शिवमहिम्न: स्तोत्रम् ॥ शिवमहिम्न स्तोत्रम् || Shiva Mahimna Stotram || Shiva Mahimna Stotram

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शिवमहिम्न स्तोत्रम् – शिव महिम्न अर्थात शिव की महिमा । शिव संबंधित एक स्तोत्र है शिवमहिम्न स्तोत्रम् । जिसे कि महान शिवभक्त श्री गंधर्वराज पुष्पदंत ने रचा है। इसके पाठ से भगवान शिव की कृपा तथा हर प्रकार के पापों को समन होता है। शिव के इस महिम्न स्तोत्रम् में शिव के दिव्य स्वरूप एवं उनकी सादगी का वर्णन है। इस महिम्न स्तोत्र के पीछे अनूठी और सुंदर कथा प्रचलित है।

प्रस्तुत है कथा :-

एक समय में चित्ररथ नाम का राजा था। वो परम शिव भक्त था। उसने एक अद्भुत सुंदर बाग का निर्माण करवाया। जिसमें विभिन्न प्रकार के पुष्प लगे थे। प्रत्येक दिन राजा उन पुष्पों से शिव जी की पूजा करते थे।

फिर एक दिन…पुष्पदंत नामक गन्धर्व जो इंद्र के दरबार में गायक था, उस राजा के उद्यान की तरफ से जा रहे थे। उद्यान की सुंदरता ने उसे आकृष्ट कर लिया। मोहित पुष्पदंत ने बाग के पुष्पों को चुरा लिया। अगले दिन चित्ररथ को पूजा हेतु पुष्प प्राप्त नहीं हुए।

बाग के सौंदर्य से मुग्ध पुष्पदंत प्रत्येक दिन पुष्प की चोरी करने लगा। इस रहस्य को सुलझाने के राजा के प्रत्येक प्रयास विफल रहे। पुष्पदंत अपनी दिव्य शक्तियों के कारण अदृश्य बना रहे।

राजा चित्ररथ ने एक अनोखा समाधान निकाला। उन्होंने शिव को अर्पित पुष्प एवं विल्व पत्र बाग में बिछा दिया। राजा के उपाय से अनजान पुष्पदंत ने उन पुष्पों को अपने पैरो से कुचल दिया। इससे पुष्पदंत की दिव्य शक्तिओं का क्षय हो गया।

पुष्पदंत स्वयं भी शिव भक्त था। अपनी गलती का बोध होने पर उसने इस परम स्तोत्र के रचना की जिससे प्रसन्न हो महादेव ने उसकी भूल को क्षमा कर पुष्पदंत के दिव्य स्वरूप को पुनः प्रदान किया। पुष्पदंत द्वारा रचित भगवान शिव की स्तुति ‘शिव महिम्न्स्तोत्रं’ के नाम से प्रसिद्द हुई। ४३ क्षन्दो का यह स्तोत्र शिव भक्तों को अत्यंत प्रिय है।

अथ शिवमहिम्न स्तोत्रम्

पुष्पदन्त उवाच

महिम्न: पारन्ते परमविदुषो यद्यसद्दशी स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिर: ।
अथावाच्य: सर्व: स्वमतिपरिणामावधि गृणन् ममाप्येष स्तोत्रे हर ! निरपवाद: परिकर: ॥१॥
अतीत: पन्थानं तव च महिमा वाङ्ननसयोरतह्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि ।
स कस्य स्तोतव्य: कतिविधगुण: कस्य विषय: पदे त्वर्वाचीने पतति न मन: कस्य न वच: ॥२॥

मधुस्फीता वाच: परमममृतं निर्मितवतस्तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् ।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवत: पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता ॥३॥
तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत् त्रयीवस्तुव्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुषु ।
अभव्यानामस्मिन् वरद ! रमणीयामरमणीं विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधिय: ॥४॥

किमीह: किङ्काय: स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसरदु:स्थो हतधिय: कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगत: ॥५॥
अजन्मानो लोका: किमवयववन्तोऽपि जगतामधिष्ठातारं किं भवविधिरनाद्दत्य भवति ।
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने क: परिकरो यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ॥६॥

त्रयी साङ्ख्यं योग: पशुपतिमतं वैष्णवमिति प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमद: पथ्यमिति च ।
रुचीनां वैचित्र्याद्दजुकुटिलनानापथजुषां नृणामेको गम्यस्त्वममि पयसामर्णव इव ॥७॥
महोक्ष: खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिन: कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् ।
सुरास्तां तामृद्धिं विदधति भवद् भ्रूप्रणिहितां न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति ॥८॥

ध्रुवं कश्चित्सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं परो ध्रौव्याध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये ।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव स्तुवञ्जिह्नेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता ॥९॥
तवैश्वर्यं यत्नाद्यदुपरि विरिञ्चो हरिरध: परिच्छेत्तुं यातावनलमनलस्कन्धवपुष: ।
ततो भक्तिश्रद्धाभरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश यत् स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति ॥१०॥

अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं दशास्यो यद्वाहूनभृत रणकण्डूपरवशान् ।
शिर: पद्मश्रेणीरचितचरणाम्भोरुहबले: स्थिरायास्त्वद्भकेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितभिदम् ॥११॥
अमुष्य त्वत्सेवासमधिगतसारं भुजवलं बलात्कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयत: ।
अलभ्या पातालेऽप्यलसचलिताङ्गुष्ठशिरसि प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खल: ॥१२॥

यद्दर्द्धि सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीमधश्चक्रे बाण: परिजनविधेयस्त्रिभुवन: ।
न तच्चित्रं तस्मिन्वरिवसितरि त्वच्चरणयोर्न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनति: ॥१३॥
अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपा विधेयस्याऽऽसीद्यस्त्रिनयनविषं संहृतवत: ।
स कल्माष: कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो विकारोऽपि श्लाध्यो भुवनभयभङ्गव्यसनिन: ॥१४॥

असिद्धार्था नैव व्कचिदपि सदेवासुरनरे निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखा: ।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमधूत् स्मर: स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्य: परिभव: ॥१५॥
मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम् ।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ॥१६॥

वियह्यापी तारागणगुणितफेनोद्गमरुचि: प्रवाहो वारां य: पृषतलघुद्दष्ट: शिरसि ते ।
जगद्दीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमित्यनेनैवोन्नेयं धृतमहिमदिव्यं तव वपु: ॥१७॥
रथ: क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो रथाङ्गे चन्द्राकौं रथचरणपाणि: शर इति ।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधिर्विधेयै: क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्रा: प्रभुधिय: ॥१८॥

हरिस्ते साहस्रं कमलबलिमाधाय पदयोर्यदेकोने तस्मिन्निजमुदहरन्नेत्रकमलम् ।
गतो भक्त्युद्रेक: परिणतिमसौ चक्रवपुषा त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम् ॥१९॥
क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां व्क कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते ।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवं श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा द्दढपरिकर: कर्मसु जन: ॥२०॥

क्रियादक्षो दक्ष: क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतामृषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्या: सुरगणा: ।
क्रतुर्भ्रुषस्त्वत्त: क्रतुफलविधानव्यसनिनो ध्रुवं कर्तु: श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखा: ॥२१॥
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्यवपुषा ।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभस: ॥२२॥

स्वलावण्याशंसाधृतधनुषमह्नाय तृणवत् पुर: प्लुष्टं द्दष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि ।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरतदेहार्धघटनादवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतय: ॥२३॥
स्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचा: सहचराश्चिताभस्मालेप: स्रगपि नृकरोटीपरिकर: ।
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं तथाऽपि स्मर्तृणां वरद परमं मङ्गलमसि ॥२४॥

मन: प्रत्यक्चित्ते सविधमवधायात्तमरुत: प्रहृष्यद्रोमाण: प्रमदसलिलोत्सङ्गितद्दश: ।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्ज्यामृतमये दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत्किल भवान् ॥२५॥
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहस्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च ।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रतु गिरं न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत्त्वं न भवसि ॥२६॥

त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरानकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत्तीर्णविकृति ।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमनुभि: समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम् ॥२७॥
भव: शर्वो रुद्र: पशुपतिरथोग्र: सह महांस्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् ।
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव: श्रुतिरपि प्रियायास्मै धाम्ने प्रणिहितनमस्योऽस्मि भवतो ॥२८॥

नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो नम: क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नम: ।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमो नम: सर्वस्मै ते तदिदमिति शर्वाय च नम: ॥२९॥
बहलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नम: प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नम: ।
जनसुखकृते सत्त्वोत्पतौ मृडाय नमो नम: प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नम: ॥३०॥

कृशपरिणति चेत: क्लेशवश्यं व्क चेदं व्क च तव गुणसीमोल्लङ्घिनी शश्वद्दद्धि: ।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्वरद ! चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारम् ॥३१॥
असितगिरिसमं स्यात्कज्जलं सिन्धुपात्रे सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी ।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ॥३२॥

असुरसुरमुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दुमौलेर्ग्रथितगुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य ।
सकलगुणवरिष्ठ: पुष्पदन्ताभिधानो रुचिरमलघुवृत्तै: स्तोत्रमेतच्चकार ॥३३॥
अहरहरनवद्यं धूर्जटे: स्तोत्रमेतत् पठति परमभक्त्या शुद्धचित्त: पुमान् य: ।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र प्रचुरतरधनायु: पुत्रवान् कीर्तिमांश्व ॥३४॥

दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिका: क्रिया: । महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥३५॥
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्वभाषितम् । अनौपम्यं मनोहारि शिवमीश्वरवर्णनम् ॥३६॥
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुति: । अधोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरो: परम् ॥३७॥
कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराज: शशिधरवरमौलेर्देवदेवस्य दास: ।
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात् स्तवनमिदमकार्षीद्दिव्यदिव्यं महिम्न: ॥३८॥

सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षैकहेतुं पठति यदि मनुष्य: प्राञ्जलिर्नान्यचेता: ।
व्रजति शिवसमीपं किन्नरै: स्तूयमान: स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् ॥३९॥
श्रीपुष्णदन्तमुखपङ्कजनिर्गतेन स्तोत्रेण किल्विषहरेण हरप्रियेण ।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन सुप्रोणितो भवति भूतपतिर्महेश: ॥४०॥
इत्येषा वाङ्गयी पूजा श्रीमच्छङ्करपादयो: । अर्पिता तेन देवेश: प्रीयतां मे सदाशिव: ॥४१॥

इति श्रीपुष्पदन्तविरचितं शिवमहिम्न स्तोत्रम् सम्पूर्णम्

पूजन के लिएपढ़े-

हिन्दी अर्थ सहित शिव महिम्न स्तोत्रम्

हे प्रभु ! बड़े बड़े विद्वान और योगीजन आपके महिमा को नहीं जान पाये तो मैं तो एक साधारण बालक हूँ, मेरी क्या गिनती ? लेकिन क्या आपके महिमा को पूर्णतया जाने बिना आपकी स्तुति नहीं हो सकती ? मैं ये नहीं मानता क्योंकि अगर ये सच है तो फिर ब्रह्मा की स्तुति भी व्यर्थ कहलाएगी । मैं तो ये मानता हूँ कि सबको अपनी मति अनुसार स्तुति करने का अधिकार है। इसलिए हे भोलेनाथ ! आप कृपया मेरे हृदय के भाव को देखें और मेरी स्तुति का स्वीकार करें।।।1।।

हे शिव !!! आपकी व्याख्या न तो मन, न ही वचन द्वारा संभव है। आपके सन्दर्भ में वेद भी अचंभित हैं तथा ‘नेति नेति’ का प्रयोग करते हैं अर्थात ये भी नहीं और वो भी नहीं। आपकी महिमा और आपके स्वरूप को पूर्णतया जान पाना असंभव है, लेकिन जब आप साकार रूप में प्रकट होते हो तो आपके भक्त आपके स्वरूप का वर्णन करते नहीं थकते। ये आपके प्रति उनके प्यार और पूज्यभाव का परिणाम है।।२।।

हे वेद और भाषा के सृजक ! आपने अमृतमय वेदों की रचना की है। इसलिए जब देवों के गुरु, बृहस्पति आपकी स्तुति करते है तो आपको कोई आश्चर्य नहीं होता। मै भी अपनी मति अनुसार आपके गुणानुवाद करने का प्रयास कर रहा हूँ। मैं मानता हूँ कि इससे आपको कोई आश्चर्य नहीं होगा, मगर मेरी वाणी इससे अधिक पवित्र और लाभान्वित अवश्य होगी।।३।।

हे देव ! आप इस सृष्टि के सृजनहार है, पालनहार है और विसर्जनकार है। इस प्रकार आपके तीन स्वरूप है – ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा आप में तीन गुण है – सत्व, रज और तम। वेदों में इनके बारे में वर्णन किया गया है फिर भी अज्ञानी लोग आपके बारे में उटपटांग बातें करते रहते है। ऐसा करने से भले उन्हें संतुष्टि मिलती हो, किन्तु यथार्थ से वो मुँह नहीं मोड़ सकते।।४।।

हे महादेव !!! मूर्ख लोग अक्सर तर्क करते रहते है कि ये सृष्टि की रचना कैसे हुई, किसकी इच्छा से हुई, किन वस्तुओं से उसे बनाया गया इत्यादि। उनका उद्देश्य लोगों में भ्रांति पैदा करने के अलावा कुछ नहीं है। सच पूछो तो ये सभी प्रश्नों के उत्तर आपकी दिव्य शक्ति से जुड़े है और मेरी सीमित शक्ति से उसे व्यक्त करना असंभव है।।५।।

हे प्रभु, आपके बिना ये सब लोक (सप्त लोक – भू: भुव: स्व: मह: जन: तप: सत्यं) का निर्माण क्या संभव है? इस जगत का कोई रचयिता न हो, ऐसा क्या संभव है?आपके अलावा इस सृष्टि का निर्माण भला कौन कर सकता है ?आपके अस्तित्व के बारे केवल मूर्ख लोगों को ही शंका हो सकती है।।६।।

हे परमपिता !!! हे प्रभु ! आपको पाने के लिए अनगिनत मार्ग है – सांख्य मार्ग, वैष्णव मार्ग, शैव मार्ग, वेद मार्ग आदि । लोग अपनी रुचि के अनुसार कोई एक मार्ग को पसंद करते है। मगर आखिरकार ये सभी मार्ग, जैसे अलग अलग नदियों का पानी बहकर समुद्र में जाकर मिलता है, वैसे ही, आप तक पहुंचते है । सचमुच, किसी भी मार्ग का अनुसरण करने से आपकी प्राप्ति हो सकती है।।७।।

हे शिव !!! आपके भृकुटी के इशारे मात्र से सभी देवगण एश्वर्य एवं संपदाओं का भोग करते हैं। पर आपके स्वयं के लिए सिर्फ कुल्हाडी, बैल, व्याघ्रचर्म, शरीर पर भस्म तथा हाथ में खप्पर (खोपड़ी)! इससे ये फलित होता है कि जो आत्मानंद में लीन रहता है वो संसार के भोगपदार्थो में नहीं फँसता।।८।।

हे त्रिपुरहंता !!! इस संसार के बारे में विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न मत हैं. कोई इसे नित्य जानता है तो कोई इसे अनित्य समझता है। लोग जो भी कहें, आपके भक्त तो आपको हमेंशा सत्य मानते है और आपकी भक्ति मे आनंद पाते है। मैं भी उनका समर्थन करता हूँ, चाहे किसी को मेरा ये कहना धृष्टता लगे, मुझे उसकी परवाह नहीं।।९।।

हे प्रभु ! जब ब्रह्मा और विष्णु के बीच विवाद हुआ की दोनों में से कौन महान है, तब आपने उनकी परीक्षा करने के लिए अग्निस्तंभ का रूप लिया । ब्रह्मा और विष्णु – दोनों नें स्तंभ को अलग अलग छोर से नापने की कोशिश की मगर वो सफल न हो सके। आखिरकार अपनी हार मानकर उन्होंने आपकी स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर आपने अपना मूल रूप प्रकट किया। सचमुच, अगर कोई सच्चे दिल से आपकी स्तुति करे और आप प्रकट न हों एसा कभी हो सकता है भला ? ।।१०।।

हे त्रिपुरान्तक !!! आपके परम भक्त रावण ने पद्म की जगह अपने नौ-नौ मस्तक आपकी पूजा में समर्पित कर दिये। जब वो अपना दसवाँ मस्तक काटकर अर्पण करने जा रहा था तब आपने प्रकट होकर उसको वरदान दिया। इस वरदान की वजह से ही उसकी भुजाओं में अटूट बल प्रकट हुआ और वो तीनो लोक में शत्रुओं पर विजय पाने में समर्थ रहा। ये सब आपकी दृढ भक्ति का नतीजा है।।११।।

हे शिव !!! आपकी परम भक्ति से रावण अतुलित बल का स्वामी बन बैठा मगर इससे उसने क्या करना चाहा ? आपकी पूजा के लिए हर रोज कैलाश जाने का श्रम बचाने के लिए कैलाश को उठाकर लंका में गाढ़ देना चाहा। जब कैलाश उठाने के लिए रावण ने अपनी भूजाओं को फैलाया तब पार्वती भयभीत हो उठीं। उन्हें भयमुक्त करने के लिए आपने सिर्फ अपने पैर का अंगूठा हिलाया तो रावण जाकर पाताल में गिरा और वहाँ भी उसे स्थान नहीं मिला। सचमुच, जब कोई आदमी अनधिकृत बल या संपत्ति का स्वामी बन जाता है तो उसका उपभोग करने में विवेक खो देता है।।१२।।

हे शम्भो !!! आपकी कृपा मात्र से ही बाणासुर दानव इन्द्रादि देवों से भी अधिक ऐश्वर्यशाली बन गया तथा तीनो लोकों पर राज्य किया। हे ईश्वर ! जो मनुष्य आपके चरण में श्रद्धाभक्तिपूर्वक शीश रखता है उसकी उन्नति और समृद्धि निश्चित है।।१३।।

हे प्रभु ! जब समुद्रमंथन हुआ तब अन्य मूल्यवान रत्नों के साथ महाभयानक विष निकला, जिससे समग्र सृष्टि का विनाश हो सकता था। आपने बड़ी कृपा करके उस विष का पान किया। विषपान करने से आपके कंठ में नीला चिन्ह हो गया और आप नीलकंठ कहलाये। परंतु हे प्रभु, क्या ये आपको कुरुप बनाता है ? कदापि नहीं, ये तो आपकी शोभा को और बढाता है। जो व्यक्ति औरों के दुःख दूर करता है उसमें अगर कोई विकार भी हो तो वो पूजा पात्र बन जाता है।।१४।।

हे प्रभु !!! कामदेव के वार से कभी कोई भी नहीं बच सका चाहे वो मनुष्य हों, देव या दानव हों। पर जब कामदेव ने आपकी शक्ति समझे बिना आप की ओर अपने पुष्प बाण को साधा तो आपने उसे तत्क्षण ही भष्म कर दिया। श्रेष्ठ जनो के अपमान का परिणाम हितकर नहीं होता।।१५।।

हे नटराज !!! जब संसार के कल्याण हेतु आप तांडव करने लगते हैं तब समग्र सृष्टि भय के मारे कांप उठती है, आपके पदप्रहार से पृथ्वी अपना अंत समीप देखती है ग्रह नक्षत्र भयभीत हो उठते हैं। आपकी जटा के स्पर्श मात्र से स्वर्गलोग व्याकुल हो उठता है और आपकी भुजाओं के बल से वैंकुंठ में खलबली मच जाती है। हे महादेव ! आश्चर्य ही है कि आपका बल अतिशय कष्टप्रद है।।१६।।

गंगा नदी जब मंदाकिनी के नाम से स्वर्ग से उतरती है तब नभोमंडल में चमकते हुए सितारों की वजह से उसका प्रवाह अत्यंत आकर्षक दिखाई देता है, मगर आपके शिर पर सिमट जाने के बाद तो वह एक बिंदु समान दिखाई पडती है । बाद में जब गंगाजी आपकी जटा से निकलती है और भूमि पर बहने लगती है तब बड़े बड़े द्वीपों का निर्माण करती है। ये आपके दिव्य और महिमावान स्वरूप का ही परिचायक है।।१७।।

हे शिव !!! आपने (तारकासुर के पुत्रों द्वारा रचित) तीन नगरों का विध्वंश करने हेतु पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, सूर्य चन्द्र को दो पहिये मेरु पर्वत का धनुष बनाया और विष्णुजी का बाण लिया। हे शम्भू ! इस वृहत प्रयोजन की क्या आवश्यकता थी ? आपके लिए तो संसार मात्र का विलय करना अत्यंत ही छोटी बात है। आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता? आपने तो केवल (अपने नियंत्रण में रही) शक्तियों के साथ खेल किया था, लीला की थी।।१८।।

जब भगवान विष्णु ने आपकी सहस्र कमलों (एवं सहस्र नामों) द्वारा पूजा प्रारम्भ की तो उन्होंने एक कमल कम पाया। तब भक्ति भाव से विष्णुजी ने अपनी एक आँख को कमल के स्थान पर अर्पित कर दिया। उनकी इसी अदम्य भक्ति ने सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर लिया जिसे भगवान विष्णु संसार रक्षार्थ उपयोग करते हैं। हे प्रभु, आप तीनों लोक (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) की रक्षा के लिए सदैव जाग्रत रहते हो।।१९।।

हे देवाधिदेव !!! यज्ञ की समाप्ति होने पर आप यज्ञकर्ता को उसका फल देते हो। आपकी उपासना और श्रद्धा बिना किया गया कोई कर्म फलदायक नही होता। यही वजह है कि वेदों मे श्रद्धा रखके और आपको फलदाता मानकर हर कोई अपने कार्यो का शुभारंभ करते है।।२०।।

हे प्रभु !!! यद्यपि आपने यज्ञ कर्म और फल का विधान बनाया है तद्यपि जो यज्ञ शुद्ध विचारों और कर्मो से प्रेप्रित न हो और आपकी अवहेलना करने वाला हो उसका परिणाम कदाचित विपरीत और अहितकर ही होता है इसीलिए दक्षप्रजापति के महायज्ञ यज्ञ को जिसमें स्वयं ब्रह्मा तथा अनेकानेक देवगण तथा ऋषि-मुनि सम्मिलित हुए, आपने नष्ट कर दिया क्योंकि उसमें आपका सम्मान नहीं किया गया। सचमुच, भक्ति के बिना किये गये यज्ञ किसी भी यज्ञकर्ता के लिए हानिकारक सिद्ध होते है।।२१।।

एक बार प्रजापिता ब्रह्मा अपनी पुत्री पर ही मोहित हो गए। जब उनकी पुत्री ने हिरनी का स्वरुप धारण कर भागने की कोशिश की तो कामातुर ब्रह्मा भी हिरन भेष में उसका पीछा करने लगे। हे शंकर ! तब आप ने व्याघ्र स्वरूप में धनुष-बाण ले ब्रह्मा को मार भगाया। आपके रौद्र रूप से भयभीत ब्रह्मा आकाश दिशा में अदृश्य अवश्य हुए परन्तु आज भी वह आपसे भयभीत हैं।।२२।।

हे त्रिपुरानाशक ! जब कामदेव ने आपकी तपश्चर्या में बाधा डालनी चाही और आपके मन में पार्वती के प्रति मोह उत्पन्न करने की कोशिश की, तब आपने कामदेव को तृणवत् भस्म कर दिया। अगर तत्पश्चात् भी पार्वती ये समझती है कि आप उन पर मुग्ध है क्योंकि आपके शरीर का आधा हिस्सा उनका है, तो ये उनका भ्रम होगा। सच पूछो तो हर युवती अपनी सुंदरता पे मुग्ध होती है।।२३।।

हे भोलेनाथ !!! आप श्मशान में रमण करते हैं, भूत – प्रेत आपके मित्र हैं, आप चिता भष्म का लेप करते हैं तथा मुंडमाल धारण करते हैं। ये सारे गुण ही अशुभ एवं भयावह जान पड़ते हैं। तब भी हे श्मशान निवासी ! उन भक्तों जो आपका स्मरण करते है, आप सदैव शुभ और मंगल करते है।।२४।।

हे योगिराज !!! आपको पाने के लिए योगी क्या क्या नहीं करते ? बस्ती से दूर, एकांत में आसन जमाकर, शास्त्रों में बताई गई विधि के अनुसार प्राण की गति को नियंत्रित करने की कठिन साधना करते है और उसमें सफल होने पर हर्षाश्रु बहाते है। सचमुच, सभी प्रकार की साधना का अंतिम लक्ष्य आपको पाना ही है।।२५।।

हे शिव !!! आप ही सूर्य, चन्द्र, धरती, आकाश, अग्नि, जल एवं वायु हैं। आप ही आत्मा भी हैं। हे देव ! मुझे ऐसा कुछ भी ज्ञात नहीं जो आप न हों।।२६।।

हे सर्वेश्वर !!! ॐ शब्द अ, ऊ, म से बना है। ये तीन शब्द तीन लोक – स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल; तीन देव – ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा तीन अवस्था – स्वप्न, जागृति और सुषुप्ति के द्योतक है। लेकिन जब पूरी तरह से ॐ कार का ध्वनि निकलता है तो ये आपके तुरीय पद (तीनों से पर) को अभिव्यक्त करता है।।२७।।

हे शिव ! वेद एवं देवगण आपकी इन आठ नामों से वंदना करते हैं – भव, सर्व, रूद्र , पशुपति, उग्र, महादेव, भीम, एवं इशान। हे शम्भू ! मैं भी आपकी इन नामों की भावपूर्वक स्तुति करता हूँ।।२८।।

हे एकांतप्रिय प्रभु ! आप सब से दूर हैं फिर भी सब के पास है। हे कामदेव को भस्म करनेवाले प्रभु ! आप अति सूक्ष्म है फिर भी विराट है। हे तीन नेत्रोंवाले प्रभु ! आप वृद्ध है और युवा भी है। हे महादेव ! आप सब में है फिर भी सब से पर है। आपको मेरा प्रणाम है।।२९।।

हे प्रभु ! मैं आपको रजोगुण से युक्त सृजनकर्ता जान कर आपके ब्रह्मा स्वरूप को नमन करता हूँ। तमोगुण को धारण करके आप जगत का संहार करते हो, आपके उस रुद्र स्वरूप को मैं नमन करता हूँ। सत्वगुण धारण करके आप लोगों के सुख के लिए कार्य करते हो, आपके उस विष्णु स्वरूप को नमस्कार है। इन तीनों गुणों से पर आपका त्रिगुणातीत स्वरूप है, आपके उस शिव स्वरूप को मेरा नमस्कार है।।३०।।

हे वरदाता (शिव) ! मेरा मन शोक, मोह और दुःख से संतप्त तथा क्लेश से भरा पड़ा है। मैं दुविधा में हूँ कि ऐसे भ्रमित मन से मैं आपके दिव्य और अपरंपार महिमा का गान कैसे कर पाउँगा ? फिर भी आपके प्रति मेरे मन में जो भाव और भक्ति है उसे अभिव्यक्त किये बिना मैं नहीं रह सकता। अतः ये स्तुति की माला आपके चरणों में अर्पित करता हूँ।।३१।।

यदि समुद्र को दवात बनाया जाय, उसमें काले पर्वत की स्याही डाली जाय, कल्पवृक्ष के पेड की शाखा को लेखनी बनाकर और पृथ्वी को कागज़ बनाकर स्वयं ज्ञान स्वरूपा माँ सरस्वती दिनरात आपके गुणों का वर्णन करें तो भी आप के गुणों की पूर्णतया व्याख्या करना संभव नहीं है।।३२।।

हे प्रभु ! आप सुर, असुर और मुनियों के पूजनीय है, आपने मस्तक पर चंद्र को धारण किया है, और आप सभी गुणों से परे है। आपकी इसी दिव्य महिमा से प्रभावित होकर मैं, पुष्पंदत गंधर्व, आपकी स्तुति करता हूँ।।३३।।

पवित्र और भक्तिभावपूर्ण हृदय से जो मनुष्य इस स्तोत्र का नित्य पाठ करेगा, तो वो पृथ्वीलोक में अपनी इच्छा के अनुसार धन, पुत्र, आयुष्य और कीर्ति को प्राप्त करेगा। इतना ही नहीं, देहत्याग के पश्चात् वो शिवलोक में गति पाकर शिवतुल्य शांति का अनुभव करेगा । शिवमहिम्न स्तोत्र के पठन से उसकी सभी लौकिक व पारलौकिक कामनाएँ पूर्ण होंगी।।३४।।

शिव से श्रेष्ठ कोइ देव नहीं, शिवमहिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ कोइ स्तोत्र नहीं है, भगवान शंकर के नाम से अधिक महिमावान कोई मंत्र नहीं है और ना ही गुरु से बढकर कोई पूजनीय तत्व नहीं है ।।३५।।

शिवनहिम्न स्तोत्र का पाठ करने से जो फल मिलता है वो दीक्षा या दान देने से, तप करने से, तीर्थाटन करने से, शास्त्रों का ज्ञान पाने से तथा यज्ञ करने से कहीं अधिक है।।३६।।

पुष्पदन्त गंधर्वों का राजा, चन्द्रमोलेश्वर शिव जी का परम भक्त था। मगर भगवान शिव के क्रोध की वजह से वह अपने स्थान से च्युत हुआ। महादेव को प्रसन्न करने के लिए उसने ये महिम्नस्तोत्र की रचना की है।।३७।।

जो मनुष्य अपने दोनों हाथों को जोड़कर, भक्तिभावपूर्ण, इस स्तोत्र का पठन करेगा, तो वह स्वर्ग-मुक्ति देनेवाले, देवता और मुनिओं के पूज्य तथा किन्नरों के प्रिय ऐसे भगवान शंकर के पास अवश्य जायेगा। पुष्पदंत द्वारा रचित यह स्तोत्र अमोघ और निश्चित फल देनेवाला है।।३८।।

पुष्पदंत गन्धर्व द्वारा रचित, भगवान शिव के गुणानुवाद से भरा, मनमोहक, अनुपम और पुण्यप्रदायक स्तोत्र यहाँ पर संपूर्ण होता है।।३९।।

हे प्रभु ! वाणी के माध्यम से की गई मेरी यह पूजा आपके चरणकमलों में सादर अर्पित है । कृपया इसका स्वीकार करें और आपकी प्रसन्नता मुझ पर बनाये रखें।।४०।।

हे शिव ! हे महेश्वर !!! मैं आपके वास्तविक स्वरुप् को नहीं जानता। लेकिन आप जैसे भी है, जो भी है, मैं आपको प्रणाम करता हूँ।।४१।।

जो इस स्तोत्र का दिन में एक, दो या तीन बार पाठ करता है वह सर्व प्रकार के पाप से मुक्त हो जाता है तथा शिव लोक को प्राप्त करता है।।४२।।

पुष्पदंत द्वारा रचित ये शिवमहिम्नः स्तोत्रम् शिव जी को अत्यंत ही प्रिय है। इसका पाठ करने वाला अपने संचित पापों से मुक्ति पाता है और अंत में भगवान शिव के लोक प्राप्त करता है।।४३।।

।। इति श्री पुष्पदंत विरचितं शिवमहिम्नः स्तोत्रम् समाप्त।।

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