रुद्रयामल तंत्र पटल ३५ || Rudrayamal Tantra Patal 35, रुद्रयामल तंत्र पैंतीसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र पटल ३५ में धौती योग की विधि वर्णित है। एक हाथ से लेकर ३२ हाथ तक की धोती (वस्त्र) लेना चाहिए। फिर २१-२८ श्लोकों में नेउली कर्म वर्णित है । फिर २८–४५ श्लोक तक क्षालन नाडी शोधन का वर्णन और सभी पञ्चस्वर कर्म की फलश्रुति कही गई है।
अथ पञ्चत्रिंशः पटल:
आनन्दभैरवी उवाच
अथ वक्ष्ये महाकाल रहस्यं चातिदुर्लभम् ।
यस्य विज्ञानमात्रेण नरो ब्रह्मपदं लभेत् ॥ १ ॥
आकाशे तस्य राज्यञ्च खेचरेशो भवेद् ध्रुवम् ।
धनेशो भवति क्षिप्रं ब्रह्मज्ञानी भवेन्नरः ॥ २ ॥
श्री आनन्दभैरवी ने कहा—हे महाकाल ! अब अत्यन्त दुर्लभ रहस्य कहती हूँ जिसके जान लेने मात्र से मनुष्य ब्रह्मपद प्राप्त कर लेता है। उसका राज्य आकाश मण्डल में हो जाता है अवश्यमेव वह खेचरगामी हो जाता है। ऐसा मनुष्य शीघ्र ही धनपति बन जाता है तथा ब्रह्मज्ञानी हो जाता है ॥ १-२ ॥
योगानामधिपो राजा वीरभद्रो यथाकविः ।
विरिञ्चिगणनाथस्य कृपा भवति सर्वदा ॥ ३ ॥
वह वीरभद्र के समान योगेश्वर तथा शुक्र के समान हो जाता है। उसके ऊपर सर्वदा विरिञ्चि (ब्रह्मा) तथा गणनाथ (गणेश) की कृपा रहती है ॥ ३ ॥
यः करोति पञ्चयोगं स स्यादमरविग्रहः ।
धौतीयोगं प्रवक्ष्यामि यत्कृत्वा निर्मलो भवेत् ॥ ४ ॥
जो पञ्चायोग (नेती आदि) की क्रिया करता है वह शरीर से अमर हो जाता है । अब मैं धौत योग कहूँगी, जिसके करने से साधक निष्पाप हो जाता है ॥ ४ ॥
अत्यन्तगुह्यं योगं च समाधिकरणं नृणाम् ।
यदि न कुरुते योगं तदा मरणमाप्नुयात् ॥ ५ ॥
यह योग अत्यन्त, गुप्त है, मनुष्यों को समाधि प्रदान करता है । यदि इस योग का अनुष्ठान नहीं किया गया तो मृत्यु की प्राप्ति होती है ।। ४-५ ।।
धौतीयोगं विना नाथ कः सिद्धयति महीतले ।
सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं वस्त्रं द्वात्रिंशद्धस्तमानतः ॥ ६ ॥
एकहस्तक्रमेणैव यः करोति शनैः शनैः ।
यावद् द्वात्रिंशद्धस्तञ्च‘ तावत्कालं क्रियाञ्चरेत् ॥ ७ ॥
हे नाथ ! इस भूतल पर धौती योग के बिना कौन सिद्ध हो सकता है ? पतला से पतला वस्त्र जो प्रमाण में ३२ हाथ लम्बा हो उसे ग्रहण करे। एक एक हाथ के क्रम से धीरे-धीरे जो प्रतिदिन निगलता है जब तक ३२ हाथ का निगलन न कर ले तब तक इस क्रिया को करते रहना चाहिए ।। ६-७ ।।
एतत्क्रिया प्रयोगेण योगी भवति तत्क्षणात् ।
क्रमेण मन्त्रसिद्धिः स्यात् कालजालवशं नयेत् ॥ ८ ॥
एतन्मध्ये चासनानि शरीरस्थानि चाचरेत् ।
दृढासने योगसिद्धिरिति तन्त्रार्थनिर्णयः ॥ ९ ॥
इस क्रिया के अनुष्ठान से साधक तत्क्षण योगी बन जाता है, उसे मन्त्र की सिद्धि हो जाती है तथा वह काल समूहों को अपने वश में कर लेता है। इस क्रिया के करते समय शरीर में होने वाले आसनों को करता रहे। क्योंकि आसन के दृढ़ होने पर ही योगसिद्धि होती है, ऐसा तन्त्र शास्त्रों के द्वारा अर्थ निर्णय किया गया है ।। ८-९ ।।
सिद्धे मनौ परावाप्तिः पञ्चयोगासनेन च ।
पार्श्वे चाष्टाङ्गुलं वस्त्रं दीर्घे द्वात्रिंशदीश्वर ॥ १० ॥
एतत् सूक्ष्मं सुवसनं गृहीत्वा कारयेद् यतिः ।
जितेन्द्रियः सदा कुर्याद् ज्ञानध्याननिषेवणः ॥ ११ ॥
कुलीनः पण्डितो मानी विवेकी सुस्थिराशयः ।
धौतीयोगं सदा कुर्यात्तदैव शुचिगो भवेत् ॥ १२ ॥
पञ्च योगासन से मन्त्र सिद्ध होता है और मन्त्र सिद्ध होने पर तत्त्व प्राप्त होता है। हे ईश्वर ! आठ अंगुल चौड़ा तथा ३२ अंगुल लम्बा अत्यन्त पतला सुन्दर वस्त्र ले कर यति को इस क्रिया का आरम्भ करना चाहिए। जितेन्द्रिय ज्ञान और ध्यान में परायण कुलीन, पण्डित, मानी, विवेकी तथा स्थिर अन्तःकरण वाले साधक को धौतीयोग सर्वदा करना चाहिए, इसके करने से वह सर्वथा पवित्र हो जाता है ।। १०-१२ ।।
अनाचारेण हानिः स्यादिन्द्रियाणां बलेन च ।
महापातकमुख्यानां सङ्गदोषेण हानयः ॥ १३ ॥
अनाचार करने से हानि तो होती ही है इन्द्रियों के बलवान् होने से तथा प्रधान महापातकों के सङ्ग दोष से भी अनेक हानियाँ उठानी पड़ती है ॥ १३ ॥
सम्भवन्ति महादेव कालयोगं सुकर्म च ।
वृद्धो वा यौवनस्थो वा बालो वा जड एव च ॥ १४ ॥
करणाद्दीर्घजीवी स्यादमरो लोकवल्लभः ।
मन्त्रसिद्धिरष्टसिद्धिः स सिद्धीनामधीश्वरः ॥ १५ ॥
हे महादेव ! उत्तम काल में इस पुण्यधर्म को करना चाहिए। चाहे वृद्ध हो, चाहे जवानी की अवस्था में, चाहे बालक अथवा जड़ ही क्यों न हो, इस क्रिया के करने से दीर्घजीवी, अमर तथा लोकप्रिय होता है, मन्त्रसिद्धि (और अणिमा, महिमा आदि ) अष्टसिद्धि प्राप्त करता है तथा सिद्धों का अधीश्वर बन जाता है ।। १४-१५ ।।
शनैः शनैः सदा कुर्यात् कालदोषविनाशनात् ।
हृदयग्रन्थिभेदेन सर्वावयववर्धनम् ॥ १६ ॥
यह क्रिया धीरे-धीरे और सर्वदा करते रहना चाहिए, फिर काल के दोषों के विनष्ट हो जाने पर तथा हृदयान्तर्गत ग्रन्थि के नष्ट हो जाने पर साधक के शरीरावयवों की वृद्धि होने लगती है ॥ १६ ॥
तदा महाबलो ज्ञानी चारुवर्णो महाशयः ।
धौतीयोगोद्भवं कामं महामरणकारणम् ॥ १७ ॥
वह महाबलवान्, ज्ञानी, मनोहर वर्ण का तथा महाशय हो जाता है। धौती योग का अनुष्ठान करते समय यदि कामवासना उत्पन्न हो गई तो उसे महामरण का कारण समझना चाहिए ॥ १७ ॥
तस्य त्यागं यः करोति स नरो देवविक्रमः ।
श्वासं त्यक्त्वा स्तम्भनञ्च मनो दद्यान्महानिले ॥ १८ ॥
जो उस कामवासना का परित्याग कर देता है, वह साधक साक्षात् देवता के समान पुरुषार्थी है। श्वास का परित्याग कर उसे स्थिर रखे तथा मन को महानिल(प्राणायाम) में लगावे ॥ १८ ॥
श्वासादीनाञ्च गणनमवश्यं भावयेद् गृहे ।
प्राणायामविधानेन सर्वकालं सुखी भवेत् ॥ १९ ॥
वायुपानं सदा कुर्यात् ध्यानं कुर्यात्सदैव हि ।
प्रत्याहारं सदा कुर्यात् मनोनिवेशनं सदा ॥ २० ॥
घर पर प्राणायाम करते समय श्वास की गणना अवश्य करते रहना चाहिए। इस प्रकार के प्राणायाम के विधान से साधक सभी कालों में सुखी रहता है। सर्वदा वायुपान करें तथा सदैव ध्यान करे। इसी प्रकार इन्द्रियों को समेट कर सदा प्रत्याहार करे जिससे मन परमात्मा में सन्निविष्ट हो जावे ।। १९-२० ।।
मानसादिप्रजाप्यञ्च सदा कुर्यान्मनोलयम् ।
धौतीयोगान्तरं हि नेउलीङ्कर्म चाचरेत् ॥ २१ ॥
नेउलीयोगमात्रेण आसने नेउलोपमः ।
नेउलीसाधनादेव चिरजीवी निरामयः ॥ २२ ॥
मानस जाप कर सदा मन का ( ध्यान में ) लय करे। धौतीयोग करने के अनन्तर नेउली कर्म का अनुष्ठान करना चाहिए। साधक नेउली के योग मात्रा से आसन पर नेउली के समान हो जाता है नेउली की साधना मात्रा से वह चिरञ्जीवी तथा नीरोग हो जाता है ।। २१-२२ ॥
अन्तरात्मा सदा मौनी निर्मलात्मा सदा सुखी ।
सर्वदा समयानन्दः कारणानन्दविग्रहः ॥ २३ ॥
योगाभ्यासं सदा कुर्यात् कुण्डली साधनादिकम् ।
कृत्वा मन्त्री खेचरत्वं प्राप्नोति नात्र संशयः ॥ २४ ॥
उसकी अन्तरात्मा सदा मौन हो जाती है वह निर्मलात्मा हो कर सदा सुखी हो जाता है वह योगाचार के समय से आनन्द प्राप्त करता है और इस नेउली के कारण उसका शरीर आनन्द से प्रफुल्लित रहता है। साधक को कुण्डलिनी साधनादि योगाभ्यास सदा करते रहना चाहिए। कुण्डलिनी साधन करने पर मन्त्रवेत्ता खेचरता प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं ।। २३-२४ ॥
तत्प्रकारं प्रवक्ष्यामि सावधानावधारय ।
भुक्त्वा मुद्गान्नपक्वञ्च बारैकं प्रतिपालयेत् ॥ २५ ॥
प्रपालयेत्सोदरञ्च कटिनासाविवर्जितः ।
पुनः पुनश्चालनञ्च कुर्यात् स्वोदरमध्यकम् ॥ २६ ॥
हे सदाशिव ! अब उस नेउली का प्रकार कहती हूँ सावधान हो कर सुनिए मात्र एक बार पका हुआ अन्न खाकर उसके पचने तक प्रतीक्षा करे। फिर कटि तथा नासा को छोड़कर उदर का मध्य भाग बारम्बार संचालन करे ।। २५-२६ ।।
कुलालचक्रवत् कुर्यात् भ्रामणञ्चोदरस्य च ।
सर्वाङ्गचालनादेव कुण्डलीचालनं भवेत् ॥ २७ ॥
चालनात् कुण्डलीदेव्याश्चैतन्या सा भवेत् प्रभो ।
उदर का सञ्चालन कुम्हार के चक्र के समान करना चाहिए। उदर के सर्वाग संचालन से कुण्डलिनी भी चलने लगती है। कुण्डली देवी के सञ्चालन से, हे प्रभो ! वह चेतनता प्राप्त करती है। ( यहाँ तक नेउली क्रिया कही गई ) ॥ २७-२८ ॥
एतस्यानन्तरं नाथ क्षालनं परिकीर्तितम् ॥ २८ ॥
नाडीनां क्षालनादेव सर्वविद्यानिधिर्भवेत् ।
सर्वत्र जयमाप्नोति कालिकादर्शनं भवेत् ॥ २९ ॥
अब इसके बाद क्षालन की क्रिया करनी चाहिए। नाड़ियों के प्रक्षालन से साधक सभी विद्याओं का निधि बन जाता है। वह सर्वत्र विजय प्राप्त करता है तथा कालिका का दर्शन उसको होता है ।। २८-२९ ।।
वायुसिद्धिर्भवेत्तस्य पञ्चभूतस्य सिद्धिभाक् ।
तस्य कीर्तिस्त्रिभुवने कामदेवबलोपमः ॥ ३० ॥
सर्वत्रगामी स भवेदिन्द्रियाणां पतिर्भवेत् ।
मुण्डासनं हि सर्वत्र सर्वदा कारयेद् बुधः ॥ ३१ ॥
उस साधक को वायुसिद्धि हो जाती है तथा वह पञ्चभूतों के साधन का अधिकारी हो जाता है उसकी त्रिभुवन में कीर्ति होती है तथा कामदेव के समान बलवान् होता है। उसकी सर्वत्र अबाध गति हो जाती है, वह अपने इन्द्रियों का स्वामी हो जाता है। बुद्धिमान् साधक सर्वत्र सर्वदा मुण्डासन ( शीर्षासन ) करे ।। ३०-३१ ।।
ऊर्ध्वं मुण्डासनं कृत्वा अधोहस्ते जपं चरेत् ।
यदि त्रिदिनमाकर्तुं समर्थो मुण्डिकासनम् ॥ ३२ ॥
तदा हि सर्वनाड्यश्च वशीभूता न संशयः ।
नाडीक्षालनयोगेन मोक्षदाता स्वयं भवेत् ॥ ३३ ॥
ऊपर की ओर पैर नीचे अपने शिर का आसन ( द्र० २३, २४, २५) बनावे तदनन्तर नीचे की ओर रहने वाले हाथ से जप करें। यदि साधक मात्र तीन दिन तक मुण्डिकासन करने में समर्थ हो तो उसके शरीर की सभी नाडियाँ वशीभूत हो जाती हैं इसमें संशय नहीं । नाड़ी क्षालन नामक योग करने से वह स्वयं मोक्ष का अधिकारी हो जाता है ।। ३२-३३ ॥
नाडीयोगेन सर्वार्थसिद्धिः स्यान्मुण्डिकासनात् ।
मुण्डासन यः करोति नेऊलि-सिद्धिगो यदि ॥ ३४॥
नेऊलीसाधनगतो नेऊलीसाधनोत्तमः ।
तदा क्षालनयोगेन सिद्धिमाप्नोति साधकः ॥ ३५ ॥
मुण्डिकासन करने से तथा नाडी क्षालन योग से सभी अर्थों की सिद्धि हो जाती है। नेउली की सिद्धि करने वाला जो पुरुष है, वही मुण्डासन करे । नेउली साधन करने वाला जब नेउली साधन में निपुण हो जाय तब वह साधक नाडियों का क्षालन योग कर सिद्धि प्राप्त करता है ।। ३४-३५ ॥
नेऊलीं यो न जानाति स कथं कर्त्तुमुत्तमः ।
स धीरो मानसचरो मतिमान् स जितेन्द्रियः ॥ ३६ ॥
जो नेउली क्रिया नहीं जानता वह उससे आगे की क्रिया करने में किस प्रकार समर्थ हो सकता है। वही धीर है वही मानस राज्य में सञ्चरण करने वाला है वही मतिमान् तथा जितेन्द्रिय भी है ॥ ३६ ॥
यो नेऊली योगसारं कर्त्तुमुत्तमपारगः ।
स चावश्य क्षालनञ्च कुर्यात् नाड्यादिशोधनात् ॥ ३७ ॥
नेऊलीयोगमार्गेण नाडीक्षालनपारगः ।
भवत्येव महाकाल राजराजेश्वरो यथा ॥ ३८ ॥
जो साधक नेउली योगसार करके उसके अनन्तर उसका उत्तम पारगामी बन जाता है, उसे नाड्यादि शोधन के विधान से अवश्य ही क्षालन योग करना चाहिए नेउली योग के मार्ग से नाडी क्षालन का पारगामी पुरुष, हे महाकाल ! राज राजेश्वर के समान हो जाता है ।। ३६-३८ ।
पृथिवीपालनरतो विग्रहस्ते प्रपालनम् ।
केवलं प्राणवायोश्च धारणात् क्षालनं भवेत् ॥ ३९ ॥
वह पृथ्वीपालन में निरत रहकर मात्र शरीर धारण करता है। केवल प्राणवायु (प्राणायाम) के धारण करने से भी नाडियों का संचालन जाता है ।। ३९ ।।
विना क्षालनयोगेन देहशुद्धिर्नजायते ।
क्षालनं नाडिकादीनां कफपित्तमलादिकम् ॥ ४० ॥
करोति यत्नतो योगी मुण्डासननिषेवणात् ।
वायुग्रहणमेवं हि नेऊलीवशकालके ॥ ४१ ॥
क्षालन क्रिया के किए बिना देह शुद्धि कदापि संभव नहीं है। मुण्डासन का अभ्यास करने वाला योगी साधक नाडी में रहने वाले कफ, पित्तादि समस्त मलों को अपने प्रयत्न से प्रक्षालित कर देता है। इसी प्रकार हे नाथ! नेउली के वश करने वाले काल में केवल वायु भी ग्रहण नहीं करना चाहिए ।। ४०-४१ ।।
न कुर्यात् केवलं नाथ अन्यकाले सदा चरेत् ।
यावन्नेऊलीं न जानाति तावत् वायुं न सपिबेत् ॥ ४२ ॥
बहुतरं न सङग्राह्यं वायोरागमनादिकम् ।
केवलं श्वासगणनं यावन्नेऊली न सिद्ध्यति ॥ ४३ ॥
अन्यकाल में सर्वदा वायु ग्रहण करे। जब तक नेउली का ज्ञान न हो तब तक वायुपान न करे। अधिक संख्या में वायु का आगमन ग्रहण न करें। जब तक नेउली सिद्ध न हो तब तक केवल श्वास गणना ( प्राणायाम) ही करे ।। ४२-४३ ॥
पञ्चस्वरा प्रकथिता योगिनी सिद्धिदायिका ।
पञ्चस्वरसाधनादेव पञ्चवायुर्वशो भवेत् ॥ ४४ ॥
प्रतापे सूर्यतुल्यः स्यात् शोकदोषापहारकः ।
सर्वयोगस्थिरतरं संप्राप्य योगिराड् भवेत् ॥ ४५ ॥
योगिनी सिद्ध करने वाले पञ्चस्वरों का वर्णन हमने पूर्व में कर दिया है। पञ्चस्वरों की साधना से ही पञ्च प्राणवायु वशीभूत हो जाते हैं। पञ्चवायु को वश में करने वाला साधक प्रताप में सूर्य के समान शोक और दोषों को दूर कर देता है तथा सर्वयोग से स्थिर वायु को प्राप्त कर योगिराज बन जाता है ।। ४४-४५ ।।
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने षट्चक्रप्रकाशे भैरव भैरवी संवादे पञ्चस्वरयोगसाधनं नाम पञ्चत्रिंश: पटलः ॥ ३५ ॥
॥ श्री रुद्रयामल के उत्तर तन्त्र में महामन्त्रोद्दीपन प्रकरण के षट्चक्र प्रकाश वर्णन में भैरवीभैरव संवाद में साधन नामक पैतीसवें पटल की डा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ३५ ॥