शिवमहापुराण माहात्म्य – अध्याय 2 || Shivamahapuran Mahatmya 2

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शिवमहापुराण माहात्म्य – अध्याय 02 शिवपुराण के श्रवण से देवराज को शिवलोक की प्राप्ति

शिवमहापुराण माहात्म्य – अध्याय 02

दूसरा अध्याय

॥ शौनक उवाच ॥

सूत सूत महाभाग धन्यस्त्वं परमार्थवित् ।

अद्‌भुतेयं कथा दिव्या श्राविता कृपया हि नः ॥ १ ॥

शौनकजी बोले — हे महाभाग सूतजी ! आप धन्य हैं, परमार्थ-तत्त्व के ज्ञाता हैं, आपने कृपा करके हमलोगों को यह बड़ी अद्भुत एवं दिव्य कथा सुनायी है ॥ १ ॥

अघौघविध्वंसकरी मनःशुद्धिविधायिनी ।

शिवसन्तोषजननी कथेय नः श्रुताऽद्भुता ॥ २ ॥

हमने यह पापनाशिनी, मन को पवित्र करनेवाली और भगवान् शिव को प्रसन्न करनेवाली अद्भुत कथा सुनी ॥ २ ॥

एतत्कथासमानं न भुवि किञ्चित्परात्परम् ।

निश्चयेनेति विज्ञातमस्माभिः कृपया तव ॥ ३ ॥

के के विशुद्ध्यन्त्यनया कथया पापिनः कलौ ।

वद तान्कृपया सूत कृतार्थं भुवनं कुरु ॥ ४ ॥

भूतल पर इस कथा के समान कल्याण का सर्वश्रेष्ठ साधन दूसरा कोई नहीं है, यह बात हमने आज आपकी कृपा से निश्चयपूर्वक समझ ली । हे सूतजी ! कलियुग में इस कथा के द्वारा कौन-कौन-से पापी शुद्ध होते हैं ? उन्हें कृपापूर्वक बताइये और इस जगत् को कृतार्थ कीजिये ॥ ३-४ ॥

सूत उवाच –

ये मानवाः पापकृतो दुराचाररताः खलाः ।

कामादिनिरता नित्यं तेऽपि शुद्ध्यन्त्यनेन वै ॥ ५ ॥

सूतजी बोले — हे मुने ! जो मनुष्य पापी, दुराचारी, खल तथा काम-क्रोध आदि में निरन्तर डूबे रहनेवाले हैं, वे भी इस पुराण से अवश्य शुद्ध हो जाते हैं ॥ ५ ॥

ज्ञानयज्ञः परोऽयं वै भुक्तिमुक्तिप्रदः सदा ।

शोधनः सर्वपापानां शिवसन्तोषकारकः ॥ ६ ॥

तृष्णाकुलाः सत्यहीनाः पितृमातृविदूषकाः ।

दाम्भिका हिंसका ये च तेऽपि शुद्ध्यन्त्यनेन वै ॥ ७ ॥

स्ववर्णाश्रमधर्मेभ्यो वर्जिता मत्सरान्विताः ।

ज्ञानयज्ञेन तेऽनेन सम्पुनन्ति कलावपि ॥ ८ ॥

यह कथा वास्तव में उत्तम ज्ञानयज्ञ है, जो सदा सांसारिक भोग और मोक्ष को देनेवाला है, सभी पापों को नष्ट करनेवाला है और भगवान् शिव को प्रसन्न करनेवाला है । जो अत्यन्त लालची, सत्यविहीन, अपने माता-पिता से द्वेष करनेवाले, पाखण्डी तथा हिंसक वृत्ति के हैं; वे भी इस ज्ञानयज्ञ से शुद्ध हो जाते हैं । अपने वर्णाश्रम-धर्म का पालन न करनेवाले और ईर्ष्याग्रस्त लोग भी कलिकाल में इस ज्ञानयज्ञ के द्वारा पवित्र हो जाते हैं ॥ ६-८ ॥

छलच्छद्मकरा ये च ये च क्रूराः सुनिर्दयाः ।

ज्ञानयज्ञेन तेऽनेन सम्पुनन्ति कलावपि ॥ ९ ॥

ब्रह्मस्वपुष्टाः सततं व्यभिचाररताश्च ये ।

ज्ञानयज्ञेन तेऽनेन सम्पुनन्ति कलावपि ॥ १० ॥

सदा पापरता ये च ये शठाश्च दुराशयाः ।

ज्ञानयज्ञेन तेऽनेन सम्पुनन्ति कलावपि ॥ ११ ॥

मलिना दुर्धिर्योऽशान्ता देवताद्रव्यभोजिनः ।

ज्ञानयज्ञेन तेऽनेन सम्पुनन्ति कलावपि ॥ १२ ॥

जो लोग छल-कपट करनेवाले, क्रूर स्वभाववाले और अत्यन्त निर्दयी हैं, कलियुग में वे भी इस ज्ञानयज्ञ से शुद्ध हो जाते हैं । ब्राह्मण के धन से पलनेवाले तथा निरन्तर व्यभिचार-परायण जो लोग हैं, वे भी इस ज्ञानयज्ञ से इस कलिकाल में भी पवित्र हो जाते हैं । जो मनुष्य सदा पापकर्मों में लिप्त रहते हैं, शठ हैं और अत्यन्त दूषित विचारवाले हैं, वे कलियुग में भी इस ज्ञानयज्ञ से निर्मल हो जाते हैं । दुश्चरित्र, दुर्बुद्धि, उद्विग्न चित्तवाले और देवताओं के द्रव्य का उपभोग करनेवाले पापीजन भी कलिकाल में भी इस ज्ञानयज्ञ से पवित्र हो जाते हैं ॥ ९-१२ ॥

पुराणस्यास्य पुण्यं सन्महापातकनाशनम् ।

भुक्तिमुक्तिप्रदं चैव शिवसन्तोषहेतुकम् ॥ १३ ॥

इस पुराण के श्रवण का पुण्य बड़े-बड़े पापों को नष्ट करता है, सांसारिक भोग तथा मोक्ष प्रदान करता है और भगवान् शंकर को प्रसन्न करता है ॥ १३ ॥

अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।

यस्य श्रवणमात्रेण पापहानिर्भवत्यलम् ॥ १४ ॥

इस सम्बन्ध में मुनिगण इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जिसके श्रवणमात्र से पापों का पूर्णतया नाश हो जाता है ॥ १४ ॥

आसीत्किरातनगरे ब्राह्मणो ज्ञानदुर्बलः ।

दरिद्रो रसविक्रेता देवधर्मपराङ्मुखः ॥ १५ ॥

सन्ध्यास्नानपरिभ्रष्टो वैश्यवृत्तिपरायणः ।

देवराज इति ख्यातो विश्वस्तजनवञ्चकः ॥ १६ ॥

स विप्रान्क्षत्रियान्वैश्याञ्छूद्रांश्चापि तथापरान् ।

हत्वा नानामिषेणैव तत्तद्धनमपाहरत् ॥ १७ ॥

अधर्माद्‌बहुवित्तानि पश्चात्तेनार्जितानि वै ।

न धर्माय धनं तस्य स्वल्पञ्चापीह पापिनः ॥ १८ ॥

पहले की बात है —किरात नगर में एक ब्राह्मण रहता था, जो अज्ञानी, दरिद्र, रस बेचनेवाला तथा वैदिक धर्म से विमुख था । वह स्नान-सन्ध्या आदि कर्मों से भ्रष्ट हो गया था और वैश्यवृत्ति में तत्पर रहता था । उसका नाम था देवराज । वह अपने ऊपर विश्वास करनेवाले लोगों को ठगा करता था । उसने ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों तथा दूसरों को भी अनेक बहानों से मारकर उनका धन हड़प लिया था । बाद में उसने अधर्म से बहुत सारा धन अर्जित कर लिया, परंतु उस पापी का थोड़ा-सा भी धन कभी धर्म के काम में नहीं लगा ॥ १५-१८ ॥

एकदैकतडागे स स्नातुं यातो महीसुरः ।

वेश्यां शोभावतीं नाम दृष्ट्वाम तत्रातिविह्वलः ॥ १९ ॥

स्ववशं धनिनं विप्रं ज्ञात्वा हृष्टाऽथ सुन्दरी ।

वार्तालापेन तच्चित्तं प्रीतिमत्समजायत ॥ २० ॥

स्त्रियं कर्तुं स ताम्मेने पतिं कर्तुं च सा तथा ।

एवं कामवशौ भूत्वा बहुकालं विजह्रतुः ॥ २१ ॥

एक दिन वह ब्राह्मण एक तालाब पर नहाने गया । वहाँ शोभावती नाम की एक वेश्या को देखकर वह अत्यन्त मोहित हो गया । वह सुन्दरी भी उस धनी ब्राह्मण को अपने वशीभूत हुआ जानकर प्रसन्न हुई । आपस में वार्तालाप से उनमें प्रीति उत्पन्न हो गयी । उस ब्राह्मण ने उस वेश्या को पत्नी बनाना तथा उस वेश्या ने उसे पति बनाना स्वीकार कर लिया । इस प्रकार कामवश होकर वे दोनों बहुत समय तक विहार करते रहे ॥ १९-२१ ॥

आसने शयने पाने भोजने क्रीडने तथा ।

दम्पतीव सदा द्वौ तु ववृताते परस्परम् ॥ २२ ॥

मात्रा पित्रा तथा पत्न्यात वारितोऽपि पुनः पुनः ।

नामन्यत वचस्तेषां पापवृत्तिपरायणः ॥ २३ ॥

बैठने, सोने, खाने-पीने तथा क्रीड़ा में वे दोनों निरन्तर पति-पत्नी की तरह व्यवहार करने लगे । अपने माता-पिता तथा पत्नी के बार-बार रोकने पर भी पापकृत्य में संलग्न वह ब्राह्मण उनकी बात नहीं मानता था ॥ २२-२३ ॥

एकदेर्ष्यावशाद्रात्रौ मातरं पितरं वधूम् ।

प्रसुप्तान्न्यवधीद्‌दृष्टो धनन्तेषान्तथाऽहरत् ॥ २४ ॥

आत्मनीनं धनं यच्च पित्रादीनां तथा धनम् ।

वेश्यायै दत्तवान्सर्वं कामी तद्गनतमानसः ॥ २५ ॥

सोऽभक्ष्यभक्षकः पापी मदिरापानलालसः ।

एकपात्रे सदाऽभौक्षीत्सवेश्यो ब्राह्मणाधमः ॥ २६ ॥

एक दिन रात्रि में उस दुष्ट ने ईर्ष्यावश अपने सोये हुए माता-पिता और पत्नी को मार डाला और उनका सारा धन हर लिया । वेश्या में आसक्त चित्तवाले उस कामी ने अपना और पिता आदि का सारा धन उस वेश्या को दे दिया । वह पापी अभक्ष्य-भक्षण तथा मद्यपान करने लगा और वह नीच ब्राह्मण उस वेश्या के साथ एक ही पात्र में सदा जूठा भोजन करने लगा ॥ २४-२६ ॥

कदाचिद्दैवयोगेन प्रतिष्ठानमुपागतः ।

शिवालयं ददर्शाऽसौ तत्र साधुजनावृतम् ॥ २७ ॥

एक दिन घूमता-घामता वह दैवयोग से प्रतिष्ठानपुर (झूँसी-प्रयाग)— में जा पहुँचा । वहाँ उसने एक शिवालय देखा, जहाँ बहुत से साधु-महात्मा एकत्र हुए थे ॥ २७ ॥

स्थित्वा तत्र च विप्रोऽसौ ज्वरेणातिप्रपीडितः ।

शुश्राव सततं शैवीं कथां विप्रमुखोद्‌गताम् ॥ २८ ॥

देवराज उस शिवालय में ठहर गया और वहाँ उस ब्राह्मण को ज्वर आ गया । उस ज्वर से उसको बड़ी पीड़ा होने लगी । वहाँ एक ब्राह्मणदेवता शिवपुराण की कथा सुना रहे थे । ज्वर में पड़ा हुआ देवराज ब्राह्मण के मुखारविन्द से निकली हुई उस शिवकथा को निरन्तर सुनता रहा ॥ २८ ॥

देवराजश्च मासान्ते ज्वरेणापीडितो मृतः ।

बद्धो यमभटैः पाशैर्नीतो यमपुरम्बलात् ॥ २९ ॥

एक मास के बाद वह ज्वर से अत्यन्त पीड़ित होकर चल बसा । यमराज के दूत आये और उसे पाशों से बाँधकर बलपूर्वक यमपुरी में ले गये ॥ २९ ॥

तावच्छिवगणाः शुभ्रास्त्रिशूलाञ्चितपाणयः ।

भस्मभासितसर्वाङ्गा रुद्राक्षाञ्चितविग्रहाः ॥ ३० ॥

शिवलोकात्समागत्य क्रुद्धा यमपुरीं ययुः ।

ताडयित्वा तु तदूतांस्तर्जयित्वा पुनः पुनः ॥ ३१ ॥

देवराजं समामोच्य विमाने परमाद्‌भुते ।

उपवेश्य यदा दूताः कैलासं गन्तुमुत्सुकाः ॥ ३२ ॥

इतने में ही शिवलोक से भगवान् शिव के पार्षदगण आ गये । उनके गौर अंग कर्पूर के समान उज्वल थे, हाथ त्रिशूल से सुशोभित हो रहे थे, उनके सम्पूर्ण अंग भस्म से उद्भासित थे और रुद्राक्ष की मालाएँ उनके शरीर की शोभा बढ़ा रही थीं । वे सब-के-सब क्रोध करते हुए यमपुरी में गये और यमराज के दूतों को मार-पीटकर, बारम्बार धमकाकर उन्होंने देवराज को उनके चंगुल से छुड़ा लिया और अत्यन्त अद्भुत विमान पर बिठाकर जब वे शिवदूत कैलास जाने को उद्यत हुए ॥ ३०-३२ ॥

तदा यमपुरीमध्ये महाकोलाहलोऽभवत् ।

धर्मराजस्तु तं श्रुत्वा स्वालयाद्बदहिरागमत् ॥ ३३ ॥

दृष्ट्वातऽथ चतुरो दूतान्साक्षाद्‌रुद्रानिवापरान् ।

पूजयामास धर्मज्ञो धर्मराजो यथाविथि ॥ ३४ ॥

उस समय यमपुरी में बड़ा भारी कोलाहल मच गया, उस कोलाहल को सुनकर धर्मराज अपने भवन से बाहर आये । साक्षात् दूसरे रुद्रों के समान प्रतीत होनेवाले उन चारों दूतों को देखकर धर्मज्ञ धर्मराज ने उनका विधिपूर्वक पूजन किया ॥ ३३-३४ ॥

ज्ञानेन चक्षुषा सर्वं वृत्तान्तं ज्ञातवान्यमः ।

न भयात्पृष्टवान्किञ्चिच्छम्भोर्दूतान्महात्मनः ॥ ३५ ॥

यम ने ज्ञानदृष्टि से देखकर सारा वृत्तान्त जान लिया, उन्होंने भय के कारण भगवान् शिव के उन महात्मा दूतों से कोई बात नहीं पूछी ॥ ३५ ॥

पूजिता प्रार्थितास्ते वै कैलासमगमंस्तदा ।

ददुश्शिवाय साम्बाय तं दयावारिराशये ॥ ३६ ॥

यमराज से पूजित तथा प्रार्थित होकर वे शिवदूत कैलास को चले गये और उन्होंने उस ब्राह्मण को दयासागर साम्ब शिव को दे दिया ॥ ३६ ॥

धन्या शिवपुराणस्य कथा परमपावनी ।

यस्याः श्रवणमात्रेण पापीयानपि मुक्तिभाक् ॥ ३७ ॥

सदाशिवमहास्थानं परं धाम परम्पदम् ।

यदाऽऽहुर्वेदविद्वांसः सर्वलोकोपरि स्थितम् ॥ ३८ ॥

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा अन्येऽपि प्राणिनः ।

हिंसिता धनलोभेन बहवो येन पापिना ॥ ३९ ॥

मातृपितृवधूहन्ता वेश्यागामी च मद्यपः ।

देवराजो द्विजस्तत्र गत्वा मुक्तोऽभवत्क्षणात् ॥ ४० ॥

इति श्रीस्कान्दे महापुराणे शिवपुराणमाहाम्ये देवराजमुक्तिवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

शिवपुराण की यह परम पवित्र कथा धन्य है, जिसके सुनने से पापीजन भी मुक्ति के योग्य बन जाते हैं । भगवान् सदाशिव के परमधाम को वेदज्ञ सभी लोकों में सर्वश्रेष्ठ बताते हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्य प्राणी; यहाँ तक कि जिस पापी ने धन के लोभ से अनेक लोगों की हत्या की तथा अपने माता-पिता और पत्नी को भी मार डाला; वह वेश्यागामी, शराबी ब्राह्मण देवराज भी इस कथा के प्रभाव से भगवान् शिव के परमधाम को प्राप्तकर तत्क्षण मुक्त हो गया ॥ ३७-४० ॥

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दमहापुराण के अन्तर्गत शिवपुराण माहात्म्य में देवराजमुक्ति वर्णन नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २ ॥

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