श्रीराम उत्तरतापिनी उपनिषद Shri Ram Uttar Tapini Upanishad

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श्रीराम तापिनी उपनिषद अथर्ववेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। इससे पूर्व में आपने श्रीराम पूर्वतापनी उपनिषद पढ़ा अब श्रीराम उत्तरतापिनी उपनिषद के इस भाग में काशी एवं तारक मंत्र की महिमा, ओम एवं श्रीराम के तारक मंत्र का महत्व, ॐ मंत्र का महत्व, अविमुक्त क्षेत्र एवं तारक मंत्र का महत्व का वर्णन है।

|| श्रीरामोत्तरतापिनी उपनिषद् ||

शान्ति पाठ

ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।

स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा ঌसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।

स्वस्ति नस्तार्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।।

ॐ शान्तिः ! शान्तिः !!शान्ति: !!!

इसका भावार्थ श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषद् में पढ़ें।
श्रीराम उत्तर तापिनी उपनिषद्

काशी एवं तारक मंत्र की महिमा

बृहस्पतिरुवाच याज्ञवल्क्यं ।

यदनु कुरुक्षेत्रं देवानां देवयजनं सर्वेषां भूतानां ब्रह्मसदनम् ।

अविमुक्तं वै कुरुक्षेत्रं देवानां देवयजनं सर्वेषां भूतानां ब्रह्मसदनम् ।

तस्माद्यत्र क्वचन गच्छति तदेव मन्येतेतीदं वै

कुरुक्षेत्रं देवानां देवयजनं सर्वेषां भूतानां ब्रह्मसदनम् ।

अत्र हि जन्तोः प्राणेषुत्क्रममाणेषु रुद्रस्तारकं ब्रह्म

व्याचष्टे येनासावमृतीभूत्वा मोक्षीभवति ।

तस्मादविमुक्तमेव निषेवेत ।

अविमुक्तं न विमुञ्चेत ।

एवमेवैतद्याज्ञवल्क्यः ।

ॐ बृहस्पति ने याज्ञवल्क्य से पूछा- ‘हे ब्राह्मन्! जिस तीर्थ के सामने कुरूक्षेत्र भी छोटा लगे, जो देवताओं के लिए भी देवपूजन का स्थान हो, जो समस्त प्राणियों के लिए परमात्मा की प्राप्ति का धाम हो, वह जगह कौन सी है?’ यह सुनकर याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया- ‘निश्चय ही काशी तीर्थ ही प्रधान कुरूक्षेत्र (सत्कर्म करने का स्थान) है। वही देवताओं के लिए भी देवपूजन का स्थान है। वही समस्त प्राणियों के लिए परमात्मा प्राप्ति का धाम है। अत: जहाँ कहीं भी जाये, उस काशी तीर्थ को ही प्रधान कुरूक्षेत्र मानना चाहिए। यहीं जीव के प्राण निकलते समय भगवान् शिव (रूद्र) ‘तारक ब्रह्म’ का उपदेश प्राणी को करते हैं जिससे वह अमृतमय रूप होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इसलिए काशी का ही सेवन करना चाहिए। अविमुक्त (काशी) तीर्थ का कभी परित्याग न करे। ठीक ऐसी ही बात है।’ इस प्रकार याज्ञवल्क्य ने बृहस्पति को समझाया (१)।।
श्रीरामोत्तरतापिनीयोपनिषत्

ओम एवं श्रीराम के तारक मंत्र का महत्व

अथ हैन भरद्वाज: पप्रच्छ याज्ञवल्क्यं किं तारकं किं तारयतीति ।

सहोवाच याज्ञवल्क्यस्तारकं दीर्घानलं बिन्दुपूर्वकं

दीर्घानलं पुनर्मायां नमश्चन्द्राय नमो भद्राय नम

इत्येतद्ब्रह्मात्मका: सच्चिदानन्दाख्या इत्युपासितव्यम् ।।१।।

इसके बाद भरतद्वाज ने याज्ञवल्क्य जी से पूछा- ‘हे भगवन्! कौन तारने वाला (तारक) है और कौन तरता है?’ इस प्रश्न के उत्तर में याज्ञवल्क्य मुनि बोले- ‘तारक मंत्र इस प्रकार होता है। दीर्घ आकार सहित अनल (रेफ, रकार) और वह रेफ बिन्दु (अनुस्वार) से पहले स्थित हो। उसके बाद फिर दीर्घ स्वर विशिष्ठ रेफ हो और उसके अनन्तर माय नमः ये दो पद हों। इस प्रकार रां रामाय नमः’ यह तारक मंत्र बना। इसके सिवा राम पद के सहित ‘चन्द्राय नम:’ एवं ‘भद्राय नम:’ ये दो मंत्र भी तारक हैं। ये तीनों मंत्र क्रमश: ॐ कारस्वरूप, तत्स्वरूप और ब्रह्म स्वरूप हैं। ये ही क्रमश: ‘सत्, चित्त और आनन्द’ नाम धारण करते हैं। इस प्रकार इनकी उपासना करनी चाहिए (१)।

अकारः प्रथमाक्षरो भवति ।

उकारो द्वितीयाक्षरो भवति ।

मकारस्तृतीयाक्षरो भवति ।

अर्धमात्रश्चतुर्थाक्षरो भवति ।

बिन्दुः पञ्चमाक्षरो भवति ।

नाद: षष्ठाक्षरो भवति ।

तारकत्वात्तारको भवति ।

तदेव तारकं ब्रह्म त्वं विद्धि ।

तदेवोपासितव्यमिति ज्ञेयम् ।

गर्भजन्मजरामरणसंसारमहद्भयात्संतारयतीति ।

तस्मादुच्यते षडक्षरं तारकमिति।। २।।

ॐकार में प्रथम अक्षर अकार है, दूसरा अक्षर उकार है, तीसरा अक्षर मकार है, चौथा अक्षर अर्ध मात्रा है, पंचम अक्षर अनुस्वार है और छठा अक्षर नाद है। इस प्रकार ६ अक्षरों वाला तारक मंत्र होता है। वह सबको तारने वाला होने के कारण तारक कहलाता है। उस ॐकार अथवा रां इस बीज मंत्रमय अक्षर को तुम तारक ब्रह्म समझो। वही उपासना के योग्य है, वह गर्भ, जन्म, जरावस्था, मृत्यु तथा संसारिक महान् भय से प्राणि को भली-भाँति तार देता है (२)।

य एतत्तारकं ब्रह्म ब्राह्मणो नित्यमधीते ।

स पाप्मानं तरति । स मृत्युं तरति ।

स ब्रह्महत्यां तरति । स भ्रूणहत्यां तरति ।

स वीरहत्यां तरति । स सर्वहत्यां तरति ।

स संसारं तरति । स सर्वं तरति ।

सोऽविमुक्तमाश्रितो भवति । स महान्भवति ।

सोऽमृतत्वं च गच्छति ॥३॥

जो ब्राह्मण इस तारक तारक मंत्र का सदा जप करते हैं वह सम्पूर्ण पापों को पार कर जाते हैं, मृत्यु को लांघ जाते हैं, ब्रह्महत्या, भ्रूणहत्या एवं वीरहत्या से तर जाते हैं। इतना ही नहीं, वह सम्पूर्ण हत्याओं से तर जाते हैं, वह संसार से तर जाते हैं, सबको पार कर जाते है। वह जहाँ कहीं भी रहते हैं वही क्षेत्र उनके लिए काशीधाम (अविमुक्त क्षेत्र) बन जाता है। वे महान होते हैं एवं अमृततत्त्व को प्राप्त होते हैं (३)।

श्रीरामोत्तरतापिनीयोपनिषद्

ओम ॐ मंत्र का महत्व

अत्रैते श्लोका भवन्ति ।

अकाराक्षरसंभूतः सौमित्रिर्विश्वभावनः ।

उकाराक्षरसम्भूतं शत्रुघ्नस्तैजसात्मक: ।।१।।

सुमित्रानन्दन लक्ष्मण प्रणव के अकार अक्षर से प्रादुर्भूत हुए हैं। वेदान्त की भाषा में वे पुरूष की जागृत अवस्था ‘विश्व’ के रूप में ध्यान करने योग्य हैं (वे चारों व्यूहों में संकर्षणरूप हैं)। शत्रुघ्न का प्रणव के उ अक्षर से प्रादुर्भाव हुआ है। वेदान्त की भाषा में वे पुरूष की स्वप्न अवस्था ‘तेजस’ रूप हैं। उन्हें चारों व्यूहों में प्रद्युम्न कहते हैं (१)।

प्राज्ञात्मकस्तु भरतो मकाराक्षरसम्भवः ।

अर्धमात्रात्मको रामो ब्रह्मानन्दैकविग्रहः ।।२।।

प्रणव के म अक्षर से भरत प्रकट हुए हैं। वेदान्त की भाषा में वे पुरूष की सुषुप्ति अवस्था ‘प्राज्ञ’ हैं। (चार व्यूहों में उन्हें ही अनिरूद्ध कहा गया है)। प्रणव की अर्द्धमात्रा — ‘रूप श्रीराम हैं- वे ही तुरीय पुरुषोत्तम हैं। यह वेदान्त में ब्रह्मानन्द की चौथी अवस्था माने जाते हैं। (चार व्यूहों में वे वासुदेव नाम से जाने जाते हैं) (२)।

श्रीरामसांनिध्यवशाज्जगदाधारकारिणी ।

उत्पत्तिस्थितिसंहारकारिणी सर्वदेहिनाम् ।।३।।

श्रीराम का सानिध्य पाकर (या रहकर) जो समस्त देहधारियों की उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाली हैं वे जगत को आनन्द देने वाली भी हैं (३)।

सा सीता भवति ज्ञेया मूलप्रकृतिसंज्ञिता ।

प्रणवत्वात्प्रकृतिरिति वदन्ति ब्रह्मवादिनः ।।४।। इति

वे शक्ति सीता कहलाती हैं। वे प्रणव के नाद बिन्दु( ঁ ) स्वरूप हैं। वे ही मूल प्रकृति कहलाती हैं और वे प्रणव से भिन्न नहीं हैं (४)।

ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं

भूतं भव्यं भविष्यदिति सर्वमोंकार एव ।

यच्चान्यत्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ।

सर्वं ह्येतद्ब्रह्म ।

अयमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पाज्जागरितस्थानो

बहिः प्रज्ञ: सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुख: स्थूलभुग्वैश्वानरः प्रथमः पाद: ।।५।।

‘ओम’ यह अक्षर है- यानि जो क्षर या विनाश न हो। यह प्रत्यक्ष दिखने वाला संसार उसी की महिमा को प्रकाशित, व्याख्या करता है। जो पहले हो चुका, जो हो रहा है, जो होगा- यह सब जगत ‘ओंकार’ ही है। जो इन तीनों तत्वों के परे कोई काल हो तो वो भी ओंकार ही है (ओंकार नाम है और ओम परमात्मा नामी है। इन दोनों में कोई भेद नहीं है)। निश्चय ही सब ब्रह्ममय है। यह जीव की आत्मा भी ब्रह्ममय ही है। इस ब्रह्म-परमात्मा के चार पाद (अंश, रूप) हें। (यद्यपि परमात्मा ब्रह्म अखण्ड है पर उसके सम्पूर्ण स्वरूप को समझने के लिए चार अंशों की कल्पना की गई है-

(१)’जाग्रत’ यानि की आत्मा का स्थूल जगत से सम्पर्क, (२) ‘स्वप्न’ अर्थात् सूक्ष्म जगत, (३) ‘सुषुप्ति’ अर्थात् वह अवस्था जब जगत स्वप्नवत हो लीन हो जाए, उसका अस्तित्त्व रहे ही नहीं, और (४) ‘तूर्य’ यानि कि सबसे पृथक विशुद्ध ब्रह्म जो परमानन्द का स्वरूप है।)

राम के तत्त्व वर्णन में ‘रां’ जो बीज है वह ही ‘ओम’ का पर्यायवाची माना गया है। ‘रां’ ही ‘ओम’ तथा परम सम्पूर्ण ब्रह्म का स्वरूप है। इनके चार पाद ‘र’ से लक्ष्मण, ‘आ’ से शत्रुघ्न, ‘म’ से भरत तथा ‘रां’ से राम का प्रादुर्भाव माना गया है। ‘रां’ एवं ‘ॐ’ में कोई अन्तर नहीं है। अत: यह सारा संसार राम की महत्ता को प्रकाशित कर रहा है।

अत: यह आत्मा उपरोक्त कारणों से चार चरण (पाद) वाला है। जाग्रत अवस्था में सम्पूर्ण जगत इसका शरीर है। विभिन्न विषयों में इसकी प्रज्ञा है। भूः, भुवः इत्यादि सात लोक इसके सात अंग माने गये हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण और चार अन्त:करण- यह उन्नीस इसके प्राप्त करने के स्थान (यानि कि मुख) हैं। जो इस सम्पूर्ण जगत को भोक्ता है अर्थात् इसको जानता और अनुभव करता है, वह ‘वैश्वानर’ कहलाता है। यह आत्मा का पहला पाद है (4)।

स्वप्नस्थानोऽन्तःप्रज्ञ: सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः

प्रविविक्तभुक् तैजसो द्वितीय: पाद: ।।६।।

स्वप्न अवस्था आत्मा-परमात्मा का दूसरा पाद है। मन की सूक्ष्म वासना द्वारा कल्पित मनोमय जगत ही स्वप्न कहलाता है। अत: स्वप्न शब्द सूक्ष्म जगत का ही बोधक है। यह सूक्ष्म जगत ही जिसका स्थान है, जो सूक्ष्म जगत का ज्ञान रखता है और उसमें व्याप्त रहता है, जिसके पिछले पद की तरह ७ अंग तथा १९ मुख हैं वह आत्मा का ‘तेजस’ स्वरूप है (६)।

यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन

स्वप्नं पश्यति तत्सुषुप्तम् ।

सुषुप्तस्थान एकीभूत: प्रज्ञानधन एवानन्दमयो

ह्यानन्दभुक् चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीयः पादः ।।७।।

जिस अवस्था में सोया हुआ मनुष्य किसी भोग की कामना नहीं करता, कोई भी स्वप्न नहीं देखता, वह ‘सुषुप्ति’ अवस्था है। यह प्रलय अवस्था को इंगित करता है। उस समय समस्त जगत अपने कारण-तत्त्व में लीन हो जाता है। इस अवस्था में कारण तत्त्व ही जिसका शरीर (स्थान) है, जो एकरूप है, प्रज्ञान ही जिसका स्वरूप है, जो केवल आनन्दमय है, उसी का ही भोग करता है, चैतन्य ही जिसका मुख है, वह ‘प्राज्ञ’ आत्मा का तीसरा रूप अथवा पाद है (७)।

एष सर्वेश्वर एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष

योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम् ।

नाऽन्तःप्रज्ञं न बहिःप्रज्ञं नोभयत:प्रज्ञं न प्रज्ञं नाप्रज्ञं

न प्रज्ञानघनमदृश्यमव्यवहार्यमग्राह्य

मलक्षमणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं

प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते ।।८।।

इन तीनों पादों के रूप में वर्णित परमेश्वर सबका ईश्वर है। वह सर्वज्ञ, अन्तर्यामी, सम्पूर्ण जगत के पैदा, स्थिति और प्रलय का कारण है। जिसकी बुद्धि न अन्तर्मुखी न वाह्यमुखी है, जो प्रज्ञा होकर भी प्रज्ञानघन नहीं है, जो जानने वाला है और न जानने वाला भी है, जिसको देखा नहीं गया, व्यवहार में नहीं लाया गया, पकड़ा नहीं गया, जिसका कोई लक्षण नहीं है, जो चिन्तन में नहीं समा सकता, जो संकेत से नहीं बतलाया जा सकता, एकमात्र आत्मसत्ता की प्रतीति जिसका सार है तथा जिसमें फालतू प्रपंच का सर्वथा अभाव है, जो शान्त है, कल्याणमय है, अद्वैत है- ऐसे परब्रह्म तत्त्व को ज्ञानी लोग परमेश्वर का चौथा पाद कहते हैं (८)।

स आत्मा स विज्ञेयः सदोज्ज्वलोऽविद्यातत्कार्यहीनः

स्वात्मबन्धहरः सर्वदा द्वैतरहित आनन्दरूपः

सर्वाधिष्ठानसन्मात्रो निरस्ताविद्यातमोमोहोऽहमेवेति

सम्भाव्याहमोंतत्सद्यत्परब्रह्म रामचन्द्रश्चिदात्मकः ।

सोऽहमोन्तद्रामभद्रपरंज्योतीरसोऽहमोमित्यात्मानमादाय

मनसा ब्रह्मणैकीकुर्यात् ।।९।।

यह आत्मा का साक्षातकार गुरू और शास्त्र के द्वारा होता है। विशुद्ध मन और बुद्धि से यह समझा जा सकता है। यह आत्मा सदा ही प्रकाशमान, उज्जवल है। अविद्या और उसके द्वारा जनित कार्यों से सर्वथा रहित है। अपने भक्तों का अज्ञानमय अन्धकार रूपी बन्धन को हर लेता है। वह सर्वदा एक है, अद्वैत है, आनन्दरूप है, सबका अधिष्ठान है, सत्तामात्र है। उसमें अविद्या जनित अन्धकार और मोह स्वभावत: ही नहीं होता। उसकी सन्निधि में आते ही अविद्यामय अन्धकार और मोह का नाश हो जाता है। (चूँकि आत्मा जो मेरे अन्दर बसी है वो परमात्मारूपी ओम ‘ॐ’ जिसका पर्यायवाची ‘रा’ और उसका नामी ‘राम’ है, अत: -) मेरे आत्मा भी राम का ही स्वरूप है। अर्थात् जो अनिवर्चिय राम हैं, वो मैं ही हूँ। इस प्रकार चिन्तन करे। जो सच्चिदानन्दमय, ज्योर्तिमय रामभद्र हैं, वो मैं ही हूँ। इस विचार से मन के द्वारा अपने और परमब्रह्म राम के बीच एकता या अद्वैतता स्थापित करे (९)।

सदा रामोऽहमस्मीति तत्तत्त्वत: प्रवदन्ति ये ।

न ते संसारिणो नूनं राम एवं न संशयः ।।

इत्युपनिषद्य ।

य एवं वेद स मुक्तो भवतीति याज्ञवल्क्य: ।।१०।।

जो लोग यर्थाथरूप से यह समझ जाते हैं और यह कहते हैं या मानते हैं कि मैं राम हूँ’, वे संसारी नहीं हैं, वे तरे हुए माने जाते हैं। निश्चयरूप से वे राम के स्वरूप हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है। यह उपनिषद् है। जो इस प्रकार जानता है वह मुक्त हो जाता है’- इस प्रकार याज्ञवल्क्य जी ने उपदेश दिया (१०)।

श्रीराम उत्तर तापिनी उपनिषद

अविमुक्त क्षेत्र एवं तारक मंत्र का महत्व

अथ हैनमत्रिः प्रपच्छ याज्ञवल्क्यं य

एषोऽनन्तोऽव्यक्तपरिपूणाननन्दैकहचिदात्मा तं कथमहं

विजानीयामिति ।।१।।

इसके बाद याज्ञवल्क्य से अत्रिमुनि ने पूछा- ‘मैं उस आत्मतत्त्व को जो अनन्त, अविनाशी, अव्यक्त (जो इन्द्रियों के द्वारा न समझा जा सके और न व्यक्त किया जा सके) हैं उसे कैसे जानू?’ (१) ।

स होवाच याज्ञवल्क्यः ।

सोऽविमुक्त उपास्योऽयम् ।

य एषोऽनन्तोऽव्यक्त आत्मा सोऽविमुक्ते प्रतिष्ठित इति ।। २।।

तब प्रसिद्ध याज्ञवल्क्य मुनि ने उत्तर दिया- ‘उस अव्यक्त आत्मतत्त्व (परमात्मा) की अविमुक्त (काशी) क्षेत्र में उपासना करनी चाहिए। वह जो अनन्त, अविनाशी, अव्यक्त आत्मा है- वह अविमुक्त क्षेत्र में प्रतिष्ठित है’। (२) ।

सोऽविमुक्तः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति ।।३।।

अत्रि ने पुन: प्रश्न किया- ‘किन्तु वह अविमुक्त क्षेत्र कहाँ स्थित है?’ (३)

वरणायां नास्यां च मध्ये प्रतिष्ठित इति ।।४।।

याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया- ‘यह अविमुक्त क्षेत्र ‘वरणा’ एवं ‘नाशी’ के मध्य में स्थित है’। (४)

का वै वरणा का च नासीति ।।५।।

अत्रि ने पूछा- ‘वरणा और नाशी कौन हैं, यह किसका नाम है?’ (५)

जन्मान्तरकृतान्सर्वान्दोषान्वारयतीति तेन वरणा भवतीति ।

सर्वानिन्द्रियकृतान्यापान्नाशयतीति तेन नासी भवतीति ।। ६।।

याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया- ‘जो सम्पूर्ण जन्मान्तर कृत इन्द्रियकृत दोषों को वारण करती है उसे वरणा कहते हैं। जो समस्त इन्द्रियकृत पापों का नाश करती है उसे नाशी कहते हैं’। (६)

[नोट : अविमुक्त शब्द का अर्थ है- अविमुक्त – जो विमुक्त न हो, जो बद्ध हो। यहाँ इस शब्द का तात्पर्य है ‘वो व्यक्ति जो संसार बन्धनों से बँधा हो किन्तु मुक्ति पाने की अभिलाषा रखता हो’।]

कतमच्चास्य स्थानं भवतीति ।।७।।

प्रश्न- ‘उस अविमुक्त क्षेत्र का आध्यात्मिक स्थान कौन (यानि कि कहाँ) है?’ (७)।

भ्रुवोणिस्य च यः सन्धिः स एष द्यौर्लोकस्य परस्य च सन्धिर्भवतीति ।

एतद्वै सन्धिं सन्ध्यां ब्रह्मविद उपासत इति ।

सोऽविमुक्त उपास्य इति ।

सोऽविमुक्तं ज्ञानमाचष्टे यो वा एतदेवं वेदेति ।।८।।

उत्तर- ‘भौंह और नाशिका की जो सन्धि है (जहाँ इडा एवं पिंगला नाम की दो नाड़ियाँ मिली हुई हैं) वह उत्कृष्ट ज्योतिर्मय परमधाम का प्रतीक परमात्मा का स्थान है। ब्रह्म वेत्ता लोग इस सन्धि को ही ‘सन्ध्या’ के रूप में उपासना करते हैं। अत: जो साधक उस अव्यक्त आत्मा की अविमुक्त क्षेत्र (काशी) में भौतिक जगत में रहकर उसकी आध्यात्मिक रहने की जगह (भौंह-नाशिका की सन्धि) में अपना ध्यान केन्द्रित करता है और वहीं सन्धि में उस परमात्मा की उपासना एवं ध्यान करके चिन्तन करता है- वह निश्चय ही मुक्त हो गया है। वही नित्य आत्मा से सम्बद्ध ज्ञान का उपदेश कर सकता है’ (८)।

अथ तं प्रत्युवाच ।

स्वयमेव याज्ञवल्क्यः ।

श्रीरामस्य मनुं काश्यां जजाप वृषभध्वजः ।

मन्वन्तरसहस्रेस्तु जपहोमार्चनादिभिः ।। ९।।

ततपश्चात् अत्रि मनि से याज्ञवल्क्य ने कहा- ‘एक बार भगवान शंकर ने काशी में एक हजार मन्वन्तर तक जप, होम और पूजन के द्वारा श्रीराम की अराधना करी और श्रीराम के तारकमंत्र का जप किया।

[नोट : १ मन्वन्तर ब्रह्मा के एक दिन का १/१४वां हिस्सा; अथवा ७१ चार युगों का एक चक्कर।

ततः प्रसन्नो भगवाड्रीरामः प्राह शङ्करम् ।

वृणीष्व यदभीष्टं तद्दास्यामि परमेश्वर ।। इति।।१०।।

इस पर प्रसन्न होकर श्रीराम ने उनसे कहा, ‘हे परमेश्वर! तुम्हे जो वर अभीष्ट हो वह माँग लो, मैं उसे दूंगा’ (१०)।

अथ सच्चिदानन्दात्मानं श्रीराममीश्वरः पप्रच्छ ।

मणिकर्त्यां मम क्षेत्रे गङ्गायां वा तटे पुनः ।

म्रियते देहि तज्जन्तोमुक्तिर्नाऽतो वरान्तरम् ।। इति।। ११ ।।

तब चिन्मय महेश ने कहा- ‘हे प्रभु! मणिकर्णिका तीर्थ में, मेरे काशी क्षेत्र में अथवा गंगा या गंगा के तट पर जो प्राण त्याग करे उस जीव को आप मुक्ति प्रदान कीजिए। इसके सिवा दूसरा कोई वर मुझे अभिष्ट नहीं है’ (११)।

अथ सहोवाच श्रीराम: क्षेत्रेऽस्मिंस्तव

देवेश यत्र कुत्रापि वा मृताः ।

कृमिकीटादयोऽप्याशु मुक्ताः सन्तु न चान्यथा ।। १२ ।।

तब उनसे सच्चिदानन्द श्रीराम ने कहा- ‘हे देवेश! आपके इस पावन क्षेत्र में जहाँ कहीं भी कोई कीड़ा-मकोड़ा आदि तक भी मरेगा वह तत्काल मुक्त हो जायेगा। इसमें कोई सन्देह नहीं है (१२)।

अविमुक्ते तव क्षेत्रे सर्वेषां मुक्तिसिद्धये ।

अहं संन्निहितस्तत्र पाषाणप्रतिमादिषु ।। १३।।

आपके इस अविमुक्त क्षेत्र में सब लोगों को मुक्ति सिद्ध कराने (देने) मैं पाषाण तक की मूर्तियों में रहूँगा। (यानि कि पाषाण जैसी निर्जीव वस्तु में भी अगर कोई भक्त मुझे अपना समझकर भजेगा तो मैं उसे मुक्ति प्रदान करूंगा) (१३)।

क्षेत्रेऽस्मिन्योऽर्चयेद्भक्त्या मन्त्रेणानेन मां शिव ।

ब्रह्महत्यादिपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।१४।।

हे शिव! आपके क्षेत्र (काशी या अन्यत्र) में जो मेरे इस तारक मंत्र (रां रामाय नमः) के द्वारा मेरी अराधना, पूजा, जप करेगा, मैं उसे ब्रह्महत्या जैसे जघन्य पापों से भी मुक्त कर दूंगा। आप चिन्ता न करें (१४)।

त्वत्तो वा ब्रह्मणो वापि ये लभन्ते षडक्षरम् ।

जीवन्तो मन्त्रसिद्धाः स्युर्मुक्ता मां प्राप्नुवन्ति ते ।।१५।।

आपसे अथवा ब्रह्माजी से जो यह षडाक्षर मंत्र की दीक्षा लेते हैं वे जीते जी तो मंत्र सिद्ध होते ही हैं, मरने के बाद जन्म-मरण से मुक्त होकर मुझे प्राप्त कर लेते हैं (१५)।

[नोट : राम मंत्र की दीक्षा ब्रह्मा एवं शिव दोनों से लेना बताकर श्रीराम ने वैष्णव एवं शैव दोनों भक्तों के बीच की दूरी खत्म कर दी है।]

मुमूर्षोर्दक्षिणे कर्णे यस्य कस्यापि वा स्वयम् ।

उपदेक्ष्यसि मन्मन्त्रं स मुक्तो भविता शिव ।१६।।

हे शिव! जिस भी मरने वाले के दाहिने कान में आप मेरे मंत्र का उपदेश करेंगे वह निश्चित ही मुक्त हो जायेगा’ (१६)।

इति श्रीरामचन्द्रेणोक्तं योऽविमुक्तं पश्यति ।

स जन्मान्तरितान् दोषान् नाशयति ।१७।।

इस प्रकार जो श्रीराम के द्वारा वरदान से अनुगृहीत अविमुक्त क्षेत्र का दर्शन करता है वह जन्म-जन्मान्तर के दोषों और पापों को दूर कर देता है और उनका नाश कर देता है (१७)।

इस प्रकार श्रीरामोत्तरतापिनीयोपनिषद् का भाग-१ समाप्त हुआ।

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