सरस्वतीतन्त्र पञ्चम पटल || Sarasvati Tantra Pancham Patal

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अभी तक प्रथम पटल, द्वितीय पटल, तृतीयपटल व चतुर्थ पटल इससे पूर्व दिया जा चुका है। अब आगे सरस्वतीतन्त्र की पञ्चम पटल में शिवजी माता पार्वती से होम प्रभृति विफल हो जाने का कारण कहते हैं।

||अथ सरस्वतीतन्त्रम् पञ्चमः पटलः ||

ईश्वर उवाच –

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि श्रृणुष्व तं प्रियम्वदे ।

यस्याज्ञानेन विफलं जपहोमादिकं भवेत् ॥ १॥

ईश्वर कहते हैं -हे प्रियम्वदे ! जिसे जाने बिना होम प्रभृति विफल हो जाते हैं; उसे कहता हूँ । श्रवण करो ॥ १॥

कुल्लुकां मूर्ध्नि संजप्य हृदि सेतुं विचिन्तयेत् ।

महासेतुं विशुद्धे तु कण्ठदेशे समुद्धरेत् ॥ २॥

मस्तक के उर्ध्व में (मूर्धा मे कुल्लुका का जप, हृदय में सेतुचिन्तन, महानसेतु का विशुद्ध चक्र मे उद्धार करे अर्थात् उच्चारण करे ॥ २॥

मणिपुरे तु निर्वाणं महाकुण्डलिनीमधः ।

स्वाधिष्ठाने कामबीजं राकिनीमूर्ध्नि संस्थितम् ॥ ३॥

मणिपुर चक्र में महाकुण्डलिनी का निर्वाण चिन्तन अधोदिक् रूप से करे । स्वाधिष्ठान में कामबीज का, राकिनी शक्ति का मूर्द्धा में चिन्तन करे ॥ ३॥

विचिन्त्य विधिवद्देवि मूलाधारान्तिकाच्छिवे ।

विशुद्धास्तां स्मरेद्देवि विसतन्तुतनीयसीम् ॥ ४॥

हे देवि ! हे शिवे ! यह सब चिन्तन करके मूलाधार से विशुद्ध चक्र पर्यन्त प्रसरित् मृणालसूत्र के समान सूक्ष्मतम कुण्डलिनी का चिन्तन करे । तदनन्तर “सर्पाकृति कुण्डलिनी के अन्त मे अवस्थित वेदी स्थान मूलमन्त्र से आवरित है,” यह चिन्तन बारम्वार करे ॥ ४॥

वेदिस्थानं द्विजिह्वान्तं मूलमन्त्रावृतं मुहुः ।

विप्राणां प्रणवः सेतुः क्षत्रियाणां तथैव च ॥ ५॥

वैश्यानाञ्चैव फट्कारो माया शूद्रस्य कथ्यते ।

अजा हृदि देवेशि या वं मन्त्रं समुच्चरेत् ॥ ६॥

ब्राह्मण तथा क्षत्रिय के लिए प्रणव (ऊं) सेतु है । वैश्य का सेतु वै फट् तथा शूद्र का सेतु है मायाबीज “ह्री” । जो हृदय में पूर्वोक्त जप न करके मन्त्रोच्चारण करते है, उन्हे मन्त्र जप का अधिकार नहीं हैं ॥ ५-६॥

सर्वेषामेव मन्त्राणामधिकारो न तस्य हि ।

महासेतुश्च देवेशि सुन्दर्या भुवनेश्वरी ॥ ७॥

कालिकायाः स्वबीजञ्च तारायाः कूर्चजीजकम् ।

अन्यासान्तु बधुबीजं महासेतुर्वरानने ॥ ८॥

हे देवेशी ! सुन्दरी का महासेतु हे ह्रीं, कालीबीज का क्लीं, तारा देवी का हुं अन्य देवताओं का महासेतु है स्त्रीं ॥ ७-८॥

आदौ जप्त्वा महासेतुं जपेन्मन्त्रमनन्य धीः ।

धने धनेशतुल्योऽसौ वाण्या वागीश्वरोपमः ॥ ९॥

युद्धे कृतान्तसदृशो नारीणां मदनोपमः ।

जपकाले भवेत्तस्य सर्वकाले न संशयः ॥ १०॥

पहले महासेतु का जप करके तब एकाग्र हो मंत्र जपे । इस प्रकार से जप करने पर जपकर्त्ता धन की दृष्टि से कुबेरतुल्य, काव्य प्रयोग मे वागीश्वर के तुल्य, युद्ध मे यमराज के तुल्य तथा रमणी समूह मे कामदेव के तुल्य प्रतीत होता है । उसके लिये सभी काल जप के लिये उपयुक्त है ॥ ९-१०॥

अथ वक्ष्यामि निर्वाण श्रृणु सावहिताऽनघे ।

प्रणवं पूर्वमुच्चार्य मातृकाद्यं समुद्धरेत् ॥ ११॥

ततो मूलं महेशानि ततो वाग्भवमुद्धरेत ।

मातृकान्तं समस्तास्तु पुनः प्रणवमुद्धरेत् ॥ १२॥

एवं पुटितमूलन्तु प्रजपेन्मणिपूरके ।

एवं निर्वाणमीशानि यो न जानाति पामरः ॥ १२॥

कल्पकोटिसहस्रेण तस्य सिद्धिर्न जायते ॥ १४॥

अब निर्वाण का स्वरूप कहता हूँ, जिसे सावधान होकर सुनो । प्रथमतः प्रणव का उच्चारण करे । हे महेश्वरी ! इसके पश्चात् मूलमन्त्र और अन्त में “ऐं” बीज का उच्चारण करे । इसके पश्चात् अं से लेकर लं क्षं पर्यन्त समस्त मातृकाओ का उच्चारण करके पुनः ऊं अन्त मे लगाये । इस प्रकार के पुटित मंत्र का जप मणिपूर चक्र मे करे । हे ईश्वरी ! जो पामर इस निर्वाण प्रक्रिया से अवगत नही है, वह करोडो कल्प मे भी मंत्रसिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता ॥ ११-१९॥

॥ इति सरस्वतीतन्त्रे पंचमः पटलः ॥

॥ सरस्वतीतन्त्र का पाचवां पटल समाप्त ॥

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