श्रीराधोपनिषत् || Shri Radhopanishat

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श्रीराधोपनिषत् – उक्त लघुकाय ऋग्वेदीय राधोपनिषद् अथवा राधोपनिषद अथवा श्रीराधोपनिषत् के अतिरिक्त एक अपेक्षाकृत विस्तृत अथर्ववेदीय राधोपनिषद् भी प्राप्त होता है, जो चार प्रपाठकों में विभक्त है । उसका पाठ इस उपनिषद् से सर्वथा भिन्न है । ऋग्वेदीय परम्परा के इस उपनिषद में सनकादि ऋषियों ने ब्रह्माजी से ‘परम शक्ति’ के विषय में प्रश्न किया है। ब्रह्मा जी ने वसुदेव कृष्ण को सर्वप्रथम देवता स्वीकार करके उनकी प्रिय शक्ति श्रीराधा को सर्वश्रेष्ठ शक्ति कहा है। भगवान श्रीकृष्ण द्वारा आराधित होने के कारण उनका नाम ‘राधिका’ पड़ा। इस उपनिषद में उसी राधा की महिमामयी शक्तियों को उल्लेख है। उसके चिन्तन-मनन से मोक्ष-प्राप्ति की बात कही गयी है।

श्रीराधोपनिषत्

[ भगवत्स्वरूपा श्रीराधिकाजी की महिमा तथा उनका स्वरूप ]

“ओमथोर्ध्व मन्थिन ऋषयः सनकाद्या भगवन्तं हिरण्यगर्भमुपासित्वोचुः देव कः परमो देवः,

का वा तच्छक्तयः, तासु च का वरीयसी भवतीति सृष्टिहेतुभूता च केति ।

ऊर्ध्वरेता बालब्रह्मचारी सनकादि ऋषियों ने भगवान ब्रह्माजी की उपासना करके उनसे पूछा — ‘हे देव ! परम देवता कौन हैं ?उनकी शक्तियाँ कौन-कौन हैं ?उन शक्तियों में सबसे श्रेष्ठ, सृष्टि की हेतुभूता कौन शक्ति है ?’

स होवाच —

हे पुत्रकाः शृणुतेदं ह वाव गुह्याद् गुह्यतरमप्रकाश्यं यस्मै कस्मै न देयम् ।

सनकादिक के प्रश्न को सुनकर श्रीब्रह्माजी बोले — ‘पुत्रो ! सुनो; यह गुह्यों में भी गुह्यतर-अत्यन्त गुप्त रहस्य है, जिस किसी के सामने प्रकट करने योग्य नहीं है और देने योग्य भी नहीं है ।

स्निग्धाय ब्रह्मवादिने गुरुभक्ताय देयमन्यथा दातुर्महदघम्भवतीति ।

जिनके हृदय में रस हो, जो ब्रह्मवादी हों, गुरुभक्त हों उन्हीं को इसे बताना है; नहीं तो किसी अनधिकारी को देने से महापाप होगा !

कृष्णो ह वै हरिः परमो देवः षड्विधैश्वर्यपरिपूर्णो भगवान् गोपीगोपसेव्यो वृन्दाराधितो वृन्दावनाधिनाथः,

स एक एवेश्वरः ।

भगवान् हरि श्रीकृष्ण ही परम देव हैं, वे (ऐश्वर्य, यश, श्री, धर्म, ज्ञान और वैराग्य — इन) छहों ऐश्वर्यों से परिपूर्ण भगवान् हैं । गोप-गोपियाँ उनका सेवन करती हैं, वृन्दा (तुलसीजी) उनकी आराधना करती हैं, वे भगवान् ही वृन्दावन के स्वामी हैं, वे ही एकमात्र परमेश्वर हैं ।

तस्य ह वै द्वैततनुर्नारायणोऽखिलब्रह्माण्डाधिपतिरेकोंऽशः प्रकृतेः प्राचीनो नित्यः ।

उन्हीं के एक रूप हैं — अखिल ब्रह्माण्डों के अधिपति नारायण, जो उन्हीं के अंश हैं, वे प्रकृति से भी प्राचीन और नित्य हैं ।

एवं हि तस्य शक्तयस्त्वनेकधा ।

आह्लादिनीसंधिनीज्ञानेच्छाक्रियाद्या बहुविधाः शक्तयः ।

उन श्रीकृष्ण की ह्लादिनी, संधिनी, ज्ञान, इच्छा, क्रिया आदि बहुत प्रकार की शक्तियाँ हैं ।

तास्वाह्लादिनी वरीयसी परमान्तरङ्गभूता राधा ।

कृष्णेन आराध्यत इति राधा, कृष्णं समाराधयति सदेति राधिका गान्धर्वेति व्यपदिश्यत इति ।

इनमें आह्लादिनी सबसे श्रेष्ठ है । यही परम अन्तरंगभूता ‘श्रीराधा’ हैं, जो श्रीकृष्ण के द्वारा आराधिता हैं । श्रीराधा भी श्रीकृष्ण का सदा समाराधन करती हैं, अतः वे ‘राधिका’ कहलाती हैं । इनको ‘गान्धर्वा’ भी कहते हैं।

अस्या एव कायव्यूहरूपा गोप्यो महिष्यः श्रीश्चेति ।

समस्त गोपियाँ, पटरानियाँ और लक्ष्मीजी इन्हीं की कायव्यूहरूपा हैं ।

येयं राधा यश्च कृष्णो रसाब्धिर्देहेनैकः क्रीडनार्थं द्विधाभूत् ।

ये श्रीराधा और रस-सागर श्रीकृष्ण एक ही शरीर हैं, लीला के लिये ये दो बन गये हैं ।

एषा वै हरेः सर्वेश्वरी सर्वविद्या सनातनी कृष्णप्राणाधिदेवी चेति विविक्ते वेदाः स्तुवन्ति,

यस्या गतिं ब्रह्मभागा वदन्ति ।

ये श्रीराधा भगवान् श्रीहरि की सम्पूर्ण ईश्वरी हैं. सम्पूर्ण सनातनी विद्या हैं, श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हैं । एकान्त में चारों वेद इनकी स्तुति करते हैं ।

महिमास्याः स्वायुर्मानेनापि कालेन वक्तुं न चोत्सहे ।

सैव यस्य प्रसीदति तस्य करतलावकलितम्परमं धामेति ।

एतामवज्ञाय यः कृष्णमाराधयितुमिच्छति स मूढतमो मूढतमश्चेति ।

ब्रह्मवेत्ता जिनके परमपद का प्रतिपादन करते हैं । इनकी महिमा का मैं (ब्रह्मा) अपनी समस्त आयु में भी वर्णन नहीं कर सकता । जिन पर इनकी कृपा होती है, परमधाम उनके करतलगत हो जाता है । इन राधिका को न जानकर जो श्रीकृष्ण की आराधना करना चाहता है, वह मूढ़तम है — महामूर्ख है ।

अथ हैतानि नामानि गायन्ति श्रुतयः —

श्रुतियाँ इनके इन नामों का गान करती हैं —

राधा रासेश्वरी रम्या कृष्णमन्त्राधिदेवता ।

सर्वाद्या सर्ववन्द्या च वृन्दावनविहारिणी ॥

वृन्दाराध्या रमाशेषगोपीमण्डलपूजिता ।

सत्या सत्यपरा सत्यभामा श्रीकृष्णवल्लभा ॥

वृषभानुसुता गोपी मूलप्रकृतिरीश्वरी ।

गान्धर्वा राधिकारम्या रुक्मिणी परमेश्वरी ॥

परात्परतरा पूर्णा पूर्णचन्द्रनिभानना ।

भुक्तिमुक्तिप्रदा नित्यं भवव्याधिविनाशिनी ॥

इत्येतानि नामानि यः पठेत् स जीवन्मुक्तो भवति ।

इत्याह हिरण्यगर्भो भगवानिति ।

१. राधा, २. रासेश्वरी, ३. रम्या, ४. कृष्णमन्त्राधिदेवता, ५. सर्वाद्या, ६. सर्ववन्द्या, ७. वृन्दावनविहारिणी, ८, वृन्दाराध्या, ९, रमा, १०. अशेषगोपीमण्डलपूजिता, ११, सत्या, १२. सत्यपरा, १३. सत्यभामा, १४. श्रीकृष्णवल्लभा, १५, वृषभानुसुता, १६. गोपी, १७. मूलप्रकृति, १८. ईश्वरी, १९. गान्धर्वा, २०, राधिका, २१, आरम्या, २२. रुक्मिणी, २३. परमेश्वरी, २४. परात्परतरा, २५. पूर्णा, २६. पूर्णचन्द्रनिभानना, २७, भुक्तिमुक्तिप्रदा, २८. भवव्याधिविनाशिनी ॥ इन [अट्ठाईस] नामों का जो पाठ करता है, वह जीवन्मुक्त हो जाता है — ऐसा भगवान् श्रीब्रह्माजी ने कहा है । [यह तो आह्लादिनी शक्ति का वर्णन हुआ।]

संधिनी तु धामभूषणशय्यासनादिमित्रभृत्यादिरूपेण परिणता

मृत्युलोकावतरणकाले मातृपितृरूपेण चासीदित्यनेकावतारकारणा ।

इनकी संधिनी शक्ति (श्रीवृन्दावन धाम, भूषण, शय्या तथा आसन आदि एवं मित्रसेवक आदि के रूप में परिणत होती है और इस मर्त्यलोक में अवतार लेने के समय वही माता-पिता के रूप में प्रकट होती है । यही अनेक अवतारों की कारणभूता है ।

ज्ञानशक्तिस्तु क्षेत्रज्ञशक्तिरिति ।

ज्ञान शक्ति ही क्षेत्रज्ञशक्ति है ।

इच्छान्तर्भूता माया सत्त्वरजस्तमोमयी बहिरङ्गा जगत्कारणभूता सैवाविद्यारूपेण जीवबन्धनभूता ।

इच्छा शक्ति के अन्तर्भूत माया है । यह सत्त्व रज-तमोमयी है और बहिरंगा है, यही जगत् की कारणभूता है । यही अविद्यारूप से जीव के बन्धन में हेतु हैं ।

क्रियाशक्तिस्तु लीलाशक्तिरिति ।

क्रियाशक्ति ही लीलाशक्ति है ।

य इमामुपनिषदमधीते सोऽव्रती व्रती भवति,

स वायुपूतो भवति, स सर्वपूतो भवति,

राधाकृष्णप्रियो भवति, स यावच्चक्षुः पातं पङ्क्तीः पुनाति ॐ तत्सत् ॥”

जो इस उपनिषद् को पढ़ता है, वह अव्रती भी व्रती हो जाता है । वह वायु की भाँति पवित्र एवं वायु की भाँति पवित्र करनेवाला तथा सब ओर पवित्र एवं सबको पवित्र करनेवाला हो जाता है । वह श्रीराधा-कृष्ण को प्रिय होता है और जहाँ तक उसकी दृष्टि पड़ती है, वहाँ तकं सबको पवित्र कर देता है । ॐ तत्सत् ॥

॥ इति ऋग्वेदीया श्रीराधोपनिषत् ॥

॥ इस प्रकार ऋग्वेदीय श्रीराधोपनिषत् समाप्त हुआ ॥

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