शिवमहापुराण – प्रथम विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 23 || Shiv Mahapuran Vidyeshvar Samhita Adhyay 23

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इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण – विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 22 पढ़ा, अब शिवमहापुराण –विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 23 तेईसवाँ अध्याय भस्म, रुद्राक्ष और शिवनाम के माहात्म्य का वर्णन ।

शिवमहापुराण – विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 23

शिवपुराणम्‎ | संहिता १ (विश्वेश्वरसंहिता)

ऋषय ऊचुः

सूत सूत महाभाग व्यासशिष्य नमोस्तु ते

तदेव व्यासतो ब्रूहि भस्ममाहात्म्यमुत्तमम् १

ऋषिगण बोले — हे महाभाग व्यासशिष्य सूतजी ! आपको नमस्कार है । अब आप परम उत्तम भस्म-माहात्म्य का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ॥ १ ॥

तथा रुद्रा क्षमाहात्म्यं नाम माहात्म्यमुत्तमम्

त्रितयं ब्रूहि सुप्रीत्या ममानंदयचेतसम् २

भस्म-माहात्म्य, रुद्राक्ष-माहात्म्य तथा उत्तम नाम-माहात्म्य — इन तीनों का परम प्रसन्नतापूर्वक प्रतिपादन कीजिये और हमारे हृदय को आनन्दित कीजिये ॥ २ ॥

सूत उवाच

साधुपृष्टं भवद्भिश्च लोकानां हितकारकम्

भवंतो वै महाधन्याः पवित्राः कुलभूषणाः ३

सूतजी बोले — हे महर्षियो ! आप लोगों ने बहुत उत्तम बात पूछी है; यह समस्त लोकों के लिये हितकारक विषय है । आप लोग महाधन्य, पवित्र तथा अपने कुल के भूषणस्वरूप हैं ॥ ३ ॥

येषां चैव शिवः साक्षाद्दैवतं परमं शुभम्

सदा शिवकथा लोके वल्लभा भवतां सदा ४

इस संसार में कल्याणकारी परमदेवस्वरूप भगवान् शिव जिनके देवता हैं, ऐसे आप सबके लिये यह शिव की कथा अत्यन्त प्रिय है ॥ ४ ॥

ते धन्याश्च कृतार्थाश्च सफलं देहधारणम्

उद्धृतञ्च कुलं तेषां ये शिवं समुपासते ५

वे ही धन्य और कृतार्थ हैं, उन्हीं का शरीर धारण करना भी सफल है और उन्होंने ही अपने कुल का उद्धार कर लिया है, जो शिव की उपासना करते हैं ॥ ५ ॥

मुखे यस्य शिवनाम सदाशिवशिवेति च

पापानि न स्पृशंत्येव खदिरांगारंकयथा ६

जिनके मुख में भगवान् शिव का नाम है, जो अपने मुख से सदा शिव-शिव इस नाम का उच्चारण करते रहते हैं, पाप उनका उसी तरह स्पर्श नहीं करते, जैसे खदिर वृक्ष के अंगार को छूने का साहस कोई भी प्राणी नहीं कर सकता ॥ ६ ॥

श्रीशिवाय नमस्तुभ्यं मुखं व्याहरते यदा

तन्मुखं पावनं तीर्थं सर्वपापविनाशनम् ७

तन्मुखञ्च तथा यो वै पश्यतिप्रीतिमान्नरः

तीर्थजन्यं फलं तस्य भवतीति सुनिश्चितम् ८

हे शिव ! आपको नमस्कार है (श्रीशिवाय नमस्तुभ्यम्)-जिस मुख से ऐसा उच्चारण होता है, वह मुख समस्त पापों का विनाश करनेवाला पावन तीर्थ बन जाता है । जो मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक उस मुख का दर्शन करता है, उसे निश्चय ही तीर्थसेवनजनित फल प्राप्त होता है ॥ ७-८ ॥

यत्र त्रयं सदा तिष्ठेदेतच्छुभतरं द्विजा

तस्य दर्शनमात्रेण वेणीस्नानफलंलभेत् ९

शिवनामविभूतिश्च तथा रुद्रा क्ष एव च

एतत्त्रयं महापुण्यं त्रिवेणीसदृशं स्मृतम् १०

हे ब्राह्मणो ! शिव का नाम, विभूति (भस्म) तथा रुद्राक्ष — ये तीनों त्रिवेणी के समान परम पुण्यवाले माने गये हैं । जहाँ ये तीनों शुभतर वस्तुएँ सर्वदा रहती हैं, उसके दर्शनमात्र से मनुष्य त्रिवेणीस्नान का फल पा लेता है ॥ ९-१० ॥

एतत्त्रयं शरीरे च यस्य तिष्ठति नित्यशः

तस्यैव दर्शनं लोके दुर्लभं पापहारकम् ११

जिसके शरीर पर भस्म, रुद्राक्ष और मुख में शिवनाम ये तीनों नित्य विद्यमान रहते हैं, उसका पापविनाशक दर्शन संसार में दुर्लभ है ॥ ११ ॥

तद्दर्शनं यथा वेणी नोभयोरंतरं मनाक्

एवं योनविजानाति सपापिष्ठो न संशयः १२

उस पुण्यात्मा का दर्शन त्रिवेणी के समान ही है, भस्म, रुद्राक्ष तथा शिवनाम का जप करनेवाले और त्रिवेणी — इन दोनों में रंचमात्र भी अन्तर नहीं है — ऐसा जो नहीं जानता, वह निश्चित ही पापी है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ १२ ॥

विभूतिर्यस्य नो भाले नांगे रुद्रा क्षधारणम्

नास्ये शिवमयी वाणी तं त्यजेदधमं यथा १३

जिसके मस्तक पर विभूति नहीं है, अंग में रुद्राक्ष नहीं है और मुख में शिवमयी वाणी नहीं है, उसे अधम व्यक्ति के समान त्याग देना चाहिये ॥ १३ ॥

शैवं नाम यथा गंगा विभूतिर्यमुना मता

रुद्रा क्षं विधिना प्रोक्ता सर्वपापाविनाशिनी १४

भगवान् शिव का नाम गंगा है । विभूति यमुना मानी गयी है तथा रुद्राक्ष को सरस्वती कहा गया है । इन तीनों की संयुक्त त्रिवेणी समस्त पापों का नाश करनेवाली है ॥ १४ ॥

शरीरे च त्रयं यस्य तत्फलं चैकतः स्थितम्

एकतो वेणिकायाश्च स्नानजंतुफलं बुधैः १५

तदेवं तुलितं पूर्वं ब्रह्मणाहितकारिणा

समानं चैव तज्जातं तस्माद्धार्यं सदा बुधैः १६

बहुत पहले की बात है, हितकारी ब्रह्मा ने जिसके शरीर में उक्त ये तीनों — त्रिपुण्डु, रुद्राक्ष और शिवनाम संयुक्त रूप से विद्यमान थे, उनके फल को तुला के पलड़े में एक ओर रखकर, त्रिवेणी में स्नान करने से उत्पन्न फल को दूसरी ओर के पलडे में रखा और तुलना की, तो दोनों बराबर ही उतरे । अतएव विद्वानों को चाहिये कि इन तीनों को सदा अपने शरीर पर धारण करें ॥ १५-१६ ॥

तद्दिनं हि समारभ्य ब्रह्मविष्ण्वादिभिः सरैः

धार्यते त्रितयं तच्च दर्शनात्पापहारकम् १७

उसी दिन से ब्रह्मा, विष्णु आदि देव भी दर्शनमात्र से पापों को नष्ट कर देनेवाले इन तीनों (रुद्राक्ष, विभूति और शिवनाम)-को धारण करने लगे ॥ १७ ॥

ऋष्य ऊचुः

ईदृशं हि फलं प्रोक्तं नामादित्रितयोद्भवम्

तन्माहात्म्यं विशेषेण वक्तुमर्हसि सुव्रत १८

ऋषिगण बोले — हे सुव्रत ! [भस्म, रुद्राक्ष और शिवनाम] इन तीनों को धारण करने से इस प्रकार उत्पन्न होनेवाले फल का वर्णन तो आपने कह दिया है, किंतु अब आप विशेष रूप से उनके माहात्म्य का वर्णन करें ॥ १८ ॥

सूत उवाच

ऋषयो हि महाप्राज्ञाः सच्छैवा ज्ञानिनां वराः

तन्माहात्म्यं हि सद्भक्त्या शृणुतादरतो द्विजाः १९

सूतजी बोले — ज्ञानियों में श्रेष्ठ हे महाप्राज्ञ ! हे शिवभक्त ऋषियो और विप्रो ! आप सब सद्भक्ति तथा आदरपूर्वक उक्त भस्म, रुद्राक्ष और शिवनाम — इन तीनों का माहात्म्य सुनें ॥ १९ ॥

सुगूढमपि शास्त्रेषु पुराणेषु श्रुतिष्वपि

भवत्स्नेहान्मया विप्राः प्रकाशः क्रियतेऽधुना २०

शास्त्रों, पुराणों और श्रुतियों में भी इनका माहात्म्य अत्यन्त गूढ़ कहा गया है । हे विप्रो ! आप सबके स्नेहवश इस समय मैं [उस रहस्य को खोलकर] प्रकाशित करने जा रहा हूँ ॥ २० ॥

कस्तत्त्रितयमाहात्म्यं संजानाति द्विजोत्तमाः

महेश्वरं विना सर्वं ब्रह्माण्डे सदसत्परम् २१

हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! इन तीनों की महिमा को सदसद्विलक्षण भगवान् महेश्वर के बिना दूसरा कौन भली-भाँति जान सकता है । इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ है, वह सब तो केवल महेश्वर ही जानते हैं ॥ २१ ॥

वच्म्यहं नाम माहात्म्यं यथाभक्ति समासतः

शृणुत प्रीतितो विप्राः सर्वपापहरं परम् २२

हे विप्रगण ! मैं अपनी श्रद्धा-भक्ति के अनुसार संक्षेप से भगवन्नाम की महिमा का कुछ वर्णन करता हूँ । आप सबलोग प्रेमपूर्वक उसे सुनें । यह नाम-माहात्म्य समस्त पापों को हर लेनेवाला सर्वोत्तम साधन है ॥ २२ ॥

शिवेति नामदावाग्नेर्महापातकपर्वताः

भस्मीभवंत्यनायासात्सत्यंसत्यं न संशयः २३

‘शिव’-इस नामरूपी दावानल से महान् पातकरूपी पर्वत अनायास ही भस्म हो जाता है — यह सत्य है, सत्य है; इसमें संशय नहीं है ॥ २३ ॥

पापमूलानि दुःखानि विविधान्यपि शौनक

शिवनामैकनश्यानि नान्यनश्यानि सर्वथा २४

हे शौनक ! पापमूलक जो नाना प्रकार के दुःख हैं, वे एकमात्र शिवनाम (भगवन्नाम)-से ही नष्ट होनेवाले हैं; दूसरे साधनों से सम्पूर्ण यत्न करने पर भी पूर्णतया नष्ट नहीं होते हैं ॥ २४ ॥

स वैदिकः स पुण्यात्मा स धन्यस्स बुधो मतः

शिवनामजपासक्तो यो नित्यं भुवि मानव २५

जो मनुष्य इस भूतल पर सदा भगवान् शिव के नामों के जप में ही लगा हुआ है, वह वेदों का ज्ञाता है, वह पुण्यात्मा है, वह धन्यवाद का पात्र है तथा वह विद्वान् माना गया है ॥ २५ ॥

भवंति विविधा धर्मास्तेषां सद्यः फलोन्मुखाः

येषां भवति विश्वासः शिवनामजपे मुने २६

हे मुने ! जिनका शिवनामजप में विश्वास है, उनके द्वारा आचरित नाना प्रकार के धर्म तत्काल फल देने के लिये उत्सुक हो जाते हैं ॥ २६ ॥

पातकानि विनश्यंति यावंति शिवनामतः

भुवि तावंति पापानि क्रियंते न नरैर्मुने २७

हे महर्षे ! भगवान् शिव के नाम से जितने पाप नष्ट होते हैं, उतने पाप मनुष्य इस भूतल पर कर ही नहीं सकता ॥ २७ ॥

ब्रह्महत्यादिपापानां राशीनप्रमितान्मुने

शिवनाम द्रुतं प्रोक्तं नाशयत्यखिलान्नरैः २८

हे मुने ! ब्रह्महत्या-जैसे पापों की समस्त अपरिमित राशियाँ शिवनाम लेने से शीघ्र ही नष्ट हो जाती हैं ॥ २८ ॥

शिवनामतरीं प्राप्य संसाराब्धिं तरंति ये

संसारमूलपापानि तानि नश्यंत्यसंशयम् २९

जो शिवनामरूपी नौका पर आरूढ़ होकर संसारसमुद्र को पार करते हैं, उनके जन्म-मरणरूप संसार के मूलभूत वे सारे पाप निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं ॥ २९ ॥

संसारमूलभूतानां पातकानां महामुने

शिवनामकुठारेण विनाशो जायते ध्रुवम् ३०

हे महामुने ! संसार के मूलभूत पातकरूपी वृक्ष का शिवनामरूपी कुठार से निश्चय ही नाश हो जाता है ॥ ३० ॥

शिवनामामृतं पेयं पापदावानलार्दितैः

पापदावाग्नितप्तानां शांतिस्तेन विना न हि ३१

जो पापरूपी दावानल से पीड़ित हैं, उन्हें शिवनामरूपी अमृत का पान करना चाहिये । पापों के दावानल से दग्ध होनेवाले लोगों को उस शिवनामामृत के बिना शान्ति नहीं मिल सकती ॥ ३१ ॥

शिवेति नामपीयूषवर्षधारापरिप्लुताः

संसारदवमध्येपि न शोचंति कदाचन ३२

जो शिवनामरूपी सुधा की वृष्टिजनित धारा में गोते लगा रहे हैं, वे संसाररूपी दावानल के बीच में खड़े होने पर भी कदापि शोक के भागी नहीं होते ॥ ३२ ॥

शिवनाम्नि महद्भक्तिर्जाता येषां महात्मनाम्

तद्विधानां तु सहसा मुक्तिर्भवति सर्वथा ३३

जिन महात्माओं के मन में शिवनाम के प्रति बड़ी भारी भक्ति है, ऐसे लोगों की सहसा और सर्वथा मुक्ति होती है ॥ ३३ ॥

अनेकजन्मभिर्येन तपस्तप्तं मुनीश्वर

शिवनाम्नि भवेद्भक्तिः सर्वपापापहारिणी ३४

हे मुनीश्वर ! जिसने अनेक जन्मों तक तपस्या की है, उसी की शिवनाम के प्रति भक्ति होती है, जो समस्त पापों का नाश करनेवाली है ॥ ३४ ॥

यस्या साधारणं शंभुनाम्नि भक्तिरखंडिता

तस्यैव मोक्षः सुलभो नान्यस्येति मतिर्मम ३५

जिसके मन में भगवान् शिव के नाम के प्रति कभी खण्डित न होनेवाली असाधारण भक्ति प्रकट हुई है, उसी के लिये मोक्ष सुलभ है — यह मेरा मत है ॥ ३५ ॥

कृत्वाप्यनेकपापानि शिवनामजपादरः

सर्वपापविनिर्मुक्तो भवत्येव न संशयः ३६

जो अनेक पाप करके भी भगवान् शिव के नामजप में आदरपूर्वक लग गया है, वह समस्त पापों से मुक्त हो ही जाता है; इसमें संशय नहीं है ॥ ३६ ॥

भवंति भस्मसाद्वृक्षा दवदग्धा यथा वने

तथा तावंति दग्धानि पापानि शिवनामतः ३७

जैसे वन में दावानल से दग्ध हुए वृक्ष भस्म हो जाते हैं, उसी प्रकार शिवनामरूपी दावानल से दग्ध होकर उस समयतक के सारे पाप भस्म हो जाते हैं ॥ ३७ ॥

यो नित्यं भस्मपूतांगः शिवनामजपादरः

संतरत्येव संसारं सघोरमपि शौनक ३८

हे शौनक ! जिसके अंग नित्य भस्म लगाने से पवित्र हो गये हैं तथा जो शिवनामजप का आदर करने लगा है, वह घोर संसारसागर को भी पार कर ही लेता है ॥ ३८ ॥

ब्रह्मस्वहरणं कृत्वा हत्वापि ब्राह्मणान्बहून्

न लिप्यते नरः पापैः शिवनामजपादरः ३९

ब्राह्मणों का धनहरण और अनेक ब्राह्मणों की हत्या करके भी जो आदरपूर्वक शिव के नाम का जप करता है, वह पापों से लिप्त नहीं होता है [अर्थात् उसे किसी भी प्रकार का पाप नहीं लगता है] ॥ ३९ ॥

विलोक्य वेदानखिलाञ्छिवनामजपः परम्

संसारतारणोपाय इति पूर्वैर्विनिश्चितः ४०

सम्पूर्ण वेदों का अवलोकन करके पूर्ववर्ती महर्षियों ने यही निश्चित किया है कि भगवान् शिव के नाम का जप संसारसागर को पार करने के लिये सर्वोत्तम उपाय है ॥ ४० ॥

किं बहूक्त्या मुनिश्रेष्ठाः श्लोकेनैकेन वच्म्यहम्

शिवनाम्नो महिमानं सर्वपापापहारिणम् ४१

हे मुनिवरो ! अधिक कहने से क्या लाभ, मैं शिवनाम के सर्वपापहारी माहात्म्य का वर्णन एक ही श्लोक में करता हूँ ॥ ४१ ॥

पापानां हरणे शंभोर्नामः शक्तिर्हि पावनी

शक्नोति पातकं तावत्कर्तुं नापि नरः क्वचित् ४२

भगवान् शंकर के एक नाम में भी पापहरण की जितनी शक्ति है, उतना पातक मनुष्य कभी कर ही नहीं सकता ॥ ४२ ॥

शिवनामप्रभावेण लेभे सद्गतिमुत्तमाम्

इन्द्र द्युम्ननृपः पूर्वं महापापः पुरामुने ४३

हे मुने ! पूर्वकाल में महापापी राजा इन्द्रद्युम्न ने शिवनाम के प्रभाव से ही उत्तम सद्गति प्राप्त की थी ॥ ४३ ॥

तथा काचिद्द्विजायोषा सौ मुने बहुपापिनी

शिवनामप्रभावेण लेभे सद्गतिमुत्तमाम् ४४

इसी तरह कोई ब्राह्मणी युवती भी जो बहुत पाप कर चुकी थी, शिवनाम के प्रभाव से ही उत्तम गति को प्राप्त हुई ॥ ४४ ॥

इत्युक्तं वो द्विजश्रेष्ठा नाममाहात्म्यमुत्तमम्

शृणुध्वं भस्ममाहात्म्यं सर्वपावनपावनम् ४५

इति श्रीशिवमहापुराणे विद्येश्वरसंहितायां साध्यसाधनखंडेशिवनममाहात्म्यवर्णनोनामत्रयोविंशोऽध्यायः २३॥

हे द्विजवरो ! इस प्रकार मैंने आपलोगों से भगवन्नाम के उत्तम माहात्म्य का वर्णन किया है । अब आप लोग भस्म का माहात्म्य सुनें, जो समस्त पावन वस्तुओं को भी पवित्र करनेवाला है ॥ ४५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण में प्रथम विद्येश्वरसंहिता के साध्यसाधनखण्ड में शिवनाममाहात्म्यवर्णन नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥

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