शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता प्रथम-सृष्टिखण्ड – अध्याय 16 || Shiv Mahapuran Dvitiy Rudra Samhita Pratham Srishti Khanda Adhyay 16
इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय 15 पढ़ा, अब शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 16 सोलहवाँ अध्याय ब्रह्माजी की सन्तानों का वर्णन तथा सती और शिव की महत्ता का प्रतिपादन।
शिवपुराणम्/संहिता २ (रुद्रसंहिता)/खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)/अध्यायः १६
शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [प्रथम-सृष्टिखण्ड] – अध्याय 16
शिवपुराणम् | संहिता २ (रुद्रसंहिता) | खण्डः १ (सृष्टिखण्डः)
ब्रह्मोवाच ।।
शब्दादीनि च भूतानि पंचीकृत्वाहमात्मना ।।
तेभ्यः स्थूलं नभो वायुं वह्निं चैव जलं महीम् ।। १ ।।
पर्वतांश्च समुद्रांश्च वृक्षादीनपि नारद ।।
कलादियुगपर्येतान्कालानन्यानवासृजम् ।। २ ।।
ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! तदनन्तर मैंने शब्द आदि सूक्ष्मभूतों का स्वयं ही पंचीकरण करके उनसे स्थूल आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी की सृष्टि की । पर्वतों, समुद्रों, वृक्षों और कला से लेकर युगपर्यन्त कालों की रचना की ॥ १-२ ॥
सृष्ट्यंतानपरांश्चापि नाहं तुष्टोऽभव न्मुने ।।
ततो ध्यात्वा शिवं साम्बं साधकानसृजं मुने ।। ३ ।।
मुने ! उत्पत्ति और विनाशवाले और भी बहुत से पदार्थों का मैंने निर्माण किया, परंतु इससे मुझे सन्तोष नहीं हुआ । तब साम्बशिव का ध्यान करके मैंने साधनापरायण पुरुषों की सृष्टि की ॥ ३ ॥
मरीचिं च स्वनेत्राभ्यां हृदयाद्भृगुमेव च ।।
शिरसोऽगिरसं व्यानात्पुलहं मुनिसत्तमम् ।। ४ ।।
उदानाच्च पुलस्त्यं हि वसिष्ठञ्च समानतः ।।
क्रतुं त्वपानाच्छ्रोत्राभ्यामत्रिं दक्षं च प्राणतः ।। ५ ।।
असृजं त्वां तदोत्संगाच्छायायाः कर्दमं मुनिम् ।।
संकल्पादसृजं धर्मं सर्वसाधनसाधनम् ।।६।।
अपने दोनों नेत्रों से मरीचि को, हृदय से भृगु को, सिर से अंगिरा को, व्यानवायु से मुनिश्रेष्ठ पुलह को, उदानवायु से पुलस्त्य को, समानवायु से वसिष्ठ को, अपान से क्रतु को, दोनों कानों से अत्रि को, प्राणवायु से दक्ष को, गोद से आपको तथा छाया से कर्दम मुनि को उत्पन्न किया और संकल्प से समस्त साधनों के साधनरूप धर्म को उत्पन्न किया ॥ ४-६ ॥
एवमेतानहं सृष्ट्वा कृतार्थस्साधकोत्तमान् ।।
अभवं मुनिशार्दूल महादेवप्रसादतः ।। ७ ।।
हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार महादेवजी की कृपा से इन उत्तम साधकों की सृष्टि करके मैंने अपने-आपको कृतार्थ समझा ॥ ७ ॥
ततो मदाज्ञया तात धर्मः संकल्पसंभवः ।।
मानवं रूपमापन्नस्साधकैस्तु प्रवर्तितः ।।८।।
हे तात ! तत्पश्चात् संकल्प से उत्पन्न हुआ धर्म मेरी आज्ञा से मानवरूप धारण करके उत्तम साधकों के द्वारा आगे प्रवर्तित हुआ ॥ ८ ॥
ततोऽसृजं स्वगात्रेभ्यो विविधेभ्योऽमितान्सुतान् ।।
सुरासुरादिकांस्तेभ्यो दत्त्वा तां तां तनुं मुने ।।९।।
हे मुने ! इसके बाद मैंने अपने विभिन्न अंगों से देवता, असुर आदि असंख्य पुत्रों की सृष्टि की और उन्हें भिन्न-भिन्न शरीर प्रदान किया ॥ ९ ॥
ततोऽहं शंकरेणाथ प्रेरितोंऽतर्गतेन ह ।।
द्विधा कृत्वात्मनो देहं द्विरूपश्चाभवं मुने ।। १० ।।
हे मुने ! तदनन्तर अन्तर्यामी भगवान् शंकर की प्रेरणा से अपने शरीर को दो भागों में विभक्त करके मैं दो रूपोंवाला हो गया ॥ १० ॥
अर्द्धेन नारी पुरुषश्चार्द्धेन संततो मुने ।
स तस्यामसृजद्द्वंद्वं सर्वसाधनमुत्तमम् ।।११।।
हे नारद ! आधे शरीर से मैं स्त्री हो गया और आधे से पुरुष । उस पुरुष ने उस स्त्री के गर्भ से सर्वसाधनसमर्थ उत्तम जोडे को उत्पन्न किया ॥ ११ ॥
स्वायंभुवो मनुस्तत्र पुरुषः परसाधनम् ।।
शतरूपाभिधा नारी योगिनी सा तपस्विनी ।। १२ ।।
उस जोड़े में जो पुरुष था, वही स्वायम्भुव मनु के नाम से प्रसिद्ध हुआ । स्वायम्भुव मनु उच्चकोटि के साधक हुए तथा जो स्त्री थी, वह शतरूपा कहलायी । वह योगिनी एवं तपस्विनी हुई ॥ १२ ॥
सा पुनर्मनुना तेन गृहीतातीव शोभना ।।
विवाहविधिना ताताऽसृजत्सर्गं समैथुनम् ।। १३ ।।
हे तात ! मनु ने वैवाहिक विधि से अत्यन्त सुन्दरी शतरूपा का पाणिग्रहण किया और उससे वे मैथुनजनित सृष्टि उत्पन्न करने लगे ॥ १३ ॥
तस्यां तेन समुत्पन्नस्तनयश्च प्रियव्रतः ।।
तथैवोत्तानपादश्च तथा कन्यात्रयं पुनः।।१४।।
आकूतिर्देवहूतिश्च प्रसूतिरिति विश्रुताः ।।
आकूतिं रुचये प्रादात्कर्दमाय तु मध्यमाम् ।।१५।।
ददौ प्रसूतिं दक्षायोत्तानपादानुजां सुताः ।।
तासां प्रसूतिप्रसवैस्सर्वं व्याप्तं चराचरम् ।।१६।।
उन्होंने शतरूपा से प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र और तीन कन्याएँ उत्पन्न कीं । कन्याओं के नाम थे — -आकूति, देवहूति और प्रसूति । मनु ने आकूति का विवाह प्रजापति रुचि के साथ किया, मझली पुत्री देवहूति कर्दम को ब्याह दी और उत्तानपाद की सबसे छोटी बहन प्रसूति प्रजापति दक्ष को दे दी । उनमें प्रसूति की सन्तानों से समस्त चराचर जगत् व्याप्त है ॥ १४–१६ ॥
आकूत्यां च रुचेश्चाभूद्वंद्वं यज्ञश्च दक्षिणा ।।
यज्ञस्य जज्ञिरे पुत्रा दक्षिणायां च द्वादश ।। १७ ।।
रुचि के द्वारा आकूति के गर्भ से यज्ञ और दक्षिणा नामक स्त्री-पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ । यज्ञ से दक्षिणा के गर्भ से बारह पुत्र हुए ॥ १७ ॥
देवहूत्यां कर्दमाच्च बह्व्यो जातास्सुता मुने ।।
दशाज्जाताश्चतस्रश्च तथा पुत्र्यश्च विंशतिः ।। १८ ।।
हे मुने ! कर्दम द्वारा देवहूति के गर्भ से बहुत-सी पुत्रियाँ उत्पन्न हुईं । दक्ष से चौबीस कन्याएँ हुईं ॥ १८ ॥
धर्माय दत्ता दक्षेण श्रद्धाद्यास्तु त्रयोदश ।।
शृणु तासां च नामानि धर्मस्त्रीणां मुनीश्वर।।१९।।
दक्ष ने उनमें से श्रद्धा आदि तेरह कन्याओं का विवाह धर्म के साथ कर दिया । हे मुनीश्वर ! धर्म की उन पत्नियों के नाम सुनिये ॥ १९ ॥
श्रद्धा लक्ष्मीर्धृतिस्तुष्टिः पुष्टिर्मेधा तथा क्रिया ।।
वसुःर्बुद्धि लज्जा शांतिः सिद्धिः कीर्तिस्त्रयोदश ।।२०।।
श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वसु, शान्ति, सिद्धि और कीर्ति — ये सब तेरह हैं ॥ २० ॥
ताभ्यां शिष्टा यवीयस्य एकादश सुलोचनाः ।।
ख्यातिस्सत्पथसंभूतिः स्मृतिः प्रीतिः क्षमा तथा।।२१।।
सन्नतिश्चानुरूपा च ऊर्जा स्वाहा स्वधा तथा ।।
भृगुर्भवो मरीचिश्च तथा चैवांगिरा मुनिः ।। २२ ।।
पुलस्त्यः पुलहश्चैव क्रतुश्चर्षिवरस्तथा ।।
अत्रिर्वासिष्ठो वह्निश्च पितरश्च यथाक्रमम् ।। २३ ।।
ख्यातास्ता जगृहुः कन्या भृग्वाद्यास्साधका वराः ।।
ततस्संपूरितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।। २४ ।।
इनसे छोटी शेष ग्यारह सुन्दर नेत्रोंवाली कन्याएँ ख्याति, सत्पथा, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्नति, अनसूया, ऊर्जा, स्वाहा तथा स्वधा थीं । भृगु, भव, मरीचि, मुनि अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, मुनिश्रेष्ठ क्रतु, अत्रि, वसिष्ठ, वह्नि और पितरों ने क्रमशः इन ख्याति आदि कन्याओं का पाणिग्रहण किया । भृगु आदि मुनि श्रेष्ठ साधक हैं । इनकी सन्तानों से समस्त त्रैलोक्य भरा हुआ है ॥ २१-२४ ॥
एवं कर्मानुरूपेण प्रणिनामंबिकापते।।
आज्ञया बहवो जाता असंख्याता द्विजर्षभाः ।।२५।।
इस प्रकार अम्बिकापति महादेवजी की आज्ञा से प्राणियों के अपने पूर्वकर्मों के अनुसार असंख्य श्रेष्ठ द्विज उत्पन्न हुए ॥ २५ ॥
कल्पभेदेन दक्षस्य षष्टिः कन्याः प्रकीर्तिताः ।।
तासां दश च धर्माय शशिने सप्तविंशतिम् ।।२६।।
विधिना दत्तवान्दक्षः कश्यपाय त्रयोदश ।।
चतस्रः पररूपाय ददौ तार्क्ष्याय नारद।।२७।।
भृग्वंगिरः कृशाश्वेभ्यो द्वे द्वे कन्ये च दत्तवान् ।।
ताभ्यस्तेभ्यस्तु संजाता बह्वी सृष्टिश्चराचरा ।।२८।।
कल्पभेद से दक्ष की साठ कन्याएँ बतायी गयी हैं । दक्ष ने उनमें से दस कन्याएँ धर्म को, सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमा को और तेरह कन्याएँ कश्यप को विधिपूर्वक प्रदान कर दी । हे नारद ! उन्होंने चार कन्याओं का विवाह श्रेष्ठ रूपवाले तार्थ्य के साथ कर दिया । उन्होंने भृगु, अंगिरा और कृशाश्व को दो-दो कन्याएँ अर्पित कीं । उन-उन स्त्रियों तथा पुरुषों से बहुत-सी चराचर सृष्टि हुई ॥ २६-२८ ॥
त्रयोदशमितास्तस्मै कश्यपाय महात्मने ।।
दत्ता दक्षेण याः कन्या विधिवन्मुनिसत्तम ।। २९ ।।
तासां प्रसूतिभिर्व्याप्तं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।।
स्थावरं जंगमं चैव शून्य नैव तु किंचन ।। ३० ।।
हे मुनिश्रेष्ठ ! दक्ष ने महात्मा कश्यप को जिन तेरह कन्याओं का विधिपूर्वक दान किया था, उनकी सन्तानों से सारा त्रैलोक्य व्याप्त हो गया । स्थावर और जंगम कोई भी सृष्टि ऐसी नहीं, जो उनकी सन्तानों से शून्य हो ॥ २९-३० ॥
देवाश्च ऋषयश्चैव दैत्याश्चैव प्रजज्ञिरे ।।
वृक्षाश्च पक्षिणश्चैव सर्वे पर्वतवीरुधः ।। ३१ ।।
दक्षकन्याप्रसूतैश्च व्याप्तमेवं चराचरम् ।।
पातालतलमारभ्य सत्यलोकावधि ध्रुवम् ।। ३२ ।।
ब्रह्मांडं सकलं व्याप्तं शून्यं नैव कदाचन ।।
एवं सृष्टिः कृता सम्यग्ब्रह्मणा शंभुशासनात् ।। ३३ ।।
देवता, ऋषि, दैत्य, वृक्ष, पक्षी, पर्वत तथा तृणलता आदि सभी [कश्यपपत्नियों से] पैदा हुए । इस प्रकार दक्ष-कन्याओं की सन्तानों से सारा चराचर जगत् व्याप्त हो गया । पाताल से लेकर सत्यलोकपर्यन्त समस्त ब्रह्माण्ड निश्चय ही [उनकी सन्तानों से] सदा भरा रहता है, कभी रिक्त नहीं होता । इस प्रकार भगवान् शंकर की आज्ञा से ब्रह्माजी ने भली-भाँति सृष्टि की ॥ ३१-३३ ॥
सती नाम त्रिशूलाग्रे सदा रुद्रेण रक्षिता ।।
तपोर्थं निर्मिता पूर्वं शंभुना सर्वविष्णुना ।। ३४ ।।
सैव दक्षात्समुद्भूता लोककार्यार्थमेव च ।।
लीलां चकार बहुशो भक्तोद्धरणहेतवे।। ।। ३५ ।।
पूर्वकाल में सर्वव्यापी शम्भु ने जिन्हें तपस्या के लिये प्रकट किया था, रुद्रदेव के रूप में उन्होंने त्रिशूल के अग्रभाग पर रखकर उनकी सदा रक्षा की । वे ही सती देवी लोकहित का कार्य सम्पादित करने के लिये दक्ष से प्रकट हुईं । उन्होंने भक्तों के उद्धार के लिये अनेक लीलाएँ कीं ॥ ३४-३५ ॥
वामांगो यस्य वैकुंठो दक्षिणांगोऽहमेव च ।।
रुद्रो हृदयजो यस्य त्रिविधस्तु शिवः स्मृतः।। ३६ ।।
जिनका वामांग वैकुण्ठ विष्णु हैं, दक्षिणभाग स्वयं मैं हूँ और रुद्र जिनके हृदय से उत्पन्न हैं, उन शिवजी को तीन प्रकार का कहा गया है ॥ ३६ ॥
अहं विष्णुश्च रुद्रश्च गुणास्त्रय उदाहृताः।।
स्वयं सदा निर्गुणश्च परब्रह्माव्ययश्शिवः ।।३७।।
विष्णुस्सत्त्वं रजोऽहं च तमो रुद्र उदाहृतः।।
लोकाचारत इत्येवं नामतो वस्तुतोऽन्यथा ।।३८।।
मैं ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र तीनों गुणों से युक्त कहे गये हैं, किंतु परब्रह्म, अव्यय शिव स्वयं सदा निर्गुण ही रहते हैं । विष्णु सत्त्वगुण, मैं रजोगुण और रुद्र तमोगुणवाले कहे गये हैं । लोकाचार में ऐसा व्यवहार नाम के कारण किया जाता है, किंतु वस्तुतत्त्व इससे सर्वथा भिन्न है ॥ ३७-३८ ॥
अंतस्तमो बहिस्सत्त्वो विष्णूरुद्रस्तथा मतः ।।
अंतस्सत्त्वस्तमोबाह्यो रजोहं सर्वेथा मुने ।। ।। ३९ ।।
विष्णु अन्तःकरण से तमोगुण और बाहर से सत्त्वगुण से युक्त माने गये हैं । रुद्र अन्तःकरण से सत्त्वगुण और बाहर से तमोगुणवाले हैं और हे मुने ! मैं सर्वथा रजोगुणवाला ही हूँ ॥ ३९ ॥
राजसी च सुरा देवी सत्त्वरूपात्तु सा सती ।।
लक्ष्मीस्तमोमयी ज्ञेया विरूपा च शिवा परा ।।४०।।
ऐसे ही सुरादेवी रजोगुणी हैं, वे सतीदेवी सत्त्वस्वरूपा हैं और लक्ष्मी तमोमयी हैं, इस प्रकार पराम्बा को भी तीन रूपोंवाली जानना चाहिये ॥ ४० ॥
एवं शिवा सती भूत्वा शंकरेण विवाहिता ।।
पितुर्यज्ञे तनुं त्यक्त्वा नादात्तां स्वपदं ययौ ।।४१।।
इस प्रकार देवी शिवा ही सती होकर भगवान् शंकर से ब्याही गयीं, किंतु पिता के यज्ञ में पति के अपमान के कारण उन्होंने अपने शरीर को त्याग दिया और फिर उसे ग्रहण नहीं किया । वे अपने परमपद को प्राप्त हो गयीं ॥ ४१ ॥
पुनश्च पार्वती जाता देवप्रार्थनया शिवा ।।
तपः कृत्वा सुविपुलं पुनश्शिवमुपागता ।।४२।।
तत्पश्चात् देवताओं की प्रार्थना से वे ही शिवा पार्वतीरूप से प्रकट हुईं और बड़ी भारी तपस्या करके उन्होंने पुनः भगवान् शिव को प्राप्त कर लिया ॥ ४२ ॥
तस्या नामान्यनेकानि जातानि च मुनीश्वर।।
कालिका चंडिका भद्रा चामुंडा विजया जया ।।४३।।
जयंती भद्रकाली च दुर्गा भगवतीति च ।।
कामाख्या कामदा ह्यम्बा मृडानी सर्वमंगला ।। ४४ ।।
नामधेयान्यनेकानि भुक्तिमुक्तिप्रदानि च।।
गुणकर्मानुरूपाणि प्रायशस्तत्र पार्वती ।।४५।।
हे मुनीश्वर ! [इस जगत् में] उनके अनेक नाम प्रसिद्ध हुए । उनके कालिका, चण्डिका, भद्रा, चामुण्डा, विजया, जया, जयन्ती, भद्रकाली, दुर्गा, भगवती, कामाख्या, कामदा, अम्बा, मृडानी और सर्वमंगला आदि अनेक नाम हैं, जो भोग और मोक्ष देनेवाले हैं । ये नाम उनके गुण और कर्मों के अनुसार हैं, इनमें भी पार्वती नाम प्रधान है ॥ ४३-४५ ॥
गुणमय्यस्तथा देव्यो देवा गुणमयास्त्रयः ।।
मिलित्वा विविधं सृष्टेश्चक्रुस्ते कार्यमुत्तमम् ।।४६।।
एवं सृष्टिप्रकारस्ते वर्णितो मुनिसत्तम।।
शिवाज्ञया विरचितो ब्रह्मांडस्य मयाऽखिलः ।। ।।४७।।
इस प्रकार गुणमयी तीनों देवियों और गुणमय तीनों देवताओं ने मिलकर सृष्टि के उत्तम कार्य को निष्पन्न किया । मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार मैंने आपसे सृष्टिक्रम का वर्णन किया है । ब्रह्माण्ड का यह सारा भाग भगवान् शिव की आज्ञा से मेरे द्वारा रचा गया है ॥ ४६-४७ ॥
परं ब्रह्म शिवः प्रोक्तस्तस्य रूपास्त्रयः सुराः ।।
अहं विष्णुश्च रुद्रश्च गुणभेदानुरूपतः ।।४८।।
भगवान् शिव को परब्रह्म कहा गया है । मैं, विष्णु और रुद्र — ये तीनों देवता गुणभेद से उन्हीं के रूप हैं ॥ ४८ ॥
शिवया रमते स्वैरं शिवलोके मनोरमे ।।
स्वतंत्रः परमात्मा हि निर्गुणस्सगुणोऽपि वै ।।४९।।
तस्य पूर्णवतारो हिं रुद्रस्साक्षाच्छिवः स्मृतः ।।
कैलासे भवनं रम्यं पंचवक्त्रश्चकार ह ।।
ब्रह्मांडस्य तथा नाशे तस्य नाशोस्ति वै न हि ।।५०।।
निर्गुण तथा सगुणरूपवाले वे स्वतन्त्र परमात्मा मनोरम शिवलोक में शिवा के साथ स्वच्छन्द विहार करते हैं । उनके पूर्णावतार रुद्र ही साक्षात् शिव कहे गये हैं । उन्हीं पंचमुख शिव ने कैलास पर अपना रमणीक भवन बना रखा है । [प्रलयकाल में] ब्रह्माण्ड का नाश होने पर भी उसका नाश कभी नहीं होता ॥ ४९-५० ॥
इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां प्रथम खंडे सृष्ट्युपाख्याने ब्रह्मनारदसंवादे सृष्टिवर्णनो नाम षोडशोऽध्यायः ।।१६।।
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के प्रथम खण्ड में सृष्टि-उपक्रम में सृष्टिवर्णन नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १६ ॥