महर्षि विश्वामित्र की कथा Story of maharishi vishvamitra in hindi विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कैसे बने
गुरु विश्वामित्र कौन थे who was Guru vishvamitra
गुरु विश्वामित्र वास्तविक नाम राजा कौशिक था जो एक महान, प्रतापी, तथा प्रजावत्सल राजा थे। कई पौराणिक ग्रंथों के आधार पर बताया जाता है,
कि कुशिक वंशीय राजा थे प्रजापति तथा उनके पुत्र कुश थे और कुश के पुत्र हुये कुशनाभ और इन्ही कुशनाभ के पुत्र हुये थे गाधि,
और महान तेजस्वी राजा गाधि के पुत्र हुए विश्वामित्र जो सौ पुत्रों के पिता और एक पराक्रमी शक्तिशाली राजा थे। अतः गुरु विश्वामित्र जन्म से ब्राह्मण नहीं थे वे क्षत्रिय राजा थे।
गुरु विश्वामित्र ने कई वर्षो तक सफलतापूर्वक राज्य किया उनके राज्य में प्रजा ख़ुशी से रह रही थी इसलिए विश्वामित्र उस समय के सर्वश्रेष्ठ राजाओं में गिने जाते थे।
महर्षि विश्वामित्र एक पराक्रमी, शक्तिशाली और एक महान तपस्वी राजा भी थे। क़्योकी उन्होंने अपने पुरुषार्थ और तपस्या के बल पर ही क्षत्रिय धर्म को त्याग कर ब्राह्मण धर्म प्राप्त किया और राजर्षि से महर्षि बने।
और ब्राह्मण बनने के पश्चात् सभी देवी- देवताओं और ऋषियों के भी पूज्य बन गए और उन्हें सप्तर्षियों में महान स्थान प्राप्त हुआ।
विश्वामित्र का राजा से महर्षि बनना vishwamitra to become Maharishi from the king
गुरु विश्वामित्र ने ब्राह्मणत्व प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की। लेकिन उनकी तपस्या को भंग करने के लिए कई प्रकार के विध्न डाले गए
लेकिन गुरु विश्वामित्र ने बिना क्रोध किए उन सबको सहन किया और अपनी तपस्या में लीन रहे।
यह बात उस समय की है जब एक बार गुरु विश्वामित्र तपस्या समाप्त करने के पश्चात भोजन करने के लिए बैठे ही थे, कि अचानक एक भिक्षुक याचक के रूप में उनके द्वार आया और उनसे भोजन माँगने लगा
जबकि यह भिक्षुक कोई और नहीं स्वयं देवराज इंद्र थे। गुरु विश्वामित्र ने देवराज इंद्र को भिक्षुक समझ अपना सारा भोजन दे दिया और सोचा शायद अभी उनकी तपस्या की अवधि समाप्त नहीं हुई है।
इसलिए ईश्वर ने इस याचक को मेरे पास भेजा है। इसके पश्चात श्वांस रोककर कठोर तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया। उनकी इस तपस्या से सारा ब्रह्मांड कांप रहा था तपस्या के कारण उनका प्रताप चारों दिशाओं में प्रकाशित हो रहा था।
जिसे देखकर देवताओ ने ब्रह्मा जी से विनती की -हे ब्रम्हदेव! गुरु विश्वामित्र अब क्रोध और मोह की सीमा से परे हैं और तपस्या की चरम सीमा को भी पार कर चुके हैं।
उनकी तपस्या के तेज से स्वयं सूर्य और चंद्रमा का प्रकाश फीका पड़ गया हैं। अब आपको विश्वामित्र की इक्षा पूरी कर देनी चाहिए देवताओ की विनती सुनके बह्मा जी ने विश्वामित्र को दर्शन दिये
और ब्राह्मण की उपाधि प्रदान की। किन्तु विश्वामित्र जी ने ब्रह्मा जी से कहा हे ब्रह्मदेव! मैं अपने आपको ब्राह्मण तभी समझुँगा जब मुनि वशिष्ठ मुझे ब्राह्मण और महर्षि समझेंगे
विश्वामित्र जी से सहमत होकर सभी देवता वशिष्ठ जी के पास पहुँचे और उन्हें सारी कहानी सुना कर उनसे आग्रह किया कि वे विश्वामित्र से जाकर मिले और उनकी इक्षा पूर्ण करें
तब वशिष्ठ जी विश्वामित्र के पास गए और कगले से लगाया तथा कहा वास्तव में आप ब्रह्मर्षि है. आज में और समस्त लोक आपको ब्राह्मण स्वीकार करते है ।
विश्वामित्र के माता-पिता का नाम Perents name of vishvamitra
विश्वामित्र महान राजा कुशिक वंशीय गाधि (कुशाश्व) के पुत्र थे और इनकी माता पुरुकुत्स की कन्या थी। विश्वामित्र का जन्म उनकी बहिन सत्यवती के पति ऋषि ऋषीक के वरदान स्वरूप हुआ था। जो पहले क्षत्रिय तथा बाद में ब्राह्मण कहलाये।
विश्वामित्र की जन्म कथा Birth story of vishvamitra
महर्षि विश्वामित्र का जन्म कार्तिक शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि में उनकी बहिन सत्यवती के पति ऋषि ऋषीक के वर के फलस्वरूप हुआ था।
महर्षि विश्वामित्र ने क्षत्रिय कुल में जन्म लिया था। किन्तु अपने परुषार्थ और तप के बल से ब्रम्हदेव से ब्राह्मणत्व की उपाधि प्राप्त कर स्वयं महर्षि वशिष्ठ तथा तीनों लोकों ने ब्राह्मण स्वीकार किया।
विश्वामित्र और मेनका की कहानी Story of Menka and vishvamitra
एक बार महर्षि विश्वामित्र वन में कठोर तपस्या में लीन थे, बाहरी दुनियाँ का उन्हें कुछ आभास भी नहीं था, जिसके परिणामस्वरूप देवराज इंद्र का सिंहासन हिलने लगा
और इंद्र को अपने इन्द्रासन खोने का डर सताने लगा इसलिए इन्द्र ने अप्सरा मेनका को धरती पर जाकर महर्षि विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए भेजा
उस समय तक महर्षि विश्वामित्र ने काम को पूरी तरह वश में कर लिया था। इसलिए मेनका के रूप और सौन्दर्य का उनपर कोई असर नहीं पड़ा।
किन्तु कामदेव की मदद मेनका तपस्या भंग करने में सफल हो गयी । किन्तु दोंनो के ह्रदय में प्रेम के अंकुर फूटने लगे और विश्वामित्र तथा मेनका ने शादी कर ली
और शांति से रहने लगे कुछ समय पश्चात् मेनका ने सोचा अगर में अब यहाँ से जाती हुँ तो महर्षि विश्वामित्र फिर से तपस्या करने लगेंगे इस कारण मेनका महर्षि के साथ गृहस्थ जीवन व्यतीत करने लगी
और मेनका ने एक सुन्दर पुत्री को जन्म दिया जिसका नाम शकुंतला रखा गया वे तीनों ख़ुशी-ख़ुशी जीवन व्यतीत कर ही रहें थे, की
एक दिन मेनका इन्द्र का आदेश मानकर ना चाहते हुये महर्षि तथा पुत्री शकुंतला को छोड़कर देवलोक चली गयी।
विश्वामित्र तथा गुरु वशिष्ठ कथा Story of vishvamitra and vashishth
विश्वामित्र महर्षि बनने से पहले राजा हुआ करते थे जिनका नाम राजा कौशिक था। राजा कौशिक बड़े ही प्रजावत्सल थे,
एक दिन विश्वामित्र पृथ्वी भ्रमण करने के लिए अपनी सेना सहित निकले और एक जंगल में पहुँच गए।
जहाँ पर महर्षि वशिष्ठ का आश्रम था।
उस समय महर्षि वशिष्ठ यज्ञ कार्य में व्यस्त थे। राजा कौशिक महर्षि वशिष्ठ को प्रणाम करके वहाँ बैठ गए। यज्ञ संपन्न होने के बाद महर्षि ने राजा कौशिक का आदर सत्कार किया
तथा कुछ दिनों तक रहकर उनका आतिथ्य स्वीकार करने के लिए के लिए कहा पहले तो अपनी विशाल सेना देखकर राजा कौशिक संकोच में पड़ गए
लेकिन महर्षि वशिष्ठ के आग्रह करने पर राजा कौशिक कुछ दिनों के लिए उनका आतिथ्य में रहें
महर्षि विशिष्ठ ने राजा का का आदर सत्कार सेना सहित बड़ी अच्छे तरीके से किया तो राजा कौशिक महर्षि वशिष्ठ से बड़े प्रभावित हुये और बोले – हे महर्षि!
आपने हमारी इतनी विशाल सेना का आदर सत्कार किया उन्हें भोजन कराया उसके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हुँ, लेकिन में यह जानने के लिए उत्सुक हुँ,
कि आपने इतनी बड़ी सेना का सत्कार कैसे किया? उन्हें कैसे खाना खिलाया? महर्षि वशिष्ठ बोले – हे राजन! मेरे पास कामधेनु गाय की पुत्री नंदनी है
जो मुझे भगवान इंद्रदेव ने दी थी उसी कामधेनु नंदनी द्वारा आप सभी का आदर सत्कार तथा भोजन प्राप्त हुआ है।
लेकिन महाराज कौशिक के मन में उस गाय को प्राप्त करने की लालसा उत्पन्न होने लगी और उन्होंने महर्षि से कहा – हे महर्षि!
आप इस गाय का क्या करेंगे? इस गाय को तो राजा, महाराजाओं के पास होना चाहिए। कृपया करके आप मुझे इस गाय को दे दीजिये। जितना आप कहेँगे उतनी स्वर्ण मुद्राएँ आपको दे दूँगा।
लेकिन महर्षि वशिष्ठ ने मना कर दिया उन्होंने कहा कि यह मेरी गाय है। जो मुझे प्राणों से प्रिय है ये मेरे लिए अनमोल है अर्थात इसका कोई मोल नहीं है।
मैं इसे अपने से अलग नहीं होने दूँगा
यह सुनकर राजा कौशिक को अपना अपमान महसूस हुआ और उन्होंने अपनी सेना को आज्ञा दी कि इस गाय को जबरदस्ती ले चलो
विश्वामित्र की सेना के सैनिक गाय को हाँकने और मारने पीटने लगे तो गाय रोने लगी और महर्षि से से बोली – हे महर्षि! मेरी रक्षा कीजिए।
महर्षि बोले में विवश हुँ एक तो यह राजा मेरे आतिथ्य में हैं और दूसरा हम इसके राज्य में रहते है इसलिए मैं इस पर हाथ नहीं उठा सकता हुँ। तुम स्वयं अपनी रक्षा करो।
गाय ने कहा ठीक है, मैं ही अपनी रक्षा करती हुँ और देखते – देखते गाय ने राजा कौशिक से भी विशाल सेना प्रकट कर दी और कुछ समय में ही राजा कौशिक की सेना को परास्त कर दिया तथा राजा को बंदी बनाकर महर्षि के सामने पेश कर दिया।
बंदी बनने के बाद भी राजा कौशिक ने महर्षि पर आक्रमण किया यह सब देख महर्षि बड़े ही रुष्ट हुये और उन्होंने राजा के एक पुत्र को छोड़कर सभी पुत्रों को श्राप से भस्म कर दिया।
राजा कौशिक पश्चाताप की अग्नि में जलने लगे तथा अपना राजपाट अपने पुत्र को सौंपकर कठोर तपस्या में लीन हो गए।
उन्होंने कठोर तपस्या करके अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किये और बदला लेने के लिए महर्षि वशिष्ठ पर फिर से आक्रमण कर दिया लेकिन इस बार फिर महर्षि वशिष्ठ ने विश्वामित्र
के सभी अस्त्र-शस्त्र काट दिए दोंनो महाऋषियों ने इस युद्ध में अपने-अपने पुत्रों को खो दिया और महर्षि विश्वामित्र को आभास हो गया की क्षत्रियत्व से ब्राह्मणतत्व श्रेष्ठ है
और फिर विश्वामित्र ब्राह्मणत्व प्राप्त करने के लिए तपस्या में लीन हो गए।
गुरु विश्वामित्र का रामायण में योगदान Guru Vishwamitra’s contribution to Ramayana
ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लेने के बाद महर्षि विश्वामित्र ने अस्त्र शस्त्र का त्याग कर दिया।
तथा वन प्रदेश में अपने शिष्यों के साथ प्रभु की भक्ति में लीन रहते लगे ।
किन्तु कुछ राक्षस यज्ञ स्थल पर पहुँच कर यज्ञ भंग तथा ऋषि मुनियो को मारकर खा जाते थे। ये सब देखकर महर्षि विश्वामित्र को बहुत दुख होता था
क़्योकी गुरु विश्वामित्र उन राक्षसों का सामना करने में समर्थ थे किन्तु अस्त्र-शस्त्र त्यागने के कारण विवश हो जाते थे।
अंततः गुरु विश्वामित्र महारजा दशरथ के पास गए तथा उनसे अनुरोध करके उनके पुत्र राम और लक्ष्मण को लेकर वन पहुँचे जहाँ पर राम ने तड़का और सुबाहु जैसे राक्षसों का वध कर उन्हें यमलोक भेज दिया।
इसके पश्चात गुरु विश्वामित्र राम लक्ष्मण को लेकर जनकपुरी पहुँचे जहाँ सीता स्वयंवर का आयोजन हो रहा था।
गुरुवर विश्वामित्र की आज्ञा से भगवान श्रीराम ने शिव धनुष भंग कर दिया और राम – सीता विवाह के साथ महाराज दशरथ के तीनों पुत्र लक्ष्मण, भरत और शत्रुध्न का भी विवाह हुआ।
विश्वामित्र और वशिष्ठ का युद्ध क्यों हुआ
विश्वामित्र जन्म से ब्राह्मण नहीं थे इनका जन्म छत्रिय वंश में हुआ था। विश्वामित्र का पूर्व नाम था राजा कौशिक, राजा कौशिक बहुत ही दयालु व प्रजा पालक राजा थे। एक बार वे अपनी विशाल सेना के साथ जंगल में निकल गए। रात्रि का समय हो जाने के कारण वहां रुकना चाहते थे। और रास्ते में ही गुरु वशिष्ठ का आश्रम पडता था।
अपनी विशाल सेना के साथ वह रात्रि में गुरु वशिष्ठ के आश्रम में रुके। आश्रम में उनको और उनकी सेना को 56 प्रकार के व्यंजनों से खानपान की व्यवस्था वशिष्ठ मुनि द्वारा की गई। खाने में सभी प्रकार के व्यंजन अत्यंत स्वादिष्ट और सुगंधित थे। उन्हें यह आश्चर्य हो रहा था कि हमारे साथ इतनी विशाल सेना को भोजन एक आश्रम में इतनी शीघ्र कैसे उपलब्ध हो गया।
फिर उन्होंने गुरु वशिष्ठ से कहा मुनिवर मैं जानना चाहता हूं कि मेरी विशाल सेना को भरपेट भोजन उपलब्ध कराया गया। यह आपके आश्रम में कैसे संभव हो पाया। तब वशिष्ठ जी ने कहा कि मेरे पास एक नंदिनी गाय है। जो कामधेनु की पुत्री है। इसे देवराज इंद्र ने मुझे भेंट किया था ।यह नंदिनी गाय की कृपा से ही आप लोगों को और आश्रम के सभी लोगों को भोजन उपलब्ध होता है।
नंदिनी गाय का ऐसा चमत्कार देख कर के राजा कौशिक के मन में लालच उत्पन्न हो गया। राजा कौशिक ने वशिष्ठ मुनि से गाय को देने के लिए निवेदन किया। तब वशिष्ठ मुनि ने कहा कि राजन यह गाय मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्यारी है।
इसी के द्वारा आश्रम में सभी लोगों का पेट भरता है। और आश्रम में आने वाले आगंतुकों की सेवा भी होती है। इसलिए यह गाय मैं आपको नहीं दे सकता। राजा कौशिक ने मुनि के मना करने पर अपना अनादर समझा। और अपने सैनिकों को आदेश दिया कि इस गाय को बलपूर्वक छीन लें।गाय को छीनने के लिए जैसे ही सैनिक गाय की तरफ बढ़े तब उस नंदिनी गाय ने गुरु वशिष्ठ की ओर देखते हुए कहा कि मुनिवर मेरी रक्षा कीजिए।तब वशिष्ठ मुनि ने कहा कि यह मेरे अतिथि हैं मैं इनके ऊपर कोई प्रहार नहीं कर सकता अब आप अपनी रक्षा स्वयं करें।
इस पर नंदिनी गाय ने अपने योग बल से कई हजार सैनिकों को प्रकट किया उन सैनिकों के द्वारा राजा कौशिक की समस्त सेना को परास्त किया। और राजा कौशिक को बंदी बनाकर वशिष्ठ के पास छोड़ दिया गया। कौशिक अपनी सेना के नष्ट होने से क्रोधित हो जाते हैं। और वशिष्ठ पर प्रहार कर देते हैं। तब वशिष्ठ जी क्रोध में आकर के राजा कौशिक के एक पुत्र को छोड़कर सभी को शाप देकर भस्म कर देते हैं।
अपने पुत्रों के अंत से दुखी होकर राजा कौशिक राजपाट छोड़ कर के अपना राजपाट अपने बचे हुए पुत्र को सौंपकर जंगल में तपस्या के लिए चले जाते हैं। हिमालय में घोर तपस्या करते हैं ,और तपस्या से भगवान शंकर को प्रसन्न कर लेते हैं। भगवान शंकर राजा कौशिक के समक्ष प्रकट होते हैं और वरदान मांगने के लिए कहते हैं।तब राजा कौशिक उनसे सभी दिव्य अस्त्रों का ज्ञान मांगते हैं, और भगवान भोलेनाथ उन्हें सभी दिव्य अस्त्रों से सुशोभित कर देते हैं।
धनुर्विद्या का पूर्ण ज्ञान प्राप्त होने के बाद राजा कौशिक मुनि वशिष्ठ से बदला लेने के लिए युद्ध करते हैं। लेकिन वशिष्ठ जी द्वारा उनके सभी अस्त्रों और शस्त्रों को विफल कर दिया जाता है।अंत में वशिष्ठ जी क्रोधित होकर के राजा कौशिक के ऊपर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर देते हैं। ब्रह्मास्त्र की तीव्र ज्वाला से चारों तरफ हाहाकार मच जाता है सृष्टि में उथल-पुथल मच जाती है। तब देवता गण वशिष्ठ से प्रार्थना करते हैं।आप तो राजा कौशिक से युद्ध जीत चुके हैं। आप अपना ब्रह्मास्त्र वापस ले ले। नहीं तो अनर्थ हो जाएगा। तब वशिष्ठ जी ब्रह्मास्त्र वापस ले लेते हैं।
वशिष्ट जी से मिली हार के कारण राजा कौशिक के मन में बहुत ही गहरा आघात लग जाता है। और वे समझ जाते हैं कि एक छत्रिय की बाहरी ताकत ब्राह्मण के योग की ताकत के सामने कुछ नहीं है।
ऐसा सोचकर वह प्रतिज्ञा करते हैं कि अब वह अपने तप के बल से ब्राम्हणत्व हासिल करेंगे। और वशिष्ठ से श्रेष्ठ बनेंगे।
तब वे दक्षिण दिशा में जाकर अन्न को त्याग करके घोर तपस्या करने लगते हैं। उनकी कठिन तपस्या से उन्हें राजश्री का पद प्राप्त हो जाता है। लेकिन कौशिक अभी भी संतुष्ट नहीं थे क्योंकि वह ब्रह्म ऋषि का पद प्राप्त करना चाहते थे।
विश्वामित्र ने नए स्वर्ग का निर्माण कर शरीर त्रिशंकु को स्वर्ग भेजा
राजा त्रिशंकु की इच्छा थी कि वह सशरीर स्वर्ग जाना चाहते थे। त्रिशंकु अपनी इच्छा लेकर वशिष्ठ जी के पास गए। लेकिन उनको खाली हाथ वापस लौटना पड़ा। फिर वह वशिष्ठ जी के पुत्रों के पास गए, और अपनी इच्छा व्यक्त की, तब वशिष्ठ जी के पुत्रों ने कुपित होकर उन्हें चांडाल हो जाने का श्राप दे दिया।
लेकिन त्रिशंकु इस पर भी नहीं माने और वह विश्वामित्र जी के पास चले गए। विश्वामित्र जी ने उनकी इच्छा पूर्ण करने का वचन दे दिया। अपने तपोबल के द्वारा उन्होंने त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग को भेज दिया। स्वर्ग लोक से त्रिशंकु को वापस कर दिया गया क्योंकि स्वर्ग में रहने के लिए शरीर का त्याग करना होता है।
ऐसा देख विश्वामित्र जी क्रोधित हो गए। और उन्होंने अपने तपोबल के द्वारा नए स्वर्ग का निर्माण कर दिया।
लेकिन अभी भी विश्वामित्र जी की इच्छा पूर्ण नहीं हुई थी क्योंकि वह ब्रह्मऋषि बनना चाह रहे थे।
फिर उन्होंने अपना तप करना प्रारंभ कर दिया।
ऐसा देख कर के देवता लोग परेशान हो गए। उनको अपनी सप्ता हिलती दिखाई दे रही थी।
देवराज इंद्र ने मेनका को विश्वामित्र का तप भंग करने के लिए भेजा
जब विश्वामित्र जी तपस्या कर रहे थे तब इंद्र को लगा कि अब वह वरदान में इंद्रलोक मांग लेंगे
इससे भयभीत इंद्र ने अप्सरा मेनका को विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए भेजा। मेनका अत्यंत सुंदर अप्सरा थी विश्वामित्र जी उसके सामने हार गए। मेनका को भी विश्वामित्र जी से प्रेम हो गया। और दोनों लोग कई वर्षों तक साथ साथ रहे।
कुछ समय पश्चात अप्सरा मेनका स्वर्ग लोक को वापस चली गई।
विश्वामित्र जी ने पुनः तप प्रारंभ कर दिया और अपने तपोबल के द्वारा उन्होंने ब्रह्म ऋषि का दर्जा प्राप्त किया। और वशिष्ठ जी ने उनको गले लगाया।
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