श्रीराधा स्तुति || Shri Radha Stuti

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श्रीराधा-कृष्ण के मनोहर झाँकी को देवताओं तथा मुनियों ने देखा कि जल स्थल सहित सारा आश्रम गोरोचन के समान उद्भासित हो रहा है। उस समय तीनों लोकों में वास करने वाले सभी लोगों ने राधिका के दर्शन किए। तदनन्तर परमेश्वरी राधा को देखकर स्तुति करना आरंभ किया।

श्रीराधा स्तुति

श्रीभगवानुवाच

श्वेतचम्पकवर्णाभामतुलां सुमनोहराम् ।

मोहिनीं मानसानां च मुनीनामूर्ध्वरेतसाम् ।। ७७ ।।

जिनके शरीर की कान्ति श्वेत चम्पक के समान परम मनोहर एवं अनुपम है; जो ऊर्ध्वरेता मुनियों के भी मनों को मोह में डाल देती हैं।

सुकेशीं सुन्दरीं श्यामां न्यग्रोधपरिमण्डलाम् ।

नितम्बकठिनश्रोणीं स्तनयुग्मोन्नताननाम् ।। ७८ ।।

कोटीन्दुनिन्दितास्यां तां सस्मितां सुदतीं सतीम् ।

कज्जलोज्ज्वलरूपां च शरत्कमललोजनाम् ।। ७९ ।।

जो सुंदर केशोवाली, सुंदरी, षोडशवर्षीया और वटवृक्ष के नीचे मण्डल में वास करने वाली हैं। जिनका मुख करोड़ों चंद्रमाओं की छबि को छीने लेता है; जो सदा मुस्कराती रहती हैं, जिनके दाँत बड़े सुंदर हैं; जिनके शरत्कालीन कमल के समान विशाल नेत्र कज्जल से सुशोभित रहते हैं।

महालक्ष्मीं बीजरूपां परामाद्यां सनातीम् ।

परमात्मस्वरूपस्य प्राणाधिष्ठातृदेवताम् ।। ८० ।।

जो महालक्ष्मी, बीजरूपा, परमाद्या, सनातनी और परमात्मस्वरूप श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठातृदेवता हैं।

स्तुतां च पूजितां चैव परां च परमात्मने ।

ब्रह्मस्वरूपां निर्लिप्तां नित्यरूपां च निर्गुणाम् ।। ८१ ।।

विश्वानुरोधात्प्रकृतिं भक्तानुग्रहविग्रहाम् ।

सत्यस्वरूपां शुद्धां च पूतां पतितपावनीम् ।। ८२ ।।

सुतीर्थपूतां सत्कीर्तिं विधात्रीं वेदसामपि ।

महत्प्रियां च महतीं महाविष्णोश्च मातरम् ।। ८३ ।।

रासेश्वरेश्वरीं रम्यां रसिकां रसिकेश्वरीम् ।

वह्निशुद्धांशुकाधामां स्वेच्छारूपां शुभालयाम् ।। ८४ ।।

परमात्मा की प्राप्ति के लिए जिनकी स्तुति-पूजा की जाती है; जो परा, ब्रह्मस्वरूपा निर्लिप्ता, नित्यरूपा, निर्गुणा, विश्व के अनुरोध से प्रकृति, भक्तानुग्रहमूर्ति, सत्यस्वरूपा, शुद्ध, पवित्र, पतित-पावनी, उत्तम तीर्थों को पावन करने वाली, सत्कीर्तिसंपन्ना, ब्रह्मा की भी विधाती, महाप्रिया, महती, महाविष्णु की माता, रासेश्वर की स्वामिनी, सुंदरी नायिका, रसिकेश्वरी, अग्निशुद्ध वस्त्र धारण करने वाली, स्वच्छारूपा और मंगल की आलय हैं।

गोपीभिः सप्तभिः शश्वत्सेवितां श्वेतचामरैः ।

चतसृभिः प्रियालीभिः पादपद्मोपसेविताम् ।। ८५ ।।

सात गोपियाँ श्वेत चँवर डुलाकर जिनकी निरन्तर सेवा करती रहती हैं, चार प्यारी सखियाँ जिनके चरणकमल की सेवा में तत्पर रहती हैं।

अमूल्यरत्ननिर्माणभूषणोच्चैर्विभूषिताम् ।

चारुकुण्डलयुग्मेन श्रुतिगण्डस्थलोज्ज्वलाम् ।। ८६ ।।

सुनासां गजमुक्तार्हां खगेन्द्रचञ्चुनिन्दिताम् ।

कुङ्कुमालक्तकस्तूरीस्निग्धचन्दनचर्चिताम् ।। ८७ ।।

अमूल्य रत्नों बने हुए आभूषण जिनकी शोभा बढ़ा रहे हैं, दोनों मनोहर कुण्डलों से जिनके कर्ण और कपोल उद्भासित हो रहे हैं और जिनकी सुंदर नासिका में गजमुक्ता लटक रही है, जो गरुड़ की चोंच का उपहास करने वाली है; जिनका शरीर कुंकुम कस्तूरीमिश्रित सुस्निग्ध चंदन से चर्चित है।

दधानां सुकपोलं च कोमलाङ्गीं सुकामुकीम् ।

गचेन्द्रगामिनीं रामां कामनीयां सुकामिनीम् ।। ८८ ।।

कामास्त्रजयरूपां च कामकाम्यालयां वराम् ।

क्रीडाकमलमम्लानं पारिजातप्रसूनकम् ।। ८९ ।।

अमूल्यरत्ननिर्माणं दधानां दर्पणोज्ज्वलम् ।

नानारत्नविचित्राढ्यरतनसिंहासनस्थिताम् ।। ९० ।।

जिनके कपोल सुंदर और अंग कोमल हैं; जो कामुकी, गजराज की सी चालवाली, कमनीया एवं सुंदरी नायिका, कामदेव के अस्त्र की विजय स्वरूपा, काम की कामना का लय करने वाली तथा श्रेष्ठ हैं; जिनके हाथ में प्रफुल्ल क्रीड़ा कमल, पारिजात का पुष्प और अमूल्य रत्नजटित स्वच्छ दर्पण शोभा पाते हैं; जो नाना प्रकार के रत्नों की विचित्रता से युक्त रत्नसिंहासन पर विराजमान होती हैं।

पद्मैः पद्मार्चितं पादपद्मं च मङ्गलालयम् ।

हृत्पद्मे ध्यायमानं च कृणस्य परमात्मनः ।। ९१ ।।

कर्मणा मनसा वाचा स्वप्ने जागरणेऽपि च ।

तत्प्रीतिं प्रेम सौभाग्यं स्मरन्तीं नित्यनूतनम् ।। ९२ ।।

जो परमात्मा श्रीकृष्ण के पद्मा द्वारा समर्चित मंगल रूप चरणकमल का अपने हृदय कमल में ध्यान करती रहती हैं तथा मन-वचन-कर्म से स्वप्न अथवा जाग्रत काल में श्रीकृष्ण की प्रीति और प्रेम सौभाग्य का नित्य नूतन रूप में स्मरण करती रहती हैं।

भावानुरक्तसंसक्तां शुद्धभक्तां पतिव्रताम् ।

धन्यां मान्यां गौरवर्णां शश्वद्वक्षः स्थलस्थिताम् ।। ९३ ।।

प्रियासु प्रियभक्तेषु सुप्रियां प्रियवादिनीम् ।

कृष्णवामाङ्गसंभूतामभेदां गुणरूपयोः ।। ९४ ।।

गोलोकवासिनीं देवदेवीं सर्वोपरिस्थितम् ।

वृषभानसुताख्यां तां पुण्यक्षेत्रे च भारते ।। ९५ ।।

गोपीश्वरीं गुप्तरूपां सिद्धिदां सिद्धिरूपिणीम् ।

ध्यानासाध्यां दुराराध्यां वन्दे सद्भक्तवन्दिताम् ।। ९६ ।।

जो प्रगाढ़ भावानुरक्त, शुद्धभक्त, पतिव्रता, धन्या, मान्या, गौरवर्णा, निरन्तर श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल पर वास करने वाली, प्रियाओं तथा प्रिय भक्तों में परम प्रिय, प्रियवादिनी, श्रीकृष्ण के वामांग से आविर्भूत, गुण और रूप में अभिन्न, गोलोक में वास करने वाली, देवाधिदेवी, सबके ऊपर विराजमान, गोपीश्वरी, गुप्तिरूपा, सिद्धिदा, सिद्धिरूपिणी, ध्यान द्वारा असाध्य, दुराराध्य, सद्भक्तों द्वारा वन्दित और पुण्यक्षेत्र भारत में वृषभानु नन्दिनी के रूप में प्रकट हुई हैं; उन राधा की मैं वन्दना करता हूँ।

ध्याने ध्यानेन राधाया व्यायन्ते ध्यानतत्पराः ।

इहैव जीवन्मुक्तास्ते परत्र कृष्णपार्षदाः ।। ९७ ।।

जो ध्यानपरायण मानव समाधि अवस्था में ध्याननिष्ठ हो राधा का ध्यान करते हैं; वे इस लोक में तो जीवन्मुक्त हैं ही, परलोक में श्रीकृष्ण के पार्षद होते हैं।

तदनन्तर लोकों के विधाता स्वयं ब्रह्मा ने ब्रह्माओं की जननी परमेश्वरी राधा को देखकर सर्वप्रथम स्तुति करना आरंभ किया।

ब्राह्मोवाच

षष्टिवर्षसहस्रणि दिव्यानि परमेश्वरि ।

पुष्करे च तपस्तप्तं पुण्यक्षेत्रे च भारते ।। ९९ ।।

त्वत्पादपद्मधुरमधुलुब्धेन चेतसा ।

मधुव्रतेन लोलेन प्रेरितेन मया सति ।। १०० ।।

ब्रह्मा बोले- परमेश्वरि! मेरा चित्त तुम्हारे पादपद्म के मधुर मधु में लुब्ध हो गया था; अतः उस मधुव्रत के लोभ से प्रेरित होकर मैंने पुण्यक्षेत्र भारत वर्ष में स्थित पुष्कर तीर्थ में जाकर साठ हजार दिव्य वर्षों तक तपस्या की;

तथाऽपि न मया लब्धं त्वत्पादपद्ममीप्सितम् ।

न दृष्टमपि स्वप्नेऽयि जाता वागशरीरिणी ।। १०१ ।।

तथापि तुम्हारा अभीष्ट चरणकमल मुझे प्राप्त नहीं हुआ। यहाँ तक कि मुझे स्वप्न में भी उसका दर्शन नहीं हुआ।

वाराहे भारते वर्षे पुण्ये वृन्दावने वने ।

सिद्धाश्रमे गणेशस्य पादपद्मं च द्रक्ष्यसि ।। १०२ ।।

तब उस समय यों आकाशवाणी हुई- ‘ब्रह्मन! वाराहकल्प में भारतवर्ष में वृन्दावन नामक पुण्यवन में स्थित ‘सिद्धाश्रम’ में तुम्हें गणेश के चरणकमल का दर्शन होगा।

राधामाधवयोर्दास्यं कुतो विषयिणस्तव ।

निवर्तस्व महाभाग परमेतत्मुदुर्लभम् ।। १०३ ।।

इति श्रुत्वा निवृत्तोऽहं तपसे भग्नमानसः ।

परिपुर्ण तदधुना वाञ्छितं तपसः फलम् ।। १०४ ।।

तुम तो विषयी हो, अतः तुम्हें राधा-माधव की दासता कहाँ से प्राप्त होगी? इसलिए महाभाग! तुम उससे निवृत्त हो जाओ; क्योंकि वह परम दुर्लभ है।’ यों सुनकर मेरा मन टूट गया और मैं उस तपस्या से विरत हो गया। पर उस तपस्या के फलस्वरूप मेरा वह मनोरथ आज परिपूर्ण हो गया।

महादेव उवाच

पद्मैः पद्मार्चितं पादपदमं यस्य सुदुर्लभम् ।

ध्यायन्ते ध्याननिष्ठाश्च शाश्वद्रब्रह्मादयः सुराः ।। १०५ ।।

मुनयो मनवश्चैव सिद्धाः सन्तश्च योगिनः ।

द्रष्टुं नैव क्षमाः स्वप्ने भवती तस्य वक्षसि ।। १०६ ।।

श्री महादेव जी ने कहा- देवि! ब्रह्मा आदि देवता, मुनिगण, मनु, सिद्ध, संत और योगीलोग ध्याननिष्ठ हो जिनके चरणकमल का, जो पद्मा द्वारा कमल पुष्पों से समर्चित एवं अत्यंत दुर्लभ है, निरन्तर ध्यान करते रहते हैं; परंतु स्वप्न में भी उसका दर्शन नहीं कर पाते, तुम उन्हीं के वक्षः स्थल पर वास करने वाली हो।

अनन्त उवाच

वेदाश्च वेदमाता च पुराणानि च सुव्रते ।

अहं सरस्वती सन्त स्तोतुं नालं च संततम् ।। १०७ ।।

अनन्त बोले- सुव्रते! वेद, वेदमाता, पुराण, मैं (शेषनाग), सरस्वती और संतगण तुम्हारी स्तुति करने में समर्थ नहीं है।

इस प्रकार वहाँ जितने देव, देवी तथा अन्यान्य मुनि, मनु आदि आये थे, उन सबने विनम्रभाव से राधा का स्तवन किया।

इति: श्रीराधा स्तुति।।

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