श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, चौथा विश्राम || Shri Ram Charit Manas Choutha Vishram

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श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, चौथा विश्राम


श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, चौथा विश्राम

श्री रामचरित मानस

प्रथम सोपान (बालकाण्ड)

सुनि बोलीं मुसुकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी॥

तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि संभु रहे सबिकारा॥

यह सुनकर पार्वती मुसकराकर बोलीं – हे विज्ञानी मुनिवरो! आपने उचित ही कहा। आपकी समझ में शिव ने कामदेव को अब जलाया है, अब तक तो वे विकारयुक्त (कामी) ही रहे!

हमरें जान सदा सिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी॥

जौं मैं सिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी॥

किंतु हमारी समझ से तो शिव सदा से ही योगी, अजन्मे, अनिंद्य, कामरहित और भोगहीन हैं और यदि मैंने शिव को ऐसा समझकर ही मन, वचन और कर्म से प्रेम सहित उनकी सेवा की है।

तौ हमार पन सुनहु मुनीसा। करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा॥

तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा। सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा॥

तो हे मुनीश्वरो! सुनिए, वे कृपानिधान भगवान मेरी प्रतिज्ञा को सत्य करेंगे। आपने जो यह कहा कि शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया, यही आपका बड़ा भारी अविवेक है।

तात अनल कर सहज सुभाऊ। हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ॥

गएँ समीप सो अवसि नसाई। असि मन्मथ महेस की नाई॥

हे तात! अग्नि का तो यह सहज स्वभाव ही है कि पाला उसके समीप कभी जा ही नहीं सकता और जाने पर वह अवश्य नष्ट हो जाएगा। महादेव और कामदेव के संबंध में भी यही न्याय (बात) समझना चाहिए।

दो० – हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास।

चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास॥ 90॥

पार्वती के वचन सुनकर और उनका प्रेम तथा विश्वास देखकर मुनि हृदय में बड़े प्रसन्न हुए। वे भवानी को सिर नवाकर चल दिए और हिमाचल के पास पहुँचे॥ 90॥

सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा॥

बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना॥

उन्होंने पर्वतराज हिमाचल को सब हाल सुनाया। कामदेव का भस्म होना सुनकर हिमाचल बहुत दुःखी हुए। फिर मुनियों ने रति के वरदान की बात कही, उसे सुनकर हिमवान ने बहुत सुख माना।

हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई।

सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई॥

शिव के प्रभाव को मन में विचार कर हिमाचल ने श्रेष्ठ मुनियों को आदरपूर्वक बुला लिया और उनसे शुभ दिन, शुभ नक्षत्र और शुभ घड़ी शोधवाकर वेद की विधि के अनुसार शीघ्र ही लग्न निश्चय कराकर लिखवा लिया।

पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही॥

जाइ बिधिहि तिन्ह दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ समाती॥

फिर हिमाचल ने वह लग्नपत्रिका सप्तर्षियों को दे दी और चरण पकड़कर उनकी विनती की। उन्होंने जाकर वह लग्न पत्रिका ब्रह्मा को दी। उसको पढ़ते समय उनके हृदय में प्रेम समाता न था।

लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई॥

सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे॥

ब्रह्मा ने लग्न पढ़कर सबको सुनाया, उसे सुनकर सब मुनि और देवताओं का सारा समाज हर्षित हो गया। आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी, बाजे बजने लगे और दसों दिशाओं में मंगल-कलश सजा दिए गए।

दो० – लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।

होहिं सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान॥ 91॥

सब देवता अपने भाँति-भाँति के वाहन और विमान सजाने लगे, कल्याणप्रद मंगल शकुन होने लगे और अप्सराएँ गाने लगीं॥ 91॥

सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥

कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥

शिव के गण शिव का श्रृंगार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मौर सजाया गया। शिव ने साँपों के ही कुंडल और कंकण पहने, शरीर पर विभूति रमाई और वस्त्र की जगह बाघंबर लपेट लिया।

ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥

गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥

शिव के सुंदर मस्तक पर चंद्रमा, सिर पर गंगा, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुंडों की माला थी। इस प्रकार उनका वेष अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम और कृपालु हैं।

कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥

देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥

एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू सुशोभित है। शिव बैल पर चढ़कर चले। बाजे बज रहे हैं। शिव को देखकर देवांगनाएँ मुस्कुरा रही हैं (और कहती हैं कि) इस वर के योग्य दुलहिन संसार में नहीं मिलेगी।

बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता। चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥

सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥

विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं के समूह अपने-अपने वाहनों पर चढ़कर बारात में चले। देवताओं का समाज सब प्रकार से अनुपम (परम सुंदर) था, पर दूल्हे के योग्य बारात न थी।

दो० – बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।

बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥ 92॥

तब विष्णु भगवान ने सब दिग्पालों को बुलाकर हँसते हुए ऐसा कहा – सब लोग अपने-अपने दल समेत अलग-अलग होकर चलो॥ 92॥

बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥

बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥

हे भाई! हम लोगों की यह बारात वर के योग्य नहीं है। क्या पराए नगर में जाकर हँसी कराओगे? विष्णु भगवान की बात सुनकर देवता मुसकराए और वे अपनी-अपनी सेना सहित अलग हो गए।

मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥

अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥

महादेव (यह देखकर) मन-ही-मन मुस्कुराते हैं कि विष्णु भगवान के व्यंग्य-वचन (दिल्लगी) नहीं छूटते! अपने प्यारे (विष्णु भगवान) के इन अति प्रिय वचनों को सुनकर शिव ने भी भृंगी को भेजकर अपने सब गणों को बुलवा लिया।

सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥

नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा॥

शिव की आज्ञा सुनते ही सब चले आए और उन्होंने स्वामी के चरण कमलों में सिर नवाया। तरह-तरह की सवारियों और तरह-तरह के वेषवाले अपने समाज को देखकर शिव हँसे।

कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥

बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥

कोई बिना मुख का है, किसी के बहुत-से मुख हैं, कोई बिना हाथ-पैर का है तो किसी के कई हाथ-पैर हैं। किसी के बहुत आँखें हैं तो किसी के एक भी आँख नहीं है। कोई बहुत मोटा-ताजा है, तो कोई बहुत ही दुबला-पतला है।

छं० – तन कीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।

भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥

खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।

बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥

कोई बहुत दुबला, कोई बहुत मोटा, कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किए हुए है। भयंकर गहने पहने हाथ में कपाल लिए हैं और सब के सब शरीर में ताजा खून लपेटे हुए हैं। गधे, कुत्ते, सूअर और सियार के-से उनके मुख हैं। गणों के अनगिनत वेषों को कौन गिने? बहुत प्रकार के प्रेत, पिशाच और योगिनियों की जमाते हैं। उनका वर्णन करते नहीं बनता।

सो० – नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब।

देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥ 93॥

भूत-प्रेत नाचते और गाते हैं, वे सब बड़े मौजी हैं। देखने में बहुत ही बेढंगे जान पड़ते हैं और बड़े ही विचित्र ढंग से बोलते हैं॥ 93॥

जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥

इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥

जैसा दूल्हा है, अब वैसी ही बारात बन गई है। मार्ग में चलते हुए भाँति-भाँति के कौतुक होते जाते हैं। इधर हिमाचल ने ऐसा विचित्र मंडप बनाया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता।

सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं॥

बन सागर सब नदी तलावा। हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा॥

जगत में जितने छोटे-बड़े पर्वत थे, जिनका वर्णन करके पार नहीं मिलता तथा जितने वन, समुद्र, नदियाँ और तालाब थे, हिमाचल ने सबको नेवता भेजा।

कामरूप सुंदर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी॥

गए सकल तुहिमाचल गेहा। गावहिं मंगल सहित सनेहा॥

वे सब अपनी इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले सुंदर शरीर धारण कर सुंदरी स्त्रियों और समाजों के साथ हिमाचल के घर गए। सभी स्नेह सहित मंगल गीत गा रहे हैं।

प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥

पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरंचि निपुनाई॥

हिमाचल ने पहले ही से बहुत-से घर सजवा रखे थे। यथायोग्य उन-उन स्थानों में सब लोग उतर गए। नगर की सुंदर शोभा देखकर ब्रह्मा की रचना चातुरी भी तुच्छ लगती थी।

छं० – लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।

बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही॥

मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं।

बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं॥

नगर की शोभा देखकर ब्रह्मा की निपुणता सचमुच तुच्छ लगती है। वन, बाग, कुएँ, तालाब, नदियाँ सभी सुंदर हैं, उनका वर्णन कौन कर सकता है? घर-घर बहुत-से मंगलसूचक तोरण और ध्वजा-पताकाएँ सुशोभित हो रही हैं। वहाँ के सुंदर और चतुर स्त्री-पुरुषों की छवि देखकर मुनियों के भी मन मोहित हो जाते हैं।

दो० – जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ।

रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ॥ 94॥

जिस नगर में स्वयं जगदंबा ने अवतार लिया, क्या उसका वर्णन हो सकता है? वहाँ ऋद्धि, सिद्धि, संपत्ति और सुख नित-नए बढ़ते जाते हैं॥ 94॥

नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई॥

करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥

बारात को नगर के निकट आई सुनकर नगर में चहल-पहल मच गई, जिससे उसकी शोभा बढ़ गई। अगवानी करनेवाले लोग बनाव-श्रृंगार करके तथा नाना प्रकार की सवारियों को सजाकर आदर सहित बारात को लेने चले।

हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भए सुखारी॥

सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे॥

देवताओं के समाज को देखकर सब मन में प्रसन्न हुए और विष्णु भगवान को देखकर तो बहुत ही सुखी हुए, किंतु जब शिव के दल को देखने लगे तब तो उनके सब वाहन (सवारियों के हाथी, घोड़े, रथ के बैल आदि) डरकर भाग चले।

धरि धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने॥

गएँ भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कंपित गाता॥

कुछ बड़ी उम्र के समझदार लोग धीरज धरकर वहाँ डटे रहे। लड़के तो सब अपने प्राण लेकर भागे। घर पहुँचने पर जब माता-पिता पूछते हैं, तब वे भय से काँपते हुए शरीर से ऐसा वचन कहते हैं –

कहिअ काह कहि जाइ न बाता। जम कर धार किधौं बरिआता॥

बरु बौराह बसहँ असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥

क्या कहें, कोई बात कही नहीं जाती। यह बारात है या यमराज की सेना? दूल्हा पागल है और बैल पर सवार है। साँप, कपाल और राख ही उसके गहने हैं।

छं० – तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा।

सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा॥

जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही।

देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही॥

दूल्हे के शरीर पर राख लगी है, साँप और कपाल के गहने हैं, वह नंगा, जटाधारी और भयंकर है। उसके साथ भयानक मुखवाले भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियाँ और राक्षस हैं, जो बारात को देखकर जीता बचेगा, सचमुच उसके बड़े ही पुण्य हैं और वही पार्वती का विवाह देखेगा। लड़कों ने घर-घर यही बात कही।

दो० – समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं।

बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं॥ 95॥

महेश्वर (शिव) का समाज समझकर सब लड़कों के माता-पिता मुस्कुराते हैं। उन्होंने बहुत तरह से लड़कों को समझाया कि निडर हो जाओ, डर की कोई बात नहीं है॥ 95॥

लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए॥

मैनाँ सुभ आरती सँवारी। संग सुमंगल गावहिं नारी॥

अगवान लोग बारात को लिवा लाए, उन्होंने सबको सुंदर जनवासे ठहरने को दिए। मैना (पार्वती की माता) ने शुभ आरती सजाई और उनके साथ की स्त्रियाँ उत्तम मंगलगीत गाने लगीं।

कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥

बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा॥

सुंदर हाथों में सोने का थाल शोभित है, इस प्रकार मैना हर्ष के साथ शिव का परछन करने चलीं। जब महादेव को भयानक वेष में देखा तब तो स्त्रियों के मन में बड़ा भारी भय उत्पन्न हो गया।

भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेसु जहाँ जनवासा॥

मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी। लीन्ही बोली गिरीसकुमारी॥

बहुत ही डर के मारे भागकर वे घर में घुस गईं और शिव जहाँ जनवासा था, वहाँ चले गए। मैना के हृदय में बड़ा दुःख हुआ, उन्होंने पार्वती को अपने पास बुला लिया।

अधिक सनेहँ गोद बैठारी। स्याम सरोज नयन भरे बारी॥

जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा। तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा॥

और अत्यंत स्नेह से गोद में बैठाकर अपने नीलकमल के समान नेत्रों में आँसू भरकर कहा – जिस विधाता ने तुमको ऐसा सुंदर रूप दिया, उस मूर्ख ने तुम्हारे दूल्हे को बावला कैसे बनाया?

छं० – कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई।

जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई॥

तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं।

घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं॥

जिस विधाता ने तुमको सुंदरता दी, उसने तुम्हारे लिए वर बावला कैसे बनाया? जो फल कल्पवृक्ष में लगना चाहिए, वह जबरदस्ती बबूल में लग रहा है। मैं तुम्हें लेकर पहाड़ से गिर पड़ूँगी, आग में जल जाऊँगी या समुद्र में कूद पड़ूँगी। चाहे घर उजड़ जाए और संसार भर में अपकीर्ति फैल जाए, पर जीते जी मैं इस बावले वर से तुम्हारा विवाह न करूँगी।

दो० – भईं बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि।

करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि॥ 96॥

हिमाचल की स्त्री (मैना) को दुःखी देखकर सारी स्त्रियाँ व्याकुल हो गईं। मैना अपनी कन्या के स्नेह को याद करके विलाप करती, रोती और कहती थीं – ॥ 96॥

नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥

अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लागि तपु कीन्हा॥

मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने मेरा बसता हुआ घर उजाड़ दिया और जिन्होंने पार्वती को ऐसा उपदेश दिया कि जिससे उसने बावले वर के लिए तप किया।

साचेहुँ उन्ह कें मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया॥

पर घर घालक लाज न भीरा। बाँझ कि जान प्रसव कै पीरा॥

सचमुच उनके न किसी का मोह है, न माया, न उनके धन है, न घर है और न स्त्री ही है, वे सबसे उदासीन हैं। इसी से वे दूसरे का घर उजाड़नेवाले हैं। उन्हें न किसी की लाज है, न डर है। भला, बाँझ स्त्री प्रसव की पीड़ा को क्या जाने।

जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी॥

अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥

माता को विकल देखकर पार्वती विवेकयुक्त कोमल वाणी बोलीं – हे माता! जो विधाता रच देते हैं, वह टलता नहीं; ऐसा विचार कर तुम सोच मत करो!

करम लिखा जौं बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू॥

तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका॥

जो मेरे भाग्य में बावला ही पति लिखा है, तो किसी को क्यों दोष लगाया जाए? हे माता! क्या विधाता के अंक तुमसे मिट सकते हैं? वृथा कलंक का टीका मत लो।

छं० – जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं।

दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं॥

सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं।

बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं॥

हे माता! कलंक मत लो, रोना छोड़ो, यह अवसर विषाद करने का नहीं है। मेरे भाग्य में जो दुःख-सुख लिखा है, उसे मैं जहाँ जाऊँगी, वहीं पाऊँगी! पार्वती के ऐसे विनय भरे कोमल वचन सुनकर सारी स्त्रियाँ सोच करने लगीं और भाँति-भाँति से विधाता को दोष देकर आँखों से आँसू बहाने लगीं।

दो० – तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत।

समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत॥ 97॥

इस समाचार को सुनते ही हिमाचल उसी समय नारद और सप्त ऋषियों को साथ लेकर अपने घर गए॥ 97॥

तब नारद सबही समुझावा। पूरुब कथा प्रसंगु सुनावा॥

मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी॥

तब नारद ने पूर्वजन्म की कथा सुनाकर सबको समझाया (और कहा) कि हे मैना! तुम मेरी सच्ची बात सुनो, तुम्हारी यह लड़की साक्षात जगज्जनी भवानी है।

अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा संभु अरधंग निवासिनि॥

जग संभव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि॥

ये अजन्मा, अनादि और अविनाशिनी शक्ति हैं। सदा शिव के अर्द्धांग में रहती हैं। ये जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार करनेवाली हैं; और अपनी इच्छा से ही लीला शरीर धारण करती हैं।

जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुंदर तनु पाई॥

तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं॥

पहले ये दक्ष के घर जाकर जन्मी थीं, तब इनका सती नाम था, बहुत सुंदर शरीर पाया था। वहाँ भी सती शंकर से ही ब्याही गई थीं। यह कथा सारे जगत में प्रसिद्ध है।

एक बार आवत सिव संगा। देखेउ रघुकुल कमल पतंगा॥

भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा॥

एक बार इन्होंने शिव के साथ आते हुए (राह में) रघुकुलरूपी कमल के सूर्य राम को देखा, तब इन्हें मोह हो गया और इन्होंने शिव का कहना न मानकर भ्रमवश सीता का वेष धारण कर लिया।

छं० – सिय बेषु सतीं जो कीन्ह तेहिं अपराध संकर परिहरीं।

हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं॥

अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया।

अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकरप्रिया॥

सती ने जो सीता का वेष धारण किया, उसी अपराध के कारण शंकर ने उनको त्याग दिया। फिर शिव के वियोग में ये अपने पिता के यज्ञ में जाकर वहीं योगाग्नि से भस्म हो गईं। अब इन्होंने तुम्हारे घर जन्म लेकर अपने पति के लिए कठिन तप किया है ऐसा जानकर संदेह छोड़ दो, पार्वती तो सदा ही शिव की प्रिया हैं।

दो० – सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद।

छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद॥ 98॥

तब नारद के वचन सुनकर सबका विषाद मिट गया और क्षणभर में यह समाचार सारे नगर में घर-घर फैल गया॥ 98॥

तब मयना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे॥

नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥

तब मैना और हिमवान आनंद में मग्न हो गए और उन्होंने बार-बार पार्वती के चरणों की वंदना की। स्त्री, पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध नगर के सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए।

लगे होन पुर मंगल गाना। सजे सबहिं हाटक घट नाना॥

भाँति अनेक भई जेवनारा। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥

नगर में मंगल गीत गाए जाने लगे और सबने भाँति-भाँति के सुवर्ण के कलश सजाए। पाक-शास्त्र में जैसी रीति है, उसके अनुसार अनेक भाँति की ज्योनार हुई (रसोई बनी)।

सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥

सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरंचि देव सब जाती॥

जिस घर में स्वयं माता भवानी रहती हों, वहाँ की ज्योनार (भोजन सामग्री) का वर्णन कैसे किया जा सकता है? हिमाचल ने आदरपूर्वक सब बारातियों, विष्णु, ब्रह्मा और सब जाति के देवताओं को बुलवाया।

बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा॥

नारिबृंद सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी॥

भोजन (करनेवालों) की बहुत-सी पंगतें बैठीं। चतुर रसोइए परोसने लगे। स्त्रियों की मंडलियाँ देवताओं को भोजन करते जानकर कोमल वाणी से गालियाँ देने लगीं।

छं० – गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं।

भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥

जेवँत जो बढ्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो।

अचवाँइ दीन्हें पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥

सब सुंदरी स्त्रियाँ मीठे स्वर में गालियाँ देने लगीं और व्यंग्य भरे वचन सुनाने लगीं। देवगण विनोद सुनकर बहुत सुख अनुभव करते हैं, इसलिए भोजन करने में बड़ी देर लगा रहे हैं। भोजन के समय जो आनंद बढ़ा वह करोड़ों मुँह से भी नहीं कहा जा सकता। (भोजन कर चुकने पर) सबके हाथ-मुँह धुलवाकर पान दिए गए। फिर सब लोग, जो जहाँ ठहरे थे, वहाँ चले गए।

दो० – बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ।

समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥ 99॥

फिर मुनियों ने लौटकर हिमवान को लगन (लग्न पत्रिका) सुनाई और विवाह का समय देखकर देवताओं को बुला भेजा॥ 99॥

बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे॥

बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी॥

सब देवताओं को आदर सहित बुलवा लिया और सबको यथायोग्य आसन दिए। वेद की रीति से वेदी सजाई गई और स्त्रियाँ सुंदर श्रेष्ठ मंगल गीत गाने लगीं।

सिंघासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि बनावा॥

बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥

वेदिका पर एक अत्यंत सुंदर दिव्य सिंहासन था, जिस (की सुंदरता) का वर्णन नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह स्वयं ब्रह्मा का बनाया हुआ था। ब्राह्मणों को सिर नवाकर और हृदय में अपने स्वामी रघुनाथ का स्मरण करके शिव उस सिंहासन पर बैठ गए।

बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाईं। करि सिंगारु सखीं लै आईं॥

देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥

फिर मुनीश्वरों ने पार्वती को बुलाया। सखियाँ श्रृंगार करके उन्हें ले आईं। पार्वती के रूप को देखते ही सब देवता मोहित हो गए। संसार में ऐसा कवि कौन है, जो उस सुंदरता का वर्णन कर सके?

जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥

सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥

पार्वती को जगदंबा और शिव की पत्नी समझकर देवताओं ने मन-ही-मन प्रणाम किया। भवानी सुंदरता की सीमा हैं। करोड़ों मुखों से भी उनकी शोभा नहीं कही जा सकती।

छं० – कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा।

सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसीकहा॥

छबिखानि मातु भवानि गवनीं मध्य मंडप सिव जहाँ।

अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ॥

जगज्जननी पार्वती की महान शोभा का वर्णन करोड़ों मुखों से भी करते नहीं बनता। वेद, शेष और सरस्वती तक उसे कहते हुए सकुचा जाते हैं, तब मंदबुद्धि तुलसी किस गिनती में है? सुंदरता और शोभा की खान माता भवानी मंडप के बीच में, जहाँ शिव थे, वहाँ गईं। वे संकोच के मारे पति (शिव) के चरणकमलों को देख नहीं सकतीं, परंतु उनका मनरूपी भौंरा तो वहीं (रस-पान कर रहा) था।

दो० – मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।

कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥ 100॥

मुनियों की आज्ञा से शिव और पार्वती ने गणेश का पूजन किया। मन में देवताओं को अनादि समझकर कोई इस बात को सुनकर शंका न करे (कि गणेश तो शिव-पार्वती की संतान हैं, अभी विवाह से पूर्व ही वे कहाँ से आ गए?)॥ 100॥

जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥

गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥

वेदों में विवाह की जैसी रीति कही गई है, महामुनियों ने वह सभी रीति करवाई। पर्वतराज हिमाचल ने हाथ में कुश लेकर तथा कन्या का हाथ पकड़कर उन्हें भवानी (शिवपत्नी) जानकर शिव को समर्पण किया।

पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥

बेदमंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥

जब महेश्वर (शिव) ने पार्वती का पाणिग्रहण किया, तब (इंद्रादि) सब देवता हृदय में बड़े ही हर्षित हुए। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमंत्रों का उच्चारण करने लगे और देवगण शिव का जय-जयकार करने लगे।

बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥

हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥

अनेकों प्रकार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना प्रकार के फूलों की वर्षा हुई। शिव-पार्वती का विवाह हो गया। सारे ब्रह्मांड में आनंद भर गया।

दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥

अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥

दासी, दास, रथ, घोड़े, हाथी, गायें, वस्त्र और मणि आदि अनेक प्रकार की चीजें, अन्न तथा सोने के बर्तन गाड़ियों में लदवाकर दहेज में दिए, जिनका वर्णन नहीं हो सकता।

छं० – दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।

का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥

सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।

पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥

बहुत प्रकार का दहेज देकर, फिर हाथ जोड़कर हिमाचल ने कहा – हे शंकर! आप पूर्णकाम हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूँ? (इतना कहकर) वे शिव के चरणकमल पकड़कर रह गए। तब कृपा के सागर शिव ने अपने ससुर का सभी प्रकार से समाधान किया। फिर प्रेम से परिपूर्ण हृदय मैना ने शिव के चरण कमल पकड़े (और कहा -)

दो० – नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।

छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥ 101॥

हे नाथ! यह उमा मुझे मेरे प्राणों के समान (प्यारी) है। आप इसे अपने घर की टहलनी बनाइएगा और इसके सब अपराधों को क्षमा करते रहिएगा। अब प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिए॥ 101॥

बहु बिधि संभु सासु समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥

जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥

शिव ने बहुत तरह से अपनी सास को समझाया। तब वे शिव के चरणों में सिर नवाकर घर गईं। फिर माता ने पार्वती को बुला लिया और गोद में बिठाकर यह सुंदर सीख दी –

करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥

बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥

हे पार्वती! तू सदाशिव के चरणों की पूजा करना, नारियों का यही धर्म है। उनके लिए पति ही देवता है और कोई देवता नहीं है। इस प्रकार की बातें कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू भर आए और उन्होंने कन्या को छाती से चिपटा लिया।

कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं॥

भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥

(फिर बोलीं कि) विधाता ने जगत में स्त्री जाति को क्यों पैदा किया? पराधीन को सपने में भी सुख नहीं मिलता। यों कहती हुई माता प्रेम में अत्यंत विकल हो गईं, परंतु कुसमय जानकर (दुःख करने का अवसर न जानकर) उन्होंने धीरज धरा।

पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेमु कछु जाइ न बरना॥

सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥

मैना बार-बार मिलती हैं और (पार्वती के) चरणों को पकड़कर गिर पड़ती हैं। बड़ा ही प्रेम है, कुछ वर्णन नहीं किया जाता। भवानी सब स्त्रियों से मिल-भेंटकर फिर अपनी माता के हृदय से जा लिपटीं।

छं० – जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।

फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं॥

जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।

सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥

पार्वती माता से फिर मिलकर चलीं, सब किसी ने उन्हें योग्य आशीर्वाद दिए। पार्वती फिर-फिरकर माता की ओर देखती जाती थीं। तब सखियाँ उन्हें शिव के पास ले गईं। महादेव सब याचकों को संतुष्ट कर पार्वती के साथ घर (कैलास) को चले। सब देवता प्रसन्न होकर फूलों की वर्षा करने लगे और आकाश में सुंदर नगाड़े बजाने लगे।

दो० – चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।

बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥ 102॥

तब हिमवान अत्यंत प्रेम से शिव को पहुँचाने के लिए साथ चले। वृषकेतु (शिव) ने बहुत तरह से उन्हें संतोष कराकर विदा किया॥ 102॥

तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥

आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥

पर्वतराज हिमाचल तुरंत घर आए और उन्होंने सब पर्वतों और सरोवरों को बुलाया। हिमवान ने आदर, दान, विनय और बहुत सम्मानपूर्वक सबकी विदाई की।

जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥

जगत मातु पितु संभु भवानी। तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी॥

जब शिव कैलास पर्वत पर पहुँचे, तब सब देवता अपने-अपने लोकों को चले गए। (तुलसीदास कहते हैं कि) पार्वती और शिव जगत के माता-पिता हैं, इसलिए मैं उनके श्रृंगार का वर्णन नहीं करता।

करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥

हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥

शिव-पार्वती विविध प्रकार के भोग-विलास करते हुए अपने गणों सहित कैलास पर रहने लगे। वे नित्य नए विहार करते थे। इस प्रकार बहुत समय बीत गया।

तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुरु समर जेहिं मारा॥

आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥

तब छह मुखवाले पुत्र (स्वामिकार्तिक) का जन्म हुआ, जिन्होंने (बड़े होने पर) युद्ध में तारकासुर को मारा। वेद, शास्त्र और पुराणों में स्वामिकार्तिक के जन्म की कथा प्रसिद्ध है और सारा जगत उसे जानता है।

छं० – जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।

तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥

यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।

कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥

षडानन (स्वामिकार्तिक) के जन्म, कर्म, प्रताप और महान पुरुषार्थ को सारा जगत जानता है। इसलिए मैंने वृषकेतु (शिव) के पुत्र का चरित्र संक्षेप में ही कहा है। शिव-पार्वती के विवाह की इस कथा को जो स्त्री-पुरुष कहेंगे और गाएँगे, वे कल्याण के कार्यों और विवाहादि मंगलों में सदा सुख पाएँगे।

दो० – चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु।

बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥ 103॥

गिरिजापति महादेव का चरित्र समुद्र के समान (अपार) है, उसका पार वेद भी नहीं पाते। तब अत्यंत मंदबुद्धि और गँवार तुलसीदास उसका वर्णन कैसे कर सकता है!॥ 103॥

संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुखु पावा॥

बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥

शिव के रसीले और सुहावने चरित्र को सुनकर मुनि भरद्वाज ने बहुत ही सुख पाया। कथा सुनने की उनकी लालसा बहुत बढ़ गई। नेत्रों में जल भर आया तथा रोमावली खड़ी हो गई।

प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥

अहो धन्य तब जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥

वे प्रेम में मुग्ध हो गए, मुख से वाणी नहीं निकल रही थी। उनकी यह दशा देखकर ज्ञानी मुनि याज्ञवल्क्य बहुत प्रसन्न हुए (और बोले -) हे मुनीश! अहा! तुम्हारा जन्म धन्य है, तुमको गौरीपति शिव प्राणों के समान प्रिय हैं।

सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥

बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥

शिव के चरण कमलों में जिनकी प्रीति नहीं है, वे राम को स्वप्न में भी अच्छे नहीं लगते। विश्वनाथ शिव के चरणों में निष्कपट (विशुद्ध) प्रेम होना यही रामभक्त का लक्षण है।

सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥

पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥

शिव के समान रघुनाथ (की भक्ति) का व्रत धारण करनेवाला कौन है? जिन्होंने बिना ही पाप के सती जैसी स्त्री को त्याग दिया और प्रतिज्ञा करके रघुनाथ की भक्ति को दिखा दिया। हे भाई! राम को शिव के समान और कौन प्यारा है?

दो० – प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।

सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥ 104॥

मैंने पहले ही शिव का चरित्र कहकर तुम्हारा भेद समझ लिया। तुम राम के पवित्र सेवक हो और समस्त दोषों से रहित हो॥ 104॥

मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥

सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥

मैंने तुम्हारा गुण और शील जान लिया। अब मैं रघुनाथ की लीला कहता हूँ, सुनो। हे मुनि! सुनो, आज तुम्हारे मिलने से मेरे मन में जो आनंद हुआ है, वह कहा नहीं जा सकता।

राम चरित अति अमित मुनीसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥

तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥

हे मुनीश्वर! रामचरित्र अत्यंत अपार है। सौ करोड़ शेष भी उसे नहीं कह सकते। तथापि जैसा मैंने सुना है, वैसा वाणी के स्वामी (प्रेरक) और हाथ में धनुष लिए हुए प्रभु राम का स्मरण करके कहता हूँ।

सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥

जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥

सरस्वती कठपुतली के समान हैं और अंतर्यामी स्वामी राम (सूत पकड़कर कठपुतली को नचानेवाले) सूत्रधार हैं। अपना भक्त जानकर जिस कवि पर वे कृपा करते हैं, उसके हृदयरूपी आँगन में सरस्वती को वे नचाया करते हैं।

प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥

परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥

उन्हीं कृपालु रघुनाथ को मैं प्रणाम करता हूँ और उन्हीं के निर्मल गुणों की कथा कहता हूँ। कैलास पर्वतों में श्रेष्ठ और बहुत ही रमणीय है, जहाँ शिव-पार्वती सदा निवास करते हैं।

दो० – सिद्ध तपोधन जोगिजन सुर किंनर मुनिबृंद।

बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिव सुखकंद॥ 105॥

सिद्ध, तपस्वी, योगीगण, देवता, किन्नर और मुनियों के समूह उस पर्वत पर रहते हैं। वे सब बड़े पुण्यात्मा हैं और आनंदकंद महादेव की सेवा करते हैं॥ 105॥

हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥

तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥

जो भगवान विष्णु और महादेव से विमुख हैं और जिनकी धर्म में प्रीति नहीं है, वे लोग स्वप्न में भी वहाँ नहीं जा सकते। उस पर्वत पर एक विशाल बरगद का पेड़ है, जो नित्य नवीन और सब काल (छहों ऋतुओं) में सुंदर रहता है।

त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥

एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥

वहाँ तीनों प्रकार की (शीतल, मंद और सुगंध) वायु बहती रहती है और उसकी छाया बड़ी ठंडी रहती है। वह शिव के विश्राम करने का वृक्ष है, जिसे वेदों ने गाया है। एक बार प्रभु शिव उस वृक्ष के नीचे गए और उसे देखकर उनके हृदय में बहुत आनंद हुआ।

निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठे सहजहिं संभु कृपाला॥

कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥

अपने हाथ से बाघंबर बिछाकर कृपालु शिव स्वभाव से ही (बिना किसी खास प्रयोजन के) वहाँ बैठ गए। कुंद के पुष्प, चंद्रमा और शंख के समान उनका गौर शरीर था। बड़ी लंबी भुजाएँ थीं और वे मुनियों के-से (वल्कल) वस्त्र धारण किए हुए थे।

तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥

भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥

उनके चरण नए (पूर्ण रूप से खिले हुए) लाल कमल के समान थे, नखों की ज्योति भक्तों के हृदय का अंधकार हरनेवाली थी। साँप और भस्म ही उनके भूषण थे और उन त्रिपुरासुर के शत्रु शिव का मुख शरद (पूर्णिमा) के चंद्रमा की शोभा को भी हरनेवाला (फीकी करनेवाला) था।

दो० – जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।

नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥ 106॥

उनके सिर पर जटाओं का मुकुट और गंगा (शोभायमान) थीं। कमल के समान बड़े-बड़े नेत्र थे। उनका नील कंठ था और वे सुंदरता के भंडार थे। उनके मस्तक पर द्वितीया का चंद्रमा शोभित था॥ 106॥

बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥

पारबती भल अवसरु जानी। गईं संभु पहिं मातु भवानी॥

कामदेव के शत्रु शिव वहाँ बैठे हुए ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो शांत रस ही शरीर धारण किए बैठा हो। अच्छा मौका जानकर शिवपत्नी माता पार्वती उनके पास गईं।

जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥

बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥

अपनी प्यारी पत्नी जानकार शिव ने उनका बहुत आदर-सत्कार किया और अपनी बाईं ओर बैठने के लिए आसन दिया। पार्वती प्रसन्न होकर शिव के पास बैठ गईं। उन्हें पिछले जन्म की कथा स्मरण हो आई।

पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥

कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैल कुमारी॥

स्वामी के हृदय में (अपने ऊपर पहले की अपेक्षा) अधिक प्रेम समझकर पार्वती हँसकर प्रिय वचन बोलीं। (याज्ञवल्क्य कहते हैं कि) जो कथा सब लोगों का हित करनेवाली है, उसे ही पार्वती पूछना चाहती हैं।

बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥

चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा॥

(पार्वती ने कहा -) हे संसार के स्वामी! हे मेरे नाथ! हे त्रिपुरासुर का वध करनेवाले! आपकी महिमा तीनों लोकों में विख्यात है। चर, अचर, नाग, मनुष्य और देवता सभी आपके चरण कमलों की सेवा करते हैं।

दो० – प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम।

जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥ 107॥

हे प्रभो! आप समर्थ, सर्वज्ञ और कल्याणस्वरूप हैं। सब कलाओं और गुणों के निधान हैं और योग, ज्ञान तथा वैराग्य के भंडार हैं। आपका नाम शरणागतों के लिए कल्पवृक्ष है॥ 107॥

जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥

तौ प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥

हे सुख की राशि ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और सचमुच मुझे अपनी दासी (या अपनी सच्ची दासी) जानते हैं, तो हे प्रभो! आप रघुनाथ की नाना प्रकार की कथा कहकर मेरा अज्ञान दूर कीजिए।

जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥

ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥

जिसका घर कल्पवृक्ष के नीचे हो, वह भला दरिद्रता से उत्पन्न दुःख को क्यों सहेगा? हे शशिभूषण! हे नाथ! हृदय में ऐसा विचार कर मेरी बुद्धि के भारी भ्रम को दूर कीजिए।

प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥

सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥

हे प्रभो! जो परमार्थतत्त्व (ब्रह्म) के ज्ञाता और वक्ता मुनि हैं, वे राम को अनादि ब्रह्म कहते हैं और शेष, सरस्वती, वेद और पुराण सभी रघुनाथ का गुण गाते हैं।

तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥

रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥

और हे कामदेव के शत्रु! आप भी दिन-रात आदरपूर्वक राम-राम जपा करते हैं – ये राम वही अयोध्या के राजा के पुत्र हैं? या अजन्मे, निर्गुण और अगोचर कोई और राम हैं?

दो० – जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।

देखि चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥ 108॥

यदि वे राजपुत्र हैं तो ब्रह्म कैसे? (और यदि ब्रह्म हैं तो) स्त्री के विरह में उनकी मति बावली कैसे हो गई? इधर उनके ऐसे चरित्र देखकर और उधर उनकी महिमा सुनकर मेरी बुद्धि अत्यंत चकरा रही है॥ 108॥

जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥

अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥

यदि इच्छारहित, व्यापक, समर्थ ब्रह्म कोई और है, तो हे नाथ! मुझे उसे समझाकर कहिए। मुझे नादान समझकर मन में क्रोध न लाइए। जिस तरह मेरा मोह दूर हो, वही कीजिए।

मैं बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥

तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥

मैंने (पिछले जन्म में) वन में राम की प्रभुता देखी थी, परंतु अत्यंत भयभीत होने के कारण मैंने वह बात आपको सुनाई नहीं। तो भी मेरे मलिन मन को बोध न हुआ। उसका फल भी मैंने अच्छी तरह पा लिया।

अजहूँ कछु संसउ मन मोरें। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥

प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥

अब भी मेरे मन में कुछ संदेह है। आप कृपा कीजिए, मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ। हे प्रभो! आपने उस समय मुझे बहुत तरह से समझाया था (फिर भी मेरा संदेह नहीं गया), हे नाथ! यह सोचकर मुझ पर क्रोध न कीजिए।

तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥

कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥

मुझे अब पहले जैसा मोह नहीं है, अब तो मेरे मन में रामकथा सुनने की रुचि है। हे शेषनाग को अलंकार रूप में धारण करनेवाले देवताओं के नाथ! आप राम के गुणों की पवित्र कथा कहिए।

दो० – बंदउँ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।

बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि॥ 109॥

मैं पृथ्वी पर सिर टेककर आपके चरणों की वंदना करती हूँ और हाथ जोड़कर विनती करती हूँ। आप वेदों के सिद्धांत को निचोड़कर रघुनाथ का निर्मल यश वर्णन कीजिए॥ 109॥

जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥

गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥

यद्यपि स्त्री होने के कारण मैं उसे सुनने की अधिकारिणी नहीं हूँ, तथापि मैं मन, वचन और कर्म से आपकी दासी हूँ। संत लोग जहाँ आर्त अधिकारी पाते हैं, वहाँ गूढ़ तत्त्व भी उससे नहीं छिपाते।

अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥

प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥

हे देवताओं के स्वामी! मैं बहुत ही आर्तभाव (दीनता) से पूछती हूँ, आप मुझ पर दया करके रघुनाथ की कथा कहिए। पहले तो वह कारण विचारकर बतलाइए, जिससे निर्गुण ब्रह्म सगुण रूप धारण करता है॥

पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥

कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥

फिर हे प्रभु! राम के अवतार (जन्म) की कथा कहिए तथा उनका उदार बाल चरित्र कहिए। फिर जिस प्रकार उन्होंने जानकी से विवाह किया, वह कथा कहिए और फिर यह बतलाइए कि उन्होंने जो राज्य छोड़ा सो किस दोष से।

बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥

राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखसीला॥

हे नाथ! फिर उन्होंने वन में रहकर जो अपार चरित्र किए तथा जिस तरह रावण को मारा, वह कहिए। हे सुखस्वरूप शंकर! फिर आप उन सारी लीलाओं को कहिए जो उन्होंने राज्य (सिंहासन) पर बैठकर की थीं।

दो० – बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।

प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥ 110॥

हे कृपाधाम! फिर वह अद्भुत चरित्र कहिए जो राम ने किया – वे रघुकुल शिरोमणि प्रजा सहित किस प्रकार अपने धाम को गए?॥ 110॥

पुनि प्रभु कहहु सो तत्त्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥

भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥

हे प्रभु! फिर आप उस तत्त्व को समझाकर कहिए, जिसकी अनुभूति में ज्ञानी मुनिगण सदा मग्न रहते हैं और फिर भक्ति, ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य का विभाग सहित वर्णन कीजिए।

औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥

जो प्रभु मैं पूछा नहिं होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥

(इसके सिवा) राम के और भी जो अनेक रहस्य (छिपे हुए भाव अथवा चरित्र) हैं, उनको कहिए। हे नाथ! आपका ज्ञान अत्यंत निर्मल है। हे प्रभो! जो बात मैंने न भी पूछी हो, हे दयालु! उसे भी आप छिपा न रखिएगा।

तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥

प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥

वेदों ने आपको तीनों लोकों का गुरु कहा है। दूसरे पामर जीव इस रहस्य को क्या जानें! पार्वती के सहज सुंदर और छलरहित (सरल) प्रश्न सुनकर शिव के मन को बहुत अच्छे लगे।

हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥

श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥

महादेव के हृदय में सारे रामचरित्र आ गए। प्रेम के मारे उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में जल भर आया। रघुनाथ का रूप उनके हृदय में आ गया, जिससे स्वयं परमानंदस्वरूप शिव ने भी अपार सुख पाया।

दो० – मगन ध्यान रस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।

रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥ 111।

शिव दो घड़ी तक ध्यान के रस (आनंद) में डूबे रहे, फिर उन्होंने मन को बाहर खींचा और तब वे प्रसन्न होकर रघुनाथ का चरित्र वर्णन करने लगे॥ 111॥

झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥

जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥

जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है; और जिसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है।

बंदउँ बालरूप सोइ रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥

मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥

मैं उन्हीं राम के बाल रूप की वंदना करता हूँ, जिनका नाम जपने से सब सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। मंगल के धाम, अमंगल के हरनेवाले और दशरथ के आँगन में खेलनेवाले (बालरूप) राम मुझ पर कृपा करें।

करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥

धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥

त्रिपुरासुर का वध करनेवाले शिव राम को प्रणाम करके आनंद में भरकर अमृत के समान वाणी बोले – हे गिरिराजकुमारी पार्वती! तुम धन्य हो! धन्य हो!! तुम्हारे समान कोई उपकारी नहीं है।

पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥

तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥

जो तुमने रघुनाथ की कथा का प्रसंग पूछा है, जो कथा समस्त लोकों के लिए जगत को पवित्र करनेवाली गंगा के समान है। तुमने जगत के कल्याण के लिए ही प्रश्न पूछे हैं। तुम रघुनाथ के चरणों में प्रेम रखनेवाली हो।

दो० – राम कृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।

सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥ 112॥

हे पार्वती! मेरे विचार में तो राम की कृपा से तुम्हारे मन में स्वप्न में भी शोक, मोह, संदेह और भ्रम कुछ भी नहीं है॥ 112॥

तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥

जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥

फिर भी तुमने इसीलिए वही (पुरानी) शंका की है कि इस प्रसंग के कहने-सुनने से सबका कल्याण होगा। जिन्होंने अपने कानों से भगवान की कथा नहीं सुनी, उनके कानों के छिद्र साँप के बिल के समान हैं।

नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥

ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥

जिन्होंने अपने नेत्रों से संतों के दर्शन नहीं किए, उनके वे नेत्र मोर के पंखों पर दिखनेवाली नकली आँखों की गिनती में हैं। वे सिर कड़वी तूँबी के समान हैं, जो हरि और गुरु के चरणतल पर नहीं झुकते।

जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥

जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥

जिन्होंने भगवान की भक्ति को अपने हृदय में स्थान नहीं दिया, वे प्राणी जीते हुए ही मुर्दे के समान हैं। जो जीभ राम के गुणों का गान नहीं करती, वह मेढ़क की जीभ के समान है।

कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥

गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥

वह हृदय वज्र के समान कड़ा और निष्ठुर है, जो भगवान के चरित्र सुनकर हर्षित नहीं होता। हे पार्वती! राम की लीला सुनो, यह देवताओं का कल्याण करनेवाली और दैत्यों को विशेष रूप से मोहित करनेवाली है।

दो० – रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।

सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥ 113॥

राम की कथा कामधेनु के समान सेवा करने से सब सुखों को देनेवाली है, और सत्पुरुषों के समाज ही सब देवताओं के लोक हैं, ऐसा जानकर इसे कौन न सुनेगा!॥ 113॥

रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी॥

रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥

राम की कथा हाथ की सुंदर ताली है, जो संदेहरूपी पक्षियों को उड़ा देती है। फिर रामकथा कलियुगरूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है। हे गिरिराजकुमारी! तुम इसे आदरपूर्वक सुनो।

राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥

जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥

वेदों ने राम के सुंदर नाम, गुण, चरित्र, जन्म और कर्म सभी अनगिनत कहे हैं। जिस प्रकार भगवान राम अनंत हैं, उसी तरह उनकी कथा, कीर्ति और गुण भी अनंत हैं।

तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥

उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥

तो भी तुम्हारी अत्यंत प्रीति देखकर, जैसा कुछ मैंने सुना है और जैसी मेरी बुद्धि है, उसी के अनुसार मैं कहूँगा। हे पार्वती! तुम्हारा प्रश्न स्वाभाविक ही सुंदर, सुखदायक और संतसम्मत है और मुझे तो बहुत ही अच्छा लगा है।

एक बात नहिं मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥

तुम्ह जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥

परंतु हे पार्वती! एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी, यद्यपि वह तुमने मोह के वश होकर ही कही है। तुमने जो यह कहा कि वे राम कोई और हैं, जिन्हें वेद गाते और मुनिजन जिनका ध्यान धरते हैं – ।

दो० – कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।

पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥ 114॥

जो मोहरूपी पिशाच के द्वारा ग्रस्त हैं, पाखंडी हैं, भगवान के चरणों से विमुख हैं और जो झूठ-सच कुछ भी नहीं जानते, ऐसे अधम मनुष्य ही इस तरह कहते-सुनते हैं॥ 114॥

अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकुर मन लागी॥

लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥

जो अज्ञानी, मूर्ख, अंधे और भाग्यहीन हैं और जिनके मनरूपी दर्पण पर विषयरूपी काई जमी हुई है, जो व्यभिचारी, छली और बड़े कुटिल हैं और जिन्होंने कभी स्वप्न में भी संत समाज के दर्शन नहीं किए;

कहहिं ते बेद असंमत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥

मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥

और जिन्हें अपने लाभ-हानि नहीं सूझती, वे ही ऐसी वेदविरुद्ध बातें कहा करते हैं, जिनका हृदयरूपी दर्पण मैला है और जो नेत्रों से हीन हैं, वे बेचारे राम का रूप कैसे देखें!

जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥

हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥

जिनको निर्गुण-सगुण का कुछ भी विवेक नहीं है, जो अनेक मनगढ़ंत बातें बका करते हैं, जो हरि की माया के वश में होकर जगत में (जन्म-मृत्यु के चक्र में) भ्रमते फिरते हैं, उनके लिए कुछ भी कह डालना असंभव नहीं है।

बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥

जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना॥

जिन्हें वायु का रोग (सन्निपात, उन्माद आदि) हो गया हो, जो भूत के वश हो गए हैं और जो नशे में चूर हैं, ऐसे लोग विचारकर वचन नहीं बोलते। जिन्होंने महामोहरूपी मदिरा पी रखी है, उनके कहने पर कान नहीं देना चाहिए।

सो० – अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।

सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥ 115॥

अपने हृदय में ऐसा विचार कर संदेह छोड़ दो और राम के चरणों को भजो। हे पार्वती! भ्रमरूपी अंधकार के नाश करने के लिए सूर्य की किरणों के समान मेरे वचनों को सुनो!॥ 115॥

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥

अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥

सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है – मुनि, पुराण, पंडित और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है।

जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥

जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥

जो निर्गुण है वही सगुण कैसे है? जैसे जल और ओले में भेद नहीं। (दोनों जल ही हैं, ऐसे ही निर्गुण और सगुण एक ही हैं।) जिसका नाम भ्रमरूपी अंधकार के मिटाने के लिए सूर्य है, उसके लिए मोह का प्रसंग भी कैसे कहा जा सकता है?

राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥

सहज प्रकासरूप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥

राम सच्चिदानंदस्वरूप सूर्य हैं। वहाँ मोहरूपी रात्रि का लवलेश भी नहीं है। वे स्वभाव से ही प्रकाश रूप और (षडैश्वर्ययुक्त) भगवान है, वहाँ तो विज्ञानरूपी प्रातःकाल भी नहीं होता (अज्ञानरूपी रात्रि हो तब तो विज्ञानरूपी प्रातःकाल हो; भगवान तो नित्य ज्ञानस्वरूप हैं)।

हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥

राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानंद परेस पुराना॥

हर्ष, शोक, ज्ञान, अज्ञान, अहंता और अभिमान – ये सब जीव के धर्म हैं। राम तो व्यापक ब्रह्म, परमानंदस्वरूप, परात्पर प्रभु और पुराण पुरुष हैं। इस बात को सारा जगत जानता है।

दो० – पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ।

रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥ 116॥

जो (पुराण) पुरुष प्रसिद्ध हैं, प्रकाश के भंडार हैं, सब रूपों में प्रकट हैं, जीव, माया और जगत सबके स्वामी हैं, वे ही रघुकुल मणि राम मेरे स्वामी हैं – ऐसा कहकर शिव ने उनको मस्तक नवाया॥ 116॥

निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥

जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी॥

अज्ञानी मनुष्य अपने भ्रम को तो समझते नहीं और वे मूर्ख प्रभु राम पर उसका आरोप करते हैं, जैसे आकाश में बादलों का परदा देखकर कुविचारी (अज्ञानी) लोग कहते हैं कि बादलों ने सूर्य को ढँक लिया।

चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥

उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥

जो मनुष्य आँख में उँगली लगाकर देखता है, उसके लिए तो दो चंद्रमा प्रकट (प्रत्यक्ष) हैं। हे पार्वती! राम के विषय में इस प्रकार मोह की कल्पना करना वैसा ही है, जैसा आकाश में अंधकार, धुएँ और धूल का सोहना (दिखना)। (आकाश जैसे निर्मल और निर्लेप है, उसको कोई मलिन या स्पर्श नहीं कर सकता, इसी प्रकार भगवान राम नित्य निर्मल और निर्लेप हैं।)

बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥

सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥

विषय, इंद्रियाँ, इंद्रियों के देवता और जीवात्मा – ये सब एक की सहायता से एक चेतन होते हैं। (अर्थात विषयों का प्रकाश इंद्रियों से, इंद्रियों का इंद्रियों के देवताओं से और इंद्रिय-देवताओं का चेतन जीवात्मा से प्रकाश होता है।) इन सबका जो परम प्रकाशक है (अर्थात जिससे इन सबका प्रकाश होता है), वही अनादि ब्रह्म अयोध्या नरेश राम हैं।

जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥

जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥

यह जगत प्रकाश्य है और राम इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं। जिनकी सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य-सी भासित होती है।

दो० – रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि।

जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥ 117॥

जैसे सीप में चाँदी की और सूर्य की किरणों में पानी की (बिना हुए भी) प्रतीति होती है। यद्यपि यह प्रतीति तीनों कालों में झूठ है, तथापि इस भ्रम को कोई हटा नहीं सकता॥ 117॥

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥

जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥

इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता।

जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥

आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥

हे पार्वती! जिनकी कृपा से इस प्रकार का भ्रम मिट जाता है, वही कृपालु रघुनाथ हैं। जिनका आदि और अंत किसी ने नहीं (जान) पाया। वेदों ने अपनी बुद्धि से अनुमान करके इस प्रकार (नीचे लिखे अनुसार) गाया है –

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥

आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥

वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिह्वा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना वाणी के बहुत योग्य वक्ता है।

तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥

असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥

वह बिना शरीर (त्वचा) के ही स्पर्श करता है, आँखों के बिना ही देखता है और बिना नाक के सब गंधों को ग्रहण करता है (सूँघता है)। उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती।

दो० – जेहि इमि गावहिं बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान।

सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥ 118॥

जिसका वेद और पंडित इस प्रकार वर्णन करते हैं और मुनि जिसका ध्यान धरते हैं, वही दशरथनंदन, भक्तों के हितकारी, अयोध्या के स्वामी भगवान राम हैं॥ 118॥

कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥

सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥

(हे पार्वती!) जिनके नाम के बल से काशी में मरते हुए प्राणी को देखकर मैं उसे (राम मंत्र देकर) शोकरहित कर देता हूँ (मुक्त कर देता हूँ), वही मेरे प्रभु रघुश्रेष्ठ राम जड़-चेतन के स्वामी और सबके हृदय के भीतर की जाननेवाले हैं।

बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥

सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥

विवश होकर (बिना इच्छा के) भी जिनका नाम लेने से मनुष्यों के अनेक जन्मों में किए हुए पाप जल जाते हैं। फिर जो मनुष्य आदरपूर्वक उनका स्मरण करते हैं, वे तो संसाररूपी (दुस्तर) समुद्र को गाय के खुर से बने हुए गड्ढे के समान (अर्थात बिना किसी परिश्रम के) पार कर जाते हैं।

राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥

अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥

हे पार्वती! वही परमात्मा राम हैं। उनमें भ्रम (देखने में आता) है, तुम्हारा ऐसा कहना अत्यंत ही अनुचित है। इस प्रकार का संदेह मन में लाते ही मनुष्य के ज्ञान, वैराग्य आदि सारे सद्गुण नष्ट हो जाते हैं।

सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥

भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती॥

शिव के भ्रमनाशक वचनों को सुनकर पार्वती के सब कुतर्कों की रचना मिट गई। रघुनाथ के चरणों में उनका प्रेम और विश्वास हो गया और कठिन असंभावना (जिसका होना सम्भव नहीं, ऐसी मिथ्या कल्पना) जाती रही!

दो० – पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।

बोलीं गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥ 119॥

बार- बार स्वामी (शिव) के चरणकमलों को पकड़कर और अपने कमल के समान हाथों को जोड़कर पार्वती मानो प्रेमरस में सानकर सुंदर वचन बोलीं॥ 119॥

ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥

तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ॥

आपकी चंद्रमा की किरणों के समान शीतल वाणी सुनकर मेरा अज्ञानरूपी शरद-ऋतु (क्वार) की धूप का भारी ताप मिट गया। हे कृपालु! आपने मेरा सब संदेह हर लिया, अब राम का यथार्थ स्वरूप मेरी समझ में आ गया।

नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥

अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड़ नारि अयानी॥

हे नाथ! आपकी कृपा से अब मेरा विषाद जाता रहा और आपके चरणों के अनुग्रह से मैं सुखी हो गई। यद्यपि मैं स्त्री होने के कारण स्वभाव से ही मूर्ख और ज्ञानहीन हूँ, तो भी अब आप मुझे अपनी दासी जानकर –

प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥

राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥

हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो जो बात मैंने पहले आपसे पूछी थी, वही कहिए। (यह सत्य है कि) राम ब्रह्म हैं, चिन्मय (ज्ञानस्वरूप) हैं, अविनाशी हैं, सबसे रहित और सबके हृदयरूपी नगरी में निवास करनेवाले हैं।

नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥

उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥

फिर हे नाथ! उन्होंने मनुष्य का शरीर किस कारण से धारण किया? हे धर्म की ध्वजा धारण करनेवाले प्रभो! यह मुझे समझाकर कहिए। पार्वती के अत्यंत नम्र वचन सुनकर और राम की कथा में उनका विशुद्ध प्रेम देखकर –

दो० – हियँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान।

बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥ 120(क)॥

तब कामदेव के शत्रु, स्वाभाविक ही सुजान, कृपा-निधान शिव मन में बहुत ही हर्षित हुए और बहुत प्रकार से पार्वती की बड़ाई करके फिर बोले – ॥ 120(क)॥

श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, चौथा विश्राम समाप्त॥

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