शुक्र स्तवराजः || Shukra Stavaraj
शुक्रस्तवराजः एक अन्य कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने जब वामन अवतार लिया था, तब वे त्रैलोक्य को दानस्वरूप ग्रहण करने राजा बलि के पास पहुंचे। विष्णु ने प्रह्लाद के पौत्र महाबलि से वामन के छद्म रूप में दान स्वरूप त्रैलोक्य ले लेने का प्रयास किया। किन्तु शुक्राचार्य ने उन्हें पहचान लिया और राजा को आगाह किया। हालांकि राजा बलि अपने वचन का पक्का था और वामन देवता को मुंहमांगा दान दिया। शुक्राचार्य ने बलि के इस कृत्य पर अप्रसन्न होकर स्वयं को अत्यंत छोटा बना लिया और राजा बलि के कमण्डल की चोंच में जाकर छिप गये। इसी कमण्डलु से जल लेकर बलि को दान का संकल्प पूर्ण करना था। तब विष्णु जी ने उन्हें पहचान कर भूमि से कुशा का एक तिनका उठाया और उसकी नोक से कमण्डलु की चोंच को खोल दिया। इस नोक से शुक्राचार्य की बायीं आंख फ़ूट गयी। तब से शुक्राचार्य काणे ही कहलाते हैं।
शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी को विवाह प्रस्ताव हेतु बृहस्पति के पुत्र कच ऋषि ने ठुकरा दिया था। कालांतर में उसका विवाह ययाति से हुआ और उसी से कुरु वंश की उत्पत्ति हुई।
महाभारत के अनुसार शुक्राचार्य भीष्म के गुरुओं में से एक थे। इन्होंने भीष्म को राजनीति का ज्ञान कराया था।
शुक्र का पूजन कर शुक्रस्तवराजः का पाठ करने से शुक्र से सम्बंधित लाभ मिलाता है।
|| शुक्रस्तवराजः ||
अस्य श्रीशुक्रस्तवराजस्य प्रजापतिः ऋषिः अनुष्टुप् छन्दः
शुक्रो देवता श्रीशुक्रप्रीत्यर्थे पाठे विनियोगः ॥
नमस्ते भार्गवश्रेष्ठ दैत्यदानवपूजित ।
वृष्टिरोधप्रकर्त्रे च वृष्टिकर्त्रे नमो नमः ॥ १॥
देवयानिपतिस्तुभ्यं वेदवेदाङ्गपारग ।
परेण तपसा शुद्धः शङ्करो लोकसुन्दरः ॥ २॥
प्राप्तौ विद्यां जीवनाख्यां तस्मै शुक्रात्मने नमः ।
नमस्तस्मै भगवते भृगुपुत्राय वेधसे ॥ ३॥
तारामण्डलमध्यस्थ स्वभासाभासिताम्बरः ।
यस्योदये जगत्सर्वं मङ्गलार्हं भवेदिह ॥ ४॥
अस्तं याते ह्यरिष्टं स्यात्तस्मै मङ्गलरूपिणे ।
त्रिपुरावासिनो दैत्यान् शिवबाणप्रपीडितान् ॥ ५॥
विद्ययाऽजीवयच्छुक्रो नमस्ते भृगुनन्दन ।
ययातिगुरवे तुभ्यं नमस्ते कविनन्दन ॥ ६॥
वलिराज्यप्रदो जीवस्तस्मै जीवात्मने नमः ।
भार्गवाय नमस्तुभ्यं पूर्वगीर्वाणवन्दित ॥ ७॥
जीवपुत्राय यो विद्यां प्रादात्तस्मै नमो नमः ।
नमः शुक्राय काव्याय भृगुपुत्राय धीमहि ॥ ८॥
नमः कारणरूपाय नमस्ते कारणात्मने ।
स्तवराजमिमं पुण्यं भार्गवस्य महात्मनः ॥ ९॥
यः पठेच्छृणुयाद्वापि लभते वाञ्छितं फलम् ।
पुत्रकामो लभेत्पुत्रान् श्रीकामो लभते श्रियम् ॥ १०॥
राज्यकामो लभेद्राज्यं स्त्रीकामः स्त्रियमुत्तमाम् ।
भृगुवारे प्रयत्नेन पठितव्यं समाहितेः ॥ ११॥
अन्यवारे तु होरायां पूजयेद्भृगुनन्दनम् ।
रोगार्तो मुच्यते रोगाद्भयार्तो मुच्यते भयात् ॥ १२॥
यद्यत्प्रार्थयते जन्तुस्तत्तत्प्राप्नोति सर्वदा ।
प्रातःकाले प्रकर्तव्या भृगुपूजा प्रयत्नतः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः प्राप्नुयाच्छिवसन्निधिम् ॥ १३॥
इति श्रीब्रह्मयामले शुक्रस्तवराजः सम्पूर्णः ॥