श्री अरविन्दोपनिषद् || Shri Aravindopanishad

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श्री अरविन्दोपनिषद् में बतलाया गया है कि- ब्रह्म क्या है?उनका स्वरूप कैसा है?

|| अथ श्री अरविन्दोपनिषद् ||

ॐ एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म सदसद्रूपं सदसदसीतं नान्यत् किञ्चिदस्ति त्रिकालधृतं त्रिकालातीतं वा सर्वन्तु खलु ब्रह्मैकं यत् किञ्च जगत्यामणु वा महद्वोदारं वानुदारं वा ब्रह्मैव तद् ब्रह्मैव जगदपि ब्रह्म सत्यं न मिथ्या॥ ||१||

ॐ ब्रह्म ही एक मात्र सत्ता है। उसके अतिरिक्त कोई अन्य दूसरी सत्ता नहीं है। सत् तथा असत् इसी के रूप हैं। यह सत् और असत् दोनों से परे भी है। इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। तीनों काल में जो कुछ है और तीनों काल से परे जो कुछ है वह वास्तव में एकमात्र वही ब्रह्म है। ब्रह्माण्ड में जो कुछ है लघु या विशाल, उदात्त अथवा हेय वह केवल ब्रह्म है, केवल ब्रह्म । विश्व भी ब्रह्म है । यह सत्य है, मिथ्या नहीं।

स एव परात्परः पुरुषस्त्रिकालातीतः सकलभुवनातीतः सकलभुवनप्रविष्टः सदतीतोऽसदतीतः सन्मयः चिन्मयः आनन्दमयोऽनाद्यन्तः सनातनो भगवान्॥ ||२||

केवल वही परात्पर सत्ता है। तीनों काल से परे, सभी जगतों से परे, सभी जगतों में जो विद्यमान है, सत् से परे, असत् से परे, सर्वसत्, सर्वचित्, सर्व आनन्द, अनादि-अनन्त, सनातन प्रभु।

स निर्गुणो गुणान् धत्ते सगुणोऽनन्तगुणो निर्गुणत्वम् भुङ्क्ते स्वयञ्चातिवर्तते निर्गुणत्वञ्च सगुणत्वञ्च न निर्गुणो न गुणी केवल एव यः॥ ||३||

वह निर्गुण है, फिर भी सभी गुणों को धारण करता है। वह अपने सगुण स्वरूप में अनन्त गुणों के साथ होते हुए भी निर्गुण अवस्था का आनन्द लेता है। निर्गुण और सगुण दोनों अवस्थाओं से वह स्वयं परे चला जाता है। वह न तो निर्गुण है, न सगुण, क्योंकि वह एकं एवं एकल है।

स भुवनातीतो भुवनानि धारयति भुवनभूतो भुवनानि प्रविशति कालातीतः कालो भवत्यनन्तः सान्तः प्रकाशत एको बहवोऽरूपो रूपी विद्याविद्यामय्या चिच्छक्त्या॥ ||४||

वह विश्वातीत है, फिर भी विश्वों को धारण करता है। वह विश्वों के साथ तद्रूप बन जाता है और उनमें प्रवेश करता है। वह कालातीत है और काल भी है। अनन्त होकर भी वह सान्त बनकर प्रकाशित होता है। एकं होकर वह बहु बन जाता है। निराकार होकर भी वह साकार बन जाता है। वह यह सब विद्या और अविद्या रूपी अपनी चित् शक्ति से सिद्ध करता है।

स्वयन्तु न धर्ता न धार्यो नानन्तः न सान्तो नैको न बहुः नारूपो न रूपी केवल एव यः॥ ||५||

वह न तो धारणकर्ता है और न धार्य है, न तो अनन्त है, न सान्त; न तो एकं है न बहु, न निराकार है न साकार, क्योंकि वह एकं एवं एकल है।

सर्वाणि त्वेतानि नामानि यदेकत्वञ्च बहुत्वञ्चानन्तञ्च सान्तञ्च प्रकाशन्त एव चिदात्मनि चिन्मये जगति॥ ||६||

ये सब मात्र नाम हैं जिसे एकत्व और जिसे बहुत्व कहा जाता है, जिसे अनन्त और जिसे सान्त कहा जाता है; सच है कि ये सब नाम विश्व में प्रकाशित होते हैं जिसकी आत्मा ही चित् शक्ति है और जगत केवल चित्शक्ति से ही निर्मित हुआ है।

ॐ तत्सत् यच्च सच्चिदेव तच्चिन्मयं जगत् भासते चिदात्मनि सत्यप्रकाशः सत्यस्य भगवतः॥ ||७||

ओम् (त्रिविध ब्रह्म, बहिर्मुखी, अन्तर्मुखी अथवा सूक्ष्म तथा अतिचेतन कारण पुरुष), तत् (निरपेक्ष), सत् (परम तथा वैश्व सत्ता मूल तत्व में) और जो सत् है वही चित् है। चित् से निर्मित विश्व आत्मन में प्रकाशित होता है जो चित् ही है। यह सच्चे भगवान का सच्चा प्रकाश है।

यथा सूर्यस्य प्रतिबिम्ब एकः शान्ते जले बहवश्चले सत्यः सूर्यः सत्यः प्रतिबिम्बः सत्यप्रकाशः सतः सूर्यस्य न स स्वप्नः सतः प्रकाशस्तु सः, यथा वा सूर्यस्य ज्योतिः सौरं जगत् स्वशक्त्या धावदिव पूरयत् प्रकाशते सत्यं ज्योतिः सत्यप्रकाशः सतः सूर्यस्य न सोऽलीका भातिः सतः सत्यप्रकाशस्तु सः यथा वा सूर्यस्य ज्वालामयं बिम्बं न स्वयं सूर्यः सूर्यस्य तु सूर्यत्वं प्रकाशयत्येतदन्नमयं रूपमन्नाश्रिते ज्ञाने तद्रूपातीतस्तु सूर्यः सत्यः सूर्यः सत्यं रूपं बिम्बाकृति सत्यप्रकाशः सतः सूर्यस्य न स मायान्वितः सतः सत्यप्रकाशस्तु सः, तथेह जगद्ब्रह्म सत्यप्रकाशो भगवतः न स्वप्नः न मायान्वितं नालीका भातिः सतः सत्यप्रकाशस्तु तद् न स्वयं भगवान् तथापि स्वयमेव सः। एषा परा मायैषा योगमाहात्म्यं रहस्यमयस्य योगेश्वरस्य कृष्णस्यैषा चिच्छक्त्या आनन्दमयी लीला परस्यातर्क्या गतिः॥ ||८||

जिस प्रकार प्रशान्त जल में सूर्य का प्रतिबिम्ब एक होता है, किन्तु अशान्त जल में अनेक प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ते है; सूर्य वास्तविक होता है, प्रतिबिम्ब भी वास्तविक होता है, वास्तविक सूर्य का वास्तविक प्रकाश, यह स्वप्न नहीं है बल्कि एक वास्तविकता का प्रकाश है। अथवा जैसे सूर्य का प्रकाश सौर जगत को अपनी शक्ति से परिपूर्ण कर चमकता है मानों प्रवाहित हो रहा हो; वह प्रकाश वास्तविक है, वास्तविक सूर्य की वास्तविक कान्ति। वह मिथ्या प्रकाश नहीं है, बल्कि एक वास्तविकता की वास्तविक कान्ति है। अथवा जिस प्रकार सूर्य का प्रज्वलित मण्डल स्वयं सूर्य नहीं है, बल्कि यह भौतिक रूप केवल सूर्य की सूर्यता को हमारे ज्ञान में अभिव्यक्त करता है जो भौतिक सत्ता पर निर्भर है, सूर्य उस रूप से परे है; वास्तविक है सूर्य, मण्डल के आकार में रूप भी वास्तविक है वास्तविक सूर्य का वास्तविक प्रकाश है, माया नहीं है, बल्कि एक वास्तविकता का वास्तविक प्रकाश है।

उसी प्रकार यहाँ जगत-ब्रह्म भगवान का सच्चा प्रकाश है, एक स्वप्न नहीं, न अवास्तविक और न एक मिथ्या प्रकाश है। यह वास्तविकता का वास्तविक प्रकाश है, अपने आप में भगवान नहीं, फिर भी वह केवल स्वयं है।

यह परम माया है, यह योग के गुह्य स्वामी श्रीकृष्ण के योग की महानता है। यह अपनी चित् शक्ति के साथ उसकी आनन्दमय लीला है, यह परम की कल्पनातीत कार्यप्रणाली है।

सर्वमिदमर्थतः सत्यं परार्थतः असत्यमिति मनस्तुष्ट्यर्थं विज्ञानार्थमुच्यतां न हि किञ्चिदप्यसत्यं सत्ये ब्रह्मणि॥ ||९||

यह सब प्रतीयमानरूप से सत्य है, किन्तु वास्तविकता में मिथ्या है यह मन की सन्तुष्टि के लिए है; व्यापक ज्ञान के लिए यही कहना होगा कि वास्तविक ब्रह्म में कुछ भी अवास्तविक नहीं है।

एवं यत् प्रकाशते जगदानन्द एव तत्॥ ||१०||

इस प्रकार जो अभिव्यक्त होता है वह केवल जगतानन्द है।

ॐ तत्सत् यच्च सच्चिदेव तद्यच्च चित् स आनन्दः। यत्तु निरानन्दमिति भासते दुःखमिति दुर्बलमित्यज्ञानमिति तदानन्दस्य विकार आनन्दस्य क्रीडा॥ ||११||

ओम् (त्रिविध ब्रह्म, बहिर्मुखी, अन्तर्मुखी अथवा सूक्ष्म तथा अतिचेतन कारण पुरुष), तत् (निरपेक्ष), सत् (परम तथा वैश्व सत्ता अपने मूल तत्व में)। और जो सत् है वही चित् है और जो चित् है वही आनन्द है। जहाँ तक उस चीज का प्रश्न है जो निरानन्द प्रतीत होता है, पीड़ा, दौर्बल्य और अज्ञान प्रतीत होता है, वह उस आनन्द की विकृति है या क्रीडा है।

यो हि जीवः स आनन्दमयः प्रच्छन्नो भगवान् स्वप्रकाशमयं जगद्ब्रह्म भोक्तुमवतीर्णः। यः एष दुःखभोगः स भोग एवानन्दमयस्तस्यानन्दमेवानन्दमयो भुङ्क्ते॥ ||१२||

वह, सचमुच, जो जीव है या व्यष्टि-रूप आत्मा है वह छद्म वेश में सर्व आनन्दमय भगवान ही है और आत्म प्रकाशित जगत-ब्रह्म का आनन्द लेने के लिए अवतरित हुआ है। पीडा की अनुभूति जो होती है वह आनन्द की ही अनुभूति होती है। सर्व आनन्दमय केवल अपने आनन्द का ही उपयोग करता है।

को हि निरानन्दं भोक्तुमुत्सहेत यः सर्वानन्दमयः स एवोत्सहते निरानन्दमयस्तु निरानन्दं भुञ्जानः न भुञ्जीतानन्दं विना प्रणश्येत्। को दुर्बलो भवितुं शक्नुयाद्यः सर्वशक्तिमान् स एव शक्नुयाद् दुर्वलो ह्याक्रान्तो दुर्वलत्वेन न तिष्ठेच्छक्तिं विना प्रणश्येत्। कोऽज्ञानं प्रवेष्टुं समर्थो यः सर्वज्ञानमयः स एव समर्थोऽज्ञस्तु तस्मिंस्तिमिरे न ध्रियेतासत्त्वसदेव भवेद् ज्ञानं विना प्रणश्येत्। ज्ञानस्य क्रीडाऽज्ञानं स्वस्मिन्नात्मगोपनं शक्तेः क्रीडा दौर्वल्यं निरानन्दमानन्दस्य क्रीडात्मगोपनं स्वात्मनि॥ ||१३||

कौन भला निरानन्द का भोग करने का साहस कर सकता है? केवल वही साहस करेगा जो सर्व आनन्दमय है। जहाँ तक निरानन्द व्यक्ति का प्रश्न है, वह निरानन्द में आनन्द नहीं प्राप्त कर सकेगा, बल्कि आनन्द के बिना नष्ट हो जायेगा। दुर्बल कौन बन सकता है? केवल वही जो सर्वशक्तिमान है। दुर्बल व्यक्ति वास्तव में दुर्बलता से आक्रान्त होने पर सहन नहीं कर पायेगा बल्कि शक्ति के बिना नष्ट हो जायेगा। अज्ञान में भला कौन प्रवेश कर सकता है? केवल वही प्रवेश कर सकता है जो सर्वज्ञ है। जहाँ तक अज्ञानी का प्रश्न है वह अन्धकार में जीवित बच नहीं सकता, असत् केवल असत् ही रहेगा। यह ज्ञान के बिना नष्ट हो जायेगा। अज्ञान ज्ञान की क्रीडा है, अपने आप में अपने आप का संगोपन। दौर्बल्य शक्ति की क्रीडा है, निरानन्द आनन्द की क्रीडा है, अपने आप में अपने आप का संगोपन।

सानन्दं हसति जीवः सानन्दं क्रन्दत्यश्रूणि मुञ्चति तमोमय आनन्दे भासमान इव यातनाभिश्चेष्टमानः सानन्दं स्फुरति सानन्दं स्फुरति चेष्टमानः प्रचण्डाभी रतिभिः। पूर्णभोगार्थं तस्यानन्दस्य तामसस्यांशस्य तामसो भूत्वानन्दं गोपयति॥ ||१४||

जीव आनन्दपूर्वक हँसता है, आनन्दपूर्वक चीखता है, आँसू बहाता है, मानों अन्धकारमय आनन्द में यन्त्रणा से उत्पीडि়त होकर आनन्दपूर्वक कांपता है, हिंसात्मक खुशियों के द्वारा आन्दोलित होकर आनन्दपूर्वक आलोडि়त होता है। क्योंकि उस आनन्द के अन्धकारमय अज्ञानपूर्ण अंश के सम्पूर्ण उपभोग के लिए वह (जीव) आच्छादित और अज्ञानी बनकर इसे छिपाता है।

अज्ञानं मूलमेतस्य भावस्य सान्त एवाहमीत्यशक्तो दुर्वलो दुःखी मया कर्तव्यं ज्ञातव्यं लब्धव्यं प्रयासेन तपःक्षयेण मृत्युना स त्वमेषोऽहं यत्त्वं न तदहं यत्तव शुभं तन्ममाशुभं येन तव लाभस्तेन मम हानिः त्वामेव हन्यां सुखी भविष्यामि नैव सात्त्विकोऽहं त्वामेव सुखिनं करोमि स्वदुःखेन स्वहान्या स्वमृत्युनेत्याद्यज्ञानस्य स्वरूपं मनसि॥ ||१५||

अज्ञान इस धारणा का मूल है कि मैं असीम हूँ और इसीलिए असमर्थ हूँ, दुर्बल और दुःखी हूँ। मुझे श्रम और ऊर्जा के मूल्य पर कर्म करना, ज्ञान अर्जित करना और उपलब्ध करना पड़ता है और फिर मृत्यु को स्वीकार करना पड़ता है। तुम वह हो, मैं यह हूँ, जो तुम हो वह मैं नहीं हूँ, जो तुम्हारे लिए अच्छा है, वह मेरे लिए बुरा है, जिससे तुम्हें लाभ मिलता है उससे मुझे हानि होती है, मैं तभी प्रसन्न रहूँगा यदि मैं तुम्हें मार दूँ। मैं उतना ज्योतिर्मय तथा प्रसन्नचित्त बिल्कुल नहीं हूँ कि मैं तुझे अपनी यंत्रणा द्वारा, अपनी हानि तथा मृत्यु आदि द्वारा तुझे प्रसन्न रख सकूं। अज्ञान का मन में यही रूप होता है।

अहङ्कार एव वीजमहङ्कारमोक्षादज्ञानमोक्षः अज्ञानमोक्षाद् दुःखान्मुच्यते आनन्दमयोऽहं सोऽहमेकोऽहमनन्तोऽहं सर्वोऽहमिति विज्ञायानन्दमयो भवत्यानन्दो भवति॥ ||१६||

इसका बीज वास्तव में अहं है। अहं से मुक्ति द्वारा व्यक्ति अज्ञान से मुक्त हो जाता है। अज्ञान से मुक्ति द्वारा व्यक्ति कष्ट से मुक्ति पा लेता है। यह जान लेने पर कि मैं सर्व आनन्दमय हूँ, वही मैं हूँ, मैं एकं हूँ, मैं अनन्त हूँ, मैं सर्वं हूँ, व्यक्ति स्वयं आनन्द से पूर्ण हो जाता है और स्वयं आनन्द बन जाता है।

एष एव मोक्षः। स मुक्तः सर्वेषां भोगान् भुङ्क्ते सर्वानानन्दाननन्तं भुञ्जानो न सान्तैर्वियुज्यते सान्तानि भुञ्जानो नानन्तेन हीयते स एको भवति बहुर्भवति स ह्यजो जायत इव जायमानोऽपि न जायते न बध्यते न जन्म तस्य विद्यते आत्मन्यात्मात्मना प्रकाशयाम्यात्मानमिति ज्ञानाद् विमुक्तः क्रीडते॥ ||१७||

यही है वास्तव में मुक्ति। मुक्त होकर वह सबके आनन्द में आनन्द अनुभव करता है, सभी हर्षोल्लास का अनन्त रूप से उपभोग करते हुए वह सान्त जगत से पृथक् नहीं होता, सान्त जगत में आनन्द का उपभोग करते हुए वह अनन्त से वंचित नहीं होता। वह एकं है, वह बहु बन जाता है। वह सचमुच अजन्मा है और ऐसा भासित होता है कि वह जन्म लेता है। यहाँ तक कि जन्म लेकर भी वह जन्म नहीं लेता, वह बद्ध नहीं होता। उसका जन्म नहीं होता। “मैं, आत्मन्, आत्मन् में, आत्मन् को उद्घाटित करता हूँ”— इस ज्ञान के द्वारा मुक्त होकर व्यक्ति लीला में आनन्द लेता है।

लीलार्थं हि जगदानन्दार्थं लीलामय इति लीलां कुरुतानन्दस्य पुत्राः युक्ताः क्रीडतानन्दं भुङ्ग्ध्वमेकं भोग्यं भगवन्तं प्राप्य भुङ्ग्ध्वं सर्ववस्तुषु॥ ||१८||

यह जगत लीलामय की लीला और आनन्द के लिए ही है। वह आनन्द के लिए ही लीलामय हो गया है। इसलिए हे आनन्द की सन्तान, उस लीलामय से युक्त होकर लीला का आनन्द लो, आनन्द का उपभोग करो। उस एक मात्र भोग्य भगवान को प्राप्त करके सभी वस्तुओं में विद्यमान उस परम का आनन्द लो।

आनन्दं हि प्रवक्ष्यामि भगवतादिष्टः। तामसमपावृत्यानन्दः प्रकाशतां तस्य पुत्राः॥ ||१९||

भगवान का आदेश पाकर मैं सचमुच आनन्द का प्रतिपादन करता हूँ। अन्धकार को हटाकर आनन्द को प्रकाशित होने दो। हे आनन्द के पुत्रो! हे आनन्द के पुत्रो!

इति:श्री अरविन्दोपनिषद् समाप्त ||

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