श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, सातवाँ विश्राम || Shri Ram Charit Manas Satavan Vishram

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श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, सातवाँ विश्राम

श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, सातवाँ विश्राम

श्री रामचरित मानस

प्रथम सोपान (बालकाण्ड)

बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥

मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥

पराए धन और पराई स्त्री पर मन चलानेवाले, दुष्ट, चोर और जुआरी बहुत बढ़ गए। लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते थे और साधुओं (की सेवा करना तो दूर रहा, उल्टे उन) से सेवा करवाते थे।

जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥

अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥

(शिव कहते हैं कि -) हे भवानी! जिनके ऐसे आचरण हैं, उन सब प्राणियों को राक्षस ही समझना। इस प्रकार धर्म के प्रति (लोगों की) अतिशय ग्लानि (अरुचि, अनास्था) देखकर पृथ्वी अत्यंत भयभीत एवं व्याकुल हो गई।

गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही।

सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥

(वह सोचने लगी कि) पर्वतों, नदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना भारी नहीं जान पड़ता, जितना भारी मुझे एक परद्रोही (दूसरों का अनिष्ट करनेवाला) लगता है। पृथ्वी सारे धर्मों को विपरीत देख रही है, पर रावण से भयभीत हुई वह कुछ बोल नहीं सकती।

धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥

निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥

(अंत में) हृदय में सोच-विचारकर, गो का रूप धारण कर धरती वहाँ गई, जहाँ सब देवता और मुनि (छिपे) थे। पृथ्वी ने रोकर उनको अपना दुःख सुनाया, पर किसी से कुछ काम न बना।

छं० – सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका।

सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥

ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई।

जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥

तब देवता, मुनि और गंधर्व सब मिलकर ब्रह्मा के लोक (सत्यलोक) को गए। भय और शोक से अत्यंत व्याकुल बेचारी पृथ्वी भी गो का शरीर धारण किए हुए उनके साथ थी। ब्रह्मा सब जान गए। उन्होंने मन में अनुमान किया कि इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं चलने का। (तब उन्होंने पृथ्वी से कहा कि -) जिसकी तू दासी है, वही अविनाशी हमारा और तुम्हारा दोनों का सहायक है।

सो० – धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरि पद सुमिरु।

जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति॥ 184॥

ब्रह्मा ने कहा – हे धरती! मन में धीरज धारण करके हरि के चरणों का स्मरण करो। प्रभु अपने दासों की पीड़ा को जानते हैं, ये तुम्हारी कठिन विपत्ति का नाश करेंगे॥ 184॥

बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥

पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥

सब देवता बैठकर विचार करने लगे कि प्रभु को कहाँ पाएँ ताकि उनके सामने पुकार (फरियाद) करें। कोई बैकुंठपुरी जाने को कहता था और कोई कहता था कि वही प्रभु क्षीरसमुद्र में निवास करते हैं।

जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥

तेहिं समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेउँ॥

जिसके हृदय में जैसी भक्ति और प्रीति होती है, प्रभु वहाँ (उसके लिए) सदा उसी रीति से प्रकट होते हैं। हे पार्वती! उस समाज में मैं भी था। अवसर पाकर मैंने एक बात कही –

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥

देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥

मैं तो यह जानता हूँ कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं, प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं, देश, काल, दिशा, विदिशा में बताओ, ऐसी जगह कहाँ है, जहाँ प्रभु न हों।

अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥

मोर बचन सब के मन माना। साधु-साधु करि ब्रह्म बखाना॥

वे चराचरमय (चराचर में व्याप्त) होते हुए ही सबसे रहित हैं और विरक्त हैं (उनकी कहीं आसक्ति नहीं है); वे प्रेम से प्रकट होते हैं, जैसे अग्नि। (अग्नि अव्यक्त रूप से सर्वत्र व्याप्त है, परंतु जहाँ उसके लिए अरणिमंथनादि साधन किए जाते हैं, वहाँ वह प्रकट होती है। इसी प्रकार सर्वत्र व्याप्त भगवान भी प्रेम से प्रकट होते हैं।) मेरी बात सबको प्रिय लगी। ब्रह्मा ने ‘साधु-साधु’ कहकर बड़ाई की।

दो० – सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।

अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥ 185॥

मेरी बात सुनकर ब्रह्मा के मन में बड़ा हर्ष हुआ, उनका तन पुलकित हो गया और नेत्रों से (प्रेम के) आँसू बहने लगे। तब वे धीरबुद्धि ब्रह्मा सावधान होकर हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे॥ 185॥

छं० – जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।

गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता॥

पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।

जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥

हे देवताओं के स्वामी, सेवकों को सुख देनेवाले, शरणागत की रक्षा करनेवाले भगवान! आपकी जय हो! जय हो!! हे गो-ब्राह्मणों का हित करनेवाले, असुरों का विनाश करनेवाले, समुद्र की कन्या (लक्ष्मी) के प्रिय स्वामी! आपकी जय हो! हे देवता और पृथ्वी का पालन करनेवाले! आपकी लीला अद्भुत है, उसका भेद कोई नहीं जानता। ऐसे जो स्वभाव से ही कृपालु और दीनदयालु हैं, वे ही हम पर कृपा करें।

जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।

अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा॥

जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृंदा।

निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा॥

हे अविनाशी, सबके हृदय में निवास करनेवाले (अंतर्यामी), सर्वव्यापक, परम आनंदस्वरूप, अज्ञेय, इंद्रियों से परे, पवित्र चरित्र, माया से रहित मुकुंद (मोक्षदाता)! आपकी जय हो! जय हो!! (इस लोक और परलोक के सब भोगों से) विरक्त तथा मोह से सर्वथा छूटे हुए (ज्ञानी) मुनिवृंद भी अत्यंत अनुरागी (प्रेमी) बनकर जिनका रात-दिन ध्यान करते हैं और जिनके गुणों के समूह का गान करते हैं, उन सच्चिदानंद की जय हो।

जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।

सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा॥

जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा।

मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुरजूथा॥

जिन्होंने बिना किसी दूसरे संगी अथवा सहायक के अकेले ही (या स्वयं अपने को त्रिगुणरूप – ब्रह्मा, विष्णु, शिवरूप – बनाकर अथवा बिना किसी उपादान-कारण के अर्थात स्वयं ही सृष्टि का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण बनकर) तीन प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की, वे पापों का नाश करनेवाले भगवान हमारी सुधि लें। हम न भक्ति जानते हैं, न पूजा, जो संसार के (जन्म-मृत्यु के) भय का नाश करनेवाले, मुनियों के मन को आनंद देनेवाले और विपत्तियों के समूह को नष्ट करनेवाली हैं। हम सब देवताओं के समूह, मन, वचन और कर्म से चतुराई करने की बान छोड़कर उन (भगवान) की शरण (आए) हैं।

सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना।

जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सोभगवाना॥

भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा।

मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा॥

सरस्वती, वेद, शेष और संपूर्ण ऋषि कोई भी जिनको नहीं जानते, जिन्हें दीन प्रिय हैं, ऐसा वेद पुकारकर कहते हैं, वे ही भगवान हम पर दया करें। हे संसाररूपी समुद्र के (मथने के) लिए मंदराचल रूप, सब प्रकार से सुंदर, गुणों के धाम और सुखों की राशि नाथ! आपके चरण कमलों में मुनि, सिद्ध और सारे देवता भय से अत्यंत व्याकुल होकर नमस्कार करते हैं।

 

दो० – जानि सभय सुर भूमि सुनि बचन समेत सनेह।

गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥ 186॥

देवताओं और पृथ्वी को भयभीत जानकर और उनके स्नेहयुक्त वचन सुनकर शोक और संदेह को हरनेवाली गंभीर आकाशवाणी हुई – ॥ 186॥

जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥

अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥

हे मुनि, सिद्ध और देवताओं के स्वामियो! डरो मत। तुम्हारे लिए मैं मनुष्य का रूप धारण करूँगा और उदार (पवित्र) सूर्यवंश में अंशों सहित मनुष्य का अवतार लूँगा।

कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥

ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नर भूपा॥

कश्यप और अदिति ने बड़ा भारी तप किया था। मैं पहले ही उनको वर दे चुका हूँ। वे ही दशरथ और कौसल्या के रूप में मनुष्यों के राजा होकर अयोध्यापुरी में प्रकट हुए हैं।

तिन्ह कें गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥

नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥

उन्हीं के घर जाकर मैं रघुकुल में श्रेष्ठ चार भाइयों के रूप में अवतार लूँगा। नारद के सब वचन मैं सत्य करूँगा और अपनी पराशक्ति के सहित अवतार लूँगा।

हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई॥

गगन ब्रह्मबानी सुनि काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना॥

मैं पृथ्वी का सब भार हर लूँगा। हे देववृंद! तुम निर्भय हो जाओ। आकाश में ब्रह्म (भगवान) की वाणी को कान से सुनकर देवता तुरंत लौट गए। उनका हृदय शीतल हो गया।

तब ब्रह्माँ धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ आवा॥

तब ब्रह्मा ने पृथ्वी को समझाया। वह भी निर्भय हुई और उसके जी में भरोसा (ढाढ़स) आ गया।

दो० – निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ।

बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ॥ 187॥

देवताओं को यही सिखाकर कि वानरों का शरीर धर-धरकर तुम लोग पृथ्वी पर जाकर भगवान के चरणों की सेवा करो, ब्रह्मा अपने लोक को चले गए॥ 187॥

गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा॥

जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलंब न कीन्हा॥

सब देवता अपने-अपने लोक को गए। पृथ्वी सहित सबके मन को शांति मिली। ब्रह्मा ने जो कुछ आज्ञा दी, उससे देवता बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने (वैसा करने में) देर नहीं की।

बनचर देह धरी छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं॥

गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा॥

पृथ्वी पर उन्होंने वानरदेह धारण की। उनमें अपार बल और प्रताप था। सभी शूरवीर थे, पर्वत, वृक्ष और नख ही उनके शस्त्र थे। वे धीर बुद्धिवाले (वानर रूप देवता) भगवान के आने की राह देखने लगे।

 

दो० – तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानु कुल केतु।

चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु॥ 334॥

उसी समय सूर्यवंश के पताका स्वरूप राम भाइयों स

गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी॥

यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥

वे (वानर) पर्वतों और जंगलों में जहाँ-तहाँ अपनी-अपनी सुंदर सेना बनाकर भरपूर छा गए। यह सब सुंदर चरित्र मैंने कहा। अब वह चरित्र सुनो जिसे बीच ही में छोड़ दिया था।

अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥

धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति भति सारँगपानी॥

अवधपुरी में रघुकुल शिरोमणि दशरथ नाम के राजा हुए, जिनका नाम वेदों में विख्यात है। वे धर्मधुरंधर, गुणों के भंडार और ज्ञानी थे। उनके हृदय में शार्गंधनुष धारण करनेवाले भगवान की भक्ति थी, और उनकी बुद्धि भी उन्हीं में लगी रहती थी।

दो० – कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।

पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत॥ 188॥

उनकी कौसल्या आदि प्रिय रानियाँ सभी पवित्र आचरणवाली थीं। वे (बड़ी) विनीत और पति के अनुकूल (चलनेवाली) थीं और हरि के चरणकमलों में उनका दृढ़ प्रेम था॥ 188॥

एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥

गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥

एक बार राजा के मन में बड़ी ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं है। राजा तुरंत ही गुरु के घर गए और चरणों में प्रणाम कर बहुत विनय की।

निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ॥

धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥

राजा ने अपना सारा सुख-दुःख गुरु को सुनाया। गुरु वशिष्ठ ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया (और कहा -) धीरज धरो, तुम्हारे चार पुत्र होंगे, जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध और भक्तों के भय को हरनेवाले होंगे।

सृंगी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा॥

भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥

वशिष्ठ ने श्रृंगी ऋषि को बुलवाया और उनसे शुभ पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया। मुनि के भक्ति सहित आहुतियाँ देने पर अग्निदेव हाथ में चरु (हविष्यान्न खीर) लिए प्रकट हुए।

जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा॥

यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥

(और दशरथ से बोले -) वशिष्ठ ने हृदय में जो कुछ विचारा था, तुम्हारा वह सब काम सिद्ध हो गया। हे राजन! (अब) तुम जाकर इस हविष्यान्न (पायस) को, जिसको जैसा उचित हो, वैसा भाग बनाकर बाँट दो।

दो० – तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ।

परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥ 189॥

तदनंतर अग्निदेव सारी सभा को समझाकर अंतर्धान हो गए। राजा परमानंद में मग्न हो गए, उनके हृदय में हर्ष समाता न था॥ 189॥

तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आईं॥

अर्ध भाग कौसल्यहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥

उसी समय राजा ने अपनी प्यारी पत्नियों को बुलाया। कौसल्या आदि सब (रानियाँ) वहाँ चली आईं। राजा ने (पायस का) आधा भाग कौसल्या को दिया, (और शेष) आधे के दो भाग किए।

कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥

कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥

वह (उनमें से एक भाग) राजा ने कैकेयी को दिया। शेष जो बच रहा उसके फिर दो भाग हुए और राजा ने उनको कौसल्या और कैकेयी के हाथ पर रखकर (अर्थात उनकी अनुमति लेकर) और इस प्रकार उनका मन प्रसन्न करके सुमित्रा को दिया।

एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी॥

जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति छाए॥

इस प्रकार सब स्त्रियाँ गर्भवती हुईं। वे हृदय में बहुत हर्षित हुईं। उन्हें बड़ा सुख मिला। जिस दिन से हरि (लीला से ही) गर्भ में आए, सब लोकों में सुख और संपत्ति छा गई।

मंदिर महँ सब राजहिं रानीं। सोभा सील तेज की खानीं॥

सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ॥

शोभा, शील और तेज की खान (बनी हुई) सब रानियाँ महल में सुशोभित हुईं। इस प्रकार कुछ समय सुखपूर्वक बीता और वह अवसर आ गया, जिसमें प्रभु को प्रकट होना था।

 

दो० – जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।

चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥ 190॥

योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि सभी अनुकूल हो गए। जड़ और चेतन सब हर्ष से भर गए। (क्योंकि) राम का जन्म सुख का मूल है॥ 190॥

नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥

मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥

पवित्र चैत्र का महीना था, नवमी तिथि थी। शुक्ल पक्ष और भगवान का प्रिय अभिजित मुहूर्त था। दोपहर का समय था। न बहुत सर्दी थी, न धूप (गरमी) थी। वह पवित्र समय सब लोकों को शांति देनेवाला था।

सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ॥

बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥

शीतल, मंद और सुगंधित पवन बह रहा था। देवता हर्षित थे और संतों के मन में (बड़ा) चाव था। वन फूले हुए थे, पर्वतों के समूह मणियों से जगमगा रहे थे और सारी नदियाँ अमृत की धारा बहा रही थीं।

सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना॥

गगन बिमल संकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा॥

जब ब्रह्मा ने वह (भगवान के प्रकट होने का) अवसर जाना तब (उनके समेत) सारे देवता विमान सजा-सजाकर चले। निर्मल आकाश देवताओं के समूहों से भर गया। गंधर्वों के दल गुणों का गान करने लगे।

बरषहिं सुमन सुअंजुलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी॥

अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥

और सुंदर अंजलियों में सजा-सजाकर पुष्प बरसाने लगे। आकाश में घमाघम नगाड़े बजने लगे। नाग, मुनि और देवता स्तुति करने लगे और बहुत प्रकार से अपनी-अपनी सेवा (उपहार) भेंट करने लगे।

दो० – सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम।

जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम॥ 191॥

देवताओं के समूह विनती करके अपने-अपने लोक में जा पहुँचे। समस्त लोकों को शांति देनेवाले, जगदाधार प्रभु प्रकट हुए॥ 191॥

छं० – भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।

हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥

लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।

भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥

दीनों पर दया करनेवाले, कौसल्या के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए। मुनियों के मन को हरनेवाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गई। नेत्रों को आनंद देनेवाला मेघ के समान श्याम शरीर था; चारों भुजाओं में अपने (खास) आयुध (धारण किए हुए) थे, (दिव्य) आभूषण और वनमाला पहने थे, बड़े-बड़े नेत्र थे। इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर राक्षस को मारनेवाले भगवान प्रकट हुए।

कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।

माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥

करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।

सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगटकंता॥

दोनों हाथ जोड़कर माता कहने लगी – हे अनंत! मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँ। वेद और पुराण तुम को माया, गुण और ज्ञान से परे और परिमाण रहित बतलाते हैं। श्रुतियाँ और संतजन दया और सुख का समुद्र, सब गुणों का धाम कहकर जिनका गान करते हैं, वही भक्तों पर प्रेम करनेवाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं।

ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।

मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै॥

उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।

कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥

वेद कहते हैं कि तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेकों ब्रह्मांडों के समूह (भरे) हैं। वे तुम मेरे गर्भ में रहे – इस हँसी की बात के सुनने पर धीर (विवेकी) पुरुषों की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती (विचलित हो जाती है)। जब माता को ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब प्रभु मुसकराए। वे बहुत प्रकार के चरित्र करना चाहते हैं। अतः उन्होंने (पूर्व जन्म की) सुंदर कथा कहकर माता को समझाया, जिससे उन्हें पुत्र का (वात्सल्य) प्रेम प्राप्त हो।

माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।

कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥

सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।

यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥

माता की वह बुद्धि बदल गई, तब वह फिर बोली – हे तात! यह रूप छोड़कर अत्यंत प्रिय बाललीला करो, (मेरे लिए) यह सुख परम अनुपम होगा। (माता का) यह वचन सुनकर देवताओं के स्वामी सुजान भगवान ने बालक (रूप) होकर रोना शुरू कर दिया। (तुलसीदास कहते हैं -) जो इस चरित्र का गान करते हैं, वे हरि का पद पाते हैं और (फिर) संसाररूपी कूप में नहीं गिरते।

दो० – बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।

निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥ 192॥

ब्राह्मण, गो, देवता और संतों के लिए भगवान ने मनुष्य का अवतार लिया। वे (अज्ञानमयी, मलिना) माया और उसके गुण (सत, रज, तम) और (बाहरी तथा भीतरी) इंद्रियों से परे हैं। उनका (दिव्य) शरीर अपनी इच्छा से ही बना है (किसी कर्म बंधन से परवश होकर त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थों के द्वारा नहीं)॥ 192॥

सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आईं सब रानी॥

हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥

बच्चे के रोने की बहुत ही प्यारी ध्वनि सुनकर सब रानियाँ उतावली होकर दौड़ी चली आईं। दासियाँ हर्षित होकर जहाँ-तहाँ दौड़ीं। सारे पुरवासी आनंद में मग्न हो गए।

दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहु ब्रह्मानंद समाना॥

परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठन करत मति धीरा॥

राजा दशरथ पुत्र का जन्म कानों से सुनकर मानो ब्रह्मानंद में समा गए। मन में अतिशय प्रेम है, शरीर पुलकित हो गया। (आनंद में अधीर हुई) बुद्धि को धीरज देकर (और प्रेम में शिथिल हुए शरीर को सँभालकर) वे उठना चाहते हैं।

जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥

परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥

जिनका नाम सुनने से ही कल्याण होता है, वही प्रभु मेरे घर आए हैं। (यह सोचकर) राजा का मन परम आनंद से पूर्ण हो गया। उन्होंने बाजेवालों को बुलाकर कहा कि बाजा बजाओ।

गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥

अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई॥

गुरु वशिष्ठ के पास बुलावा गया। वे ब्राह्मणों को साथ लिए राजद्वार पर आए। उन्होंने जाकर अनुपम बालक को देखा, जो रूप की राशि है और जिसके गुण कहने से समाप्त नहीं होते।

दो० – नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह।

हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह॥ 193॥

फिर राजा ने नांदीमुख श्राद्ध करके सब जातकर्म-संस्कार आदि किए और ब्राह्मणों को सोना, गो, वस्त्र और मणियों का दान दिया॥ 193॥

ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥

सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई॥

ध्वजा, पताका और तोरणों से नगर छा गया। जिस प्रकार से वह सजाया गया, उसका तो वर्णन ही नहीं हो सकता। आकाश से फूलों की वर्षा हो रही है, सब लोग ब्रह्मानंद में मग्न हैं।

बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाईं। सहज सिंगार किएँ उठि धाईं॥

कनक कलस मंगल भरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा॥

स्त्रियाँ झुंड-की-झुंड मिलकर चलीं। स्वाभाविक श्रृंगार किए ही वे उठ दौड़ीं। सोने का कलश लेकर और थालों में मंगल द्रव्य भरकर गाती हुई राजद्वार में प्रवेश करती हैं।

करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीं॥

मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक॥

वे आरती करके निछावर करती हैं और बार-बार बच्चे के चरणों पर गिरती हैं। मागध, सूत, वंदीजन और गवैये रघुकुल के स्वामी के पवित्र गुणों का गान करते हैं।

सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू॥

मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥

राजा ने सब किसी को भरपूर दान दिया। जिसने पाया उसने भी नहीं रखा (लुटा दिया)। (नगर की) सभी गलियों के बीच-बीच में कस्तूरी, चंदन और केसर की कीच मच गई।

दो० – गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद।

हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद॥ 194॥

घर-घर मंगलमय बधावा बजने लगा, क्योंकि शोभा के मूल भगवान प्रकट हुए हैं। नगर के स्त्री-पुरुषों के झुंड-के-झुंड जहाँ-तहाँ आनंदमग्न हो रहे हैं॥ 194॥

कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ॥

वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥

कैकेयी और सुमित्रा – इन दोनों ने भी सुंदर पुत्रों को जन्म दिया। उस सुख, संपत्ति, समय और समाज का वर्णन सरस्वती और सर्पों के राजा शेष भी नहीं कर सकते।

अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥

देखि भानु जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥

अवधपुरी इस प्रकार सुशोभित हो रही है, मानो रात्रि प्रभु से मिलने आई हो और सूर्य को देखकर मानो मन में सकुचा गई हो, परंतु फिर भी मन में विचार कर वह मानो संध्या बन (कर रह) गई हो।

अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़इ अबीर मनहुँ अरुनारी॥

मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु उदारा॥

अगर की धूप का बहुत-सा धुआँ मानो (संध्या का) अंधकार है और जो अबीर उड़ रहा है, वह उसकी ललाई है। महलों में जो मणियों के समूह हैं, वे मानो तारागण हैं। राज महल का जो कलश है, वही मानो श्रेष्ठ चंद्रमा है।

भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मुखर समयँ जनु सानी॥

कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥

राज भवन में जो अति कोमल वाणी से वेदध्वनि हो रही है, वही मानो समय से (समयानुकूल) सनी हुई पक्षियों की चहचहाहट है। यह कौतुक देखकर सूर्य भी (अपनी चाल) भूल गए। एक महीना उन्होंने जाता हुआ न जाना (अर्थात उन्हें एक महीना वहीं बीत गया)।

दो० – मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ।

रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥ 195॥

महीने भर का दिन हो गया। इस रहस्य को कोई नहीं जानता। सूर्य अपने रथ सहित वहीं रुक गए, फिर रात किस तरह होती॥ 195॥

यह रहस्य काहूँ नहिं जाना। दिनमनि चले करत गुनगाना॥

देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा॥

यह रहस्य किसी ने नहीं जाना। सूर्यदेव (भगवान राम का) गुणगान करते हुए चले। यह महोत्सव देखकर देवता, मुनि और नाग अपने भाग्य की सराहना करते हुए अपने-अपने घर चले।

औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी॥

काकभुसुंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥

हे पार्वती! तुम्हारी बुद्धि (राम के चरणों में) बहुत दृढ़ है, इसलिए मैं और भी अपनी एक चोरी (छिपाव) की बात कहता हूँ, सुनो। काकभुशुंडि और मैं दोनों वहाँ साथ-साथ थे, परंतु मनुष्य रूप में होने के कारण हमें कोई जान न सका।

परमानंद प्रेम सुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥

यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई॥

परम आनंद और प्रेम के सुख में फूले हुए हम दोनों मगन मन से गलियों में (तन-मन की सुधि) भूले हुए फिरते थे, परंतु यह शुभ चरित्र वही जान सकता है, जिस पर राम की कृपा हो।

तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा॥

गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा॥

उस अवसर पर जो जिस प्रकार आया और जिसके मन को जो अच्छा लगा, राजा ने उसे वही दिया। हाथी, रथ, घोड़े, सोना, गायें, हीरे और भाँति-भाँति के वस्त्र राजा ने दिए।

दो० – मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहिं असीस।

सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥ 196॥

राजा ने सबके मन को संतुष्ट किया। (इसी से) सब लोग जहाँ-तहाँ आशीर्वाद दे रहे थे कि तुलसीदास के स्वामी सब पुत्र (चारों राजकुमार) चिरजीवी (दीर्घायु) हों॥ 196॥

कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती॥

नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥

इस प्रकार कुछ दिन बीत गए। दिन और रात जाते हुए जान नहीं पड़ते। तब नामकरण संस्कार का समय जानकर राजा ने ज्ञानी मुनि वशिष्ठ को बुला भेजा।

करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा॥

इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥

मुनि की पूजा करके राजा ने कहा – हे मुनि! आपने मन में जो विचार रखे हों, वे नाम रखिए। (मुनि ने कहा -) हे राजन! इनके अनुपम नाम हैं, फिर भी मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहूँगा।

जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥

सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥

ये जो आनंद के समुद्र और सुख की राशि हैं, जिस (आनंदसिंधु) के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन (आपके सबसे बड़े पुत्र) का नाम ‘राम’ है, जो सुख का भवन और संपूर्ण लोकों को शांति देनेवाला है।

बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥

जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥

जो संसार का भरण-पोषण करते हैं, उन (आपके दूसरे पुत्र) का नाम ‘भरत’ होगा। जिनके स्मरण मात्र से शत्रु का नाश होता है, उनका वेदों में प्रसिद्ध ‘शत्रुघ्न’ नाम है।

दो० – लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।

गुरु बसिष्ठ् तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥ 197॥

जो शुभ लक्षणों के धाम, राम के प्यारे और सारे जगत के आधार हैं, गुरु वशिष्ठन ने उनका ‘लक्ष्मण’ ऐसा श्रेष्ठ नाम रखा॥ 197॥

धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्त्व नृप तव सुत चारी॥

मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना॥

गुरु ने हृदय में विचार कर ये नाम रखे (और कहा -) हे राजन! तुम्हारे चारों पुत्र वेद के तत्त्व (साक्षात परात्पर भगवान) हैं। जो मुनियों के धन, भक्तों के सर्वस्व और शिव के प्राण हैं, उन्होंने (इस समय तुम लोगों के प्रेमवश) बाल लीला के रस में सुख माना है।

बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी॥

भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई॥

बचपन से ही राम को अपना परम हितैषी स्वामी जानकर लक्ष्मण ने उनके चरणों में प्रीति जोड़ ली। भरत और शत्रुघ्न दोनों भाइयों में स्वामी और सेवक की जिस प्रीति की प्रशंसा है, वैसी प्रीति हो गई॥

स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी॥

चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा॥

श्याम और गौर शरीरवाली दोनों सुंदर जोड़ियों की शोभा को देखकर माताएँ तृण तोड़ती हैं (जिसमें दीठ न लग जाए)। यों तो चारों ही पुत्र शील, रूप और गुण के धाम हैं, तो भी सुख के समुद्र राम सबसे अधिक हैं।

हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा॥

कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥

उनके हृदय में कृपारूपी चंद्रमा प्रकाशित है। उनकी मन को हरनेवाली हँसी उस (कृपारूपी चंद्रमा) की किरणों को सूचित करती है। कभी गोद में (लेकर) और कभी उत्तम पालने में (लिटाकर) माता ‘प्यारे ललना!’ कहकर दुलार करती है।

दो० – ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद।

सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद॥ 198॥

जो सर्वव्यापक, निरंजन (मायारहित), निर्गुण, विनोदरहित और अजन्मे ब्रह्म हैं, वही प्रेम और भक्ति के वश कौसल्या की गोद में (खेल रहे) हैं॥ 198॥

काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा॥

अरुन चरन पंकज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥

उनके नीलकमल और गंभीर (जल से भरे हुए) मेघ के समान श्याम शरीर में करोड़ों कामदेवों की शोभा है। लाल-लाल चरण कमलों के नखों की (शुभ्र) ज्योति ऐसी मालूम होती है जैसे (लाल) कमल के पत्तों पर मोती स्थिर हो गए हों।

रेख कुलिस ध्वज अंकुस सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे॥

कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहिं देखा॥

(चरणतलों में) वज्र, ध्वजा और अंकुश के चिह्न शोभित हैं। नूपुर (पैंजनी) की ध्वनि सुनकर मुनियों का भी मन मोहित हो जाता है। कमर में करधनी और पेट पर तीन रेखाएँ (त्रिवली) हैं। नाभि की गंभीरता को तो वही जानते हैं, जिन्होंने उसे देखा है।

भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी॥

उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा॥

बहुत-से आभूषणों से सुशोभित विशाल भुजाएँ हैं। हृदय पर बाघ के नख की बहुत ही निराली छटा है। छाती पर रत्नों से युक्त मणियों के हार की शोभा और ब्राह्मण (भृगु) के चरण चिह्न को देखते ही मन लुभा जाता है।

कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई॥

दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे॥

कंठ शंख के समान (उतार-चढ़ाववाला, तीन रेखाओं से सुशोभित) है और ठोड़ी बहुत ही सुंदर है। मुख पर असंख्य कामदेवों की छटा छा रही है। दो-दो सुंदर दँतुलियाँ हैं, लाल-लाल ओठ हैं। नासिका और तिलक (के सौंदर्य) का तो वर्णन ही कौन कर सकता है।

सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला॥

चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे॥

सुंदर कान और बहुत ही सुंदर गाल हैं। मधुर तोतले शब्द बहुत ही प्यारे लगते हैं। जन्म के समय से रखे हुए चिकने और घुँघराले बाल हैं, जिनको माता ने बहुत प्रकार से बनाकर सँवार दिया है।

पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई॥

रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहिं देखा॥

शरीर पर पीली झँगुली पहनाई हुई है। उनका घुटनों और हाथों के बल चलना मुझे बहुत ही प्यारा लगता है। उनके रूप का वर्णन वेद और शेष भी नहीं कर सकते। उसे वही जानता है, जिसने कभी स्वप्न में भी देखा हो।

दो० – सुख संदोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत।

दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥ 199॥

जो सुख के पुंज, मोह से परे तथा ज्ञान, वाणी और इंद्रियों से अतीत हैं, वे भगवान दशरथ-कौसल्या के अत्यंत प्रेम के वश होकर पवित्र बाललीला करते हैं॥ 199॥

एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥

जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥

इस प्रकार (संपूर्ण) जगत के माता-पिता राम अवधपुर के निवासियों को सुख देते हैं। जिन्होंने राम के चरणों में प्रीति जोड़ी है, हे भवानी! उनकी यह प्रत्यक्ष गति है (कि भगवान उनके प्रेमवश बाललीला करके उन्हें आनंद दे रहे हैं)।

रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी॥

जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥

रघुनाथ से विमुख रहकर मनुष्य चाहे करोड़ों उपाय करे, परंतु उसका संसार बंधन कौन छुड़ा सकता है। जिसने सब चराचर जीवों को अपने वश में कर रखा है, वह माया भी प्रभु से भय खाती है।

भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही॥

मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥

भगवान उस माया को भौंह के इशारे पर नचाते हैं। ऐसे प्रभु को छोड़कर कहो, (और) किसका भजन किया जाए। मन, वचन और कर्म से चतुराई छोड़कर भजते ही रघुनाथ कृपा करेंगे।

एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा॥

लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालने घालि झुलावै॥

इस प्रकार से प्रभु राम ने बालक्रीड़ा की और समस्त नगर निवासियों को सुख दिया। कौसल्या कभी उन्हें गोद में लेकर हिलाती-डुलाती और कभी पालने में लिटाकर झुलाती थीं।

दो० – प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान।

सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान॥ 200॥

प्रेम में मग्न कौसल्या रात और दिन का बीतना नहीं जानती थीं। पुत्र के स्नेहवश माता उनके बालचरित्रों का गान किया करतीं॥ 200॥

एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए॥

निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना॥

एक बार माता ने राम को स्नान कराया और श्रृंगार करके पालने पर पौढ़ा दिया। फिर अपने कुल के इष्टदेव भगवान की पूजा के लिए स्नान किया।

करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा॥

बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई॥

पूजा करके नैवेद्य चढ़ाया और स्वयं वहाँ गईं, जहाँ रसोई बनाई गई थी। फिर माता वहीं (पूजा के स्थान में) लौट आई और वहाँ आने पर पुत्र को (इष्टदेव भगवान के लिए चढ़ाए हुए नैवेद्य का) भोजन करते देखा।

गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता॥

बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई॥

माता भयभीत होकर (पालने में सोया था, यहाँ किसने लाकर बैठा दिया, इस बात से डरकर) पुत्र के पास गई, तो वहाँ बालक को सोया हुआ देखा। फिर (पूजा स्थान में लौटकर) देखा कि वही पुत्र वहाँ (भोजन कर रहा) है। उनके हृदय में कंप होने लगा और मन को धीरज नहीं होता।

इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा॥

देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी॥

(वह सोचने लगी कि) यहाँ और वहाँ मैंने दो बालक देखे। यह मेरी बुद्धि का भ्रम है या और कोई विशेष कारण है? प्रभु राम माता को घबड़ाई हुई देखकर मधुर मुस्कान से हँस दिए।

दो० – देखरावा मातहि निज अद्भुत रूप अखंड।

रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड॥ 201॥

फिर उन्होंने माता को अपना अखंड अद्भुत रूप दिखलाया, जिसके एक-एक रोम में करोड़ों ब्रह्मांड लगे हुए हैं॥ 201॥

अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन॥

काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥

अगणित सूर्य, चंद्रमा, शिव, ब्रह्मा, बहुत-से पर्वत, नदियाँ, समुद्र, पृथ्वी, वन, काल, कर्म, गुण, ज्ञान और स्वभाव देखे और वे पदार्थ भी देखे जो कभी सुने भी न थे।

देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी॥

देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥

सब प्रकार से बलवती माया को देखा कि वह (भगवान के सामने) अत्यंत भयभीत हाथ जोड़े खड़ी है। जीव को देखा, जिसे वह माया नचाती है और (फिर) भक्ति को देखा, जो उस जीव को (माया से) छुड़ा देती है।

तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा॥

बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी॥

(माता का) शरीर पुलकित हो गया, मुख से वचन नहीं निकलता। तब आँखें मूँदकर उसने राम के चरणों में सिर नवाया। माता को आश्चर्यचकित देखकर खर के शत्रु राम फिर बाल रूप हो गए।

अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना॥

हरि जननी बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥

(माता से) स्तुति भी नहीं की जाती। वह डर गई कि मैंने जगत्पिता परमात्मा को पुत्र करके जाना। हरि ने माता को बहुत प्रकार से समझाया (और कहा -) हे माता! सुनो, यह बात कहीं पर कहना नहीं।

दो० – बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि।

अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥ 202॥

कौसल्या बार-बार हाथ जोड़कर विनय करती हैं कि हे प्रभो! मुझे आपकी माया अब कभी न व्यापे॥ 202॥

बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा॥

कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदायी॥

भगवान ने बहुत प्रकार से बाललीलाएँ कीं और अपने सेवकों को अत्यंत आनंद दिया। कुछ समय बीतने पर चारों भाई बड़े होकर कुटुंबियों को सुख देनेवाले हुए।

चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई॥

परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥

तब गुरु ने जाकर चूड़ाकर्म-संस्कार किया। ब्राह्मणों ने फिर बहुत-सी दक्षिणा पाई। चारों सुंदर राजकुमार बड़े ही मनोहर अपार चरित्र करते फिरते हैं।

मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई॥

भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥

जो मन, वचन और कर्म से अगोचर हैं, वही प्रभु दशरथ के आँगन में विचर रहे हैं। भोजन करने के समय जब राजा बुलाते हैं, तब वे अपने बाल सखाओं के समाज को छोड़कर नहीं आते।

कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमुकु ठुमुकु प्रभु चलहिं पराई॥

निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥

कौसल्या जब बुलाने जाती हैं, तब प्रभु ठुमुक-ठुमुक भाग चलते हैं। जिनका वेद ‘नेति’ (इतना ही नहीं) कहकर निरूपण करते हैं और शिव ने जिनका अंत नहीं पाया, माता उन्हें हठपूर्वक पकड़ने के लिए दौड़ती हैं।

धूसर धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए॥

वे शरीर में धूल लपेटे हुए आए और राजा ने हँसकर उन्हें गोद में बैठा लिया।

दो० – भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।

भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥ 203॥

भोजन करते हैं, पर चित्त चंचल है। अवसर पाकर मुँह में दही-भात लपटाए किलकारी मारते हुए इधर-उधर भाग चले॥ 203॥

बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए॥

जिन्ह कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता॥

राम की बहुत ही सरल (भोली) और सुंदर (मनभावनी) बाललीलाओं का सरस्वती, शेष, शिव और वेदों ने गान किया है। जिनका मन इन लीलाओं में अनुरक्त नहीं हुआ, विधाता ने उन मनुष्यों को वंचित कर दिया (नितांत भाग्यहीन बनाया)।

भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥

गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥

ज्यों ही सब भाई कुमारावस्था के हुए, त्यों ही गुरु, पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया। रघुनाथ (भाइयों सहित) गुरु के घर में विद्या पढ़ने गए और थोड़े ही समय में उनको सब विद्याएँ आ गईं।

जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥

बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिं खेल सकल नृप लीला॥

चारों वेद जिनके स्वाभाविक श्वास हैं, वे भगवान पढ़ें, यह बड़ा कौतुक (अचरज) है। चारों भाई विद्या, विनय, गुण और शील में (बड़े) निपुण हैं और सब राजाओं की लीलाओं के ही खेल खेलते हैं।

करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा॥

जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥

हाथों में बाण और धनुष बहुत ही शोभा देते हैं। रूप देखते ही चराचर (जड़-चेतन) मोहित हो जाते हैं। वे सब भाई जिन गलियों में खेलते (हुए निकलते) हैं, उन गलियों के सभी स्त्री-पुरुष उनको देखकर स्नेह से शिथिल हो जाते हैं अथवा ठिठककर रह जाते हैं।

दो० – कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल।

प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥ 204॥

कोसलपुर के रहनेवाले स्त्री, पुरुष, बूढ़े और बालक सभी को कृपालु राम प्राणों से भी बढ़कर प्रिय लगते हैं॥ 204॥

बंधु सखा सँग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई॥

पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी॥

राम भाइयों और इष्ट मित्रों को बुलाकर साथ ले लेते हैं और नित्य वन में जाकर शिकार खेलते हैं। मन में पवित्र समझकर मृगों को मारते हैं और प्रतिदिन लाकर राजा (दशरथ) को दिखलाते हैं।

जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे॥

अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं॥

जो मृग राम के बाण से मारे जाते थे, वे शरीर छोड़कर देवलोक को चले जाते थे। राम अपने छोटे भाइयों और सखाओं के साथ भोजन करते हैं और माता-पिता की आज्ञा का पालन करते हैं।

जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा॥

बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥

जिस प्रकार नगर के लोग सुखी हों, कृपानिधान राम वही संयोग (लीला) करते हैं। वे मन लगाकर वेद-पुराण सुनते हैं और फिर स्वयं छोटे भाइयों को समझाकर कहते हैं।

प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥

आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥

रघुनाथ प्रातःकाल उठकर माता-पिता और गुरु को मस्तक नवाते हैं और आज्ञा लेकर नगर का काम करते हैं। उनके चरित्र देख-देखकर राजा मन में बड़े हर्षित होते हैं।

दो० – ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।

भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥ 205॥

जो व्यापक, अकल (निरवयव), इच्छारहित, अजन्मा और निर्गुण है तथा जिनका न नाम है न रूप, वही भगवान भक्तों के लिए नाना प्रकार के अनुपम चरित्र करते हैं॥ 205॥

यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥

बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥

यह सब चरित्र मैंने गाकर (बखानकर) कहा। अब आगे की कथा मन लगाकर सुनो। ज्ञानी महामुनि विश्वामित्र वन में शुभ आश्रम (पवित्र स्थान) जानकर बसते थे,

जहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥

देखत जग्य निसाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥

जहाँ वे मुनि जप, यज्ञ और योग करते थे, परंतु मारीच और सुबाहु से बहुत डरते थे। यज्ञ देखते ही राक्षस दौड़ पड़ते थे और उपद्रव मचाते थे, जिससे मुनि (बहुत) दुःख पाते थे।

गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥

तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥

गाधि के पुत्र विश्वामित्र के मन में चिंता छा गई कि ये पापी राक्षस भगवान के (मारे) बिना न मरेंगे। तब श्रेष्ठ मुनि ने मन में विचार किया कि प्रभु ने पृथ्वी का भार हरने के लिए अवतार लिया है।

एहूँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौं दोउ भाई॥

ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मैं देखब भरि नयना॥

इसी बहाने जाकर मैं उनके चरणों का दर्शन करूँ और विनती करके दोनों भाइयों को ले आऊँ। (अहा!) जो ज्ञान, वैराग्य और सब गुणों के धाम हैं, उन प्रभु को मैं नेत्र भरकर देखूँगा।

दो० – बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार।

करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥ 206॥

बहुत प्रकार से मनोरथ करते हुए जाने में देर नहीं लगी। सरयू के जल में स्नान करके वे राजा के दरवाजे पर पहुँचे॥ 206॥

मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयउ लै बिप्र समाजा॥

करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥

राजा ने जब मुनि का आना सुना, तब वे ब्राह्मणों के समाज को साथ लेकर मिलने गए और दंडवत करके मुनि का सम्मान करते हुए उन्हें लाकर अपने आसन पर बैठाया।

चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा॥

बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिबर हृदयँ हरष अति पावा॥

चरणों को धोकर बहुत पूजा की और कहा – मेरे समान धन्य आज दूसरा कोई नहीं है। फिर अनेक प्रकार के भोजन करवाए, जिससे श्रेष्ठ मुनि ने अपने हृदय में बहुत ही हर्ष प्राप्त किया।

पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी॥

भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥

फिर राजा ने चारों पुत्रों को मुनि के चरणों पर डाल दिया (उनसे प्रणाम कराया)। राम को देखकर मुनि अपनी देह की सुधि भूल गए। वे राम के मुख की शोभा देखते ही ऐसे मग्न हो गए, मानो चकोर पूर्ण चंद्रमा को देखकर लुभा गया हो।

तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ॥

केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥

तब राजा ने मन में हर्षित होकर ये वचन कहे – हे मुनि! इस प्रकार कृपा तो आपने कभी नहीं की। आज किस कारण से आपका शुभागमन हुआ? कहिए, मैं उसे पूरा करने में देर नहीं लगाऊँगा।

असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही॥

अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥

(मुनि ने कहा -) हे राजन! राक्षसों के समूह मुझे बहुत सताते हैं, इसीलिए मैं तुमसे कुछ माँगने आया हूँ। छोटे भाई सहित रघुनाथ को मुझे दो। राक्षसों के मारे जाने पर मैं सनाथ (सुरक्षित) हो जाऊँगा।

दो० – देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।

धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥ 207॥

हे राजन! प्रसन्न मन से इनको दो, मोह और अज्ञान को छोड़ दो। हे स्वामी! इससे तुमको धर्म और सुयश की प्राप्ति होगी और इनका परम कल्याण होगा॥ 207॥

सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी॥

चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥

इस अत्यंत अप्रिय वाणी को सुनकर राजा का हृदय काँप उठा और उनके मुख की कांति फीकी पड़ गई। (उन्होंने कहा -) हे ब्राह्मण! मैंने चौथेपन में चार पुत्र पाए हैं, आपने विचार कर बात नहीं कही।

मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥

देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥

हे मुनि! आप पृथ्वी, गो, धन और खजाना माँग लीजिए, मैं आज बड़े हर्ष के साथ अपना सर्वस्व दे दूँगा। देह और प्राण से अधिक प्यारा कुछ भी नहीं होता, मैं उसे भी एक पल में दे दूँगा।

सब सुत प्रिय मोहि प्रान की नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाईं॥

कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा॥

सभी पुत्र मुझे प्राणों के समान प्यारे हैं, उनमें भी हे प्रभो! राम को तो (किसी प्रकार भी) देते नहीं बनता। कहाँ अत्यंत डरावने और क्रूर राक्षस और कहाँ परम किशोर अवस्था के (बिलकुल सुकुमार) मेरे सुंदर पुत्र!

सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी॥

तब बसिष्ट बहुबिधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा॥

प्रेम-रस में सनी हुई राजा की वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि विश्वामित्र ने हृदय में बड़ा हर्ष माना। तब वशिष्ठ ने राजा को बहुत प्रकार से समझाया, जिससे राजा का संदेह नाश को प्राप्त हुआ।

अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥

मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥

राजा ने बड़े ही आदर से दोनों पुत्रों को बुलाया और हृदय से लगाकर बहुत प्रकार से उन्हें शिक्षा दी। (फिर कहा -) हे नाथ! ये दोनों पुत्र मेरे प्राण हैं। हे मुनि! (अब) आप ही इनके पिता हैं, दूसरा कोई नहीं।

दो० – सौंपे भूप रिषिहि सुत बहुबिधि देइ असीस।

जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस॥ 208(क)॥

राजा ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद देकर पुत्रों को ऋषि के हवाले कर दिया। फिर प्रभु माता के महल में गए और उनके चरणों में सिर नवाकर चले॥ 208(क)॥

सो० – पुरुष सिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन।

कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥ 208(ख)॥

पुरुषों में सिंह रूप दोनों भाई (राम-लक्ष्मण) मुनि का भय हरने के लिए प्रसन्न होकर चले। वे कृपा के समुद्र, धीर बुद्धि और संपूर्ण विश्व के कारण के भी कारण हैं॥ 208(ख)॥

अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला॥

कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥

भगवान के लाल नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं, नील कमल और तमाल के वृक्ष की तरह श्याम शरीर है, कमर में पीतांबर (पहने) और सुंदर तरकस कसे हुए हैं। दोनों हाथों में (क्रमशः) सुंदर धनुष और बाण हैं।

स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्वामित्र महानिधि पाई॥

प्रभु ब्रह्मन्यदेव मैं जाना। मोहि निति पिता तजेउ भगवाना॥

श्याम और गौर वर्ण के दोनों भाई परम सुंदर हैं। विश्वामित्र को महान निधि प्राप्त हो गई। (वे सोचने लगे -) मैं जान गया कि प्रभु ब्रह्मण्यदेव (ब्राह्मणों के भक्त) हैं। मेरे लिए भगवान ने अपने पिता को भी छोड़ दिया।

चले जात मुनि दीन्हि देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥

एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥

मार्ग में चले जाते हुए मुनि ने ताड़का को दिखलाया। शब्द सुनते ही वह क्रोध करके दौड़ी। राम ने एक ही बाण से उसके प्राण हर लिए और दीन जानकर उसको निजपद (अपना दिव्य स्वरूप) दिया।

तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही॥

जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा॥

तब ऋषि विश्वामित्र ने प्रभु को मन में विद्या का भंडार समझते हुए भी (लीला को पूर्ण करने के लिए) ऐसी विद्या दी, जिससे भूख-प्यास न लगे और शरीर में अतुलित बल और तेज का प्रकाश हो।

दो० – आयुध सर्ब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि।

कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि॥ 209॥

सब अस्त्र-शस्त्र समर्पण करके मुनि प्रभु राम को अपने आश्रम में ले आए और उन्हें परम हितू जानकर भक्तिपूर्वक कंद, मूल और फल का भोजन कराया॥ 209॥

प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥

होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी॥

सबेरे रघुनाथ ने मुनि से कहा – आप जाकर निडर होकर यज्ञ कीजिए। यह सुनकर सब मुनि हवन करने लगे। आप (राम) यज्ञ की रखवाली पर रहे।

सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही॥

बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा॥

यह समाचार सुनकर मुनियों का शत्रु क्रोधी राक्षस मारीच अपने सहायकों को लेकर दौड़ा। राम ने बिना फलवाला बाण उसको मारा, जिससे वह सौ योजन के विस्तारवाले समुद्र के पार जा गिरा।

पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा॥

मारि असुर द्विज निर्भयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥

फिर सुबाहु को अग्निबाण मारा। इधर छोटे भाई लक्ष्मण ने राक्षसों की सेना का संहार कर डाला। इस प्रकार राम ने राक्षसों को मारकर ब्राह्मणों को निर्भय कर दिया। तब सारे देवता और मुनि स्तुति करने लगे।

तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया॥

भगति हेतु बहुत कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना॥

रघुनाथ ने वहाँ कुछ दिन और रहकर ब्राह्मणों पर दया की। भक्ति के कारण ब्राह्मणों ने उन्हें पुराणों की बहुत-सी कथाएँ कहीं, यद्यपि प्रभु सब जानते थे।

तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई॥

धनुषजग्य सुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा॥

तदंतर मुनि ने आदरपूर्वक समझाकर कहा – हे प्रभो! चलकर एक चरित्र देखिए। रघुकुल के स्वामी राम धनुषयज्ञ (की बात) सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र के साथ प्रसन्न होकर चले।

आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं॥

पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी॥

मार्ग में एक आश्रम दिखाई पड़ा। वहाँ पशु-पक्षी, कोई भी जीव-जंतु नहीं था। पत्थर की एक शिला को देखकर प्रभु ने पूछा, तब मुनि ने विस्तारपूर्वक सब कथा कही।

दो० – गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।

चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥ 210॥

गौतम मुनि की स्त्री अहल्या शापवश पत्थर की देह धारण किए बड़े धीरज से आपके चरणकमलों की धूलि चाहती है। हे रघुवीर! इस पर कृपा कीजिए॥ 210॥

छं० – परसत पद पावन सोकनसावन प्रगट भई तपपुंज सही।

देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥

अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।

अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥

राम के पवित्र और शोक को नाश करनेवाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई। भक्तों को सुख देनेवाले रघुनाथ को देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी रह गई। अत्यंत प्रेम के कारण वह अधीर हो गई। उसका शरीर पुलकित हो उठा, मुख से वचन कहने में नहीं आते थे। वह अत्यंत बड़भागिनी अहल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई और उसके दोनों नेत्रों से जल की धारा बहने लगी।

धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।

अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥

मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदायी।

राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥

फिर उसने मन में धीरज धरकर प्रभु को पहचाना और रघुनाथ की कृपा से भक्ति प्राप्त की। तब अत्यंत निर्मल वाणी से उसने (इस प्रकार) स्तुति प्रारंभ की – हे ज्ञान से जानने योग्य रघुनाथ! आपकी जय हो! मैं (सहज ही) अपवित्र स्त्री हूँ, और हे प्रभो! आप जगत को पवित्र करनेवाले, भक्तों को सुख देनेवाले और रावण के शत्रु हैं। हे कमलनयन! हे संसार (जन्म-मृत्यु) के भय से छुड़ानेवाले! मैं आपकी शरण आई हूँ, (मेरी) रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए।

मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।

देखेउँ भरि लोचन हरि भव मोचन इहइ लाभ संकर जाना॥

बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।

पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥

मुनि ने जो मुझे शाप दिया, सो बहुत ही अच्छा किया। मैं उसे अत्यंत अनुग्रह (करके) मानती हूँ कि जिसके कारण मैंने संसार से छुड़ानेवाले हरि (आप) को नेत्र भरकर देखा। इसी (आपके दर्शन) को शंकर सबसे बड़ा लाभ समझते हैं। हे प्रभो! मैं बुद्धि की बड़ी भोली हूँ, मेरी एक विनती है। हे नाथ ! मैं और कोई वर नहीं माँगती, केवल यही चाहती हूँ कि मेरा मनरूपी भौंरा आपके चरण-कमल की रज के प्रेमरूपी रस का सदा पान करता रहे।

जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।

सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥

एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।

जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पति लोक अनंद भरी॥

जिन चरणों से परमपवित्र देवनदी गंगा प्रकट हुईं, जिन्हें शिव ने सिर पर धारण किया और जिन चरणकमलों को ब्रह्मा पूजते हैं, कृपालु हरि (आप) ने उन्हीं को मेरे सिर पर रखा। इस प्रकार (स्तुति करती हुई) बार-बार भगवान के चरणों में गिरकर, जो मन को बहुत ही अच्छा लगा, उस वर को पाकर गौतम की स्त्री अहल्या आनंद में भरी हुई पति लोक को चली गई।

दो० – अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।

तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल॥ 211॥

प्रभु राम ऐसे दीनबंधु और बिना ही कारण दया करनेवाले हैं। तुलसीदास कहते हैं, हे शठ (मन)! तू कपट-जंजाल छोड़कर उन्हीं का भजन कर॥ 211॥

श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, सातवाँ विश्राम समाप्त॥

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