रुद्रयामल तंत्र पटल २६ , Rudrayamal Tantra Patal 26, रुद्रयामल तंत्र छब्बीसवाँ पटल

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रुद्रयामल तंत्र पटल २६ में जप एवं ध्यानान्तर- गर्भित प्राणायाम का निरूपण है। जप भी व्यक्त, अव्यक्त एवं अतिसुक्ष्म भेद से तीन प्रकार का बताया गया है । व्यक्त जप वाचिक होता है, अव्यक्त उपांशु और अतिसुक्ष्म जप मानस होता है। ध्यान के २१ प्रकार बताते हुए उसे मनोमात्रसाध्य बताया गया है। अन्त में पञ्चमकार के सेवन की विधि बताई गई है। वीराचार के साधक के लिए कुल कुण्डलिनी का ध्यान कहकर (६०-६६) स्नान एवं सन्ध्या (७६–९४), उपासक द्वारा तर्पण के प्रकार (९७–१००) एवं सोऽहं भाव से पूजा (अन्तर्याग) की विधि कही गई है(१०१-११७) । योगियों के अन्तर्याग में पुष्प एवं होमविधि वर्णित है (११८-१३०)।

आकाश पद्म से निस्सृत सुधापान मद्य है, पुण्य एवं पाप रूप पशु का ज्ञान की तलवार से संज्ञपन कर परशिव का मनसा मांस खाना ही मांस भक्षण है। शरीर जल में स्थित मत्स्यों का खाना ही मत्स्य भक्षण है। महीगत स्निग्ध एवं सौम्य से उद्भूत मुद्रा का ब्रह्माधिकरण में आरोपित कर साधक तर्पण करता है और यही मुद्रा भोजन है । परशक्ति के साथ अपनी आत्मा का (ध्यानगत) संयोग ही मैथुन कहा गया है (९३७–१४८)।

रुद्रयामल तंत्र छब्बीसवाँ पटल – वीरध्येयरूप

रुद्रयामल तंत्र षड्‌विंशः पटलः – देव्या वीरध्येयरूपम्

षट्‍चक्रभेदः

रूद्रयामल तंत्र शास्त्र

अथ षड्‌विंशं पटल:

आनन्दभैरवी उवाच

श्रृणु प्राणेश सकलं प्राणायामनिरुपणम् ।

प्राणायामे जपं ध्यानं तत्त्वयुक्तं वदामि तत् ॥१॥

प्रकारयेय मुल्लासं प्राणायामेषु शोभितम् ।

देवताविधिविष्णवीशास्ते तु मध्यममध्यमाः ॥२॥

रजस्तमोगुणं नाथ सत्त्वे संस्थाप्य यत्नत: ।

कामक्रोधादिकं त्यक्त्वा योगी भवति योगवित् ॥३॥

आनन्दभैरवी ने कहा — हे प्राणेश ! अब सब प्रकार के प्राणायाम का निरूपण कर रही हूँ उसे सुनिए । जिस प्राणायाम में तत्त्वयुक्त जप और ध्यान है उसे कहती हूँ । प्राणायाम क्रिय़ा में शोभा पाने वाले इस उल्लास के कई प्रकार हैं । इसके ब्रह्मा, विष्णु और ईश्वर – ये देवता वे तो मध्यम से भी मध्यम हैं । हे नाथ ! साधक सत्त्व में रज तम गुणों को स्थापित कर तथा काम क्रोधादि दोषों को त्याग कर प्राणायाम करे तो वह योगी योगवेत्ता हो जाता है ॥१ – ३॥

रजोगुणं नृपाणां तु तमोगुणमतीव च ।

अधिकं तु पशूनां हि साधूनां सत्त्वमेव च ॥४॥

सत्त्वं विष्णुं वेदरुपं निर्मलं द्वैतवर्जितम् ।

आत्मोपलब्धिविषयं त्रिमूर्तिमूलमाश्रयेत् ॥५॥

राजाओं में रजोगुण रहता है उससे भी अधिक तमोगुण रहता है, उससे भी अधिक तमोगुण पशुओं में रहता है, किन्तु साधुओं में मात्र सतोगुण की स्थिति रहती है । विष्णु में सत्त्वगुण है वे वेद के स्वरुप निर्मल तथा द्वैत से वर्जित हैं । आत्मोपलब्धि के विषय हैं, तीनों मूर्तियों के मूल हैं, अतः उनका ही आश्रय लेना चाहिए ॥४ – ५॥

सत्त्वगुणाश्रयादेव निष्पापी सर्वसिद्धिभाक्‍ ।

जितेन्द्रियो भवेत् शीघ्रं ब्रह्मचारिव्रतेन च ॥६॥

प्राणवायुवशेनापि वशीभूताश्चराचराः ।

तस्यैव कारणे नाथ जपं ध्यानं समाचरेत् ॥७॥

वक्ष्यामि तत्प्रकारं जपध्यानं विधिद्वयम् ।

एतत्करणमात्रेण योगी स्यान्नात्र संशयः ॥८॥

सत्त्वगुण का आश्रय लेने से साधक पाप रहित और सभी सिद्धियों का पात्र होता है, किं बहुना ब्रह्मचर्य व्रत से वह शीघ्र जितेन्द्रिय हो जाता है । हे नाथ ! प्राणवायु को भी वश में कर लेने से संसार के सभी चराचर वश में हो जाते हैं । इसलिए प्राणवायु को वश में करने के लिए जप और ध्यान भी करते रहना चाहिए । प्राणवायु को वश में करने के लिए जप और ध्यान दो ही विधियाँ हैं । उनका प्रकार आगे कहूँगी । इनके कारण ही साधक योगी बन जाता है इसमें संशय नहीं ॥६ – ८॥

जपं च त्रिविधं प्रोक्तं व्यक्ताव्यक्तातिसूक्ष्मगम् ।

व्यक्तं वाचिकमुपांशुमव्यक्तं सूक्ष्ममानसम् ॥९॥

तत्र ध्यानं प्रवक्ष्यामि प्रकारमेकविंशातिम् ।

ध्यानेन जपसिद्धिः स्यात् जपात् सिद्धिर्न संशयः ॥१०॥

जप के प्रकार – १. व्यक्त रुप से होने वाला, २. अव्यक्त रूप से होने वाला तथा  ३. अत्यन्त सूक्ष्म रुप से होने वाला — जे जप के तीन भेद हैं । व्यक्त जप वह है जिसे वचन रूप से उच्चारण किया जाय, उपांशु (जिह्वा संचालन) से जो जप किया जाय वह अव्यक्त है और मन से किया जाने वाला जप अत्यन्त सूक्ष्म है । अब ध्यान के विषय में कहती हूँ । उस ध्यान के २१ प्रकार हैं । ध्यान से जप कर सिद्धि होती है और जप से वास्तविक सिद्धि होती है इसमें संशय नहीं ॥९ – १०॥

आदौ विद्यामहादेवीध्यानं वक्ष्यामि शङ्कर ।

एषा देवी कुण्डलिनी यस्या मूलाम्बुजे मनः ॥११॥

मनः करोति सर्वाणि धर्मकर्माणि सर्वदा ।

यत्र गच्छति स श्रीमान् तत्र वायुश्च गच्छति ॥१२॥

हे शङ्कर ! सर्वप्रथम मैं विद्यामहादेवी का ध्यान कहती हूँ । यह कुण्डलिनी, ही महाविद्या हैं जिनके मूलाधार रूप कमल में मन का निवास है । यह मन ही समस्त धर्म कर्म सर्वदा किया करता है जहाँ- जहाँ वह जाता है वायु भी उसी स्थान पर उसके साथ जाता है ॥११ – १२॥

अतो मूले समारोप्य मानसं वायुरुपिणम् ।

द्वादशाङ्‌‍गुलकं बाह्ये नासाग्रे चावधारयेत् ॥१३॥

मनःस्थं रुपमाकल्प मनोधर्म मुहुर्मुहुः ।

मनस्तत् सदृशं याति गतिर्यत्र सदा भवेत् ॥१४॥

मनोविकाररुपं तु एकमेव न संशयः ।

अज्ञानिनां हि देवेश ब्रह्मणो रुपकल्पना ॥१५॥

अव्यक्तं ब्रह्मरुपं हि तच्च देहे व्यवस्थितम् ।

धर्मकर्मविनिर्मुक्तं मनोगम्यं भजेद्यतिः ॥१६॥

अतः मूलाधार में वायु स्वरूप मन को स्थापित कर नासा के अग्रभाग के बाहर १२ अंगुल पर्यन्त वायु धारण करे। मन में रहने वाले धर्म के स्वरुपभूत (इष्टदेव) की मन में कल्पना करे । मन भी उस स्वरुप के अनुसार ही चलता है जहाँ उसकी गति है । मन में रहने वाला विकार एक ही है, इसमें संशय नहीं । हे देवेश ! परब्रह्म के रूप की कल्पना तो अज्ञानियों की है । वस्तुतः ब्रह्म का स्वरूप अव्यक्त है और वह ब्रह्म शरीर में व्यवस्थित रुप से वर्तमान है । वह धर्म कर्म से सर्वथा निर्लेप है । अतः मनोगम्य होने से साधक यति को उसका भजन करना चाहिए ॥१३ – १६॥

पद्मं चतुर्दलं मूले स्वर्णवर्ण मनोहरम् ।

तत्कर्णिकामध्यदेशे स्वयम्भूवेष्टितां भजेत् ॥१७॥

कोटिसूर्यप्रतिकाशां सुषुम्नारन्ध्रगामिनीम् ।

ऊद्‌र्ध्वं गलत्सुधाधारामण्डितां कुण्डलीं भजेत् ॥१८॥

मूलाधार में स्थित कमल चार दलों वाला है, जो मनोहर तथा सुवर्ण के समान वर्ण वाले हैं। उसकी कर्णिका के मध्य में स्वयम्भूलिंग को वेष्टित करने वाली कुण्डलिनी का भजन करना चाहिए। वह कुण्डलिनी करोड़ों सूर्य के समान दिप्तिमती है, जो सुषुम्नारन्ध्र से ऊपर जाती है और बहते हुए सुधा धारा से मण्डित है। यति साधक को उस कुण्डलिनी का भजन करना चाहिए ॥१७ – १८ ॥

स्वयम्भूलिङ परमं ज्ञानं चिरविवर्द्धनम् ।

सूक्ष्मातिसूक्ष्ममाकाशं कुण्डलिजडितं भजेत् ॥१९॥

पूर्वोक्तयोगपटलं तत्र मूले विभावयेत् ।

कुण्डलीध्यानमात्रेण षट्‌चक्रभेदको भवेत् ॥२०॥

ध्यायेद्‍ देवीं कुण्डलिनीं परापरगुरुपियाम् ।

आनन्दां भुवि मध्यस्थां योगिनीं योगमातरम् ॥२१॥

उससे परिवेष्टित स्वयंम्भू लिङ्ग है, जो सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है और आकाश के समान निर्लिप है तथा जो परम ज्ञान को निरन्तर बढा़ता रहता है, उसका भजन करना चाहिए । साधक उस मूलाधार में कुण्डली तथा तत् परिवेष्टित स्वयंभू लिङ्ग के उभय योग का ध्यान करे । इस प्रकार के कुण्डलिनी के ध्यान मात्र से वह सिद्ध साधक षट्‍चक्रों का भेदक हो जाता है । पर और अवर गुरुओं की प्रेमास्पदा, आनन्दस्वरूपा, मूलाधार रुप भूलोक में रहने वाली योगी जनों की योगमाता कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिए ॥१९ – २१॥

कोटिविद्युल्लताभसां सूक्ष्मातिसूक्ष्मवर्त्मगाम् ।

ऊद्‌र्ध्वमार्गव्याचलन्तीं प्रथमारुणविग्रहाम् ॥२२॥

प्रथमोद‌गमने कौलीं ज्ञानमार्गप्रकाशिकाम् ।

प्रति प्रयाणे प्रत्यक्षाममृतव्याप्तविग्रहाम् ॥२३॥

धर्मोदयां भानुमतीं जगतस्थावरजङमाम् ।

सर्वान्तस्थां निर्विकल्पाञ्चैतन्यानन्दनिर्मलाम् ॥२४॥

करोड़ों विद्युल्लता के समान देदीप्यमान, सूक्ष्म से भी अतिसूक्ष्म मार्ग में गमन करने वाली, ऊपर की ओर के चलने वाली और सर्वश्रेष्ठ अरुण वर्ण के शरीर वाली कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिए । प्रथन गमन के समय कौलीय रुप धारण करने वाली, ज्ञान मार्ग का प्रकाश करने वाली और ऊपर से नीचे की ओर आने के समय अमृत से व्याप्त विग्रह वाली कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिए । धर्म से उदय होने वाली, किरणों से व्याप्त, जगत् के स्थावर – जङ्गम स्वरुप वाली, सभी के अन्तःकरण में निवास करने वाली, निर्विकल्पा चैतन्य एवं आनन्द से सर्वथा निर्मल स्वरूप वाली कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिए ॥२२ – २४॥

आकाशवाहिनीं नित्यां सर्ववर्नस्वरुपिणीम् ।

महाकुण्डलिनीं ध्येयां ब्रह्मविष्णुशिवादिभिः ॥२५॥

प्रणवान्तः स्थितां शुद्धांशुद्धज्ञानश्रयां शिवाम् ।

कुलकुण्डलिनीं सिद्धिं चन्द्रमण्डलभेदिनीम् ॥२६॥

आकाश में उड़ने वाली नित्य स्वरूपा, समस्ता वर्ण स्वरूपा, ब्रह्मा, विष्णु, शिवादि, देवताओं से ध्यान करने योग्य श्रीकुण्डली का ध्यान करना चाहिए । प्रणव के मध्य में रहने वाली, शुद्ध स्वरुपा, शुद्ध ज्ञानाश्रया, सबका कल्याण करने वाली, चन्द्र मण्डल का भेदन करने वाली एवं सिद्धि स्वरुपा कुल कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिए ॥२५ – २६॥

मूलाम्भोजस्थितामाद्यां जगद्योनिं जगत्प्रियाम् ।

स्वाधिष्ठानादिपद्मस्थां सर्वशक्तिमयीं पराम् ॥२७॥

आत्मविद्यां शिवानन्दां पीठस्थामतिसुन्दरीम् ।

सर्पाकृतिं रक्तवर्णा सर्वरुपविमोहिनीम् ॥२८॥

मूलाधार के कमल पर निवास करने वाली, आद्या जगत् की कारणभूता, समस्त जगत् से प्रेम करने वाली, स्वाधिष्ठानादि पद्‍मों में रहने वाली, सर्वशक्तिमयी परा कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिए । आत्म विद्या, शिवानन्दा पीठ में निवास करने वाली, अत्यन्त सुन्दरी, साँप के समान आकृति वाली, रक्तवर्णा रूप से सबको संमोहित करने वाली कुल कुण्डलीनी का ध्यान करना चाहिए ॥२७ – २८॥

कामिनीं कामरुपस्थां मातृकामात्मदायिनीम् ।

कुलमार्गानन्दमयीं कालीं कुण्डलिनीं भजेत् ॥२९॥

इति ध्यात्वा मूलपद्मे निर्मले योगसाधने ।

धर्मोदये ज्ञानरुपीं साधयेत् परकुण्डलीम् ॥३०॥

कामिनी, कामरुप में रहने वाली मातृका स्वरुपा, आत्मविद्या देने वाली, कुलमार्ग के उपासकों को आनन्द देने वाली महाकाली कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिए । पवित्र योगसाधन काल में इस प्रकार मूलपद्‍म में कुण्डलिनी का ध्यान कर धर्म के उदय हो जाने पर ज्ञानरूपी पर कुण्डलिनी की सिद्धि करनी चाहिए ॥२९ – ३०॥

कुण्डलीभावनादेव खेचराद्यष्टसिद्धिभाक्‍ ।

ईश्वरत्वमवाप्नोति साधको भूपतिर्भवेत् ॥३१॥

योगाभ्यासे भावसिद्धो स्मृतो वायुर्महोदयः ।

प्राणानामादुर्निवार्यो यत्नेन तं प्रचालयेत् ॥३२॥

प्रतिक्षणं समाकृष्ण मूलपद्मस्थं कुण्डलीम् ।

तदा प्राणमहावायुर्वशी भवति निश्चितम् ॥३३॥

कुण्डलिनी की भावना के करने से ही खेचरता तथा अष्टसिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं और साधक ईश्वरत्व प्राप्त कर लेता है। किं बहुना वह राजा भी हो जाता है । योगाभ्यास में महोदय वायु भावना से सिद्ध होता है । इन प्राण नाम के वायु को रोकना बड़ा कठिन कार्य है । अतः धीरे-धीरे इसका संचालन करे । मूलपद्‍म में रहने वाली कुण्डली को प्रतिक्षण ऊपर की ओर खींचते रहना चाहिए तभी प्राणरूप महावायु निश्चित रूप से वश में हो जाती है ॥३१ – ३३॥

ये देवाश्चैव ब्रह्माण्डे क्षेत्रे पीठे सुतीर्थके ।

शिलायां शून्यगे नाथ सिद्धाः स्युः प्राणवायुना ॥३४॥

ब्रह्माण्डे यानि संसन्ति तानि सन्ति कलेवरे ।

ते सर्वे प्राणसंलग्नाः प्राणातीतं निरञ्जनम् ॥३५॥

यावत्प्राणः स्थितो देहे तावन्मृत्युभयं कुतः ।

गते प्राणे समायान्ति देवताश्चेतनास्थिताः ॥३६॥

ब्रह्माण्ड में, क्षेत्र में, पीठ में तथा उत्तम तीर्थ में, शिला में, शून्य स्थान में रहने वाले जितने तत्व भी हैं वे सभी प्राणवायु से सिद्ध हो जाते हैं । वस्तुतः जितने तीर्थ ब्रह्माण्ड में है उतने ही तीर्थ इस शरीर में भी हैं, वे सभी प्राण से जुड़े हुए हैं, किन्तु निरञ्जन परब्रह्म प्राण से सर्वथा परे हैं । जब तक इस शरीर में प्राण हैं, तब तक मरने का भय किस प्रकार हो सकता है । प्राण के जाते ही चेतना में रहने वाले सभी देवता भी (शरीर से) चले जाते हैं ॥३४ – ३६॥

सर्वेषां मूलभूता सा कुण्डली भूतदेवता ।

वायुरुपा पाति सर्वमानन्दचेतनामयी ॥३७॥

जगतां चेतनारुपी कुण्डली योगदेवता ।

आत्ममनः समायुक्ता ददाति मोक्षमेव सा ॥३८॥

अतस्तां भावयेन्मन्त्रीं भावज्ञानप्रसिद्धये ।

भवानीं भोगमोक्षस्थां यदि योगमिहेच्छसि ॥३९॥

सभी का मूलभूत कुण्डलीभूत देवता है, जो आनन्द युक्त एवं चेतनामयी है इस प्रकार यही वायु रूपा कुण्डलिनी सबकी रक्षा करती है । समस्त जगत् में चेतना रुपी कुण्डलिनी योग की अधिष्ठातृ देवता है जो आत्मा और मन से संयुक्त रह कर मोक्ष प्रदान करती है । इसलिए मन्त्रज्ञ साधक भावज्ञान की सिद्धि के लिए उसका ध्यान करे । यदि कोई योग चाहता हो तो वह भोग और मोक्ष में रहने वाली उस भवानी का ध्यान करें ॥३७ – ३९॥

वायुरोधनकाले च कुण्डली चेतनामयी ।

ब्रह्मरन्ध्रावधि ध्येया योगिनं पाति कामिनी ॥४०॥

वायुरुपां परां देवीं नित्यां योगेश्वरी जयाम् ।

निर्विकल्पां त्रिकोणस्थां सदा ध्यायेत् कुलेश्वरीम् ॥४१॥

अनन्तां कोटिसूर्याभां ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाम् ।

अतन्तज्ञाननिलयां यां भजन्ति मुमुक्षवः ॥४२॥

अज्ञानतिमिरे घोरे सा लग्ना मूढचेतसि ।

सुप्ता सर्पासना मौला पाति साधकमीश्वरी ॥४३॥

वायु के रोकने के समय चेतनामयी कुण्डली का ब्रह्मरन्ध्र पर्यन्त ध्यान करें क्योंकि वह कामिनी योगी की रक्षा करती है । वायुरूपा, परादेवी, नित्या, योगीश्वरी, जया, निर्विकल्पा, त्रिकोण में रहने वाली कुलेश्वरी कुण्डलिनी का ध्यान करना चाहिए । वह अनन्ता करोड़ों सूर्य के समान आभा वाली और ब्रह्मा, विष्णु, शिव स्वरूपा वह अनन्तज्ञान निलया हैं । मुमुक्षु जन उसी का भजन करते हैं । वह मूर्खों के चित्त में घोर अज्ञानान्धकार में पड़ी रहती हैं । सर्पासन पर सवार रहती हैं, सोई रहती है और मूलाधार में स्थित रहने वाली वह ईश्वरी साधक का पालन करती है ॥४० – ४३॥

ईश्वरीं सर्वभूतानां ज्ञानज्ञानप्रकाशिनीम् ।

धर्माधर्मफलव्याप्तां करुणामयविग्रहाम् ॥४४॥

नित्यां ध्यायन्ति योगीन्द्राः काञ्चनाभाः कलिस्थिताः ।

कुलकुण्डलिनां देवीं चैतन्यानन्दनिर्भराम् ॥४५॥

उस सर्व प्राणियों की ईश्वरी, ज्ञान और अज्ञान का प्रकाशन करने वाली, धर्म और अधर्म के फल से व्याप्त करुणामय विग्रह वाली नित्या भगवती का स्वर्ण के समान आभा वाले कलिकाल में उत्पन्न योगेन्द्र ध्यान करते हैं ॥४४ – ४५॥

ककारादिमान्तवर्णां मालाविद्युल्लतावृताम् ।

हेमालङ्कारभूषाङी ये मां सम्भावयन्ति ते ॥४६॥

ये वै कुण्डलिनीं विद्यां मुलमार्गप्रकाशिनीम् ।

ध्यायन्ति वर्षसंयुक्तास्ते मुक्ता नात्र संशयः ॥४७॥

चैतन्य और आनन्द से परिपूर्ण, वकार से सकार वर्ण वाली, विद्युल्लता से आवृत सुवर्ण के अलङ्कार से भूषित इस प्रकार के रुप में मेरा जो ध्यान करते हैं वे मुक्त हो जाते हैं । इस प्रकार जो कुलमार्ग का प्रकाश करने वाली कुण्डलिनी विद्या का ध्यान वर्ण पर्यन्त करते हैं वे मुक्त हो जाते हैं इसमें संशय नहीं ॥४६ – ४७॥

ये मुक्ता पापराशेस्तु धर्मज्ञानसुमानसाः ।

तेऽवश्यं ध्यानकुर्वन स्तुवन्ति कुण्डलीं पराम् ॥४८॥

कुलकुण्डलिनीध्यानं भोगमोक्षप्रदायकम् ।

यः करोति महायोगी भूतले नात्र संशयः ॥४९॥

जो पापराशि से मुक्त हैं, जिनके मन में धर्म ज्ञान हो गया है, वे अवश्य ही कुण्डलिनी का ध्यान कर उस पराकुण्डलिनी की स्तुति करते हैं । कुल कुण्डलिनी का ध्यान भोग और मोक्ष दोनों प्रदान करता है और जो उसका ध्यान करते हैं वह इस भूतल में महायोगी हैं इसमें सन्देह नहीं ॥४८ – ४९॥

त्रिविधं कुण्डलिनीध्यानं दिव्यवीरपशुक्रमम् ।

पशुभावादियोगेन सिद्धो भवति योगिराट्‌ ॥५०॥

दिव्यध्यानं प्रवक्ष्यामि सामान्यनन्तरं प्रभो ।

आदौ सामान्यमाकृत्य दिव्यादीन् कारयेत्ततः ॥५१॥

दिव्य, वीर और पशुभाव से कुण्डलिनी का ध्यान तीन प्रकार का कहा गया है । प्रथम पशुभाव, फिर वीरभाव, फिर दिव्यभाव, इस क्रम से प्राप्त होने पर योगिराज सिद्ध हो जाता है । हे प्रभो ! अब पशु भावादि कहने के बाद दिव्य ध्यान कहूँगी पहले सामान्य पशुभाव का ध्यान, फिर वीरभाव का ध्यान तदनन्तर दिव्यभाव का ध्यान करे ॥५० – ५१॥

कोटिचन्द्रप्रतीकाशां तेजोबिम्बा निराकुलाम् ।

ज्वालामाला सहस्त्राढ्यां कालानलशतोपमाम् ॥५२॥

द्रंष्ट्राकरालदुर्धर्षां जटामण्डलमण्डिताम् ।

घोररुपां महारौद्रीं सहस्त्रकोटिचञ्चलाम् ॥५३॥

कोटिचन्द्रसमस्निग्धां सर्वत्रस्थां भयानकाम् ।

अनन्तसृष्टिसंहारपालनोन्मत्तमानसाम् ॥५४॥

सर्वव्यापकरुपाद्यामादिनीलाकलेवराम् ।

अनन्तसृष्टिनिलयां ध्यायन्ति तां मुमुक्षवः ॥५५॥

करोड़ों चन्द्रमा के समान सुशीतल, तेज का बिम्ब, सर्वथा स्थिर सहस्त्रों ज्वालामाला से युक्त, सैकड़ों कालाग्नि के समान भयङ्कर, कराल दाँतों से एवं महाभयानक जटामण्डल से मण्डित, घोररूपा, महारौद्री सहस्त्र करोड़ विद्युत के समान चञ्चल, करोड़ों चन्द्रमा के समान मनोहर, सर्वत्र व्याप्त रहने वाली, महाभयानक, अनन्त जगत् की सृष्टि एवं अनन्त सृष्टि का पालन तथा अनन्त सृष्टि के संहार में उन्मत्त रहने वाली सर्व व्यापक रुप से रहने वाली, आद्या, आदि नील कलेवर वाली तथा अनन्त सृष्टि की निलयभूता उस महाविद्या का मुमुक्ष जन ध्यान करते हैं ॥५२ – ५५॥

वीरध्यानं प्रवक्ष्यामि यत्कृत्वा वीरवल्लभः ।

वराणां वल्लभो यो हि मुक्तो भोगी स उच्यते ॥५६॥

वीराचारे सत्त्वगुणं निर्मलं दिव्यमुत्तमम् ।

सम्प्राप्य च महावीरो योगी भवति तत्क्षणात् ॥५७॥

अब वीर ध्यान कहती हूँ, जिसके करने से वीर वल्लभ होता है और जो वीरों का वल्लभ हो जाता है, वह योगी भी मुक्त कहा जाता है । वीराचार में सत्त्वगुण की प्रधानता रहती है, दिव्यभाव से साधक निर्मल होता है । इन भावों को प्राप्त कर योगी तत्क्षण महावीर बन जाता है ॥५६ – ५७॥

वीराचारं बिना नाथ दिव्याचारं न लभ्यते ।

ततो वीराचारधर्मं कृत्वा दिव्यं समाचरेत् ॥५८॥

वीराचारं कोटिफलं वारैकजपसाधनम् ।

कोटिकोटिजन्मपापदुःखनाशं स भक्तकः ॥५९॥

हे नाथ ! बिना वीराचार के दिव्याचार प्राप्त नहीं होता, इसलिए वीराचार करने के बाद दिव्यभाव का आचरण करना चाहिए । वीराचार करोड़ गुना फल देने वाला है और उसका साधन एकमात्र जप है जिससे करोड़ों करोड़ों जन्म के पापों एवं दुःखों का नाश हो जाता है । अन्ततः वही भक्त भी होता है ॥५८ – ५९॥

कुलाचारं समाचारं वीराचारं महाफलम् ।

कृत्वा सिद्धिश्च वै ध्यानं कुलध्यानं मदीयकम् ॥६०॥

कुलकुण्डलिनीं देवीं मां ध्यात्वा पूजयन्ति ये ।

मूलपद्मे महावीरो ध्यात्वा भवति योगिराट्‌ ॥६१॥

कुलाचार, समाचार (समयाचार) और वीराचार महान् फल देने वाला है । इसलिए मेरा ध्यान अर्थात् कुल ध्यान करके ही साधक सिद्धि प्राप्त करता है । जो महावीर मूलाधार के पद्‍म में स्थिर रहने वाली कुल कुण्डलिनी देवी के रूप में ध्यान करते हैं, वे ध्यान कर महावीर एवं योगिराज हो जाते हैं ॥६० – ६१॥

कालीं कौलां कुलेशीं कलकल-कलिजध्यानकालानलार्कां

कल्योल्कां कालकवला किलिकिलिकलिकां केलिलावण्यलीलाम् ।

सूक्ष्माख्यां संक्षयाख्या क्षयकुलकमले सूक्ष्मतेजोमयीन्ता-

माद्यन्तस्थां भजन्ति प्रणतजनाः सुन्दरीं चारुवर्णाम् ॥६२॥

काली, कौला, कुलमार्ग की ईश्वरी, कलकल कलिजों के ध्यान के लिए कालानल का सूर्य, कलि युग की उल्का, काल को कवलित करने वाली, किलिकिलि की कलिका केलि में अपने लावण्य़ से लीला करने वाली, सूक्ष्म नाम से अभिहित होने वाली, सूक्ष्म नाम से अभिहित होने वाली, संक्षय नाम से अभिहित होने वाली, क्षयकुल कमल में तेजोरूप से विराजमान, आदि और अन्त में रहने वाली, उन चारुवर्णा सुन्दरी को प्रणत रहने वाले भक्तजन निरन्तर भजते हैं ॥६२॥

अष्टादशभुजैर्युक्तां नीलेन्दीवरलोचनाम् ।

मदिरासागरोत्पन्नां चन्द्सूर्याग्निरुपिणीम् ॥६३॥

चन्द्रसूर्याग्निमध्यस्थां सुन्दरीं वरदायिनीम् ।

कामिनीं कोटिकन्दर्पदर्पान्तकपतिप्रियाम् ॥६४॥

आनन्दभैरवाक्रान्तामानन्दभैरवीं पराम् ।

भोगिनीं कोटिशीतांशुगलद्‌गात्रमनोहराम् ॥६५॥

कोटिविद्युल्लताकारां सदसद्‌व्यक्तिवर्जिताम् ।

ज्ञानचैतन्यनिरतां तां वीरा भावयन्ति हि ॥६६॥

अट्‍ठाराह भुजाओं वाली, नीले कमल के समान मनोहर नेत्रों वाली, मदिरा के सागर से उत्पन्न होने वाली, चन्द्र, सूर्य़ तथा अग्नि स्वरूपा, चन्द्र, सूर्य एवं अग्नि के मध्य में रहने वाली परम सुन्दरी, वरदायिनी, करोड़ों कन्दर्प के दर्प को दलन करने वाली, पति प्रिया, कामिनी, आनन्दभैरव से आक्रान्त, पर स्वरूपा, आनन्दभैरवी, भोगिनी, करोड़ों चन्द्रमा से गिराते हुए अमृतमय गात्र से मनोहर, करोड़ों विद्युल्लता के समान आकार वाली, सदसत् की अभिव्यक्ति से वर्जित, ज्ञान एवं चैतन्य में निरत रहने वाली उस महाविद्या का ध्यान वीराचार के लोग करते हैं ॥६३ – ६६॥

अस्या ध्यानप्रसादेन त्वं तुष्टो भैरवः स्वयम् ।

अहं च तुष्टा संसारे सर्वे तुष्टा न संशयः ॥६७॥

प्राणायामान् स करोति साधकः स्थिरमानसः ।

ध्यात्वा देवीं मूलपद्मे वीरो योगवाप्नुयात् ॥६८॥

वीरभावं सूक्ष्मवायुधारणेन महेश्वर ।

साधको भुवि जानाति स्वमृत्युं जन्मसङ्कटम् ॥६९॥

हे प्रभो ! इस देवी के ध्यान से स्वयं आप भैरव संतुष्ट होते हैं और मैं भी संतुष्ट होती हूँ, फिर तो सारा संसार ही संतुष्ट रहता है इसमें संशय नहीं । जो वीर साधक स्थिर चित्त से प्राणायाम करता है और मूलाधार पद्‍म में देवी का ध्यान करता है वह योग प्राप्त कर लेता है । हे महेश्वर ! सूक्ष्म वायु के धारण करने से वीरभाव को प्राप्त करने वाला साधक इस पृथ्वी पर अपनी मृत्यु तथा जन्म में होने वाले सङ्कटों को जान लेता है ॥६७ – ६९॥

मासादाकर्षणीसिद्धिर्वाक्‍सिद्धिश्च द्विमासतः ।

मासत्रयेण संयोगाज्जायते देवल्लभः ॥७०॥

एवञ्चतुष्टये मासि भवेदि‌दकपालगोचरः ।

पञ्चमे पञ्चबाणः स्यात् षष्ठे रुद्रो न संशयः ॥७१॥

एक महीने में आकर्षण की सिद्धि, दो महीने में वाक्सिद्धि तथा तीन महीने में वायु के संयोग से साधक देवताओं का वल्लभ हो जाता है । इसी प्रकार ऐसा करते रहने से उसे दिक्पालों के दर्शन हो जाते हैं । पाँचवें महीने में वह काम के समान सुन्दर, छठें महीन में (साक्षात्) रुद्र हो जाता है इसमें संशय नहीं ॥७० – ७१॥

वीरभावस्य माहात्म्यं कोटिजन्मफलेन च ।

जानाति साधकश्रेष्ठी देवीभक्तः स योगिराट्‌ ॥७२॥

वीराचारं महाधर्मं चित्तस्थैर्यस्य कारणम् ।

यस्य प्रसादमात्रेण दिव्यभावाश्रितो भवेत् ॥७३॥

जो साधक श्रेष्ठ एवं करोड़ों जन्मों के फल से वीरभाव का माहात्म्य जान लेता है वही देवी का भक्त तथा योगिराज है । चित्त को स्थिर रखने में कारणभूत वीराचार महान् धर्म हैं, जिसकी कृपा होने पर साधक दिव्यभाव का आश्रित बन जाता है ॥७२ – ७३॥

स्वयं रुद्रो महायोगी महाविष्णुः कृपानिधिः ।

महावीरः स एवात्मा मोक्षभोगी न संशयः ॥७४॥

अथ नाथ महावीर भावस्नानं कुलाश्रयम् ।

यत्कृत्वा शुचिरेव स्यात् शुचिश्चेत् किं न सिद्‌ध्यति ॥७५॥

वीराचार के प्रभाव से रुद्र स्वयं महायोगी हुए और महाविष्णु कृपा के निधान हो गए । इस प्रकार वही आत्मा महावीर है, वही मोक्ष का भोक्ता है, इसमें संशय नहीं । हे नाथ ! हे महावीर ! कुल (= शाक्तों) का यह आश्रय है और भाव स्नान हैं जिसके करने से साधक शुचि हो जाता है और शुचि होने पर क्या नहीं सिद्ध होता ॥७४ – ७५॥

रुद्रयामल तंत्र पटल २६                   

Rudrayamal Tantra Patal 26

रुद्रयामल तंत्र छब्बीसवाँ पटल

रुद्रयामल तंत्र षड्‌विंशः पटलः – योगीनां सूक्ष्मस्नानम्

षट्‍चक्रभेदः

रूद्रयामल तंत्र शास्त्र

योगीनीका सूक्ष्मस्नान

कुलस्नानं महास्नानं योगिनामतिदुर्लभम् ।

कृत्वा जितेन्द्रियो वीरः कुलध्यानं समाचरेत् ॥७६॥

स्नानं तु त्रिविधं प्रोक्तं मज्जनं गात्रमार्जनम् ।

मन्त्रज्ञानादिभिः स्नानमुत्तमं परिकीर्तितम् ॥७७॥

कुल (शाक्तों) का स्नान (वीराचार) है । यह महास्नान योगियों को भी अत्यन्त दुर्लभ हैं । अतः जितेन्द्रिय वीर साधक इसे कर के कुल का ध्यान करे । स्नान तीन प्रकार का कहा गया है – पहला डुबली लगाकर, दूसरा शरीर का मार्जन कर, तीसरा मन्त्र और ज्ञान पूर्वक स्नान जो सर्वोत्तम कहा गया है ॥७६ – ७७॥

तत्प्रकारं श्रॄणु प्राणवल्लभ प्रियकारक ।

स्नानमात्रेण मुक्तः स्यात् पापशैलादनन्तगः ॥७८॥

स्नानञ्च विमले तीर्थे ह्रदयोम्भोजपुष्करे ।

बिन्दुतीर्थेऽथवा स्यायात् सर्वजन्माघमुक्तये ॥७९॥

हे प्राण वल्लभ ! हे प्रिय करने वाले ! अब उस स्नान का प्रकार सुनिए, जिस स्नान मात्र से स्नानकर्ता पाप के पहाड़ से मुक्त हो जाता है और अनन्त को प्राप्त कर लेता है । सभी जन्म के पापों से छुटकारा पाने के लिए, ह्रदय रुपी कमल में होने वाले विमल पुष्कर नाम वाले तीर्थ में स्नान करे अथवा बिन्दुतीर्थ में स्नान करना चाहिए ॥७८ – ७९॥

इडासुषुम्ने शिवतीर्थऽस्मिन् ज्ञानाम्बुपूर्णे वहतः शरीरे ।

ब्रह्मादिभिः स्नाति तयोस्तु नीरे किं तस्य गाङैरपि पुष्करैर्वा ॥८०॥

इस शरीर में कल्याणकारी तीर्थ ईडा और सुषुम्ना नाडियाँ विद्यमान हैं जिसमें ज्ञान का जल बह रहा है, ब्रह्मादि देवता भी उस जल में स्नान करते हैं, जिसने इसमें स्नान कर लिया उसे गङ्गा जल में अथवा पुष्कर में स्नान से क्या लाभ ? ॥८०॥

इडामलस्थान निवासिनी य सूर्यात्मिकायां यमुना प्रवाहिका ।

तथा सुषुम्ना मलदेशगामिनी सरस्वती मज्जति भक्षणार्थकम् ॥८१॥

ईडा जो सर्वथा पवित्र स्थान से निकलने वाली गङ्गा है तथा पिङ्गला सूर्य से उत्पन्न होने वाली यमुना है, उनके बीच में ब्रह्मलोक तक जाने वाली सरस्वती है । अतः जो उसमें स्नान करता है, वह उसके पापों को खा जाती हैं ॥ ८१॥

मनोगतस्नानपरो मनुष्यो मन्त्रक्रियायोग विशिष्ट तत्त्ववित् ।

महीस्थतीर्थे विमले जले मुदा मूलाम्बुजे स्नाति च मुक्तिभाग्‍ भवेत् ॥८२॥

सर्वादितीर्थे सुरतीर्थपावनी गङा महासत्वविनिर्गता सती ।

करोति पापक्षयमेव मुक्तिं ददाति साक्षादतुलार्थपुण्यदा ॥८३॥

मन में ही स्नान करने वाला मनुष्य मन्त्र की क्रिया के योग का जानने वाला है, जो मूलाधार कमल रुप मही में रहने वाले इस तीर्थ में प्रसन्नता पूर्वक स्नान करता है वह मुक्ति का भागी हो जाता है । देवताओं के तीर्थ को पवित्र करने वाली गङ्गा इस सर्वादि तीर्थ में महासत्त्व से निकली हुई हैं । जो पापों का क्षय करती हैं और मुक्ति प्रदान करती हैं । किं बहुना वे साक्षात् ‍ इतना पुण्य प्रदान करती हैं, जिसकी कोई तुलना नहीं है ॥८२ – ८३॥

सर्गस्थं यावदातीर्थं स्वाधिष्ठाने सुपङ्कजे ।

मनो निधाय योगीन्द्रः स्नाति गङाजले तथा ॥८४॥

मणिपूरे देवतीर्थे पञ्चकुण्डं सरोवरम् ।

एतत् श्रीकामनातीर्थं स्नाति यो मुक्तिमिच्छति ॥८५॥

इस सृष्टि में जहाँ तक जितने तीर्थ हैं वे सभी तीर्थ स्वाधिष्ठान के कमल में निवास करते हैं, योगीन्द्र उसी में अपना मन उस प्रकार लगाकर स्नान करते हैं जैसे गङ्गा जल में स्नान किया जाता है । देवताओं के तीर्थरुप मणिपूर हैं, जो पाँच कुण्डों वाला सरोवर है । इसे श्रीकामना तीर्थ भी कहते हैं । जो मुक्ति चाहता है वह इस तीर्थ में स्नान करता है ॥८४ – ८५॥

अनाहते सर्वतीर्थे सूर्यमण्डलमध्यगम् ।

विभव सर्वतीर्थानि स्नाति यो मुक्तिमिच्छति ॥८६॥

विशुद्धाख्ये महापद्मे अष्टतीर्थं समुद्‌भवम् ।

कैवल्यमुक्तिदं ध्यात्वा स्नाति वीरो विमुक्तये ॥८७॥

सूर्य मण्डल के मध्य में रहने वाला अनाहत तीर्थ है जिसमें सभी तीर्थ रहते हैं । किं बहुना यहाँ सभी विभव तथा सभी तीर्थ हैं जो साधक मुक्ति चाहता है वह इसमें स्नान करता है। विशुद्ध नामक महापद्‍म में आठ तीर्थ उत्पन्न हुए हैं, वीराचार वाला पुरुष विमुक्ति के लिए कैवल्य मुक्ति देने वाले परमात्मा का ध्यान कर इसमें स्नान करता है ॥८६ – ८७॥

मानसं बिन्दुतीर्थञ्च कालीकुण्डं कलात्मकम् ।

आज्ञाचक्रे सदा ध्यात्वा स्नाति निर्वानसिद्धये ॥८८॥

एतत् कुले प्रियस्नानं कुर्वन्ति योगिनो मुदा ।

अतो वीरोः सत्त्वयुक्ता सर्वसिद्धयुताः सुरा ॥८९॥

आज्ञाचक्र में मानस तीर्थ, बिन्दु तीर्थ, कलात्मक कालीकुण्ड नामक तीर्थों का निवास है । अतः निर्वाण चाहने वाला उनका ध्यान करते हुए स्नान करता है । योगी लोग कुल में रहने वाले इन तीर्थों में प्रसन्नता पूर्वक स्नान करते हैं, इसलिए वीराचार वाले सत्त्व से संयुक्त हैं और देवतागण समस्त सिद्धियों से युक्त हैं ॥८८ – ८९॥

नाना पापं सदा कृत्वा ब्रह्महत्याविनिर्गतम् ।

कृत्वा स्नानं महातीर्थ सिद्धाः स्युरणिमादिगा ॥९०॥

स्नानमात्रेण निष्पापी शक्तः स्याद्वायुसङ्‌ग्रहे ।

तीर्थानां दर्शनं येषां शक्तो योगी भवेद्‍ ध्रुवम् ॥९१॥

सदैव ब्रह्म हत्यादि से होने वाले अनेक प्रकार के महा पापों को सदैव करके भी इस महातीर्थ में स्नान कर मनुष्य अणिमादि से उत्पन्न होने वाली सिद्धि प्राप्त कर लेता है । वह इस तीर्थ में स्नान मात्र से पाप रहित हो जाता है और वायु ग्रहण करने में समर्थ हो जाता है । जिन्हें इन तीर्थों का दर्शन भी हो गया है, वे सर्वसमर्थ योगी बन जाते हैं यह निश्चय है ॥९० – ९१॥

रुद्रयामल तंत्र पटल २६- कौल संध्या                   

Rudrayamal Tantra Patal 26

रुद्रयामल तंत्र छब्बीसवाँ पटल

रुद्रयामल तंत्र षड्‌विंशः पटलः

षट्‍चक्रभेदः

रूद्रयामल तंत्र शास्त्र

कौल संध्या

अथ सन्ध्यां महातीर्थे कुलनिष्ठः समाचरेत् ।

कुलरुपां योगविद्यां योगयोगाद्‍ यतीश्वरः ॥९२॥

शिवशक्तौ समायोगो यस्मिन् काले प्रजायते ।

सा सन्ध्या कुलनिष्ठानां समाधिस्थे प्रजायते ॥९३॥

शिवं सूर्यं ह्रदि ध्यात्वा भालशक्तीन्दुसङुमम् ।

सा सन्ध्या कुलनिष्ठानां समाधिस्थे प्रजायते ॥९४॥

कुलमार्ग के साधक की सन्ध्या — इस प्रकार स्नान करने के बाद कुलमार्ग का अधिकारी सन्ध्या करे । कुलरुपा महाविद्या रुप योग में युक्त योग में युक्त होने के कारण साधक यतीश्वर हो जाता है । जिस समय शिव की महाशक्ति से साधक युक्त हो जाता है, शाक्तों की समाधि में होने वाली वही महासन्ध्या है । हृदय में शिव का तथा सूर्य का ध्यान कर भाल प्रदेश में शक्ति तथा चन्द्रमा के सङ्गम का ध्यान करे तो शाक्तों की समाधि में होने वाली यही सन्ध्या है ॥९२ – ९४॥

अथवेन्दुं शिवं ध्यात्वा ह्रत्सूर्यशक्तिसङुमम् ।

संयोगविद्या सा सन्ध्या समाधिस्थे प्रजायते ॥९५॥

इति सन्ध्या च कथिता ज्ञानरुपा जगन्मयी ।

सा नित्या वायवी शक्तिः छिन्नभिना विनाशनात् ॥९६॥

अथवा इन्दु तथा शिव का ध्यान कर हृदय में शक्ति और सूर्य के सङ्गम का ध्यान करें, तो यही शाक्तों की समाधि में होने वाली संयोग विद्या सन्ध्या हो जाती है । इस प्रकार ज्ञानरुपा जगन्मयी सन्ध्या का निरुपण हमने किया । वही नित्या वायवी शक्ति हैं जिसके विनष्ट होने से सन्ध्या भी छिन्न-भिन्न हो जाती है ॥९५ – ९६॥

रुद्रयामल तंत्र पटल २६                  

Rudrayamal Tantra Patal 26

रुद्रयामल तंत्र छब्बीसवाँ पटल – कौलतर्पण

रुद्रयामल तंत्र षड्‌विंशः पटलः

षट्‍चक्रभेदः

रूद्रयामल तंत्र शास्त्र

तत्त्वतीर्थे महादेव तर्पणं यः करोति हि ।

त्रैलोक्यं तर्पितं तेन तत्प्रकारं श्रृणु प्रभो ॥९७॥

मूलाम्भोजे कुण्डलिनी चन्द्रसूर्याग्निरुपिणीम् ।

समुत्थाप्य कुण्डलिनीं परं बिन्दुं निवेश्य च ॥९८॥

तदुद्‍भवामृतेनेह तर्पयेद्‌ देहदेवताम् ।

कुलेश्वरीमादिविद्यां स सिद्धो भवति ध्रुवम् ॥९९॥

हे महादेव ! जो तत्त्वतीर्थ में तर्पण करता है उसने सारे त्रिलोकी को तृप्त कर दिया, हे प्रभो अब उस तर्पण के प्रकार को सुनिए मूलाधार रुप कमल में रहने वाली चन्द्र सूर्याग्नि स्वरुपा कुण्डलिनी को ऊपर उठाकर उसमें पर बिन्दु (सहस्त्रार चक्र में स्थित चन्द्र मण्डल से झरने वाली सुधा) सन्निविष्ट कर उसमें रहने वाले अमृतमय देह में  रहने वाली कुलेश्वरी महाविद्या स्वरुप देवता को तृप्त करे तो वह निश्चय ही सिद्ध हो जाता है ॥९७ – ९९॥

चन्द्रसूर्यमहावहिनसम्भूतामृतधारया ।

तर्पयेत‍ कौलिनीं नित्याममृताक्तां विभावयेत् ॥१००॥

एतत्परपदा काली स्त्रीविद्यादिप्रतर्पणम् ।

कृत्वा योगी भवेदेव सत्यं सत्यं कुलेश्वर ॥१०१॥

चन्द्रमा, सूर्य तथा महाग्नि से उत्पन्न हुई अमृतधारा से नित्या कौलिनी का तर्पण करे । तदनन्तर अमृत से भीङ्गी हुई उन देवता का ध्यान करे । यह पर-पद में निवास करने वाली, काली स्त्रीविद्यादि का तर्पण कर साधक योगी हो जाता है । हे कुलेश्वर ! यह सत्य है यह सत्य है ॥१०० – १०१॥

मूले पात्रं चान्द्रमसं ललाटेन्द्वमृते न च ।

सम्पूर्य ज्ञानमार्गेण तर्पयेत्तेन खेचरीम् ॥१०२॥

सुधासिद्धोर्मध्यदेशे कुलकन्यां प्रतर्पयेत् ।

मदिरामृतधाराभिः सिद्धो भवति योगिराट्‍ ॥१०३॥

मूलाधार रुप पात्र के ललाटस्थ चन्द्रमण्डल से निर्गत अमृत से ज्ञानमार्ग द्वारा पूर्ण करे । फिर उससे खेचरी देवता का तर्पण करे । सुधा-सिन्धु के मध्य देश में कुल कन्या का तर्पण मदिरा रुप अमृत धारा से करे तो वह योगिराज सिद्ध हो जाता है ॥१०२ – १०३॥

तत्र तीर्थे महाज्ञानी ध्यानं कुर्यात् प्रयन्ततः ।

तद‌गर्भमभ्य सेन्नित्यं ध्यानमेतद्धि योगिनाम् ॥१०४॥

स्वीयां कन्यां भोजयेद्वै परकीयामथापि वा ।

परितोषाय सर्वेषां युवतीं वा प्रतोषयेत् ॥१०५॥

उस तीर्थ में महाज्ञानी प्रयत्नपूर्वक ध्यान करे और उसके बाद सगर्भ प्राणायाम करे- यही योगियों का ध्यान है । अपनी कन्या को अथवा दूसरों की कन्या को भोजन करावे । अथवा सबको तृप्त करने के लिए युवती को संतुष्ट करे ॥१०४ – १०५॥

रुद्रयामल तंत्र पटल २६                  

Rudrayamal Tantra Patal 26

रुद्रयामल तंत्र छब्बीसवाँ पटल

रुद्रयामल तंत्र षड्‌विंशः पटलः – मानसपूजा

षट्‍चक्रभेदः

रूद्रयामल तंत्र शास्त्र

स्तोत्रेणानेन दिव्येन तोषयेत् शङ्कर प्रभो ।

सहस्त्रनाम्ना कौमार्याः स्तुत्वा देवीं प्रतोषयेत् ॥१०६॥

यः करोति पूर्णयज्ञं पञ्चाङं जपकर्मणि ।

पुरश्चरणकार्यं च प्राणायामेन कारयेत् ॥१०७॥

प्राणवायुः स्थिरो गेहे पूजाग्रहणहेतुना ।

यऽन्तस्थं न कुर्वन्ति तेषां सिद्धिः कुतः स्थिता ॥१०८॥

फिर हे प्रभो शङ्कर ! दिव्य कुमारी के सहस्त्रनाम वाले स्तोत्र से स्तुति कर देवी को संतुष्ट करे । जो जप कर्म में पञ्चङ्ग पूर्ण यज्ञ ( द्र० . २५ . ७८ – १०६ ) स्नान, सन्ध्या, तर्पण, ध्यान एवं कुमारी भोजनपूर्वक सहस्त्रनाम से स्तुति करता है तथा प्राणायाम के साथ पुरश्चरण कार्य करता है उनके शरीर रुपी गृह में पूजा ग्रहण करने के कारण प्राणवायु स्थिर रहता है । हे प्रभो ! जो अन्तरस्थ इस कर्म को नहीं करता उन्हें सिद्धि कैसे मिले ? ॥१०६ – १०८॥

अतोऽन्तर्यजनेनैव कुण्डलीतुष्टमानसा ।

यदि तुष्टि महादेवी तदैव सिद्धिभाक्‍ पुमान् ॥१०९॥

अभिषिच्य जगद्धात्रीं प्रत्यक्षपरदेवताम् ।

मूलाम्भोजात् सहस्त्रारे पूजयेद्‍ बिन्दुधारया ॥११०॥

इससे यह सिद्ध होता है कि कुण्डलिनी अन्तर्यजन से ही संतुष्ट मन वाली होती है, जब कुण्डली महादेवी संतुष्ट हो गई तो उसी समय मनुष्य सिद्धि का भाजन बन जाता है । प्रत्यक्ष रुप से पर देवता स्वरुपा जगद्धात्री का अभिषेचन कर मूलाम्भोज से सहस्त्रार चक्र में जाने वाली उस कुण्डलिनी का बिन्दुधारा द्वारा पूजन करे ॥१०९ – ११०॥

गलच्चन्द्रामृतोल्लासिधारयासिच्य पार्वतीम् ।

पूजयेत् परया भक्त्या मूलमन्त्रं स्मरन् सुधीः ॥१११॥

अर्च्चयन्विषयैः पुष्पैस्तत्क्षणात्तन्मयो भवेत् ।

न्यासस्तन्मयताबुद्धिः सोऽहंभावेन पूजयेत् ॥११२॥

चन्द्रमा के द्वारा गिरती हुई, अमृत से सुशोभित धारा से पार्वती को अभिषिक्त कर मूलमन्त्र का स्मरण करते हुए सुधी साधक उनका पूजन करे । उनके पूजा के विषय में एकत्रित किए गए पुष्पों से ध्यान कर तत्क्षण तन्मय हो जावें, उनमें तन्मय हो जाने वाली बुद्धि को न्यास कहते हैं । इसलिए जो वह हैं, वही मैं हूँ । अतः इस सोऽहं भाव से उनका पूजन करे ॥१११ – ११२॥

मन्त्राक्षराणि चिच्छक्तौ प्रोतानि परिभावयेत् ।

तामेव परमे व्योम्नि परमानन्दसंस्थिते ॥११३॥

दर्शयत्यात्मसद्‌भावं पूजाहोमादिभिर्विना ।

तदन्तर्यजनं ज्ञेयं योगिनां शङ्कर प्रभो ॥११४॥

परमानन्द स्वरुप उस पराकाश में रहने वाली उस महाशक्ति का ध्यान करे जिस चिच्छक्ति में समस्त मन्त्राक्षर ओत प्रोत हैं । ऐसा करने से वह महाविद्या, पूजा, होमादि, के बिना ही अपनी आत्मीयता प्रगट कर देती है । हे प्रभो ! योगियों का यही अन्तर्याग है ॥११३ – ११४॥

अन्तरात्मा महात्मा च परमात्मा स उच्यते ।

तस्य स्मरणमात्रेण साधुयोगी भवेन्नरः ॥११५॥

अमायमनहङ्कारमरागगममदं तथा ।

अमोहकमदम्भञ्च अनिन्दाक्षोभकौ तथा ॥११६॥

अमात्सर्यमलोभश्च दशपुष्पाणि योगिनाम् ।

अहिंसा परमं पुष्पं पुष्पमिन्द्रियनिग्रहः ॥११७॥

दया पुष्पं क्षमा पुष्पं ज्ञानपुष्पं च पञ्चमम् ।

इत्यष्टसप्तभिः पुष्पैः पूजयेत् परदेवताम् ॥११८॥

ऐसा साधक अन्तरात्मा, महात्मा और परमात्मा कहा जाता है उसके स्मरण मात्र से मनुष्य उत्तम योगी बना जाता है ।

१. अमाय (माया से रहित), २. अहङ्कार, ३. अराग, ४. अमद, ५. अमोह, ६. अदम्भ, ७. अनिन्दा और  ८. अक्षोभ, ९. अमात्सर्य, १०. अलोभ, पूजा में योगियों के लिए ये दश पुष्प कहे गए हैं । इसके अतिरिक्त अहिंसा सर्वोत्कृष्ट पुष्प है, इन्द्रिय निग्रह दूसरा पुष्प है, दया तीसरा पुष्प है, क्षमा चौथा पुष्प है, ज्ञान पाँचवा पुष्प है — इस प्रकार कुल १५ पुष्पों से परदेवता का पूजन करे ॥११५ – ११८॥

रुद्रयामल तंत्र पटल २६- मानसहोम                  

Rudrayamal Tantra Patal 26

रुद्रयामल तंत्र छब्बीसवाँ पटल

रुद्रयामल तंत्र षड्‌विंशः पटलः

षट्‍चक्रभेदः

रूद्रयामल तंत्र शास्त्र

अथ होमविधिं वक्ष्ये पुरश्चरनसिद्धये ।

सङ्केतभाषया नाथ कथयामि श्रृणुष्व तत् ॥११९॥

आत्मानमपरिच्छिन्न विभाव्य सूक्ष्मवत् स्थितः ।

आत्मत्रयस्वरुपं तु चित्कुण्डं चतुरस्त्रकम् ॥१२०॥

आनन्दमेखलायुक्तं नाभिस्थज्ञानवहिनषु ।

अर्द्धमात्राकृतिर्योनिभूषितं जुहुयात् सुधीः ॥१२१॥

होमविधि — हे नाथ ! अब पुरश्चरण की सिद्धि के लिए सङ्केत भाषा द्वारा होम का विधान कहती हूँ, उसे सुनिए । आत्मा अपरिच्छिन्न है और वह सूक्ष्म रुप में स्थित है, ऐसा ध्यान कर आत्मा के तीन स्वरुप की कल्पना करे । चित्त को चौकोर कुण्ड, जिसमें आनन्द की मेखला तथा नाभि ज्ञान की वह्नि हो, जिसकी योनि अर्द्धमात्रा वाली आकृति से भूषित हो साधक को उसी में होम करना चाहिए ॥११९ – १२१॥

इतिमन्त्रेण तद्‌वहनौ सोऽहंभावेन होमयेत् ।

बाह्यनारीविधिं त्यक्त्वा मूलान्तेन स्वतेजसम् ॥१२२॥

नाभिचैतन्यरुपग्नौ हविषा मनसा स्त्रुचा ।

ज्ञानप्रदीपिते नित्यमक्षवृत्तिर्जुहोम्यहम् ॥१२३॥

इति प्रथममाहुत्या मूलान्ते सञ्चरेत क्रियाम् ।

द्वितीयाहुतिदानेन होमं कृत्वा भवेद्‌वशी ॥१२४॥

इस प्रकार मन्त्र से उस वह्नि में सोऽहं भाव से होम करे । वाहन्यादि में विहित विधान का त्याग कर मूल मन्त्र से अपने तेज को छवि मानकर ज्ञान से प्रदीप्त नाभि स्थित चैतन्य रुप अग्नि में मन रुपी स्त्रुचा के द्वारा अक्षवृत्ति वाला मैं यह नित्य होम करता हूँ, इस प्रकार की प्रथम आहुति से मूल मन्त्र पढ़ते हुए क्रिया का आरम्भ करें, फिर दूसरी आहुति दे कर होम करने से जितेन्द्रिय हो जावे ॥१२२ – १२४॥

धर्माधर्मप्रदीप्ते च आत्माग्नौ मनसा स्त्रुचा ।

सुषुम्ना वर्त्मना नित्यमक्षवृत्तिं जुहोम्यहम् ॥१२५॥

स्वाहान्त मन्त्रमुच्चार्य आद्ये मूलं नियोज्य च ।

जुहुयादेकभावेन मूलाम्भोरुहमण्डले ॥१२६॥

धर्माधर्म से प्रदीप्त हुई आत्मा रुप अग्नि में मन की स्त्रुचा से सुषुम्ना मार्ग द्वारा मैं अपनी अक्षवृत्ति का हवन करता हूँ । प्रथम मूल मन्त्र पढ़कर अन्त में स्वाहा का उच्चारण कर एक भाव से मूलाधार के पद्‍म मन्डल में होम करे ॥१२५ – १२६॥

चतुर्थे पूर्णहवने एतन्मन्त्रेण कारयेत् ।

एतन्मन्त्रचतुर्थं तु पूर्णविद्याफलप्रदम् ॥१२७॥

अन्तर्निरतरनिरन्धनमेधमाने

मायान्धकारपरिपन्थिनि संविदग्नौ ।

कस्मिंश्चिदद्‌भुतमरीचिविकास भूमौ

विश्वं जुहोमि वसुधादिशिवावसानम् ॥१२८॥

चौथी बार पूर्णाहुति के होम में इसी मन्त्र से होम करे । यह चौथा वक्ष्यमाण मन्त्र पूर्ण विद्या का फल प्रदान करता है ।अन्तः करणावच्छिन्न देश में बिना इन्धन के निरन्तर प्रज्वलित होने वाले, माया रुप अन्धकार को नष्ट करने वाले, अद्भुत प्रकाश के विकास की भूमि वाले, ज्ञानरुप अग्नि में वसुधा से लेकर शिव पर्यन्त मैं सबकी आहुति दे देता हूँ ॥१२७ – १२८॥

इत्यन्तर्यजनं कृत्वा साक्षाद्‍ ब्रह्मामयो भवेत् ।

न तस्य पुण्यपापानि जीवन्मुक्तो भवेद्‍ ध्रुवम् ॥१२९॥

ज्ञानिनां योगिनामेव अन्तर्यागो हि सिद्धिदः ।

इस प्रकार अन्तर्याग कर साधक साक्षात् ‍ ब्रह्ममय हो जाता है, उसको पुण्य पाप नहीं लगते, वह निश्चय ही जीवन्मुक्त हो जाता है । ज्ञानी योगियों को उक्त अन्तर्याग सिद्धि प्रदान करता है ॥१२९ – १३०॥

रुद्रयामल तंत्र पटल २६                  

Rudrayamal Tantra Patal 26

रुद्रयामल तंत्र छब्बीसवाँ पटल- पंञ्चमकार माहात्म्य

रुद्रयामल तंत्र षड्‌विंशः पटलः

षट्‍चक्रभेदः

रूद्रयामल तंत्र शास्त्र

अथान्तः पञ्चमकारयजनं श्रॄणु शङ्कर ॥१३०॥

अन्तर्यजनकाले तु दृढभावेन भावयेत् ।

त्वां मां नाथैकथां ध्यात्वा दिवारात्र्यैकतां यथा ॥१३१॥

सुराशक्तिः शिवो मांसं तद्‌भक्तो भैरवः स्वयम् ।

तयोरैक्यसमुत्पन्न आनन्दो मोक्षनिर्णयः ॥१३२॥

अब हे शङ्कर ! अन्तःकरण में किए जाने वाले पञ्च मकार के यजन को सुनिए । हे नाथ ! पञ्चमकार के द्वारा किए जाने वाले अन्तर्याग में दृढ़तापूर्वक आपकी और हमारी एकता का इस प्रकार ध्यान करे, जिस प्रकार दिन और रात्रि की एकता का । पञ्चमकार में प्रथम सुरा (मद्य) शक्ति हैं । मांस शिव हैं, उनका भक्त स्वयं भैरव है, जब शिव – शक्ति रुप मांस और सुरा एक में हो जाते हैं तो आनन्द रुप मोक्ष उत्पन्न होता है, ऐसा निर्णय है ॥१३० – १३२॥

आनन्दं ब्रह्मकिरणं देहमध्ये व्यवस्थितम् ।

तदभिव्यञ्जकैर्द्रव्यैः कुर्याद्‍ ब्रह्मादितर्पणम् ॥१३३॥

आनन्दं जगतां सारं ब्रह्मरुपं तनुस्थितम् ।

तदाभिव्यञ्जकं द्रव्यं योगिभिस्तैः प्रपूजयेत् ॥१३४॥

इस शरीर के मध्य में आनन्द में ब्रह्म की किरण व्यवस्थित है । इसलिए आनन्द रुप ब्रह्मकिरण के अभिव्यञ्जक द्रव्य से ब्रह्मादि का तर्पण करना चाहिए । आनन्द सारे जगत् का सार है, शरीर में रहने वाला ब्रह्म का स्वरुप है, उसका अभिव्यञ्जक द्रव्य है, योगी जन उन्हीं द्रव्यों से ब्रह्मा का पूजन करते हैं ॥१३३ – १३४॥

लिङुत्रयं च षट्‍पद्माधारमध्येन्दुभेदकः ।

पीठस्थानानि चागत्य महापद्मवनं व्रजेत् ॥१३५॥

मूलाम्भोजो ब्रह्मारन्ध्रं चालयेदसुचालयेत् ।

गत्वा पुनः पुनस्तत्रं चिच्चन्द्रः परमोदयः ॥१३६॥

साधक षट् पद्माधार के मध्य में रहने वाले तीनों लिंगों के तथा इन्दुमण्डल (चन्द्रमण्डल) को भेदन करते हुए पीठ स्थान में पहुँच कर सहस्त्रदल कमल रुप महापद्‍मवन में प्रवेश करे । वहाँ जाकर मूलाम्भोज युक्त ब्रह्मरन्ध्र को संचालन करते हुए प्राण वायु का परमोदय होता है ॥१३५ – १३६॥

चिच्चन्द्रः कुण्डलीशक्तिः सामरस्यमहोदयः ।

व्योमपङ्कजनिस्पन्दसुधापानरतो नरः ॥१३७॥

मधुपानमिदं नाथ बाह्ये चाभ्यन्तरे सताम् ।

इतरं मद्यपानं तु योगिनां योगघातनात् ॥१३८॥

इतरं तु महापानं भ्रान्तिमित्याविवर्जितः ।

महावीरः सङ्करोति योगाष्टाङुसमृद्धये ॥१३९॥

कुण्डलिनी शक्ति चिच्चन्द्र है । उसकी समरसता महान् ‍ अभ्युदयकारक है । साधक व्योम पङ्कज से चूते हुए आनन्द पान में निरत हो जावे । हे नाथ ! सज्जन योगियों के लिए बाह्य और अभ्यन्तर में होने वाला यही मधु पान है और बाह्य मद्यपान तो योगियों के योग का घातक है । इतर (दूसरा) तो महायान है । भ्रान्ति तथा मिथ्या दोष से विवर्जित महावीर तो योग के अष्टाङ्ग की समृद्धि के लिए प्रथम (= योग पङ्कजनिष्यन्दपरामृत) सुधा का पान करता है ॥१३७ – १३९॥

पुण्यापुण्यपशुं हत्वा ज्ञानखड्‌गेन योगवित् ।

परशिवेन यश्चित्तं नियोजयति साधकः ॥१४०॥

मांसाशी स भवेदेव इतरे प्राणिघातकाः ।

शरीरस्थे महावहनौ दग्धमत्स्यानि पूजयेत् ॥१४१॥

शरीरस्थजलस्थानि इतराण्यशुभानि च ।

महीगतस्निसौम्योद्‌भवमुद्रामहाबलाः ॥१४२॥

तत्सर्वं ब्रह्मकिरणे आरोप्य तर्पयेत् सुधीः ।

तत्र मुद्राभोजनानि आनन्दवर्द्धकानि च ॥१४३॥

योगवेत्ता साधक तो ज्ञान खड्‍ग से पुण्यापुण्य रुप पशु को मार कर अपने चित्त को परशिव में समर्पण करता है । वही मांसाशी है । इतर तो पशुओं के हत्यारे हैं । शरीर में रहने वाली महावह्नि में शरीरस्थ जल में रहने वाली जलती हूई मानस इन्द्रिय गणों को रोके- यही मत्स्य- भोजन (अलौकिक) है और प्रकार का मत्स्य भोजन तो अशुभ है । महीगत स्निग्ध सौम्य से उत्पन्न होने वाली मुद्रा महाबल प्रदान करती है । उन सभी को ब्रह्म किरण में आरोपित कर सुधी साधक कुण्डलिनी को तृप्त करे । इस प्रकार की मुद्रा के द्वारा किया जाने वाला भोजन आनन्द का वर्द्धक होता है ॥१४० – १४३॥

इतराणि च भोगार्थे एतद्वि परम् ।

परशक्त्यात्ममिथुनसंयोगानन्दनिर्भराः ॥१४४॥

मुक्तास्ते मैथुनं तत्स्यादितरे स्त्रीनिषेवकाः ।

एतत्पञ्चमकारेण पूजयेत् परनायिकाम् ॥१४५॥

और (लौकिक) मुद्रायें तो भोग के लिए बनाई गई हैं, योगियों के लिए तो उक्त मुद्रा ही हैं । परशक्ति के साथ आत्मा को मिथुन में संयुक्त करने वाले आनन्द से मस्त हो जाते हैं वही (अलौकिक) मैथुन है जिसे मुक्त साधक लोग करते हैं और (लौकिक) मैथुन तो स्त्री का सहवास करने वाले करते हैं । इस प्रकार कहे गए पञ्चमकार से कुण्डलिनी का पूजन करे ॥१४४ – १४५॥

पुरश्चरणगूढार्थसारमन्त्रप्रपूजनम् ।

एतद्‌योगं सदाभ्यसेद्‍ निद्रालस्यविवर्जितः ॥१४६॥

प्राणवायुरयं कुर्यात् कालकारणवारणात् ।

एतत्क्रियां प्राणवशे यः करोति निरन्तरम् ॥१४७॥

तस्य योगसमृद्धिः स्यात् कालसिद्धिमवाप्नुयात् ॥१४८॥

यहीं तक पुरश्चरण के गूढार्थ का सारभूत मन्त्र प्रपूजन है- निद्रालस्य को त्याग कर इस योग का सदाभ्यास करे । कालरुपी महामत्त गजराज से बचने के लिए यह प्राण वायु करे । निरन्तर इस क्रिया द्वारा जो प्राणवायु को अपने वश में कर लेता है वह योग में समृद्ध होता है तथा कालसिद्धि प्राप्त करता है ॥१४६ – १४८॥

॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरमन्त्रे महातन्त्रोद्‌दीपने भावनिर्णये सूक्ष्मयोगसिद्धयधिकरणे पाशवकल्पे षट्‌चक्रसारसङ्केते सिद्धिमन्त्रप्रकरणे भैरवभैरवीसंवादे षड्‌विंशः पटलः ॥२६॥

॥ श्रीरुद्रयामल के उत्तरतन्त्र में महातन्त्रोद्दीपन में भावनिर्णय में पाशवकल्प में षट्चक्रसारसङ्केत में सिद्धमन्त्रप्रकरण में सूक्ष्मयोगसिद्धयाधिकरण में भैरवी भैरव संवाद के मध्य छब्बीसवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीयकृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ २६ ॥

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