स्पन्द कारिका || Spanda Karika

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स्पन्द कारिका भगवत् आचार्य वसुगुप्त की कृति है तथा उनके शिष्य श्री कल्लटाचार्य जी ने श्लोकबद्ध करके ग्रन्थ का आकार दिया है । यह ग्रन्थ कश्मीर के शैव दर्शन के त्रिक सिद्धान्त के अनुसार है, उसी के अनुरूप इसके तीन खण्ड करके साधन और साध्य का स्वरूप समझाया गया है, इसलिये इसके तीन प्रकरण हैं।

जो अपने स्वरूप को आवरित करने और प्रगट करने में नित्य ही समर्थ और स्वतन्त्र है तथा जो अपने अत्यन्त प्रेमियों के निकट नित्य ही अपने प्रभाव सहित विराजमान है।

स्वरूप स्पन्दकारिका

बन्दो गुरु पद कंज कृपासिन्धु नर रूप हरि ।

महां मोहतमपुञ्ज जासु वचन रविकर निकर ॥

स्पन्द कारिका हिन्दी अनुवाद सहित

॥ ॐ श्री चिदात्म वपुषे शंकराय नमः ॥

स्पन्दकारिका प्रथम प्रकरण

अथ स्वरूप स्पन्द प्रथम निःष्पन्द ।

शिव का स्वरूप

श्लोक – यस्योन्मेष निमेषाभ्यां जगतः प्रलयोदयौ ।

तं शक्तिचक्र विभव प्रभवं शंकरं स्तुमः ॥१॥

अर्थ – जिसके उन्मेष और निमेष से इस विश्व का उदय और अस्त होता है, उस शक्ति चक्र के प्रभाव, अर्थात् होने को जो प्रकाशित करता है उस शङ्कर की हम स्तुति करते हैं ॥ १ ॥

शक्ति का स्वरूप

श्लोक – यत्र स्थित मिदं सर्व कार्य यस्माच्च निर्गतम् ।

तम्यानावृत रूपत्वान्ननिरोधोऽस्ति कुत्र चित् ॥ २॥

अर्थ — जितना भी यह सब स्थित है, अर्थात् सत्ता रूप में भासित है तथा जिससे यह समस्त कार्य निकला है, वह अनावृत रूप ही है। उसका कभी निरोध नहीं होता ॥ २ ॥

अणु रूप जीव का स्वरूप

श्लोक-जाप्रदादि विभेदेऽपि तदभिन्न प्रसर्पति ।

निवर्तते निजानं व स्वभावा दुपलब्धृतः ॥३॥

अर्थ – जाग्रदादि अवस्थाओं में भेद रहते हुए भी तथा उनसे अभिन्न रहकर ही प्रवाहित हो रहा है परन्तु उसको अन्यथा भाव की प्राप्ति न होकर, अर्थात् उसका स्वरूप अनावृत ही है जो स्वभाव रूप में उपलब्ध है ॥ ३ ॥ 

संविकला का स्वरूप

श्लोक – अहं सुखी च दुःखी च रक्तश्चेत्यादि संविदः ।

सुखाद्यवस्थानुस्यूते वर्तन्तेऽन्यत्रताः स्फुटम् ॥४॥

अर्थ- मैं सुखी अथवा दुःखी हूंयह अनुभव जिस संवेदन द्वारा प्रमाता को होता है, यही संवेदनात्मक संविद्कला है जो सुखादि अवस्थाओं में अनुस्यूत होकर प्रमाता रूप में भाषित हो रही है, अर्थात् यह जो अभिन्न होकर भी भिन्न के समान भाषने वाला तत्त्व है यही संविद् कला का रूप है, अर्थात् जाग्रदादि का भेद रूप से अनुभव होने पर भी जो सामान्य रूप में उपलब्ध ज्ञानहै उसका स्वरूप आवृत नहीं होता, न अन्यथा भाव की उसे प्राप्ति होती है ॥४॥

श्लोक – न दुःखं न सुखं यत्र न ग्राह्यं ग्राहकं न च ।

न चास्ति मूढ भावेपि तदस्ति परमार्थतः ॥५॥

अर्थउसके इस संविद् रूप में सुख-दुःख ग्राह्य और ग्राहक अथवा भोग्य और भोक्ता के मूढादि भाव स्पष्ट दीखते हुए भी परमार्थतः वह नित्य स्वभाव है, उसमें यह सब नहीं हैं। सुखादि भाव संकल्प से उत्पन्न होने वाले क्षणभंगुर हैं, उस संविद् रूप या आत्मस्वभाव से बाहर हैं। शब्दादि विषय रूप सुखादि रूपों का अभाव होते हुए भी वह पापाणवत् अवस्था नहीं है, अपितु पूर्ण चैतन्य मात्र भाव है ॥५॥

श्लोक यतः करणवर्गोऽयं विमूढो मूढवत्स्वयम् ।

सहान्तरेण चक्रेण प्रवृत्ति-स्थिति संहृतीः ॥६॥

लभते, तत् प्रयत्नेन परीक्ष्यं तत्त्व मादरात् ।

यतः स्वतन्त्रता तस्य सर्वत्रेयम कृत्रिमा ॥७॥

अर्थ- इस स्पन्दतत्त्व के बाहर ही यह इन्द्रिय वर्ग जो प्रयत्न करने का सीमित भाव है, करण वर्ग है, जड़ रूप है। उसका उदय होता है इसी अन्त: करण के साथ चेतन के समान मूढ भावों की उत्पत्ति होती है और इसी के कारण ही यह प्रवृत्ति, स्थिति, संहार का चक्र चल रहा है, अर्थात् यही जो बन्धन का हेतु है वही मोक्ष का भी हेतु है, इसलिये इसी के अन्तः उद्योग उत्साह के द्वारा श्रद्धापूर्वक योगबल का आश्रय स्वीकारने से उस स्वतन्त्र ततत्त्व की प्राप्ति भी हो जाती है जिसके बिना यह सब मिथ्या है ॥६-७॥

श्लोक-न होच्छानोदन स्यायं प्रेरकत्वेन वर्तते ।

अपित्वात्मबल स्पर्शात् पुरुषस्तत्समो भवेत् ॥८॥

अर्थ-तब वह इच्छाशक्ति से आच्छादित हुआ प्रेरक रूप से वर्तता है और अपने आत्मबल के योग से वह साधक तो उसी के समान हुआ रहता है ॥८॥

श्लोक — निजा शुद्धा समर्थस्य कर्तव्येष्वभिलाषिणः ।

यदा क्षोभः प्रलीयेत तदा स्यात्परमं पदम् ॥९॥

अर्थ- जब तक माया में आवृत है और आत्मबल का स्पर्श नहीं होता तभी तक सुख-दुःख के चक्र में पड़ा रहता है, परन्तु ज्योंही अल्पाहता रूप क्षोभ का लय होता है परम पद की प्राप्ति हो जाती है ॥६॥

परमार्थ में विज्ञान का रूप

श्लोक – तदाऽस्याऽकृत्रिमोधर्मो ज्ञत्व कर्तृत्व लक्षणः ।

यतस्त दीप्सितं सर्वं जानाति च करोति च ॥ १०॥

अर्थ – अहमिति प्रत्यय रूप क्षोभ के लीन होने पर जो आत्मस्वरूप के सहज धर्म, ज्ञत्त्व, कर्तुं त्त्व आदि हैं वह स्वभाव रूप से स्थिर हो जाते हैं, अर्थात् ज्ञत्त्व, कर्तृत्व भाव जो अल्पहंता में हैं वह पूर्णता को प्राप्त होकर पूर्णाहं रूप से मैं जानता हूं‘, ‘मैं कर्ता हूंयह सर्वरूप मे मूल प्रकृति में स्थित हो जाते हैं ॥१०॥

योगस्थ पुरुष का वर्णन

श्लोक-तमधिष्ठातृ भावेन स्वभावमवलोकयन् ।

स्वयमान इवास्ते यस्तस्येय कुसृतिः कुतः ॥११॥

अर्थ- जब वह सब में अनुस्यूत सर्वसामध्येयुक्त आत्मस्वभाव में प्रतिष्ठित हो जाता है तो उसके उसमें स्थित होने के कारण सर्वव्यापक स्वभाव से स्थित हुआ आश्चर्यवत् अपने को देखता है तथा तब अविद्या के विलय हो जाने के कारण उसका संसरण नहीं होता ॥११॥

अन्तराय

श्लोक-ना ऽभावोभाव्यतामेति न च तत्रास्त्यमूढता ।

यतोऽभियोग संस्पर्शात्त दासीदिति निश्चयः ॥ १२ ॥

अतस्तत्कृत्रिमं ज्ञेयं सौषुप्तपदवत् सदा ।

न त्वेवं स्मर्यमाणत्वं तत्तत्वं प्रतिपद्यते ॥ १३॥

अर्थ – उसकी अभाव रूप से भावना नहीं करनी चाहिये क्योंकि वह मूढता के भाव जैसा नहीं है, वह तो नित्य ही उदित विदरूप से अनुभव किया के भाव जैसा नहीं है, वह तो नित्य ही उदित चिद्रूप से अनुभव किया जाता है । व्युस्थान दशा में उसका स्मरण चिरूप से ही होता है। सुषुप्ति के समान मूढ़ भाव से उसका स्मरण नहीं होता है। इसलिए उसकी नित्य अनुभव रूप या चिद्रूप से ही भावना करनी चाहिये, अचिद् या अभाव रूप से नहीं करनी चाहिये ।।१२-१३॥

साधन का विज्ञान

श्लोक – अवस्था युगलंचाऽत्र कर्य-कार्तृत्व शब्दितम् ।

कार्यता क्षयिणी तत्र कर्तृत्वं पुनरक्षयम् ॥ १४ ॥

अर्थ कार्य, कर्तृत्व संज्ञक यह द्वैत रूप अवस्था भोग्य-भोक्ता रूप है। इसमें जब भोग्य रूप कार्य का लय हो जाता है तो भोक्ता रूप कर्तृत्व का भी लय हो जाता है, अर्थात् पूर्णाहंता भाव से अहमिति प्रत्यय और इदं का उदय और अस्त एक साथ ही होता है ॥ १४॥

परमार्थ प्राप्त योगी की अवस्था

श्लोक — कार्योन्मुखः प्रयत्नोयः केवलं सोऽत्रलुप्यते ।

तस्मिल्लुप्ते विलुप्तास्मीत्यबुधः प्रतिपद्यते ॥ १५ ॥

अर्थ- कार्य सम्पादन का जो बाह्य इन्द्रिय व्यापार है केवल उसका ही लोप होता है, अर्थात् वाह्य इन्द्रिय व्यापारपूर्ण स्वभाव में सामर्थ्य रूप से लुप्त होने से उसको साधक जड़ प्रकृति में हुआ ही अनुभव करता है परन्तु भाव का नाश नहीं होता है, अर्थात् साधक अपने को चिद्रूप से ही अनुभव करता है ।। १५ ।।

तथा

इलोक – न तु योन्तर्मु खोभावः सार्वज्ञादि गुणास्पदम् ।

तस्य लोपः कदाचित् स्यादन्यस्यानुपलम्भनात् ॥१६॥

अर्थ- अन्तर्मुख चक्रारूढ़ स्वभाव के जो सर्वज्ञतादि भाव हैं, जिनके आश्रित गुण हैं उनका नाश नहीं होता है, अपितु द्वितीय के अन्य रूप से उपलब्ध न होने पर अपने स्वरूप की व्योमवत् चिरूप से सर्वत्र ही अनुभूति रहती है ।। १६ ।।

तथा

श्लोक-तस्योपलब्धिः सततं त्रिपदा व्यभिचारिणी ।

नित्यं स्यात्सुप्रबुद्धस्य तदाद्यन्ते परस्य ॥१७॥

अर्थ-उसको सर्वगत चिद्रूप की उपलब्धि जाग्रदादि तीनों पदों में बोध रूप से नित्य ही रहती है उसका कभी व्यभिचार नहीं होता है, उस प्रबुद्ध दशा का नित्य जागरण ही स्वरूप है, अर्थात् सुप्त और तुर्य के समान स्वप्न और जाग्रत दशा में त्याग भाव के द्वारा वह समान रूप से रहती है ॥ १७ ॥

तथा

श्लोक – ज्ञान ज्ञेय स्वरुपिण्या शक्त्या परमया युतः ।

पदद्वये विभुर्भाति तदन्यत्र तु चिन्मयः ॥ १८ ॥

अर्थ- ज्ञान और ज्ञेय भाव से ही भेद का संवेदन होता है। जाग्रत् और स्वप्न के दोनों पदों में यह दोनों भाव ज्ञान और ज्ञेय रूप से ही अनुभव होते हैं, परन्तु सुषुप्ति और तुर्य के दो पदों में केवल चिद्रूपता का अनुभव होता है वहां दो रूपों का भेद रूप से अनुभव नहीं होता, यानी अन्य अन्य भाव से इन दशाओं में ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती है। अथवा इन जाग्रत और स्वप्नरूप भेद मुलक दोनों पदों में वह अपने को नित्य व्यापक चिन्मय तुर्य भाव से ही अनुभव करता है और समस्त द्वैत उसी अद्वैत में ही भाषमान है, अन्यत्र नहीं ॥ १८ ॥

विज्ञान का स्वरूप

श्लोक-गुणादि स्पन्द निष्पन्दाः सामान्यस्पन्द संश्रयात् ।

लब्धात्मलाभाः सततं स्युशस्था परिपन्थिनः ॥१९॥

अर्थ – सामान्य स्पन्द में ही गुणादि स्पन्द रूप जगत् की उत्पत्ति और स्थिति है, उसी के ज्ञान से आत्म लाभ होता है क्योंकि वह उस आत्मतत्व से ही एकाकार है, अर्थात् दोनों जगत् और आत्मा का भान इसी सामान्य स्पन्द के आश्रय से होता है क्योंकि यह सामान्य स्पन्द ही दोनों को अविरोधी भाव से धारण किये हुए है। इसलिए इस सामान्य स्पन्द को ही समझ लेना चाहिये ॥१९ ॥

विज्ञान के न जानने से हानि

श्लोक – अप्रबुद्धधियस्त्वेते स्वस्थितिस्थगनोद्यताः ।

पातयन्ति दुरुत्तारे घोरे संसार वत्माने ॥२०॥

अर्थ- मूढ़ लोग उस ( सामान्य स्पन्द ) की चिरूप से भावना नहीं करते हैं, इसी कारण गुणों से प्रभावित घोर संसार में पतित होते हैं, अर्थात् चिद्रूप से उसका विचार छोड़ देने से मूढ़ लोग गुणरूप संसार में विषम रूप में संसरण करते हैं। इसलिए नित्य ही आत्मा का चिद्रूप से चिन्तन करते रहना चाहिये ॥२०॥

साधन की सरलता बताना

श्लोक-अतः सततमुद्युक्तः स्पन्दतत्त्व विविक्तये ।

जाग्रदेव निजभावमचिरेणाधिगच्छति ॥२१॥

अर्थ – अतः सतत् सर्वदा ही स्पन्दतत्त्व के स्वस्वरूप की अभिव्यक्ति के लिए उद्योग करते रहना चाहिये। जिससे वह जाग्रद् अवस्था में ही अपने आत्मा के तुर्य भोक्ता स्वभाव से उसकी इस प्रकार शीघ्र ही प्राप्ति हो जाती है ॥२१॥

दूसरा प्रकार

श्लोक – अति क्रुद्धः प्रहृष्टो वा किं करोमीति वा मृशन् ।

धावन्वायत्पदं गच्छेतत्र स्पन्दः प्रतिष्ठितः ॥२२॥

अर्थ-द्वेष के उत्कर्ष में अथवा अत्यन्त हर्ष होने पर अथवा क्या करें क्या न करें ?’ इस विचार की अवस्था में यदि उस समय गुरु उपदेशानुसार सामान्य स्पन्द की अवस्था में उतरा जाय तो भी एकाग्रता के कारण उसमें आत्म लाभ प्राप्त होकर वह उसमें प्रतिष्ठित हो जाता है ॥२२॥

प्रबुद्ध दशा का वर्णन

श्लोक — यामवस्थां समालम्व्ययदाऽयं ममवक्ष्यति ।

तद्वश्टांकरिष्येऽहमति सङ्कल्प्य तिष्ठति ॥२३॥

तामाश्रित्योर्ध्वमार्गेण सोम-सूर्या वुभावपि ।

सौषुम्णेऽध्वन्यस्तमितो हित्वा ब्रह्माण्ड गोचरम् ॥२४॥

तदा तस्मिन् महाव्योम्नि प्रलीन शशि भास्करे ।

सौषुप्त पद वन्मूढः प्रबुद्धः स्यादनावृतः ॥२५॥

अर्थ- समान्य स्पन्दतत्त्व में अधिष्ठित होकर यदि कोई दृढ़ संकल्प से ऐसा निश्चय करता है कि वह इस स्पन्दतत्त्व में ही अपने को प्रतिष्ठित करेगा तो वह उसके ही आश्रय से शरीर में सोम-सूर्य प्रतीक रूप इड़ा-पिङ्गला नाड़ियों को मध्य नाड़ी सुषुम्ना में अस्त करके शरीर मार्ग, यानी जगत् में आवागमन का साधन जो शरीर है उसके प्रवाह को छोड़कर ऊर्ष मार्ग से ब्रह्म भाव में प्रवेश कर जाता है। क्योंकि ऊपर १९ वें श्लोक में बताया है कि सामान्य स्पन्द ही लोक और परलोक, अर्थात् गुण स्पन्द और ब्रह्म तत्व दोनों का समान रूप से निरविरोध आधार है। इसलिये उस महाव्योम में जब प्रत्यय ज्ञान स्थगित हो जाता है जिसके हेतु ही शशि और भास्कर हैं। क्योंकि यह शशि और भास्कर का स्वभाव ही इस द्वैत के ज्ञान रूप में व्यक्त होता है इसलिये इनके अस्त हो जाने से जब वह सम्यक् वृत्ति में स्थित होकर जो स्वप्नादि में मोहित करने वाली वृत्ति है, जब उसका निरोध हो जाता है तो वह फिर जो अनावृत रूप प्रबुद्ध दशा है उसे प्राप्त हो जाता है ।।२३-२४-२५।।

इति स्वरूपस्पन्दः प्रथम निष्पन्दः (स्पन्दकारिका प्रथम प्रकरण) ।

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