सत्यनारायण व्रत कथा भविष्यपुराण || Satyanarayan Vrat Katha Bhavishyapuran
भारतवर्ष में सत्यनारायण व्रत-कथा अत्यंत लोकप्रिय है और जनता-जनार्दन में इसका प्रचार-प्रसार भी सर्वाधिक है । भारतीय सनातन परम्परा में किसी भी मांगलिक कार्य का प्रारम्भ भगवान गणपति के पूजन से एवं उस कार्य की पूर्णता भगवान् सत्यनारायण की कथा श्रवण से समझी जाती है । वर्तमान समय में भगवान् सत्यनारायण की प्रचलित कथा स्कन्दपुराण के रेवाखंड के नाम से प्रसिद्ध है, जो पाँच या सात अध्यायों के रूप में उपलब्ध है । भविष्यपुराण के प्रतिसर्गपर्व खण्ड २ अध्याय २४-२९ में भी भगवान् सत्यनारायण व्रत-कथा का उल्लेख मिलता है, जो छः अध्यायों में प्राप्त है । यह कथा स्कन्दपुराण की कथा से मिलती-जुलती होने पर भी विशेष रोचक एवं श्रेष्ठ प्रतीत होती है। सत्यनारायण व्रत-कथा की प्रसिद्धि के साथ अनेक शंका-समाधान भी इस पर होते रहते हैं तथा लोग यह भी पूछते हैं कि साधु वणिक्, काष्ठविक्रेता, शतानन्द ब्राह्मण, उल्कामुख, तुङ्गध्वज आदि राजा ने कौन-सी कथाएँ सुनी थीं और वे कथाएँ कहाँ गयीं तथा इस कथा का प्रचार कब से हुआ? इस सम्बन्ध में यही जानना चाहिये कि कथा के माध्यम से मूल सत-तत्त्व परमात्मा का ही इसमें निरुपण हुआ है, जिसके लिये गीता में ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:’ आदि शब्दों में यह स्पष्ट किया गया है की इस माया मय दुःखद संसार की वास्तविक सत्ता ही नहीं है । परमेश्वर ही त्रिकालाबाधित सत्य है और एकमात्र वही ज्ञेय, ध्येय एवं उपास्य है । ज्ञान-वैराग्य और अनन्य भक्ति के द्वारा वही साक्षात्कार करने के योग्य है । भागवत (१० । २ । २६) में भी कहा गया है –
सत्यव्रतं सत्य परं त्रिसत्यं सत्यस्य योनि निहितं च सत्ये ।
सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्ना: ॥
यहाँ भी सत्यव्रत और सत्यनारायण व्रत का तात्पर्य उन शुद्ध सच्चीदानंद परमात्मा से ही है । इसी प्रकार निम्नलिखित श्लोक में –
अन्तर्भवेऽनन्त भवन्तमेव ह्यतत्त्यजन्तो मृगयन्ति सन्त: ।
असन्तमप्यन्त्यहिमन्तरेण सन्तं गुणं तं किमु यन्ति सन्तः ॥ (श्रीमदभागवत १० । १४ । २८)
— संसार में मनीषियों द्वारा सत्य-तत्व की खोज की बात निर्दिष्ट है, जिसे प्राप्त कर मनुष्य सर्वथा कृतार्थ हो जाता है और सभी आराधनाएँ उसी में पर्यवसित होती है । निष्काम-उपासना से सत्यस्वरूप नारायण की प्राप्ति हो जाती है ।
सत्यनारायण व्रत कथा भविष्यपुराण
॥ सत्यनारायण व्रत कथा प्रारम्भ ॥
सत्यनारायण व्रत कथा अध्याय-१
।। व्यास उवाच ।।
एकदा नैमिषारण्ये ऋषयः शौनकादयः ।।
पृच्छन्ति विनयेनैव सूतं पौराणिकं खलु ।। १ ।।
व्यासजी बोले – एक समय की बात है, नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों ने पौराणिक श्रीसूतजी से विनयपूर्वक पूछा —
भगवन्ब्रूहि लोकानां हितार्थाय चतुर्युगे ।।
कः पूज्यः सेवितव्यश्च वांच्छितार्थप्रदायकः ।।२।।
‘भगवन ! संसार के कल्याण के लिये आप वह बतलाने की कृपा करें कि चारों युगों में कौन पूजनीय और कौन सेवनीय है तथा कौन सबके अभीष्ट मनोरथों को पूर्ण करनेवाला है ?
विनायासेन वै कामं प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम् ।।
सत्यं ब्रह्मन्वदोपायं नराणां कीर्तिकारकम् ।।३।।
मानव अनायास ही किसकी आराधनाद्वारा अपनी मंगलमयी कामना को प्राप्त कर सकता है ? ब्रह्मन् ! आप ऐसे सत्य उपाय को बतलाये जो मनुष्यों की कीर्ति को बढ़ानेवाला हो ।’
शौनकादि ऋषियों द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर श्रीसूतजी भगवान् सत्यनारायण की प्रार्थना करने लगे —
।। सूत उवाच ।।
नवांभोजनेत्रं रमाकेलिपात्रं चतु्र्बाहुचामीकराचारुगात्रम् ।।
जगत्त्राणहेतुं रिपौ धूम्रकेतुं सदा सत्यनारायणं स्तौमि देवम् ।। ४ ।।
श्रीसूतजी ने प्रार्थना करते हुए कहा — ‘प्रफुल्लित नवीन कमल के समान नेत्रवाले, भगवती लक्ष्मी के क्रीडापात्र, चतुर्भुज, सुवर्णकान्ति के समान सुन्दर शरीरवाले, संसार की रक्षा करने के एकमात्र मूल कारण तथा शत्रुओं के लिये धूम्रकेतुस्वरुप भगवान् सत्यनारायणदेव की मैं स्तुति करता हूँ ।’
श्रीरामं सहलक्ष्मणं सकरुणं सीतान्वितं
सात्त्विकं वैदेहीमुखपद्मलुब्धमधुपं पौलस्त्यसंहारकम् ।।
वन्दे वन्द्यपदांबुजं सुरवरं भक्तानुकम्पाकरं
शत्रुघ्नेन हनूमता च भरतेनासेवितं राघवम् ।। ५ ।।
‘जो भगवान करुणा के निधान हैं, जिनके चरणकमल वन्दनीय हैं, जो भक्तोंपर अनुकम्पा करनेवाले हैं, जो लक्ष्मणजी के साथ रहते हैं और माता श्रीसीता से समन्वित है तथा माता वैदेही श्रीजनकनन्दिनीजी के मुख-कमल की ओर स्निग्धभाव से देखते हैं, उन शत्रुघ्न, हनुमान तथा भरत से सेवित, पुलस्त्यकुल का संहार करनेवाले, सत्स्वरूप सुरश्रेष्ठ राघवेन्द्र श्रीरामचंद्र की मैं वन्दना करता हूँ ।’
।। सूत उवाच ।।
कलिकलुषविनाशं कामसिद्धिप्रकाशं सुरवरमुखभासं भूसुरेण प्रकाशम् ।।
विबुधबुधविलासं साधुचर्याविशेषं नृप तिवरचरित्रं भोः शृणुष्वेतिहासम् ।। ६ ।।
सूतजी ने कहा — ऋषियों ! अब मैं आपसे श्रेष्ठ राजाओं के चरित्रों से सम्बद्ध एक इतिहास का वर्णन करता हूँ, उसे आपलोग श्रवण करें । यह पवित्र आख्यान कलियुग के सम्पूर्ण पापों का विनाश करनेवाला, कामनाओं का पूर्ण करनेवाला, देवताओंद्वारा, आभासित, ब्राह्मणों द्वारा प्रकाशित, विद्वानों को आनन्दित करनेवाला तथा विशेष रूपसे सत्संग की चर्चास्वरूप है ।
एकदा नारदो योगी परानुग्रहवांच्छया ।।
पर्यटन्विविधाँल्लोकान्मर्त्यलोकमुपागमत् ।। ७ ।।
ऋषियों ! एक समय योगी देवर्षि नारदजी सबके कल्याण की कामना से विविध लोकों में भ्रमण करते हुए इस मृत्युलोक में आये ।
तत्र दृष्ट्वा जनान्सर्वान्नानाक्लेशसमन्वितान् ।।
आधिव्याधियुतानार्तान्पच्यमानान्स्वकर्मभिः ।। ८ ।।
यहाँ उन्होंने देखा कि अपने-अपने किये गये कर्मों के अनुसार संसार के प्राणी नाना प्रकार के क्लेशों एवं दु:खों से दु:खी है और विविध आधि एवं व्याधि से ग्रस्त हैं ।
केनोपायेन चैतेषां दुःखनाशो भवेद्ध्रुवम्।।
इति सञ्चिंत्य मनसा विष्णुलोकं गतस्तदा ।। ९ ।।
यह देखकर उन्होंने सोचा कि कौन-सा ऐसा उपाय है, जिससे इन प्राणियों के दुःख का नाश हो । ऐसा विचारकर वे विष्णुलोक में गये ।
तत्र नारायणं देवं शुक्लवर्णं चतुर्भुजम् ।।
शंखचक्रगदापद्मवनमालाविभूषितम् ।। १० ।।
प्रसन्नवदनं शांतं सनकाद्यैरभिष्टुतम् ।।
दृष्ट्वा तं देवदेवेशं स्तोतुं समुपचक्रमे ।। ११ ।।
वहां उन्होंने शङ्ख, चक्र, गदा,पद्म और वनमाला से अलंकृत, प्रसन्नमुख, शान्त, सनक-सनंदन तथा सनात्कुमारादि से संस्तुत भगवान् नारायण का दर्शन किया । उन देवाधिदेव का दर्शनकर नारदजी उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे–
।। नारद उवाच ।। ।।
नमो वाङ्मनसातीतरूपायानंतशक्तये ।।
नादि मध्यान्तदेवाय निर्गुणाय महात्मने ।। १२ ।।
सर्वेषामादिभूताय लोकानामुपकारिणे ।।
अपारपरिमाणाय तपोधाम्ने नमोनमः ।। १३ ।। ।।
‘वाणी और मन से जिनका स्वरुप परे है और जो अनन्तशक्तिसम्पन्न हैं, आदि, मध्य और अन्त से रहित है, ऐसे महान आत्मा निर्गुणस्वरुप आप परमात्मा को मेरा नमस्कार है । सभी के आदिपुरुष लोकोपकारपरायण, सर्वत्र व्याप्त, तपोमूर्ति आपको मेरा बार-बार नमस्कार है ।’
इति श्रुत्वा स्तुतिं विष्णुर्नारदं प्रत्यभाषत ।।
किमर्थमागतोऽसि त्वं कि ते मनसि वर्तते ।।१४।।
देवर्षि नारद की स्तुति सुनकर भगवान् विष्णु बोले — देवर्षे ! आप किस कारण से यहाँ आये है ? आपके मन में कौन-सी चिन्ता है ?
कथयस्व महाभाग तत्सर्वं कथयामि ते ।।
श्रुत्वा तु नारदो विष्णुमुक्तवान्सर्वकारणम् ।। १५ ।।
महाभाग ! आप सभी बातें बताये । मैं उचित उपाय कहूँगा । नारदजी ने कहा – प्रभो ! लोकों में भ्रमण करता हुआ मैं मृत्युलोक में गया था, वहाँ मैंने देखा कि संसार के सभी प्राणी अनेक प्रकार के क्लेश-तापों से दुःखी हैं । अनेक रोगों से ग्रस्त हैं । उनकी वैसी दुर्दशा देखकर मेरे मनमें बड़ा कष्ट हुआ और मैं सोचने लगा कि किस उपाय से इन दुःखी प्राणियों का उद्धार होगा ? भगवन ! उनके कल्याण के लिए आप कोई श्रेष्ठ एवं सुगम उपाय बतलाने की कृपा करें ।
नारदस्य वचः श्रुत्वा साधुसाध्वित्यपूजयत् ।।
शृणु नारद वक्ष्यामि व्रतमेकं सनातनम्।।१६।।
नारदजी के इन वचनों को सुनकर भगवान नारायण ने साधु-साधु शब्दों से उनका अभिनन्दन किया और कहा — नारदजी ! जिस विषय में आप पुछ रहे हैं, उसके लिये मैं आपको एक सनातन व्रत बतलाता हूँ ।’
कृते त्रेतायुगे विष्णुर्द्वापरेऽनेकरूपधृक् ।।
कलौ प्रत्यक्षफलदः सत्यनारायणो विभुः ।। १७ ।।
चतुष्पादो हि धर्मश्च तस्य सत्यं प्रसाधनम् ।।
सत्येन धार्यते लोकः सत्ये ब्रह्म प्रतिष्ठितम् ।। १८ ।।
सत्यनारायणव्रतमतः श्रेष्ठतमं स्मृतम् ।।
इति श्रुत्वा हरेर्वाक्यं नारदः पुनरब्रवीत् ।। १९ ।।
भगवान् नारायण सत्ययुग और त्रेतायुग में विष्णुस्वरूप में फल प्रदान करते हैं और द्वापर में अनेक रूप धारणकर फल देते हैं, परन्तु कलियुग में सर्वव्यापक भगवान् सत्यनारायण प्रत्यक्ष फल देते हैं, क्योंकि धर्म के चार पाद हैं – सत्य, शौच, तप और दान । इनमें सत्य ही प्रधान धर्म है । सत्यपर ही लोकका व्यवहार टिका है और सत्यमें ही ब्रह्म प्रतिष्ठित है, इसलिये सत्यस्वरूप भगवान् सत्यनारायण का व्रत परम श्रेष्ठ कहा गया है ।’ नारदजी ने पुनः पूछा –
किं फलं किं विधानं च सत्यनारायणार्चने ।।
तत्सर्वं कृपया देव कथयस्व कृपानिधे ।। २० ।।
भगवन ! सत्यनारायण की पूजा का क्या फल है और इसकी क्या विधि है ? देव ! कृपासागर ! सभी बातें अनुग्रहपूर्वक मुझे बतायें ।
।। भगवानुवाच ।।
नारायणार्चने वक्तुं फलं नालं चतुर्मुखः ।।
शृणु संक्षेपतो ह्येतत्कथयामि तवाग्रतः ।। २१ ।।
निर्धनोपि धनाढ्यः स्यादपुत्रः पुत्रवान्भवेत् ।।
भ्रष्टराज्यो लभेद्राज्यमन्धोऽपि स्यात्सुलोचनः ।। २२ ।।
मुच्यते बंधनाद्बद्धो निर्भयः स्याद्भयातुरः ।।
मनसा कामयेद्यंयं लभते तं विधानतः ।।२३।।
श्रीभगवान बोले – नारद ! सत्यनारायण की पूजा का फल एवं विधि चतुर्मुख ब्रह्मा भी बतलाने में समर्थ नहीं हैं, किन्तु संक्षेप में मैं उसका फल तथा विधि बतला रहा हूँ, आप सुनें – सत्यनारायण के व्रत एवं पूजन से निर्धन व्यक्ति धनाढ्य और पुत्रहीन व्यक्ति पुत्रवान् हो जाता है । राज्यच्युत व्यक्ति राज्य प्राप्त कर लेता हैं, दृष्टिहीन व्यक्ति दृष्टिसम्पन्न हो जाता हैं, बंदी बन्धनमुक्त हो जाता है और भयार्त व्यक्ति निर्भय हो जाता है । अधिक क्या ? व्यक्ति जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करता है, उसे वह सब प्राप्त हो जाती है ।
इह जन्मनि भो विप्र भक्त्या च विधिनार्चयेत् ।।
लभेत्कामं हि तच्छीघ्रं नात्र कार्या विचारणा ।। २४ ।।
इसलिए मुने ! मनुष्य-जन्म में भक्तिपूर्वक सत्यनारायण की अवश्य आराधना करनी चाहिये । इससे वह अपने अभिलाषित वस्तुको निःसंदेह शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है ।
प्रातःस्नायी शुचिर्भूत्वा दंतधावनपूर्व कम् ।।
तुलसीमञ्जरीं धृत्वा ध्यायेत्सत्यस्थितं हरिम् ।। २५ ।।
इस सत्यनारायण व्रत के करनेवाले व्रती को चाहिये कि वह प्रातः दन्तधावनपूर्वक स्नानकर पवित्र हो जाय । हाथ मे तुलसी-मंजरी को लेकर सत्य में प्रतिष्ठित भगवान् श्रीहरि का इस प्रकार ध्यान करे —
नारायणं सांद्रघनावदातं चतुर्भुजं पीतमहार्हवाससम् ।।
प्रसन्नवक्त्रं नवकंजलोचनं सनन्दनाद्यैरुपसेवितं भजे ।। २६ ।।
‘सघन मेघ के समान अत्यन्त निर्मल, चतुर्भुज, अति श्रेष्ठ पीले वस्त्र को धारण करनेवाले, प्रसन्नमुख, नवीन कमल के समान नेत्रवाले, सनक-सनन्दनादि से उपसेवित भगवान् नारायण का मैं सतत चिन्तन करता हूँ ।
करोमि ते व्रतं देव सायंकाले त्वदर्चनम् ।।
श्रुत्वा गाथां त्वदीयां हि प्रसादं ते भजाम्यहम् ।। २७ ।।
देव ! मैं आपके सत्यस्वरूप को धारणकर सायंकाल में आपकी पूजा करूँगा । आपके रमणीय चरित्र को सुनकर आपके प्रसाद अर्थात् आपकी प्रसन्नता का मैं सेवन करूँगा ।’
इति संकल्प्य मनसा सायंकाले प्रपूजयेत् ।।
पञ्चभिः कलशैर्जुष्टं कदलीतोरणान्वितम् ।। २८ ।।
इसप्रकार मनमें संकल्पकर सायंकाल में विधिपूर्वक भगवान् सत्यनारायण की पूजा करनी चाहिये । पूजा में पाँच कलश रखने चाहिये । कदली-स्तम्भ और बंदनवार लगाने चाहिये ।
शालग्रामं स्वर्णयुक्तं पूजयेदात्मसूक्तकैः ।।
पञ्चामृतेन संस्नाप्य चन्दनादिभिरर्चयेत् ।। २९ ।।
स्वर्णमण्डित भगवान् शालग्राम को पुरुषसूक्त (यजु०३१ । १ । १-१६) द्वारा पञ्चामृत आदि से भलिभाँति स्नान कराकर चन्दन आदि अनेक उपचारों से भक्तिपूर्वक उनकी अर्चना करनी चाहिये । अनन्तर भगवान् को निम्न मन्त्र का उच्चारण करते हुए प्रणाम करना चाहिये —
ॐनमो भगवते नित्यं सत्यदेवाय धीमहि ।।
चतुःपदार्थदात्रे च नमस्तुभ्यं नमोनमः ।। ३० ।।
‘षडैश्वर्यरूप भगवान् सत्यदेव को नमस्कार है, मैं आपका सदा ध्यान करता हूँ । आप धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष — इस चतुर्विध पुरुषार्थ को प्रदान करनेवाले है, आपको बार-बार नमस्कार है ।’
जप्तव्यष्टोत्तरशतं जुहुयात्तद्दशांशकम् ।।
तर्पणं मार्जनं कृत्वा कथां श्रुत्वा हरेरिमाम् ।।३१।।
षडध्यायीं सत्यमुख्यां तत्पश्चात्तत्प्रसादकम् ।।
सम्यग्विभज्य तत्सर्वं दापयेच्छ्रोतृकाय च ।। ३२ ।।
इस मन्त्र का यथाशक्ति जपकर १०८ बार हवन करे । उसके दशांश से तर्पण तथा उसके दशांश से मार्जन कर भगवान् की कथा को सुनना चाहिये, जो छः अध्यायों में उपनिबद्ध है । भगवान् की इस कथा में सत्य-धर्म की ही मुख्यता है । कथा-श्रवण के अनन्तर भगवान् के प्रसाद को चार भागों में विभक्तकर उसे भलीभाँति वितरण करे ।
आचार्यायादिभागं च द्वितीयं स्वकुलाय सः ।।
श्रोतृभ्यश्च तृतीयं च चतुर्थं चात्महेतवे ।। ३३ ।।
प्रथम भाग आचार्य को दे, द्वितीय भाग अपने कुटुम्ब को, तृतीय भाग श्रोताओं को और चतुर्थ भाग अपने लिये रखे ।
विप्रेभ्यो भोजनं दद्यात्स्वयं भुञ्जीत वाग्यतः ।।
देवर्षेऽनेन विधिना सत्यनारायणार्चनम् ।।३४।।
कारयेद्यदि भक्त्या च श्रद्धया च समन्वितः ।।
व्रती कामानवाप्नोति वांछितानिह जन्मनि ।। ३५ ।।
तत्पश्चात् ब्राह्मणों को भोजन कराये एवं स्वयं भी मौन होकर भोजन करे । देवर्षे ! इस विधिसे सत्यनारायण की पूजा करनेवाला व्रती सभी अभीष्ट कामनाओं को इसी जन्म में प्राप्त इसी जन्म में प्राप्त कर लेता है ।
इह जन्मकृतं कर्म परजन्मनि पद्यते ।।
परजन्मकृतं कर्म भोक्तव्यं सर्वदा नरैः ।। ३६ ।।
इस जन्म में किये गये पुण्यफल को दुसरे जन्म में भोगा जाता है और दुसरे जन्म में किये गये कर्मों का फल मनुष्य को यहाँ भोगना पड़ता है ।
सत्यनारायण व्रतमिह सर्वान्कामान्ददाति हि ।।
अद्यैव जगतीमध्ये स्थापयामि त्वदाज्ञया ।। ३७ ।।
श्रद्धापूर्वक किया गया सत्यनारायण का व्रत सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाला होता है । नारदजी ने कहा — भगवन ! आज ही आपकी आज्ञा से भूमण्डल में इस सत्यदेव-व्रत को मैं प्रतिष्ठित करूँगा ।
इत्युक्त्ंवाऽतर्दधे देवो नारदः स्वर्गतिं ययौ ।।
स्वयं नारायणो देवः काश्यां पुर्यां समागतः ।।३८।।
यह कहकर नारदजी तो पृथ्वीपर व्रत का प्रचार करने चले गये और भगवान् नारायणदेव अन्तर्धान हो काशीपुरी में चले गये ।
इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखंडापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये चतुर्विशोऽध्यायः ।। २४ ।।
इतिश्री भविष्यपुराण अंतर्गत ‘सत्यनारायण व्रत – कथा’ का प्रथम अध्याय (अध्याय २४) पूर्ण हुआ।
सत्यनारायण व्रत कथा अध्याय-२
शतानन्द ब्राह्मण की कथा
।। सूत उवाच ।। ।।
कृपया ब्राह्मणद्वारा प्रकटीकृतवान्स्वकम् ।।
इतिहासमिमं वक्ष्ये संवादं हरिविप्रयोः ।। १ ।।
सूतजी बोले — ऋषियों ! भगवान् नारायण ने स्वयं कृपापूर्वक देवर्षि नारदजी द्वारा जिस प्रकार इस व्रत का प्रचार किया, अब मैं उस कथा को कहता हूँ, आप लोग सुने —
काशीपुरीति विख्याता तत्रासीद्ब्राह्मणो वरः ।।
दीनो गृहाश्रमी नित्यं भिक्षुः पुत्रकलत्रवान् ।। २ ।।
शतानंद इति ख्यातो विष्णुव्रतपरायणः ।।
एकदा पथि भिक्षार्थं गच्छतस्तस्य श्रीपतिः ।। ३ ।।
लोकप्रसिद्ध काशी नगरी में एक श्रेष्ठ विद्वान् ब्राह्मण रहते थे, जो विष्णु-व्रतपरायण थे, वे गृहस्थ थे, दीन थे तथा स्त्री-पुत्रवान् थे । वे भिक्षा-वृत्ति से अपना जीवन-यापन करते थे । उनका नाम शतानन्द था । एक समय वे भिक्षा माँगने के लिए जा रहे थे ।
विनीतस्यातिशांतस्य स बभूवाक्षिगोचरः ।।
वृद्धब्राह्मणवेषेण पप्रच्छ ब्राह्मणं हरिः ।।
क्व यासीति द्विजश्रेष्ठ वृत्तिः कामेन कथ्यताम् ।। ४ ।।
उन विनीत एवं अतिशय शान्त शतानन्द को मार्ग में एक वृद्ध ब्राह्मण दिखायी दिये, जो साक्षात हरि ही थे ।उन वृद्ध ब्राह्मणवेषधारी श्रीहरि ने ब्राह्मण शतानंद से पूछा — ‘द्विजश्रेष्ठ ! आप किस निमित्त से कहा जा रहे है ?’
।। शतानन्द उवाच ।। ।।
भिक्षावृत्तिरहं सौम्य कलत्रापत्यहेतवे ।।
याचितुं धनिनां द्वारि व्रजामि धनमुत्तमम् ।। ५ ।।
शतानंद बोले –‘सौम्य ! अपने पुत्र-कलत्रादि के भरण-पोषण के लिये धन-याचना की कामना से मैं धनिकों के पास जा रहा हूँ ।’
।। नारायण उवाच ।। ।।
भिक्षावृत्तिस्त्वया दीर्घकालं द्विज सदा धृता ।।
तद्वारक उपायोयं विशेषेण कलौ किल ।। ६ ।।
नारायण ने कहा — द्विज ! निर्धनता के कारण आपने दीर्घकाल से भिक्षा-वृत्ति अपना रखी है, इसकी निवृत्ति के लिये सत्यनारायणव्रत कलियुग में सर्वोत्तम उपाय है ।
ममोपदेशतो विप्र सत्यनारायणं भज ।।
दारिद्र्यशोकशमनं संतापहरणं हरेः ।।
चरणं शरणं याहि मोक्षदं पद्मलोचनम् ।। ।। ७ ।।
इसलिए मेरे कथन के अनुसार आप कमलनेत्र भगवान् सत्यनारायण के चरणों की शरण-ग्रहण करें, इससे दारिद्र्य, शोक और सभी संतापों का विनाश होता है और मोक्ष भी प्राप्त होता है ।
एवं संबोधितो विप्रो हरिणा करुणात्मना ।।
पुनः पप्रच्छ विप्रोसौ सत्यनारायणो हि कः ।। ८ ।।
करुणामूर्ति भगवान् के इन वचनों को सुनकर ब्राह्मण शतानंद ने पूछा — ‘ये सत्यनारायण कौन है ?’
।। वृद्धब्राह्मण उवाच ।। ।।
बहु रूपः सत्यसंधः सर्वव्यापी निरञ्जनः ।।
इदानीं विप्ररूपेण तव प्रत्यक्षमागतः ।। ९ ।।
ब्राह्मणरूपधारी भगवान् बोले — नानारूप धारण करनेवाले, सत्यव्रत, सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले तथा निरञ्जन वे देव इस समय विप्र का रूप धारणकर तुम्हारे सामने आये हैं ।
दुःखोदधिनिमग्नानां तरणिश्चरणौ हरेः ।।
कुशलाः शरणं यांति नेतरे विषयात्मिकाः ।। १० ।।
इस महान दुःखरूपी संसार-सागर में पड़े हुए प्राणियों को तारने के लिये भगवान् के चरण नौकारूप हैं ।जो बुद्धिमान् व्यक्ति हैं, वे भगवान् की शरण में जाते हैं, किन्तु विषयों से व्याप्त विषयबुद्धिवाले व्यक्ति भगवान की शरण में न जाकर इसी संसार-सागर में पड़े रहते हैं ।
आहृत्य पूजासंभारान्हिताय जगतां द्विज ।।
अर्चयंस्तमनुध्यायंस्त्वमेतत्प्रकटी कुरु ।। ११ ।।
इसलिये द्विज ! संसार के कल्याण के लिये विविध उपचारों से भगवान् सत्यनारायण-देव की पूजा, आराधना तथा ध्यान करते हुए तुम इस व्रत को प्रकाश में लाओ ।
इति ब्रुवंतं विप्रोसौ ददर्श पुरुषोत्तमम् ।।
जलदश्यामलं चारुचतुर्बाहुं गदादिभिः ।। १२ ।।
पीतांबरं नवांभोजलोचनं स्मितपूर्वकम् ।।
वनमालामधुव्रात चुंबितांग्रिसरोरुहम् ।। १३ ।।
निशम्य पुलकांगोसौ प्रेमपूर्णसुलोचनः ।।
स्तुवन्गद्गदया वाचा दंडवत्पतितो भुवि ।। १४ ।।
विप्ररुपधारी भगवान् के ऐसा कहते ही उस ब्राह्मण शतानन्द ने मेघों के समान नीलवर्ण, सुन्दर चार भुजाओं में शंख, चक्र, गदा तथा पद्म लिये हुए और पीताम्बर धारण किये हुए, नवीन विकसित कमल के समान नेत्रवाले तथा मन्द-मन्द मधुर मुसकानवाले, वनमालायुक्त और भौंरों के द्वारा चुम्बित चरण-कमलवाले पुरुषोत्तम भगवान् नारायण के साक्षात दर्शन किये ।भगवान् की वाणी सुनने और उनका प्रत्यक्ष दर्शन करने से उस विप्र के सभी अङ्ग पुलकित हो उठे, आँखों में प्रेमाश्रु भर आये । उसने भूमि पर गिरकर भगवान् को साष्टाङ्ग प्रणाम किया और गद्गद वाणी से वह उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगा –
प्रणमामि जगन्नाथ जगत्कारणकारकम् ।।
अनाथनाथं शिवदं शरण्यमनघं शुचिम् ।। १५ ।।
अव्यक्तं व्यक्ततां यातं तापत्रयविमोचनम् ।। १६ ।।
नमः सत्य नारायणायास्य कर्त्रे नमः शुद्धसत्त्वाय विश्वस्य भर्त्रे ।।
करालाय कालाय विश्वस्य हर्त्रे नमस्ते जगन्मङ्गलायात्ममूर्ते ।। १७ ।।
धन्योस्म्यद्य कृती धन्यो भवोद्य सफलो मम ।।
वाङ्मनोगोचरो यस्त्वं मम प्रत्यक्षमागतः ।। १८ ।।
दिष्टं किं वर्णयाम्याहो न जाने कस्य वा फलम् ।।
क्रियाहीनस्य मन्दस्य देहोऽयं फलवान्कृतः ।। १९ ।।
‘संसार के स्वामी, जगत् के कारण के भी कारण, अनाथों के नाथ, कल्याण-मङ्गल को देनेवाले, शरण देनेवाले, पुण्यरूप, पवित्र, अव्यक्त तथा व्यक्त होनेवाले और आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक तीनों प्रकार के तापों का समूल उच्छेद करनेवाले भगवान् सत्यनारायण को मैं प्रणाम करता हूँ । इस संसार के रचयिता सत्यनारायणदेव को नमस्कार है तथा विश्व का विनाश करनेवाले कराल महाकालस्वरुप को नमस्कार है । सम्पूर्ण संसार का मङ्गल करनेवाले आत्ममूर्तिस्वरुप हे भगवन ! आपको नमस्कार है । आज मैं धन्य हो गया, पुण्यवान् हो गया, आज मेरा जन्म लेना सफल हो गया, जो कि मन-वाणी से अगम-अगोचर आपका मुझे प्रत्यक्ष दर्शन हुआ । मैं अपने भाग्य की क्या सराहना करूँ । न जाने मेरे किस पुण्यकर्म का यह फल था, जो मुझे आपके दर्शन हुए । प्रभो ! आपने क्रियाहीन इस मन्द-बुद्धि के शरीर को सफल कर दिया ।’
पूजनं च प्रकर्तव्यं लोकनाथ रमापते ।।
विधिना केन कृपया तदाज्ञापय मां विभो ।। २० ।।
लोकनाथ ! रमापते ! किस विधि से भगवान् सत्यनारायण का पूजन करना चाहिये, विभो ! कृपाकर उसे भी आप बतायें ।
हरिस्तमाह मधुरं सस्मितं विश्वमोहनः ।।
पूजायां मम विप्रेन्द्र बहु नापेक्षितं धनम् ।। २१ ।।
संसार को मोहित करनेवाले भगवान् नारायण मधुर वाणी में बोले — ‘विपेंद्र ! मेरी पूजा में बहुत अधिक धन की आवश्यकता नहीं।
अनायासेन लब्धेन श्रद्धामात्रेण मां यज ।।
ग्राहग्रस्तोजामिलो वा यथाऽभून्मुक्तसंकटः ।। २२ ।।
अनायास जो धन प्राप्त हो जाय, उसी से श्रद्धापूर्वक मेरा यजन करना चाहिये । जिस प्रकार मेरी स्तुति से, स्मृति से ग्राह-ग्रस्त गजेन्द्र, अजामिल संकट से मुक्त हो गये, इसी प्रकार इस व्रत के आश्रय से मनुष्य तत्काल क्लेशमुक्त हो जाता है ।
विधानं शृणु विप्रेन्द्र मनसा कामयेत्फलम् ।।
पूजासंभृतसंभारः पूजां कुर्याद्यथा विधि ।।२३।।
इस व्रत की विधि को सुनें — अभीष्ट कामना की सिद्धि के लिये पूजा की सामग्री एकत्रकर विधिपूर्वक भगवान् सत्यनारायण की पूजा करनी चाहिये ।
गोधूमचूर्णं पादार्द्धं सेटकादिप्रमाणतः ।।
दुग्धेन तावता युक्तं मिश्रितं शर्करादिभिः ।।२४।।
तच्चूर्णं हरये दद्याद् घृतयुक्तं हरिप्रियम्।।
गोदुग्धेनैव दधिना गोघृतेन समन्वितम् ।। २५ ।।
गंगाजलेन मधुना युक्तं पञ्चामृतं प्रियम् ।।
पञ्चामृतेन संस्नाप्य शालग्रामोद्भवां शिलाम् ।। ।। २६ ।।
गन्धपुष्पादिनैवेद्यैर्वेदवादैर्मनोहरैः ।।
धूपैर्दीपैश्च नैवेद्यैस्तांबूलादिभिरर्चयेत् ।। २७ ।।
सवा सेर के लगभग गोधूम(गेहूँ)-चूर्ण में दूध और शक्कर मिलाकर, उस चूर्ण को घृत से युक्तकर हरि को निवेदित करना चाहिये, यह भगवान् को अत्यन्त प्रिय है । पञ्चामृत के द्वारा भगवान् शालग्राम को स्नान कराकर गन्ध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य तथा ताम्बुलादि उपचारों से मन्त्रों द्वारा उनकी अर्चना करनी चाहिये ।
मिष्टान्नपानसन्मानैर्भक्ष्यैर्भोज्यैः फलैस्तथा ।।
ऋतुकालोद्भवैः पुष्पैः पूजयेद्भक्तितत्परः ।। २८ ।।
अनेक मिष्टान्न तथा भक्ष्य-भोज्य पदार्थों एवं ऋतुकालोद्भुत विविध फलों तथा फूलों से भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिये ।
ब्राह्मणैः स्वजनैश्चैव वेष्टितः श्रद्धयान्वितः ।।
त्वया सार्द्धं मम कथां शृणुयात्परमादरात् ।। ।। २९ ।।
इतिहासं तथा राज्ञो भिल्लानां वणिजोऽस्य च ।।
कथांते प्रणमेद्भक्त्या प्रसादं विभजेत्ततः ।। ३० ।।
फिर ब्राह्मणों तथा स्वजनों के साथ मेरी कथा, राजा (तुङ्गध्वज) के इतिहास, भीलों की और वणिक (साधू) की कथा को आदरपूर्वक श्रवण करना चाहिये । कथा के अनन्तर भक्तिपूर्वक सत्यदेव को प्रणामकर प्रसाद का वितरण करना चाहिये ।
लब्धं प्रसादं भुंजीत मानयन्न विचारयेत् ।।
द्रव्यादिभिर्न मे शांतिर्भक्त्या केवलया यथा ।। ३१ ।।
तदनन्तर भोजन करना चाहिये । मेरी प्रसन्नता द्रव्यादि से नहीं, अपितु श्रद्धा-भक्ति से ही होती है ।
विधि नानेन विप्रेन्द्र पूजयंति च ये नराः ।।
पुत्रपौत्रधनैर्युक्ता भुक्त्वा भोगान नुत्तमान् ।। ३२ ।।
अन्ते सान्निध्यमासाद्य मोदन्ते ते मया सह ।।
यंयं कामयते कामं सुव्रती तंतमाप्नुयात् ।। ३३ ।।
विपेंद्र ! इस प्रकार जो विधिपूर्वक पूजा कहते है, वे पुत्र-पौत्र तथा धन-सम्पत्ति से युक्त होकर श्रेष्ठ भोगों का उपभोग करते है और अन्त में मेरा सांनिध्य प्राप्त कर मेरे साथ आनन्दपूर्वक रहते है । व्रती जो-जो कामना करता है, वह उसे अवश्य ही प्राप्त हो जाती है ।
इत्युक्त्वान्तर्दधे विष्णुर्विप्रोपि सुखमाप्तवान् ।।
प्रणम्यागाद्यथादिष्टं मनसा कौतुकाकुलः ।। ३४ ।।
अद्य भैक्ष्येण लभ्येन पूज्यो नारायणो मया ।।
इति निश्चित्य मनसा भिक्षार्थी नगरं गतः ।। ३५ ।।
इतना कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये और वे ब्राह्मण भी अत्यन्त प्रसन्न हो गये । मन-ही-मन उन्हें प्रणाम कर वे भिक्षा के लिये नगर की ओर चले गये और उन्होंने मन में यह निश्चय किया कि ‘आज भिक्षा में जो धन मुझे प्राप्त होगा, मैं उससे भगवान् सत्यनारायण की पूजा करूँगा ।’
विना देहीति वचनं लब्धा च विपुलं धनम् ।।
कौतुकायासमनसा जगाम निजमालयम् ।। ३६।।
उस दिन अनायास बिना माँगे ही उन्हें प्रचुर धन प्राप्त हो गया । वे आश्चर्यचकित हो अपने घर आये ।
वृत्तांतं सर्वमाचख्यौ ब्राह्मणी सान्वमोदत ।।
सादरं द्रव्यसंभारमाहृत्य भर्तुराज्ञया ।। ३७ ।।
आहूय बन्धुमित्राणि तथा सान्निध्यवर्तिनः ।।
सत्यनारायणं देवं यजामि स्वगणैर्वृतः ।। ३८ ।।
उन्होंने सारा वृतान्त अपनी धर्मपत्नी को बताया । उसने भी सत्यनारायण के व्रत-पूजा का अनुमोदन किया । वह पति की आज्ञा से श्रद्धापूर्वक बाजार से पूजा की सभी सामग्रियों को ले आयी और अपने बन्धु-बान्धवों तथा पड़ोसियों को भगवान् सत्यनारायण की पूजा में सम्मिलित होने के लिये बुला ले आयी ।
भक्त्या तुतोष भगवान्सत्यनारायणः स्वयम् ।।
कामं दित्सुः प्रादुरासीत्कथांते भक्तवत्सलः ।। ३९ ।।
अनन्तर शतानन्द ने भक्तिपूर्वक भगवान् की पूजा की । कथा की समाप्ति पर प्रसन्न होकर उनकी कामनाओं को पूर्ण करने के उद्देश्य से भक्तवत्सल भगवान् सत्यनारायणदेव प्रकट हो गये ।
वव्रे विप्रोऽभिलषितमिहामुत्र सुखप्रदम् ।।
भक्तिं परां भगवति तथा तत्संगिनां व्रतम् ।। ४० ।।
रथं कुञ्जरं मंजुलं मन्दिरं च हयं चारु चामी करालं कृतं च ।।
धनं दासदासीगणं गां महीं च लुलायाः सदुग्धा हरे देहि दास्यम् ।।४१।।
उनका दर्शनकर ब्राह्मण शतानन्द ने भगवान् से इस लोक में तथा परलोक में सुख तथा पराभक्ति की याचना की और कहा — ‘हे भगवन ! आप मुझे अपना दास बना लें ।’
तथास्त्विति हरिः प्राह ततश्चांतर्दधे प्रभुः ।।
विप्रोऽपिकृत कृत्योऽभूत्सर्वे लोका विसिस्मिरे ।।४२।।
भगवान् भी ‘तथास्तु’ कहकर अन्तर्धान हो गये । यह देखकर कथा में आये सभी जन अत्यन्त विस्मित हो गये और ब्राह्मण भी कृतकृत्य हो गया ।
प्रणम्य भुवि कायेन प्रसादं प्रापुरादरात् ।।
स्वंस्वं धाम समाजग्मुर्धन्यधन्येति वादिनः ।। ४३ ।।
वे सभी भगवान् को दण्डवत् प्रणामकर आदरपूर्वक प्रसाद ग्रहणकर ‘यह ब्राह्मण धन्य है, धन्य है’ इस प्रकार कहते हुए अपने-अपने घर चले गये ।
प्रचचार ततो लोके सत्यनारायणार्चनम् ।।
कामसिद्धिप्रदं मुक्तिभुक्तिदं कलुषापहम् ।।४४।।
तभी से लोक में यह प्रचार हो गया कि भगवान् सत्यनारायण का व्रत अभीष्ट कामनाओं की सिद्धि प्रदान करनेवाला, क्लेशनाशक और भोग-मोक्ष को प्रदान करनेवाला है ।
इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखंडापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये पञ्चविंशोऽध्यायः ।।२५।।
इतिश्री भविष्यपुराण अंतर्गत ‘सत्यनारायण व्रत – कथा’ का द्वितीय अध्याय (अध्याय २५) पूर्ण हुआ।
सत्यनारायण व्रत कथा अध्याय-३
राजा चन्द्रचूड का आख्यान
।। सूत उवाच ।। ।।
राजासीद्धार्मिकः कश्चित्केदारमणिपूरके ।।
चन्द्रचूड इति ख्यातः प्रजापालनतत्परः ।।१।।
सूतजी बोले — ऋषियों ! प्राचीन काल में केदारखण्ड के मणिपूरक नामक नगर में चन्द्रचूड नामक एक धार्मिक तथा प्रजावत्सल राजा रहते थे ।
शांतो मधुरवाग्धीरो नारायणपरायणः।।
बभूवुः शत्रवस्तस्य म्लेच्छा विंध्यनिवासिनः ।।२।।
वे अत्यन्त शान्त-स्वभाव, मृदुभाषी, धीर-प्रकृति तथा भगवान् नारायण के भक्त थे । विन्ध्यदेश के म्लेच्छगण उनके शत्रु हो गये ।
तस्य तैरवभवद्युद्धमतिप्रबलदारुणैः।।
भुशुंडीयुद्धनिपुणैः क्षेपणैः परिघायुधैः ।।३।।
चन्द्रचूडस्य महती सेना यमपुरे गता।।
शतं रथास्तथा नागासहस्रं तु हयास्तथा।।४।।
पत्तयः पंचसाहस्रा मृताः स्वर्गपुरं ययुः ।।
दस्यवः पंचसाहस्रा मृताः कैतवयोधिनः ।। ५ ।।
आक्रांतः स महाभागस्तैर्म्लेच्छैर्दंभयोधिभिः ।।
त्यक्त्वा राष्ट्रं च नगरं सैकाकी वनमाययौ ।। ६ ।।
उस राजा का उन म्लेच्छों से अस्त्र-शस्त्रों द्वारा भयानक युद्ध हुआ । उस युद्ध में राजा चन्द्रचूड की विशाल चतुरङ्गिणी सेना अधिक नष्ट हुई, किन्तु कूट-युद्ध में निपुण मलेच्छों की सेना की क्षति बहुत कम हुई ।युद्ध में दम्भी म्लेच्छों से परास्त होकर राजा चन्द्रचूड अपना राष्ट्र छोड़कर अकेले ही वन में चले गये ।
तीर्थव्याजेन स नृपः पुरीं काशीं समागतः ।।
तत्र नारायणं देवं वंद्यं सर्वगृहेगृहे ।। ७ ।।
ददर्श नगरीं चैव धनधान्यसमन्विताम् ।।
यथा द्वारावती ज्ञेया तथा सा च पुरी शुभा ।। ८ ।।
तीर्थाटन के बहाने इधर-उधर घूमते हुए वे काशीपुरी में पहुँचे । वहाँ उन्होंने देखा कि घर-घर सत्यनारायण की पूजा हो रही है और यह काशी नगरी द्वारका के समान ही भव्य एवं समृद्धिशाली हो गयी है ।
विस्मितश्चंद्रचूडश्च दृष्ट्वाश्चर्यमनुत्तमम् ।।
सत्येन रोधितां लक्ष्मीं शीलधर्मसमन्विताम्।। ९ ।।
दृष्ट्वा श्रुत्वा सदानंदं सत्यदेवप्रपूजकम् ।।
पतित्वा तच्चरणयोः प्रणनाम मुदा युतः ।। १० ।।
द्विजराज नमस्तुभ्यं सदानंद महामते ।।
भ्रष्टराज्यं च मां ज्ञात्वा कृपया मां समुद्धर ।। ११ ।।
यथा प्रसन्नो भगवाँल्लक्ष्मीकान्तो जनार्दनः ।।
तथा तद्वद यद्योग्यं व्रतं पापप्रणाशनम् ।। १२ ।।
वहाँ की समृद्धि देखकर चन्द्रचूड विस्मित हो गये और उन्होंने सदानन्द (शतानन्द) ब्राह्मण के द्वारा की गयी सत्यनारायण-पूजा की प्रसिद्धि भी सुनी, जिसके अनुसरण से सभी शील एवं धर्म से समृद्ध हो गये थे । राजा चन्द्रचूड भगवान् सत्यनारायण की पूजा करनेवाले ब्राह्मण सदानन्द (शतानन्द) के पास गये और उनके चरणों पर गिरकर उनसे सत्यनारायण-पूजा की विधि पूछी तथा अपने राज्य-भ्रष्ट होने की कथा भी बतलायी और कहा — ‘ब्रह्मन ! लक्ष्मीपति भगवान् जनार्दन जिस व्रत से प्रसन्न होते है, पाप के नाश करनेवाले उस व्रत को बतलाकर आप मेरा उद्धार करें ।’
।। सदानंद उवाच ।। ।।
दुःखशोकादिशमनं धनधान्यप्रवर्धनम् ।।
सौभाग्यसंततिकरं सर्वत्र विजयप्रदम् ।। १३ ।।
सदानन्द (शतानन्द) ने कहा — राजन् ! श्रीपति भगवान् को प्रसन्न करनेवाला सत्यनारायण नामक एक श्रेष्ठ व्रत है, जो समस्त दुःख-शोकादि का शामक, धन-धान्य का प्रवर्धक, सौभाग्य और सन्तति का प्रदाता तथा सर्वत्र विजय-प्रदायक है ।
सत्यनारायणव्रतं श्रीपतेस्तुष्टिकारकम् ।।
यस्मिन्कस्मिन्दिने भूप यजेच्चैव निशामुखे ।। १४ ।।
तोरणादि प्रकर्तव्यं कदलीस्तंभमंडितम् ।।
पंचभिः कलशैर्युक्तं ध्वजपंचसमन्वितम् ।।१५।।
राजन ! जिस किसी भी दिन प्रदोषकाल में इनके पूजन आदि का आयोजन करना चाहिये । कदलीदल के स्तम्भों से मण्डित, तोरणों से अलंकृत एक मण्डप की रचनाकार उसमें पाँच कलशों की स्थापना करनी चाहिये और पाँच ध्वजाएँ भी लगानी चाहिये ।
तन्मध्ये वेदिकां रम्यां कारयेत्स व्रती द्विजैः ।।
तत्र स्थाप्य शिलारूपं कृष्णं स्वर्ण समन्वितम् ।।१६।।
कुर्याद्गंधादिभिः पूजां प्रेमभक्तिसमन्वितः।।
भूमिशायी हरिं ध्यायन्सप्तरात्रं व्यतीतयेत् ।।१७।।
व्रती को चाहिये कि उस मण्डप के मध्य में ब्राह्मणों के द्वारा एक रमणीय वेदिका की रचना करवाये ।उसके ऊपर स्वर्ण से मण्डित शिलारूप भगवान नारायण (शालग्राम) को स्थापित कर प्रेम-भक्तिपूर्वक चन्दन, पुष्प आदि उपचारों से उनकी पूजा करे । भगवान् का ध्यान करते हुए भूमि पर शयन कर सात रात्रि व्यतीत करे ।
इति श्रुत्वा स नृपतिः काश्यां देवमपूजयत् ।।
रात्रौ प्रसन्नो भगवान्ददौ राज्ञेऽसिमुत्तमम् ।। १८ ।।
यह सुनकर राजा चन्द्रचूड ने काशी में ही भगवान् सत्यनारायण की शीघ्र ही पूजा की । प्रसन्न होकर रात्रि में भगवान् ने राजा को एक उत्तम तलवार-प्रदान की ।
शत्रुपक्षक्षयकरं प्राप्य खङ्गं नृपोत्तमः ।।
प्रणम्य च सदानन्दं केदारमणिमा ययौ ।। १९ ।।
हत्वा दस्यून्षष्टिशतांस्तेषां लब्ध्वा महद्धनम् ।।
हरिं प्रपूजयामास नर्मदायास्तटे शुभे ।।२०।।
शत्रुओं को नष्ट करनेवाली तलवार प्राप्त कर राजा ब्राह्मणश्रेष्ठ सदानन्द को प्रणाम कर अपने नगर में आ गये तथा छः हजार म्लेच्छ दस्युओं को मारकर उनसे अपार धन प्राप्त किया और नर्मदा के मनोहर तट पर पुनः भगवान् श्रीहरि की पूजा की ।
पौर्णमास्यां विधानेन मासिमासि नृपोत्तमः।।
अपूजयत्सत्यदेवं प्रेमभक्तिसमन्वितः।।२१।।
वे राजा प्रत्येक मास की पूर्णिमा को प्रेम और भक्तिपूर्वक विधि-विधान से भगवान् सत्यदेव की पूजा करने लगे ।
तद्व्रतस्य प्रभावेन लक्षग्रामाधिपोऽभवत्।।
राज्यं कृत्वा स षष्ट्यब्दमन्ते विष्णुपुरं ययौ।।२२।।
उस व्रत के प्रभाव से वे लाखों ग्रामों के अधिपति हो गये और साठ वर्षतक राज्य करते हुए अन्त में उन्होंने विष्णुलोक को प्राप्त किया ।
इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखंडापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये चन्द्रचूडोद्धारोनाम षडूविंशोऽध्यायः ।। २६ ।।
इतिश्री भविष्यपुराण अंतर्गत ‘सत्यनारायण व्रत – कथा’ का तृतीय अध्याय (अध्याय २६) पूर्ण हुआ।
सत्यनारायण व्रत कथा अध्याय- ४
लकड़हारों की कथा
।। सूत उवाच ।। ।।
अथेतिहासं शृणुत यथा भिल्लाः कृतार्थिनः ।।
विचरंतो वने नित्यं निषादाः काष्ठवाहिनः ।।१।।
सूतजी बोले — ऋषियों ! अब इस सम्बन्ध में सत्यनारायण-व्रत के आचरण से कृतकृत्य हुआ भिल्लों की कथा सुनें । एक समय की बात है, कुछ निषादगण वन से लकडियाँ काटकर नगर में लाकर बेचा करते थे ।
वनात्काष्ठानि विक्रेतुं पुरीं काशीं ययुः क्वचित्।।
एकस्तृषाकुलो यातो विष्णुदासाश्रमं तदा ।।२।।
उनमें से कुछ निषाद काशीपुरी में लकड़ी बेचने आये । उन्हीं में से एक बहुत प्यासा लकड़हारा विष्णुदास (शतानन्द)— के आश्रम में गया ।
ददर्श विपुलैश्वर्यं सेवितं च द्विजैर्हरिम् ।।
जलं पीत्वा विस्मितोऽभूद्भिक्षुकस्य कुतो धनम्।।३।।
यो दृष्टोऽकिंचनो विप्रो दृश्यतेऽद्य महाधनः।।
इति संचिंत्य हृदये स पप्रच्छ द्विजोत्तमम्।।४।।
वहाँ उसने जल पिया और देखा कि ब्राह्मण लोग भगवान् की पूजा कर रहे हैं ।भिक्षुक शतानन्द का वैभव देखकर वह चकित हो गया और सोचने लगा — ‘इतने दरिद्र ब्राह्मण के पास यह अपार वैभव कहाँ से आ गया ? इसे तो आज तक मैंने अकिंचन ही देखा था । आज यह इतना महान् धनी कैसे हो गया ? इस पर उसने पूछा —
ऐश्वर्यं ते कुतो ब्रह्मन्दुर्गतिस्ते कुतो गता ।।
आज्ञापय महाभाग श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ।। ५ ।।
‘ महाराज ! आपको यह ऐश्वर्य कैसे प्राप्त हुआ और आपको निर्धनता से मुक्ति कैसे मिली ? यह बताने का कष्ट करें, मैं सुनना चाहता हूँ ।’
।। सदानंद उवाच ।। ।।
सत्यनारायणस्यांग सेवया किं न लभ्यते ।।
न किंचित्सुखमाप्नोति विना तस्यानुकंपया ।। ६ ।।
शतानन्द ने कहा – भाई ! यह सब सत्यनारायण की आराधना का फल है, उनकी आराधना से क्या नहीं होता । भगवान् सत्यनारायण की अनुकम्पा के बिना किंचित् भी सुख प्राप्त नहीं होता ।
।।निषाद उवाच ।। ।।
अहो किमिति माहात्म्यं सत्यनारायणार्चने ।।
विधानं सोपचारं च ह्युपदेष्टुं त्वमर्हसि ।। ७ ।।
साधूनां समचित्तानामुपकारवतां सताम् ।।
न गोप्यं विद्यते किंचिदार्तानामार्तिनाशनम् ।। ८ ।।
निषाद ने उनसे पूछा — महाराज ! सत्यनारायण भगवान् का क्या माहात्म्य है ? इस व्रत की विधि क्या है ? आप उनकी पूजा के सभी उपचारों का वर्णन करें, क्योंकि उपकार-परायण संत-महात्मा अपने हृदय में सबके लिये समान भाव रखते हैं, किसी से कोई कल्याणकारी बात नहीं छिपाते ।
इति पृष्टो विधिं वक्तुमितिहासमथाब्रवीत् ।।
चन्द्रचूडो महीपालः केदारमणिपूरके ।। ९ ।।
ममाश्रमं समायातः सत्यनारायणार्चने ।।
विधानं श्रोतुकामोऽसौ मामाह सादरं वचः ।। १० ।।
शतानन्द बोले — एक समय की बात है, केदारक्षेत्र के मणिपूरक नगर में रहनेवाले राजा चन्द्रचूड मेरे आश्रम में आये और उन्होंने मुझसे भगवान् सत्यनारायण-व्रत-कथा के विधान को पूछा ।
मया यत्कथितंतस्मै तन्निबोध निषादज ।।
संकल्प्य मनसा कामं निष्कामो वा जनः क्वचित् ।। ११ ।।
हे निषादपुत्र ! इस पर मैंने जो उन्हें बताया था, उसे तुम सुनो — सकाम भाव से अथवा निष्कामभाव से किसी भी प्रकार भगवान् की पूजा का मन में संकल्प कर उनकी पूजा करनी चाहिये ।
गोधूमचूर्णं पादार्धं सेटकाद्यैः सुचूर्णकम् ।।
संस्कृतं मधुगंधाज्यैर्नैवेद्यं विभवेऽर्पयेत् ।। १२ ।।
सवा सेर गोधूम के चूर्ण को मधु तथा सुगन्धित घृत से संस्कृतकर नैवेद्य के रूप में भगवान् को अर्पण करना चाहिये ।
पंचामृतेन संस्नाप्य चन्दनाद्यैश्च पूजयेत् ।।
पायसापूपसंयावदधिक्षीरमथोहरेत् ।। १३ ।।
उच्चावचः फलैः पुष्पैर्धूपदीपैमर्नोरमैः ।।
पूजयेत्परया भक्त्या विभवे सति विस्तरैः ।। १४ ।।
भगवान् सत्यनारायण (शालग्राम) को पञ्चामृत से स्नान कराकर चन्दन आदि उपचारों से उनकी पूजा करनी चाहिये । पायस, अपूप, संयाव, दधि, दुग्ध, ऋतुफल, पुष्प, धुप, दीप तथा नैवेद्य आदि से भक्तिपूर्वक भगवान् की पूजा करनी चाहिये । यदि वैभव रहे तो और अधिक उत्साह एवं समारोह से पूजा करनी चाहिये ।
न तुष्येद्द्रव्यसंभारैर्भक्त्या केवलया यथा ।।
भगवान्परितः पूर्णो न मानं वृणुयात्क्वचित् ।। १५ ।।
भगवान् भक्ति से जितना प्रसन्न होते है, उतना विपुल द्रव्यों से प्रसन्न नहीं होते । भगवान् सम्पूर्ण विश्व के स्वामी एवं आप्तकाम है, उन्हें किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं, केवल भक्तों के द्वारा श्रद्धा से अर्पित की हुई वस्तु को वे ग्रहण करते है ।
दुर्योधनकृतां त्यत्क्वा राजपूजां जनार्दनः ।।
विदुरस्याश्रमे वासमातिथ्यं जगृहे विभुः ।। १६ ।।
इसलिए दुर्योधन से द्वारा की जानेवाली राजपूजा को छोडकर भगवान् विदुरजी के आश्रम में आकर शाक-भाजी और पूजा को ग्रहण किया ।
सुदाम्नस्तंडुलकणाञ्जग्ध्वा मानुष्यदुर्लभाः ।।
संपदोऽदाद्धरिः प्रीत्या भक्तिमात्रमपेक्ष्यते ।। १७ ।।
सुदामा के तण्डुल-कण को स्वीकार कर भगवान् ने उन्हें मनुष्य के लिये सर्वथा दुर्लभ सम्पत्तियाँ प्रदान कर दीं । भगवान् केवल प्रीतिपूर्वक भक्ति की ही अपेक्षा करते है ।
गोपो गृध्रो वणिग्व्याधो हनुमान्सविभीषणः ।।
येऽन्ये पापात्मका दैत्या वृत्रकायाधवादयः ।। १८ ।।
नारायणान्तिकं प्राप्य मोदंतेऽद्यापि यद्वशाः ।।
गोप, गृध्र, वणिक्, व्याध, हनुमान्, विभीषण के अतिरिक्त अन्य वृत्रासुर आदि दैत्य भी नारायण के सांनिध्य को प्राप्त कर उनके अनुग्रह से आज भी आनन्दपूर्वक रह रहे हैं ।
इति श्रुत्वा नरपतिः पूजासंभारमादरात् ।। १९ ।।
कृतवान्स धनं लब्ध्वा मोदते नर्मदातटे ।।
निषाद त्वमपि प्रीत्या सत्यनारायणं भज ।। २० ।।
निषादपुत्र ! मेरी बात सुनकर उस राजा चन्द्रचुड ने पूजा-सामग्रियों को एकत्रितकर आदरपूर्वक भगवान् की पूजा की; फलस्वरूप वे अपना नष्ट हुआ द्रव्य प्राप्तकर आज भी आनन्दित हो रहे हैं । इसलिये तुम भी भक्ति से सत्यनारायण की उपासना करो ।
इह लोके सुखं प्राप्य चान्ते सान्निध्यमाप्नुयाः ।।
कृतकृत्यो निषादोऽभूत्प्रणम्य द्विजपुंगवम् ।। २१ ।।
स गत्वा स्वगणानाह माहात्म्यं हरिसेवने ।।
ते हृष्टमनसः सर्वे समयं चक्रुरादृताः ।। २२ ।।
सत्यनारायणे पूजां काष्ठलब्धेन यावता ।।
वयं कुलैः करिष्यामः पुण्यवृक्षविधानतः ।। २३ ।।
इससे तुम इस लोक में सुख को प्राप्त कर अन्त में भगवान् विष्णु का सांनिध्य प्राप्त करोगे । यह सुनकर वह निषाद कृतकृत्य हो गया । विप्रश्रेष्ठ शतानन्द को प्रणाम कर अपने घर जाकर उसने अपने साथियों को भी हरि-सेवा का माहात्म्य बताया । उन सबने भी प्रसन्नचित्त हो श्रद्धापूर्वक यह प्रतिज्ञा की कि आज काष्ठ को बेचकर हम लोगों को जितना धन प्राप्त होगा उससे अपने सभी बन्धु-बान्धवों के साथ श्रद्धा एवं विधिपूर्वक हम सत्यनारायण की पूजा करेंगे ।
इति निश्चित्य मनसा काष्ठं विक्रीय लेभिरे ।।
चतुर्गुणं धनं हृष्टाः स्वंस्वं भवनमाययुः ।।२४।।
मुदा स्त्रीभ्यस्समाचख्युर्वृत्तांतं सर्वमादितः।।
ताः श्रुत्वा हृष्टमनसः पूजनं चक्रुरादरात् ।।२५।।
कथान्ते प्रणमन्भक्त्या प्रसादं जगृहुस्ततः ।।
स्वजातिभ्यः परेभ्यश्च ददुस्तच्चूर्णमुत्तमम् ।। २६ ।।
उस दिन उन्हें काष्ठ बेचने से पहले की अपेक्षा चौगुना धन मिला । घर आकर उन सबने सारी बात स्त्रियों को बतायी और फिर सबने मिलकर आदरपूर्वक भगवान् सत्यनारायण की पूजा की और कथा का श्रवण किया तथा भक्तिपूर्वक भगवान् का प्रसाद सबको वितरित कर स्वयं भी ग्रहण किया ।
पूजाप्रभावतो भिल्लाः पुत्रदारादिभिर्युताः ।।
लब्ध्वा भूमितले द्रव्यं ज्ञानचक्षुर्महोत्तमम् ।। २७ ।।
पूजा के प्रभाव से पुत्र, पत्नी आदि से समन्वित निषादगणों ने पृथ्वी पर द्रव्य और श्रेष्ठ ज्ञान-दृष्टि को प्राप्त किया ।
भुक्त्वा भोगान्यथेष्टन्ते दरिद्रान्धा द्विजोत्तम ।।
जग्मुस्ते वैष्णवं धाम योगिनामपि दुर्लभम् ।। २८ ।।
द्विजश्रेष्ठ ! उन सबने यथेष्ट भोगों का उपभोग किया और अन्त में वे सभी योगीजनों के लिये भी दुर्लभ वैष्णवधाम को प्राप्त हुए ।
इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये सप्तर्विशोऽध्यायः ।। २७ ।।
इतिश्री भविष्यपुराण अंतर्गत ‘सत्यनारायण व्रत – कथा’ का चतुर्थ अध्याय (अध्याय २७) पूर्ण हुआ।
सत्यनारायण व्रत कथा अध्याय-५
साधु वणिक् एवं जामाता की कथा
।। सूत उवाच ।। ।।
अथ ते वर्णयिष्यामि कथां साधूपचारिताम् ।।
नृपोपदेशतः साधुः कृतार्थोऽभूद्वणिग्यथा।। ।। १ ।।
मणिपूरपती राजा चन्द्रचूडो महायशाः ।।
सह प्रजाभिरानर्च सत्यनारायणं प्रभुम् ।। २ ।।
सूतजी बोले — ऋषियों ! अब मैं एक साधु वणिक् की कथा कहता हूँ । एक बार भगवान् सत्यनारायण का भक्त मणिपूरक नगर का स्वामी महायशस्वी राजा चन्द्रचूड अपनी प्रजाओं के साथ व्रतपूर्वक सत्यनारायण भगवान् का पूजन कर रहा था,
अथ रत्नपुरस्थायी साधुर्लक्षपतिर्वणिक् ।।
धनैरापूर्य तरणीः सह गच्छन्नदीतटे ।। ३ ।।
उसी समय रतनपुर (रत्नसारपुर) —निवासी महाधनी साधु वणिक् अपनी नौका को धन से परिपूर्ण कर नदी-तट से यात्रा करता हुआ वहाँ आ पहुँचा ।
ददर्श बहुलं लोकं नानाग्रामविलासिनम् ।।
मणिमुक्ताविरचितैर्वितानैस्समलंकृतम् ।। ४ ।।
वेदवादांश्च शुश्राव गीतवादित्रसंगतान् ।।
रम्यं स्थानं समालोक्य कर्णधारं समादिशत् ।। ५ ।।
वहाँ उसने अनेक ग्राम-वासियों-सहित मणि-मुक्ता से निर्मित तथा श्रेष्ठ वितानादी से विभूषित पूजन-मण्डप को देखा, गीत-वाद्य आदि की ध्वनि तथा वेदध्वनि भी वहाँ उसे सुनायी पड़ी ।उस रम्य स्थान को देखकर साधु वणिक् ने अपने नाविक को आदेश दिया कि यहीं पर नौका रोक दो ।
विश्रामयात्र तरणीरिति पश्यामि कौतुकम् ।।
भर्त्रादिष्टस्तथा चक्रे कर्णधारः सभृत्यकैः ।। ६ ।।
तटसीम्नः समुत्तीर्य मल्ललीलाविलासिनः ।।
कर्णधारा नगा वीरा युयुधुर्मल्ललीलया ।। ७ ।।
मैं यहाँ के आयोजन को देखना चाहता हूँ । इस पर नाविक ने वैसा ही किया । नाव से उतरकर उस वणिक् ने लोगों से जानकारी प्राप्त की और वह सत्यनारायण भगवान् की कथा-मण्डप में गया तथा वहाँ उसने उन सभी से पूछा — ‘महाशय ! आपलोग यह कौन-सा पुण्यकार्य कर रहे हैं ?’
स्वयमुत्तीर्य सामात्यो लोकान्पप्रच्छ सादरम् ।।
यज्ञस्थानं समालोक्य प्रशस्तं समुदो ययौ ।।८।।
किमत्र क्रियते सभ्या भवद्भिर्लोकपूजितैः ।।
सभ्या ऊचुश्च ते सर्वे सत्यनारायणो विभुः ।। ९ ।।
पूज्यते बंधुभिः सार्धं राज्ञा लोकानुकंपिना ।।
प्राप्तं निष्कटकं राज्यं सत्यनारायणार्चनात् ।। १० ।।
धनार्थी लभते द्रव्यं पुत्रार्थी सुतमुत्तमम् ।।
ज्ञानार्थी लभते चक्षुर्निर्भयः स्याद्भयातुरः ।। ११ ।।
इस पर उन लोगों ने कहा —‘हमलोग अपने माननीय राजा के साथ भगवान् सत्यनारायण की पूजा कथा का आयोजन कर रहे है । इसी व्रत के अनुष्ठान से इन्हें निष्कण्टक राज्य प्राप्त हुआ है । भगवान् सत्यनारायण की पूजा से धन की कामनावाला द्रव्य-लाभ, पुत्र की कामनावाला उत्तम पुत्र, ज्ञान की कामनावाला ज्ञान-दृष्टि प्राप्त करता है और भयातुर मनुष्य सर्वथा निर्भय हो जाता है ।
सर्वान्कामानवाप्नोति नरः सत्यसुरार्च नात् ।।
विधानं तु ततः श्रुत्वा चैलं बद्ध्वा गलेऽसकृत् ।। १२ ।।
दंडवत्प्रणिपत्याह कामं सभ्यानमोदयत् ।।
अनपत्योऽस्मि भगवन्वृथैश्वर्यो वृथोद्यमः ।। १३ ।।
पुत्रं वा यदि वा कन्यां लभेयं त्वत्प्रसादतः ।।
पताकां कांचनीं कृत्वा पूजयिष्ये कृपानिधिम् ।। १४ ।।
इनकी पूजा से मनुष्य अपनी सभी कामनाओं को प्राप्त कर लेता है ।’ यह सुनकर उसने गले में वस्त्र को कई बार लपेटकर भगवान् सत्यनारायण को दण्डवत प्रणाम कर सभासदों को भी सादर प्रणाम किया और कहा –‘ भगवन् ! मैं सन्ततिहीन हूँ, अत: मेरा सारा ऐश्वर्य तथा सारा उद्यम सभी व्यर्थ है, हे कृपासागर ! यदि आपकी कृपा से पुत्र या कन्या मैं प्राप्त करूँगा तो स्वर्णमयी पताका बनाकर आपकी पूजा करूँगा ।’
श्रुत्वा सभ्या अब्रुवंस्ते कामनासिद्धिरस्तु ते ।।
हरिं प्रणम्य सभ्याश्च प्रसादं भुक्तवांस्तदा ।। १५ ।।
जगाम स्वालयं साधुर्मनसा चिंतयन्हरिम्।।
स्वगृहे ह्यागते तस्मिन्नार्यो मंगलपाणयः ।। १६ ।।
इस पर सभासदों ने कहा – ‘आपकी कामना पूर्ण हो ।’ तदनन्तर उसने भगवान् सत्यनारायण एवं सभासदों को पुनः प्रणामकर प्रसाद ग्रहण किया और हृदय से भगवान् का चिन्तन करता हुआ वह साधु वणिक सबके साथ अपने घर गया ।घर आने पर माङ्गलिक द्रव्यों से स्त्रियों ने उसका यथोचित स्वागत किया ।
मंगलानि विचित्राणि यथोचितमकारयन् ।।
विवेशांतःपुरे साधुर्महाकौतुकमंगलः ।। १७ ।।
ऋतुस्नाता सती लीलावती पर्यचरत्पतिम् ।।
गर्भं धृतवती साध्वी समये सुषुवे तु सा ।। १८ ।।
कन्यां कमललोलाक्षीं बांधवामोदकारिणीम् ।।
साधुः परां मुदं लेभे विततार धनं बहु ।। १९ ।।
साधु वणिक अतिशय आश्चर्य के साथ मङ्गलमय अन्तःपुर में गया । उसकी पतिव्रता पत्नी लीलावती ने भी उसकी स्त्रियोचित सेवा की । भगवान् सत्यनारायण की कृपा से समय आने पर बन्धु-बान्धवों को आनन्दित करनेवाली तथा कमल के समान नेत्रोंवाली उसे एक कन्या उत्पन्न हुई । इससे साधू वणिक अतिशय आनन्दित हुआ और उस समय उसने पर्याप्त धन का दान किया ।
विप्रानाहूय वेदज्ञान्कारयामास मंगलम् ।।
लेखयित्वा जन्मपत्रीं नाम चक्रे कलावतीम् ।। २० ।।
कलानिधिकले वासौ ववृधे सा कलावती ।।
वेदज्ञ ब्राह्मणों को बुलाकर उसने कन्या के जातकर्म और मंगलकृत्य सम्पन्न किये । उस बालिका की जन्मकुण्डली बनवाकर उसका नाम कलावती रखा । कलानिधि चन्दमा की कला के समान वह कलावती नित्य बढने लगी ।
अष्टवर्षा भवेद्गौरी नववर्षा च रोहिणी ।। २१ ।।
दशवर्षा भवेत्कन्या ततः प्रौढा रजस्वला ।।
आठ वर्ष की बालिका गौरी, नौ वर्ष की रोहिणी, दस वर्ष की कन्या तथा उसके आगे (अर्थात्) बारह वर्ष की बालिका प्रौढ़ा या रजस्वला कहलाती है ।
प्रौढां कालेन तां दृष्ट्वा विवाहार्थमचिन्तयत् ।। २२ ।।
नगरे कांचनपुरे वणिक्छंखपतिः श्रुतः ।।
कुलीनो रूपसंपत्तिशीलौदार्यगुणान्वितः ।। २३ ।।
समयानुसार कलावती भी बढ़ते-बढ़ते विवाह के योग्य हो गयी । उसका पिता कलावती को विवाह-योग्य जानकर उसके सम्बन्ध की चिन्ता करने लगा । काञ्चनपुर नगर में एक शंखपति नाम का वणिक् रहता था । वह कुलीन, रूपवान्, सम्पतिशाली, शील और उदारता आदि गुणों से सम्पन्न था ।
वरयामास तं साधुर्दुहितुः सदृशं वरम् ।।
शुभे लग्ने बहुविधैर्मंगलैरग्निसन्निधौ ।।२४।।
वेदवादित्रनिनदैर्ददौ कन्यां यथाविधि ।।
मणिमुक्ताप्रवालानि वसनं भूषणानि च ।। २५ ।।
महामोदमनाः साधुर्मंगलार्थं ददौ च ह ।।
प्रेम्णा निवासयामास गृहे जामातरं ततः ।। २६ ।।
अपनी पुत्री के योग्य उस वर को देखकर साधु वणिक् ने शंखपति का वरण कर लिया और शुभ लग्न में अनेक माङ्गलिक उपचारों के साथ अग्नि के सांनिध्य में वेद, वाद्य आदि ध्वनियों के साथ यथाविधि कन्या उसे प्रदान कर दी, साथ ही मणि, मोती, मूँगा, वस्त्राभूषण आदि भी उस साधु वणिक् ने मंगल के लिये अपनी पुत्री एवं जामाता को प्रदान किये ।
तं मेने पुत्रवत्साधुः स च तं पितृवत्सुधीः ।।
अतीते भूयसः काले सत्यनारायणार्चनम् ।। २७ ।।
विस्मृत्य सह जामात्रा वाणिज्याय ययौ पुनः ।।
साधु वणिक् अपने दामाद को अपने घर में रखकर उसे पुत्र के समान मानता था और वह भी पिता के समान साधु वणिक् का आदर करता था । इस प्रकार बहुत समय बीत गया । साधु वणिक् ने भगवान् सत्यनारायण की पूजा करनेका पहले यह संकल्प लिया था कि ‘सन्तान प्राप्त होने पर मैं भगवान् सत्यनारायण की पूजा करूँगा’ पर वह इस बात को भूल ही गया । उसने पूजा नहीं की ।
।। सूत उवाच ।। ।।
अथ साधुः समादाय रत्नानि विविधानि च ।। २८ ।।
नौकाः संस्थाप्य स ययौ देशाद्देशान्तरं प्रति ।।
नगरं नर्मदातीरे तत्र वासं चकार सः ।।२९।।
कुर्वन्क्रयं विक्रयं च चिरं तस्थौ महामनाः ।।
कर्मणा मनसा वाचा न कृतं सत्यसेवनम् ।।३० ।।
ततः कर्मविपाकेन तापमापाचिराद्वणिक् ।।
कुछ दिनों के बाद वह अपने जामाता के साथ व्यापार के निमित्त सुदूर नर्मदा के दक्षिण तट पर गया और वहाँ व्यापारनिरत होकर बहुत दिनों तक ठहरा रहा । पर वहाँ भी उसने सत्यदेव की किसी प्रकार भी उपासना नहीं की और परिणामस्वरुप भगवान् के प्रकोप का भाजन बनकर वह अनेक संकटों से ग्रस्त हो गया ।
कस्मिंश्चिद्दिवसे रात्रौ राज्ञो गेहे तमोवृते:।। ३१ ।।
ज्ञात्वा निद्रागतान्सर्वान्हृतं चौरैर्महाधनम् ।।
प्रभाते वाचितो राजा सूतमागधबंदिभिः ।। ।। ३२ ।।
प्रातःकृत्यं नृपः कृत्वा सदः संप्राविशच्च सः ।।
ततस्तत्र समायातः किंकरो राजवल्लभः ।। ३३ ।।
एक समय कुछ चोरों ने एक निस्तब्ध रात्रि में वहाँ के राजमहल से बहुत-सा द्रव्य तथा मोती की माला को चुरा लिया । राजा ने चोरी की बात ज्ञात होने पर अपने राजपुरुषों को बुलाकर बहुत फटकारा और कहा कि-
उवाच स तदा वाक्यं शृणुष्व त्वं धरा पते ।।
मुक्तामालाश्च बहुधा रत्नानि विविधानि च ।। ३४ ।।
मुमुषुश्चौरा गतास्सर्वे न जानीमो वयं नृप ।।
इति विज्ञापितो राजा पुण्यश्लोक शिखामणिः ।। ३५ ।।
‘यदि तुम लोगो ने चोरों का पता लगाकर सारा धन यहाँ दो दिनों में उपस्थित नहीं किया तो तुम्हारी असावधानी के लिये तुम्हें मृत्यु-दण्ड दिया जायगा ।’
उवाच क्रोधताम्राक्षो यूयं संयात मा चिरम् ।।
सचौरं द्रव्यमादाय मत्पार्श्वं त्वमुपानय ।। ३६ ।।
नो चेद्धनिष्ये सगणानिति दूतान्समादिशत् ।।
नृपवाक्यं समाकर्ण्य प्रजग्मुस्ते च किंकराः ।। ३७ ।।
बहुयत्नैर्न संशोध्य द्रव्यं चोरसमन्वितम् ।।
एकीभूत्वा निशि तदा महाचिंतातुरोऽभवत् ।। ३८ ।।
हन्ता मां सगणं राजा किं करोमि कुतः सुखम् ।।
नृपदंडाच्च मे मृत्युः प्रेतत्वाय भवेदिह ।। ३९ ।।
इस पर राजपुरुषों ने सर्वत्र व्यापक छान-बीन की, परन्तु बहुत प्रयत्न करने पर भी वे उन चोरों का पता नहीं लगा सके । फिर वे सभी एकत्रित होकर विचार करने लगे –‘ अहो ! बड़े कष्ट की बात है, चोर तो मिला नहीं, धन भी नहीं मिला, अब राजा हम लोगों को परिवार को साथ मार डालेगा । मरने पर भी हमें प्रेत-योनि प्राप्त होगी ।
नर्मदायां च मरणं शिवलोकप्रदायकम् ।।
इत्येवं संमतं कृत्वा नर्मदायास्तटं ययुः ।।४० ।।
इसलिए अब तो यही श्रेयस्कर है कि ‘हम लोग पवित्र नर्मदा नदी में डूबकर मर जाये । क्योंकि नर्मदा के प्रभाव से हमें शिवलोक की प्राप्ति होगी ।’ वे सभी राजपुरुष आपसमें ऐसा निश्चयकर नर्मदा नदी के तटपर गये ।
विदेशिनोऽस्य वणिजो ददर्श विपुलं धनम् ।।
मुक्ताहारं गले तस्य लुंठितं वणिजोऽस्य च ।। ४१ ।।
चौरोऽयमिति निश्चित्य तौ बबंधात्मरक्षणात् ।।
सधनं सह जामात्रा नृपान्तिकमुपानयत् ।। ४२ ।।
वहाँ उन्होंने उस साधु वणिक् को देखा और उसके कण्ठ में मोती की माला भी देखी । उन्होंने उस साधु वणिक् को ही चोर समझ लिया और वे सभी प्रसन्न होकर उन दोनों (साधु वणिक् और उसके जामाता) को धनसहित पकड़कर राजा के पास ले आये ।
प्रतिकूले हरौ तस्मिन्राज्ञापि न विचारितम् ।।
धनागारे धनं नीत्वा बध्नीत तौ सुदुर्मती ।। ४३ ।।
कारागारे लोहमयैः शृंखलैरंगपादयोः ।।
इति राजाज्ञया दूतास्तथा चक्रुर्निबंधनम् ।। ४४ ।।
भगवान् सत्यनारायण भी पूजा करनेमें असत्यका आश्रय लेने के कारण वणिक् के प्रतिकूल हो गये थे । इसी कारण राजा ने भी विचार किये बिना ही अपने सेवकों को आदेश दिया कि इनकी सारी सम्पत्ति जब्त कर खजाने में जमा कर दो और इन्हें हथकड़ी लगाकर जेल में डाल दो । सेवकों ने राजाज्ञा का पालन किया । वणिक् की बातों पर किसी ने कुछ भी ध्यान नहीं दिया ।
जामात्रा सहितः साधुर्विललाप भृशं मुहुः ।।
हा पुत्र तात तातेति जामातः क्व धनं गतम् ।। ४५ ।।
क्व स्थिता च सुता भार्या पश्य धातुर्विपर्ययम् ।।
निमग्नौ दुःखजलधौ को वां पास्यति संकटात् ।। ४६ ।।
अपने जामाता के साथ वह वणिक् अत्यन्त दुःखित हुआ और विलाप करने लगा – ‘हा पुत्र ! मेरा धन अब कहाँ चला गया, मेरी पुत्री और पत्नी कहाँ है ? विधाता की प्रतिकूलता तो देखो । हम दुःख-सागर में निमग्न हो गये । अब इस संकट से हमें कौन पार करेगा ?
मया बहुतरं धातुर्विप्रियं हि पुराकृतम् ।।
तत्कर्मणः प्रभावोऽयं न जाने कस्य वा फलम् ।। ४७ ।।
समं श्वशुरजामात्रौ द्वादशेषु विषादिनौ ।। ४८ ।।
मैंने धर्म एवं भगवान् के विरुद्ध आचरण किया । यह उन्हीं कर्मों का प्रभाव है ।’ इस प्रकार विलाप करते हुए वे ससुर और जामाता कई दिनों तक जेल में भीषण संताप का अनुभव करते रहे ।
इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखंडापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चयेऽष्टाविंशो ऽध्यायः ।। २८ ।।
इतिश्री भविष्यपुराण अंतर्गत ‘सत्यनारायण व्रत – कथा’ का पंचम अध्याय (अध्याय २८) पूर्ण हुआ।
सत्यनारायण व्रत कथा अध्याय-६
सत्य-धर्म के आश्रय से सबका उद्धार (लीलावती एवं कलावती की कथा)
।। सूत उवाच ।। ।।
तापत्रयहरं विष्णोश्चरितं तस्य ते शिवम् ।।
शृण्वंति सुधियो नित्यं ते वसंति हरेः पदम् ।। ।। १ ।।
प्रतिकूले हरौ तस्मिन्यास्यन्ति निरयान्बहून् ।।
तत्प्रिया कमला देवी चत्वारस्तस्य चात्मजाः ।। २ ।।
धर्मो यज्ञो नृपश्चौरः सर्वे लक्ष्मीप्रियंकराः ।।
विप्रेभ्यश्चातिथिभ्यश्च यद्दानं धर्म उच्यते।।३ ।।
सूतजी ने कहा — ऋषियों ! अध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक – इन तीनों तापों को हरण करनेवाले भगवान् विष्णु के मङ्गलमय चरित्र को जो सुनते हैं, वे सदा हरि के धाम में निवास करते हैं, किन्तु जो भगवान् का आश्रय नहीं ग्रहण करते — उन्हें विस्मृत कर देते हैं, उन्हें कष्टमय नरक प्राप्त होता है । भगवान् विष्णु की पत्नी का नाम कमला (लक्ष्मी) है ।इनके चार पुत्र है — धर्म, यज्ञ, राजा और चोर । ये सभी लक्ष्मी-प्रिय हैं अर्थात् ये लक्ष्मी की इच्छा करते है । ब्राह्मणों और अतिथियों को जो दान दिया जाता है, वह धर्म कहा जाता है, उसके लिये धन की आवश्यकता है ।
मातृभ्यो देवताभ्यश्च स्वधा स्वाहेति वै मखः ।।
धर्मस्यैव मखस्यैव रक्षको नृपतिः स्मृतः ।। ४ ।।
स्वाहा और स्वधा के द्वारा जो देवयज्ञ और पितृयज्ञ किया जाता है, वह यज्ञ कहा जाता है, उसमें भी धन की अपेक्षा होती है । धर्म और यज्ञ की रक्षा करनेवाला राजा कहलाता है, इसलिये राजा को भी लक्ष्मी – धन की अपेक्षा रहती है ।
द्वयोर्हन्ता हि चोरः स ते सर्वे धर्मकिंकराः ।।
यत्र सत्यं ततो धर्मस्तत्र लक्ष्मीः स्थिरा भवेत् ।।५।।
धर्म और यज्ञ को नष्ट करनेवाला चोर कहलाता है, वह भी धन की इच्छा से चोरी करता है । इसलिए ये चारों किसी-न-किसी रूप में लक्ष्मी के किंकर है । परन्तु जहाँ सत्य रहता है, वहीं धर्म रहता है और वहीं लक्ष्मी भी स्थिर-रूप में रहती है ।
सत्यहीनस्य तत्साधोर्धनं यत्तद्ग्रहे स्थितम् ।।
हृतवानवनीपालः चौरैर्भार्यातिदुःखिता ।। ६ ।।
वह वणिक् सत्य-धर्म से च्युत हो गया था (उसने सत्यनारायण का व्रत न कर प्रतिज्ञा-भंग की थी) इसीलिये राजा ने उस वणिक के घर से भी सारा धन हरण करवा लिया और घर में चोरी भी हो गयी ।
वासोलंकरणादीनि विक्रीय बुभुजे किल ।।
नास्ति तत्पच्यते किंचित्तदा कष्टमगाहत ।। ७ ।।
अथैकस्मिन्दिने कन्या भोजनाच्छादनं विना ।।
गता विप्रगृहेऽपश्यत्सत्यनारायणार्चनम् ।। ८ ।।
बेचारी उसकी पत्नी लीलावती एवं पुत्री कलावती के साथ अपने वस्त्र-आभूषण तथा मकान बेचकर जैसे-तैसे जीवन-यापन करने लगी । एक दिन उसकी कन्या कलावती भूख से व्याकुल होकर किसी ब्राह्मण के घर गयी और वहाँ इसने ब्राह्मण को भगवान् सत्यनारायण की पूजा करते हुए देखा ।
प्रार्थयंतं जगन्नाथं दृष्ट्वा सा प्रार्थयद्धरिम् ।।
सत्यनारायण हरे पिता भर्ता च मे गृहम् ।।९।।
जगन्नाथ सत्यदेव की प्रार्थना करते हुए देखकर उसने भी भगवान् से प्रार्थना की — ‘हे सत्यनारायण देव ! मेरे पिता और पति यदि घर पर आ जायेंगे तो मैं भी आपकी पूजा करुँगी ।’
आगच्छत्वर्चयिष्यामि भवंतमिति वाचये ।।
तथास्तु ब्राह्मणैरुक्ता ततः सा त्वाश्रमं ययौ ।। १० ।।
उसकी बात सुनकर ब्राह्मणों ने कहा — ‘ऐसा ही होगा ।’ इस प्रकार सुनकर ब्राह्मणों से आश्वासनयुक्त आशीर्वाद प्राप्त कर वह अपने घर वापस आ गयी ।
मात्रा निर्भर्त्सितेयंतं कालं कुत्र स्थिता शुभे ।।
वृत्तांतं कथयामास सत्यनारायणार्चने ।। ११ ।।
कलौ प्रत्यक्ष फलदः सर्वदा क्रियते नरैः ।।
कर्तुमिच्छाम्यहं मातरनुज्ञातुं त्वमर्हसि ।। १२ ।।
रात्रि में देर से लौटने के कारण माता ने उससे डाँटते हुए पूछा कि ‘बेटी ! इतनी रात तक तुम कहाँ रही ?’ इस पर उसने उसे प्रसाद देते हुए सत्यनारायण के पूजा-वृतान्त को बताया और कहा — ‘माँ ! मैंने वहाँ सुना कि भगवान् सत्यनारायण कलियुग में प्रत्यक्ष फल देनेवाले हैं, उनकी पूजा मनुष्यगण सदा करते हैं । माँ ! मैं भी उनकी पूजा करना चाहती हूँ, तुम मुझे आज्ञा प्रदान करो ।
देशमायातु जनकः स्वामी च मम कामना ।।
रात्रौ निश्चित्य मनसा प्रभाते सा कलावती ।। १३ ।।
शीलपालस्य गुप्तस्य गेहे प्राप्ता धनार्थिनी ।।
बंधो किंचिद्धनं देहि येन सत्यार्चनं भवेत् ।। १४ ।।
मेरे पिता और स्वामी अपने घर आ जायें, यही मेरी कामना है ।’ रात में ऐसा मन में निश्चयकर प्रातः वह कलावती शीलपाल नामक एक वणिक् के घर पर धन प्राप्त करने की इच्छा से गयी और उसने कहा — ‘बन्धो ! थोडा धन दें, जिससे मैं भगवान् सत्यनारायण की पूजा कर सकूँ ।’
इति श्रुत्वा शीलपालः पंचनिष्कं धनं ददौ ।।
त्वत्पितुश्च ऋणं शेषं मयीत्येव कलावति ।। १५ ।।
यह सुनकर शीलपाल ने उसे पाँच अशर्फियाँ दीं और कहा — ‘कलावती ! तुम्हारे पिता का कुछ ऋण शेष था, मैं उन्हें ही वापस कर रहा हूँ, इसे देकर आज मैं उऋण हो गया ।’
इत्युक्त्वा सोऽनृणो भूत्वा गयाश्राद्धाय संययौ ।।
सुतापि तेन द्रव्येण कृतं सत्यार्चनं शुभम् ।। १६ ।।
लीलावती सह तया भक्त्याकार्षीत्प्रपूजनम्।।
पूजनेन विशेषेण तुष्टो नारायणोऽभवत्।।१७।।
यह कहकर शीलपाल गया-तीर्थ में श्राद्ध करने चला गया । कन्या ने अपनी माँ लीलावती के साथ उस द्रव्य से कल्याणप्रद सत्यनारायण-व्रत का श्रद्धा-भक्ति से विधिपूर्वक अनुष्ठान किया । इससे सत्यनारायण भगवान् संतुष्ट हो गये ।
नर्मदातीरनगरे नृपः सुष्वाप मंदिरे ।।
रात्रिशेषे सुपर्यंके निद्रां कुर्वति राजनि ।।
उवाच विप्ररूपेण बोधयञ्छ्लक्ष्णया गिरा ।। १८ ।।
उधर नर्मदा-तटवासी राजा अपने राजमहल में सो रहा था । रात्रि के अन्तिम प्रहर में ब्राह्मण-वेशधारी भगवान् सत्यनारायण स्वप्न में उससे कहा —
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ राजेन्द्र तौ साधू परिमोचय ।।
अपराधं विना बद्धौ नो चेच्छं न भवेत्तव ।। १९ ।।
इत्येवं भूपतिश्चैव विप्ररूपेण बोधितः ।।
तदा ह्यन्तर्दधे विष्णु र्विनिद्रो नृपतिस्तदा ।। २० ।।
‘राजन ! तुम शीघ्र उठकर उन निर्दोष वणिकों को बन्धनमुक्त कर दो । वे दोनों बिना अपराध के ही बंदी बना लिये गये हैं । यदि तुम ऐसा नहीं करोगे तो तुम्हारा कल्याण नहीं होगा ।’ इतना कहकर वे अन्तर्हित हो गये । राजा निद्रा से सहसा जग उठा ।
विस्मितः सहसोत्थाय दध्यौ ब्रह्म सनातनम् ।।
सभायां मंत्रिणे राजा स्वप्नहेतुं न्यवेदयत् ।। २१ ।।
महामन्त्री च भूपालं प्राह सत्येन भो द्विज ।।
मयापि दर्शितं स्वप्नं वृद्धविप्रेण बोधितम् ।।
अतस्तौ हि समानीय संपृच्छ विधिवन्नृप ।। २२ ।।
आनीय साधुं पप्रच्छ सत्यमालंब्य भूपतिः ।।
कुत्रत्यौ वां कुलं किं वा वसतिः कस्य वा पुरे ।। २३ ।।
वह परमात्मा का स्मरण करने लगा । प्रातःकाल राजा अपनी सभा में आया और उसने अपने मन्त्री से देखे गये स्वप्न का फल पूछा । महामन्त्री ने भी राजा से कहा — ‘राजन ! बड़े आश्चर्य की बात हैं, मुझे भी आज ऐसा ही स्वप्न दिखलायी पड़ा । अतः उस वणिक् और उसके जामाता को बुलाकर पूछ-ताछ कर लेनी चाहिये ।’ राजा ने उन दोनों को बंदी-गृह से बुलवाया और पूछा — ‘तुम दोनों कहाँ रहते हो और तुम कौन हो ?’
।। साधुरुवाच ।। ।।
रम्ये रत्नपुरे वासो वणिग्जातौ जनिर्मम ।।
वाणिज्यार्थं महाराज वाणिज्यं जीविकावयोः ।। २४ ।।
मणिमुक्तादि विक्रेतुं क्रेतुं वा तव पत्तने ।।
प्राप्तौ दूतैश्च बद्ध्वावां त्वत्समीपमुपागतौ ।। २५ ।।
प्रतिकूले विधौ को वा दशां नाप्नोति वै पुमान् ।।
विनापराधं राजेन्द्र मणिचौरानवादयन् ।। २६ ।।
आवां न चौरो राजेंद्र तत्त्वतस्त्वं विचारय ।।
श्रुत्वा तन्निश्चयं ज्ञात्वा तयोर्बंधनकारणम् ।। २७ ।।
इस पर साधु वणिक् ने कहा — ‘राजन ! मैं रत्नपुर का निवासी एक वणिक् हूँ । मैं व्यापार करने के लिये यहाँ आया था । पर दैववश आपके सेवकों ने हमें चोर समझकर पकड़ लिया । साथ में यह मेरा जामाता है । बिना अपराध के ही हमें मणि-मुक्ता की चोरी लगी है । राजेन्द्र ! हम दोनों चोर नहीं हैं । आप भली-भाँति विचार कर लें ।’
छेदयित्वा दृढं पाशं लोमशातिमकारयत् ।।
कारयित्वा परिष्कारं भोजयामास तौ नृपः ।। २८ ।।
नगरे पूजयामास वस्त्राभूषणवाहनैः ।।
अब्रवीत्पूजितः साधुर्भूपतिं विनयान्वितः ।। २९ ।।
कारागारे बहुविधं प्राप्तं दुःखमतः परम् ।।
आज्ञापय महाराज देशं गंतुं कृपानिधे ।। ३० ।।
उसकी बातें सुनकर राजा को बड़ा पश्चाताप हुआ । उन्होंने उन्हें बन्धनमुक्त कर दिया । अनेक प्रकार से उन्हें अलंकृत कर भोजन कराया और वस्त्र, आभूषण आदि देकर उनका सम्मान किया । साधु वणिक् ने कहा — ‘राजन ! मैंने कारागार में अनेक कष्ट भोगे हैं, अब मैं अपने नगर जाना चाहता हूँ, आप मुझे आज्ञा दें ।’
श्रुत्वा साधुवचो राजा प्राह कोशाधिकारिणम् ।।
मुद्राभिस्तरणीः सद्यः पूरयाशु मदाज्ञया ।। ३१ ।।
जामात्रा सहितः साधुर्गीतवादित्रमंगलैः ।।
स्वदेशं चलितोऽद्यापि न चक्रे हरिसेवनम्।। ३२ ।।
इस पर राजा ने कोषाध्यक्ष के माध्यम से साधु वणिक् की नौका रत्नों आदि से परिपूर्ण करवा दी । फिर वह साधु वणिक् अपने जामाता के साथ राजा द्वारा सम्मानित हो द्विगुणित धन लेकर रत्नपुर की ओर चला । साधु वणिक् ने अपने नगर के लिये प्रस्थान किया, पर भगवान् सत्यनारायण का पूजन वह उस समय भी भूल गया ।
सत्यनारायणो देवः प्रत्यक्षफलदः कलौ ।।
स एव तापसो भूत्वा चक्रे साधुविडंबनम् ।। ३३ ।।
।। तापस उवाच ।। ।।
धर्मः किं नौषु ते साधो मामनादृत्य यासि भोः ।।
प्रत्युत्तरमदात्साधुः क्षिप नौकाश्च सत्वरम् ।। ३४ ।।
भोः स्वामिन्मे धनं नास्ति लतापत्रादिपूरितम् ।।
नौभिर्गच्छामि स्वस्थानं विरोधे नात्र किं फलम् ।। ३५ ।।
भगवान् सत्यदेव ने जो कलियुग में तत्काल फल देते हैं, पुनः तपस्वी का रूप धारणकर वहाँ आकर उससे पुछा — ‘साधो ! तुम्हारी इस नौका में क्या है ?’ इस पर साधु वणिक् ने उत्तर दिया — ‘आपको देने के लिये कुछ भी धन मेरे पास नहीं है । नाव में केवल कुछ लताओं के पत्ते भरे पड़े हैं ।’ साधु वणिक् के ऐसा कहने पर तपस्वी ने कहा — ‘ऐसा ही होगा ।’
इत्युक्तस्तापसः प्राह तथास्त्विति वचः क्षणात् ।।
धनमंतर्दधे साधोर्लतापत्रावशेषितम् ।। ३६ ।।
धनं नौकासु नास्तीति साधुश्चिंतातुरोऽभवत् ।।
किमिदं कस्य वा हेतोर्धनं कुत्र गतं मम ।। ३७ ।।
वज्रपाताहत इव भृशं दुःखितमानसः ।।
क्व यास्यामि क्व तिष्ठामि किं करोमि धनं कुतः ।। ३८ ।।
इतना कहकर तपस्वी अन्तर्धान हो गये । उनके ऐसा कहते ही नौका में धन के बदले केवल पत्ते ही दीखने लगे । यह सब देखकर साधु अत्यन्त चकित एवं चिन्तित हो गया, उसे मूर्च्छा-सी आ गयी । वह अनेक प्रकार से विलाप करने लगा । वज्रपात होने के समान वह स्तब्ध होकर सोचने लगा कि मैं अब क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? मेरा धन कहाँ चला गया ?
इति मूर्छागतः साधुर्विललाप पुनःपुनः ।।
जामात्रा बोधितः पश्चात्तापसं तं जगाम ह ।। ३९ ।।
गले वसनमादाय प्रणनाम स तापसम् ।।
को भवानिति पप्रच्छ देवो गंधर्व ईश्वरः।।४०।।
देवदेवोऽथवा कोऽपि न जाने तव विक्रमम् ।।
आज्ञापय महाभाग तद्विडम्बनकारणम् ।। ४१ ।।
जामाता के समझाने बुझाने पर इसे तपस्वी का शाप समझकर वह पुनः उन्हीं तपस्वी की शरण में गया और गले ने कपड़ा लपेटकर उस तपस्वी को प्रणाम कर कहा — ‘महाभाग ! आप कौन हैं ? कोई गन्धर्व हैं या देवता हैं या साक्षात परमात्मा हैं ? प्रभो ! मैं आपकी महिमा को लेशमात्र भी नहीं जानता । आप मेरे अपराधों को क्षमा कर दें और मेरी नौका के धन को पुनः पूर्ववत् कर दे ।’
।। तापस उवाच ।। ।।
आत्मा चैवात्मनः शत्रुस्तथात्र च प्रियोऽप्रियः ।।
त्यज मौढ्यमति साधो प्रवादं मा वृथा कृथाः ।।४२।।
इति विज्ञापितः साधुर्न बुबोध महाधनः ।।
पुनः स तापसः प्राह कृपया पूर्वकर्मतः।।४३।।
चंद्रचूडो यदानर्च सत्यनारायणं नृपः ।।
अनपत्येन सुचिरं पुत्रकन्यार्थिना त्वया ।। ४४ ।।
प्रार्थितं न स्मृतं ह्येव इदानीं तप्यसे वृथा ।।
सत्यनारायणो देवो विश्वव्यापी फलप्रदः ।।४५।।
तमनादृत्य दुर्बुद्धे कुतः सम्यग्भवेत्तव ।।
पुरालब्धवरं स्मृत्वा सस्मार जगदीश्वरम् ।। ४६ ।।
इस पर तपस्वी-रूप भगवान् सत्यनारायण ने कहा कि तुमने चन्द्रचूड राजा के सत्यनारायण के मण्डप में ‘संतति के प्राप्त होने पर भगवान् सत्यदेव की पूजा करूँगा’ – ऐसी प्रतिज्ञा की थी । तुम्हे कन्या प्राप्त हुई, उसका विवाह भी तुमने किया, व्यापार से धन भी प्राप्त किया, बंदी-गृह से तुम मुक्त भी हो गये, पर तुमने भगवान् सत्यनारायण की पूजा कभी नहीं की । इससे मिथ्था-भाषण, प्रतिज्ञा-लोप और देवता की अवज्ञा आदि अनेक दोष हुए, तुम भगवान् का स्मरण तक भी नहीं करते । इसी कारण हे मूढ़ ! तुम कष्ट भोग रहे हो । सत्यनारायण भगवान् सर्वव्यापी हैं, वे सभी फलों को देनेवाले हैं । उनका अनादर कर तुम कैसे सुख प्राप्त कर सकते हो । तुम भगवान् को याद करो, उनका स्मरण करो ।’
सत्यनारायणं देवं तापसं तं ददर्श ह ।।
प्रणम्य भुवि कायेन परिक्रम्य पुनःपुनः ।।
तुष्टाव तापसं तत्र साधुर्गद्गदया गिरा ।। ४७ ।।
इस पर साधु वणिक् को भगवान् सत्यनारायण का स्मरण हो आया और वह पश्चाताप करने लगा । उसके देखते-ही-देखते वहाँ वे तपस्वी भगवान् सत्यनारायण रूप में परिवर्तित हो गये और तब वह उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगा –
।। साधुरुवाच ।। ।।
सत्यरूपं सत्यसंधं सत्यनारायणं हरिम् ।।
यत्सत्यत्वेन जगतस्तं सत्यं त्वां नमाम्यहम् ।। ४८ ।।
त्वन्मायामोहितात्मानो न पश्यंत्यात्मनः शुभम् ।।
दुःखांभोधौ सदा मग्ना दुःखे च सुखमानिनः ।। ४९ ।।
मूढोऽहं धनगर्वेण मदांधीकृतलोचनः ।।
न जाने स्वात्मनः क्षेमं कथं पश्यामि मूढधीः ।।५० ।।
क्षमस्व मम दौरात्म्यं तपो धाम्ने हरे नमः।।
आज्ञापयात्मदास्यं मे येन ते चरणौ स्मरे ।। ५१ ।।
‘सत्यस्वरुप, सत्यसंध, सत्यनारायण भगवान् हरि को नमस्कार है । जिस सत्य से जगत की प्रतिष्ठा है, उस सत्यस्वरूप आपको बार-बार नमस्कार है । भगवन ! आपकी माया से मोहित होने के कारण मनुष्य आपके स्वरुप को जान नहीं पाता और इस दुःखरूपी संसार-समुद्र को सुख मानकर उसी में लिप्त रहता है । धन के गर्व से मैं मूढ़ होकर मदान्धकार से कर्तव्य और अकर्तव्य की दृष्टि से शून्य हो गया । मैं अपने कल्याण को भी नहीं समझ पा रहा हूँ । मेरे दौरात्म्य-भाव के लिये आप क्षमा करें । हे तपोनिधे ! आपको नमस्कार है । कृपासागर ! आप मुझे अपने चरणों का दास बना लें, जिससे मुझे आपके चरणकमलों का नित्य स्मरण होता रहे ।’
इति स्तुत्वा लक्षमुद्राः स्थापिताः स्वपुरोधसि ।।
गत्वावासं पूजयिष्ये सत्यनारायणं प्रभुम् ।।५२।।
इस प्रकार स्तुति कर उस साधु वणिक् ने एक लाख मुद्रा से पुरोहित के द्वारा घर आकर सत्यनारायण की पूजा करने के लिये प्रतिज्ञा की ।
तुष्टो नारायणः प्राह वांछा पूर्णा भवेत्तु ते ।।
पुत्रपौत्रसमायुक्तो भुक्त्वा भोगांस्त्वनुत्तमान् ।।
अंते सांनिध्यमासाद्य मोदसे त्वं मया सह ।।५३।।
इत्युक्त्वान्तर्दधे विष्णुः साधुश्च स्वाश्रमं ययौ ।।
सप्ताहेन गृहं प्राप्तः सत्यदेवेन रक्षितः ।। ५४ ।।
आगत्य नगराभ्याशे प्राहि णोद्द्रुतमाश्रमम् ।।
गृहमागत्य दूतोपि प्राह लीलावतीं प्रति ।। ५५ ।।
इस पर भगवान् ने प्रसन्न होकर कहा — ‘वत्स ! तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी, तुम पुत्र-पौत्र से समन्वित होकर श्रेष्ठ भोगों को भोगकर मेरे सत्यलोक को प्राप्त करोगे और मेरे साथ आनन्द प्राप्त करोगे ।’ यह कहकर भगवान् सत्यनारायण अन्तर्हित हो गये और साधु ने पुनः अपनी यात्रा प्रारम्भ की । सत्यदेव भगवान् से रक्षित हो वह साधु वणिक् एक सप्ताह में नगर के समीप पहुँच गया और उसने अपने आगमन का समाचार देने के लिये घर पर दूत भेजा । दूत ने घर आकर साधु वणिक् की स्त्री लीलावती से कहा —
जामात्रा सहितः साधुः कृतकृत्यः समागतः ।।
सत्यनारायणार्चायां स्थिता साध्वी सकन्यका ।। ५६ ।।
‘जामाता के साथ सफल-मनोरथ साधु वणिक् आ रहे हैं ।’ वह साध्वी लीलावती कन्या के साथ सत्यनारायण भगवान् की पूजा कर रही थी ।
पूजाभारं सुतायै सा दत्त्वा नौकांतिकं ययौ ।।
सखीगणैः परिवृता कृतकौतुकमंगला ।। ५७ ।।
कलावती त्ववज्ञाय प्रसादं सत्वरा ययौ ।।
पातुं पतिमुखांभोजं चकोरीव दिनात्यये ।। ५८ ।।
पति के आगमन को सुनकर उसने पूजा वहीं पर छोड़ दी और पूजा का शेष दायित्व अपनी पुत्री को सौपकर वह शीघ्रता से नौका के समीप चली आयी । इधर कलावती भी अपनी सखियों के साथ सत्यनारायण की जैसे-तैसे पूजा समाप्तकर बिना प्रसाद लिये ही अपने पति को देखने के लिये उतावली हो नौका की ओर चली गयी ।
अवज्ञानात्प्रसादस्य नौकाशंखपतेरथ ।।
निमग्ना जलमध्ये तु जामात्रा सह तत्क्षणात् ।। ५९ ।।
मग्नं जामातरं पश्यन्विललाप स मूर्च्छितः ।।
लीलावती तु तद्दृष्ट्वा मूर्च्छिता विललाप ह ।। ६० ।।
ततः कलावती दृष्ट्वा पपात भुवि मूर्च्छिता ।।
रंभेव वातविहता कान्तकान्तेतिवादिनी ।। ६१ ।।
भगवान् सत्यनारायण के प्रसाद के अपमान से जामाता सहित साधु वणिक् की नौका जल के मध्य अलक्षित हो गयी । यह देखकर सभी दुःख में निमग्न हो गये । साधु वणिक् भी मुर्च्छित हो गया । कलावती भी यह देखकर मुर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी और उसका सारा शरीर आँसुओं से भीग गया । वह हवा के वेग से हिलते हुए केले के पत्ते के समान काँपने लगी ।
हा नाथ प्रिय धर्मज्ञ करुणाकरकौशल ।।
त्वया विरहिता पत्या निराशा विधिना कृता ।।
पत्युरर्द्धं गतं कस्मादर्द्धांगं जीवनं कथम्।। ६२ ।।
हा नाथ ! हा कान्त ! कहकर विलाप करने लगी और कहने लगी – ‘हे विधाता ! आपने मुझे पति से वियुक्त कर मेरी आशा तोड़ दी । पति के बिना स्त्री का जीवन अधूरा एवं निष्फल है ।’
।। सूत उवाच ।। ।।
कलावती चारुकलासु कौशला प्रवालरक्तांघ्रितलातिकोमला ।।
सरोजनेत्रांबुकणान्विमुंचती मुक्तावलीभिस्तनकुड्मलांचिता ।। ६३ ।।
हा सत्यनारायण सत्यसिंधो मग्नं हि मामु द्धर तद्वियोगे ।।
श्रुत्वार्तशब्दं भगवानुवाच वचस्तदाकाशसमुद्भवं च ।। ६४ ।।
कलावती आर्तस्वर में भगवान् सत्यनारायण से बोली — ‘हे सत्यसिंधो ! हे भगवान् सत्यनारायण ! मैं अपने पति के वियोग में जल में डूबनेवाली हूँ, आप मेरे अपराधों को क्षमा करें । पति को प्रकट कर मेरे प्राणों की रक्षा करें ।’ (इस प्रकार जब वह अपने पति के पादुकाओं को लेकर जल में प्रवेश करनेवाली ही थी) उसी समय आकाशवाणी हुई —
साधो कलावती क्षिप्रं मत्प्रसादं हि भोजयेत् ।।
तत्पश्चादिह संप्राप्य पतिं प्राप्स्यति मा शुचः ।। ६५ ।।
‘हे साधो ! तुम्हारी पुत्री ने मेरे प्रसाद का अपमान किया है । यदि वह पुनः घर जाकर श्रद्धापूर्वक प्रसाद को ग्रहण कर ले तो उसका पति नौका सहित वहाँ अवश्य दीखेगा, चिन्ता मत करो ।’
इत्याकाशे वचः श्रुत्वा विस्मिता तच्चकार सा ।।
नारायणस्य कृपया पतिं प्राप्ता कलावती ।। ६६ ।।
तत्रैव साधुः साह्लादो भक्त्या परमया युतः ।।
पूजनं लक्षमुद्राभिः सत्यदेवस्य चाकरोत् ।। ६७ ।।
तेन व्रतप्रभावेन पुत्रपौत्रसमन्वितः ।।
भुक्त्वा भोगान्मुदा युक्तो मृतः स्वर्गपुरं ययौ ।। ६८ ।।
इस पर आश्चर्यचकित हो कलावती ने वैसा ही किया और उसे उसका पति पुनः अपनी नौका सहित दीखने लगा । फिर क्या था ? सभी परस्पर आनन्द से मिले और घर आकर साधु वणिक् ने एक लाख मुद्राओं से बड़े समारोह पूर्वक भगवान् सत्यदेव की पूजा की और आनन्द से रहने लगा । पुनः कभी भगवान सत्यदेव की उपेक्षा नहीं की । उस व्रत के प्रभाव से पुत्र-पौत्र-समन्वित अनेक भोगों का उपभोग करते हुए सभी स्वर्गलोक चले गये ।
इतिहासमिमं भक्त्या शृणुयाद्यो हि मानवः ।।
सोऽपि विष्णुप्रियतरः कामसिद्धिमवाप्नुयात् ।। ।। ६९ ।।
इति ते कथितं विप्र व्रतानामुत्तमं व्रत।।
कलिकाले परं पुण्यं ब्राह्मणस्य मुखोद्भवम् ।। ७० ।।
इस इतिहास को जो मनुष्य भक्तिपूर्वक सुनता है, वह भी विष्णु का अत्यन्त प्रिय हो जाता है । अपनी मनःकामना की सिद्धि प्राप्त कर लेता है । सूतजी बोले – ऋषिगणों ! मैंने सभी व्रतों में श्रेष्ठ इस सत्यनारायण-व्रत को कहा । ब्राह्मण के मुख से निकला हुआ यह व्रत कलिकाल में अतिशय पुण्यप्रद है ।
इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गं पर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये सत्यनारायणव्रतमाहात्म्यवर्णनं नामैकोनत्रिंशोऽध्यायः।।२९।।
इतिश्री भविष्यपुराण अंतर्गत ‘सत्यनारायण व्रत – कथा’ का षष्टम अध्याय (अध्याय २९) पूर्ण हुआ।
भविष्यपुराण अंतर्गत ‘सत्यनारायण व्रत – कथा’ पूर्ण हुआ।