्यान करना चाहिए , जिस पर बिन्दु के सहित व भ म य र ल ये छः वर्ण हैं ॥६९ – ७०॥
पूर्वदिक्रमयोगेन दक्षिणावर्त्तवायुना ।
पुनः पुनः कुम्भयित्वा ध्यायेत् षड्वर्णवायवीम् ॥७१॥
केशर युगलं ध्यायेत् कुलोर्ध्वे साकृतिं मुदा ।
अष्टदले षड्दले च विभाव्य योगिराड् भवेत् ॥७२॥
अष्टदलस्योर्ध्वदेशे वृत्तयुग्मं मनोहरम् ।
तस्योपरि पुनर्ध्यायेत् षड्दले वादिलान्तकम् ॥७३॥
पूर्व दिशा के क्रम से दक्षिणावर्त वायु द्वारा पुनः पुनः कुम्भक कर वायु देवता वाले इन छः वर्णों का ध्यान करे । कुल के ऊर्ध्व भाग में अष्टदल पर तथा षड्दल पर आकृति सहित दो केशरों का प्रसन्नता पूर्वक ध्यान करे । ऐसा करने से साधक योगिराज बन जाता है । उस अष्टदल के ऊर्ध्व देश में मनोहर दो वृत्त हैं । उसके ऊपर षड्दल पर पुनः ’व भ म य र ल’ इन छः वर्णों का ध्यान करना चाहिए ॥७१ – ७३॥
दलाष्टकाधो ध्यायेद्यो वृत्तयुग्मं मनोहरम् ।
वृत्ताधोमण्डलाकारं वं बीजं व्याप्य तिष्ठति ॥७४॥
वृत्तलग्नं समाव्याप्तं यं बीजं विद्युदाकरम् ।
कोटिसूर्यसमाभासं विभाव्य योगिनां पतिः ॥७५॥
यान्तबीजकलानां तु अधः षट्कोणमण्डलम् ।
षट्कोणे दक्षिणादौ च भावयेद् यादिलान्तकम् ॥७६॥
अष्टदल के नीचे पुनः दो मनोहर वृत्तों का ध्यान करना चाहिए । जिस वृत्त के अधः मण्डल के आकार वाला ’वं’ बीज व्याप्त हो कर स्थित है । वृत्त में लगा हुआ उसी के समान, विद्युदाकर, करोड़ों सूर्य के समान तेज वाला ’यं’ बीज का ध्यान कर साधक योगियों का अधिपति हो जाता है । यान्त बीज ’रं’ कला के नीचे षट्कोण का मण्डल है । उस षट्कोण मण्डल में दक्षिण दिशा से आरम्भ कर य र ल वर्णों का ध्यान करना चाहिए ॥७४ – ७६॥
तत्षट्कोणमध्यदेशे षट्कोणं धूम्र मण्डलम् ।
तत्कोणे दक्षिणादौ च द्र्वयादिषट्कमाश्रयेत् ॥७७॥
द्रव्यं गुणास्तथा कर्म सामान्यं सविशेषकम् ।
समवायं क्रमेणैव षट्कोणेषु विभावयेत् ॥७८॥
उस षट्कोण के मध्य भाग में धूम्र मण्डल युक्त एक षट्कोण और है । उस षट्कोण में द्रव्यादि छः पदार्थ अर्थात् १ . द्रव्य, २ . गुण, ३ . कर्म, ४ . सामान्य, ५ . सविशेष तथा ६ . समवाय – इन छः पदार्थों का ध्यान करना चाहिए ॥७७ – ७८॥
पूर्वादिक्रमयोगेन दक्षिणावर्तवायुना ।
सर्वत्र भावयेन्मन्त्री मुम्भयित्वा पुनः पुनः ॥७९॥
द्रव्यषट्कोणमध्ये तु षट्कोणं चारुतेजसम् ।
कोणे कोणे च षड्वर्गान् भावयेत् स्थिरचञ्चलान् ॥८०॥
तन्मध्ये च त्रिकोणे च राकिणीसहितं हरिम् ।
कोटिचन्द्रमरीचिस्थं ध्यायेद्योगी विशालधीः ॥८१॥
षट्कोण के मध्य में अत्यन्त सुन्दर तेजस्वी एक षट्कोण और है । उसके प्रत्येक कोण में स्थिर तथा चञ्चल प्रकृति वाले, क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग और य वर्ग – इन छः वर्गों का ध्यान करना चाहिए । उसके मध्य में रहने वाले त्रिकोण में विशाल बुद्धि वाले योगी को करोड़ों चन्द्रमा की किरणों के समान राकिणी के सहित श्री हरि का ध्यान करना चाहिए ॥७९ – ८१॥
षड्द्लान्तर्गतं पदं योगिनामपि साधनम् ।
यो नित्यं कुरुतेऽभ्यासं तस्य योगः प्रसिद्धयति ॥८२॥
एतच्चक्रप्रसादेन नीरोगी निरहङ्कृतः ।
सर्वज्ञो भवति क्षिप्रं श्रीनाथपदभावनात् ॥८३॥
इस प्रकार षट्दल में रहने वाला पद्म योगियों का साधन है । जो इस पद्म का ध्यान करता है, उसका योग सिद्ध हो जाता है । इस चक्र की कृपा से महाविष्णु के चरण कमल में की गई भावना से साधक नीरोग और अहङ्कार रहित होकर बहुत शीघ्र सर्वज्ञ हो जाता है ॥८२ – ८३॥
ज्योतीरुपं योगमार्गं सूक्ष्मातिसूक्ष्मनिर्मलम् ।
त्रैलोक्यकामनासिद्धि षट्चक्रे भावयेद्धरिम् ॥८४॥
यो हरिः शेषशम्भुश्च यः शम्भुः सूक्ष्मरुपधृक् ।
सूक्ष्मरुपस्थितो ब्रह्मा ब्रह्माधेनमिदं जगत् ॥८५॥
योग मार्ग प्रकाश स्वरुप है, सूक्ष्म से तथा अत्यन्त निर्मल है । अतः उक्त षट्चक्र में त्रिलोकी के समस्त कामनाओं की सिद्धि करने वाले श्री हरि का ध्यान करना चाहिए । जो हरि हैं वही शेष और वही शम्भु हैं । सूक्ष्म रुप धारण करने वाले जो शम्भु हैं वही सूक्ष्म रुप में स्थित रहने वाले ब्रह्मा हैं । यह सात लोक उन्हीं ब्रह्मदेव के अधीन है ॥८४ – ८५॥
एकमूर्तिस्त्रयो देवा ब्रह्मविष्णुपितामहाः ।
मम विग्रहसंश्लिष्टाः सृजत्यवति हन्ति च ॥८६॥
प्राणायामोद्गता एते योगविघ्नकराः सदा ।
प्राणायामेन निष्पीड्य प्रसभं सिद्धिमाप्नुयात् ॥८७॥
ऐसे ब्रह्मा, विष्णु तथा पितामह नाम वाले देवता तीन हैं, किन्तु उनकी एक ही मूर्ति है । ये सभी मेरे शरीर से संष्लिष्ट हैं जो सृष्टि, पालन तथा उसका संहार करते हैं । ये प्राणायाम से उत्पन्न हुए हैं और सर्वदा योगमार्ग में विघ्न डालने वाले हैं। इसलिए साधक प्राणायाम के द्वारा निष्पीड़न कर सिद्धि प्राप्त करे ॥८६ – ८७॥
रुद्रयामल तंत्र पटल २२
रुद्रयामल तंत्र बाइसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र द्वाविंशः पटलः – ओम् का स्वरुप
तंत्र शास्त्ररूद्रयामल
अकारं ब्रह्मणो वर्णं शब्दरुपं महाप्रभम् ।
प्रणवान्तर्गतं नित्यं योगपूरकमाश्रयेत् ॥८८॥
उकारं वैष्णवं वर्णं शब्दभेदिनमीश्वरम् ।
प्रणवान्तर्गतं सत्त्वं योगकुम्भकमाश्रयेत् ॥८९॥
ओम् का स्वरुप – महातेजस्वी शब्दरुप अकार ब्रह्मा का वर्ण है । यह प्रणव के अन्तर्गत नित्य रहने वाला है । यह योग का पूरक है अतः इसका आश्रय लेना चाहिए । शब्द को भिन्न भिन्न करने वाला सबका ईश्वर ऊकार वैष्णव वर्ण है, जो प्रणवान्तर्गत सत्त्व है और कुम्भक प्राणायाम योग है। साधक को इसका भी आश्रय लेना चाहिए॥८८- ८९॥
मकारं शाम्भवं रुपं बीजभूतं विधूद्गतम् ।
प्रणवान्तस्थितं कालं लयस्थानं समाश्रयेत् ॥९०॥
वर्णत्रय विभागेन प्रणवं परिकल्पितम् ।
प्रणवाज्जायते हंसो हंसः सोऽहं परो भवेत् ॥९१॥
सोऽहं ज्ञानं महाज्ञानं योगिनामपि दुर्लभम् ।
निरन्तरं भावयेद्यः स एव परमो भवेत् ॥९२॥
मकार श्री शम्भु का बीजभूत रुप है जो चन्द्रमा से उत्पन्न है । प्रणव के भीतर रहने वाला लय का स्थान तथा काल स्वरुप है, इसका आश्रय लेना चाहिए । तीन वर्ण के अलग अलग रुपों को एक में मिलाने से प्रणव का रुप बनता है, इस प्रणव से ’हंस’ मन्त्र बनता है, फिर यही हंस, सोऽहं का रुप बन जाता है । सोऽहं का ज्ञान महाज्ञान है, जो योगियों के लिए भी दुर्लभ है, जो निरन्तर इसकी भावना करता है वह परब्रह्म हो जाता है ॥ ९० – ९२॥
हं पुमान् श्वासरुपेण चन्द्रेण प्रकृतिस्तु सः ।
एतद्धंस विजानीयात् सूर्यमण्डलभेदकम् ॥९३॥
विपरीक्रमेणैव सोऽहं ज्ञानं यदा भवेत् ।
तदैव सूर्यगः सिद्धः स्वधास्वरप्रपूजितः ॥९४॥
श्वास रुप चद्र से ’हं’ पुमान् है और ’सः’ प्रकृति है यही हंस मन्त्र है जो सूर्यमण्डल का भी भेदक है । इस हंस को उलट देने पर ’सोऽहं’ ज्ञान हो जाता है । तब साधक सूर्यमण्डल में गमन करने वाला सिद्ध हो जाता है और स्वधा स्वर से पूजित होता है ॥९३ – ९४॥
हकारार्णं सकारार्णं लोपयित्वा ततः परम् ।
सन्धिं कुर्यात्ततः पश्चात् प्रणवोऽसौ महामनुः ॥९५॥
एतद् हंसं महामन्त्रं स्वाधिष्ठाने मनोगृहे ।
मनोरुपं भजेद्यस्तु स भवेत् सूर्यमध्यगः ॥९६॥
हकार वर्ण तथा सकार वर्ण का लोप कर जब शेष की सन्धि कर दे तो वही प्रणव रुप महामन्त्र बन जाता है । यह हंस रुप महामन्त्र मन के गृहभूत स्वाधिष्ठान चक्र में रहता है । अतः साक्षात् मनोरुप से इसका जो जप करता है वह सूर्य मण्डल में गमन करता है ॥९५ – ९६॥
हंसं सूर्य विजानीयात सोऽहं चन्द्रों न संशयः ।
विपरीतो यदा भूयात्तदैव मोक्षभाग् भवेत् ॥९७॥
यदि हंससमनोरुप स्वाधिष्ठाने हरेः पदे ।
विभाव्य श्रीगुरोः पादे नीयते नात्र संशयः ॥९८॥
’हंस’ का अर्थ सूर्य है और सोऽहं का अर्थ चन्द्रमा है, इसमें संशय नहीं जब ’हंस’ ’सोऽहं’ इस विपरीत रुप में हो जाता है तब साधक मोक्ष का भागी बन जाता है । यदि साधक हंस मनोरुप को स्वाधिष्ठान स्थित विष्णु के पद में ध्यान कर श्री गुरु के चरण में समर्पित कर दे तो भी साधक मोक्ष का गामी बन जाता है इसमें संशय नहीं ॥९७ – ९८॥
सोऽहं यदा शक्तिकूटं अकाराकारसम्पुटम् ।
कृत्वा जपति यो ज्ञानी स भवेत् कल्पपादपः ॥९९॥
जपहोमादिकं सर्वं हंसेन यः करोति हि ।
तदैव चन्द्रसूर्य स्यात् हंसमन्त्रप्रसादतः ॥१००॥
जब साधक ’सोऽहं’ इस शक्ति कूट को ॐ कार से सम्पुटित कर ॐ सोऽहं ॐ का जप करता है तो वह महाज्ञानी तथा कल्पवृक्ष हो जाता है । जो हंस मन्त्र से जप होमादि कार्य करता है, तब उस हंस मन्त्र की कृपा से वह चन्द्र एवं सूर्य बन जाता है ॥९९ – १००॥
एतज्जपं महादेव देहमध्ये करोम्यहम् ।
एकविंशसहस्त्राणि षट्शतानि च हंमनुः ॥१०१॥
हे महादेव ! मैं इस हंस मन्त्र का अपने देह के मध्य में जप करती रहती हूँ, इस हंस मन्त्र की जप संख्या २१ हजार छः सौ है ॥१०१॥
पुंरुपेण हकारञ्च स्त्रीरुपेण सकारकम् ।
जप्त्वा रक्षां करोतीह चन्द्रबिन्दुशतेन च ॥१०२॥
चन्द्र बिन्द्र से संयुक्त पुरुष रुप से हकार (हं) तथा स्त्री रुप सकार का जप कर साधक अपनी रक्षा करने में समर्थ हो जाता है ॥१०२॥
प्रणवान्तं महामन्त्रं नित्यं जपति यो नरः ।
वायुसिद्धिर्भवेत्तस्य वायवी सुकृपा भवेत् ॥१०३॥
बृहद हंसं प्रवक्ष्यामि येन सिद्धो भवेन्नरः ।
कामरुपी क्षणादेव वाक्सिद्धिरिति निश्चितम् ॥१०४॥
जो मनुष्य आदि में प्रणव लगाकर उसके अन्त में इस महामन्त्र का जप करता है उस पर वायवी कृपा हो जाती है और वायु की सिद्धि हो जाती है । अब मैं उस बृहद्धंस मन्त्र को कहती हूँ, जिसके जप से पुरुष सिद्ध हो जाता है । वह इच्छानुसार रुप धारण कर लेता है और उसे निश्चित रुप से वाक्सिद्धि हो जाती है ॥१०३ – १०४॥
आदौ प्रणवमुच्चार्य ततो हंसपदं लिखेत् ।
तत्पश्चात् प्रणवं ज्ञेय ततः परपदं स्मरेत् ॥१०५॥
तर्पयामि पदस्यान्ते प्रणवं फडिति स्मरेत् ।
एतद्धि हंसमन्त्रस्तु वीराणामुदयाय च ॥१०६॥
पहले प्रणव (ॐ) का उच्चारण करे । उसके बाद ’हंस’ इस पद को लिखे, उसके बाद फिर प्रणव (ॐ), तदनन्तर ’पर पद’ इसके बाद ’तर्ययामि’ उसके अन्त में प्रणव (ॐ) से युक्त ’फट्’ पद लिखे । यह वृहद्धंस मन्त्र वीरभाव वालों के अभ्युदय के लिए है ॥१०५ – १०६॥
विमर्श – बृहद् हंस मन्त्र का स्वरुप – ॐ हंस ॐ पर तर्पयामि ॐ फट् ।
बृहद् हंसप्रसादेन षट्चक्रभेदको भवेत् ।
षट्चक्रे च प्रशंसन्ति सर्वे देवाश्चराचराः ॥१०७॥
साधक इस ’बृहद्धंस की कृपा से षट्चक्र का भेदन करने वाला हो जाता है । षट्चक्रों की सभी देवता तथा चराचर प्रशंसा करते हैं ॥१०७॥
योगसिद्धिं विघाताय भ्रमन्ति योगिनस्तनौ ।
यदि हंस बृहद्धंस जपन्ति वायुसिद्धये ॥१०८॥
तदा सर्वे पलायन्ते राक्षसान्मानुषा यथा ॥१०९॥
योगसिद्धि में विघात करने के लिए योगी के शरीर में विघ्न घूमते रहते हैं, यदि साधक वायु सिद्धि के लिए हंस तथा परमहंस मन्त्र का जप करे तो वे सभी इस प्रकार भाग जाते हैं जैसे राक्षस से मनुष्य ॥१०८ – १०९॥
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने भावनिर्णये पाशवकल्पे षट्चक्रसारसङ्केते योगशिक्षाविधिनिर्णये सिद्धमन्त्रप्रकरणे भैरवीभैरवसंवादे द्वाविंशः पटलः ॥२२॥
इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के उत्तरतंत्र में महातंत्रोद्दीपन में भावार्थनिर्णय में पाशवकल्प में षट्चक्रसारसङ्केत में योगशिक्षाविधिनिर्णय में सिद्धमन्त्र प्रकरण में भैरवी भैरव संवाद में बाइसवें पटल की डॅा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्णं हुई ॥ २२ ॥
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