श्रीकृष्णस्तोत्र कालियकृत || Shri Krishna Stotra by Kaliya

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जो कालिय नागराज द्वारा किये गये श्रीकृष्णस्तोत्र का प्रातःकाल उठकर पाठ करता है, उसे तथा उसके वंशजों को कभी नागों से भय नहीं होता। वह भूतल पर नागों की शय्या बनाकर सदा उस पर शयन कर सकता है। उसके भोजन में विष और अमृत का भेद नहीं रह जाता। जिसको नाग ने ग्रस लिया हो, काट खाया हो, अथवा विषैला भोजन करने से जिसके प्राणान्त की सम्भावना हो गयी हो, वह मनुष्य भी इस स्तोत्र को सुनने मात्र से स्वस्थ हो जाता है।

श्रीकृष्णस्तोत्रम् कालियकृतं

कालिय उवाच ।।

वरेऽन्यस्मिन्मम विभो वाञ्छा नास्ति वरप्रद ।

भक्तिं स्मृतिं त्वत्पदाब्जे देहि जन्मनि जन्मनि ।।१।।

कालिय ने कहा– वरदायक प्रभो! दूसरे किसी वर के लिये मेरी इच्छा नहीं है। प्रत्येक जन्म में मेरी आपके चरणकमलों में भक्ति बनी रहे और मैं सदा आपके उन चरणारविन्दों का चिन्तन करता रहूँ; यही वर मुझे दीजिये।

जन्म ब्रह्मकुले वाऽपि तिर्यग्योनिषु वा समम् ।

तद्भवेत्सफलं यत्र स्मृतिस्त्वच्चरणाम्बुजे ।।२।।

जन्म ब्राह्मण के कुल में हो या पशु-पक्षियों की योनियों में, सब समान है। वही जन्म सफल है, जिसमें आपके चरणकमलों की स्मृति बनी रहे।

तन्निष्फलः स्वर्गवासो नास्ति चेत्त्वत्पदस्मृतिः ।

त्वत्पादध्यानयुक्तस्य यत्तत्स्थानं च तत्परम् ।।३।।

यदि आपके चरणों का स्मरण न हो तो देवता होकर स्वर्ग में रहना भी निष्फल है। जो आपके चरणों के चिन्तन में तत्पर है, उसे जो भी स्थान प्राप्त हो, वही सबसे उत्तम है।

क्षणं वा कोटिकल्पं वा पुरुषायुः क्षयोऽस्तु वा ।

यदि त्वत्सेवया याति सफलो निष्कलोऽथवा ।।४।।

उस पुरुष की आयु एक क्षण की हो या करोड़ों कल्पों की, अथवा उसकी आयु तत्काल ही क्षीण होने वाली क्यों न हो; यदि वह आपकी आराधना में बीत रही है तो सफल है, अन्यथा उसका कोई फल नहीं है– वह व्यर्थ है।

तेषां चायुर्व्ययो नास्ति ये त्वत्पादाब्जसेवकाः ।

न सन्ति जन्ममरणरोगशोकार्तिभीतयः ।।५।।

जो आपके चरणारविन्दों के सेवक हैं, उनकी आयु व्यर्थ नहीं जाती, सार्थक होती है। उन्हें जन्म-मरण, रोग-शोक और पीड़ा का कुछ भी भय नहीं रहता– वे इनकी कुछ भी परवाह नहीं करते।

इन्द्रत्वे वाऽमरत्वे वा ब्रह्मत्वे चातिदुर्लभे ।

वाञ्छा नास्त्येव भक्तानां त्वत्पादसेवनं विना ।।६।।

भक्तों के मन में आपके चरणों की सेवा को छोड़कर इन्द्रपद, अमरत्व अथवा परम दुर्लभ ब्रह्मपद को भी पाने की इच्छा नहीं होती।

सुजीर्णपटखण्डस्य समं नूतनमेव च ।

पश्यन्ति भक्ताः किं चान्यत्सालोक्यादिचतुष्टयम् ।।७।।

आपके भक्तजन सालोक्य आदि चार प्रकार की मुक्तियों को अत्यन्त फटे पुराने वस्त्र के चिथड़े के समान तुच्छ देखते हैं।

संप्राप्तस्त्वन्मनुर्ब्रह्मन्ननंताद्यावदेव हि ।

तावत्त्वद्भावनेनैव त्वद्वर्णोऽहमनुग्रहात् ।।८।।

ब्रह्मन! मैंने भगवान अनन्त के मुख से ज्यों ही आपके मन्त्र का उपदेश प्राप्त किया, त्यों ही आपकी भावना करते-करते आपके अनुग्रह से मैं आपके समान वर्णवाला हो गया।

मां च भक्तमपक्वं वा विज्ञाय गरुडः स्वयम् ।

देशाद् दूरं च न्यक्कारं चकार दृढभक्तिमान् ।। ९।।

मैं अपक्व भक्त था अर्थात मेरी भक्ति परिपक्व नहीं हुई थी। यह जानकर ही स्वयं सुदृढ़ भक्ति धारण करने वाले गरुड़ ने मुझे देश से दूर कर दिया और धिक्कारा था।

भवता च दृढां भक्तिं दत्त्वा मे वरदेश्वर ।

स च उक्तश्च भक्तोऽहं न मां त्यक्तुं क्षमोऽधुना ।।१०।।

परंतु वरदेश्वर! अब आपने मुझे अविचल भक्ति दे दी है। गरुड़ भी भक्त हैं, मैं भी भक्त हो गया हूँ; अतः अब वे मेरा त्याग नहीं कर सकते हैं।

त्वत्पादपद्मचिह्नाक्तं दृष्ट्वा श्रीमस्तकं मम ।

सदोषं गुणयुक्तं मां सोऽधुना त्यक्तुमक्षमः ।। ११।।

आपके चरणारविन्दों के चिह्न से अलंकृत मेरे श्रीयुत मस्तक को देखकर गरुड़ मुझे सदोष होने पर भी गुणवान मानेंगे; अतः इस समय मेरा त्याग नहीं कर सकेंगे।

ममाराध्याश्च नागेंद्रा न तद्वध्योऽहमीश्वर ।

भयं न केभ्यः सर्वत्र तमनंतं गुरुं विना ।।१२।।

अब तो वे यह मानकर कि नागेन्द्रगण हमारे आराध्य हैं, मुझे कष्ट नहीं देंगे। परमेश्वर! अब मैं उनका वध्य नहीं रहा। उन गुरुदेव अनन्त के सिवा मुझे कहीं किसी से भी भय नहीं है।

यं देवेन्द्राश्च देवाश्च मुनयो मनवो नराः ।

स्वप्ने ध्यानेन पश्यंति चक्षुषोर्गोचरः स मे ।।१३।।

देवेन्द्रगण, देवता, मुनि, मनु और मानव– जिन्हें स्वप्न में तथा ध्यान में भी नहीं देख पाते हैं– वे ही परमात्मा इस समय मेरे नेत्रों के विषय हो रहे हैं।

भक्तानुरोधात्साकारः कुतस्ते विग्रहो विभो ।

सगुणत्वं च साकारो निराकारश्च निर्गुणः ।।१४।।

प्रभो! आप तो भक्तों के अनुरोध से साकार रूप में प्रकट हुए हैं; अन्यथा आपको शरीर की प्राप्ति कैसे हो सकती है? सगुण-साकार तथा निर्गुण-निराकार भी आप ही हैं।

स्वेच्छामयः सर्वधाम सर्वबीजं सनातनम् ।

सर्वेषामीश्वरः साक्षी सर्वात्मा सर्वरूपधृक् ।। १५।।

आप स्वेच्छामय, सबके आवास स्थान तथा समस्त चराचर जगत के सनातन बीज हैं। सबके ईश्वर, साक्षी, आत्मा और सर्वरूपधारी हैं।

ब्रह्मेशशेषधर्मेन्द्रा वेदवेदांगपारगाः ।

स्तोतुं यमीशं ते जाड्याः सर्पः स्तोष्यति तं विभुम् ।।१६।।

ब्रह्मा, शिव, शेष, धर्म और इन्द्र आदि देवता तथा वेदों और वेदांगों के पारंगत विद्वान भी जिन परमेश्वर की स्तुति करने में जड़वत हो जाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापी प्रभु का स्तवन क्या एक सर्प कर सकेगा?

हे नाथ करुणासिंधो दीनबंधो क्षमाधमम् ।

खलस्वभावादज्ञानात्कृष्ण त्वं चर्वितो मया ।।१७।।

हे नाथ! हे करुणासिन्धो! हे दीनबन्धो! आप मुझ अधम को क्षमा कीजिये। श्रीकृष्ण! मैंने अपने खल स्वभाव और अज्ञान के कारण आपको चबा डालने का प्रयत्न किया;

नास्त्रलक्ष्यो यथाकाशो न दृश्यांतो न लंघ्यकः ।

न स्पृश्यो हि न चावर्यस्तथा तेजस्त्वमेव च ।।१८।।

परंतु आप तो आकाश की भाँति सर्वत्र व्यापक तथा अमूर्त हैं; अतः किसी भी अस्त्र के लक्ष्य नहीं है। न तो आपका अन्त देखा जा सकता है और न लाँघा ही जा सकता है। न तो कोई आपका स्पर्श कर सकता है और न आप पर आवरण ही डाल सकता है। आप स्वयं प्रकाशरूप हैं।

इत्येवमुक्त्वा नागेन्द्रः पपात चरणाम्बुजे ।

ओमित्युक्त्वा हरिस्तुष्टः सर्वं तस्मै वरं ददौ ।।१९ ।।

ऐसा कहकर नागराज कालिय भगवान के चरणकमलों में गिर पड़ा। भगवान उस पर संतुष्ट हो गये। उन्होंने ‘एवमस्तु’ कहकर उसे सम्पूर्ण अभीष्ट वर दे दिया।

नागराजकृतं स्तोत्रं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।

तद्वंश्यानां च तस्यैव नागेभ्यो न भयं भवेत् ।।२०।।

जो नागराज द्वारा किये गये स्तोत्र का प्रातःकाल उठकर पाठ करता है, उसे तथा उसके वंशजों को कभी नागों से भय नहीं होता।

स नागशय्यां कृत्वैव स्वप्तुं शक्तः सदा भुवि ।

विषपीयूषयोर्भेदो नास्त्येव तस्य भक्षणे ।।२१।।

वह भूतल पर नागों की शय्या बनाकर सदा उस पर शयन कर सकता है। उसके भोजन में विष और अमृत का भेद नहीं रह जाता।

नागग्रस्ते नागघाते प्राणान्ते विषभोजनात् ।

स्तोत्रस्मरणमात्रेण सुस्थो भवति मानवः ।।२२ ।।

जिसको नाग ने ग्रस लिया हो, काट खाया हो, अथवा विषैला भोजन करने से जिसके प्राणान्त की सम्भावना हो गयी हो, वह मनुष्य भी इस स्तोत्र को सुनने मात्र से स्वस्थ हो जाता है।

भूर्जे कृत्वा स्तोत्रमिदं कण्ठे वा दक्षिणे करे ।

बिभर्ति यो भक्तियुक्तो नागेभ्योऽपि न तद्भयम् ।।२३।।

जो इस स्तोत्र को भोजपत्र पर लिखकर भक्तिभाव से युक्त हो कण्ठ में या दाहिने हाथ में धारण करता है, उसे भी नागों से भय नहीं होता।

यत्र गेहे स्तोत्रमिदं नागस्तत्र न तिष्ठति ।

विषाग्निवज्रभीतिश्च न भवेत्तत्र निश्चितम् ।।२४।।

जिस घर में यह स्तोत्र पढ़ा जाता है, वहाँ कोई नाग नहीं ठहरता। निश्चय ही उस घर में विष, अग्नि तथा वज्र का भय नहीं प्राप्त होता।

इह लोके हरेर्भक्तिं स्मृतिं च सततं लभेत् ।

अन्ते च स्वकुलं पूत्वा दास्यं च लभते ध्रुवम् ।। २५।।

इहलोक में श्रीहरि की भक्ति और स्मृति उसे सदा सुलभ होती है तथा अन्त में अपने कुल को पवित्र करके निश्चय ही वह श्रीकृष्ण का दास्यभाव प्राप्त कर लेता है।

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते श्रीकृष्णजन्मखण्डे श्रीकृष्णस्तोत्र कालियकृतं सम्पूर्णम् ॥

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