श्रीपरशुराम स्तोत्र Shri Parashuram Stotra

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जमदग्नि पुत्र भगवान् श्री परशुराम के इस पवित्र स्तोत्र को जो एकाग्रचित होकर पाठ करते हैं उनके सभी शत्रुओं का नाश हो जाता और वह निष्कंटक हो जाता है ।

|| श्रीपरशुरामस्तोत्रम् ||

श्रीः

महामहिम – आचार्य – श्रीमदमृतवाग्भणीतम् ।

श्रीपरशुराममन्त्रो यथा मन्त्रमहार्णवे प्रतिपादित:-

ॐ रां राँ ॐ रां रां ॐ परशुहस्ताय नमः”इति

ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि । तन्नः परशुरामः प्रचोदयात्” इति ।

ॐ जामदग्न्याय हृदयाय नमः, ॐ विद्यहे शिरसे स्वाहा, ॐ महावीराय शिखायै वषट्, ॐ धीमहि कवचाय हुँ, ॐ तन्नः परशुरामो नेत्रत्रयाय वौषट् ॐ प्रचोदयादस्त्राय फट् । इति षडङ्गन्यासः । एवमेव करन्यासः ।

श्रीपरशुराम स्तोत्रम्

अथ ध्यानम्-

सम्पूर्णा विलसन्ति सोपनिषदो वेदोपवेदाः पुरः

पृष्ठे मार्गण पूर्णतूणविलसत्को दण्डदण्डो महान् ॥

बर्हिष्टोमकमण्डलू च परशुं पाण्योर्वहन् शास्त्रवित्

शापे शस्त्रवरे च पेशलकरः श्रीभार्गवो भ्राजते ॥ १ ॥

जिनके अग्रभाग में उपनिषदों सहित समग्र वेद और उपवेद चमकते है और जिनके पृष्ठदेश पर बाणों से भरा तूणीर और विशाल धनुष सुशोभित हो रहे हैं, जिन्होंने बाएं हाथ में कुशमुष्टि और कमण्डलु तथा दाएं हाथ परशु धारण किया हुआ है, शाप देना तथा शस्त्र चलाना इन दोनों कार्यों में दक्षहस्त वे भगवान् श्रीपरशुरामजी शोभा पा रहे हैं ॥१॥

मत्तक्षत्रियकृत्तकण्ठविगलद्रक्तौ घसम्प्लावितं

भक्ताऽनुग्रहणं कठोरपरशुं धृत्वाऽवतीर्याऽधुना ॥

दृप्तोदण्डदुरीहदुष्टदमनो दीनाssवलीपालको

धर्मोद्धारधुरन्धरो भृगुवरो रामः समुज्जृम्भताम् ॥२॥

उन्मत्त क्षत्रियों के काटे हुए गलों से बहने वाले रुधिर के प्रवाह में दुवाये हुए, भक्तों के ऊपर अनुग्रह करने में सहायक, कठोर परशु को धारण कर अब अवतीर्ण होकर, उन्मत्त उजड्ड दुष्टवासना वाले, दीन लोगों की पालना करने वाले, धर्मोद्धार में घुरन्धर, भृगुकुलश्रेष्ठ श्रीपरशुरामजी महाराज सर्वोत्कर्ष से विजयी हों ॥२॥

श्रीमद्रेणुकया धृतं स्वजठरे भूभारनाशाय यत्

श्रीमद्भार्गव जामदग्न्यमतुलं रामाभिधानं महः ॥

दृप्यत्पार्थिव वृन्दकाननललज्ज्वालाढ्य वैश्वानर-

श्चण्डी प्राणपतिप्रियस्य परशोरादायि तत्संस्तुमः ॥३॥

श्रीमती रेणुका भगवती ने पृथ्वी का बोझ हटाने के लिये जिसको अपने गर्भ में धारण किया, अभिमानी राजाओं के झुण्डरूपी जंगलोंको लीलने वाली ज्वालाओं से युक्त वैश्वानर, अर्थात् अग्नि स्वरूप, चण्डी के प्राणपति अर्थात् शम्भु के प्यारे परशु को प्राप्त करने वाले, भृगुवंशोत्पन्न श्रीजमदग्निसम्भव रामनाम के उस अनुपम तेज की हम स्तुति करते हैं॥३॥

लक्ष्मीपतेरुरसि रोषकषायिताक्षः

पादप्रहारमकरोन्मुनिपुङ्गवो यः ॥

ब्रह्मर्षिवृन्दपरिचुम्बितपादपद्मः

स श्रीभृगुर्जयति विप्रकुल प्रकाशः ॥४॥

जो सम्पूर्ण मुनियों में श्रेष्ठ हैं, जिन्होंने क्रोध से लाल आँखें बनाकर लक्ष्मी के पति अर्थात् भगवान् विष्णु के वक्षःस्थल में लात मारी थी, सहस्रों ब्रह्मर्षि जिनके चरण-कमलों को चूमते हैं, विप्रकुल में अतिप्रसिद्ध उन श्रीमान् भृगुमहर्षि का जय-जय कार हो रहा है ॥४॥

श्रीमानुदारचरितो जयतादजस्रं

ब्रह्मर्षिसोमजमदग्निरिति प्रसिद्धः ॥

दृप्यन्नृपान्तकरणं तनयं प्रसूय

येनाऽखिलं जगदिदं परितो व्यरक्षि ॥५॥

उन महानुभाव का सर्वदा जय-जयकार हो, जिनका चरित्र बहुत उदार हैं, जो ब्रह्मषियों में श्रेष्ठ जमदग्नि नाम से प्रसिद्ध हैं, पृथ्वी के दुष्ट अभिमानी शासकों के नाश करने वाले पुत्र को उत्पन्न करके इस सम्पूर्ण जगत् का सब ओर से जिन्होंने संरक्षण किया ॥५॥

सम्पूर्णभूमिगतवीरमहीपतीना-

मन्यायमाश्रितवतां प्रमदोद्धतानाम् ॥

सा कालरात्रिरिव नाशकरी समन्तात्

श्रीरेणुका भगवती विजयाय भूयात् ॥६॥

अन्याय का आश्रय करने वाले अतिहर्ष अभिमान या स्त्रीसम्बन्ध से उन्मत्त सारे पृथ्वी के वीर शासकों का कालरात्रि के समान चारों ओर से संहार करने वाली वह श्रीमती रेणुका भगवती हमारे विजय के लिये हो ॥ ६ ॥

देवेन येन ततमस्तिसमस्तमेत-

द्विश्वं स्वशक्तिखचितं स्वविलासरूपम्

तं त्वां महर्षिगणपूजितपादपद्मं

सर्वात्मना भृगुवरं शरणं भजामः ॥७॥

आत्म विलास स्वरूप आत्म शक्ति में समाया हुआ यह सम्पूर्ण विश्व जिस देव ने व्याप लिया है,कोटि-कोटि महर्षि जिनके चरण कमलों को पूजते हैं,उन सज्जनों के संरक्षक भृगुकुल में श्रेष्ठ आपकी हम शरण लेते हैं ।

धर्मद्विषां नियमनाय गृहीतदीक्षं

श्रीरेणुका भगवती जठरात्प्रसूतम् ॥

श्रीभार्गवस्य जमदग्निमुनेः सुपुत्रं

रामं लसत्परशुपाणितलं नमामः॥८॥

धर्मद्रोहियों का नियमन करने के लिये जिन्होंने दीक्षा ली, श्रीमती रेणुका के गर्भ से जो उत्पन्न हुए, जो श्रीभृगुगोत्रोत्पन्न जमदग्नि महर्षि के सुपुत्र कहलाये, जिनके हाथ में परशू चमकता है, उन श्रीराम को हम प्रणाम करते हैं ॥८॥

स्फूर्जन्मदोद्धतनृपावलिकाननाऽऽली-

र्दग्ध्या महीसुरगणान्परिरक्ष्य बन्धून् ।।

त्रातं भुवस्तलमिदं भवता समस्तं

सम्प्राप्य खण्डपरशो: परशु प्रसन्नात् ॥९॥

बढ़ते हुए अभिमान से उन्मत्त शासकों के झुण्डरूपी जंगलों को जलाकर अपने भाई ब्राह्मणों का संरक्षण करके प्रसन्न खण्डपरशु अर्थात् भगवान् शम्भु से परशु को प्राप्त कर इस सम्पूर्ण पृथ्वीतल का आपने संरक्षण किया ॥९॥

लोकत्रयाऽतुलपराक्रमजन्मभूमेः

शीर्षं निकृत्त्य कृतवीरसुताऽर्जुनस्य ॥

त्रिः सप्तवारमकरोर्वसुधां समस्तां

निःक्षत्रियां स्वपितृतर्पणकामनायाः ॥१०॥

तीनों लोकों में अनुपम पराक्रम के एकमात्र अधिष्ठान कृतवीर पुत्र अर्जुन (सहस्रबाहु ) के सिर को काट कर अपने पितरों को तृप्त करने के निमित्त सम्पूर्ण पृथ्वी को आपने इक्कीस बार निःक्षत्रिय किया ॥ १० ॥

दुर्नीतपार्थिवकदम्बनिकृतशीर्ष

ग्रावद्रयद्रुधिरसिद्धधुनीजलौघै: ॥

आकण्ठकतो निजपितृन्परितर्प्य पश्चात्

प्रादा धरांवसुमतीं किलकश्यपाय ॥११॥

अन्यायी दुष्ट पृथ्वीपतियों के काटे हुए सिरों के पहाड़ों से निकलनेवाली रक्त को गङ्गा के जलप्रवाह से कंठपर्यन्त अपने पितरों को तृप्त करने के पश्चात् धन से भरी सम्पूर्ण पृथ्वी का कश्यप महर्षि को आपने दान दे दिया ॥११॥

पाणौ विलोक्य परशुं भगवंस्त्वदीये

स्त्रीवेषभाग्दशरथोऽपि पलायितोऽभूत् ॥

यः स्वासनार्ध उपवेश्य पुरन्दरेण

सम्मानितोऽभवदमोघवलेन शश्वत् ॥१२॥

महाराज ! आपके हाथ में परशु को देख कर वे महाराज दशरथ भी स्त्रीवेष में छिपकर भाग गये थे, जिनको कि अव्यर्थबल इन्द्र ने अपने आधे आसन पर बिठाकर सम्मानित किया था । ।। १२ ।।

श्रीराम ! भार्गव ! भवच्चरणारविन्द-

मूलं शरण्यमधुना वयमागताः स्मः ॥

कारुण्यपूर्णसुदृशा किल नोऽनुगृह्य ।

शक्ति निजामनयनाशकरी प्रदेहि ॥१३॥

हे भृगुगोत्रोत्पन्न श्री रामजी ! भक्तों के संरक्षक ! आपके चरणकमलों के पास हम आये हैं, अपनी दया से भरा सुन्दर दृष्टि से हमारे ऊपर अनुग्रह करके दुष्ट और दुष्टों की अनीति को नाश करने वाली अपनी शक्ति हमें प्रदान करें ।।१३।।

वाक्चातुरी चलति नो चतुराननस्य ।

यच्छक्तिवर्णनविधौ खलु तत्र केयम् ॥

अस्माकमल्पविदुषां नृगिरा वराकी ।

शक्ता भवेत्तदपि नाथ ! वरं प्रदेहि ॥१४॥

हे नाथ ! जिसकी शक्ति के वर्णन करने में ब्रह्मा का वाक्चातुर्य नहीं चलता, वहां अल्पज्ञ हमारी मनुष्यों की वाणी बिचारी किस तरह समर्थ हो, तो भी हे नाथ ! हमारा इष्ट हमें दीजिए यही प्रार्थना है ॥१४॥
श्रीपरशुरामस्तोत्रम् महात्म्य

वीरश्रीजामदग्न्यस्य पुण्यं स्तोत्रमिदं नराः ।

पठन्त्यनन्यमनसो येऽर्थबोधपुरस्सरम् ॥१५॥

दुःशासनान्तकरणी भीमा धर्मप्रबोधिनी ।

तेषां करगता शक्तिश्चकास्त्येव न संशयः ॥ १६॥

महर्षि जमदग्नि के वीर पुत्र भगवान् श्री परशुराम के इस पवित्र स्तोत्र को जो पुरुष अर्थ की ओर ध्यान देते हुए एकाग्रचित से पढ़ेंगे उनके हाथों में दुष्ट शासन का अन्त कर देने वाली, शत्रुओं के लिये भयंकर और धर्म को जगाने वाली शक्ति अवश्य दमकेगी इसमें कुछ भी सन्देह नहीं ।।१५-१६ ॥

परशुराम स्तोत्र लेखक परिचय

अङ्काष्टनन्दप्रृथिवीमितवैक्रमाब्दे

वैशाख शुक्ल गिरिजादिवसे ग्रहेशे ॥

मार्तण्डतीर्थ भवने जमदग्निपुत्र

स्तोत्रं व्यधायि विदुषाऽमृतवाग्भवेन ॥१७॥

विक्रम सम्वत् १९८९ वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय्य तृतीया परशुराम जन्मदिन) रविवार के दिन श्रीमार्तण्डक्षेत्र में (मटन काश्मीर में) जमदग्नि के पुत्र श्री परशुराम का स्तोत्र विद्वान् श्रीमदमृतवाग्भव ने बनाया ।

इति श्रीसर्वतन्त्र स्वतन्त्र महामहिम आचार्य श्रीमदमृतवाग्भव- प्रणीतं राष्ट्रभाषाऽनुवादसहितं श्रीपरशुरामस्तोत्रम् ॥

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