श्रीकृष्णस्तोत्रम् ब्रह्मकृत || Shri Krishna Stotram by Brahma

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श्रीकृष्णस्तोत्रं ब्रह्मवैवर्तपुराणे ब्रह्मकृतम् -नैमिषारण्य में आये हुए सौतिजी शौनक जी को ब्रह्म वैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड अध्याय-३ में श्रीकृष्ण से सृष्टि का आरम्भ की कथा सुनाते हैं कि – श्रीकृष्ण के दक्षिणपार्श्व से भगवान नारायण और वामपार्श्व से भगवान शिव प्रकट हुए। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण के नाभि-कमल से बड़े-बूढ़े महातपस्वी ब्रह्मा जी प्रकट हुए। उन्होंने अपने हाथ में कमण्डलु ले रखा था। उनके वस्त्र, दाँत और केश सभी सफेद थे। चार मुख थे। वे ब्रह्मा जी योगियों के ईश्वर, शिल्पियों के स्वामी तथा सबके जन्मदाता गुरु हैं। तपस्या के फल देने वाले और सम्पूर्ण सम्पत्तियों के जन्मदाता हैं। वे ही स्रष्टा और विधाता हैं तथा समस्त कर्मों के कर्ता, धर्ता एवं संहर्ता हैं। चारों वेदों को वे ही धारण करते हैं। वे वेदों के ज्ञाता, वेदों को प्रकट करने वाले और उनके पति (पालक) हैं। उनका शील-स्वभाव सुन्दर है। वे सरस्वती के कान्त, शान्तचित्त और कृपा की निधि हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण के सामने खड़े हो दोनों हाथ जोड़कर उनका स्तवन किया। उस समय उनके सम्पूर्ण अंगों में रोमांच हो आया था तथा उनकी ग्रीवा भगवान के सामने भक्तिभाव से झुकी हुई थी।

 

श्रीकृष्ण स्तोत्रं ब्रह्मवैवर्तपुराणे ब्रह्मकृतम्

।। ब्रह्मोवाच ।। ।।

कृष्णं वन्दे गुणातीतं गोविन्दमेकमक्षरम् ।।

अव्यक्तमव्ययं व्यक्तं गोपवेषविधायिनम् ।। ३५ ।।

ब्रह्मा जी बोले – जो तीनों गुणों से अतीत और एकमात्र अविनाशी परमेश्वर हैं, जिनमें कभी कोई विकार नहीं होता, जो अव्यक्त और व्यक्तरूप हैं तथा गोप-वेष धारण करते हैं, उन गोविन्द श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ।

किशोरवयसं शान्तं गोपीकान्तं मनोहरम् ।।

नवीननीरदश्यामं कोटिकन्दर्पसुन्दरम्।।३६।।

जिनकी नित्य किशोरावस्था है, जो सदा शान्त रहते हैं, जिनका सौन्दर्य करोड़ों कामदेवों से भी अधिक है तथा जो नूतन जलधर के समान श्याम वर्ण हैं, उन परम मनोहर गोपी वल्लभ को मैं प्रणाम करता हूँ।

वृन्दावनवनाभ्यर्णे रासमण्डलसंस्थितम् ।।

रासेश्वरं रासवासं रासोल्लाससमुत्सुकम्।।३७।।

जो वृन्दावन के भीतर रासमण्डल में विराजमान होते हैं, रासलीला में जिनका निवास है तथा जो रासजनित उल्लास के लिये सदा उत्सुक रहते हैं, उन रासेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।

इत्येवमुक्त्वा तं नत्वा रत्नसिंहासने वरम् ।।

नारायणेशौ संभाष्य स उवास तदाज्ञया ।। ३८ ।।

ऐसा कहकर ब्रह्मा जी ने भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम किया और उनकी आज्ञा से नारायण तथा महादेव जी के साथ सम्भाषण करते हुए श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठे।

इति ब्रह्मकृतं स्तोत्रं प्रातरुत्थाय यः पठेत्।।

पापानि तस्य नश्यन्ति दुःस्वप्नः सुस्वप्नो भवेत् ।। ३९ ।।

जो प्रातःकाल उठकर ब्रह्मा जी के द्वारा किये गये इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और बुरे सपने अच्छे सपनों में बदल जाते हैं।

भक्तिर्भवति गोविन्दे श्रीपुत्रपौत्रवर्द्धिनी ।।

अकीर्तिः क्षयमाप्नोति सत्कीर्त्तिर्वर्द्धते चिरम् ।। 1.3.४० ।।

भगवान गोविन्द में भक्ति होती है, जो पुत्रों और पौत्रों की वृद्धि करने वाली है। इस स्तोत्र का पाठ करने से अपयश नष्ट होता है और चिरकाल तक सुयश बढ़ता रहता है।

इति ब्रह्मवैवर्त्ते ब्रह्मकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम् ।।

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