रुद्रयामल तंत्र पटल ६ || Rudrayamal Tantra Patal 6
रुद्रयामल तंत्र पटल ६ में पशुभाव (५-६०), वीरभाव एवं दिव्य भाव (६१- ८२) साधन के फलों को क्रमशः कहा गया है ( ५२.५४)। पशुभाव के ही प्रसङ्ग में सुषुम्ना साधना (१३-१४), देवी ध्यान (१५-२९), पूजनविधि (२२-२८), कुण्डलिनीस्तव (२९-३८), पशुभाव प्रशंसा (४९–६०), भाव विद्या विधि (७१-८२) वर्णित है। अन्त में कुमारी के लक्षण (८३-८७) और कुमारी पूजन के महत्व पर प्रकाश डाला गया है (८८-१०२)।
रुद्रयामल तंत्र पटल ६
रुद्रयामल षष्ठः पटलः
रुद्रयामल छठवां पटल
षष्ठः पटलः – पशुभावविवेचनम्
षष्ठ पटल – पशुभावविवेचन
तंत्र शास्त्ररूद्रयामल
पशुभावविवेचनम्
भैरव उवाच
अथ भावं वद श्रीदे दिव्यवीरपशुक्रमात् ।
पशूनां परमाश्चर्यभावं श्रोतुं समुत्सुकः ॥१॥
इच्छाम्याहलादजलधौ स्थितोऽहं जगदीश्वरि ।
यदि भाग्यवशादाज्ञासारं चिन्तय सिद्धये ॥२॥
भैरव ने कहा – हे श्री देने वाली महाभैरवि ! अब दिव्य, वीर और पशु के क्रम से भावों का वर्णन कीजिए । विशेष कर मैं आश्चर्य सम्पन्न पशुभाव के विषय में सुनने के लिए उत्सुक हूँ । हे जगदीश्वरि ! यदि भाग्यवश सिद्धि में मेरी आज्ञा का ध्यान करिए तो आह्लाद समुद्र में स्थित हुआ मैं इन भावों को जानना चाहता हूँ ॥१ – २॥
पशुभावः
महाभैरव्युवाच
पशुनाथ वीरनाथ दिव्यनाथ कृपानिधे ।
प्रकाशह्रदयोल्लास चन्द्रशेखर तच्छुणु ॥३॥
काली कलालताकारं तपस्याद्वयसङुतिम् ।
पशुभावस्थितां नाथ देवतां श्रृणु विस्तरीत् ॥४॥
महाभैरवी ने कहा — हे पशुनाथ ! हे वीर नाथ ! हे दिव्यनाथ ! हे कृपानिधे ! हे प्रकाशरुप ज्ञान से ह्रदय को उल्लसित करने वाले ! हे चन्द्रशेखर ! अब भावों के विषय में श्रवण कीजिए । हे नाथ ! कलाओं की लता के समान आकार वाली, तपस्या से अद्वयावस्था में प्राप्त होने वाली काली ही पशुभाव में स्थित देवता हैं, अब उस पशुभाव के विषय में विस्तार पूर्वक सुनिए ॥३-४॥
दुर्गापूजां शिवपूजां यः करोति पशूत्तमः ।
अवश्यं हि यः करोति पशुरुत्तमः स्मृतः ॥५॥
केवलं शिवपूजाञ्च करोति यदि साधकः ।
पशूनां मध्यमः श्रीमान् शिवया सह चोत्तमः ॥६॥
पशुभावविवेचन – जो उत्तम पशु, दुर्गा पूजा और शिवपूजा अवश्यकरणीय है – ऐसा समझ कर उनकी पूजा करता है, ’उत्तम पशु’ कहा जाता है । यदि साधक केवल शिव की पूजा करता है वह ’मध्यम पशु’ है । यदि शिवा के साथ शिव की पूजा करता है तो वह उत्तम है ही उसे हम पूर्व में ( द्र० . ६ . ५ ) कह आयें है ॥५ – ६॥
केवलं वैष्णवोऽधीशः पशूनां मध्यमः स्मृतः ।
भूतानां देवतानञ्च सेवाम कुर्वन्ति ये सदा ॥७॥
पशूनां मध्यमाः प्रोक्तं नरकस्था न संशयः ।
त्वत्सेवां मम सेवाञ्च विष्णुब्रह्मादिसेवनम् ॥८॥
कृत्वान्यसर्वभूतानां नायिकानां महाप्रभो ।
यक्षिणीनां भूतिनीनां ततः सेवा शुभप्रदा ॥९॥
जो केवल विष्णु भक्त हैं और उन्हीं को अपना अधीश्वर समझता है तो वह मध्यम प्रकार का पशु है जो भूतों और देवताओं की सदा पूजा करते हैं । वे भी मध्यम पशु हैं किन्तु नरक गामी होते हैं इसमें संशय नहीं । हे महाप्रभो ! आपकी सेवा, हमारी सेवा, विष्णु एवं ब्रह्मा आदि की सेवा, अन्य सर्वभूतों की नायिकाओं जैसे यक्षिणीयों या भूतिनियों की भी सेवा शुभप्रद होती है ॥७ – ९॥
यः पशुर्ब्रह्मकृष्णादि सेवाम कुर्वन्ति ये सदा ।
तथा शीतारकब्रह्म सेवाद्वये नरोत्तमाः ॥१०॥
तेषामसाध्या भूतादिदेवताः सर्वकामदाः ।
वर्जयेत् पशुमार्गेण विष्णुसेवापरो जनः ॥११॥
जो पशु ब्रह्म कृष्णादि की सेवा करते है, अथवा जो श्री, तारक और ब्रह्म की सेवा करते हैं, ऐसे दोनों प्रकार के सेवक नरो में उत्तम हैं । ऐसे लोगों को असाध्य भूतादि देवता सभी कामनायें प्रदान करते हैं । किन्तु विष्णु सेवा परायण जन पशुमार्ग से वर्जित रहें ॥१० – ११॥
रुद्रयामल षष्ठ पटल – सुषुम्नासाधनम्
रुद्रयामल तंत्र पटल ६
रुद्रयामल छठवां पटल
प्रवक्तव्यञ्च पटले तेषां तेषां ततस्ततः ।
विधिना विधिना नाथ क्रमशः श्रृणु वल्लभ ॥१२॥
अतः प्रातः समुत्त्थाय पशुरुत्तपण्डितः ।
गरुणां चरनाम्भोजमङुलं शीर्षपङ्कजे ॥१३॥
विभाव्य पुनरेकं हि श्रीपादं भावयेद् यदि ।
पूजयित्वा च वीरं वै उपहौरर्न मे स्तवैः ॥१४॥
सुषुम्नासाधन
ऐसे लोगों के विषय में पटल में आगे उन उन स्थानों पर हम विधि पूर्वक कहेगें । अब हे नाथ ! हे बल्लभ ! विधिपूर्वक पशुभाव को सुनिए । उत्तम पण्डित जो पशुभाव में स्थित है, वह प्रातः काल में उठकर मङ्गलकारी गुरु के चरण पङ्कज का अपने शीर्ष पङ्कज में ध्यान कर, तदनन्तर एक मात्र महालक्ष्मी के वीर स्वरूप श्री पाद का उपहार द्वारा पूजन कर स्तुतिपूर्वक उनको प्रणाम करे ॥१२ – १४॥
त्रैलोक्यं तेजसा व्याप्तं मण्डलस्थां महोत्सवाम् ।
तडित्कोटिप्रभादीप्तिं चन्द्रकोटिसुशीतलाम् ॥१५॥
सार्द्धत्रिवलयाकारां स्वयम्भूलिङुवेष्टिताम् ।
उत्त्थापयेन्महादेवीं महारक्तां मनोन्मयीम् ॥१६॥
देवी का ध्यान — जिन महाश्री के तेज से सारा त्रैलोक्य व्याप्त है, जो मण्डल में रहने वाली तथा महोत्सव स्वरूपा हैं, करोड़ों बिजली की जगमगाहट के समान जिनके शरीर की कान्ति है जो करोड़ों चन्द्रमा के समान सुशीतल हैं । जो स्वयंभू लिङ्ग को साढे तीन बार गोलाकार रूप में परिवेष्टित कर अवस्थित है, महारक्त वर्ण वाली, मनोन्मयी उन महादेवी को प्रातः काल में प्रबुद्ध करना चाहिए ॥१५ – १६॥
श्वासोच्छवासद्वयावृत्तिं द्वादशाङ्गुलरुपिणीम् ।
योगिनीं खेचरीं वायुरुपां मूलाम्बुजस्थिताम् ॥१७॥
चतुर्वर्णस्वरुपान्तां वकारादिषसान्तकाम् ।
कोटिकोटिसहस्त्रार्ककिरणा कुलमोहिनीम् ॥१८॥
महासूक्ष्मपथपान्तवान्तरान्तरगामिनीम् ।
त्रैलोक्यरक्षितां वाक्यदेवताम शम्भुरुपिणीम् ॥१९॥
महाबुद्धिप्रदां देवीं सहस्त्रदलगामिनीम् ।
महासूक्ष्मपथे तेजोमयीं मृत्युस्वरुपिणीम् ॥२०॥
कालरुपां सर्वरुपां सर्वत्र सर्वचिन्मयीम् ।
ध्यात्वा पुनः पुनः शीर्षे सुधाब्धौ विनिवेष्टिताम् ॥२१॥
द्वादश अंगुल स्वरूप वाली, श्वास तथा उच्छवास इन दो प्रकार की वृति वाली, योगिनी, खेचरी, वायुस्वरूपा, मूलाधार रूप कमल में निवास करने वाली देवी व, श, ष, स, इन चार वर्ण स्वरूपों वाली, करोड़ों सहस्त्र संख्या वाले सूर्य के समान प्रकाश वाली, कुलमोहिनी, महासूक्ष्मपथ के प्रान्त में भीतर ही भीतर चलने वाली, त्रैलोक्य की रक्षा करने वाली, वाक्य देवता, शम्भु स्वरूपा, महान् बुद्धि देने वाली, सहस्त्रदल कमल के ऊपर निवास करने वाली, महासूक्ष्म पथ में तेजः स्वरूपा तथा मृत्यु स्वरूपा, कालस्वरूपा, सर्वरूपा, सब जगह रहने वाली सर्व चेतना स्वरूपा देवी का पुनः पुनः ध्यान कर उन्हें अपने शीर्षस्थान के अमृत समुद्र में ऊपर ले जाकर सन्निविष्ट करे ॥१७ – २१॥
सुधापानं कारयित्वा पुनः स्थाने समानयेत् ।
समानयनकाले तु सुषुम्यामध्यमध्यके ॥२२॥
अमृताभिप्लुतां कृत्वा पुनः स्थानेषु पूजयेत् ।
ऊद्र्ध्वोद्गमनकाले तु महातेजोमयीं स्मरेत् ॥२३॥
तदनन्तर वहाँ से उन्हें अमृतपान कराकर अपने स्थान मूलाधार में लाकर प्रतिष्ठित करे । मूलाधार में ले आने के समय मध्य में रहने वाली सुषुम्ना के मध्य से अमृत में स्नान करा कर अपने स्थान में उनकी पूजा करे । उन्हें ऊपर की ओर ले जाते समय साधक उनके तेजःस्वरूप का ध्यान करे ॥२२ – २३॥
प्रतिप्रयानकाले तु सुधाधाराभिराप्लुताम् ।
महाकुलकुण्डलिनीममृतानन्दविग्रहाम् ॥२४॥
ध्यात्वा ध्यात्वा पुनर्ध्वात्वा सर्वसिद्धिश्वरो भवेत् ।
तस्मिन्स्थाने महादेवीम विभाव्य किरणोज्ज्वलाम् ॥२५॥
अमृतानन्दमुक्तिं तां पूजयित्वा शुभां मुदा ।
मानसोच्चारबीजेन मायां वा कामबीजकम् ॥२६॥
पञ्चाशद्वर्णमालाभिर्ज्जप्त्वा नुलोमसत्पथा ।
विलोमेन पुनर्जप्त्वा सर्वत्र जयदं स्तवम् ॥२७॥
पठित्वा सिद्धिमाप्नोति तत्स्तोत्रं श्रृणु भैरव ॥२८॥
जब उन्हें नीचे की ओर मूलाधार में लाना हो तब सुधाधारा में डूबी हुई आनन्द विग्रह वाली महाकुण्डलिनी के स्वरुप में बारम्बार ध्यान करे । ऐसा करने से साधक सभी सिद्धियों का ईश्वर बन जाता है । फिर मूलाधार में किरण पुञ्जों से प्रकाशित अमृतानन्द देने के कारण मुक्तिस्वरूपा समस्त कल्याणकारिणी उन देवी का निम्न मन्त्र से पूजन करे –
मानसोच्चार बीज (ॐ), माया (ह्रीं) अथवा कामबीज (क्लीं), तदनन्तर ५० वर्णों (अकार से लेकर क्षकार तक) की माला अनुलोम क्रम से जप कर, पुनः प्रतिलोम क्रम से जप कर, तद्नन्तर ’जयद’ नामक स्तोत्र को पढ़े । ऐसा करने से साधक को सिद्धि प्राप्त होती है अब हे भैरव ! उस स्तोत्र को सुनिए ॥२४ – २८॥
जयद स्तोत्र श्लोक २९ से ४० में वर्णित है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें- जयद स्तोत्र
जयद स्तोत्र से आगे –
त्वष्टापि मम निकटे स्थितो भगवतीपतिः ।
मां विद्धि परमां शक्तिं स्थूलसूक्ष्मस्वरुपिणीम् ॥४१॥
इस स्तोत्र के प्रभाव से भगवती पति सदाशिव तथा त्वष्टा भी हमारे सन्निधान में निवास करते हैं । स्थूल और सूक्ष्म स्वरुप से निवास करने वाली मुझे आप परमा शक्ति समझिए ॥४१॥
सर्वप्रकाशकरणीं विन्ध्यपर्वतवासिनीम् ।
हिमालयसुतां सिद्धां सिद्धमन्त्रस्वरुपिणीम् ॥४२॥
वेदान्तशक्तितन्त्रस्थां कुलतन्त्रार्थगामिनीम् ।
रुद्रयामलमध्यस्थाम स्थितिस्थापकभाविनीम् ॥४३॥
पञ्चमुद्रास्वरुपाञ्च शक्तियामलमालिनीम् ।
रत्नमालावलाकोट्यां चन्द्रसूर्यप्रकाशिनीम् ॥४४॥
सर्वभूतमहाबुद्धिदायिनीं दानवापहाम् ।
स्थित्युत्पत्तिलयकारीं करुणासागरस्थिताम् ॥४५॥
महामोहनिवासाढ्यां दामोदरशरीरगाम् ।
छत्रचामररत्नाढ्य महाशूलकाराम पराम् ॥४६॥
ज्ञानदां वृद्धिदां ज्ञानरत्नमालाकलापदाम् ।
सर्वतेज स्वरुपाभामनन्तकोटिविग्रहाम् ॥४७॥
दरिद्रधनदाम लक्ष्मीं नारायणमनोरमाम् ।
सदा भावय शम्भो त्वं योगनायकपण्डित ॥४८॥
मुझे सब में प्रकाश (ज्ञान) करने वाली, विन्ध्य पर्वत पर निवास करने वाली, हिमालय पुत्री, सिद्ध एवं सिद्धमन्त्र स्वरुपा, वेदान्तशक्ति, तन्त्रनिवासिनी, कुलतन्त्रर्थगामिनी, रुद्रयामल- मध्यस्था, स्थिति तथा स्थापक रुप से रहने वाली, पञ्चमुद्रा स्वरुपा, शक्तियामल की माला धारण करने वाली, रत्नमाला धारण करने वाली, अबला स्वरुपा, चन्द्रमा और सूर्य को भी प्रकाशित करने वाली, सम्पूर्ण प्राणियों में महाबुद्धि प्रदान करने वाली, दानव हन्त्री, स्थिति-उत्पत्ति एवं प्रलय करने वाली, करुणा के सागर में अवस्थित, महाविष्णु के शरीर में रहकर महामोह स्वरुप से निवास करने वाली, छत्र चामर एवं रत्न से विभूषित, त्रिशूलधारिणी, परस्वरुपा, ज्ञानदात्री, वृद्धिदात्री, ज्ञानरत्न की माला, कला युक्त पर प्रदान करने वाली, सम्पूर्ण तेजः स्वरुप की आभा से युक्त, अनन्त कोटि विग्रह वाली दरिद्रो को धन देने वाली, नारायण की मनोरमा महालक्ष्मी के रुप में, हे योगनायक पण्डित ! हे शम्भो ! आप सदा भावना करें ॥४२ – ४८॥
रुद्रयामल छठवां पटल – पशुभावप्रशंसा
रुद्रयामल तंत्र पटल ६
रुद्रयामल षष्ठः पटलः
पुनर्भावं पशोरेव श्रृणु सादरपूर्वक ।
अकस्मात् सिद्धिमाप्नोति पशुर्नारयणोपमः ॥४९॥
वैकुण्ठनगरे याति चतुर्भुजकलेवरः ।
शङ्कचक्रगदापद्महस्तो गरुदवाहनः ॥५०॥
अब हे शंभो ! पुनः आदर पूर्वक पशुभाव का स्मरण कीजिए । पशुभाव में रहने वाला नारायण के सदृश हो जाता है । अकस्मात् सिद्धि प्राप्त कर लेता है । अन्ततः वह हाथ में शंख चक्र गदा पद्म धारण कर गरुड़ पर सवार हो कर चतुर्भुज का स्वरूप प्राप्त कर वैकुण्ठ धाम में चला जाता है ॥४९ – ५०॥
महाधर्मस्वरुपोऽसौ महाविद्याप्रसादतः ।
पशुभावं महाभावं भावानां सिद्धिदं पुनः ॥५१॥
आदौ भावं पशोः कृत्वा पश्चात् कुर्यादवश्यकम् ।
वीरभावं महाभावं सर्वभावोत्तमोत्तरम् ॥५२॥
महाविद्या की कृपा से वह साधक महाधर्मस्वरूप हो जाता है । वस्तुत: यह पशुभाव ही महाभाव है जो बाद में अन्य भावों को सिद्धि प्रदान करता है । अतः सर्वप्रथम पशुभाव को करे, इसके पश्चात् सभी भावों में उत्तमोत्तम महाभाव स्वरुप वीरभाव का आश्रय ग्रहण करे ॥५१ – ५२॥
तत्प्रश्चादतिसौन्दर्य दिव्यभावं महाफलम् ।
फलाकाङ्क्षी मोक्शगश्च सर्वभूतहिते रतः ॥५३॥
विद्याकाङ्क्षी धनाकाङ्क्षी रत्नाकाङ्क्षी च यो नरः ।
कुर्याद भावत्रयं दिव्यं भावसाधनमुत्तमम् ॥५४॥
इसके बाद फल की आकांक्षा करने वाला, मोक्ष चाहने वाला, समस्त प्राणियों का हित करने वाला पुरुष महान् फल देने वाला अत्यन्त सुन्दरता पूर्व दिव्यभाव का आश्रय लेवे । विद्या की आकांक्षा करने वाला, धन की आकांक्षा करने वाला तथा रत्न की आकांक्षा करने वाला साधक तीनों भाव करे । दिव्य भाव का साधन उत्तम से उत्तम है ॥५३ – ५४॥
भावेन लभते वाद्यं धनं रत्नं महाफलम् ।
कोटिगोदानजैः पुण्यैः कोटिशालग्रामदानजैः ॥५५॥
वाराणस्यां कोटिलिङुपूजनेन च यत्फलम् ।
तत्फलं लभते मर्त्यः क्षणादेव न संशयः ॥५६॥
भाव से ही वाद्य, धन, रत्न तथा अन्य महाफलों की प्राप्ति होती है । करोड़ों गोदान से, करोड़ों शालग्राम-शिला के दान से तथा वाराणसी में करोड़ लिङ्गों के पूजन से जो फल होता है, वह फल मनुष्य क्षणमात्र में भाव के आश्रय से प्राप्त कर लेता है- इसमें संशय नहीं ॥५५ – ५६॥
आदौ दशमदण्डे तु पशुभावमथापि वा ।
मध्याहने दशदण्डे तु वीरभावमुदामह्रतम ॥५७॥
सायाहनदशदण्डे तु दिव्यभावं शुभप्रदम् ।
अथवा पशुभावस्थो यजेदिष्टादिदेवताम् ॥५८॥
दिन के प्रारम्भ के दश दण्ड पशुभाव के लिए उपयुक्त हैं । इसके बाद मध्याह्न के दश दण्ड वीरभाव के लिए कहे गये है । इसके बाद सांयाह्न का दश दण्ड दिव्यभाव के लिए उपयुक्त है जो सब प्रकार का कल्याण देने वाला है अथवा पशुभाव काल में ही इष्टादि देवों का पूजन करे ॥५७ – ५८॥
जन्मावधि यजेन्मन्त्री महासिद्धिमवाप्नुयात् ।
सर्वेषां गुरुरुपः स्यादैश्वर्यञ्च दिने दिने ॥५९॥
यदि गुरुस्वभावः स्यात्तदा मधुमतीं लभेत् ।
यदि विवेकी निर्याति महावनिवासवान् ॥६०॥
यदि मन्त्रज्ञ जन्मपर्यन्त पशुभाव काल में इष्ट देवता का पूजन करे तो उसे महासिद्धि प्राप्त हो जाती है । वह सब का गुरु बन जाता है तथा प्रतिदिन उसके ऐश्वर्य की वृद्धि होती रहती है । यदि साधक गुरु स्वभाव वाला हो जाय तो उसे मधुमती विद्या भी प्राप्त हो जाती है ॥५९ – ६०॥
ब्रह्मचर्यव्रतस्थो वा अथवा स्वपुरे वसन् ।
पीठब्राह्मणमात्रेण महाषोढाश्रमेण च ॥६१॥
पशुभावस्थितो मन्त्री सिद्धविद्यामवाप्नुयात् ।
यदि पूर्वापरस्थाञ्च महाकौलिकदेवताम् ॥६२॥
कुलमार्गास्थितो मन्त्री सिद्धिमाप्नोति निश्चितम् ।
यदि विद्याः प्रसीदन्ति वीरभावं तदा लभेत् ॥६३॥
यदि विवेक सम्पन्न व्यक्ति महावन में निवास करे अथवा अपने घर रह कर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करे अथवा किसी सिद्धि पीठ में ब्राह्मण कुल में जन्म ले अथवा महोषोढ़ाश्रम में पशुभाव में स्थित रहे तो उसे सिद्ध विद्या प्राप्त हो जाती है । अथवा यदि कुल भाग में स्थित मन्त्रज्ञ साधक पूर्वापर में रहने वाले महा कौलिक देवता (कुण्डलिनी शक्ति) का आश्रय ले तो भी निश्चित रुप से उसे सिद्धि का लाभ हो जाता है । अतः यदि महाविद्या की प्रसन्नता रहे तभी साधक को वीरभाव प्राप्त होता है ॥६० – ६३॥
वीरभावप्रसादेन दिव्यभाववाप्नुयात् ।
दिव्यभावं ये गृहणन्ति नरोत्तमाः ॥६४॥
वाञ्छाकल्पद्रुमलतापतयस्ते न संशयः ।
आश्रमी ध्याननिष्ठश्च मन्त्रतन्त्रविशारदः ॥६५॥
भूत्वा वसेन्महापीठं सदा ज्ञानी भवेद् यतिः ।
किमन्येन फलेनापि यदि भावादिकं लभेत् ॥६६॥
भावग्रहनमात्रेण मम ज्ञानी भवेन्नर. ।
वाक्यसिद्धिर्भवेत् क्षिप्रं वाणी ह्रदयगामिनी ॥६७॥
वीरभाव जव परिपूर्ण हो जाता है तब साधक वीरभाव युक्त हो जाता है । जो उत्तम पुरुष, वीरभाव और दिव्यभाव प्राप्त कर लेते है । वे वाञ्छा कल्पलता के पति हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं । इन भावों को प्राप्त करने वाला, आश्रमी, ध्याननिष्ठ और मन्त्र-तन्त्र विशारद बन कर किसी महापीठ में निवास करता है । अन्ततः वह सदाज्ञानी और यति बन जाता है । इन भावों का अन्य फल हम क्या कहें ? यदि उक्त भाव की प्राप्ति हो जावे तो वह मनुष्य मुझे भी जान लेता है, उसे वाक्सिद्धि प्राप्त हो जाती है उसकी वाणी दूसरों के हृदय तक पहुँचने में समर्थ हो जाती है ॥६४ – ६७॥
नारायणं परिहाय लक्ष्मीस्तिष्ठति मन्दिरे ।
मम पूर्णं तु मादृष्टी तस्य देह न संशयः ॥६८॥
अवश्यं सिद्धिमाप्नोति सत्यं सत्यं न संशयः ।
लक्ष्मी अपने पति नारायण को छोड़कर उसके घर में निवास करती हैं । उसके शरीर में ममता से पूर्ण मेरी दृष्टि रहती है, इसमें संशय नहीं है । वह अवश्य ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है- यह सत्य है, यह सत्य है और यह ध्रुव सत्य है ॥६८ – ६९॥
रुद्रयामल षष्ठः पटलः – भावविद्याविधिः
रुद्रयामल छठवां पटल
रुद्रयामल तंत्र पटल ६
महाभैरव उवाच
सूचितं तु महादेवि कथयस्वानुकम्पया ॥६९॥
सर्वतन्त्रेषु विद्यासु भावसङ्केतमेव हि ।
तथापि शक्तितन्त्रेषु विशेषात् सर्वसिद्धिदम् ॥७०॥
भावविद्याविधिं विद्ये विस्तार्य भावसाधनम् ।
आनन्दभैरव उवाच
भावस्तु त्रिविधो देव दिव्यवीरपशुक्रमात् ॥७१॥
गुरुरस्य त्रिधा चात्र तथैव मन्त्रदेवताः ।
दिव्यभावो महादेव श्रेयसाम सर्वसिद्धिदम् ॥७२॥
महाभैरव ने कहा – हे महादेवि ! आपने यहाँ तक (पशु एवं वीरभाव को) सूचित किया अब अनुग्रह पूर्वक आगे मुझे बताइए ।
ऐसे तो सभी तन्त्रों में एवं विद्याओं में (पशु आदि) भाव के सङ्केत प्राप्त होते हैं आगे फिर भी तन्त्रों में विशेष रूप से भाव को सिद्धिप्रद कहा गया है । अब हे विद्ये ! भावविधा की विधि और भाव साधन को विस्तारपूर्वक कहिए –
अनान्दभैरवी ने कहा – हे देव ! दिव्य, वीर और पशु के क्रम से ३ प्रकार के भाव कहे गये हैं । इनके गुरु तथा इनके मन्त्र एवं देवता भी उसी प्रकार तीन-तीन हैं । किन्तु हे महादेव ! दिव्यभाव सभी प्रकार के श्रेय की सिद्धि करता है ॥६९ – ७२॥
भावविद्याविधि
द्वितीयो मध्यमः प्रोक्तस्तृतीयः सर्वनिन्दितः ।
बहुजपात्तथाहोमात् कायक्लेशादिविस्तरैः ॥७३॥
दूसरा वीरभाव मध्यम कहा गया है, किन्तु प्रथम पशुभाव सर्वथा निन्दित है । क्योंकि यह बहुत जप से, बहुत होम से तथा कायक्लेश से सिद्ध होता है ॥७३॥
न भावेन बिना देवि तन्त्रमन्त्राः फलप्रदाः ।
किं वीरसाधनेनैव मोक्षविद्याकुलेन किम् ॥७४॥
किं पीठपूजनेनैव किं कन्याभोजनादिभिः ।
स्वयोषित्प्रीतिदानेन किं परेषां तथैव च ॥७५॥
किं जितेन्द्रियभावेन किं कुलाचारकर्मणा ।
यदि भावो विशुद्धार्थो न स्यात् कुलपरायणः ॥७६॥
हे देवि ! भाव के बिना तन्त्र-मन्त्र फल प्रदान नहीं करते । अतः भाव के बिना वीर साधना से क्या? भाव के बिना मोक्ष विद्या (वेदान्तादि) के समूह से भी कोई लाभ नहीं? भाव के बिना पीठ पूजन से क्या? कन्या भोजनादि से भी क्या? अपनी योषित तथा अन्य की योषित में प्रीतिपूर्वक दान देने से भी क्या? इन्द्रियों को जीतने से क्या? कुलाचार पालन रुप कर्म से क्या? यदि कुलपरायण भव विशुद्ध नहीं है तो उक्त सभी कार्य व्यर्थ ही हैं ॥७४ – ७६॥
भावेन लभते मुक्तिं भावेन कुलवर्द्धनम् ।
भावेन गोत्रवृद्धिः स्याद् भावेन कुलशोधनम् ॥७७॥
किं तथा पूजनेनैव यदि भावो न जायते ।
केन वा पूज्यते विद्या केन वा पूज्यते मनुः ॥७८॥
भाव से मनुष्य मुक्ति प्राप्त करता है और भाव से कुल की वृद्धि होती है । भाव से गोत्र की वृद्धि होती है तथा भाव से कुल शुद्ध रहता है । यदि भाव नहीं है तो पूजा पाठ से क्या लाभ? भाव के बिना कौन विद्या की पूजा करे । भाव के बिना कौन मन्त्र का जप करें ? ॥७७ – ७८॥
फलाभावश्चच देवेश भावाभावात् प्रजायते ।
एतमन्त्रस्य कथने शङ्कते मम मानसः ॥७९॥
त्रिलोकं सञ्जयेत् प्रायः सर्वरत्नसमागमः ।
नावीक्ष्य निर्जनं कुर्यात् कथं तत् कथयामि ते ॥८०॥
हे देवेश ! भाव के अभाव के कारण किए गये कार्य का फल नहीं होता । इस मन्त्र (शास्त्र) के कहने में मेरा मन सशंकित हो रहा है । यह आगमशास्त्र सभी रत्नों के समान है । यह त्रिलोकी को भी जीत सकता है अतः बिना निर्जन देखे इसका उपदेश न करे अतः इस विषय में आपसे क्या कहूँ ॥७९ – ८०॥
श्रीआनन्दभैरव उवाच
त्वत्प्रसादान्महादेवि ! विद्यास्वप्नप्रबोधिनि ।
सर्वपञ्चप्रञ्चानां दीक्षा देया महेश्वरि ॥८१॥
यद्यतो देव सर्वेषां भूतानां स्वापकारणम् ।
करोमि कथय त्वं मां भावमार्गोत्तमोत्तमम् ॥८२॥
श्रीआनन्दभैरव ने कहा — हे महादेवि ! हे महाविद्या और स्वप्न में ज्ञान से प्रबुद्ध करने वाली ! हे महेश्वरि ! सभी पञ्चतत्त्व के प्रपञ्चों की दीक्षा देनी चाहिए । हे देवि ! मैं वह देव हूँ जो सभी भुतों को शयन कराने का कारण हूँ । अतः मैं उन्हें शयन करा देता हूँ । निर्जन हो जाने के कारण अब आप मुझसे सभी भावों में उत्तमोत्तम (दिव्य) भाव को कहिए ॥८२॥
रुद्रयामल तंत्र पटल ६ – कुमारीलक्षणम्
रुद्रयामल षष्ठः पटलः
रुद्रयामल छठवां पटल
श्रीमहाभैरव्युवाच
प्रथमं दिव्यभावस्तु कौलिके श्रृणु यत्नतः ।
सर्वदेवार्चिता विद्याम तेजःपुञ्जप्रपूरिताम् ॥८३॥
तेजोमयीं जगत्सर्वाम विभाव्य मूर्तिकल्पनाम् ।
तत्तन्मूर्तिमयैह रुपैः स्नेहशून्ये न वा पुनः ॥८४॥
आत्मानं तन्मयं कृत्वा सर्वभावं तथैव च ।
तत्सर्वां योषितं ध्यात्वा पूजयेद्यतमानसः ॥८५॥
कुमारीलक्षण
दिव्यभाव विवेचन — आनन्दभैरवी ने कहा — हे शिव ! यत्नपूर्वक आप श्रवण कीजिए, कौलिक (शाक्त परम्परा) में दिव्यभाव सर्वश्रेष्ठ है । सभी देवताओं के द्वारा अर्चित, तेजः पुञ्ज से प्रपूरित, तेजोमयी, महाविद्या की सारे जगत् में मूर्ति की कल्पना कर उनका ध्यान करे और सारे जगत् उन उन रुपों से अपने को तन्मय बना कर अथवा अपने को सर्वमय बनाकर स्नेह शून्य मन से सारे पदार्थों को पोषित के रुप में समझ कर उनका ध्यान करे और एकाग्रमन से उनकी पूजा भी करे ॥८३ – ८५॥
अशेषकुलसम्पन्नां नानाजातिसमुद्भवाम् ।
नानादेशोद्भवां वापि सद्गुणालस्य संयुताम् ॥८६।
द्वितीयवत्सरादूर्ध्वं यावत् स्यादष्टमाब्दकम् ।
तावज्जप्त्वा पूजयित्वा कन्यां सुन्दरमोहिनीम् ॥८७॥
सभी कुलों से सम्पन्न, अनेक प्रकार की जातियों में उत्पन्न, अनेक देश में उत्पन्न, सदगुण और लास्य से युक्त स्त्री जाति को महाविद्या का स्वरुप समझे । दो वर्ष से लेकर ८ वर्ष पर्यन्त सुन्दर तथा मोह उत्पन्न करने वाली कन्या के मन्त्र का जप कर उनका पूजन करे ॥८६ – ८७॥
दिव्यभावः स्थितः साक्षात्तमन्त्रफलं लभेत् ।
कुमारीपूजनादेव कुमारीभोजनादिभिः ॥८८॥
एकद्वित्र्यादिबीजानां फलदा नात्र संशयः ।
ताभ्यः पुष्पफलं दत्त्वा अनुलेपादिकं तथा ॥८९॥
बलिप्रियञ्च नैवेद्यं दत्त्वा तद्भावभावितः ।
मुदा तदङुमाल्यानां बालभावविचेष्टितः ॥९०॥
ऐसा करने से साधक दिव्यभाव में स्थित हो जाता है । उसे तत्क्षण मन्त्र का फल प्राप्त होता है । कुमारियों के पूजन से कुमारियों के भोजनादि से एक, दो, तीन आदि बीज मन्त्रों द्वारा कन्यायें फल देतीं हैं । इसमें संदेह नहीं करना चाहिए । उन्हें पुष्प एवं फल देवे । इत्रादि सुगन्धित द्र्व्यों का अनुलेपन करे । उनको प्रिय लगने वाला नैवेद्य प्रदान करें । उनकी भावना से भावित रहे । प्रसन्नता पूर्वक उनके अङ्ग में माला प्रदान करे । उनके बाल भावों की चेष्टा करे ॥८८ – ९०॥
जातिप्रिय कथालाप्रक्रीडाकौतूहलान्वितः ।
यथार्थं तत् प्रियं तत्र कृत्त्वा सिद्धीश्वरो भवेत् ॥९१॥
उनकी जाति, प्रिय, कथालाप, क्रीडा तथा कौतुक से युक्त रहे किं बहुना यथार्थ रुप से उनका प्रिय करे तो साधक सिद्धीश्वर हो जाता है ॥९१॥
कन्या सर्वसमृद्धिः स्यात् कन्या सर्वपरन्तपः ।
होमं मन्त्रार्चनं नित्यक्रियां कौलिकसत्क्रियाम् ॥९२॥
नानाफलं महाधर्मं कुमारीपूजनं बिना ।
तत्तदर्द्धफलं नाथ प्राप्नोति साधकोत्तमः ॥९३॥
कन्या सबकी समृद्धि करने वाली है । कन्या सभी शत्रुओं का उन्मूलन करने वाली हैं । होम, मन्त्रार्चन, नित्यक्रिया, कौलिकसत्क्रिया, अनेक प्रकार के फल देने वाले महाधर्म, कुमारी पूजन के बिना साधक को आधे फल देते हैं ॥९२ – ९३॥
फलं कोतिगुणं वीरः कुमारीपूजया लभेत् ।
कुसुमाञ्जलि पूर्णञ्च कन्यायां कुलपण्डितः ॥९४॥
ददाति यदि तत्पुष्प कोटिमेरुप्रदो भवेत् ।
तज्ज्ञानजं महापुण्यं क्षणादेव् समालभेत् ॥९५॥
वीरभाव की साधना करने वाला साधक कुमारी पूजन से करोड़ों गुना फल प्राप्त करता है । यदि कौल मार्ग का विद्वान् कन्या की अञ्जलि पुष्पों से परिपूर्ण कर देवे तो उसे करोड़ों मेरु के दान का फल प्राप्त होता है और उसे ज्ञान से होने वाला समस्त पुण्य क्षण मात्र में प्राप्त हो जाता है ॥९४ – ९५॥
कुमारी भोजिता येन त्रैलोक्यं तेन भोजितम् ।
एकवर्षा भवेत् सन्ध्या द्विवर्षा च सरस्वती ॥९६॥
त्रिवर्षा च त्रिधामूर्तिश्चतुर्वर्षो च कालिका ।
सूर्यगा पञ्चवर्षा च षड्वर्षा चैव रोहिणी ॥९७॥
सप्तभिर्मालिनी साक्षादष्टवर्षा च कुब्जिका ।
नवभिः कालसन्दात्री दशभिश्चापराजिता ॥९८॥
एकादशे च रुद्राणी द्वादह्सेऽब्दे तु भैरवी ।
त्रयोदशे महालक्षमीर्द्विसप्तपीठनायिका ॥९९॥
क्षेत्रज्ञा पञ्चदशभिः षोडशे चाम्बिका मता ।
एव्म क्रमेण सम्पूज्य यावत् पुष्पं न विद्यते ॥१००॥
जिसने कुमारियों को भोजन कराया मानो उसने समस्त त्रिलोकी को भोजन करा लिया । एक वर्ष की कन्या सन्ध्या, दो वर्ष की कन्या सरस्वती स्वरुपा होती है । त्रिवर्षा त्रिमूर्ति चतुर्वर्षा कालिका, पञ्चवर्षा सूर्यगा (सावित्री), षष्ठ वर्षा रोहिणी, सात वर्ष वाली कन्या मालिनी, अष्टवर्षा कुब्जिका, नव वर्ष वाली कालसंदात्री, दशवर्ष वाली अपराजिता एकादश वर्ष वाली रुद्राणी, १२ वर्ष वाली भैरवी, त्रयोदश वर्ष वाली महालक्ष्मी, दो सात अर्थात् १४ वर्ष वाली पीठनायिका, पन्द्रह वर्ष की अवस्था वाली क्षेत्रज्ञा तथा षोडश वर्ष वाली कन्या अम्बिका क्रमशः उनकी पूजा करनी चाहिए ॥९६ – १००॥
प्रतिदादिपूर्णान्तं वृद्धिभेदेन पूजयेत् ।
महापर्वसु सर्वेषु विशेषाञ्च पवित्रके ॥१०१॥
महानवम्यां देवेश कुमारीश्च प्रपूजयेत ।
तस्मात् षोडशपर्यन्तं युवतीति प्रचक्षते ॥१०२॥
इस प्रकार प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा पर्यन्त वृद्धि क्रम के अनुसार उनकी पूजा करे । सभी महापर्व काल में, विशेष कर पवित्रारोपण काल में, श्रावण मास के श्रवण नक्षत्र में (द्र० मन्त्रमहोदधि) महा नवमी (अश्विन शुक्ल नवमी) को हे देवेश ! कुमारियों का पूजन करना चाहिए । उक्त अवस्था के बाद १६ वर्ष समाप्त हो जाने पर फिर उनकी युवती संज्ञा हो जाती है ॥१०१ – १०२॥
तत्र भावप्रकाशः स्यात्स भावः परमो मतः ।
रक्षितव्य्म प्रयत्नेन रक्षितास्ताः प्रकाशयेत् ॥१०३॥
क्योंकि उस अवस्था में उनमें (युवती) भाव प्रकाशित होने लगता है । वह (युवती) भाव सबसे प्रबल होता है । अतः प्रयत्नपूर्वक उसकी रक्षा करनी चाहिए । क्योंकि रक्षित होने पर वे भाव प्रकाशित करने लगती है ॥१०३॥
महापूजादिकं कृत्वा वस्त्रालङ्कारभोजनैः ।
पूजयेन्मन्दभाग्योऽपि लभते जयमङुम् ॥१०४॥
वस्त्र, अलङ्कार तथा भोजनादि द्वारा उनकी महा पूजा करे । स्वल्प भाग्य वाला भी यदि कुमारी पूजन करे तो वह जयमङ्गल प्राप्त करता है ॥१०४॥
अन्येषां कथनेनाथ प्रयोजनमहाफलम् ।
विधिना पूजयेद् यस्तु दिववीरपशुस्थितः ॥१०५॥
भावतत्रे महासौख्यं दिव्ये सत्कर्म सत्फलम् ॥१०६॥
अन्य लोगों के कथनानुसार भी कन्यापूजन का प्रयोजन महाफलदायक कहा गया है । दिव्या, वीर और पशुभाव में स्थित होकर विधिपूर्वक कन्या पूजन करना चाहिए । कन्या पूजन तीनों भावों में महासौख्य कारक होता है । दिव्यभाव में कन्या पूजन सत्कर्म और उसका परिणाम उत्तम कहा गया है ॥१०५ – १०६॥
॥ इति श्री रुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने कुमार्युपचर्याविलासे सिद्धमन्त्रप्रकरणे भावनिर्णये षष्ठः पटलः ॥६॥
॥ इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के उत्तरतंत्र में महातंत्रोद्दीपन में कुमार्युपचर्याविलास में सिद्धमन्त्र प्रकरण में डॅा० सुधाकर मालवीय कृत छठवां पटल हिन्दी व्याख्या पूर्णं हुई ॥ ६ ॥