श्री विष्णु स्तवन, Shree Vishnu Stavan

0

ॐ आदाय वेदान् सकलान् समुद्रान्निहत्य शंखे रिपुमत्युदग्रम् |

दत्ताः पुरा येन पितामहाय विष्णुं तमाद्यं भज मत्स्यरूपम् || १ ||

जिन्होंने ( विष्णु ने ) भीषण शत्रु शंखासुर को मारकर समुद्र के भीतर

से सभी वेदो का उद्धार किया और पितामह ब्रह्माजी को वो सभी वेद

प्रदान किया उन्ही आदिरूपी विष्णु में वंदना करता हु ( करती हु ) ||

दिव्यामृतार्थं मथिते महाब्धौ देवासुरैर्वासुकिमन्दराद्यैः |

भूमेर्महावेगविघूर्णिता यास्तं कूर्ममाधारगतं स्मरामि || २ ||

दिव्य अमृत को पाने के लिए सुर और असुर मिलकर वासुकि नाग और मंदर पर्वत के द्वारा

समुद्र का मंथन करते है | उसी मंथन के वेग से पृथ्वी विचलित होने लगी | उस समय जिन्होंने

आधाररूप बनकर पृथ्वी की रक्षा की उन कूर्म भगवान की में वंदना करता हु ( करती हु ) ||

समुद्रकांची सरिदुत्तरिया वसुंधरा मेरुकिरीटभारा |

दंष्ट्राग्रतो येन समुद्धृता भूस्तमादिकीलं शरणं प्रपद्ये || ३ ||

समुद्र ( सागर ) जिनकी करधनी है,नदी जिसका उत्तरीय है,

सुमेरु पर्वत जिसके मस्तक का मुकुट है,उस वसुमती पृथ्वी को

जिन्होंने दाँतो के अग्रभाग से धारण किया था

उन्ही शूकररूपी विष्णु की में शरण लेता हु ( लेती हु ) ||

भक्तार्तिभङ्गक्षमया धिया यः स्तंभांतरालादुदितो नृसिंहः |

रिपुं सुराणां निशितैर्नखाग्रैर्वीदारयन्तं न च विस्मरामि || ४ ||

जिन्होंने भक्त प्रह्लाद का उद्धार किया उनके कष्ट के विनाश के लिए स्फटिक खम्भे से प्रकट होकर

देवो के शत्रु हिरण्यकशिपु को अपने तीखे नखो के अग्रभाग से फाड़ दिया था,

उन्ही नृसिंह भगवान् को में कभी नहीं भूलता ( नहीं भूलती ) ||

चतुस्समुद्राभरणा धरित्री न्यासाय नालं चरणस्य यस्य |

एकस्य नान्यस्य पदं सुराणां त्रिविक्रमं सर्वगतं नमामि || ५ ||

चार समुद्र जिनके आभूषण है,उसी पृथ्वी पर जिनके पैर रखने के लिए स्थान नहीं

बचा और देवभूमि स्वर्ग में भी जिनके दूसरे पग रखने के लिए स्थान नहीं मिला था

उन्ही सर्वव्यापी त्रिविक्रम भगवान् को में प्रणाम करता हु ( करती हु ) ||

त्रिःसप्तकृत्वो नृपतिन्निहत्य यस्तर्पणं रक्तमयं पितृभ्यः |

चकार दोर्दण्डबलेन सम्यक् तमादिशूरं प्रणमामि रामम् || ६ ||

जिन्होंने अपनी भुजाओ की शक्ति से समस्त पृथ्वी पर क्षत्रियो के समूहों का

इक्किस बार संहार किया था,रक्तरूपी जल से उन्होंने पितरो का तर्पण किया

समस्त पृथ्वी को अपनी भुजाओ के बल से जिन्होंने उपभोग्य बनाया

उन आदि परशुराम को में प्रणाम करता हु ( करती हु ) ||

कुले रघूणां समवाप्य जन्म विधाय सेतुं जलधेर्जलान्तः |

लंकेश्वरं यः समयांचकार सीतापतिं तं प्रणमामि भक्त्या || ७ ||

जिन्होंने रघुवंश में जन्म लेकर समुद्र में पुल बनाकर लङ्का के राजा रावण का विनाश

किया था,उन सीतापति श्री रामचन्द्रजी को में भक्तिपूर्वक प्रणाम करता हु ( करती हु ) ||

हलेन सर्वानसुरान्निकृष्य चकार चूर्णं मुसलप्रहारैः |

यः कृष्ण्मासाद्य बलं बलियान् भक्त्या भजे तं बलभद्ररामम् || ८ ||

कृष्ण के बल से बलवान होकर जिन्होंने हल से सभी असुरो का आकृष्ट

कर मूसल के प्रहार से चूर चूर कर दिया था,उन्ही बलभद्र राम की में वंदना करता हु ( करती हु ) ||

पुरा सुराणामसुरान विजेतुं संभावयच्छ्रीवरचिह्नवेशम् |

चकार यः शास्त्रममोघकल्पं तं मुलभूतं प्रणतोऽस्मि बुद्धम् || ९ ||

पूर्वकाल में जिन्होंने असुरो को जितने के लिए चीवर वेश धारण किया था

देवताओ के बीच अव्यर्थ शास्त्र का प्रचार किया था,

उन मौलिक बुद्ध को में प्रणाम करता हु ( करती हु ) ||

कल्पावसाने निखिलैः सुरैः स्वैः संघट्टयामास निमेषमात्रात् |

यस्तेजसा स्वेन ददाह भीमो विष्णवात्मकं तं तुरगं भजामः || १० ||

प्रलयकाल में जिन्होंने संसार को नष्ट कर दिया था

अत्यंत भीषण रूप धारण कर अपने तेज से ब्रह्माण्ड को

जिसने भस्म कर दिया था उन्ही विष्णु के हयावतार की में

वन्दना करता हु ( करती हु ) ||

शंखं सुचक्रं सुगदां सरोजं दोर्भिर्दधानं गरुड़ाधिरूढ़म् |

श्रीवत्सचिह्नं जगदादिमूलं तमालनीलं ह्रदि विष्णुमीडे || ११ ||

जिन्होंने अपने चारो हाथो में ( चतृर्भुजाओ में )

शङ्ख,चक्र,गदा.पद्म(कमल) धारण किया है

जो गरुड़ पर आरूढ़ है(गरुड़ जिनका वाहन है)

जो श्रीवत्सचिह्न से शोभित है,जगत के कारणरूप है,

तमलसदृश निल वर्ण वाले है उन भगवान् विष्णु की

में हृदय से स्तुति करता हु ( करती हु )

क्षीराम्बुधौ शेषविशेषकल्पे शयानमन्तः स्मितशोभिवक्त्रम् |

उत्फुल्लनेत्राम्बुजमम्बुदाभमाद्यं श्रुतीनामसकृत्स्मरामि || १२ ||

क्षीरसागर में शेषनाग की शैय्या पर जो सोये हुए है,

जिनके मुखमण्डल पे स्मित हास्य है,मंद हास्य है,

जिनके दोनों नेत्र विकसित कमल जैसे है

उन्ही घनश्याम वर्ण के आदि विष्णु को में बारम्बार प्रणाम करता हु ( करती हु ) ||

प्रीणयेदनया स्तुत्या जगन्नाथं जगन्मयम् |

धर्मार्थकाममोक्षाणामाप्तये पुरुषोत्तमम् || १३ ||

धर्म अर्थ काम मोक्ष की प्राप्ति के लिए इस स्तुति के द्वारा जगद्व्यापी

जगदीश्वर श्रेष्ठ पुरुष को प्रसन्न करना चाहिए || १३ ||

|| विष्णु स्तवन समाप्तः ||

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *