श्री राम चरित मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, चौदहवाँ विश्राम || Shri Ram Charit Manas Ayodhyakand Choudahavan Vishram

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श्री राम चरित मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, चौदहवाँ विश्राम

श्री राम चरित मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, चौदहवाँ विश्राम

श्री रामचरित मानस

द्वितीय सोपान (अयोध्याकांड)

सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥

मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥

(वह बोली -) हे प्राण प्यारे! सुनिए, मेरे मन को भानेवाला एक वर तो दीजिए, भरत को राजतिलक; और हे नाथ! दूसरा वर भी मैं हाथ जोड़कर माँगती हूँ, मेरा मनोरथ पूरा कीजिए –

तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥

सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥

तपस्वियों के वेष में विशेष उदासीन भाव से (राज्य और कुटुंब आदि की ओर से भली-भाँति उदासीन होकर विरक्त मुनियों की भाँति) राम चौदह वर्ष तक वन में निवास करें। कैकेयी के कोमल (विनययुक्त) वचन सुनकर राजा के हृदय में ऐसा शोक हुआ जैसे चंद्रमा की किरणों के स्पर्श से चकवा विकल हो जाता है।

गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा॥

बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥

राजा सहम गए, उनसे कुछ कहते न बना, मानो बाज वन में बटेर पर झपटा हो। राजा का रंग बिलकुल उड़ गया, मानो ताड़ के पेड़ को बिजली ने मारा हो (जैसे ताड़ के पेड़ पर बिजली गिरने से वह झुलसकर बदरंगा हो जाता है, वही हाल राजा का हुआ)।

माथें हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन॥

मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥

माथे पर हाथ रखकर, दोनों नेत्र बंद करके राजा ऐसे सोच करने लगे, मानो साक्षात सोच ही शरीर धारण कर सोच कर रहा हो। (वे सोचते हैं – हाय!) मेरा मनोरथरूपी कल्पवृक्ष फूल चुका था, परंतु फलते समय कैकेयी ने हथिनी की तरह उसे जड़ समेत उखाड़कर नष्ट कर डाला।

अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हिसि अचल बिपति कै नेईं॥

कैकेयी ने अयोध्या को उजाड़ कर दिया और विपत्ति की अचल (सुदृढ़) नींव डाल दी।

दो० – कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।

जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास॥ 29॥

किस अवसर पर क्या हो गया! स्त्री का विश्वास करके मैं वैसे ही मारा गया, जैसे योग की सिद्धिरूपी फल मिलने के समय योगी को अविद्या नष्ट कर देती है॥ 29॥

एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा॥

भरतु कि राउर पूत न होंही। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही॥

इस प्रकार राजा मन-ही-मन झीख रहे हैं। राजा का ऐसा बुरा हाल देखकर दुर्बुद्धि कैकेयी मन में बुरी तरह से क्रोधित हुई। (और बोली -) क्या भरत आपके पुत्र नहीं हैं? क्या मुझे आप दाम देकर खरीद लाए हैं? (क्या मैं आपकी विवाहिता पत्नी नहीं हूँ?)।

जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारें॥

देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं॥

जो मेरा वचन सुनते ही आपको बाण-सा लगा तो आप सोच-समझ कर बात क्यों नहीं कहते? उत्तर दीजिए – हाँ कीजिए, नहीं तो नाहीं कर दीजिए। आप रघुवंश में सत्य प्रतिज्ञावाले (प्रसिद्ध) हैं!

देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहु सत्य जग अपजसु लेहू॥

सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना॥

आपने ही वर देने को कहा था, अब भले ही न दीजिए। सत्य को छोड़ दीजिए और जगत में अपयश लीजिए। सत्य की बड़ी सराहना करके वर देने को कहा था। समझा था कि यह चबेना ही माँग लेगी!

सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा॥

अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई॥

राजा शिवि, दधीचि और बलि ने जो कुछ कहा, शरीर और धन त्यागकर भी उन्होंने अपने वचन की प्रतिज्ञा को निबाहा। कैकेयी बहुत ही कड़ुवे वचन कह रही है, मानो जले पर नमक छिड़क रही हो।

दो० – धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।

सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ॥ 30॥

धर्म की धुरी को धारण करनेवाले राजा दशरथ ने धीरज धरकर नेत्र खोले और सिर धुनकर तथा लंबी साँस लेकर इस प्रकार कहा कि इसने मुझे बड़े कुठौर मारा (ऐसी कठिन परिस्थिति उत्पन्न कर दी, जिससे बच निकलना कठिन हो गया)॥ 30॥

आगें दीखि जरत सिर भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी॥

मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई॥

प्रचंड क्रोध से जलती हुई कैकेयी सामने इस प्रकार दिखाई पड़ी, मानो क्रोधरूपी तलवार नंगी (म्यान से बाहर) खड़ी हो। कुबुद्धि उस तलवार की मूठ है, निष्ठुरता धार है और वह कुबरी (मंथरा)रूपी सान पर धरकर तेज की हुई है।

लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा॥

बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती॥

राजा ने देखा कि यह (तलवार) बड़ी ही भयानक और कठोर है (और सोचा -) क्या सत्य ही यह मेरा जीवन लेगी? राजा अपनी छाती कड़ी करके, बहुत ही नम्रता के साथ उसे (कैकेयी को) प्रिय लगनेवाली वाणी बोले –

प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती॥

मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहउँ करि संकरु साखी॥

हे प्रिये! हे भीरु! विश्वास और प्रेम को नष्ट करके ऐसे बुरी तरह के वचन कैसे कह रही हो। मेरे तो भरत और राम दो आँखें (अर्थात एक-से) हैं; यह मैं शंकर की साक्षी देकर सत्य कहता हूँ।

अवसि दूतु मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता॥

सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई॥

मैं अवश्य सबेरे ही दूत भेजूँगा। दोनों भाई (भरत-शत्रुघ्न) सुनते ही तुरंत आ जाएँगे। अच्छा दिन (शुभ मुहूर्त) शोधवाकर, सब तैयारी करके डंका बजाकर मैं भरत को राज्य दे दूँगा।

दो० – लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।

मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति॥ 31॥

राम को राज्य का लोभ नहीं है और भरत पर उनका बड़ा ही प्रेम है। मैं ही अपने मन में बड़े-छोटे का विचार करके राजनीति का पालन कर रहा था (बड़े को राजतिलक देने जा रहा था)॥ 31॥

राम सपथ सत कहउँ सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ॥

मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछें॥

राम की सौ बार सौगंध खाकर मैं स्वभाव से ही कहता हूँ कि राम की माता (कौसल्या) ने (इस विषय में) मुझसे कभी कुछ नहीं कहा। अवश्य ही मैंने तुमसे बिना पूछे यह सब किया। इसी से मेरा मनोरथ खाली गया।

रिस परिहरु अब मंगल साजू। कछु दिन गएँ भरत जुबराजू॥

एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा॥

अब क्रोध छोड़ दे और मंगल साज सज। कुछ ही दिनों बाद भरत युवराज हो जाएँगे। एक ही बात का मुझे दुःख लगा कि तूने दूसरा वरदान बड़ी अड़चन का माँगा।

अजहूँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा॥

कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सुठि साधू॥

उसकी आँच से अब भी मेरा हृदय जल रहा है। यह दिल्लगी में, क्रोध में अथवा सचमुच ही (वास्तव में) सच्चा है? क्रोध को त्यागकर राम का अपराध तो बता। सब कोई तो कहते हैं कि राम बड़े ही साधु हैं।

तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू॥

जासु सुभाउ अरिहि अनूकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला॥

तू स्वयं भी राम की सराहना करती और उन पर स्नेह किया करती थी। अब यह सुनकर मुझे संदेह हो गया है (कि तुम्हारी प्रशंसा और स्नेह कहीं झूठे तो न थे?) जिसका स्वभाव शत्रु को भी अनूकल है, वह माता के प्रतिकूल आचरण क्यों कर करेगा?

दो० – प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।

जेहिं देखौं अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु॥ 32॥

हे प्रिये! हँसी और क्रोध छोड़ दे और विवेक (उचित-अनुचित) विचारकर वर माँग, जिससे अब मैं नेत्र भरकर भरत का राज्याभिषेक देख सकूँ॥ 32॥

जिऐ मीन बरु बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना॥

कहउँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं॥

मछली चाहे बिना पानी के जीती रहे और साँप भी चाहे बिना मणि के दीन-दुःखी होकर जीता रहे। परंतु मैं स्वभाव से ही कहता हूँ, मन में (जरा भी) छल रखकर नहीं कि मेरा जीवन राम के बिना नहीं है।

समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस आधीना॥

सुनि मृदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत परई॥

हे चतुर प्रिये! जी में समझ देख, मेरा जीवन राम के दर्शन के अधीन है। राजा के कोमल वचन सुनकर दुर्बुद्धि कैकेयी अत्यंत जल रही है। मानो अग्नि में घी की आहुतियाँ पड़ रही हैं।

कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया॥

देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं॥

(कैकेयी कहती है -) आप करोड़ों उपाय क्यों न करें, यहाँ आपकी माया (चालबाजी) नहीं लगेगी। या तो मैंने जो माँगा है सो दीजिए, नहीं तो ‘नाहीं’ करके अपयश लीजिए। मुझे बहुत प्रपंच (बखेड़े) नहीं सुहाते।

रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने॥

जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका॥

राम साधु हैं, आप सयाने साधु हैं और राम की माता भी भली हैं; मैंने सबको पहचान लिया है। कौसल्या ने मेरा जैसा भला चाहा है, मैं भी साका करके (याद रखने योग्य) उन्हें वैसा ही फल दूँगी।

दो० – होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।

मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं॥ 33॥

(सबेरा होते ही मुनि का वेष धारण कर यदि राम वन को नहीं जाते, तो हे राजन! मन में (निश्चय) समझ लीजिए कि मेरा मरना होगा और आपका अपयश!॥ 33॥

अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष तरंगिनि बाढ़ी॥

पाप पहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई॥

ऐसा कहकर कुटिल कैकेयी उठ खड़ी हुई, मानो क्रोध की नदी उमड़ी हो। वह नदी पापरूपी पहाड़ से प्रकट हुई है और क्रोधरूपी जल से भरी है; (ऐसी भयानक है कि) देखी नहीं जाती!

दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन प्रचारा॥

ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनूकूला॥

दोनों वरदान उस नदी के दो किनारे हैं, कैकेयी का कठिन हठ ही उसकी (तीव्र) धारा है और कुबरी (मंथरा) के वचनों की प्रेरणा ही भँवर है। (वह क्रोधरूपी नदी) राजा दशरथरूपी वृक्ष को जड़-मूल से ढहाती हुई विपत्तिरूपी समुद्र की ओर (सीधी) चली है।

लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची॥

गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी॥

राजा ने समझ लिया कि बात सचमुच (वास्तव में) सच्ची है, स्त्री के बहाने मेरी मृत्यु ही सिर पर नाच रही है। (तदनंतर राजा ने कैकेयी के) चरण पकड़कर उसे बिठाकर विनती की कि तू सूर्यकुल (रूपी वृक्ष) के लिए कुल्हाड़ी मत बन।

मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही॥

राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती॥

तू मेरा मस्तक माँग ले, मैं तुझे अभी दे दूँ। पर राम के विरह में मुझे मत मार। जिस किसी प्रकार से हो तू राम को रख ले। नहीं तो जन्मभर तेरी छाती जलेगी।

दो० – देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।

कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ॥ 34॥

राजा ने देखा कि रोग असाध्य है, तब वे अत्यंत आर्तवाणी से ‘हा राम! हा राम! हा रघुनाथ!’ कहते हुए सिर पीटकर जमीन पर गिर पड़े॥ 34॥

ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता॥

कंठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी॥

राजा व्याकुल हो गए, उनका सारा शरीर शिथिल पड़ गया, मानो हथिनी ने कल्पवृक्ष को उखाड़ फेंका हो। कंठ सूख गया, मुख से बात नहीं निकलती, मानो पानी के बिना पहिना नामक मछली तड़प रही हो।

पुनि कह कटु कठोर कैकेयी। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई॥

जौं अंतहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ॥

कैकेयी फिर कड़वे और कठोर वचन बोली, मानो घाव में जहर भर रही हो। (कहती है -) जो अंत में ऐसा ही करना था, तो आपने ‘माँग, माँग’ किस बल पर कहा था?

दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला॥

दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई॥

हे राजा! ठहाका मारकर हँसना और गाल फुलाना – क्या ये दोनों एक साथ हो सकते हैं? दानी भी कहाना और कंजूसी भी करना। क्या रजपूती में क्षेम-कुशल भी रह सकती है? (लड़ाई में बहादुरी भी दिखाएँ और कहीं चोट भी न लगे!)

छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू॥

तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी॥

या तो वचन (प्रतिज्ञा) ही छोड़ दीजिए या धैर्य धारण कीजिए। यों असहाय स्त्री की भाँति रोइए-पीटिए नहीं। सत्यव्रती के लिए तो शरीर, स्त्री, पुत्र, घर, धन और पृथ्वी – सब तिनके के बराबर कहे गए हैं।

दो० – मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।

लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर॥ 35॥

कैकेयी के मर्मभेदी वचन सुनकर राजा ने कहा कि तू जो चाहे कह, तेरा कुछ भी दोष नहीं है। मेरा काल तुझे मानो पिशाच होकर लग गया है, वही तुझसे यह सब कहला रहा है॥ 35॥

चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें॥

सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू॥

भरत तो भूलकर भी राजपद नहीं चाहते। होनहारवश तेरे ही जी में कुमति आ बसी। यह सब मेरे पापों का परिणाम है, जिससे कुसमय (बेमौके) में विधाता विपरीत हो गया।

सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई॥

करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई॥

(तेरी उजाड़ी हुई) यह सुंदर अयोध्या फिर भली-भाँति बसेगी और समस्त गुणों के धाम राम की प्रभुता भी होगी। सब भाई उनकी सेवा करेंगे और तीनों लोकों में राम की बड़ाई होगी।

तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटिहि न जाइहि काऊ॥

अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई॥

केवल तेरा कलंक और मेरा पछतावा मरने पर भी नहीं मिटेगा, यह किसी तरह नहीं जाएगा। अब तुझे जो अच्छा लगे वही कर। मुँह छिपाकर मेरी आँखों की ओट जा बैठ (अर्थात मेरे सामने से हट जा, मुझे मुँह न दिखा)।

जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी॥

फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारू लागी॥

मैं हाथ जोड़कर कहता हूँ कि जब तक मैं जीता रहूँ, तब तक फिर कुछ न कहना (अर्थात मुझसे न बोलना)। अरी अभागिनी! फिर तू अंत में पछताएगी जो तू नहारू (ताँत) के लिए गाय को मार रही है।

दो० – परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।

कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु॥ 36॥

राजा करोड़ों प्रकार से (बहुत तरह से) समझाकर (और यह कहकर) कि तू क्यों सर्वनाश कर रही है, पृथ्वी पर गिर पड़े। पर कपट करने में चतुर कैकेयी कुछ बोलती नहीं, मानो (मौन होकर) मसान जगा रही हो (श्मशान में बैठकर प्रेतमंत्र सिद्ध कर रही हो)॥ 36॥

राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहंग बेहालू॥

हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई॥

राजा ‘राम-राम’ रट रहे हैं और ऐसे व्याकुल हैं, जैसे कोई पक्षी पंख के बिना बेहाल हो। वे अपने हृदय में मनाते हैं कि सबेरा न हो और कोई जाकर राम से यह बात न कहे।

उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि उर॥

भूप प्रीति कैकइ कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई॥

हे रघुकुल के गुरु (बड़ेरे मूलपुरुष) सूर्य भगवान! आप अपना उदय न करें। अयोध्या को (बेहाल) देखकर आपके हृदय में बड़ी पीड़ा होगी। राजा की प्रीति और कैकेयी की निष्ठुरता दोनों को ब्रह्मा ने सीमा तक रचकर बनाया है (अर्थात राजा प्रेम की सीमा है और कैकेयी निष्ठुरता की)।

बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि द्वारा॥

पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक॥

विलाप करते-करते ही राजा को सबेरा हो गया! राज द्वार पर वीणा, बाँसुरी और शंख की ध्वनि होने लगी। भाट लोग विरुदावली पढ़ रहे हैं और गवैए गुणों का गान कर रहे हैं। सुनने पर राजा को वे बाण-जैसे लगते हैं।

मंगल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन जैसें॥

तेहि निसि नीद परी नहिं काहू। राम दरस लालसा उछाहू॥

राजा को ये सब मंगल-साज कैसे नहीं सुहा रहे हैं, जैसे पति के साथ सती होनेवाली स्त्री को आभूषण! राम के दर्शन की लालसा और उत्साह के कारण उस रात्रि में किसी को भी नींद नहीं आई।

दो० – द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।

जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि॥ 37॥

राजद्वार पर मंत्रियों और सेवकों की भीड़ लगी है। वे सब सूर्य को उदय हुआ देखकर कहते हैं कि ऐसा कौन-सा विशेष कारण है कि अवधपति दशरथ अभी तक नहीं जागे?॥ 37॥

पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा॥

जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई॥

राजा नित्य ही रात के पिछले पहर जाग जाया करते हैं, किंतु आज हमें बड़ा आश्चर्य हो रहा है। हे सुमंत्र! जाओ, जाकर राजा को जगाओ। उनकी आज्ञा पाकर हम सब काम करें।

गए सुमंत्रु तब राउर माहीं। देखि भयावन जात डेराहीं॥

धाइ खाई जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा॥

तब सुमंत्र रावले (राजमहल) में गए, पर महल को भयानक देखकर वे जाते हुए डर रहे हैं। (ऐसा लगता है) मानो दौड़कर काट खाएगा, उसकी ओर देखा भी नहीं जाता। मानो विपत्ति और विषाद ने वहाँ डेरा डाल रखा हो।

पूछें कोउ न ऊतरु देई। गए जेहिं भवन भूप कैकेई॥

कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। देखि भूप गति गयउ सुखाई॥

पूछने पर कोई जवाब नहीं देता; वे उस महल में गए, जहाँ राजा और कैकेयी थे। ‘जय जीव’ कहकर सिर नवाकर (वंदना करके) बैठे और राजा की दशा देखकर तो वे सूख ही गए।

सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहु कमल मूलु परिहरेऊ॥

सचिउ सभीत सकइ नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूँछी॥

(देखा कि -) राजा सोच से व्याकुल हैं, चेहरे का रंग उड़ गया है। जमीन पर ऐसे पड़े हैं, मानो कमल जड़ छोड़कर (जड़ से उखड़कर) (मुर्झाया) पड़ा हो। मंत्री मारे डर के कुछ पूछ नहीं सकते। तब अशुभ से भरी हुई और शुभ से विहीन कैकेयी बोली –

दो० – परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।

रामु रामु रटि भोरु किय कहइ ना मरमु महीसु॥ 38॥

राजा को रातभर नींद नहीं आई, इसका कारण जगदीश्वर ही जानें। इन्होंने ‘राम-राम’ रटकर सबेरा कर दिया, परंतु इसका भेद राजा कुछ भी नहीं बतलाते॥ 38॥

आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई॥

चलेउ सुमंत्रु राय रुख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी॥

तुम जल्दी राम को बुला लाओ। तब आकर समाचार पूछना। राजा का रुख जानकर सुमंत्र चले, समझ गए कि रानी ने कुछ कुचाल की है।

सोच बिकल मग परइ न पाऊ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ॥

उर धरि धीरजु गयउ दुआरें। पूँछहिं सकल देखि मनु मारें॥

सुमंत्र सोच से व्याकुल हैं, रास्ते पर पैर नहीं पड़ता (आगे बढ़ा नहीं जाता), (सोचते हैं -) राम को बुलाकर राजा क्या कहेंगे? किसी तरह हृदय में धीरज धरकर वे द्वार पर गए। सब लोग उनको मन मारे (उदास) देखकर पूछने लगे।

समाधानु करि सो सबही का। गयउ जहाँ दिनकर कुल टीका॥

राम सुमंत्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा॥

सब लोगों का समाधान करके (किसी तरह समझा-बुझाकर) सुमंत्र वहाँ गए, जहाँ सूर्यकुल के तिलक राम थे। राम ने सुमंत्र को आते देखा तो पिता के समान समझकर उनका आदर किया।

निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई॥

रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं॥

राम के मुख को देखकर और राजा की आज्ञा सुनाकर वे रघुकुल के दीपक राम को (अपने साथ) लिवा चले। राम मंत्री के साथ बुरी तरह से (बिना किसी लवाजमे के) जा रहे हैं, यह देखकर लोग जहाँ-तहाँ विषाद कर रहे हैं।

दो० – जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु।

सहमि परेउ लखि सिंघिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु॥ 39॥

रघुवंशमणि राम ने जाकर देखा कि राजा अत्यंत ही बुरी हालत में पड़े हैं, मानो सिंहनी को देखकर कोई बूढ़ा गजराज सहमकर गिर पड़ा हो॥ 39॥

सूखहिं अधर जरइ सबु अंगू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअंगू॥

सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरीं गनि लेई॥

राजा के ओठ सूख रहे हैं और सारा शरीर जल रहा है, मानो मणि के बिना साँप दुःखी हो रहा हो। पास ही क्रोध से भरी कैकेयी को देखा, मानो (साक्षात) मृत्यु ही बैठी (राजा के जीवन की अंतिम) घड़ियाँ गिन रही हो।

करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुखु सुना न काऊ॥

तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी॥

राम का स्वभाव कोमल और करुणामय है। उन्होंने (अपने जीवन में) पहली बार यह दुःख देखा; इससे पहले कभी उन्होंने दुःख सुना भी न था। तो भी समय का विचार करके हृदय में धीरज धरकर उन्होंने मीठे वचनों से माता कैकेयी से पूछा –

मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन॥

सुनहु राम सबु कारनु एहू। राजहि तुम्ह पर बहुत सनेहू॥

हे माता! मुझे पिता के दुःख का कारण कहो ताकि उसका निवारण हो (दुःख दूर हो) वह यत्न किया जाए। (कैकेयी ने कहा -) हे राम! सुनो, सारा कारण यही है कि राजा का तुम पर बहुत स्नेह है।

देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना॥

सो सुनि भयउ भूप उर सोचू। छाड़ि न सकहिं तुम्हार सँकोचू॥

इन्होंने मुझे दो वरदान देने को कहा था। मुझे जो कुछ अच्छा लगा, वही मैंने माँगा। उसे सुनकर राजा के हृदय में सोच हो गया; क्योंकि ये तुम्हारा संकोच नहीं छोड़ सकते।

दो० – सुत सनेहु इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु।

सकहु त आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु॥ 40॥

इधर तो पुत्र का स्नेह है और उधर वचन (प्रतिज्ञा); राजा इसी धर्मसंकट में पड़ गए हैं। यदि तुम कर सकते हो, तो राजा की आज्ञा शिरोधार्य करो और इनके कठिन क्लेश को मिटाओ॥ 40॥

निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी॥

जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना॥

कैकेयी बेधड़क बैठी ऐसी कड़वी वाणी कह रही है जिसे सुनकर स्वयं कठोरता भी अत्यंत व्याकुल हो उठी। जीभ धनुष है, वचन बहुत-से तीर हैं और मानो राजा ही कोमल निशाने के समान हैं।

जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू॥

सबु प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई॥

(इस सारे साज-समान के साथ) मानो स्वयं कठोरपन श्रेष्ठ वीर का शरीर धारण करके धनुष विद्या सीख रहा है। रघुनाथ को सब हाल सुनाकर वह ऐसे बैठी है, मानो निष्ठुरता ही शरीर धारण किए हुए हो।

मन मुसुकाइ भानुकुल भानू। रामु सहज आनंद निधानू॥

बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन॥

सूर्यकुल के सूर्य, स्वाभाविक ही आनंदनिधान राम मन में मुसकराकर सब दूषणों से रहित ऐसे कोमल और सुंदर वचन बोले जो मानो वाणी के भूषण ही थे –

सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥

तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥

हे माता! सुनो, वही पुत्र बड़भागी है, जो पिता-माता के वचनों का अनुरागी (पालन करनेवाला) है। (आज्ञा-पालन द्वारा) माता-पिता को संतुष्ट करनेवाला पुत्र, हे जननी! सारे संसार में दुर्लभ है।

दो० – मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।

तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर॥ 41॥

वन में विशेष रूप से मुनियों का मिलाप होगा, जिसमें मेरा सभी प्रकार से कल्याण है। उसमें भी, फिर पिता की आज्ञा और हे जननी! तुम्हारी सम्मति है,॥ 41॥

भरतु प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजू॥

जौं न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥

और प्राणप्रिय भरत राज्य पाएँगे। (इन सभी बातों को देखकर यह प्रतीत होता है कि) आज विधाता सब प्रकार से मुझे सम्मुख हैं (मेरे अनुकूल हैं)। यदि ऐसे काम के लिए भी मैं वन को न जाऊँ तो मूर्खों के समाज में सबसे पहले मेरी गिनती करनी चाहिए।

सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी॥

तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं॥

जो कल्पवृक्ष को छोड़कर रेंड की सेवा करते हैं और अमृत त्याग कर विष माँग लेते हैं, हे माता! तुम मन में विचार कर देखो, वे (महामूर्ख) भी ऐसा मौका पाकर कभी न चूकेंगे।

अंब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी॥

थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी॥

हे माता! मुझे एक ही दुःख विशेष रूप से हो रहा है, वह महाराज को अत्यंत व्याकुल देखकर। इस थोड़ी-सी बात के लिए ही पिता को इतना भारी दुःख हो, हे माता! मुझे इस बात पर विश्वास नहीं होता।

राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि तें कछु बड़ अपराधू॥

जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ॥

क्योंकि महाराज तो बड़े ही धीर और गुणों के अथाह समुद्र हैं। अवश्य ही मुझसे कोई बड़ा अपराध हो गया है, जिसके कारण महाराज मुझसे कुछ नहीं कहते। तुम्हें मेरी सौगंध है, माता! तुम सच-सच कहो।

दो० – सहज सकल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।

चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान॥ 42॥

रघुकुल में श्रेष्ठ राम के स्वभाव से ही सीधे वचनों को दुर्बुद्धि कैकेयी टेढ़ा ही करके जान रही है; जैसे यद्यपि जल समान ही होता है, परंतु जोंक उसमें टेढ़ी चाल से ही चलती है॥ 42॥

रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई॥

सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मैं कछु जाना॥

रानी कैकेयी राम का रुख पाकर हर्षित हो गई और कपटपूर्ण स्नेह दिखाकर बोली – तुम्हारी शपथ और भरत की सौगंध है, मुझे राजा के दुःख का दूसरा कुछ भी कारण विदित नहीं है।

तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता॥

राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू॥

हे तात! तुम अपराध के योग्य नहीं हो (तुमसे माता-पिता का अपराध बन पड़े यह संभव नहीं)। तुम तो माता-पिता और भाइयों को सुख देनेवाले हो। हे राम! तुम जो कुछ कह रहे हो, सब सत्य है। तुम पिता-माता के वचनों (के पालन) में तत्पर हो।

पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न होई॥

तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे॥

मैं तुम्हारी बलिहारी जाती हूँ, तुम पिता को समझाकर वही बात कहो, जिससे चौथेपन (बुढ़ापे) में इनका अपयश न हो। जिस पुण्य ने इनको तुम जैसे पुत्र दिए हैं, उसका निरादर करना उचित नहीं।

लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे॥

रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए॥

कैकेयी के बुरे मुख में ये शुभ वचन कैसे लगते हैं जैसे मगध देश में गया आदिक तीर्थ! राम को माता कैकेयी के सब वचन ऐसे अच्छे लगे जैसे गंगा में जाकर (अच्छे-बुरे सभी प्रकार के) जल शुभ, सुंदर हो जाते हैं।

दो० – गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।

सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह॥ 43॥

इतने में राजा की मूर्छा दूर हुई, उन्होंने राम का स्मरण करके (‘राम! राम!’ कहकर) फिरकर करवट ली। मंत्री ने राम का आना कहकर समयानुकूल विनती की॥ 43॥

अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे॥

सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे॥

जब राजा ने सुना कि राम पधारे हैं तो उन्होंने धीरज धरके नेत्र खोले। मंत्री ने संभालकर राजा को बैठाया। राजा ने राम को अपने चरणों में पड़ते (प्रणाम करते) देखा।

लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई॥

रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू॥

स्नेह से विकल राजा ने राम को हृदय से लगा लिया। मानो साँप ने अपनी खोई हुई मणि फिर से पा ली हो। राजा दशरथ राम को देखते ही रह गए। उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा बह चली।

सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा॥

बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं॥

शोक के विशेष वश होने के कारण राजा कुछ कह नहीं सकते। वे बार-बार राम को हृदय से लगाते हैं और मन में ब्रह्मा को मनाते हैं कि जिससे राघुनाथ वन को न जाएँ।

सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी॥

आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी॥

फिर महादेव का स्मरण करके उनसे निहोरा करते हुए कहते हैं – हे सदाशिव! आप मेरी विनती सुनिए। आप आशुतोष (शीघ्र प्रसन्न होनेवाले) और अवढरदानी (मुँहमाँगा दे डालनेवाले) हैं। अतः मुझे अपना दीन सेवक जानकर मेरे दुःख को दूर कीजिए।

दो० – तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु।

बचनु मोर तजि रहहिं घर परिहरि सीलु सनेहु॥ 44॥

आप प्रेरक रूप से सबके हृदय में हैं। आप राम को ऐसी बुद्धि दीजिए, जिससे वे मेरे वचन को त्यागकर और शील-स्नेह को छोड़कर घर ही में रह जाएँ॥ 44॥

अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ। नरक परौं बरु सुरपुरु जाऊ॥

सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही॥

जगत में चाहे अपयश हो और सुयश नष्ट हो जाए। चाहे (नया पाप होने से) मैं नरक में गिरूँ, अथवा स्वर्ग चला जाए (पूर्व पुण्यों के फलस्वरूप मिलनेवाला स्वर्ग चाहे मुझे न मिले)। और भी सब प्रकार के दुःसह दुःख आप मुझसे सहन करा लें। पर राम मेरी आँखों की ओट न हों।

अस मन गुनइ राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला॥

रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी॥

राजा मन-ही-मन इस प्रकार विचार कर रहे हैं, बोलते नहीं। उनका मन पीपल के पत्ते की तरह डोल रहा है। रघुनाथ ने पिता को प्रेम के वश जानकर और यह अनुमान करके कि माता फिर कुछ कहेगी (तो पिता को दुःख होगा) –

देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत बिचारी॥

तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि लरिकाई॥

देश, काल और अवसर के अनुकूल विचार कर विनीत वचन कहे – हे तात! मैं कुछ कहता हूँ, यह ढिठाई करता हूँ। इस अनौचित्य को मेरी बाल्यावस्था समझकर क्षमा कीजिएगा।

अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा॥

देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता॥

इस अत्यंत तुच्छ बात के लिए आपने इतना दुःख पाया। मुझे किसी ने पहले कहकर यह बात नहीं जनाई। स्वामी (आप) को इस दशा में देखकर मैंने माता से पूछा। उनसे सारा प्रसंग सुनकर मेरे सब अंग शीतल हो गए (मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई)।

दो० – मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।

आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात॥ 45॥

हे पिता! इस मंगल के समय स्नेहवश होकर सोच करना छोड़ दीजिए और हृदय में प्रसन्न होकर मुझे आज्ञा दीजिए। यह कहते हुए प्रभु राम सर्वांग पुलकित हो गए॥ 45॥

धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥

चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥

(उन्होंने फिर कहा -) इस पृथ्वीतल पर उसका जन्म धन्य है, जिसके चरित्र सुनकर पिता को परम आनंद हो। जिसको माता-पिता प्राणों के समान प्रिय हैं, चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) उसके करतलगत (मुट्ठी में) रहते हैं।

आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई॥

बिदा मातु सन आवउँ मागी। चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी॥

आपकी आज्ञा पालन करके और जन्म का फल पाकर मैं जल्दी ही लौट आऊँगा, अतः कृपया आज्ञा दीजिए। माता से विदा माँग आता हूँ। फिर आपके पैर लगकर (प्रणाम करके) वन को चलूँगा।

अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बस उतरु न दीन्हा॥

नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी॥

ऐसा कहकर तब राम वहाँ से चल दिए। राजा ने शोकवश कोई उत्तर नहीं दिया। वह बहुत ही तीखी (अप्रिय) बात नगर भर में इतनी जल्दी फैल गई मानो डंक मारते ही बिच्छू का विष सारे शरीर में चढ़ गया हो।

सुनि भए बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी॥

जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई॥

इस बात को सुनकर सब स्त्री-पुरुष ऐसे व्याकुल हो गए जैसे दावानल (वन में आग लगी) देखकर बेल और वृक्ष मुरझा जाते हैं। जो जहाँ सुनता है वह वहीं सिर धुनने (पीटने) लगता है! बड़ा विषाद है, किसी को धीरज नहीं बँधता।

दो० – मुख सुखाहिं लोचन स्रवहिं सोकु न हृदयँ समाइ।

मनहुँ करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ॥ 46॥

सबके मुख सूखे जाते हैं, आँखों से आँसू बहते हैं, शोक हृदय में नहीं समाता। मानो करुणा रस की सेना अवध पर डंका बजाकर उतर आई हो॥ 46॥

मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकइहि गारी॥

एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ॥

सब मेल मिल गए थे (सब संयोग ठीक हो गए थे), इतने में ही विधाता ने बात बिगाड़ दी! जहाँ-तहाँ लोग कैकेयी को गाली दे रहे हैं! इस पापिन को क्या सूझ पड़ा जो इसने छाये घर पर आग रख दी।

निज कर नयन काढ़ि चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत चीखा॥

कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी॥

यह अपने हाथ से अपनी आँखों को निकालकर (आँखों के बिना ही) देखना चाहती है, और अमृत फेंककर विष चखना चाहती है! यह कुटिल, कठोर, दुर्बुद्धि और अभागिनी कैकेयी रघुवंशरूपी बाँस के वन के लिए अग्नि हो गई!

पालव बैठि पेड़ एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा॥

सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना॥

पत्ते पर बैठकर इसने पेड़ को काट डाला। सुख में शोक का ठाट ठटकर रख दिया! राम इसे सदा प्राणों के समान प्रिय थे। फिर भी न जाने किस कारण इसने यह कुटिलता ठानी।

सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ॥

निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई॥

कवि सत्य ही कहते हैं कि स्त्री का स्वभाव सब प्रकार से पकड़ में न आने योग्य अथाह और भेदभरा होता है। अपनी परछाईं भले ही पकड़ जाए, पर भाई! स्त्रियों की गति (चाल) नहीं जानी जाती।

दो० – काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।

का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ॥ 47॥

आग क्या नहीं जला सकती! समुद्र में क्या नहीं समा सकता! अबला कहानेवाली प्रबल स्त्री (जाति) क्या नहीं कर सकती! और जगत में काल किसको नहीं खाता!॥ 47॥

का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा॥

एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा॥

विधाता ने क्या सुनाकर क्या सुना दिया और क्या दिखाकर अब वह क्या दिखाना चाहता है! एक कहते हैं कि राजा ने अच्छा नहीं किया, दुर्बुद्धि कैकेयी को विचारकर वर नहीं दिया,

जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु॥

एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने॥

जो हठ करके (कैकेयी की बात को पूरा करने में अड़े रहकर) स्वयं सब दुःखों के पात्र हो गए। स्त्री के विशेष वश होने के कारण मानो उनका ज्ञान और गुण जाता रहा। एक (दूसरे) जो धर्म की मर्यादा को जानते हैं और सयाने हैं, वे राजा को दोष नहीं देते।

सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी॥

एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि रहहीं॥

वे शिवि, दधीचि और हरिश्चंद्र की कथा एक-दूसरे से बखानकर कहते हैं। कोई एक इसमें भरत की सम्मति बताते हैं। कोई एक सुनकर उदासीन भाव से रह जाते हैं (कुछ बोलते नहीं)।

कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा॥

सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे॥

कोई हाथों से कान मूँदकर और जीभ को दाँतों तले दबाकर कहते हैं कि यह बात झूठ है, ऐसी बात कहने से तुम्हारे पुण्य नष्ट हो जाएँगे। भरत को तो राम प्राणों के समान प्यारे हैं।

दो० – चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल।

सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल॥ 48॥

चंद्रमा चाहे (शीतल किरणों की जगह) आग की चिनगारियाँ बरसाने लगे और अमृत चाहे विष के समान हो जाए, परंतु भरत स्वप्न में भी कभी राम के विरुद्ध कुछ नहीं करेंगे॥ 48॥

एक बिधातहि दूषनु देहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं॥

खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू॥

कोई एक विधाता को दोष देते हैं, जिसने अमृत दिखाकर विष दे दिया। नगर भर में खलबली मच गई, सब किसी को सोच हो गया। हृदय में दुःसह जलन हो गई, आनंद-उत्साह मिट गया।

बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकई केरी॥

लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताहीं॥

ब्राह्मणों की स्त्रियाँ, कुल की माननीय बड़ी-बूढ़ी और जो कैकेयी की परम प्रिय थीं, वे उसके शील की सराहना करके उसे सीख देने लगीं। पर उसको उनके वचन बाण के समान लगते हैं।

भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना॥

करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बनु देहू॥

(वे कहती हैं -) तुम तो सदा कहा करती थीं कि राम के समान मुझको भरत भी प्यारे नहीं हैं; इस बात को सारा जगत जानता है। राम पर तो तुम स्वाभाविक ही स्नेह करती रही हो। आज किस अपराध से उन्हें वन देती हो?

कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु देसू॥

कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा॥

तुमने कभी सौतियाडाह नहीं किया। सारा देश तुम्हारे प्रेम और विश्वास को जानता है। अब कौसल्या ने तुम्हारा कौन-सा बिगाड़ कर दिया, जिसके कारण तुमने सारे नगर पर वज्र गिरा दिया।

दो० – सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम।

राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम॥ 49॥

क्या सीता अपने पति (राम) का साथ छोड़ देंगी? क्या लक्ष्मण राम के बिना घर रह सकेंगे? क्या भरत राम के बिना अयोध्यापुरी का राज्य भोग सकेंगे? और क्या राजा राम के बिना जीवित रह सकेंगे? (अर्थात न सीता यहाँ रहेंगी, न लक्ष्मण रहेंगे, न भरत राज्य करेंगे और न राजा ही जीवित रहेंगे; सब उजाड़ हो जाएगा।)॥ 49॥

अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू॥

भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू॥

हृदय में ऐसा विचार कर क्रोध छोड़ दो, शोक और कलंक की कोठी मत बनो। भरत को अवश्य युवराज-पद दो, पर राम का वन में क्या काम है?

नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे॥

गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू॥

राम राज्य के भूखे नहीं हैं। वे धर्म की धुरी को धारण करनेवाले और विषय-रस से रूखे हैं (अर्थात उनमें विषयासक्ति है ही नहीं)। इसलिए तुम यह शंका न करो कि राम वन न गए तो भरत के राज्य में विघ्न करेंगे; इतने पर भी मन न माने तो) तुम राजा से दूसरा ऐसा (यह) वर ले लो कि राम घर छोड़कर गुरु के घर रहें।

जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे॥

जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई॥

जो तुम हमारे कहने पर न चलोगी तो तुम्हारे हाथ कुछ भी न लगेगा। यदि तुमने कुछ हँसी की हो तो उसे प्रकट में कहकर जना दो (कि मैंने दिल्लगी की है)।

राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू॥

उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई॥

राम-सरीखा पुत्र क्या वन के योग्य है? यह सुनकर लोग तुम्हें क्या कहेंगे! जल्दी उठो और वही उपाय करो जिस उपाय से इस शोक और कलंक का नाश हो।

छं० – जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही।

हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही॥

जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी।

तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिन समुझि धौं जियँ भामनी॥

जिस तरह (नगर भर का) शोक और (तुम्हारा) कलंक मिटे, वही उपाय करके कुल की रक्षा कर। वन जाते हुए राम को हठ करके लौटा ले, दूसरी कोई बात न चला। तुलसीदास कहते हैं – जैसे सूर्य के बिना दिन, प्राण के बिना शरीर और चंद्रमा के बिना रात (निर्जीव तथा शोभाहीन हो जाती है), वैसे ही राम के बिना अयोध्या हो जाएगी, हे भामिनी! तू अपने हृदय में इस बात को समझ (विचारकर देख) तो सही।

सो० – सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित।

तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी॥ 50॥

इस प्रकार सखियों ने ऐसी सीख दी जो सुनने में मीठी और परिणाम में हितकारी थी। पर कुटिला कुबरी की सिखाई-पढ़ाई हुई कैकेयी ने इस पर जरा भी कान नहीं दिया॥ 50॥

उतरु न देइ दुसह रिस रूखी। मृगिन्ह चितव जनु बाघिनि भूखी॥

ब्याधि असाधि जानि तिन्ह त्यागी। चलीं कहत मतिमंद अभागी॥

कैकेयी कोई उत्तर नहीं देती, वह दुःसह क्रोध के मारे रूखी (बेमुरव्वत) हो रही है। ऐसे देखती है मानो भूखी बाघिन हरिनियों को देख रही हो। तब सखियों ने रोग को असाध्य समझकर उसे छोड़ दिया। सब उसको मंदबुद्धि, अभागिनी कहती हुई चल दीं।

राजु करत यह दैअँ बिगोई। कीन्हेसि अस जस करइ न कोई॥

एहि बिधि बिलपहिं पुर नर नारीं। देहिं कुचालिहि कोटिक गारीं॥

राज्य करते हुए इस कैकेयी को दैव ने नष्ट कर दिया। इसने जैसा कुछ किया, वैसा कोई भी न करेगा! नगर के सब स्त्री-पुरुष इस प्रकार विलाप कर रहे हैं और उस कुचाली कैकेयी को करोड़ों गालियाँ दे रहे हैं।

जरहिं बिषम जर लेहिं उसासा। कवनि राम बिनु जीवन आसा॥

बिपुल बियोग प्रजा अकुलानी। जनु जलचर गन सूखत पानी॥

लोग विषम ज्वर (भयानक दुःख की आग) से जल रहे हैं। लंबी साँसें लेते हुए वे कहते हैं कि राम के बिना जीने की कौन आशा है। महान वियोग (की आशंका) से प्रजा ऐसी व्याकुल हो गई है मानो पानी सूखने के समय जलचर जीवों का समुदाय व्याकुल हो!

अति बिषाद बस लोग लोगाईं। गए मातु पहिं रामु गोसाईं॥

मुख प्रसन्न चित चौगुन चाऊ। मिटा सोचु जनि राखै राऊ॥

सभी पुरुष और स्त्रियाँ अत्यंत विषाद के वश हो रहे हैं। स्वामी राम माता कौसल्या के पास गए। उनका मुख प्रसन्न है और चित्त में चौगुना चाव (उत्साह) है। यह सोच मिट गया है कि राजा कहीं रख न लें। (राम को राजतिलक की बात सुनकर विषाद हुआ था कि सब भाइयों को छोड़कर बड़े भाई मुझको ही राजतिलक क्यों होता है। अब माता कैकेयी की आज्ञा और पिता की मौन सम्मति पाकर वह सोच मिट गया।)

दो० – नव गयंदु रघुबीर मनु राजु अलान समान।

छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान॥ 51॥

राम का मन नए पकड़े हुए हाथी के समान और राजतिलक उस हाथी के बाँधने की काँटेदार लोहे की बेड़ी के समान है। ‘वन जाना है’ यह सुनकर, अपने को बंधन से छूटा जानकर, उनके हृदय में आनंद बढ़ गया है॥ 51॥

रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा॥

दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन निछावरि कीन्हे॥

रघुकुल तिलक राम ने दोनों हाथ जोड़कर आनंद के साथ माता के चरणों में सिर नवाया। माता ने आशीर्वाद दिया, अपने हृदय से लगा लिया और उन पर गहने तथा कपड़े निछावर किए।

बार-बार मुख चुंबति माता। नयन नेह जलु पुलकित गाता॥

गोद राखि पुनि हृदयँ लगाए। स्रवत प्रेमरस पयद सुहाए॥

माता बार-बार राम का मुख चूम रही हैं। नेत्रों में प्रेम का जल भर आया है और सब अंग पुलकित हो गए हैं। राम को अपनी गोद में बैठाकर फिर हृदय से लगा लिया। सुंदर स्तन प्रेमरस (दूध) बहाने लगे।

प्रेमु प्रमोदु न कछु कहि जाई। रंक धनद पदबी जनु पाई॥

सादर सुंदर बदनु निहारी। बोली मधुर बचन महतारी॥

उनका प्रेम और महान आनंद कुछ कहा नहीं जाता। मानो कंगाल ने कुबेर का पद पा लिया हो। बड़े आदर के साथ सुंदर मुख देखकर माता मधुर वचन बोलीं –

कहहु तात जननी बलिहारी। कबहिं लगन मुद मंगलकारी॥

सुकृत सील सुख सीवँ सुहाई। जनम लाभ कइ अवधि अघाई॥

हे तात! माता बलिहारी जाती है, कहो, वह आनंद-मंगलकारी लग्न कब है, जो मेरे पुण्य, शील और सुख की सुंदर सीमा है और जन्म लेने के लाभ की पूर्णतम अवधि है;

दो० – जेहि चाहत नर नारि सब अति आरत एहि भाँति।

जिमि चातक चातकि तृषित बृष्टि सरद रितु स्वाति॥ 52॥

तथा जिस (लग्न) को सभी स्त्री-पुरुष अत्यंत व्याकुलता से इस प्रकार चाहते हैं जिस प्रकार प्यास से चातक और चातकी शरद ऋतु के स्वाति नक्षत्र की वर्षा को चाहते हैं॥ 52॥

तात जाउँ बलि बेगि नहाहू। जो मन भाव मधुर कछु खाहू॥

पितु समीप तब जाएहु भैआ। भइ बड़ि बार जाइ बलि मैआ॥

हे तात! मैं बलैया लेती हूँ, तुम जल्दी नहा लो और जो मन भाए, कुछ मिठाई खा लो। भैया! तब पिता के पास जाना। बहुत देर हो गई है, माता बलिहारी जाती है।

मातु बचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह सुरतरु के फूला॥

सुख मकरंद भरे श्रियमूला। निरखि राम मनु भवँरु न भूला॥

माता के अत्यंत अनुकूल वचन सुनकर – जो मानो स्नेहरूपी कल्पवृक्ष के फूल थे, जो सुखरूपी मकरंद (पुष्परस) से भरे थे और (राजलक्ष्मी) के मूल थे – ऐसे वचनरूपी फूलों को देखकर राम का मनरूपी भौंरा उन पर नहीं भूला।

धरम धुरीन धरम गति जानी। कहेउ मातु सन अति मृदु बानी॥

पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू॥

धर्मधुरीण राम ने धर्म की गति को जानकर माता से अत्यंत कोमल वाणी से कहा – हे माता! पिता ने मुझको वन का राज्य दिया है, जहाँ सब प्रकार से मेरा बड़ा काम बननेवाला है।

आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता॥

जनि सनेह बस डरपसि भोरें। आनँदु अंब अनुग्रह तोरें॥

हे माता! तू प्रसन्न मन से मुझे आज्ञा दे, जिससे मेरी वन यात्रा में आनंद-मंगल हो। मेरे स्नेहवश भूलकर भी डरना नहीं। हे माता! तेरी कृपा से आनंद ही होगा।

दो० – बरष चारिदस बिपिन बसि करि पितु बचन प्रमान।

आइ पाय पुनि देखिहउँ मनु जनि करसि मलान॥ 53॥

चौदह वर्ष वन में रहकर, पिता के वचन को प्रमाणित (सत्य) कर, फिर लौटकर तेरे चरणों का दर्शन करूँगा; तू मन को म्लान (दुःखी) न कर॥ 53॥

बचन बिनीत मधुर रघुबर के। सर सम लगे मातु उर करके॥

सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी। जिमि जवास परें पावस पानी॥

रघुकुल में श्रेष्ठ राम के ये बहुत ही नम्र और मीठे वचन माता के हृदय में बाण के समान लगे और कसकने लगे। उस शीतल वाणी को सुनकर कौसल्या वैसे ही सहमकर सूख गईं जैसे बरसात का पानी पड़ने से जवासा सूख जाता है।

कहि न जाइ कछु हृदय बिषादू। मनहुँ मृगी सुनि केहरि नादू॥

नयन सजल तन थर थर काँपी। माजहि खाइ मीन जनु मापी॥

हृदय का विषाद कुछ कहा नहीं जाता। मानो सिंह की गर्जना सुनकर हिरनी विकल हो गई हो। नेत्रों में जल भर आया, शरीर थर-थर काँपने लगा। मानो मछली माँजा (पहली वर्षा का फेन) खाकर बदहवास हो गई हो!

धरि धीरजु सुत बदनु निहारी। गदगद बचन कहति महतारी॥

तात पितहि तुम्ह प्रानपिआरे। देखि मुदित नित चरित तुम्हारे॥

धीरज धरकर, पुत्र का मुख देखकर माता गदगद वचन कहने लगीं – हे तात! तुम तो पिता को प्राणों के समान प्रिय हो। तुम्हारे चरित्रों को देखकर वे नित्य प्रसन्न होते थे।

राजु देन कहुँ सुभ दिन साधा। कहेउ जान बन केहिं अपराधा॥

तात सुनावहु मोहि निदानू। को दिनकर कुल भयउ कृसानू॥

राज्य देने के लिए उन्होंने ही शुभ दिन शोधवाया था। फिर अब किस अपराध से वन जाने को कहा? हे तात! मुझे इसका कारण सुनाओ! सूर्यवंश (रूपी वन) को जलाने के लिए अग्नि कौन हो गया?

दो० – निरखि राम रुख सचिवसुत कारनु कहेउ बुझाइ।

सुनि प्रसंगु रहि मूक जिमि दसा बरनि नहिं जाइ॥ 54॥

तब राम का रुख देखकर मंत्री के पुत्र ने सब कारण समझाकर कहा। उस प्रसंग को सुनकर वे गूँगी-जैसी (चुप) रह गईं, उनकी दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता॥ 54॥

राखि न सकइ न कहि सक जाहू। दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू॥

लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधि गति बाम सदा सब काहू॥

न रख ही सकती हैं, न यह कह सकती हैं कि वन चले जाओ। दोनों ही प्रकार से हृदय में बड़ा भारी संताप हो रहा है। (मन में सोचती हैं कि देखो -) विधाता की चाल सदा सबके लिए टेढ़ी होती है। लिखने लगे चंद्रमा और लिखा गया राहु!

धरम सनेह उभयँ मति घेरी। भइ गति साँप छुछुंदरि केरी॥

राखउँ सुतहि करउँ अनुरोधू। धरमु जाइ अरु बंधु बिरोधू॥

धर्म और स्नेह दोनों ने कौसल्या की बुद्धि को घेर लिया। उनकी दशा साँप-छछूँदर की-सी हो गई। वे सोचने लगीं कि यदि मैं अनुरोध (हठ) करके पुत्र को रख लेती हूँ तो धर्म जाता है और भाइयों में विरोध होता है;

कहउँ जान बन तौ बड़ि हानी। संकट सोच बिबस भइ रानी॥

बहुरि समुझि तिय धरमु सयानी। रामु भरतु दोउ सुत सम जानी॥

और यदि वन जाने को कहती हूँ तो बड़ी हानि होती है। इस प्रकार के धर्म-संकट में पड़कर रानी विशेष रूप से सोच के वश हो गईं। फिर बुद्धिमती कौसल्या स्त्री-धर्म (पातिव्रत-धर्म) को समझकर और राम तथा भरत दोनों पुत्रों को समान जानकर –

सरल सुभाउ राम महतारी। बोली बचन धीर धरि भारी॥

तात जाउँ बलि कीन्हेहु नीका। पितु आयसु सब धरमक टीका॥

सरल स्वभाववाली राम की माता बड़ा धीरज धरकर वचन बोलीं – हे तात! मैं बलिहारी जाती हूँ, तुमने अच्छा किया। पिता की आज्ञा का पालन करना ही सब धर्मों का शिरोमणि धर्म है।

दो० – राजु देन कहि दीन्ह बनु मोहि न सो दुख लेसु।

तुम्ह बिनु भरतहि भूपतिहि प्रजहि प्रचंड कलेसु॥ 55॥

राज्य देने को कहकर वन दे दिया, उसका मुझे लेशमात्र भी दुःख नहीं है। (दुःख तो इस बात का है कि) तुम्हारे बिना भरत को, महाराज को और प्रजा को बड़ा भारी क्लेश होगा॥ 55॥

जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता॥

जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन सत अवध समाना॥

हे तात! यदि केवल पिता की ही आज्ञा हो, तो माता को (पिता से) बड़ी जानकर वन को मत जाओ। किंतु यदि पिता-माता दोनों ने वन जाने को कहा हो, तो वन तुम्हारे लिए सैकड़ों अयोध्या के समान है।

पितु बनदेव मातु बनदेवी। खग मृग चरन सरोरुह सेवी॥

अंतहुँ उचित नृपहि बनबासू। बय बिलोकि हियँ होइ हराँसू॥

वन के देवता तुम्हारे पिता होंगे और वनदेवियाँ माता होंगी। वहाँ के पशु-पक्षी तुम्हारे चरणकमलों के सेवक होंगे। राजा के लिए अंत में तो वनवास करना उचित ही है। केवल तुम्हारी (सुकुमार) अवस्था देखकर हृदय में दुःख होता है।

बड़भागी बनु अवध अभागी। जो रघुबंसतिलक तुम्ह त्यागी॥

जौं सुत कहौं संग मोहि लेहू। तुम्हरे हृदयँ होइ संदेहू॥

हे रघुवंश के तिलक! वन बड़ा भाग्यवान है और यह अवध अभागी है, जिसे तुमने त्याग दिया। हे पुत्र! यदि मैं कहूँ कि मुझे भी साथ ले चलो तो तुम्हारे हृदय में संदेह होगा (कि माता इसी बहाने मुझे रोकना चाहती हैं)।

पूत परम प्रिय तुम्ह सबही के। प्रान प्रान के जीवन जी के॥

ते तुम्ह कहहु मातु बन जाऊँ। मैं सुनि बचन बैठि पछिताऊँ॥

हे पुत्र! तुम सभी के परम प्रिय हो। प्राणों के प्राण और हृदय के जीवन हो। वही (प्राणाधार) तुम कहते हो कि माता! मैं वन को जाऊँ और मैं तुम्हारे वचनों को सुनकर बैठी पछताती हूँ!

दो० – यह बिचारि नहिं करउँ हठ झूठ सनेहु बढ़ाइ।

मानि मातु कर नात बलि सुरति बिसरि जनि जाइ॥ 56॥

यह सोचकर झूठा स्नेह बढ़ाकर मैं हठ नहीं करती! बेटा! मैं बलैया लेती हूँ, माता का नाता मानकर मेरी सुध भूल न जाना॥ 56॥

देव पितर सब तुम्हहि गोसाईं। राखहुँ पलक नयन की नाईं॥

अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुनाकर धरम धुरीना॥

हे गोसाईं! सब देव और पितर तुम्हारी वैसी ही रक्षा करें, जैसे पलकें आँखों की रक्षा करती हैं। तुम्हारे वनवास की अवधि (चौदह वर्ष) जल है, प्रियजन और कुटुंबी मछली हैं। तुम दया की खान और धर्म की धुरी को धारण करनेवाले हो।

अस बिचारि सोइ करहु उपाई। सबहि जिअत जेहिं भेंटहु आई॥

जाहु सुखेन बनहि बलि जाऊँ। करि अनाथ जन परिजन गाऊँ॥

ऐसा विचारकर वही उपाय करना जिसमें सबके जीते-जी तुम आ मिलो। मैं बलिहारी जाती हूँ, तुम सेवकों, परिवारवालों और नगर भर को अनाथ करके सुखपूर्वक वन को जाओ।

सब कर आजु सुकृत फल बीता। भयउ कराल कालु बिपरीता॥

बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी। परम अभागिनि आपुहि जानी॥

आज सबके पुण्यों का फल पूरा हो गया। कठिन काल हमारे विपरीत हो गया। (इस प्रकार) बहुत विलाप करके और अपने को परम अभागिनी जानकर माता राम के चरणों में लिपट गईं।

दारुन दुसह दाहु उर ब्यापा। बरनि न जाहिं बिलाप कलापा॥

राम उठाइ मातु उर लाई। कहि मृदु बचन बहुरि समुझाई॥

हृदय में भयानक दुःसह संताप छा गया। उस समय के बहुविध विलाप का वर्णन नहीं किया जा सकता। राम ने माता को उठाकर हृदय से लगा लिया और फिर कोमल वचन कहकर उन्हें समझाया।

दो० – समाचार तेहि समय सुनि सीय उठी अकुलाइ।

जाइ सासु पद कमल जुग बंदि बैठि सिरु नाइ॥ 57॥

उसी समय यह समाचार सुनकर सीता अकुला उठीं और सास के पास जाकर उनके दोनों चरणकमलों की वंदना कर सिर नीचा करके बैठ गईं॥ 57॥

दीन्हि असीस सासु मृदु बानी। अति सुकुमारि देखि अकुलानी॥

बैठि नमितमुख सोचति सीता। रूप रासि पति प्रेम पुनीता॥

सास ने कोमल वाणी से आशीर्वाद दिया। वे सीता को अत्यंत सुकुमारी देखकर व्याकुल हो उठीं। रूप की राशि और पति के साथ पवित्र प्रेम करनेवाली सीता नीचा मुख किए बैठी सोच रही हैं।

चलन चहत बन जीवन नाथू। केहि सुकृती सन होइहि साथू॥

की तनु प्रान कि केवल प्राना। बिधि करतबु कछु जाइ न जाना॥

जीवननाथ (प्राणनाथ) वन को चलना चाहते हैं। देखें किस पुण्यवान से उनका साथ होगा – शरीर और प्राण दोनों साथ जाएँगे या केवल प्राण ही से इनका साथ होगा? विधाता की करनी कुछ जानी नहीं जाती।

चारु चरन नख लेखति धरनी। नूपुर मुखर मधुर कबि बरनी॥

मनहुँ प्रेम बस बिनती करहीं। हमहि सीय पद जनि परिहरहीं॥

सीता अपने सुंदर चरणों के नखों से धरती कुरेद रही हैं। ऐसा करते समय नूपुरों का जो मधुर शब्द हो रहा है, कवि उसका इस प्रकार वर्णन करते हैं कि मानो प्रेम के वश होकर नूपुर यह विनती कर रहे हैं कि सीता के चरण कभी हमारा त्याग न करें।

मंजु बिलोचन मोचति बारी। बोली देखि राम महतारी॥

तात सुनहु सिय अति सुकुमारी। सास ससुर परिजनहि पिआरी॥

सीता सुंदर नेत्रों से जल बहा रही हैं। उनकी यह दशा देखकर राम की माता कौसल्या बोलीं – हे तात! सुनो, सीता अत्यंत ही सुकुमारी हैं तथा सास, ससुर और कुटुंबी सभी को प्यारी हैं।

दो० – पिता जनक भूपाल मनि ससुर भानुकुल भानु।

पति रबिकुल कैरव बिपिन बिधु गुन रूप निधानु॥ 58॥

इनके पिता जनक राजाओं के शिरोमणि हैं, ससुर सूर्यकुल के सूर्य हैं और पति सूर्यकुलरूपी कुमुदवन को खिलानेवाले चंद्रमा तथा गुण और रूप के भंडार हैं॥ 58॥

मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई। रूप रासि गुन सील सुहाई॥

नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई॥

फिर मैंने रूप की राशि, सुंदर गुण और शीलवाली प्यारी पुत्रवधू पाई है। मैंने इन (जानकी) को आँखों की पुतली बनाकर इनसे प्रेम बढ़ाया है और अपने प्राण इनमें लगा रखे हैं।

कलपबेलि जिमि बहुबिधि लाली। सींचि सनेह सलिल प्रतिपाली॥

फूलत फलत भयउ बिधि बामा। जानि न जाइ काह परिनामा॥

इन्हें कल्पलता के समान मैंने बहुत तरह से बड़े लाड़-चाव के साथ स्नेहरूपी जल से सींचकर पाला है। अब इस लता के फूलने-फलने के समय विधाता वाम हो गए। कुछ जाना नहीं जाता कि इसका क्या परिणाम होगा।

पलँग पीठ तजि गोद हिंडोरा। सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा॥

जिअनमूरि जिमि जोगवत रहउँ। दीप बाति नहिं टारन कहऊँ॥

सीता ने पर्यंकपृष्ठ (पलंग के ऊपर), गोद और हिंडोले को छोड़कर कठोर पृथ्वी पर कभी पैर नहीं रखा। मैं सदा संजीवनी जड़ी के समान (सावधानी से) इनकी रखवाली करती रही हूँ! कभी दीपक की बत्ती हटाने को भी नहीं कहती।

सोइ सिय चलन चहति बन साथा। आयसु काह होइ रघुनाथा॥

चंद किरन रस रसिक चकोरी। रबि रुखनयन सकइ किमि जोरी॥

वही सीता अब तुम्हारे साथ वन चलना चाहती है। हे रघुनाथ! उसे क्या आज्ञा होती है? चंद्रमा की किरणों का रस (अमृत) चाहनेवाली चकोरी सूर्य की ओर आँख किस तरह मिला सकती है।

दो० – करि केहरि निसिचर चरहिं दुष्ट जंतु बन भूरि।

बिष बाटिकाँ कि सोह सुत सुभग सजीवनि मूरि॥ 59॥

हाथी, सिंह, राक्षस आदि अनेक दुष्ट जीव-जंतु वन में विचरते रहते हैं। हे पुत्र! क्या विष की वाटिका में सुंदर संजीवनी बूटी शोभा पा सकती है?॥ 59॥

बन हित कोल किरात किसोरी। रचीं बिरंचि बिषय सुख भोरी॥

पाहन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ। तिन्हहि कलेसु न कानन काऊ॥

वन के लिए तो ब्रह्मा ने विषय सुख को न जाननेवाली कोल और भीलों की लड़कियों को रचा है, जिनका पत्थर के कीड़े-जैसा कठोर स्वभाव है। उन्हें वन में कभी क्लेश नहीं होता।

कै तापस तिय कानन जोगू। जिन्ह तप हेतु तजा सब भोगू॥

सिय बन बसिहि तात केहि भाँती। चित्रलिखित कपि देखि डेराती॥

अथवा तपस्वियों की स्त्रियाँ वन में रहने योग्य हैं, जिन्होंने तपस्या के लिए सब भोग तज दिए हैं। हे पुत्र! जो तसवीर के बंदर को देखकर डर जाती हैं, वे सीता वन में किस तरह रह सकेंगी?

सुरसर सुभग बनज बन चारी। डाबर जोगु कि हंसकुमारी॥

अस बिचारि जस आयसु होई। मैं सिख देउँ जानकिहि सोई॥

देवसरोवर के कमल वन में विचरण करनेवाली हंसिनी क्या गड़ैयों (तलैयों) में रहने के योग्य है? ऐसा विचार कर जैसी तुम्हारी आज्ञा हो, मैं जानकी को वैसी ही शिक्षा दूँ।

जौं सिय भवन रहै कह अंबा। मोहि कहँ होइ बहुत अवलंबा॥

सुनि रघुबीर मातु प्रिय बानी। सील सनेह सुधाँ जनु सानी॥

माता कहती हैं – यदि सीता घर में रहें तो मुझको बहुत सहारा हो जाए। राम ने माता की प्रिय वाणी सुनकर, जो मानो शील और स्नेहरूपी अमृत से सनी हुई थी,

दो० – कहि प्रिय बचन बिबेकमय कीन्हि मातु परितोष।

लगे प्रबोधन जानकिहि प्रगटि बिपिन गुन दोष॥ 60॥

विवेकमय प्रिय वचन कहकर माता को संतुष्ट किया। फिर वन के गुण-दोष प्रकट करके वे जानकी को समझाने लगे॥ 60॥

श्री राम चरित मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, चौदहवाँ विश्राम समाप्त॥

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